Wednesday, 29 November 2023

सीबीआइ जज लोया की मौत पर, नौ साल बाद भी, पड़ा है रहस्य का पर्दा / विजय शंकर सिंह

प्रसिद्ध पत्रकार, निरंजन टाकले Niranjan Takle ने, सीबीआई जज, ब्रजमोहन लोया की संदिग्ध मौत पर, एक  बेहद इन्वेस्टिगेटिव किताब लिखी है, Who Killed Judge Loya. अपराध से जुड़े साहित्य और पुलिस तथा अपराध की जांच से जुड़े लोगों को यह किताब पढ़नी चाहिए। आज जज बीएम लोया की मृत्यु हुए 9 साल हो गए। यह अकेली एक महत्वपूर्ण संदिग्ध मौत है, जिसकी जांच न हो, इसलिए, महाराष्ट्र सरकार, ने देश के सबसे महंगे वकील किए और सुप्रीम कोर्ट तक यह मुकदमा लड़ा। अंत में सुप्रीम कोर्ट ने, बिना किसी जांच के ही, इस संदिग्ध मौत को, सामान्य मौत मान लिया और मुकदमे को दाखिल दफ्तर कर दिया गया। तब निरंजन टाकले की यह किताब आई और इस किताब में संदेह के जो विंदु दिए गए हैं, उससे साफ पता चलता है मौत सामान्य नहीं थी बल्कि कहीं न कहीं, कुछ ऐसी साजिश थी जो छुपाई जा रही थी। हत्या का अपराध काल बाधित नहीं होता है। जब भी इसकी तफ्तीश होती है तो, यह परत दर परत खुलने लगता है।

अब एक नज़र, इस मृत्यु जो कुछ भी संदेह के विंदु उठे हैं, उनका एक संक्षिप्त विवरण पढ़ें।

सीबीआई जज लोया के संदिग्ध मृत्यु पर कारवां मैगजीन ( Caravan ) ने बहुत विस्तार से लिखा है और उन सब कारणों और परिस्थितियों पर चर्चा की है जिससे जज लोया की हत्या या उनकी मृत्यु की संदिग्धता के संकेत मिलते हैं। संभवतः यह देश का पहला ऐसा मामला है जिसकी जांच न हो सके इसलिए सुप्रीम कोर्ट तक राज्य की फडणवीस सरकार अड़ी रही, और सुप्रीम कोर्ट ने भी, बिना किसी पुलिस जांच के ही, यह कह दिया कि मृत्यु का कारण संदिग्ध नहीं है। न एफआईआर, न तफतीश, न पुलिस द्वारा मौका मुआयना, न फोरेंसिक जांच, न पूछताछ, न चार्जशीट और न फाइनल रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया। अदालत का, जांच और विवेचना के कानूनी मार्ग से अलग हट कर  सीधे इस निष्कर्ष पर कि, कोई अपराध नहीं हुआ ' पहुंचना हैरान करता है।

महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार ने हर संभव कोशिश की, कि जज लोया के मृत्यु की जांच न हो। सरकार का किसी अपराध के मामले में जांच न होने देने के प्रयास से ही सरकार की उस मामले में रुचि का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। मृतक एक जज है, वह अचानक एक गेस्ट हाउस में बीमार पड़ता है और उसे तुरंत अस्पताल ले जाया जाता है जहां उसकी मृत्यु हो जाती है। वह गेस्ट हाऊस में अकेले भी नहीं है। उसके साथ चार अन्य जज भी है। यह एक सामान्य और दुर्भाग्यपूर्ण हृदयाघात का मामला भी हो सकता है और कुछ इसे संदिग्ध भी कह सकते हैं। जब तक यह जांच न हो जाय कि, यह एक सामान्य हृदयाघात था, या यह मृत्यु किसी अपराध का परिणाम है, तब तक बिना जांच के कोई भी अदालत इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंच सकती है कि कोई अपराध ही नहीं हुआ है और मृत्यु स्वभाविक है ।

देश के आपराधिक न्याय तँत्र में केवल न्यायपालिका ही नहीं आती है, बल्कि पुलिस भी इसका एक महत्वपूर्ण अंग है। कानून में किसी भी संज्ञेय अपराध की जांच करने के लिये सीआरपीसी के अंतर्गत पुलिस को पर्याप्त अधिकार दिए गए हैं। उसे किसी से भी पूछने की ज़रूरत नहीं है। तलाशी, जब्ती, और गिरफ्तारी, ( सर्च सीजर, और ऐरेस्ट ) किसी भी आपराधिक मुक़दमे में जांच या तफतीश करने के लिये पुलिस की कानूनी शक्तियां  है। यह शक्तियां इसलिए पुलिस को दी  गयी हैं ताकि पुलिस अपराध की तह तक जाकर अपराध का रहस्य खोल सके और मुल्ज़िम को पकड़ सके, और उसे विश्वसनीय सुबूतों के साथ अदालत में प्रस्तुत कर सके । पुलिस की विवेचना में अदालतें दखल नहीं देती हैं। वे मुल्ज़िम की गिरफ्तारी पर जमानत आदि के मामले में भी सुनवायी करते समय, केस के मेरिट पर नहीं जाती हैं। उनका काम तभी शुरू होता है जब पुलिस आरोप पत्र या अंतिम आख्या अदालत में दाखिल कर दे।

अब थोड़ा जज लोया की मृत्यु और फिर उस बारे में अदालती कार्यवाही पर नज़र डालते हैं। दिसंबर, 2014 में जज ब्रजमोहन लोया की मृत्यु, नागपुर में हुई थी। तब उस मृत्यु को  संदिग्ध माना गया था। जज लोया  गुजरात के सोहराबुद्दीन शेख के मामले की सुनवाई कर रहे थे। 2005 में सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी कौसर की मौत, एक मुठभेड़ के दौरान हो गयी थी। इस मुठभेड़ के फर्जी होने का आरोप था।

इसी मामले में, एक गवाह तुलसीराम की भी मौत हो गई थी। इस हाई प्रोफाइल मामले से जुड़े ट्रायल को सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में ट्रांसफर कर दिया था। आरोप था कि गुजरात मे हो सकता है, इस मामले में जज पर कोई दबाव हो। इस मामले की सुनवाई, पहले जज उत्पल कर रहे थे, बाद में उनका तबादला हो गया और जज लोया के पास इस मामले की सुनवाई आई थी। दिसंबर, 2014 में जस्टिस लोया की नागपुर में मृत्यु हो गई । तब भी जज लोया की मृत्यु को संदिग्ध कहा गया था। जज लोया की मौत के बाद जिन जज साहब को इस मामले की सुनवाई मिली उन्होंने अमित शाह को लगाए गए आरोपों से बरी कर दिया था । सरकार ने आरोपो से बरी करने के बावजूद हाईकोर्ट में अपील तक नहीं की। यही इस बात का प्रमाण है कि सरकार की भूमिका इस मामले में थोड़ी अलग है।

जज लोया की मृत्यु को संदिग्ध बताते हुए कुछ लोगों ने, घटना की निष्पक्ष जांच कराने की मांग सरकार से की और सरकार द्वारा कोई कार्यवाही न किये जाने पर अदालतों की भी शरण ली। सुप्रीम कोर्ट में भी इस संदर्भ में, पीआईएल दायर की गयीं। इन याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में, जांच का कोई आधार न पाते हुये, किसी भी जांच का आदेश नहीं दिया और याचिका खारिज कर दी। कोर्ट ने कहा कि " इस मामले के जरिए न्यायपालिका को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है। '

हाल ही में कुछ समय पहले एक मैग्जीन ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया था कि जस्टिस लोया की मौत साधारण नहीं थी बल्कि संदिग्ध थी। जिसके बाद से ही यह मामला दोबारा चर्चा में आया। लगातार इस मुद्दे पर राजनीतिक बयानबाजी भी जारी रही। हालांकि, जज लोया के बेटे अनुज लोया ने प्रेस कांफ्रेंस कर इस मुद्दे को उठाने पर नाराजगी जताई थी। अनुज ने कहा था " कि उनके पिता की मौत प्राकृतिक थी, वह इस मसले को बढ़ना देने नहीं चाहते हैं। " अपराध के मामले में जांच हो यह अपराध की प्रकृति और परिस्थितियों पर निर्भर करता है न कि अपराध से पीड़ित घर वालों या वारिस पर। अपराध की जांच हो, अभियुक्त को सज़ा मिले यह जिम्मेदारी राज्य की है। घर भर अगर लिख कर दे दे कि, वे किसी मामले में जांच या कार्यवाही नहीं चाहते हैं, तो भी उस मामले की, अगर कोई अपराध का होना पाया गया है तो, जांच होगी ही। यह मैं नहीं कह रहा हूँ, कानूनी प्राविधान है, यह।

सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायमूर्तियों ने मुख्य न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के संबंध में जब देश के इतिहास में पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी, तब इन न्यायमूर्तियों ने खुले तौर पर जज लोया के केस की सुनवाई को लेकर अपनी आपत्ति उठाई थी। इन न्यायमूर्तियों की उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में, यह भी एक शिकायत थी  कि " मुख्य न्यायाधीश सभी अहम मुकदमें खुद ही सुन लेते हैं यानी मास्टर ऑफ रोस्टर होने का फायदा उठाते हैं। "

सीबीआई जज बीएम लोया की मौत के मामले में स्वतंत्र जांच की जाए या नहीं, इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने दायर याचिकाओं पर अपना फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने एसआईटी की जांच वाली मांग की याचिका को ठुकरा दिया. साथ ही याचिकाकर्ता को फटकार लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एसआईटी जांच की मांग वाली याचिका में कोई दम नहीं है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए एम खानविलकर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड की बेंच ने यह मामला सुना था। इस याचिका में, कोर्ट को तय करना था कि लोया की मौत की जांच एसआइटी से कराई जाए या नहीं।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि "जजों के बयान पर हम संदेह नहीं कर सकते।" अदालत ने इस मामले को राजनीतिक लड़ाई का मैदान बनाने पर भी आपत्ति की। कोर्ट ने माना है कि "जज लोया की मौत प्राकृतिक है।" कोर्ट ने यह भी कहा कि "जनहित याचिका का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।"

सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में जो कहा उसे संक्षेप में आप यहां पढ़ सकते हैं,
● जज लोया की मौत प्राकृतिक थी.
● सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग की आलोचना की।
● सुप्रीम कोर्ट ने कहा, पीआईएल का दुरुपयोग चिंता का विषय है।
● याचिकाकर्ता का उद्देश्य जजों को बदनाम करना है।
● यह न्यायपालिका पर सीधा हमला है।
● राजनैतिक प्रतिद्वंद्विताओं को लोकतंत्र के सदन में ही सुलझाना होगा।
● पीआईएल, शरारतपूर्ण उद्देश्य से दाखिल की गई, यह आपराधिक अवमानना है।
● हम उन न्यायिक अधिकारियों के बयानों पर संदेह नहीं कर सकते, जो जज लोया के साथ थे।
● ये याचिका आपराधिक अवमानना के समान है और  याचिका सैंकेंडलस है, लेकिन हम कोई कार्रवाई नहीं कर रहे।
● याचिकाकर्ताओं ने याचिका के जरिए जजों की छवि खराब करने का प्रयास किया।
● यह सीधे सीधे न्यायपालिका पर हमला.
● जनहित याचिकाएं जरूरी लेकिन इसका दुरुपयोग चिंताजनक है।
● कोर्ट कानून के शासन के सरंक्षण के लिए है।
● जनहित याचिकाओं का इस्तेमाल एजेंडा वाले लोग कर रहे हैं।
● याचिका के पीछे असली चेहरा कौन है पता नहीं चलता।
● तुच्छ और मोटिवेटिड जनहित याचिकाओं से कोर्ट का वक्त खराब होता है।
● हमारे पास लोगों की निजी स्वतंत्रता से जुड़े बहुत केस लंबित हैं.

जबकि इसी मामले की शुरुआती सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि
" यह मामला गंभीर है और एक जज की मौत हुई है। हम मामले को गंभीरता से देख रहे हैं और तथ्यों को समझ रहे हैं। अगर इस दौरान अगर कोई संदिग्ध तथ्य आया तो कोर्ट इस मामले की जांच के आदेश देगा। सुप्रीम कोर्ट के लिए यह बाध्यकारी है। हम इस मामले में लोकस पर नहीं जा रहे हैं। चीफ जस्टिस ने दोहराया कि पहले ही कह चुके हैं कि मामले को गंभीरता से ले रहे हैं।"

सीबीआई जज बीएच लोया की मौत की स्वतंत्र जांच को लेकर दाखिल याचिका पर महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार ने जांच का पुरजोर विरोध किया था। महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने कहा कि
" इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को जजों को सरंक्षण देना चाहिए। ये कोई आम पर्यावरण का मामला नहीं है जिसकी जांच के आदेश या नोटिस जारी किया गया हो. ये हत्या का मामला है और क्या इस मामले में चार जजों से संदिग्ध की तरह पूछताछ की जाएगी। ऐसे में वो लोग क्या सोचेंगे जिनके मामलों का फैसला इन जजों ने किया है. सुप्रीम कोर्ट को निचली अदालतों के जजों को सरंक्षण देना चाहिए।

महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश मुकुल रोहतगी ने कहा कि
" ये याचिका न्यायपालिका को स्कैंडलाइज करने के लिए की गई है।  ये राजनीतिक फायदा उठाने की एक कोशिश है। सिर्फ इसलिए कि इस मामले में सत्तारूढ पार्टी के एक बड़े नेता का नाम आ रहे हैं, यह सब आरोप लगाए जा रहे हैं, प्रेस कांफ्रेस की जा रही है। अमित शाह के आपराधिक मामले में आरोपमुक्त करने को इस मौत से लिंक किया जा रहा है। उनकी मौत के पीछे कोई रहस्य नहीं है.  इसकी आगे जांच की कोई जरूरत नहीं है। लोया की मौत 30 नवंबर 2014 की रात को हुई थी और तीन साल तक किसी ने इस पर सवाल नहीं उठाया.। यह सारे सवाल कारवां की नवंबर 2017 की खबर के बाद उठाए गए । जबकि याचिकाकर्ताओं ने इसके तथ्यों की सत्यता की जांच नहीं की।  29 नवंबर से ही लोया के साथ मौजूद चार जजों ने अपने बयान दिए हैं और वो उनकी मौत के वक्त भी साथ थे. उन्होंने शव को एंबुलेंस के जरिए लातूर भेजा था।  पुलिस रिपोर्ट में जिन चार जजों के नाम हैं उनके बयान पर भरोसा नहीं करने की कोई वजह नहीं है। इनके बयान पर भरोसा करना होगा। अगर कोर्ट इनके बयान पर विश्वास नहीं करती और जांच का आदेश देती है तो इन चारों जजों को  सह साजिशकर्ता बनाना पड़ेगा. जज की मौत दिल के दौरे से हुई और 4 जजों के बयानों पर भरोसा ना करने की कोई वजह नहीं है। याचिका को भारी जुर्माने के साथ खारिज किया जाए। "

सुप्रीम कोर्ट में दो बड़े वकील हरीश साल्वे और मुकुल रोहतगी की ऊपर दी गयी दो दलीलें पढिये। उनका जोर इस विंदु पर अधिक था कि,
● जो चार जज अंतिम समय मे जज लोया के साथ थे, उन्होंने लोया की मृत्यु में कोई संदिग्धता नहीं देखी। अतः उनका कथन माना जाना चाहिये।
● अगर जांच या विवेचना के दौरान, उन जजों से पूछताछ होगी तो इससे जनता में उनके प्रति अविश्वास होगा विशेषकर उन लोगों में जिनके मुक़दमे उन जजों ने निपटाए है।
● इससे न्यायपालिका पर अविश्वास होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने भी इन चार साथी जजों के कथन पर पूरी तरह से भरोसा किया और यह मान लिया कि मृत्यु के संदिग्ध माने जाने का कोई कारण नही है और जांच करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि याचिका राजनैतिक कारणो से दायर की गयी है। यह बाद निराधार नहीं है। वह याचिका राजनैतिक कारणों से भी चूंकि उसमे सरकार के एक बड़े नेता पर संदेह की सुई जा रही थी इसलिए दायर की गयी है, यह मान भी लिया जाय तो जिस तरह से महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार, येन केन प्रकारेण जज लोया के प्रकरण की जांच नहीं होने देना चाहती थी, क्या राजनीति से प्रेरित नहीं है ?

सुप्रीम कोर्ट का, केवल जजों के बयान पर भरोसा करके यह मान बैठना कि, चूंकि जब उन साथी जजों ने मृत्यु में कोई संदिग्धता नहीं बतायी है अतः जांच का कोई आधार नहीं है, एक खतरनाक परंपरा को जन्म दे सकता है। क्या यह फैसला एक नज़ीर के तौर पर नहीं देखा जाएगा कि जिस मामले में कोई जज गवाह हों तो उन मामलो की तफतीश करने की ज़रूरत ही नहीं क्योंकि गवाह जज ने जो कहा है उसे कैसे नकार दिया जाय !

भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1861 में शायद ऐसा कोई प्राविधान नही है जिसमे गवाह की हैसियत से उपस्थित जज साहब की बात को विवेचना में सुबूत के रूप में, माना जाना अनिवार्य है। एक सम्मानजनक पद और कानून के जानकार होने के नाते, एक जज अगर किसी मामले में गवाह है तो उसके बयान की सत्यता का अंश ज़रूर अधिक होगा पर मात्र उसी के बयान पर, एक मृत्यु जिसकी संदिग्धता के संबंध में बार बार सवाल उठाया जा रहा हो, के केस का निपटारा नहीं किया जा सकता है। इस केस में गवाह अगर साथी जज थे तो मृतक भी एक जज थे और जिस मुक़दमे की वह सुनवाई कर रहे थे वह मुक़दमा भी अत्यंत महत्वपूर्ण था।

अपराध का नियंत्रण, अन्वेषण और अभियोजन यह राज्य का कार्य है। इसीलिए सारे मुक़दमे बनाम राज्य ही अदालतों में जाते हैं। सरकारी वकीलों की लंबी चौड़ी फौज जो मजिस्ट्रेट की अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक नियुक्त रहती है उसका काम ही है कि वह आपराधिक मामले में मुल्जिमों को सज़ा दिलाएं। और यह क्रम सुप्रीम कोर्ट तक अपील दर अपील बना रहे।  लेकिन जज लोया के मामले में राज्य की भूमिका अपराध अन्वेषण की ओर कम अपने राजनैतिक स्वार्थ की ओर अधिक थी। इस स्वार्थ का कारण भी छिपा नहीं है।  इस मामले में होना तो यह चाहिये था कि राज्य सरकार अपराध शाखा या किसी भी अन्य एजेंसी से स्वयं जांच करा लेती और जो भी निष्कर्ष निकलता उसे सक्षम न्यायालय में जैसे अन्य आपराधिक मामले जाते हैं, प्रस्तुत कर देती, और जो भी न्यायिक प्रक्रिया होती वह नियमानुसार पूरी की जाती। पर इस मामले में महाराष्ट्र सरकार ने पूरी कोशिश की कि, यह मामला दफन हो जाय। यह कोशिश ही यह सन्देह मज़बूत करती है कि जज लोया की मृत्यु में कुछ न कुछ, कहीं न कहीं असंदिग्धता है।

न्याय से वंचित करना भी न्याय और न्यायालय की अवमानना होती है। लोया और कलिखो पुल के मामले में ऐसा ही हुआ है। सरकार, इन तीनों मामलो में गहराई से जांच कराए और सत्य को सामने लाये। यह सारे तर्क, बहस और संदेह के विंदु अब भी अनुत्तरित है।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Saturday, 25 November 2023

तेजस, एचएएल HAL और राफेल, कोई अपराध काल बाधित नहीं होता है, अब आप राफेल सौदे की क्रोनोलॉजी / विजय शंकर सिंह

कल प्रधानमंत्री जी फाइटर जेट तेजस पर सवार थे। बहुत सी फोटो वायरल हुई। किसी फाइटर जेट पर सवार होने वाले वह पीएम घोषित हुए। पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल भी एक बार मिग फाइटर जेट पर सवार हो चुकी है। ऐसे कृत्य सेना और जवानों का मनोबल बढ़ाने के लिए किए जाते हैं। 

तेजस नाम अटल बिहारी वाजपेई जी का दिया हुआ है। यह प्रोजेक्ट धरातल पर साल 2001 में शुरू हुआ था हालांकि इसकी योजना उसके पहले से चल रही थी। ऐसी दीर्घकालीन योजनाएं, सरकार निरपेक्ष होती हैं और अनवरत रूप से चलती रहती है, जब तक कि, कोई सरकार जानबूझकर उसे किसी विशेष कारणवश बाधित करने की कोशिश न करे।

एक तर्क अक्सर दिया जाता है कि, सुप्रीम कोर्ट ने राफेल मामले में सरकार को क्लीन चिट दी है। लेकिन, क्लीन चिट जैसा शब्द कानून में कहीं नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि, "सरकार के खरीद प्रक्रिया में कोई अनियमितता नहीं है।" यानी कागज का पेट भरा है। प्रोसीजर लागू किया गया है। कागज के अंदर झांक कर विवेचनात्मक रुचि और निगाह से झांक कर देखेंगे तो, घोटाले के गंभीर संकेत मिलेंगे। यह तभी उजागर होगा तब उसकी तह में जाया जाय। तह में जाकर तफ्तीश करने का हुनर सीबीआई का है और सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी किसी तफ्तीश पर रोक नहीं लगाई है। 

याद कीजिए, तभी पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट प्रशांत भूषण ने तत्कालीन सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा से मिलने गए थे और एफआईआर दर्ज कर जांच करने का अनुरोध किया था और उसी रात, आलोक वर्मा को सरकार ने उसी रात बदल दिया था। यह डर, घोटाले के अपराध के खुल जाने का था। 

घोटाले का आरोप अब भी है। और यह तब तक बना रहेगा जब तक कि, इसकी जांच न हो जाय। अपराध काल बाधित नहीं होता है। अब आप राफेल सौदे की क्रोनोलॉजी पढ़े...

राफेल सौदे में कुछ ऐसे विंदु हैं जो इस सौदे में घोटाले के आरोप की ओर शक की सूई ले जाते हैं। विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स और राफेल मामले में, सरकार या प्रधानमंत्री की भूमिका के बारे में कहे और लिखे गए अनेक लेखों और बयानों के आधार पर कुछ महत्वपूर्ण विंदु मैं नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिनसे घोटाले का शक उभरता है। संदेह के विंदु तब उपजते हैं, जब नियमों का पालन किए बगैर, मान्य और स्थापित कानून तथा परम्पराओ को दरकिनार कर के, कोई मनमाना निर्णय ले लिया जाता है और किसी को, या बहुत से लोगों को अनुचित लाभ पहुंचाया जाता है। यहां भी अनुचित लाभ पहुंचाने के कदाशय को ही, घोटाले के अपराध का मुख्य विंदु माना गया है। 

अब उन विन्दुओं की चर्चा की जा रही है,  जिनसे, इस सौदे में शक की गुंजाइश बन रही है। 
● बोफोर्स घोटाला, रक्षा सौदों में, अब तक का सबसे चर्चित घोटाला रहा है। हालांकि 1948 में ही रक्षा से जुड़ा जीप घोटाला सामने आ चुका था। पर बोफोर्स घोटाले के आरोप ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा दोनो ही बदल दी। इस घोटाले के बाद ही सरकारें सतर्क हो गयीं और उसके बाद आने वाली सरकारों ने रक्षा सौदों के लिए एक बेहद पारदर्शी प्रक्रिया और नियम बनाये, जिसके अंतर्गत सेना, रक्षा मंत्रालय, संसदीय समिति और सरकार, सभी की सहमति से ही किसी प्रकार का कोई रक्षा सौदा सम्बंधित समझौता हो सकता है। सबकी स्पष्ट और उपयुक्त भागीदारी के साथ साथ पारदर्शिता को इन रक्षा सौदों के लिये अनिवार्य तत्व माना गया है। लेकिन मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार ने, जब राफेल के सम्बंध में समझौता किया तो उसने इन नियमों और प्रक्रिया का पालन नहीं किया। 

● रक्षा सौदों के प्रारंभिक नियमों और प्रक्रिया के अनुसार, किसी भी रक्षा खरीद का फैसला भारतीय सेनाओं की मांग के आधार पर शुरू होता है। राफेल खरीद के मामले की भी शुरुआत, वायुसेना द्वारा 126 विमान की आवश्यकता और उससे जुड़े, मांगपत्र से हुयी थी। यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार ने वायुसेना के इसी 126 विमानों की आवश्यकता के आधार पर, अपनी बातचीत शुरू की थी। लेकिन उसके बाद आने वाली एनडीए की नरेंद्र मोदी सरकार ने 126 विमानों की आवश्यकता को घटा कर, मात्र 36 विमानों का सौदा फाइनल किया। इस बदलाव पर यह आरोप लगता है, कि वायुसेना की जरूरतों को नजरअंदाज करके उसे मजबूत बनाने की जगह उसके मूल मांग 126 लड़ाकू विमानों की उपेक्षा की गयी। वायुसेना ने कभी नहीं कहा कि उसे 126 की जगह अब केवल 36 ही विमान चाहिए, जबकि सेना की मांग ही रक्षा सौदे का मुख्य आधार बनती है। सेना अपनी आवश्यकताओं को घटा बढ़ा सकती है। पर इस जोड़ घटाने का भी कोई न कोई तर्क और आधार होना चाहिए। वायुसेना ने 126 से अपनी ज़रूरतों को कैसे 36 तक सीमित कर दिया, इस पर न तो वायुसेना ने कभी कोई उत्तर दिया और न ही रक्षा मंत्रालय ने। 

● यूपीए सरकार ने, दसॉल्ट कम्पनी से वायुसेना के लिये 126 राफेल विमानों के साथ उनके तकनीकी हस्तांतरण के लिये, ट्रांसफर आफ टेक्नोलॉजी की शर्त भी रखी थी, जिसके तहत यह तकनीक यदि भारत को मिल जाती तो यह विमान भविष्य में स्वदेश में ही बनता, लेकिन, नरेन्द्र मोदी सरकार में जो सौदा हुआ है, उसमे,  ट्रान्सफर ऑफ टेक्नोलॉजी की शर्त ही हटा दी गई है। 

● सरकार या प्रधानमंत्री ने अपने स्तर पर सौदे में जो बदलाव किये उन्हे, कैटेगराइजेशन कमेटी के पास अनुमोदन के लिए नहीं भेजा गया। कैटेगराइजेशन कम डिफेंस एक्यूजीशन कॉउंसिल में, रक्षा मंत्री, वित्तमंत्री और तीनों सेनाओं के प्रमुख होते हैं। जो किसी भी प्रस्तावित प्रस्ताव परिवर्तन का परीक्षण कर के  उसे प्रधानमंत्री के पास भेजते हैं। लेकिन इस मामले में यह प्रक्रिया नही अपनाई गयी। बिना कैटेगराइजेशन कम डिफेंस एक्यूजेशन काउंसिल की सहमति के लिया गया यह फैसला स्थापित प्रक्रिया का उल्लंघन है। 

● अचानक, इस सौदे में जो बदलाव हुआ उनसे यह आभास होता है कि, इस सौदे के बारे में अंतिम समय तक फ्रांस के राष्ट्रपति, भारत के रक्षा मंत्री और वायुसेना व भारतीय रक्षा समितियों को कुछ भी पता नहीं था. जबकि इन सबकी जानकारी में ही यह सब परिवर्तन होना चाहिए था। 

● समझौते के ठीक पहले मार्च, 2015 में डसाल्ट के सीईओ एलेक्ट्रैपियर कहते हैं कि हम हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) के साथ मैन्युफैक्चरिंग का काम करने जा रहे हैं। एचएएल की बेंगलुरू इकाई में, यह सब बातें प्रेस के सामने आती हैं। जब पीएम मोदी इस समझौते के लिए फ्रांस जा रहे थे तो उसके पहले विदेश सचिव, एस जयशंकर जो अब विदेश मंत्री हैं, ने अपने बयान में कहा कि, 
"मोदी जी फ्रांस जा रहे हैं, वे वहां पर 126 राफेल विमान खरीद की वार्ता को आगे बढ़ाएंगे। " 
यानी तब तक इस सौदे में परिवर्तन की कोई भनक तक उन्हें नहीं थी। जिस दिन मोदी जी वहां पहुंचे उस दिन फ्रांस के राष्ट्रपति हॉलैंड ने कहा कि, 126 राफेल की डील पर हमारी बात आगे बढ़ेगी। फिर उसी दिन अचानक 36 विमानों पर यह सौदा भारत और फ्रेंच कंपनी दसॉल्ट के बीच पूरी हो गयी। अचानक इस सौदे में अनिल अंबानी का प्रवेश हो गया और एलएएल, जिसके साथ यह करार लगभग तय हो गया था, उसे पीछे हटा दिया गया। इस तरह देश की सुरक्षा एजेंसियों से लेकर रक्षा और वित्त मंत्री तथा दूसरे पक्ष को भी इस सौदा परिवर्तन की भनक तक नहीं लगी। यही मुख्य आरोप है कि, यह सब, एक निजी कंपनी को अनुचित लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से किया गया। 

● देश की 78 साल पुरानी सार्वजनिक उपक्रम कम्पनी, एचएएल को हटाकर अनिल अंबानी की कंपनी को नए सौदे में, आफसेट कॉन्ट्रैक्ट दे दिया गया। आरोप है कि, अनिल अंबानी की यह कंपनी सौदे के मात्र दस दिन पहले बनाई गई। इस तरह एक नितांत नयी कंपनी को इतने महत्वपूर्ण सौदे में शामिल कर लिया गया, जिसका रक्षा क्षेत्र में कोई अनुभव ही नहीं है। 

● अनिल अंबानी की, रिलायंस इस सौदे में ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट के नाम पर शामिल हुई। इस डील में ऑफसेट ठेके की राशि है ₹ 30 हज़ार करोड़, जिसका एक बड़ा हिस्सा रिलायंस को मिलेगा। यह बात डसाल्ट और रिलायंस ने सार्वजनिक की, न कि भारत सरकार ने। सरकार ने यह तथ्य क्यों छुपाया ? अनिल अंबानी के प्रवेश के सवाल पर सरकार ने कहा कि अंबानी से पहले से बातचीत चल रही थी, लेकिन यह कंपनी तो, सौदे के मात्र दस दिन पहले ही बनी है, फिर बातचीत किससे चल रही थी ? 

● प्रधानमंत्री ने समझौते के बाद कहा था कि विमान ठीक उसी कॉन्फ़िगरेशन में आएंगे, जैसा पुराने समझौते के तहत आने वाले थे। लेकिन नये समझौते में ₹ 670 करोड़ का विमान ₹ 1600 करोड़ से ज़्यादा कीमत का हो गया। इस पर यह सवाल उठने लगे कि, विमानों कीमत क्यों तीनगुनी हो गयी, तो बाद में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने 'पे इंडिया स्फेसिफिक ऐड ऑन' की बात कहकर बढ़े दाम को जायज ठहराया। इस पर यह आरोप लगा कि, सरकार ने ऐसा करके जनता को गुमराह किया है। सरकार ने अब तक इसका कोई तार्किक जवाब नहीं दिया है। 

● राफेल के दाम बढ़ने घटने की बात पर सरकार ने जितनी बार बयान दिए, वे सब अलग अलग तरह के हैं जो स्थिति साफ करने के बजाय, उसे और उलझा देते हैं। कहा गया कि इंडिया स्पेसिफिक ऐड ऑन के तहत विमानों में 500 करोड़ के हेलमेट लगाने की बात जोड़ी गई इसलिए दाम बढ़ गए। फिर सवाल उठता है कि इसकी अनुमति किससे ली गई ?

● सबसे आपत्तिजनक और हैरान करने वाला कदम यह है कि, इस समझौते से बैंक गारंटी, संप्रभुता गारंटी और एंटी करप्शन से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण प्रावधानों को हटा दिया गया है। इंटीग्रिटी पैक्ट पर सहमति और हस्ताक्षर न करके देश की संप्रभुता से भी समझौता किया गया। राफेल डील से एंटी करप्शन प्रावधानों को हटा देने से भ्रष्टाचार के प्रति संदेह स्वतः उपजता है। 

● द हिंदू अखबार में छपी खबरों के अनुसार, नरेन्द्र मोदी सरकार में 36 रफालों की कीमत, पहले की तय कीमतों से, 41 प्रतिशत अधिक है। इसके अलावा बैंक गारंटी की शर्त हटा देने की वजह से राफेल की कीमतें और बढ़ गईं।  रक्षा मंत्रालय के दस्तावेजों से यह तथ्य भी सामने आए कि रक्षा मंत्रालय के विरोध के बावजूद प्रधानमंत्री ने अपने स्तर पर बातचीत करके इस सौदे को अंतिम रूप दिया जो, सभी नियमों और तयशुदा प्रोसीजर सिस्टम का उल्लंघन है। 

● यह भी एक तथ्य सामने आया है कि इंडियन निगोशिएटिंग टीम ( ऐसे सौदों में समझौता करने वाली समिति जिसमें, सेना, रक्षा मंत्रालय और वित्त मंत्रालय के बड़े अफसर रहते हैं, को इंडियन निगोशिएटिंग टीम, आईएनटी कहते हैं। यह एक औपचारिक वैधानिक प्रक्रिया का अंग होता है ) ने, अपनी टिप्पणी में कहा था कि यूपीए सरकार के समय की शर्तें बेहतर थीं, लेकिन उसे दरकिनार कर दिया गया। तत्कालीन रक्षा सचिव ने भी इस सौदे में पीएमओ द्वारा सीधे हस्तक्षेप किये जाने पर आपत्ति जताई थी। इसके अतिरिक्त, प्राइस निगोसिएशन कमेटी ( यह भी एक औपचारिक वैधानिक प्रोसीजर के अंतर्गत दाम पर बारगेनिंग और उसे तय करने के लिये गठित कमेटी होती है ) के तीन विशेषज्ञों ने भी अपना तीखा विरोध जताया था कि सरकार ने बेंचमार्क प्राइस जो कि पांच बिलियन यूरो था, उसे बढ़ाकर आठ बिलियन यूरो क्यों कर दिया ? 

● इन आपत्तियों में यह भी कहा गया था कि, नये सौदे में पिछले सौदे के मुकाबले विमानों की कीमत अधिक देनी पड़ रही है, इसलिए इसका टेंडर फिर से होना चाहिए। बिना टेंडर के गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट रूट में तभी यह समझौता हो सकता था, अगर यह उसी दाम में या उससे कम दामों में होता।  लेकिन सौदे में कीमतों में अंतर आ रहा है और वह कीमतें बढ़ रही हैं, अतः इस मूल्य बदलाव के बाद, इस सौदे के संबंध में, दोबारा टेंडर की प्रक्रिया की जानी चाहिए थी, जो नहीं अपनाई गई है। 

● जिस मामले में प्रधानमंत्री को अपने स्तर पर फैसला लेने का अधिकार ही नहीं था, उस संदर्भ में, उन्होंने अपने स्तर से ही फैसला ले लिया जिसके कारण, भारत सरकार की अनुभवी कंपनी एचएएल को नुकसान पहुंचा और निजी कंपनी को जानबूझकर लाभ पहुंचाया गया। 

● एक आरोप यह भी है कि अनिल अंबानी रक्षा से जुड़े किसी भी तरह का निर्माण नहीं कर सकते, इसलिए उनकी मौजूदगी एक तरह से कमीशन एजेंट के तौर पर ही देखी जाएगी।  एचएएल को यह दायित्व, मेक इन इंडिया के अंतर्गत दिया जा सकता था। प्रशांत भूषण का मानना है कि कमीशन एजेंट के रूप में अनिल अंबानी की मौजूदगी की वजह से भी राफेल के दाम बढ़ाने पड़े। 

कीमत का विवरण दाखिल किया। इनमे यह भी उल्लेख था कि, राफेल सौदे को किस प्रकार से, अंतिम रूप दिया गया। 
● 14 नवंबर - राफेल सौदे में अदालत की निगरानी में जांच की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा। 
● दिसंबर 14 - सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, सरकार की निर्णय लेने की प्रक्रिया पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है और जेट सौदे में कथित अनियमितताओं के लिए सीबीआई को प्राथमिकी दर्ज करने का निर्देश देने वाली सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया।
● जनवरी 2, 2019 - यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण ने 14 दिसंबर के फैसले की समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की। 
● फरवरी 26 - सुप्रीम कोर्ट पुनर्विचार याचिकाओं पर सुनवाई के लिए सहमत हुआ। 
● मार्च 13 - सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि समीक्षा याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर किए गए दस्तावेज राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति संवेदनशील हैं। 
● अप्रैल 10 - सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं द्वारा समीक्षा के लिए दस्तावेजों पर विशेषाधिकार का दावा करने वाली केंद्र की आपत्ति को खारिज किया। 
● मई 10 - सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्विचार याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रखा। 
● नवंबर 14 - सुप्रीम कोर्ट ने राफेल सौदे में अपने फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका को खारिज कर दिया। 

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में राफेल सौदे के मामले में जांच की मांग को लेकर, याचिका दायर करने वाले सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट, प्रशांत भूषण, पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा और प्रसिद्ध पत्रकार अरुण सौरी का कहना हैं कि, राफेल विमान सौदे में केंद्र सरकार ने जानबूझकर अनिल अंबानी को लाभ पहुंचाने के लिये, दसॉल्ट कम्पनी पर दबाव डाला। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 


Tuesday, 21 November 2023

बाबा रामदेव को चेतावनी देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा -भ्रामक विज्ञापन फैलाना बंद करें, नहीं तो अदालत एक करोड़ रुपए तक का जुर्माना लगा सकती है / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने, आज मंगलवार, 21 नवंबर को, आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों के खिलाफ भ्रामक दावे और विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए, बाबा रामदेव की कंपनी पतंजलि आयुर्वेद को फटकार लगाई। पतंजलि के भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने बाबा रामदेव द्वारा स्थापित इस कंपनी को कड़ी चेतावनी जारी की।

शीर्ष अदालत जो, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया|  डब्ल्यू.पी.(सी) द्वारा दायर याचिका की सुनवाई कर रही थी, ने कहा, “पतंजलि आयुर्वेद को, ऐसे सभी झूठे और भ्रामक विज्ञापनों को तुरंत बंद करना होगा।  न्यायालय, इस आदेश के, किसी भी उल्लंघन को बहुत गंभीरता से लेगा, और न्यायालय, एक करोड़ रुपये तक, जुर्माना लगाने पर भी विचार करेगा।" 
जस्टिस अमानुल्लाह ने, मौखिक रूप से कहा, "प्रत्येक उत्पाद पर 1 करोड़ रुपये,का जुर्माना, हर उस झूठे दावे, पर किया जाएगा, जिसके बारे में झूठा दावा किया जाता है कि यह एक विशेष बीमारी को "ठीक" कर सकता है।"

इसके बाद कोर्ट ने निर्देश दिया कि, "पतंजलि आयुर्वेद भविष्य में ऐसा कोई विज्ञापन प्रकाशित नहीं करेगा और यह भी सुनिश्चित करेगा कि प्रेस में उसके द्वारा, इस प्रकार के, आकस्मिक बयान न दिए जाएं।"

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि, "वे इस मुद्दे को "एलोपैथी बनाम आयुर्वेद" की बहस नहीं बनाना चाहते, बल्कि भ्रामक चिकित्सा विज्ञापनों की समस्या का वास्तविक समाधान ढूंढना चाहते हैं।"
यह कहते हुए कि, "हम इस मुद्दे की गंभीरता से सुनवाई कर रहे है," पीठ ने भारत के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज से कहा कि, "केंद्र सरकार को समस्या से निपटने के लिए एक व्यवहार्य समाधान ढूंढना होगा।  सरकार से विचार-विमर्श के बाद उपयुक्त सिफारिशें पेश करने को कहा गया।"  
इस मामले पर अगली सुनवाई 5 फरवरी 2024 को होगी।

पिछले साल आईएमए की याचिका पर नोटिस जारी करते हुए कोर्ट ने एलोपैथी जैसी आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों के खिलाफ बयान देने के लिए बाबा रामदेव की खिंचाई की थी.

भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने, जिनके समय में आईएमए की याचिका पर सुनवाई शुरू हुई थी, ने तब कहा था, "बाबा रामदेव को क्या हुआ? वह अपनी प्रणाली को लोकप्रिय बना सकते हैं, लेकिन उन्हें अन्य प्रणालियों की आलोचना क्यों करनी चाहिए? हम सभी उनका सम्मान करते हैं। उन्होंने योग को लोकप्रिय बनाया लेकिन उन्हें अन्य प्रणालियों की आलोचना नहीं करनी चाहिए। क्या गारंटी है कि उनका सिस्टम काम करेगा? वह नहीं कर सकते।"  

आईएमए द्वारा एलोपैथी और चिकित्सा की आधुनिक प्रणाली के बारे में "गलत सूचना के निरंतर, व्यवस्थित और बेरोकटोक प्रसार" पर चिंता जताते हुए यह रिट याचिका दायर की गई थी।  याचिका में दावा किया गया है कि, पतंजलि के भ्रामक विज्ञापन एलोपैथी की निंदा करते हैं और कुछ बीमारियों के इलाज के बारे में झूठे दावे करते हैं। याचिका में 10 जुलाई, 2022 को प्रकाशित आधे पेज के विज्ञापन का हवाला दिया गया, जिसका शीर्षक था "एलोपैथी द्वारा फैलाई गई गलतफहमियां: फार्मा और मेडिकल उद्योग द्वारा फैलाई गई गलतफहमियों से खुद को और देश को बचाएं।"

आईएमए का तर्क है कि, "जबकि प्रत्येक वाणिज्यिक इकाई को अपने उत्पादों को बढ़ावा देने का अधिकार है, पतंजलि द्वारा किए गए असत्यापित दावे ड्रग्स और अन्य जादुई उपचार अधिनियम, 1954 और उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 जैसे कानूनों का सीधा उल्लंघन हैं।"
इसके अतिरिक्त, याचिका पिछले उदाहरणों पर प्रकाश डालती है जहां पतंजलि से जुड़े, रामदेव ने विवादास्पद बयान दिए थे, जिसमें एलोपैथी को "बेवकूफ और दिवालिया विज्ञान" कहना और कोविड ​​​​की दूसरी लहर के दौरान एलोपैथिक दवाओं के कारण लोगों की मौत के बारे में निराधार दावे करना शामिल था।

IMA ने पतंजलि पर COVID-19 टीकों के बारे में झूठी अफवाहें फैलाने और टीके को लेकर झिझक पैदा करने का आरोप लगाया है।  याचिका में स्वामी रामदेव द्वारा दूसरी लहर के दौरान ऑक्सीजन सिलेंडर की तलाश कर रहे नागरिकों का कथित उपहास और उपहास का भी हवाला दिया गया है।
याचिका में इस बात पर जोर दिया गया है कि आयुष मंत्रालय द्वारा आयुष दवाओं के भ्रामक विज्ञापनों की निगरानी के लिए भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) के साथ एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर करने के बावजूद, पतंजलि ने कानून के प्रति कथित उपेक्षा जारी रखी है और जनादेश का उल्लंघन किया है।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Monday, 20 November 2023

कोई राज्यपाल, कितनी अवधि तक, विधानसभा द्वारा पारित किसी बिल को, अपनी सहमति देने के लिए लंबित रख सकते हैं? - सुप्रीम कोर्ट / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर, को जनवरी 2020 से राज्यपाल की सहमति के लिए प्रस्तुत बिलों को रोक रखने के प्रश्न पर, तमिलनाडु के राज्यपाल के बारे में यह सवाल अदालत में केंद्र सरकार से पूछा है कि, "कोई राज्यपाल, कितनी अवधि तक, विधानसभा द्वारा पारित किसी बिल को, अपनी सहमति देने के लिए लंबित रख सकते हैं?"

सुप्रीम कोर्ट में, सीजेआई, डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने, इस संदर्भ में एक याचिका की सुनवाई करते हुए कहा, कि, "राज्यपाल ने 10 नवंबर को तमिलनाडु सरकार द्वारा दायर रिट याचिका पर नोटिस जारी करने के बाद ही दस विधेयकों पर सहमति "रोकने का फैसला किया।  गौरतलब है कि, राज्यपाल की निष्क्रियता "गंभीर चिंता का विषय" है।"

पीठ की तरफ से सीजेआई ने अटॉर्नी जनरल से यह सवाल पूछा, "मिस्टर अटॉर्नी, गवर्नर का कहना है कि उन्होंने 13 नवंबर को इन बिलों का निपटारा कर दिया है। हमारी चिंता यह है कि हमारा आदेश 10 नवंबर को पारित किया गया था। ये बिल जनवरी 2020 से लंबित हैं। इसका मतलब है कि, गवर्नर ने कोर्ट की नोटिस और आदेश के बाद निर्णय लिया । राज्यपाल तीन साल तक क्या कर रहे थे? राज्यपाल को, पीड़ित पक्ष द्वारा, सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने तक का, इंतजार क्यों करना चाहिए?"

इस सवाल पर एजी ने जवाब दिया कि, "विवाद केवल उन विधेयकों से संबंधित है जो, राज्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति से संबंधित राज्यपाल की शक्तियों को छीनने के प्रयास से संबंधित हैं और चूंकि यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, इसलिए, इसपर कुछ पुनर्विचार की आवश्यकता है।"

तब पीठ ने कहा कि, "लंबित बिलों में सबसे पुराना बिल जनवरी 2020 में राज्यपाल को भेजा गया था।" 
अपने आदेश में, पीठ ने उन तारीखों को दर्ज किया है, जिन पर दस बिल राज्यपाल के कार्यालय को भेजे गए थे, जो 2020 से 2023 तक लंबित हैं। एजी ने कहा कि, "वर्तमान राज्यपाल आरएन रवि ने नवंबर 2021 में ही पदभार संभाला है।"

पीठ ने कहा कि, "चिंता किसी विशेष राज्यपाल के आचरण से संबंधित नहीं है, बल्कि सामान्य रूप से राज्यपाल के कार्यालय और उनके क्रियाकलाप से संबंधित है।"
फिर पीठ ने आदेश में कहा, "मुद्दा यह नहीं है कि क्या किसी विशेष राज्यपाल ने देरी की, बल्कि यह है कि क्या सामान्य तौर पर संवैधानिक कार्यों को करने में देरी हुई है।"

यह सूचित किए जाने के बाद कि, विधानसभा ने पिछले सप्ताह आयोजित एक विशेष सत्र में, वापस किए गए, दस विधेयकों को फिर से, पारित कर लिया है, पीठ ने राज्यपाल के अगले फैसले की प्रतीक्षा करने के लिए सुनवाई 1 दिसंबर तक के लिए स्थगित कर दी।

तमिलनाडु राज्य की ओर से पेश वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने पीठ को सूचित किया कि, "अदालत द्वारा याचिका पर नोटिस जारी करने के बाद, राज्यपाल ने कहा कि, उन्होंने कुछ विधेयकों पर "अनुमति रोक दी है।" 
इसके बाद, विधानसभा ने एक विशेष सत्र बुलाया और उन्हीं विधेयकों को फिर से पारित कर दिया गया।

राज्य की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता, मुकुल रोहतगी ने कहा कि, "राज्यपाल बिना कोई कारण बताए सहमति को "रोक" नहीं सकते हैं और कानून के अनुसार राज्यपाल को पुनर्विचार के लिए एक नोट, सरकार को देना होगा।  हालाँकि, राज्यपाल ने केवल एक पंक्ति का पत्र जारी किया है कि "मैं सहमति रोकता हूँ।" 

पर सहमति क्यों 'रोकता हूं', इस मुद्दे पर राज्यपाल खामोश हैं। उन्हे अपनी असहमति के विंदु सहित, सरकार को सूचित करना चाहिए था, कि वे किन कारणों से सहमति रोक रहे हैं, जो कि, इस एक पंक्ति में, उन्होंने कुछ भी नहीं कहा है। सुप्रीम कोर्ट की आपत्ति इसी संक्षिप्त पत्राचार, मैं सहमति को रोकता हूं, को लेकर है।

० क्या राज्यपाल किसी विधेयक को सदन में भेजे बिना उस पर सहमति रोक सकते हैं?

सुनवाई के दौरान, पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 200 के अनुसार विधेयकों के संबंध में राज्यपाल की शक्तियों पर भी चर्चा की। 
राज्यपाल की शक्तियों के बारे में, संविधान के अनुसार, अनुच्छेद 200 के मूल भाग के तहत राज्यपाल के पास कार्रवाई के तीन तरीके बताए गए हैं - 
० वह अनुमति दे सकता है, 
० वह अनुमति रोक सकता है या 
० वह इसे राष्ट्रपति के विचार के लिए वापस सरकार को भेज सकता है। 

सीजेआई चंद्रचूड़ ने पूछा, कौन सा प्रावधान कब लागू होता है, जब वह सहमति रोकता है? क्या उसे इसे अनिवार्य रूप से विधायिका को भेजना होगा? परंतु, यह एक सक्षम वाक्यांश "हो सकता है" "shall" का उपयोग करता है। प्रावधान में कहा गया है कि, राज्यपाल एक संदेश के साथ विधायिका को, सहमति के लिए भेजा गया बिल,  दोबारा वापस लौटा सकते हैं। हमारा सवाल यह है कि क्या राज्यपाल यह कह सकते हैं कि, वह सहमति रोक रहे हैं?"

इस पर याचिकाकर्ताओं की ओर से अदालत में सीनियर एडवोकेट अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि, "राज्यपाल को ''जितनी जल्दी हो सके'' विधेयक वापस करना होगा, अन्यथा यह संवैधानिक प्रावधान का मजाक होगा। क्या योर लॉर्डशॉप, राज्यपाल के लिए 'पॉकेट वीटो' जैसी कोई परिकल्पना (संविधान में) है? क्या उनके पास पॉकेट वीटो है?"  
तमिलनाडु सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता पी विल्सन ने कहा कि, "यदि राज्यपाल को अनिश्चित काल तक बिलों को रोकने की अनुमति दे दी गई, तो शासन पंगु हो जाएगा और संविधान ने राज्यपाल के लिए ऐसी शक्ति की कभी परिकल्पना नहीं की है।"

सीजेआई ने तब आगे पूछा कि, "क्या सदन द्वारा विधेयक दोबारा पारित होने के बाद राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं।"  
इस पर अभिषेक मनु सिंघवी और मुकुल रोहतगी ने सर्वसम्मति से जवाब दिया कि, "विधेयक दोबारा पारित होने के बाद राज्यपाल के लिए ऐसा रास्ता खुला नहीं है।"

बिलों के संबंध में, विवरण देते हुए, अपने आदेश में, पीठ ने लिखा है कि, "राज्यपाल के कार्यालय को कुल मिलाकर 181 विधेयक प्राप्त हुए हैं, जिनमें से 152 विधेयकों पर सहमति दी गई है।  पांच बिल तो सरकार ने खुद ही वापस ले लिये। नौ विधेयकों को राष्ट्रपति की सहमति के लिए आरक्षित रखा गया है और दस विधेयकों पर सहमति रोक दी गई है।  अक्टूबर 2023 में प्राप्त पांच बिल विचाराधीन हैं।"

उल्लेखनीय है कि पंजाब राज्य द्वारा दायर इसी तरह की एक याचिका से संबंधित पिछली सुनवाई में, अदालत ने कहा था कि, "राज्य सरकार द्वारा अदालत का दरवाजा खटखटाने के बाद ही राज्यपालों द्वारा विधेयकों पर कार्रवाई करने की प्रवृत्ति बंद होनी चाहिए।"
केरल राज्य की एक अन्य याचिका में केरल के राज्यपाल के खिलाफ इसी तरह की राहत की मांग की गई है।  इससे पहले, ऐसी ही स्थिति तेलंगाना राज्य में हुई थी, जहां सरकार द्वारा रिट याचिका दायर करने के बाद ही राज्यपाल ने लंबित विधेयकों पर कार्रवाई की थी।

इन सब याचिकाओं और विवरण से यह स्पष्ट होता है कि, राज्यपाल, उन सरकारों को, जो गैर बीजेपी राज्यो में है के वैधानिक कार्यों में जानबूझकर उनके विधानमंडल द्वारा पारित बिलों को, किसी न किसी कारण से लंबित रखते है। चूंकि संविधान में किसी समय सीमा का उल्लेख नहीं है, इसलिए, राज्यपाल पर ऐसा कोई संवैधानिक दबाव या बाध्यता भी नहीं है कि, वे किसी तयशुदा टाइम फ्रेम में, इन बिलों पर अपनी सहमति या असहमति दे ही दें। इस तरह की प्रवृत्ति से, चुनी हुई सरकार हतोत्साहित भी होती है। सुनवाई अभी जारी है और अगली तारीख दिसंबर 1, है।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Thursday, 16 November 2023

हजारों छोटे निवेशकों को धनसंकट में डाल कर, उन्हे बेसहारा कर गए, सहारा प्रमुख / विजय शंकर सिंह

सहारा समूह के प्रमुख सुब्रत रॉय के निधन के बाद पूंजी बाजार नियामक सेबी के खाते में पड़ी कुल 25,000 करोड़ रुपये से अधिक की अवितरित धनराशि फिर से चर्चा के केंद्र में आ गई है। ज्ञातव्य है कि, सुब्रत रॉय का लंबी बीमारी से जूझने के बाद 75 साल की उम्र में मंगलवार रात मुंबई में निधन हो गया है।

उन्हें अपने समूह की कंपनियों के संबंध में कई विनियामक और कानूनी लड़ाइयों का सामना करना पड़ा, जिन पर पोंजी योजनाओं के साथ नियमों को दरकिनार करने का आरोप लगाया गया था, हालांकि, उनके समूह ने हमेशा इन आरोपों से इनकार किया था। पर वे इन आरोपों से मुक्त कभी नहीं हो पाए थे। 

द इकोनॉमिक टाइम्स के एक लेख के अनुसार, साल 2011 में, पूंजी बाजार नियामक सेबी SEBI ने सहारा समूह की दो कंपनियों - सहारा इंडिया रियल एस्टेट कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एसआईआरईएल) और सहारा हाउसिंग इन्वेस्टमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एसएचआईसीएल) को वैकल्पिक रूप से ज्ञात कुछ बांडों (पूर्णतः परिवर्तनीय बांड,ओएफसीडी)
के माध्यम से लगभग 3 करोड़ निवेशकों से जुटाए गए धन को वापस करने का आदेश दिया था।  

यह आदेश, नियामक, सेबी के फैसले के बाद आया कि, दोनों कंपनियों ने उसके नियमों और विनियमों का उल्लंघन करके धन जुटाया था। इस आदेश की अपील और क्रॉस-अपील की लंबी प्रक्रिया के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने 31 अगस्त, 2012 को सेबी के निर्देशों को, बरकरार रखा, जिसमें दोनों कंपनियों को निवेशकों से 15 प्रतिशत ब्याज के साथ एकत्र धन वापस करने के लिए कहा गया था।

अंततः सहारा समूह को निवेशकों को,  आगे रिफंड करने के लिए, सेबी के पास लगभग, ₹24,000 करोड़, जमा करने के लिए कहा गया। हालांकि समूह, बार बार, यही कहता रहा है कि, उसने पहले ही, 95 प्रतिशत से अधिक निवेशकों को सीधे वापस कर दिया है। लेकिन इस बात का कोई प्रमाण, सहारा समूह, आज तक नहीं दे सका।

SEBI की नवीनतम वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने, सहारा समूह की दो कंपनियों के निवेशकों को 11 वर्षों में 138.07 करोड़ रुपये के रिफंड जारी किए।  इस बीच, पुनर्भुगतान के लिए विशेष रूप से खोले गए बैंक खातों में जमा राशि बढ़कर 25,000 करोड़ रुपये से अधिक हो गई है। यानी छोटे निवेशकों को कुल ₹25,000 करोड़ अभी भी लौटने हैं। 

सहारा की दो कंपनियों के अधिकांश बांडधारकों के दावों के अभाव में, सेबी द्वारा रिफंड की गई कुल राशि पिछले वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान लगभग 7 लाख रुपये बढ़ गई, जबकि सेबी-सहारा रिफंड खातों में शेष राशि वर्ष के दौरान ₹1,087 करोड़ हो गई।  

इकोनॉमिक टाइम्स की एक अन्य खबर के अनुसार, सेबी की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, सेबी को 31 मार्च, 2023 तक 53,687 खातों से जुड़े 19,650 आवेदन प्राप्त हुए। इनमें से, "48,326 खातों से जुड़े 17,526 आवेदनों के लिए 138.07 करोड़ रुपये की कुल राशि के लिए रिफंड किया गया है, जिसमें 67.98 करोड़ रुपये की ब्याज राशि भी शामिल है।"  

शेष आवेदन दो सहारा समूह फर्मों द्वारा उपलब्ध कराए गए डेटा में उनके रिकॉर्ड का पता नहीं लगाने के कारण बंद कर दिए गए थे। अपने पिछले अपडेट में, सेबी ने 31 मार्च, 2022 तक 17,526 आवेदनों से संबंधित कुल राशि ₹138 करोड़ बताई थी।

इसके अलावा, सेबी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित विभिन्न आदेशों और नियामक द्वारा पारित कुर्की आदेशों के तहत, 31 मार्च, 2023 तक कुल 15,646.68 करोड़ रुपये की राशि, सहारा समूह से वसूल की गई है।

सुप्रीम कोर्ट के 31 अगस्त, 2012 के फैसले के अनुसार, पात्र बांडधारकों को देय रिफंड के बाद, अर्जित ब्याज के साथ यह राशि राष्ट्रीयकृत बैंकों में जमा की गई थी। सेबी ने कहा, 31 मार्च, 2023 तक राष्ट्रीयकृत बैंकों में जमा कुल राशि लगभग ₹25,163 करोड़ है। 31 मार्च, 2022, 31 मार्च, 2021 और 31 मार्च, 2020 तक यह राशि क्रमशः 24,076 करोड़ रुपये, 23,191 करोड़ रुपये और 21,770.70 करोड़ रुपये थी।

इस बीच, केंद्र ने अगस्त में सहारा समूह की चार सहकारी समितियों में फंसे जमाकर्ताओं के 5,000 करोड़ रुपये वापस करने की प्रक्रिया शुरू की। सहकारिता मंत्री अमित शाह ने निवेशकों को पैसा लौटाने की सुविधा के लिए जुलाई में 'सीआरसीएस-सहारा रिफंड पोर्टल' लॉन्च किया था.  पोर्टल पर लगभग 18 लाख जमाकर्ताओं का पंजीकरण हो चुका है। 

मार्च में सरकार ने घोषणा की थी कि पोर्टल पर रजिस्टर्ड 10 करोड़ निवेशकों को पैसा लौटाया जाएगा। मार्च में सरकार ने घोषणा की थी कि चार सहकारी समितियों के 10 करोड़ निवेशकों को 9 महीने के भीतर पैसा लौटाया जाएगा.

यह घोषणा सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश के बाद हुई, जिसमें सहारा-सेबी रिफंड खाते से 5,000 करोड़ रुपये सेंट्रल रजिस्ट्रार ऑफ कोऑपरेटिव सोसाइटीज (सीआरसीएस) को ट्रांसफर करने का निर्देश दिया गया था।

सहारा के अधिकतर निवेशक छोटी पूंजी के वे लोग हैं जो एक बड़े लाभ की लालच में आकर अपनी मेहनत की कमाई का एक एक पैसा बटोर कर महीने दर महीने, इस उम्मीद में जमा करते रहे कि, वक्त जरूरत, उन्हे एक अच्छी खासी रकम, समय पर मिल जायेगी। पर ऐसा नहीं हुआ। चाहे शेयर बाजार हो, या नॉन बैंकिंग बचत कंपनिया, या चिट फंड, अक्सर लोगों की गाढ़ी कमाई का धन लेकर ऐसे ही डूब जाते है । 

अमीर पूंजीपति तो, राजनीतिक दलों को चंदा आदि देकर और उनसे अपने संपर्कों का लाभ लेकर, अपना कर्ज राइट ऑफ की आड़ में माफ करा लेते हैं, या देश छोड़ कर भाग जाते हैं, पर गरीब और छोटी पूंजी के मिडिल क्लास निवेशक, ठगे जाते हैं। आगे सेबी या अदालत क्या करती है, यह तो समय बताएगा।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Tuesday, 14 November 2023

प्रेस की आजादी और तुषार कांति घोष के नाम नेहरू का एक पत्र / विजय शंकर सिंह

आज जवाहरलाल नेहरु का जन्मदिन है। नेहरू एक उदार, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील सोच के राजनेता थे, और उनका यह भाव, उनकी लिखी किताबों, लेखों, भाषणों और उनके द्वारा किए गए  कार्यों में बराबर दिखता है। आज जब प्रेस इंडेक्स में हम, दुनिया में एक शर्मनाक स्तर पर पहुंच चुके हैं, प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सदर्भ में, भारतीय पत्रकारिता के शिखर पुरुषों में से एक, तुषार कांति घोष के नाम, उनका लिखा यह पत्र, प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति, उनकी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता है। 

प्रेस की स्वतंत्रता और ब्रिटिश गवर्नर के द्वारा अखबारों के संपादकीय की बेजा सेंसरशिप पर, अपना विरोध जताते हुए, जवाहरलाल नेहरू ने 4 मार्च 1940 को भारतीय पत्रकार संघ के अध्यक्ष, तुषार कांति घोष को एक पत्र लिखा था। तब भारत आजाद भी नहीं हुआ था और आजादी की लड़ाई चल रही थी, जिसमें नेहरू की एक बड़ी भूमिका थी। पर प्रेस की स्वतंत्रता के बारे में, नेहरू का यह दृष्टिकोण, उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भी, उनके जीवनपर्यंत बना रहा है। 

तुषार कांति घोष (21 सितंबर, 1898 - 29 अगस्त, 1994) एक भारतीय पत्रकार और लेखक थे।  साठ वर्षों तक, अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले तक, घोष कोलकाता से प्रकाशित होने वाले, अंग्रेजी भाषा के समाचार पत्र अमृत बाजार पत्रिका के संपादक थे।  उन्होंने इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट और कॉमनवेल्थ प्रेस यूनियन जैसे प्रमुख पत्रकारिता संगठनों के पदाधिकारी के रूप में भी काम किया है।  घोष को देश के, प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति उनके योगदान के लिए "भारतीय पत्रकारिता के महापुरुष" और "भारतीय पत्रकारिता के डीन" के रूप में जाना जाता है।

तुषार कांति घोष भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान, एक सजग और सतर्क पत्रकार के रूप में प्रमुखता से उभरे थे। वह महात्मा गांधी के विचारों और सविनय अवज्ञा आंदोलन से जुड़े और गांधी जी के अहिंसा की नीति के, प्रबल समर्थक थे।  ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों ने 1935 में, तुषार कांति घोष को, उनके एक लेख, जिसमें, ब्रिटिश जजों की निंदा की गई थी, के संबंध में उन पर, मुकदमा दर्ज किया और उन्हें जेल में डाल दिया गया। इस लेख में ब्रिटिश न्यायाधीशों के अधिकार पर, सवाल उठाया गया था। 

एक रोचक किस्से के अनुसार, बंगाल प्रांत के गवर्नर ने एक बार टीके घोष से कहा कि, "जब वह घोष का पेपर नियमित रूप से पढ़ते हैं, तो इसका अंग्रेजी व्याकरण अपूर्ण और कहीं कहीं अशुद्ध होता है, और "यह अंग्रेजी भाषा की लगता है, हत्या कर देता है।" टीके घोष ने, इस पर गवर्नर से जवाब में कहा, "महामहिम, यह स्वतंत्रता संग्राम में मेरा योगदान है।" 

एक पत्रकार के रूप में अपने अखबारी काम के अतिरिक्त, तुषार कांति घोष ने, गल्प यानी कहानी, उपन्यास और बच्चों के लिए कुछ किताबें भी लिखीं। 1964 में, उन्हें, पत्रकारिता, साहित्य और शिक्षा में उनके योगदान के लिए, उन्हें भारत के तीसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान, पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। टीके घोष की, एक संक्षिप्त बीमारी के बाद 1994 में कोलकाता में ही, हृदय गति रुक जाने से मृत्यु हो गई।

इन्ही, तुषार कांति घोष को, जवाहरलाल नेहरू अपने लिखे एक पत्र में लिखते हैं...

..."यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि सार्वजनिक जीवन का निर्माण एक स्वतंत्र और स्वतंत्र प्रेस की नींव पर किया जाना चाहिए। इसलिए मुझे जुगांतर (एक प्रसिद्ध बांग्ला अखबार) के, सरकार द्वारा बहिष्कार या प्रतिबंध की कोशिशों पर, बहुत अफसोस है।

यहीं, मैं यह भी कहना चाहूंगा कि 'हिन्दुस्तान स्टैंडर्ड' पर प्रकाशन से पहले, सभी संपादकीय मामलों को सेंसरशिप के लिए, सरकार के विभाग के पास भेजने का, बंगाल सरकार का वर्तमान आदेश, मुझे, सत्ता के अधिकार का एक आश्चर्यजनक दुरुपयोग लगता है। अगर इस तरह के सेंसरशिप की इजाजत, सरकार को। दी गई तो अखबारों का स्वतंत्र रूप से, संपादकीय लेखन पूरी तरह खत्म हो जाएगा। तब अखबारों में छपने वाले, प्रमुख लेख उक्त अखबार के संपादकों के नहीं, बल्कि, सरकार के सेंसर विभाग के होंगे, और कोई भी, ऐसे लेख, जो सरकार द्वारा सेंसर किया गया हो, पढ़ना नहीं चाहेगा। क्योंकि, यह एक सामान्य धारणा है कि,  सेंसर किसी विशेष मामले के बारे में क्या सोचता है या कैसे सोच सकता है। किसी भी, सरकार को, अपनी राय व्यक्त करने और उसे, सीधे जनता के सामने रखने का पूरा अधिकार है। लेकिन अखबारों के संपादकीय स्तंभों के माध्यम से, सरकार को अपनी राय प्रचारित करने या अपने कार्यों को सेंसर के नाम पर, थोपने का यह अप्रत्यक्ष तरीका, एक ऐसी मनोवृत्ति है, जिसे सदैव, अखबार के कामकाज के लिए बेहद गलत माना गया है। किसी अखबार के लिए इस गिरावट के सामने झुकने या अपनी आत्मा का समर्पण करने से कहीं बेहतर है कि वह कोई संपादकीय ही न लिखे। 
          
अखबारी जगत में, अपना स्थान बना चुके प्रसिद्ध राष्ट्रवादी समाचार पत्र काफी हद तक अपनी जिम्मेदारी समझने में सक्षम हैं। उनके साथ जो कुछ भी होता है, उससे, वे जनता का ध्यान और जनता का समर्थन आकर्षित करते हैं। छोटे और कम प्रसिद्ध अखबारों को तो, अक्सर सरकारी हस्तक्षेप का शिकार होना पड़ता है, क्योंकि वे इतने प्रसिद्ध और अधिक सर्कुलेशन वाले नहीं होते हैं। हालाँकि, हमारी सबसे छोटी और सबसे कम वितरित होने वाली पत्रिकाओं को भी सरकारी हस्तक्षेप और दमन का शिकार होने देना, एक खतरनाक मनोवृत्ति है। क्योंकि यह आदत, इस दखलंदाजी के साथ, साथ बढ़ती जायेगी और धीरे-धीरे जनमानस, सरकार द्वारा अपनी शक्तियों के दुरुपयोग का आदी हो जाता जायेगा।  इसलिए पत्रकार संघ के साथ-साथ सभी अखबारों के लिए भी यह जरूरी है कि वे कम चर्चित अखबारों से जुड़े ऐसे मामलों को भी, यूं ही न जाने दें।  यदि वे प्रेस की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए, जरा भी उत्सुक हैं, तो उन्हें इस स्वतंत्रता का, सचेत और सतर्क संरक्षक के रूप में आगे आना चाहिए और जहां कहीं से भी, उन्हे ऐसा अतिक्रमण और दखलंदाजी दिखे, उसका विरोध करना चाहिए। यह केवल, राजनीतिक विचार या राय का मामला नहीं है।  जिस क्षण हम किसी अखबार पर किए गए हमले को स्वीकार कर लेते हैं, जिससे हम असहमत होते हैं, तो, हम फिर, सैद्धांतिक रूप से, सत्ता के समक्ष, आत्मसमर्पण कर देते हैं, और जब, वही अतिक्रमण या दखलंदाजी या हमला, हम पर होता है तो, हमारे पास, उसका विरोध करने का, कोई आधार या कोई शक्ति, शेष नहीं रहती है।
 
यहां तक ​​कि, एक अत्याचारी भी इस प्रकार की स्वतंत्रता के लिए सहमत है... यदि हम गलत मानक स्थापित करते हैं और गलत साधन अपनाते हैं, यहां तक ​​कि इस विश्वास में भी कि हम एक सही उद्देश्य को आगे बढ़ा रहे हैं, तो वह कारण स्वयं प्रभावित होगा और उन लोगों द्वारा पूर्वाग्रहित होगा  मानक और वे साधन..."

1939 में, द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो चुका था। और कांग्रेस सरकारों ने, बिना उनको विश्वास में लिए ही, भारत को युद्ध में शामिल कर लेने के ब्रिटिश सरकार के फैसले के विरोध में, सभी प्रांतीय सरकारों से इस्तीफा दे दिया था। कांग्रेस तो, प्रांतीय सत्ता से हट गई, पर जिन प्रांतों में मुस्लिम लीग सरकार में थी, वहां की सरकारें बदस्तूर चलती रही। जहां जहां, मुस्लिम लीग को संख्या बल की कमी पड़ी, वहां पर हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग का साथ दिया और साझा सरकार चलाई। इस तरह, कांग्रेस ने आगे चल कर सन 1942 में अपना अंतिम और सबसे व्यापक जन आंदोलन, भारत छोड़ो का आगाज किया, और जब तक, द्वितीय विश्व युद्ध चलता रहा, तब तक, कांग्रेस के सभी बड़े नेता जेल में बंद रहे। न सिर्फ कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेता जेल में थे, बल्कि, देश की आम जनता भी सड़कों पर उतर आ गई थी और लोगों को भारी संख्या में जेलों में बंद कर दिया गया था। लेकिन आंदोलन की गति धीमी नहीं पड़ी।

साल 1940 में जब प्रांतीय सरकारों ने इस्तीफा दिया तब कलकत्ता का प्रमुख अखबार जुगांतर ने, ब्रिटिश सरकार पर तीखे हमले किए। उसी के बाद, इन अखबारों पर, युद्ध की आड़ में, सेंसरशिप लागू करने का निर्णय बंगाल के गवर्नर ने लिया था। जुगांतर के संपादकीय की धार से ब्रिटिश हुकूमत असहज होने लगी थी। जुगांतर ही नहीं, अन्य छोटे अखबार भी, इसी तीखेपन के साथ स्वाधीनता आंदोलन में अपना योगदान देने लगे थे। उसी सेंसरशिप के संदर्भ में, जवाहरलाल नेहरु ने, तुषार कांति घोष, जो तब, अखबार के संपादक और भारतीय पत्रकार संघ के प्रमुख थे, को यह पत्र लिखा था। 

आज जब, वर्तमान सरकार, सरकार विरोधी खबरों के कारण, कुछ मुखर वेबसाइट पर अपनी नजरें टेढ़ी कर रही है तो नेहरू का यह पत्र अचानक प्रासंगिक हो उठता है। हालांकि, आज कोई घोषित सेंसरशिप नहीं है लेकिन जिस तरह से कभी द वायर को, तो कभी अडानी घोटालों की परत दर परत जांच करने वाले खोजी पत्रकार, जैसे परंजय गुहा ठाकुरता, रवि नायर, आदि को, तो, हाल ही में न्यूजक्लिक के मालिक, प्रबीर पुरकायस्थ तथा, उर्मिलेश, अभिसार शर्मा, भाषा सिंह, जैसे नामचीन स्वतंत्र पत्रकारों को, आज सरकार, विभिन्न जांच एजेंसियों के द्वारा जिस तरह से घेर रही है यह, सरकार का, घोषित सेंसरशिप से भी अधिक कठोर और दमनात्मक रवैया है। 

यह भी एक विडंबना है कि, पत्रकारिता की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने वाले अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी संगठन रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा 180 देशों में पत्रकारिता की स्थिति का विश्लेषण कर जारी की गई रिपोर्ट 'विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2023' में भारत 161वें पर है और भारत में प्रेस की आजादी बहुत गम्भीर स्थिति में पहुंच गई है। 

जबकि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में प्रेस की स्वतंत्रता का विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया गया है और जो उल्लेख किया गया है वह केवल भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। संविधान सभा की बहस में प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर ने यह स्पष्ट कर दिया था कि प्रेस की स्वतंत्रता का कोई विशेष उल्लेख बिल्कुल भी आवश्यक नहीं है क्योंकि प्रेस और एक व्यक्ति या एक नागरिक एक समान हैं जहां तक, अभिव्यक्ति के अधिकार का सवाल है। 

आज देश के प्रथम प्रधानमंत्री और आइडिया ऑफ इंडिया के ध्वजवाहक, और अपने समय के महान स्वप्नदर्शी, नेता जवाहरलाल नेहरू को उनके जन्मदिन पर, उनका विनम्र स्मरण। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 


Monday, 13 November 2023

जवाहरलाल नेहरू को उनके जन्मदिन पर याद करते हुए, संसदीय लोकतंत्र के संदर्भ में उनका एक उद्धरण / विजय शंकर सिंह

संसदीय लोकतंत्र कई गुणों की अपेक्षा करता है। यह निश्चित रूप से, क्षमता की  अपेक्षा करता है। यह काम के प्रति एक निश्चित समर्पण की अपेक्षा करता है। लेकिन यह बड़े पैमाने पर सहयोग, आत्म-अनुशासन और संयम की भी अपेक्षा रखता है। यह तय है कि, एक सदन, बिना सहयोग की भावना और प्रत्येक समूह में बड़े पैमाने पर संयम और आत्म-अनुशासन के बिना कोई कार्य संपन्न नहीं कर सकता है। संसदीय लोकतंत्र कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे किसी जादू की छड़ी से, किसी देश में चलाया जा सके। हम, यह अच्छी तरह से जानते हैं कि, दुनिया में ऐसे बहुत से देश नहीं हैं, जहां यह सफलतापूर्वक काम कर रहा हो। मुझे लगता है कि, यह बात, बिना किसी पक्षपात के कही जा सकती है कि, इसने, इस देश में बहुत बड़ी सफलता के साथ अपना काम किया है। क्यों? इसलिए नहीं कि,  हम जो इस सदन के सदस्य हैं, ज्ञान के आगार हैं, बल्कि मुझे लगता है कि, ऐसा हमारे देश की पृष्ठभूमि के कारण है, और  हमारे लोगों में लोकतंत्र की भावना अंतर्निहित है। 

~ संसदीय लोकतंत्र पर जवाहरलाल नेहरू, 28 मार्च, 1957.

Parliamentary democracy demands many virtues. It demands, of course, ability. It demands a certain devotion to work. But it demands also a large measure of co-operation, of self-discipline, of restraint. It is obvious that a House like this cannot perform any functions without a spirit of co-operation, without a large measure of restraint and self-discipline in each group. Parliamentary democracy is not something which can be created in a country by some magic wand. We know very well that there are not many countries in the world where it functions successfully. I think it may be said without any partiality that it has functioned with a very large measure of success in this country. Why ? Not so much because we, the Members of this House, are examplars of wisdom, but, I think, because of the background in our country, and because our people have the spirit of democracy in them. 

~ Jawaharlal Nehru on  Parliamentary Democracy, 28 March, 1957.

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

Friday, 10 November 2023

इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, कंप्यूटर, मोबाइल आदि की जांच एजेंसियों द्वारा की जा रही जब्ती और जांच के बारे में, सुप्रीम कोर्ट में दायर ड्राफ्ट दिशा निर्देश / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट में, राम रामास्वामी और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य के नाम से दायर एक याचिका में, पांच शिक्षाविदों, जिन्होंने जांच एजेंसियों द्वारा व्यक्तिगत इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की जब्ती के लिए, सुप्रीम कोर्ट से, दिशानिर्देश की मांग करते हुए, याचिका दायर की है, ने दिशानिर्देशों का एक ड्राफ्ट भी तैयार किया है और उस ड्राफ्ट को, शीर्ष कोर्ट के विचारार्थ सौंप भी दिया है। 

9 नवंबर, 2023 को यह याचिका, सुनवाई हेतु, जस्टिस संजय किशन कौल और सुधांशु धूलिया की बेंच के सामने, जब पेश की गई, तो, शीर्ष कोर्ट ने वरिष्ठ वकील नित्या रामकृष्णन को इन दिशानिर्देशों को संघ और राज्यों को, भेजने का भी निर्देश दिया। उल्लेखनीय है कि, दो दिन पहले फाउंडेशन फॉर मीडिया प्रोफेशनल्स की ओर से दायर याचिका पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकारों के डिजिटल डिवाइस जब्त किए जाने पर चिंता जताई थी और केंद्र से कहा था कि, इस मामले मे, बेहतर दिशानिर्देशों को लागू करने की जरूरत है, ताकि किसी भी प्रकार का उत्पीड़न रोका जा सके। यह दोनों याचिकाएं अब 5 दिसंबर को, सुनवाई के लिए निर्धारित की गई हैं।

इन ड्राफ्ट दिशानिर्देशों को, याचिकाकर्ताओं की तरफ से, एडवोकेट एस प्रसन्ना द्वारा, दायर किया गया है। मसौदा दिशानिर्देशों की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं, इस प्रकार हैं...

1. इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की जब्ती, न्यायिक वारंट, हासिल करने के बाद ही होनी चाहिए। 
न्यायिक वारंट प्राप्त न करने के कारणों को दर्ज करते हुए आपातकालीन जब्ती एक अपवाद रूप में ही होनी चाहिए।  
हालाँकि, किसी भी मामले में, यह भी "स्पष्ट रूप से" निर्धारित किया जाना आवश्यक है कि डिवाइस को क्यों और किस क्षमता में जब्त करना आवश्यक है।

2. इस आधार पर जब्ती की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए कि सबूत मिल सकते हैं।  याचिकाकर्ताओं ने समझाया, "दूसरे शब्दों में, सबूत मिलने के अनुमान पर जब्ती किसी भी परिस्थिति में स्वीकार्य नहीं होगी, खासकर जहां डिवाइस किसी आरोपी व्यक्ति का नहीं है।"

3. विशेषाधिकार प्राप्त, पेशेवर, पत्रकारिता, या शैक्षणिक सामग्री को आपातकालीन जब्ती से बाहर रखा जाना चाहिए।  इसकी अनुमति केवल न्यायिक वारंट के माध्यम से ही दी जाएगी और केवल तभी जब सामग्री सीधे अपराध से जुड़ी हो।  
“यदि इरादा ऐसी विशेषाधिकार प्राप्त, पेशेवर, पत्रकारिता, या शैक्षणिक सामग्री की खोज करना है, तो यह केवल न्यायिक वारंट द्वारा और इस आधार पर होना चाहिए कि उक्त सामग्री सीधे तौर पर जांच के तहत अपराध का हिस्सा है, न कि केवल उसी का सबूत है।”

० उपकरणों/सामग्री की खोज, प्रतिधारण और वापसी

उपकरण को जब्त करने के तुरंत बाद, उसे एक स्वतंत्र एजेंसी के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।  सभी सामग्री (अप्रासंगिक, व्यक्तिगत और विशेषाधिकार प्राप्त) की पहचान की जाएगी।  इसके अलावा, संबंधित सामग्री को अलग कर दिया जाएगा जिसके बाद संबंधित सामग्री की एक प्रति ली जाएगी।  उसके तुरंत बाद डिवाइस वापस कर दिया जाएगा. 
इसके अलावा दिशानिर्देश यह भी स्पष्ट करते हैं कि किसी भी अन्य बहिष्कृत सामग्री को अपने पास नहीं रखा जाएगा।

ड्राफ्ट दिशानिर्देश के अनुसार...
“एक स्वतंत्र एजेंसी द्वारा प्रारंभिक जांच में, डिवाइस के मालिक (या उनके एजेंट) की उपस्थिति में, सभी अप्रासंगिक, व्यक्तिगत और विशेषाधिकार प्राप्त सामग्री की अलग से पहचान की जाती है, जांच के लिए प्रासंगिक सामग्री का सीमांकन किया जाता है और केवल ऐसी प्रासंगिक सामग्री की एक प्रति रखी जायेगी। इस प्रकार, जब्ती से बाहर रखी गई अप्रासंगिक, विशेषाधिकार प्राप्त या व्यक्तिगत सामग्री को बरकरार नहीं रखा जाना चाहिए, और जांच या संदिग्ध सामग्री के लिए केवल प्रासंगिक सामग्री की एक प्रति लेने के बाद डिवाइस को तुरंत, जिनसे जब्त किया गया है, वापस कर दिया जाना चाहिए।"

० मालिकों को पासवर्ड देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता

तलाशी और जब्ती की स्थितियों में, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के मालिकों को अपना पासवर्ड देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, जब तक कि वे धारा 69 सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 जैसे वैधानिक प्रावधानों के तहत ऐसा करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य न हों।

इस विंदु पर, ड्राफ्ट दिशानिर्देश कहता है..
“जिस व्यक्ति के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को खोजा/जब्त किया जाना है, उसे किसी भी क्रेडेंशियल या पासवर्ड या जानकारी का खुलासा करने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा, जिसमें किसी भी क्लाउड-संग्रहीत जानकारी भी शामिल है।
सिवाय इसके कि, उदाहरण के लिए वैधानिक रूप से निर्धारित है कि, धारा 69 सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 यदि और जब लागू हो।
इसके अतिरिक्त, सेवा प्रदाताओं/मध्यस्थों से जानकारी प्राप्त करने वाले कानून उन कानूनों में उचित परिस्थितियों में लागू हो सकते हैं।"

यह भी निर्दिष्ट किया गया था कि 
"पुलिस द्वारा किसी भी व्यक्ति को अपने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को पेश करने के लिए नहीं बुलाया जाएगा, चाहे वह गवाह के रूप में हो या आरोपी के रूप में"।

० जांच अधिकारी के कर्तव्य के संबंध में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया कि...

“सभी परिस्थितियों में, यह जांच अधिकारी का कर्तव्य होगा कि वह प्रासंगिक जानकारी प्राप्त करे और मालिक को समय पर (उपकरण) लौटा दे, या किसी अदालत या अन्य प्राधिकारी (जहां मालिक नहीं मिल सकता है) को सुरक्षित रूप से, उसे सौंपना सुनिश्चित करें ताकि, प्रतियां सुनिश्चित की जा सकें। इस तरह की सूचना में, किसी भी अनधिकृत व्यक्ति द्वारा प्रवेश नहीं किया जायेगा।"

अंत में इस बात पर भी जोर दिया गया कि यदि इन बुनियादी सावधानियों का पालन नहीं किया गया तो, आरोपी व्यक्ति के खिलाफ ऐसी सामग्री का उपयोग नहीं किया जाएगा।
ड्राफ्ट में आगे है,
"जहां इन बुनियादी सावधानियों को बनाए नहीं रखा गया है, ऐसी सामग्री का उपयोग किसी भी अदालत में या किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति के खिलाफ या किसी भी तरह से नहीं किया जाएगा।"

इधर हाल में जिस तरह से, ईडी, सीबीआई और पुलिस सहित अन्य जांच एजेंसियों द्वारा, विभिन्न पत्रकारों, समाज के अन्य उन लोगों, के यहां छापे डाल कर, उनके इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे, लैपटॉप, मोबाइल, आदि जांच एजेंसी द्वारा जब्त कर लिये जा रहे हैं और उन उपकरणों में संग्रहीत सामग्री, कितनी जांच एजेंसी के उपयोग की है और कितनी उस व्यक्ति की निजी सामग्री है, का कोई विवरण, जांच एजेंसी न तो तैयार करती, है और न ही किसी तरह का कोई सर्च मेमो, फर्द आदि, तैयार कर के, आरोपी या गवाह या वह व्यक्ति जिससे, उसका इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जब्त किया जा रहा है, को इस बारे में बताती है, जिसे लेकर, इस ड्राफ्ट दिशानिर्देश की जरूरत महसूस की जा रही है और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस संदर्भ में, सरकार को दिशानिर्देश निर्धारित करने का निर्देश भी दिया था। 

फर्द उपकरण का तो तैयार किया जाता है, पर उस उपकरण में, कौन सी सामग्री, आपत्तिजनक और जांचतलब है, इसका कोई सर्च मेमो तैयार नहीं किया जाता। यह दिशा निर्देश यही स्पष्ट कर रहे हैं कि, उनका भी सर्च मेमो तैयार कर, आपत्तिजनक सामग्री की कॉपी तैयार कर, उसे भी, उपकरण सहित, आरोपी को सौंप दिया जाय, जिससे उन सामग्री का कोई दुरुपयोग न हो सके। 

होता यह है कि, आपत्तिजनक और गैरकानूनी सामग्री, लेख, फोटो, ऑडियो, वीडियो या कुछ और भी, की तलाश में, जब जांच एजेंसियां छापा मारकर जब्ती करती हैं तो, वे ये उपकरण तो जब्त कर लेती हैं, पर उनके अंदर क्या क्या सामग्री संग्रहीत है, और क्या क्या, उनकी जांच से जुड़ी है और क्या क्या आरोपी की निजी है का कोई मेमो तैयार नहीं करती हैं। यहीं यह भी संदेह उठता है कि, बाद में कोई आपत्तिजनक सामग्री, जो वास्तव में, उक्त उपकरण में रही ही न हो, और उसे बाद में प्लांट कर दिया गया जाय, और ऐसी सामग्री भी हो, जिसका आरोपों से कोई सरोकार भी न हो, और उक्त आरोपी की निजी सामग्री हो। 

ऐसी स्थिति में, सुबूतों के प्लांट करने, सुबूतों से छेड़छाड़ करने, और आरोपी की निजता को भंग करने का अक्सर आरोप भी जांच एजेंसी पर लगता रहता है। यह आरोप सच भी हो सकते हैं, और मिथ्या भी, साथ ही जांच एजेंसी, इनका दुरुपयोग भी कर सकती है। इस लिए, जांच प्रक्रिया में, पारदर्शिता हो, और, आरोपी को यह स्पष्ट रूप से एक सर्च मेमो या फर्द द्वारा, यह लिखित रूप में अवगत करा दिया जाय कि, उसके उपकरण से, कौन कौन सी सामग्री जांच तलब पाए जाने पर, जब्त की जा रही है। इसी आरोप, प्रत्यारोप, दुरुपयोग, उत्पीड़न और पारदर्शिता को ध्यान में रखते हुए, इस तरह के दिशानिर्देश का ड्राफ्ट तैयार कर, याचिका के साथ सुप्रीम कोर्ट में दायर किया गया है। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Saturday, 4 November 2023

सुप्रीम कोर्ट में इलेक्टोरल बांड पर सुनवाई का तीसरा और अंतिम दिन (02 नवंबर 2023) / विजय शंकर सिंह

दिनांक 02/11/23 को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने चुनावी बांड के बारे में तीसरे और अंतिम दिन की सुनवाई पूरी की। इस मामले में, बहस के अंतिम दिन, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा कि, "क्या वह कंपनियों द्वारा दिए गए चंदे पर, पर लाभ प्रतिशत - आधारित सीमा को फिर से लागू करने के लिए कंपनी अधिनियम में संशोधन करने की योजना बना रहा है।"
संविधान पीठ ने यह भी टिप्पणी की कि, "हालांकि वह सरकार से नकदी-आधारित चंदा प्रणाली पर वापस जाने के लिए नहीं कह रहे हैं,  लेकिन, वह इस योजना को आनुपातिक, अनुरूप तरीके से बनाने के लिए कह रहे हैं, जिसमें वर्तमान योजना से उत्पन्न होने वाली गंभीर खामियों का निराकरण किया जा सके।"

भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, बीआर गवई, जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की संविधान पीठ ने योजना के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की, जिसमें पारदर्शिता पर इसका प्रभाव और भ्रष्टाचार की संभावना भी शामिल है।  पीठ ने अपना फैसला भी सुरक्षित रख लिया। 

लाभ प्रतिशत आधारित दान को वर्तमान सरकार ने चुनावी बांड योजना को लागू करने के लिए कंपनी अधिनियम में संशोधन कर के बदल दिया है। दरअसल, चुनावी बांड योजना शुरू होने से पहले, कंपनियों को, एक सीमा तक ही दान देने की अनुमति थी कि, वे पिछले तीन वर्षों के औसत शुद्ध लाभ का केवल 7.5% तक ही, पॉलिटिकल फंडिंग कर सकते थे। पर नए कानून के अनुसार, यह सीमा, कंपनी अधिनियम में संशोधन कर के, हटा दी गई। अब कंपनियां, बेहिसाब चंदा दे सकती हैं। चुनावी बॉन्ड योजना, 2018 द्वारा, इस सीमा को खत्म करने के बाद, चुनावी बांड के जरिए कंपनियां राजनीतिक दलों को, अब जितना चाहें, उतना पैसा दे सकती हैं। यही महत्वपूर्ण सवाल, पीठ ने सरकार के वकील से पूछा।

राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता बनाए रखने और फर्जी कंपनियों को बड़ी रकम देने से हतोत्साहित करने के मकसद से, तीसरे दिन, की चर्चा शुरू हुई। सरकार की तरफ से, एसजी ने तर्क दिया कि, "इन संशोधनों का उद्देश्य सिस्टम में स्वच्छ धन (White money) के प्रवेश के लिए प्रोत्साहित करना और नकद लेनदेन से बचना है।"
हालाँकि, सीजेआई, डीवाई चंद्रचूड़ ने रेखांकित किया कि, "योजना शुरू होने से पहले, कंपनियां पिछले तीन वित्तीय वर्षों के अपने शुद्ध लाभ का केवल 7.5% ही दान कर सकती थीं।  इसके विपरीत, योजना की शुरुआत के बाद, कोई भी कंपनी अपने लाभ या हानि की स्थिति की परवाह किए बिना योगदान कर सकती है।"
सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि, "जो कंपनी लाभ में नहीं चल रही हो, वह दान नहीं दे सकती।" 
इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा, "क्योंकि तब एक शेल कंपनी दान कर सकती है। इससे उद्देश्य विफल हो जाता है।"

सीजेआई ने सॉलिसिटर जनरल से पूछा, "तो आप क्या करेंगे? आप कंपनी अधिनियम में संशोधन लाएंगे?...क्या सरकार यह बयान दे रही है कि, हम कंपनी अधिनियम में संशोधन करके उस स्थिति को वापस लाएंगे कि दान लाभ का प्रतिशत होगा?"
एसजी ने नकारात्मक जवाब दिया और कहा कि, "वह केवल इस बात पर जोर दे रहे थे कि केवल लाभ कमाने वाली कंपनी ही दान दे सकती है।"

सीजेआई ने तब किसी कंपनी को, बिना किसी आनुपातिक सीमा के अपना पूरा लाभ, चाहे वह 1 रुपये या 100 रुपये हो, दान करने की अनुमति देने के पीछे के तर्क पर सवाल उठाया। सीजेआई ने पूछा, "मान लें कि कोई कंपनी, लाभ कमा रही है - इसमें 1 रुपये का लाभ या 100 रुपये का लाभ हो सकता है - यदि आपके पास प्रतिशत का बंधन नहीं है, तो कोई कंपनी क्यों, किस संभावित कारण से अपने मुनाफे का 100% दान करेगी? यही कारण है कि लाभ प्रतिशत प्रतिबंध लगाए गए थे, वे समय की कसौटी पर खरे भी उतरे। इसका कारण भी, बहुत वैध था - क्योंकि आप एक कंपनी हैं - आपका उद्देश्य व्यवसाय करना है, राजनीतिक दलों को दान देना नहीं। और यदि आपका उद्देश्य दान देना नहीं है, तो भी आपको दान अवश्य देना चाहिए और आप दान दे सकते हैं, पर उसकी राशि कम होगी।"

सीजेआई का संकेत केवल दान देने के लिए ही किसी कंपनी का गठन नहीं किया जाना चाहिए, इसीलिए यह प्रतिबंध लगाया गया था। सीजेआई की इस टिप्पणी पर, एसजी ने बताया कि, "पिछले अनुभवों से पता चला है कि, कुछ क्षेत्रों में कुछ कंपनियां 7.5% की सीमा से अधिक दान करना चाहती थीं, जिसके कारण उन्होंने इस सीमा से बचने के लिए शेल कंपनियां बनाईं। इस मुद्दे को सुलझाने और राजनीतिक चंदे के लिए फर्जी कंपनियों के गठन को हतोत्साहित करने के लिए सरकार ने इस सीमा को पूरी तरह खत्म करने का फैसला किया। इसके अलावा, यह निर्णय कंपनियों को उनके योगदान की सीमा तय करने की अनुमति देने के लिए किया गया था, जब तक कि वे लाभ कमाने वाली संस्थाएं थीं और इसका उद्देश्य शेल कंपनियों को हतोत्साहित करना था।"

इस दलील पर सीजेआई ने कहा, "संकीर्ण रूप से तैयार किए गए प्रावधान होने के कारण ही,  आपको (कंपनी को) कुछ वर्षों तक व्यवसाय करना होगा। आपके पास एक निश्चित टर्नओवर, परिसंपत्ति आधार होना चाहिए - ये आमतौर पर शेल कंपनियों को व्यवसाय करने से रोकने के लिए स्वीकृत मानदंड हैं, हमें इसके उद्देश्यों में नहीं जाना है। हम पूरी तरह से उस प्रक्रिया का सम्मान करते हैं। मुद्दा यह नहीं है। हम केवल नकद प्रणाली में वापस नहीं जाना चाहते हैं। हम बस इतना कह रहे हैं कि इसकी इसकी गंभीर कमियाँ को दर्ज करते हुए, इसे
आनुपातिक, तरीके से करें ।"
उन्होंने आगे पूछा, "क्या यह वैध होगा- अगर किसी कंपनी को अपने राजस्व का 100% भी दान करना हो तो ? क्या यह परोपकारी उद्देश्यों से निर्देशित है ?"

० योजना में पर्याप्त सुरक्षा उपाय हैं।

एसजी ने इस बात पर प्रकाश डाला कि चुनावी बांड योजना का उद्देश्य राजनीतिक चंदे में शेल कंपनियों और नकद लेनदेन के उपयोग को हतोत्साहित करना था। उन्होंने तर्क दिया कि, "इस योजना का उद्देश्य, सिस्टम में स्वच्छ धन को प्रवाहित करके राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता लाना है।"
एसजी ने देश के विकास में वाणिज्यिक क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख किया और भारत में सबसे बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक से जुड़े चल रहे मामले का उल्लेख करते हुए इस क्षेत्र में मजबूत विनियमन की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने आगे बताया कि, "इस योजना ने पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न उपाय पेश किए हैं, जैसे दानदाताओं और राजनीतिक दलों दोनों के लिए नामित खाते और रिकॉर्ड रखने की आवश्यकता।" 

एसजी ने राजनीतिक दल की पात्रता के लिए 1% वोट सीमा को उचित ठहराया, यह कहते हुए कि, "इसका उद्देश्य केवल छूट का दावा करने के उद्देश्य से नकली पार्टियों के गठन को रोकना था।"
गुमनाम दान के बारे में चिंताओं को दूर करने के लिए, एसजी ने केवाईसी (अपने ग्राहक को जानें) आवश्यकताओं को समझाया, जिसमें आधार संख्या और पते प्रदान करना शामिल था। उन्होंने संभावित एग्रीगेटर्स के बारे में चिंताओं को भी संबोधित किया, जिसमें कहा गया था कि सिस्टम को दानकर्ताओं को कई एग्रीगेटर्स ढूंढने की आवश्यकता होगी यदि वे महत्वपूर्ण रकम दान करना चाहते हैं, जो आसान नहीं था क्योंकि इसमें उच्च मूल्य रकम के कई लेनदेन शामिल होंगे, जिससे कई व्यक्ति उजागर होंगे। उन्होंने कहा कि, "यहां तक ​​कि इसके दुरुपयोग की भी कुछ संभावना है, लेकिन, यह योजना को रद्द करने का आधार नहीं है।" 
उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि कोई भी प्रणाली पूरी तरह से फुलप्रूफ नहीं हो सकती है।"

अदालत में अपना पक्ष रखते हुए, जब एसजी तुषार मेहता ने, जब इस बात पर प्रकाश डालते हुए कहा कि, "बांड की वैधता जारी होने की समय सीमा, केवल 15 दिनों की रखी गई है।" और यह कहते हुए, उन्होंने, इस अल्प समय सीमा के महत्व पर भी जोर दिया गया। एसजी ने जोर देकर कहा कि, "15 दिन की समय सीमा ने चंदे के बदले में, पक्षपाती सौदों की संभावना को कम कर दिया है क्योंकि दानकर्ताओं को इस अवधि के भीतर ही बांड देने की आवश्यकता होती है।"
जोखिम को और कम करने के लिए, उन्होंने उल्लेख किया कि, "यदि बांड को निर्धारित समय सीमा के भीतर भुनाया नहीं गया, तो यह राशि पीएम राहत कोष में चली जाएगी, और दानकर्ता इसे वापस नहीं ले पाएगा। इससे यह सुनिश्चित हुआ कि दानदाताओं को राजनीतिक दलों द्वारा समय पर बांड जमा कराने के लिए प्रोत्साहन मिले।"

चुनावी बांड में सीक्रेसी या गोपनीयता, सॉलिसिटर जनरल द्वारा उठाए गए बिंदुओं का भी एक पहलू था। उन्होंने दलील दी कि, "दानदाताओं की गोपनीयता बनाए रखना आवश्यक था और बांड को इसीलिए कड़े गोपनीयता प्रतिबंधों के साथ डिजाइन किया गया है। इस गोपनीयता का उल्लंघन करने से, पहचान साबित हो जाने का जोखिम लिए, डिजिटल संकेत सामने आएंगे और इसमें शामिल लोगों के लिए, यह दिक्कततलब हो आएगा। गोपनीयता के ही कारण, जांच एजेंसियां ​​भी, केवल अदालत के आदेश से ही दानदाताओं के विवरण तक पहुंच सकती हैं।"

० योजना का उद्देश्य पारदर्शिता सुनिश्चित करना है।

अपने तर्कों में, एसजी मेहता ने जोर देकर कहा कि, "कोई भी योजना, तब तक नहीं चल सकती जब तक कि, दानदाता के विवरण को गोपनीय नहीं रखा जाता क्योंकि, गोपनीयता के बिना, एक दानदाता हमेशा, नकद के माध्यम से दान करने का विकल्प चुनेगा। चुनावी बांड योजना को इस तरह से तैयार किया गया था कि यह दानदाता की गोपनीयता को पूरी तरह से सुनिश्चित करता है जब तक कि अदालत, इस संबंध में कोई, अन्यथा आदेश न दे। केवल उसी पार्टी को दानकर्ता का विवरण पता चल सकेगा, जिसे दान दिया गया है और इससे किसी अन्य राजनीतिक दल द्वारा दानकर्ता का प्रतिशोध और उत्पीड़न रोका जा सकेगा।"

एसजी की उपरोक्त दलील के बाद, पीठ की तरफ से, न्यायमूर्ति गवई ने पूछा- "मतदाताओं के अधिकार के बारे में क्या कहना है?"
एसजी ने यह कहते हुए जवाब दिया कि, "मतदाता का अधिकार केवल यह जानना है कि किस पार्टी को क्या जानकारी मिली। मतदाताओं से केवल विशिष्ट व्यक्तियों या संगठनों के अभियान योगदान के आधार पर निर्णय लेने की अपेक्षा करना यथार्थवादी नहीं है। इसके बजाय, मतदाताओं को अपने निर्णय, विचारधारा, सिद्धांतों, नेतृत्व और एक राजनीतिक दल की दक्षता जैसे कारकों पर आधारित करने चाहिए। उद्योग और व्यवसाय, उन राजनीतिक दलों का समर्थन कर सकते हैं जो उनके संचालन के लिए अनुकूल वातावरण बनाते हैं, लेकिन इसमें आवश्यक रूप से एक प्रतिदान व्यवस्था शामिल नहीं है जहां वित्तीय योगदान से राजनीतिक लाभ मिलता है।" 

आगे एसजी ने कहा, "चुनाव की शुचिता मतदान के अधिकार से सर्वोपरि है। मतदाता, इस आधार पर वोट नहीं करते कि, कौन सी पार्टी किसके द्वारा वित्त पोषित है, मतदाता विचारधारा, सिद्धांत, नेतृत्व, पार्टी की दक्षता के आधार पर वोट करते हैं।"
एसजी ने आगे स्पष्ट किया कि, "योजना का उद्देश्य सत्तारूढ़ दल को चंदा अभियान योगदान के बारे में, जानकारी प्राप्त करने में, सक्षम बनाना नहीं था। इसका उद्देश्य राजनीतिक लाभ की सुविधा के बजाय पारदर्शिता और निष्पक्षता है।"

इस मौके पर सीजेआई ने पूछा, "क्या आपका तर्क है कि इस योजना के तहत, सत्तारूढ़ दल को पता नहीं है कि दानकर्ता कौन हैं?"
इस पर, एसजी ने कहा कि प्रत्येक राजनीतिक दल अपने स्वयं के दानदाताओं के बारे में जानता है।  दानदाताओं के संबंध में गोपनीयता मुख्यतः अन्य दलों के लिए भी।  जबकि उन्होंने एक पार्टी द्वारा दान के स्रोत के बारे में अनभिज्ञता का नाटक करने की संभावना का उल्लेख किया, किसी के उदाहरण का उपयोग करते हुए दावा किया कि उन्हें अपने दानपात्र में गुमनाम रूप से बड़ी राशि प्राप्त हुई। ऐसा परिदृश्य यथार्थवादी नहीं था क्योंकि पर्याप्त राजनीतिक दान, आम तौर पर गुमनाम रूप से नहीं बनाए गए थे।"
न्यायमूर्ति खन्ना ने टिप्पणी की- "यदि ऐसा है, तो इसे क्यों नहीं खोला जाता?जैसा कि यह है, हर कोई जानता है। एकमात्र व्यक्ति जो इस जानकारी से वंचित है, वह मतदाता है।"

इसके बाद सीजेआई की टिप्पणी आई जिन्होंने चुनावी वित्तपोषण के क्षेत्र में पांच महत्वपूर्ण विचारों को रेखांकित किया।  इन विचारों में, 
० चुनावी प्रक्रिया में नकदी पर निर्भरता को कम करने की अनिवार्यता, 
० चंदा दान अभियान योगदान के लिए अधिकृत बैंकिंग चैनलों को बढ़ावा देना, 
० इन चैनलों का उपयोग करने वाले दानदाताओं के लिए गोपनीयता को प्रोत्साहित करना, 
० चुनावी वित्तपोषण में पारदर्शिता की सर्वोपरि आवश्यकता और 
० सत्ता में मौजूद लोगों और वित्तीय लाभार्थियों के बीच रिश्वत या बदले की भावना पर किसी भी तरह की रोकथाम शामिल है।   
सीजेआई ने इस बात पर जोर दिया कि एक संतुलित प्रणाली ढूंढना जरूरी है, जो चुनावी प्रक्रिया की अखंडता को बनाए रखने के लिए अपारदर्शिता या दुरुपयोग को बढ़ावा दिए बिना इन कारकों को प्रभावी ढंग से संबोधित कर सके।  

अपनी बात रखते हुए सीजेआई ने आगे कहा,
"ऐसा नहीं है कि, या तो ऐसा है, या - कि या तो आप ऐसा करें, या पूरी तरह से नकदी पर वापस जाएं। आप एक अन्य प्रणाली डिज़ाइन कर सकते हैं, जिसमें इस प्रणाली की खामियां नहीं हों - वे अपारदर्शिता पर केंद्रित हैं। आप अभी भी एक डिज़ाइन कर सकते हैं जो, प्रणाली को, आनुपातिक तरीके से संतुलित बनाती है। यह कैसे किया जाना है यह आप पर निर्भर है, यह हमारा क्षेत्र नहीं है।"

० सूचनात्मक गोपनीयता का अधिकार सुनिश्चित किया जाना चाहिए

एसजी ने तब केएस पुट्टास्वामी फैसले का हवाला दिया, जिसमें अदालत ने सूचनात्मक गोपनीयता के मौलिक अधिकार को मान्यता दी थी। एसजी ने जानने के अधिकार और सूचनात्मक गोपनीयता के अधिकार को संतुलित करने की आवश्यकता पर जोर दिया, यह तर्क देते हुए कि, "सूचनात्मक गोपनीयता के अधिकार को जानने के सामान्य अधिकार के विरुद्ध दावा किया जा सकता है।"
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि, "हालांकि जनता को जानने का अधिकार है, लेकिन यह वास्तविक सार्वजनिक हित के मामलों तक ही सीमित होना चाहिए, और जिज्ञासु या उत्सुक पूछताछ से किसी व्यक्ति की निजता का उल्लंघन नहीं होना चाहिए।"

सॉलिसिटर जनरल ने तर्क दिया कि, "खुलासे में वैध, राज्य हित को सार्वजनिक हित से जोड़ा जाना चाहिए। किस कंपनी ने कितने बांड खरीदे और किस राजनीतिक दल ने कितने बांड प्राप्त किए, इसकी जानकारी पहले से ही सार्वजनिक डोमेन में है।  इससे परे कोई भी अतिरिक्त खुलासा नकदी आधारित अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित कर सकता है, जो राज्य के हित में उचित नहीं होगा।"
आगे उन्होंने अपनी दलील में यह जोड़ते हुए कहा, "गोपनीयता स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के प्रतिकूल नहीं है। कभी-कभी यह वर्तमान मामले की तरह यह योजना स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को बढ़ाती है। यह दान को, नकदी से, बैंकिंग चैनलों में, स्थानांतरित करती है।"
वकील कनु अग्रवाल ने एसजी की दलीलों को पूरक करते हुए कहा कि, "इस योजना ने ₹20,000 से कम के दान को रोका है।" जिसे उन्होंने "संदिग्ध योगदान" कहा।

० अनपेक्षित परिणाम कानून को रद्द करने का कारण नहीं हो सकता। 

इसके बाद भारत के अटॉर्नी जनरल, आर वेंकटरमणी की दलीलें आईं जिन्होंने, चुनावी फंडिंग पर वैश्विक कैनवास को बहुरूपदर्शक के रूप में वर्णित किया।  एजी ने कहा कि, "इन याचिकाओं की चुनौती में इस योजना के बारे में चिंता जताई है कि, यह संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों, जैसे कि अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19, अनुच्छेद 21 का उल्लंघन कर रही है और यहां तक ​​कि संविधान की मूल संरचना को भी कमजोर कर रही है।"
उन्होंने अदालत से संवैधानिक व्याख्या के महत्वपूर्ण सवालों पर ध्यान केंद्रित करने का आग्रह किया, न कि व्यापक "राजनीतिक बहस" पर।  एजी ने आगे कहा, "कुछ बहुत ही सटीक, प्रत्यक्ष बातें कही जानी चाहिए, न कि, कोई लंबा भाषण, जो एक राजनीतिक बहस जैसा हो। इस जानकारी तक पहुंचने के माध्यम से मैं किस उद्देश्य का उपयोग करूंगा? सामान्य राजनीतिक बहस या यह निर्धारित करना कि कौन सी पार्टी बेहतर प्रदर्शन करेगी  ? यह जानकारी किस ठोस उद्देश्य के लिए प्रासंगिक होगी?"

उन्होंने आगे कहा कि, "अदालत के समक्ष अनुभवजन्य विश्लेषण प्रस्तुत नहीं किया गया था। सरकार एक अनियमित (unregulated) प्रणाली से एक विनियमित (regulated) प्रणाली की ओर बढ़ रही है। कोई यह नहीं कह सकता कि, वे प्रत्येक क़ानून को अलग-अलग दृष्टि से देखेंगे और उन पर सवाल उठाएंगे। यह योजना किसी भी व्यक्ति के मौजूदा अधिकार का उल्लंघन नहीं करती है।"
आगे एजी ने अपनी दलील रखी, "हम इस सिद्धांत को स्वीकार नहीं कर सकते कि, एक परिधीय अधिकार, जो किसी नामित मौलिक अधिकार के प्रयोग को सुविधाजनक बनाता है या उसे सार प्रदान करता है, वह स्वयं नामित मौलिक अधिकार के साथ शामिल एक गारंटीशुदा अधिकार है।"

इस पर सीजेआई ने टिप्पणी की, "पुट्टास्वामी फैसले के बाद इस तर्क में बदलाव आया है। संविधान के तहत निजता के अधिकार को स्पष्ट रूप से मान्यता नहीं दी गई है, लेकिन हम इसे जीवन, गरिमा, प्रस्तावना मूल्यों आदि के अधिकार के रूप में पढ़ते हैं। एक पहलू के, एक भाग के रूप में घोषित करते हुए, घोषित अधिकार, शक्तियों के पृथक्करण पर बाधा नहीं डालता है। उदाहरण के लिए, हमने कहा है कि यौन अभिविन्यास अनुच्छेद 15 में निहित है। यह शक्तियों के पृथक्करण पर बाधा नहीं डालता है। यदि न्यायालय कोई विधायी उपाय निर्धारित करता है, जो अलगाव पर प्रभाव डालता है  शक्तियों का। संविधान में एक अधिकार ढूंढ़ना, हम कर सकते हैं। हमने कहा था कि शिक्षा का अधिकार भाग III का हिस्सा बनने से पहले ही एक अधिकार था। आज हमारे पास एक ढांचा है। हम कोई ढांचा नहीं बना रहे हैं। हम रूपरेखा की वैधता का परीक्षण कर रहे हैं।"
तब एजी ने तर्क दिया कि, "भले ही अवांछनीय परिणाम हों, वे परिणाम इच्छित नहीं हैं और कोई अनपेक्षित परिणाम कानून को रद्द करने का कारण नहीं हो सकता।"

सरकार के वकीलों की दलीलों के बाद, याचिकाकर्ता के वकीलों की जवाबी दलीलें प्रस्तुत की गई।

याचिकाकर्ता के वकील, प्रशांत भूषण ने बताया कि, "संशोधन ने राजनीतिक दलों को नकद दान को प्रभावी ढंग से सीमित नहीं किया है, बल्कि, नकदी चैनल खुले छोड़ दिए हैं। आयकर छूट सीमा को 20,000 से घटाकर 2,000 रुपये करने से कोई व्यावहारिक अंतर नहीं आया क्योंकि राजनीतिक दलों ने केवल 2,000 रुपये से ऊपर के दान की घोषणा की, जिससे उस राशि से नीचे का दान प्रभावी रूप से गुमनाम हो गया।"
हालाँकि, CJI ने जवाब दिया कि, "योजना का मुख्य उद्देश्य नियमित बैंकिंग चैनलों के माध्यम से राजनीतिक योगदान को प्रसारित करके पारदर्शिता बढ़ाना है।"

न्यायमूर्ति खन्ना ने योजना के पीछे के इरादे पर प्रकाश डाला और इस बात पर जोर दिया कि, "इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि, पैसा नियमित बैंकिंग चैनलों के माध्यम से अपने ग्राहक को जानें (केवाईसी) आवश्यकताओं के साथ आए, जो नकद दान के मामले में नहीं था। इस योजना का उद्देश्य विभिन्न कारणों से दानदाताओं की पहचान की रक्षा करना है।
तब प्रशांत भूषण ने तर्क दिया कि, "इस योजना ने नागरिकों के यह जानने के अधिकार को निष्कृय कर दिया कि, राजनीतिक दलों को किसने चंदा दिया है, जिसे अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत मान्यता प्राप्त है। भले ही नकद दान पर रोक नहीं है, लेकिन चुनावी बांड के माध्यम से एक गुमनाम चैनल शुरू करना उचित नहीं है।"

सीजेआई ने इस बात पर जोर देते हुए जवाब दिया कि, "योजना की वैधता जरूरी नहीं कि काले धन को कम करने में इसकी सफलता से जुड़ी हो और इसका मुख्य उद्देश्य पारदर्शिता बढ़ाना था।"  
आगे उन्होंने कहा, "संवैधानिक स्तर पर, यह तर्क टिक नहीं पाएगा। तथ्य यह है कि वे सभी नकदी स्रोतों को समाप्त करने में असमर्थ रहे हैं या उन्होंने ऐसा नहीं किया है। यह योजना की वैधता को चुनौती देने का आधार नहीं है।"
तब प्रशांत भूषण ने तर्क दिया कि, "इस योजना ने कंपनियों को सत्ता में पार्टियों को गुमनाम रिश्वत देने की अनुमति देकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। निजता का अधिकार नागरिकों के सूचना के अधिकार को खत्म नहीं कर सकता है और सरकार के पास उपलब्ध जानकारी अभी भी कंपनियों के उत्पीड़न का कारण बन सकती है।

वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने अपनी दलीलों में चुनावी बांड योजना की तीखी आलोचना की और इसे असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक और अनुचित बताया।  सिब्बल ने तर्क दिया कि, "इस योजना ने संविधान की मूल संरचना को कमजोर कर दिया और स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को बढ़ावा नहीं दिया, जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं। यह योजना अनुचित है, क्योंकि इससे उद्योगपतियों पर दान देने के लिए अनुचित दबाव डाला गया और सत्तारूढ़ दल को इससे अनुचित लाभ हुआ। योजना और चुनाव प्रक्रिया के बीच कोई सीधा संबंध नहीं था क्योंकि राजनीतिक दल नहीं बल्कि उम्मीदवार चुनाव लड़ते है। दान के लिए कोई प्रतिशोध नहीं होगा, क्योंकि उद्योगपति सत्तारूढ़ दल सहित कई दलों को योगदान देते रहते हैं और देंगे।"
वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने योजना में पारदर्शिता की कमी की आलोचना करते हुए कहा कि, "यह दाता की जानकारी को निजी रखकर भ्रष्ट लेनदेन के लिए सुरक्षा प्रदान करता है।" 

कपिल सिब्बल ने आगे चिंता जताते हुए कहा, "आप उस जानकारी को सार्वजनिक डोमेन में न डालकर भ्रष्ट लेनदेन को संरक्षण दे रहे हैं। मैं एफआईआर दर्ज नहीं कर सकता क्योंकि मुझ पर मानहानि का मुकदमा किया जाएगा। मैं अदालत नहीं जा सकता क्योंकि मेरे पास कोई डेटा नहीं होगा। तो क्या हुआ  क्या हम अदालत के आदेश के बारे में बात कर रहे हैं? यह राजनीतिक निरंतरता सुनिश्चित करने का सबसे सुरक्षित तरीका है। इसमें कोई असमान खेल का मैदान नहीं है। जानकारी अज्ञात होने का एकमात्र कारण सिस्टम का संरचनात्मक डिजाइन है। मैं और कुछ नहीं कहना चाहता।"

कपिल सिब्बल ने दानदाता की जानकारी रोककर किए गए जनहित पर सवाल उठाते हुए अपना निष्कर्ष निकाला और यह दलील दी कि, "इस योजना ने सत्ता में बैठे लोगों की संरक्षण दिया है, जिससे राजनीतिक निरंतरता बनी रहे। अदालत को सरकार को इन मुद्दों को पारदर्शी तरीके से संबोधित करने की सलाह देनी चाहिए।

अधिवक्ता शादान फरासत ने राजनीतिक फंडिंग में बदले की भावना को रोकने और पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए सार्वजनिक प्रकटीकरण के महत्व पर जोर दिया। फरासत ने तर्क दिया कि, "योजना की नींव दाता डेटा के गैर-सार्वजनिक प्रकटीकरण पर टिकी हुई है।  उन्होंने अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के एक बयान का हवाला दिया, जिसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया था कि किसी राजनीतिक दल के वास्तविक इरादों को निर्धारित करने के लिए उसके फंडिंग स्रोतों को जानना महत्वपूर्ण है।  उन्होंने तर्क दिया कि नीतिगत प्रभाव, विधायी प्रभाव और भ्रष्टाचार के बीच अंतर करने, बदले की भावना को रोकने के लिए सार्वजनिक प्रकटीकरण आवश्यक था।"

इस प्रकार इस महत्वपूर्ण मामले पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सुनवाई पूरी की और साथ ही भारत निर्वाचन आयोग को यह निर्देश भी दिया कि, वह 30 सितंबर तक, किस किस ने चुनावी बांड खरीदा और किस किस दल को किस किस व्यक्ति या कंपनी ने, कितना कितना धन चंदे के रूप में, कब कब दिया। अदालत ने फैसला सुरक्षित रख लिया है।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 


Friday, 3 November 2023

पत्रकार रवि नायर और आनंद मंगनाले को अडानी पर लेख लिखने पर, गुजरात पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने से शीर्ष अदालत ने सुरक्षा प्रदान की / विजय शंकर सिंह


सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार, 3 नवंबर को पत्रकार रवि नायर और आनंद मंगनाले को अडानी-हिंडनबर्ग विवाद के बारे में लिखे एक लेख पर गुजरात पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने से अंतरिम सुरक्षा प्रदान की। जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ नायर और मंगनाले द्वारा दायर रिट याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें अहमदाबाद अपराध शाखा द्वारा जारी किए गए समन को चुनौती दी गई थी, जिसमें उनसे उनके महत्वपूर्ण लेख पर संगठित अपराध और भ्रष्टाचार रिपोर्टिंग परियोजना (ओसीसीआरपी) वेबसाइट पर प्रकाशित पुलिस की प्रारंभिक जांच के संबंध में पूछताछ के लिए व्यक्तिगत रूप से पेश होने के लिए कहा गया था। 

"उन्होंने सीधे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा क्यों खटखटाया?" 
न्यायमूर्ति गवई ने सुनवाई की शुरुआत में दोनों पत्रकारों का प्रतिनिधित्व कर रही वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह से पूछा।

“गुजरात पुलिस द्वारा जारी नोटिस, पूरी तरह से अधिकार क्षेत्र के बिना है।  उन्हें उस स्थान पर जाने के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता,''
वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने तुरंत प्रतिवाद किया। और कहा,
"पहला सवाल यह है कि किस कानून के तहत गुजरात पुलिस ने ये नोटिस जारी किए।"

इंदिरा जयसिंह ने पीठ से कहा,
"नोटिस कथित तौर पर एक निवेशक के आवेदन के आधार पर लेख की जांच के लिए शुरू की गई प्रारंभिक जांच के संबंध में जारी किया गया है। इतना ही नहीं, दोनों को न तो नोटिस जारी करने के लिए लागू किए गए कानूनी प्रावधानों के बारे में बताया गया और न ही यह बताया गया है, इन नोटिसों के संबंध में उनके खिलाफ कोई प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) लंबित है या नहीं।  इसके अलावा, जब उन्होंने अतिरिक्त जानकारी के लिए अहमदाबाद अपराध शाखा को पत्र लिखा, तो उन्हें बताया गया कि जब वे पूछताछ के लिए उपस्थित होंगे तो मांगे गए दस्तावेज़ उपलब्ध करा दिए जाएंगे।"

इंदिरा जयसिंह ने खुलासा किया कि,
"गुजरात पुलिस ने नायर और मंगनाले को यह भी सूचित किया कि इस स्तर पर एफआईआर दर्ज करने का सवाल ही नहीं उठता।"
इसलिए,” इंदिरा जयसिंह ने तर्क दिया, “यदि यह उनका मामला है कि कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई है, तो उन्हें किस अधिकार से बुलाया जा रहा है?”

आगे इंदिरा जयसिंह ने कहा,
“क्या यह धारा 41ए का नोटिस है?  क्या यह धारा 160 के तहत नोटिस है?  क्या वे आरोपियों के चरित्र पर खरे उतरते हैं?  या वे गवाह हैं?  कोई स्पष्टता नहीं है। यदि नोटिस आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के तहत जारी किए गए थे, जिसके तहत पुलिस अधिकारी गवाहों की उपस्थिति के लिए मजबूर कर सकते हैं, तो उन्हें अधिकार क्षेत्र की कमी के आधार पर खारिज किया जा सकता था। अगर वे धारा 160 के नोटिस हैं, तो उन्हें गुजरात पुलिस द्वारा जारी नहीं किया जा सकता था क्योंकि उनका निवास दिल्ली में है।  गुजरात पुलिस का अधिकार क्षेत्र दिल्ली तक नहीं है।यह सीआरपीसी की धारा 41ए के तहत कोई नोटिस भी नहीं है।"

जयसिंह ने एफआईआर दर्ज न होने की ओर इशारा करते हुए जोर दिया,
“अपराध संज्ञेय या गैर-संज्ञेय होने चाहिए।  कोई तीसरी श्रेणी नहीं है.  यदि यह संज्ञेय अपराध है, तो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के तहत प्राथमिकी दर्ज की जानी चाहिए।  उनके स्वीकारोक्ति पर ऐसी कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई है.  अगर ऐसा मामला है, तो किस अधिकार से उन्हें ऐसे अधिकारी के सामने पेश होने के लिए बुलाया जा रहा है जिसके पास उन्हें बुलाने का अधिकार क्षेत्र नहीं है? यह शुद्ध और सरल उत्पीड़न और संभावित गिरफ्तारी की प्रस्तावना के अलावा और कुछ नहीं है। उन्हें बुलाने का कोई अधिकार नहीं है और ये सम्मन संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उनके अधिकारों का उल्लंघन है।"

जयसिंह ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत इस याचिका को उचित ठहराते हुए कहा कि,
"दोनों पत्रकारों के जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। ऐसा कोई कारण नहीं है कि उन्हें इस पुलिस अधिकारी के सामने पेश होने या किसी उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के लिए प्रेरित किया जाए।"

वरिष्ठ वकील की दलीलें सुनने के बाद, न्यायमूर्ति गवई की अगुवाई वाली पीठ ने दोनों याचिकाओं पर नोटिस जारी किया।  जयसिंह के आग्रह पर, अदालत दोनों को दंडात्मक कार्रवाई से अंतरिम सुरक्षा देने पर भी सहमत हुई।

० मामले का विवरण इस प्रकार है...

इस साल जनवरी में, संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित हिंडनबर्ग ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें अदानी समूह पर अपने स्टॉक की कीमतें बढ़ाने के लिए व्यापक हेरफेर और कदाचार का आरोप लगाया गया।  अडानी ग्रुप ने 413 पेज का जवाब प्रकाशित कर आरोपों का खंडन किया.

मार्च में, सुप्रीम कोर्ट ने शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश एएम सप्रे की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया और पूर्व बैंकर ओपी भट्ट और केवी कामथ, इंफोसिस के सह-संस्थापक नंदन नीलकेनी, वकील सोमशेखरन सुंदरेसन और सेवानिवृत्त न्यायाधीश जेपी देवधर को समिति के सदस्य के रूप में नियुक्त किया।  .  इस समिति को दो महीने के भीतर सीलबंद लिफाफे में अपनी रिपोर्ट सौंपने का निर्देश दिया गया था.  साथ ही, भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) को भारतीय प्रतिभूति बाजार में अस्थिरता की जांच जारी रखने और दो महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट सौंपने के लिए भी कहा गया।

विशेषज्ञ समिति ने मई में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें प्रथम दृष्टया पाया गया कि अदानी समूह की कंपनियों के संबंध में भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड की ओर से कोई नियामक विफलता नहीं हुई है।  बाजार नियामक ने कई बार विस्तार मांगने के बाद आखिरकार अगस्त में अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसमें अदालत को सूचित किया गया कि अदानी-हिंडनबर्ग मामले में 24 जांचों में से 22 को अंतिम रूप मिल चुका है, जबकि शेष दो अभी चल रही हैं।

इस बीच, फ्रीलांस पत्रकार रवि नायर और ओसीसीआरपी दक्षिण एशिया के संपादक आनंद मंगनाले एक महत्वपूर्ण लेख के लिए गुजरात पुलिस की जांच के घेरे में आ गए हैं, जो उन्होंने एनबीआर अर्काडियो के साथ मिलकर लिखा था, जिसका शीर्षक था 'डॉक्यूमेंट्स प्रोवाइड फ्रेश इनसाइट इनटू एलेगेशन्स ऑफ स्टॉक मैनिपुलेशन दैट रॉक्ड इंडियाज पावरफुल अडानी'  समूह'।  यह लेख संगठित अपराध और भ्रष्टाचार रिपोर्टिंग परियोजना की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ था।  अक्टूबर में, नायर और मंगनाले को अहमदाबाद की अपराध शाखा से नोटिस मिला, जिसमें उन्हें एक निवेशक, योगेशभाई मफतलाल भंसाली के आवेदन के आधार पर की जा रही प्रारंभिक जांच के संबंध में निजी रूप से पेश होने का निर्देश दिया।

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh

Wednesday, 1 November 2023

सुप्रीम कोर्ट में इलेक्टोरल बांड पर सुनवाई का पहला दिन (31 अक्तूबर 2023) / विजय शंकर सिंह

चुनावी बांड योजना को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई, भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बीआर गवई, जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की संविधान पीठ के समक्ष हो रहीं है। इस पर अपना पक्ष रखते हुए एडवोकेट, प्रशांत भूषण ने दलील दी कि, "99% चुनावी बांड का धन, केंद्र और राज्यों की सत्तारूढ़ पार्टी के पास गया, जबकि, विपक्षी दलों के पास 1% से भी कम बांड गया। चुनावी बांड के माध्यम से भाजपा द्वारा घोषित कुल दान अन्य सभी राष्ट्रीय दलों द्वारा घोषित चुनावी बांड के कुल दान से तीन गुना अधिक था।"

० चुनावी बांड को विभिन्न कानूनों के तहत प्रकटीकरण से छूट दी गई है।

चुनावी बांड योजना को लागू करने के लिए, सरकार ने, उसके साथ, चार प्रमुख कानूनों, विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम, 2010 (एफसीआरए), जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (आरपीए), आयकर (आईटी) अधिनियम, 1961 और कंपनी अधिनियम 2013 में, संशोधन भी किए।   सुनवाई के पहले दिन, 31 अक्तूबर को हो रही सुनवाई के दौरान,  वकील प्रशांत भूषण ने इन चारों में से, प्रत्येक में किए गए संशोधनों का उल्लेख करते हुए, याचिकाकर्ताओं के लिए बहस शुरू की और इस मामले को, भारतीय लोकतंत्र की जड़ों तक प्रभावित करने वाला मामला बताया।

० विदेशी कंपनियों को अब एफसीआरए के तहत राजनीतिक दलों को फंड देने की अनुमति मिल गई है...

2016 में, वित्त अधिनियम ने एफसीआरए की धारा 2(1)(जे)(vi) में संशोधन किया।  ऐसा करते हुए, इस संशोधन ने "विदेशी स्रोत" की अवधारणा को फिर से परिभाषित किया गया और विदेशी कंपनियों को भारत में पंजीकृत अपनी सहायक कंपनियों के माध्यम से भारतीय राजनीतिक दलों को दान देने की अनुमति प्रदान की गई।  इस संशोधन से पहले, विदेशी कंपनियों को एफसीआरए और विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999, दोनों के तहत राजनीतिक दलों को योगदान देने की प्रक्रिया को सख्ती से प्रतिबंधित किया गया था। इस संशोधन को चुनौती देते हुए, भूषण ने कहा कि यह संशोधन दिल्ली उच्च न्यायालय के एक फैसले की प्रतिक्रिया थी, जिसमें, यह आरोप लगाया गया था कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) दोनों को विदेशी कंपनियों की सहायक कंपनियों के माध्यम से विदेशी योगदान प्राप्त हुआ था। इस कानूनी चुनौती को दूर करने के लिए, वित्त अधिनियम के माध्यम से एफसीआरए में एक पूर्वव्यापी संशोधन, (जो पहले से ही लागू माना जायेगा) शामिल किया गया।  इस संशोधन में कहा गया है कि, "यदि दान किसी विदेशी कंपनी की सहायक कंपनी द्वारा किया गया है, तो इसे विदेशी स्रोत नहीं माना जाएगा।"

० राजनीतिक दलों को चुनावी बांड द्वारा किए गए योगदान का खुलासा करने की आवश्यकता नहीं है... 

2017 में, वित्त अधिनियम ने आरपीए (लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम) की धारा 29सी में संशोधन किया गया।  इन संशोधन में एक धारा जोड़ी गई। पहले यह प्रावधान था कि, "चंदा देने और लेने, वाले दोनो कंपनियों या निजी व्यक्ति को, सार्वजनिक करना अनिवार्य था, यदि वह अंशदान, ₹20,000 से अधिक है तो। लेकिन अब संशोधन करके जोड़ी गई नई धारा (प्राविधान) के अनुसार, राजनीतिक दलों को चुनावी बांड के माध्यम से प्राप्त धन का विवरण, सार्वजनिक करने की बाध्यता से मुक्त कर दिया गया।  इसके अलावा, राजनीतिक दलों को गुमनाम नकद दान, जो पहले 20,000 रुपये तक सीमित था, अब संशोधन के बाद 2,000 रुपये कर दिया गया है। उसी को चुनौती देते हुए, एडवोकेट प्रशांत भूषण ने कहा कि,  "इस संशोधन के लिए सरकार का तर्क दोहरा था। सबसे पहले, उन्होंने (सरकार ने) दावा किया कि, इस संशोधन का उद्देश्य, राजनीतिक फंडिंग में नकदी के उपयोग को कम करना था।  दूसरे, उन्होंने तर्क दिया कि प्रकटीकरण सीमा को 20,000 रुपये से घटाकर 2,000 रुपये करके, वे राजनीतिक फंडिंग प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता को बढ़ावा दे रहे हैं। सरकार ने, बताया कि, प्रकटीकरण सीमा को ₹20,000  से घटाकर ₹2,000 करने से राजनीति में नकदी के इस्तेमाल पर प्रभावी ढंग से अंकुश नहीं लगाया जा सकता है। पहले, राजनीतिक दल घोषणा करते थे कि उन्हें 20,000 रुपये से कम के छोटे दान में एक निश्चित राशि प्राप्त हुई है।  अब, वे 2,000 रुपये से कम के दान के लिए भी यही घोषणा कर सकते हैं, मूल मुद्दे को संबोधित किए बिना प्रभावी ढंग से लक्ष्य को स्थानांतरित कर सकते हैं।" 
इसके अलावा, प्रशांत भूषण ने कहा कि, "चुनावी बांड के माध्यम से किए गए दान को गोपनीय करने से किसी भी तरह से पारदर्शिता को बढ़ावा नहीं मिलेगा।" 

 प्रशांत भूषण ने राजनीतिक फंडिंग में नकदी के उपयोग से निपटने के लिए अधिक प्रत्यक्ष दृष्टिकोण का प्रस्ताव रखा।  उन्होंने सुझाव दिया कि, "राजनीतिक दलों को विशेष रूप से बैंकिंग चैनलों के माध्यम से दान स्वीकार करने की आवश्यकता हो सकती है और नकद दान स्वीकार करने पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाया जा सकता है।" 
उन्होंने तर्क दिया कि "यह भ्रष्ट आचरण से निपटने और पारदर्शिता बढ़ाने का अधिक प्रभावी तरीका होता।"

० कंपनी अधिनियम में संशोधन से "शेल कंपनियों" को पार्टियों को फंड देने की अनुमति मिल जाएगी

 वित्त अधिनियम की धारा 154 ने कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 182 में संशोधन किया, जिससे राजनीतिक दलों को कॉर्पोरेट चंदे की ऊपरी सीमा प्रभावी रूप से हटा दी गई।  पहले, कंपनियों को पिछले तीन वर्षों में अपने शुद्ध लाभ का 7.5 प्रतिशत तक दान करने पर प्रतिबंध था।  भूषण ने इस संशोधन का विरोध करते हुए कहा कि इन परिवर्तनों के प्रभाव दूरगामी होंगे। प्रशांत भूषण ने बताया कि, इस संशोधन ने घाटे में चल रही कंपनियों या बिना किसी महत्वपूर्ण व्यावसायिक गतिविधियों वाली कंपनियों, अनिवार्य रूप से "शेल कंपनियों" को भी राजनीतिक दलों को असीमित दान देने की अनुमति दे दी है। प्रशांत भूषण के अनुसार, "इस संशोधन ने राजनीतिक दलों के लिए धन के स्रोत को प्रभावी ढंग से अस्पष्ट कर दिया और इन योगदानों की उत्पत्ति के बारे में जनता को सूचित करने के अधिकार को कम कर दिया।"

प्रशांत भूषण ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि, "विदेशी कंपनियों या उनकी सहायक कंपनियों, भले ही उनके पास 100 प्रतिशत शेयर हों, को फंडिंग के विदेशी स्रोतों के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है, जब तक कि वे विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (फेमा) के दायरे में आते हैं।  इस कानूनी खामी ने संभावित रूप से विदेशी संस्थाओं को पारदर्शिता या प्रकटीकरण के बिना भारतीय राजनीतिक दलों को वित्त पोषित करने में सक्षम बनाया।  इन संशोधनों की गंभीरता को स्पष्ट करने के लिए, भूषण ने एक बहुराष्ट्रीय खनन कंपनी वेदांता लिमिटेड जैसे उदाहरणों का हवाला दिया, जिसने कथित तौर पर चुनावी बांड के माध्यम से राजनीतिक दलों को एक महत्वपूर्ण राशि दान की थी।  उन्होंने कहा कि, "दिलचस्प बात यह है कि, यह ऐसे समय में हुआ जब वेदांता लिमिटेड ने विभिन्न खनन लाइसेंस और अनुबंध हासिल किए, जिससे राजनीतिक पक्षपात की आशंकाएं बढ़ गईं।  इसके अलावा, जांच रिपोर्टों में ऐसे उदाहरणों पर प्रकाश डाला गया है जहां चुनावी बांड सरकारी निर्णयों और नीतियों को प्रभावित करने के लिए गुप्त रिश्वत के रूप में कार्य करते प्रतीत होते हैं, कंपनियां इनका उपयोग उत्पाद शुल्क समस्याओं जैसे कानूनी मुद्दों से निपटने के लिए करती हैं।"

० पार्टियों को आयकर अधिनियम के तहत योगदान का खुलासा करने से मुक्त कर दिया गया है

प्रशांत भूषण ने इस बात पर भी, प्रकाश डाला कि, "वित्त अधिनियम, 2017 की धारा 11 के द्वारा, आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 13 ए में संशोधन किया गया, जिससे राजनीतिक दलों को चुनावी बांड के माध्यम से प्राप्त योगदान का विस्तृत रिकॉर्ड रखने के दायित्व से छूट मिल गई। इस प्राविधान के अनुसार यह पार्टियों से चंदे के स्रोत को छिपाने का एक और तरीका है।"  
प्रशांत भूषण ने कहा, "हर जगह चुनावी बांड न केवल लागू किए गए हैं, बल्कि उन्हें कंपनी अधिनियम, आयकर अधिनियम, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम आदि के तहत प्रकटीकरण से छूट दी गई है। इसने एक तरफ एक ऐसा अपारदर्शी उपकरण प्रस्तुत किया गया है - जिसके द्वारा कोई भी यह नहीं जान सकता कि, कौन किसे कितना चंदा दे सकता है या दे रहा है या ले रहा है। यह बात, सरकार के अलावा कोई नहीं जान सकती है। यह केवल सरकार ही जानती है कि, किसने, किसको कितना चंदा दिया है।"

० चुनावी बांड नागरिकों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन है... 

प्रशांत भूषण के तर्क का मुख्य विंदु, चुनावी बांड में छिपी गोपनीयता पर केंद्रित था।  उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि भारतीय स्टेट बैंक, जो संघ के अधीन है ने, ये बांड जारी किए। इसके अलावा, कानून को लागू करने वाली एजेंसियां, जो भी, संघ के अधीन हैं, जांच करते समय बांड का विवरण जान सकती हैं।  इस प्रकार, जबकि सरकार को पता है कि, चंदा कहां से आ रहा है, और किस पार्टी को जा रहा है, तो, नागरिकों को इसके बारे में अंधेरे में क्यों रखा जा रहा है?" 
उन्होंने आगे कहा कि, "ये बांड वाहक बांड होने के कारण पूरी तरह हस्तांतरणीय हैं।  एक बार जब कोई व्यक्ति या संस्था बांड खरीद लेता है, तो वे इसे आसानी से किसी अन्य व्यक्ति को सौंप सकते हैं जो इसे किसी पार्टी को दान कर सकता है।  परिणामस्वरूप, ये बांड प्राप्त करने वाले राजनीतिक दल मूल दाता की पहचान से अनभिज्ञ रह सकते हैं।  या, पार्टियाँ यह भी दिखावा कर सकती हैं कि उन्हें नहीं पता कि चंदा कहाँ से आया।"

प्रशांत भूषण ने पारदर्शिता के इस अभाव के गंभीर निहितार्थों को रेखांकित किया। उन्होंने तर्क दिया कि, "यह संभावित रूप से अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत नागरिकों के सूचना के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।"
उन्होंने जोर देकर कहा कि, "राजनीतिक दलों के वित्तीय स्रोतों को समझने और जानने का वैधानिक अधिकार, नागरिकों को है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे निहित स्वार्थों से प्रभावित न हों।"
इसके अलावा, भूषण ने सरकार के इस दावे का विरोध किया कि "अनुच्छेद 19(2) के तहत, यह उचित प्रतिबंध हैं।" 
उन्होंने कहा कि, "अनुच्छेद 19(2) के तहत उल्लिखित आधार राजनीतिक दलों को वित्त पोषित करने पर लागू नहीं होते हैं, क्योंकि यह जानना कि कौन सी संस्थाएं राजनीतिक दलों को वित्त पोषित करती हैं, उन्होंने किसी भी प्रतिबंधित आधार का उल्लंघन नहीं किया है।"

० रिश्वत के रूप में व्यवस्थित रूप से बांटे गए चुनावी बांड, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं। 

प्रशांत भूषण ने बताया कि अधिकांश बांड 1 करोड़ के मूल्यवर्ग में जारी किए गए थे, जो दर्शाता है कि कॉर्पोरेट और इसी तरह की संस्थाएं ही, मुख्य रूप से उनकी खरीददारी कर सकती हैं। इसके अलावा, इनमें से अधिकांश बांड केंद्रीय स्तर पर सत्तारूढ़ दलों की ओर निर्देशित थे, जिसमें विपक्षी दलों को न्यूनतम चंदा मिला है।"
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि, "चुनावी बांडों को सत्ता में मौजूद पार्टियों को रिश्वत के रूप में व्यवस्थित रूप से वितरित किया गया था और इसे साबित करने के लिए परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी मौजूद हैं।"
प्रशांत भूषण कहा कि, "इनमें से 50% से अधिक बांड केंद्र में सत्तारूढ़ दल को प्राप्त हुए हैं, शेष हिस्सा विभिन्न राज्यों में सत्तारूढ़ दलों को मिला है। वस्तुतः कोई भी बांड, 1% से अधिक, उन विपक्षी दलों के पास नहीं पहुंचा है जो वर्तमान में सत्ता में नहीं हैं, जिससे राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की निष्पक्षता के बारे में चिंताएं बढ़ गई हैं।"

प्रशांत भूषण ने अपनी दलील आगे रखते हुए कहा, "पिछले 5 वर्षों में ऑडिट रिपोर्ट में पार्टीवार चुनावी बॉन्ड घोषित किए गए- बीजेपी: ₹5271 करोड़। यह केवल 2021 से 2022 तक के लिए था। इसके बाद ₹3500 करोड़ से ज्यादा के और बॉन्ड खरीदे गए। बीजेपी के पास कुल ₹5217 करोड़ रुपये हैं।  कुल मिलाकर ₹9191 करोड़...केंद्रीय सत्तारूढ़ दल को 50% से अधिक, कुल योगदान का लगभग 60% प्राप्त हुआ है...भाजपा द्वारा घोषित कुल दान अन्य सभी राष्ट्रीय दलों द्वारा घोषित कुल दान से तीन गुना से अधिक है।।"
उन्होंने तर्क दिया कि, "चुनावी बांड की इस गुमनामी ने भ्रष्टाचार का संदेह पैदा कर दिया है और दानकर्ता अनुकूल नीतियों, कानूनों और अन्य लाभों के बदले में राजनीतिक दलों को रिश्वत प्रदान करने के लिए इन बांडों का उपयोग कर सकते हैं, और इन दान की गोपनीयता के कारण किसी का भी पता लगाना मुश्किल हो गया है कि, किसने कितना चंदा दिया लिया है। यह, कुछ बदले में लेकर कुछ बदले में देना है।
 
इस मौके पर सीजेआई ने कहा, "एक और बात जिस पर आप गौर करना चाहेंगे वह यह है कि यह किसी दानकर्ता के संबंध में अज्ञात दान नहीं है। यह शेष समाज के संबंध में अज्ञात दान है। प्राप्तकर्ता हो भी सकता है और नहीं भी, लेकिन वह इसके स्रोतों के बारे में जान सकता है।"

अपने तर्कों को समाप्त करते हुए, प्रशांत भूषण ने कहा कि, "वित्तीय श्रेष्ठता एक चुनावी लाभ में तब्दील हो गई, और सत्ता में रहने वाली पार्टी को बदले की पेशकश करने की क्षमता के कारण चुनावी बांड के माध्यम से अधिक धन हासिल करने में महत्वपूर्ण बढ़त मिली, जिससे लोकतांत्रिक सिद्धांतों का खंडन हुआ।"
उन्होंने आगे कहा, "पहले आप पर भ्रष्टाचार के लिए मुकदमा चलाया जा सकता था यदि आपने किसी राजनीतिक दल को दान दिया है,  जिसने बदले में आपको खनन, अनुबंधों आदि के रूप में कुछ लाभ दिए थे। लेकिन अब क्योंकि किसी को भी पता नहीं चलेगा कि किसने दान दिया है, क्या आपने नकद प्राप्त किया है  यथास्थिति- यह भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है।"

० चुनावी बांड योजना स्पष्ट रूप से मनमाना है... 

वरिष्ठ वकील निज़ाम पाशा ने अपनी दलीलों में कहा कि, "चुनावी बॉन्ड योजना स्पष्ट मनमानी के तत्वों को प्रदर्शित करती है। मनमाने कानून की विशेषता, निष्पक्षता, तर्कसंगतता, भेदभाव, पारदर्शिता और सार्वजनिक कल्याण को नजरअंदाज करना है।" 
इस संदर्भ में, उन्होंने अदालत का ध्यान चुनावी बांड खरीदने के लिए पात्रता मानदंड की ओर आकर्षित किया, और इस बात पर जोर दिया कि, "विदेशी संस्थाएं भी भारत में स्थापित सहायक कंपनियों के माध्यम से बांड खरीद सकती हैं। यह दृष्टिकोण अन्य वित्तीय नियमों के विपरीत है, जहां एक निश्चित प्रतिशत से परे, यदि किसी कंपनी के पास विदेशी स्वामित्व है, तो उसे एक विदेशी स्रोत की तरह माना जाता है और भारतीय क्षेत्रों में निवेश करने से प्रतिबंधित किया जाता है। यह एक बेतुकापन है।"

आगे सीनियर एडवोकेट निजाम पाशा ने कहा, "हम ऐसी इकाई को निवेश की अनुमति नहीं देते हैं जिसके मान लीजिए मीडिया में 51% विदेशी शेयर हैं क्योंकि हम अपने मीडिया पर विदेशी नियंत्रण नहीं चाहते हैं। लेकिन हमें ऐसी कंपनी द्वारा चुनावी बांड खरीदने और इसे राजनीतिक चंदे के रूप में किसी पॉलिटिकल पार्टी को, स्थानांतरित करने की अनुमति देने में कोई समस्या नहीं है। पार्टियां- एक संस्था हैं, जो देश चलाती है! सरकार और विधायी नीति कुछ न्यायक्षेत्रों में शामिल कंपनी को सरकार के साथ खरीद अनुबंध करने की भी अनुमति नहीं देती है। लेकिन राजनीतिक दलों को वित्त पोषित करने और इस तरह चुनावी राजनीति में अपनी हिस्सेदारी रखने के लिए यह कोई समस्या नहीं है, क्यों? यह तो, विधायी बेतुकापन की ओर इशारा करती है।"

उन्होंने कहा कि, "एफसीआरए में हुए संशोधन ने, सभी भारतीय कॉर्पोरेट संस्थाओं को, विदेशी संस्थाओं के समान स्तर पर रख दिया है। जबकि कुछ भारतीय क्षेत्रों को विदेशी निवेश से प्रतिबंधित किया गया था- जैसे परमाणु ऊर्जा, रक्षा, अंतरिक्ष; जबकि एक विदेशी कंपनी को,  राजनीतिक दलों को चंदा देने की अनुमति दे दी गई।"
उन्होंने इसका उदाहरण आगे देते हुए कहा, 
"यह व्यवसाय के संदर्भ में निषिद्ध है लेकिन राजनीतिक दलों के संदर्भ में इसकी अनुमति है। कृपया 2020 का यह प्रेस नोट देखें जिसके द्वारा यह निर्धारित किया गया है कि कोई भी देश जो भारत के साथ भूमि सीमा साझा करता है - ऐसे देश से निवेश को किसी अन्य देश के निवेश से भिन्न स्तर पर, एक बार विचार किया जाएगा। चीन से किसी विनिर्माण इकाई में निवेश को अन्यत्र से निवेश के बराबर नहीं माना जाएगा। लेकिन अगर वही देश, चुनावी बांड खरीदता है, तो इसकी अनुमति उसे है।"

निजाम पाशा ने कहा कि, "अगर किसी विदेशी कंपनी के विनिर्माण क्षेत्र में निवेश करने मात्र से राज्य की सुरक्षा प्रभावित होती है, तो वही विदेशी निवेश राजनीतिक दलों में आने से यह कैसे प्रभावित नहीं होगी?"
उन्होंने आगे कहा, "वर्तमान में हम प्रेस में एक समाचार संगठन को चीन से धन प्राप्त करने का मुद्दा उठा रहे हैं। इसलिए इस मानक के अनुसार चीन जैसा देश एक अलग मार्ग के माध्यम से भारत में व्यवसायों में निवेश नहीं कर सकता है, लेकिन वह बदले की भावना के सिद्धांत पर एक राजनीतिक दल को वित्त पोषित कर सकता है ?"

 इस पर सीजेआई ने टिप्पणी की, "यह नीति का मामला है। आप कह रहे हैं कि चीन की एक कंपनी चूंकि चीन की भूमि, सीमा साझा करती है - वे अनुबंध के लिए बोली नहीं लगा सकते हैं, लेकिन वे चुनावी बांड खरीद सकते हैं... यह नीति है।"
हालाँकि, पाशा ने प्रस्तुत किया कि यदि नीति बेतुकी है तो यह स्पष्ट मनमानी के सिद्धांत के अधीन है।
सुनवाई अभी जारी है।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh