Monday, 2 April 2018

भगत सिंह का साहित्य - 23. शहादत से पहले साथियों को अन्तिम पत्र - 22 मार्च, 1931 / विजय शंकर सिंह

भगत सिंह को फांसी 23 मार्च 1931 को भोर में दी गयी थी। उन्होंने एक दिन पहले 22 मार्च 1931 को अपने साथियों के नाम अंतिम संदेश दिया था। यह उनका आखिरी पत्र है। 23 साल के ऊर्जा और मेधा से भरा यह जाज्वल्यमान नक्षत्र एक दिन बाद ही अनन्त की महायात्रा पर प्रस्थान करने वाला था। मृत्यु भी उसका हौसला डिगा न सकी। जाते जाते भी वह अपने साथियों को संघर्ष का पैगाम दे गया। अपने उन्ही साथियो को वे अपना अंतिम पत्र लिखते हैं जिनके साथ मिल कर दुनिया के सबसे बड़े और ताकतवर साम्राज्य को मिटाने और एक समतामूलक समाज की स्थापना का मंसूबा बांधते हैं। यह पत्र उन्होंने उर्दू में लिखा था। वे उर्दू, हिंदी, गुरुमुखी और अंग्रेज़ी बहुत ही अच्छी तरह लिख बोल पढ़ पाते थे। यही पत्र नही बल्कि अपने भाइयों कुलबीर सिंह और कुलतार सिंह को भी जो पत्र लिखे थे वे भी उर्दू में ही थे। उर्दू पंजाब की अधिकृत भाषा थी। यह भाषा इन्होंने बचपन से पढ़ी थी। उर्दू पंजाब के स्कूलों की सरकारी भाषा थी।

भगत सिंह से जानबूझकर अपने मुक़दमे की सुनवायी को लंबा खींचा था। उन्हें यह पता था कि उन्हें मृत्युदंड ही मिलेगा, और किसी भी सूरत में यह दंड किसी भी अपील में खत्म नहीं होगा। लेकिम ब्रिटिश न्याय व्यवस्था के पाखण्ड को उघाड़ने और उसे बेनक़ाब करने के लिये वे लम्बी सुनवायी चाहते थे। उनका मकसद पूरा हुआ। अखबारों में खूब चर्चा हुई। देश भर में वे एक जीवित आख्यान बन गये थे। अपने पत्र में वे लिखते हैं, कि, मैं अपनी कामनाओं का एक हजारवां भाग भी पूरा नहीं कर सका। यदि मैं जीवित रहता तो शायद उन्हें पूरा कर सकता। भगत सिंह ने अपने इसी पत्र में देश और मानवता का उल्लेख किया है। वे देश ही नहीं मानवता को भी शोषण और आज़ादी से मुक्त कराना चाहते थे। वह केवल भारत की आज़ादी या ब्रिटिश साम्राज्य के खात्मे तक ही सीमित नहीं थे,, बल्कि वे मानव समाज के शोषण से मुक्ति के पक्षधर थे। यही विशिष्टता उन्हें भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के सभी हुतात्माओं में एक अलग और विशिष्ट स्थान दिलाती है।
अब आप उनका यह पैगाम पढ़ें ।
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अपनी शहादत से पहले भगत सिंह का अपने साथियों को लिखा अंतिम पत्र ।

साथियो,

स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। लेकिन एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ,कि मैं कैद होकर या पाबन्द होकर जीना नहीं चाहता।

मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है- इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज नहीं हो सकता।

आज मेरी कमजोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए। लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।

हाँ, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवाँ भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतन्त्र, जिंदा रह सकता तब शायद उन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता। इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फाँसी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक भाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इन्तजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाए।
आपका साथी –

भगतसिंह
इंक़लाब ज़िंदाबाद ।
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( विजय शंकर सिंह )

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