Friday, 31 December 2021

अशोक पांडे - मोहम्मद सनाउल्लाह डार मीराजी.

एक मैला-कुचैला रांझा था. नाम मोहम्मद सनाउल्लाह डार. दुबली काया, लम्बे झूलते अधपके बाल, कानों में कुंडल, गले में रंगबिरंगे मनकों की मालाएं, तीखी मूंछें, कंधे पर थैला जिसके भीतर शायरी और अफ़साने लिखे कागजों का बण्डल और किसी तरह जुगाड़ी गई शराब की बोतल. हद दर्जे का गंदा, नाखूनों में अटका महीनों का मैल, आख़िरी बार कब नहाया था याद नहीं.

वह जेब में हमेशा तीन गोल पत्थर रखता था और उन पर सिगरेट की डब्बियों से निकली चमकीली पन्नियाँ इस सलीके से चिपकाए रखता कि वे चांदी के नज़र आते. कभी उन गोलों को आदम, हव्वा और उनकी औलाद यानी खुद बताता कभी मोहब्बत की नींव में लगने वाले तीन भारी पत्थर - हुस्न, इश्क़ और मौत. 

और कैसी अजब तो उसकी मोहब्बत, उसकी हीर! लाहौर के कॉलेज में पढ़ने वाली एक सादा-चेहरा बंगालन मीरा सेन जिसके वस्ल की चाहत में उसने अपनी जिन्दगी का भुरकस निकाल लिया. जब उसके हासिल होने की आस न रही उसने उसी महबूब के नाम पर अपना नाम रख लिया – मीराजी.

ज़माना हर अच्छी-बुरी चीज के किस्से माँगता है. उसे दूसरों की तबाही के किस्से सुनने का ख़ास शौक है. मीराजी उर्दू शायरी की तारीख में एक ऐसा ही मशहूर तबाह किस्सा है जिसकी सोहबत मंटो से भी रही, राजा मेहदी अली खान और अख्तर उल ईमान से भी. मंटो से लेकर एजाज़ अहमद तक जाने कितनों ने मीराजी का किस्सा लिखा और उसकी आवारगी , शराबनोशी, गन्दगी और सेक्स को लेकर उसके ऑब्सेशन का कल्ट बना दिया.

असल बात यह है कि मोहम्मद सनाउल्लाह डार उर्फ़ मीराजी अपने समय से आगे का एक जीनियस था जिसने उर्दू कविता में मॉडर्निज़्म की शुरुआत की. 1930 की दहाई में जब उर्दू लिटरेचर में एक नया आन्दोलन शुरू हो रहा था, तीन लोग उसका परचम उठाए आगे-आगे चल रहे थे – नून मीम राशिद, फैज़ अहमद फैज़ और मीराजी.   

उसने भाषा और विषयवस्तु की हर स्थापित तहजीब को नकारा. दुनिया भर का साहित्य पढ़ा. लाहौर की पंजाब मेमोरियल लाइब्रेरी का लाइब्रेरियन बताता था कि किताबें पढ़ने का उसके भीतर ऐसा जुनून था कि वह लाइब्रेरी खुलने से पहले पहुँच गेट खुलने का इन्तजार करता मिलता और उसके बंद हो जाने पर बाहर निकलने वाला आख़िरी होता. उसने खूब पढ़ा और पढ़कर जो हासिल किया उसे अपने लेखों के जरिये संसार में बांटा जिनमें वह पूरब और पच्छिम के शायरों से उर्दू संसार का परिचय कराया करता. ये आर्टिकल ‘मशरिक और मगरिब के नगमे’ के नाम से किताब की सूरत में छपे जिसके भीतर फ़्रांस के बौदलेयर और मालार्मे, रूस के पुश्किन, चीन के ली पो, इंग्लैण्ड के डी. एच. लॉरेंस और कैथरीन मैन्सफील्ड, अमेरिका के वॉल्ट व्हिटमैन और एडगर एलन पो और प्राचीन भारत के चंडीदास और विद्यापति जैसे नाम नमूदार होते है. मीराजी ने इन सबकी चुनी कविताओं का दिलकश अनुवाद भी किया. मिसाल के तौर पर उसके यहां विद्यापति की राधा उर्दू में अपने आप से यूं मुखातिब होती है:

कब तक इस दिल में उदासी ही रहेगी, कब तलक!
और मेरी रूह बारे-गम सहेगी, कब तलक!
माह से किस रोज़ नीलोफर मिलेगा, आह कब?
फूल भौंरे के मिलन से कब हिलेगा, आह कब?
गुफ्तगू करने को प्रेमी मुझसे किस दिन आएगा
और मिरे सीने को छूकर एक लज्ज़त पाएगा?
थाम कर हाथों को मेरे, चाह के आगोश में
कब बिठाएगा मुझे वो आरजू के जोश में!
हां उसी दिन, हां उसी दिन, सारे दुःख मिट जाएंगे
जब मुरारी मेरे बन कर घर हमारे आएँगे.  
 
मोहब्बत में मिली असफलता ने उसकी शायरी को आत्मा अता फरमाई. उसकी ग़ज़लों और नज्मों से जो शायर उभर कर आता है वह कभी घनघोर रूमान में तपा हुआ क्लासिकल प्रेमी है तो कभी आदमी-औरत के जिस्मानी रिश्ते की बखिया उधेड़ता कोई उस्ताद मनोवैज्ञानिक. उसके यहां अजन्ता की गुफाओं से लेकर धोबीघाट और मंदिर की देवदासियों से लेकर दफ्तरों में जिन्दगी घिसने वाले अदने क्लर्कों की आश्चर्यजनक आवाजाही चलती रहती है. मीराजी का कुल काम दो हजार से अधिक पन्नों में बिखरा पड़ा है. वह भी तब जब उसने ऐसी अराजक जिन्दगी जी कि कुल सैंतीस की उम्र में तमाम हो गया.  

तीस-पैंतीस बरस पहले गुलाम अली ने ‘हसीन लम्हे’ टाइटल से गजलों का एक यादगार अल्बम निकाला. उसमे उन्होंने मीराजी को भी गाया:

नगरी नगरी फिरा मुसाफिर घर का रस्ता भूल गया
क्या है तेरा, क्या है मेरा, अपना पराया भूल गया

मीराजी के पुरखों का घर कश्मीर में था जहां से वे कुछ पीढ़ी पहले गुजरांवाला आ बसे थे. पिता मुंशी महताबुद्दीन रेलवे में ठेकेदारी करते थे जिनकी दूसरी बीवी सरदार बेगम से मीराजी हुए थे – लाहौर में 25 मई 1912 को. लाहौर से गुजरात, गुजरात से बम्बई, बम्बई से पूना और फिर वापस बम्बई जहाँ 3 नवम्बर 1949 को आख़िरी सांस – मोटामोटी इन जगहों पर मैट्रिक फेल मीराजी की मुख़्तसर जिन्दगी बनी-बिगड़ी. 

सैंतीस साल के इस अंतराल में एक बचपन था, क्रूर बाप के अत्याचारों की दबाई एक माँ थी, स्कूल के संगी थे, पहली मोहब्बत थी, रोजगार की तलाश थी, किताबें थीं, अपनी बेचैन रूह और उससे जनम लेने वाली शायरी थी. इसी अंतराल में मंटो ने होना था जो जब तक संभव हुआ उसकी रोज की दारू की खुराक के लिए हर रोज साढ़े सात रुपये अलग से जुगाड़ रखता, अख्तर उल ईमान ने होना था जिसने उसे उसकी गन्दगी और बास के बावजूद किसी सगे की तरह अपने घर में पनाह दी. इसी अंतराल में खुद मीराजी ने भी होना था, शायरी ने होना था, तसव्वुर के वीरान फैलाव ने होना था और सारी दुनिया की आवारागर्दियों ने होना था.

हमें दो मीराजी मिलते हैं – एक जो शायर है और उर्दू अदब में एक मॉडर्न आइकन का दर्जा रखता है; दूसरा वह जिसके बारे में शुरू में बताया गया – खुद को तबाह कर देने पर आमादा कभी न नहाने वाला नाकारा, बड़बोला शराबी. जहान भर के संस्मरण उसके इस दूसरे रूप का मजा लेते पाए जाते हैं. वही उसकी इमेज भी बनाई गई. सआदत हसन मंटो तक अपने संस्मरण ‘तीन गोले’ में ऐसा करने के लालच से न बच सके.     
 
एक नज्म मशहूर है – ‘तफ़ावुते-राह’ यानी रास्तों का अलग हो जाना. गाँव से आया एक नौजवान शहर में किसी रईस के घर माली का काम करने लगता है. उसे रईस की बेटी से मुहब्बत हो जाती है. इस वजह से नौकरी से निकाला जाता है. वापस गाँव लौट कर वह अपनी प्रेमिका के बारे में ही सोचता रहता है. पूरी नज्म उसकी कल्पनाओं से बुनी हुई है, जिनमें आधी रोशनी है आधा अन्धेरा:

"रास्ता मिलता नहीं मुझको, सितारे तो नजर आते हैं
पैराहन रंगे-गुले-ताज़ा से याद आता है
और ज़रकार नुक़ूश 
इक नई सुब्हे-हकीक़त का पता देते हैं."

फिर इस नई “सुब्हे-हकीक़त” में लड़की की शादी की ढोलक-शहनाई सुनाई देती है, उसका होने वाला पति दिखाई देता है जिसकी बहन उससे कह रही है –

“मेरे भैया को बड़ा चाव है – क्यों पूछता है!
अब तो दो-चार ही दिन में वो तिरे घर होगी!”

यहां तक आते-आते गाँव से आए उस भोले लड़के के भीतर दुनिया के आरपार झांक सकने वाले सूफी संत की समझदारी आ गयी है. सारी चीजों को एक झटके में सामने से हटाता हुआ वह किसी दरवेश की तरह नज्म के आखीर में कहता है –

“किसका घर, किसकी दुल्हन, किसकी बहन – कौन कहे!
मैं कहे देता हूँ, मैं कहता हूँ, मैं जानता हूँ!”

यही मीराजी है.

© अशोक पांडेय

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास (11)

एक उच्छृंखल बालक की एक और शरारत के बाद उसके पिता ने उसको गोदाम में एक मोटी लकड़ी से बाँध दिया। थोड़ी देर बाद जब पिता लौटे तो देखा कि वह पीठ पर भारी लकड़ी लादे, रस्सियों से बँधा, खेल के मैदान में पहुँच चुका है। पेरियार के जीवन की यह किंवदंती उनके जीवन का सारांश है। 

पेरियार और अंबेडकर एक जैसे लक्ष्य के बावजूद दो विपरीत व्यक्तित्व थे। जहाँ अंबेडकर भारतीय इतिहास के सबसे बड़े पढ़ाकू में रहे, पेरियार ने स्कूल शिक्षा भी पूरी नहीं की। अंबेडकर के तर्क ठोक-बजा कर, संदर्भ सहित सामने रखे जाते थे। पेरियार के तर्क स्वत:-स्फूर्त होते, जिनमें कई कुतर्क भी होते। अंबेडकर का उठना-बैठना अभिजात्य वर्ग और यूरोपियों के साथ था, जबकि पेरियार काफ़ी हद तक ज़मीनी नेता थे। ये उन दोनों की वेश-भूषा में भी नज़र आता। एक सूट-बूट में, दूजे धोती-कुर्ते में। अंबेडकर का लेखन पूरे भारत में बिना काट-छाँट के पढ़ा-पढ़ाया जाता है, क्योंकि उनमें मीमांसा है। पेरियार के कई तमिल भाषण हिंदी या अंग्रेज़ी अनुवाद हुए ही नहीं, क्योंकि वह बहुत ही अधिक कड़वी और घृणा-अपशब्दों से भरी गोली थी।

लेकिन, अगर हम राजनीतिक निष्कर्ष देखें, तो पेरियार की विरासत तमिलनाडु की राजनीति में कुंडली मार कर बैठी है। जबकि अंबेडकर की समृद्ध वैचारिक धारा के बावजूद राजनीतिक विरासत महाराष्ट्र या किसी अन्य प्रदेश में बहुत अधिक नहीं टिक पायी। इसे उलट कर यूँ भी लिखा जाता है कि अंबेडकर को थोड़ा बहुत हर प्रदेश के हर दल ने अपनाया, जबकि पेरियार तमिलनाडु तक ही सिमट कर रह गए। 

इस टीप के साथ यह चेतावनी पुन: दूँगा कि इसके आगे जो लिखा जाएगा, वह हिंदी भाषी, पारंपरिक समाज, और उत्तर भारतीय, तीनों के लिए निगलना कठिन हो सकता है। मैं चूँकि इन तीनों से जुड़ा हूँ, तो मैंने पेरियार को पढ़ने के लिए मन के कई स्विच ऑफ़ कर दिए, फिर भी एक-दो फ्यूज़ उड़ गए।

पेरियार बचपन से ही ब्राह्मणों की धोती खोल कर उपहास करने वाले शरारती बालक थे। यहाँ धोती खोलने का अर्थ है उनके कर्मकांडों पर तीखी घृणा से भरी टिप्पणी करना। बात-बात पर सवाल करना। जैसे अपने पिता द्वारा मना करने के बावजूद दलित कुएँ से ही पानी पीना। यह ज़ंजीर से बाँधे जाने वाला कांड भी तभी हुआ था, जब वह जान-बूझ कर निम्न चेत्तियार जाति के घर में भोजन करने चले गए थे। समकालीन कथाकार नीलोत्पल मृणाल की पुस्तक ‘औघड़’ के बिरंची चरित्र में कुछ-कुछ पेरियार की छाप दिखती है।

एक क़िस्सा जो उनकी जीवनी में बहुधा वर्णित है, वह उनकी घर से भाग कर काशी यात्रा की है। वह अपने दो ब्राह्मण मित्रों गणपति और वेंकटरामन के साथ निकले, और पूरे रास्ते उनसे शास्त्रों पर तर्क-कुतर्क करते रहे। यह इतना लोकप्रिय हो गया कि इन तीनों की मंडली को विवाहों में प्रस्तुति करने के लिए बुलाया जाने लगा। गणपति अगर रामायण कथा कहते, तो पेरियार उस पर शरारती चुटीले प्रश्न करते, दर्शक उन ब्राह्मणों से हल माँगते। हल मिले न मिले, यह मनोरंजन का माध्यम बन गया।

इस यात्रा का अंत जब काशी में हुआ, तो पेरियार की यह शरारत गंभीरता में बदल गयी। वह एक आश्रम में ब्राह्मण भेष में रहने लगे। आश्रम के नियमों के तहत सुबह गंगा स्नान, मंदिर की सफाई आदि करते रहे। धीरे-धीरे वह मंदिरों में, घाट पर, श्मशान में, त्यौहारों में ब्राह्मणों के धन-व्यवहार से चिढ़ने लगे। उनके ब्राह्मण नहीं होने का पता लगने पर उन्हें आश्रम से निकाल दिया गया। जब वहीं मंदिर के बाहर भिक्षुकों की कतार में सम्मिलित हुए, तो उन्हें यह लगा कि ये ब्राह्मण इनके लिए क्या करते हैं? एक मृत व्यक्ति के क्रिया-कर्म के लिए इतनी माँगे क्यों रखते हैं? लोगों में भय पैदा कर उसके निवारण के नाम पर क्यों लूटते हैं? 

वहाँ से लौट कर पेरियार अपने पिता का व्यवसाय संभालते हुए, ईरोड नगर निगम में शामिल हुए। विडंबना यह कि उनको ईरोड के देवस्थानम (मंदिर) का अध्यक्ष बना दिया गया। उस समय पेरियार ने नास्तिक होने के बावजूद यह कार्य मनोयोग से किया, और उन्होंने मंदिर में दान के लिए हुंडी की व्यवस्था की। उनका मानना था कि ब्राह्मण के हाथ में धन के बजाय दानपेटी में जमा की जाए, और कुल चंदे से पुरोहितों आदि को वेतन मिले। ईरोड के उस मंदिर को पैंतालीस हज़ार रुपए का लाभ हुआ। यह हुंडी मात्र में दान की प्रथा आज भी कमो-बेश दक्षिण भारत के मंदिरों में दिख सकती है। इन्हीं कार्यों के आधार पर पेरियार को बाद में निगम का अध्यक्ष चुन लिया गया।

जब पेरियार ईरोड में धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे, उन्हीं दिनों 1916 में एक विदेश से लौटे बैरिस्टर और उनकी पत्नी मद्रास आ रहे थे। कांग्रेस के कुछ नेता और स्थानीय विद्यार्थी फर्स्ट-क्लास बॉगी के सामने उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन, वह दरवाजे पर दिखे ही नहीं। लोगों ने अंदर जाँचा, तो वहाँ भी नहीं मिले। 

तभी उन्होंने देखा कि दूर थर्ड-क्लास बॉगी से काठियावाड़ी कुर्ता और धोती में एक व्यक्ति सर पर पगड़ी पहने चले आ रहे हैं। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास (10)
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प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास (10)

कांग्रेस बन तो गयी, अधिवेशन भी होने लगे, लेकिन करना क्या है, यह स्पष्ट नहीं था। भारतीयों के लिए चुनाव-व्यवस्था तो थी नहीं। दूसरी बात यह थी कि यह ब्रिटिश राज के साथ मिल कर काम करना चाहते थे। पारसी और ब्राह्मण नेता, दोनों का कंफर्ट ज़ोन यही था, क्योंकि ये लोग जमीनी आंदोलनकारी नहीं थे। यह तो उनका एक पार्ट-टाइम काम था कि वकालत आदि के साथ कुछ राजनैतिक चर्चा भी हो जाएगी। उनमें कुछ नेता अंग्रेज़ों से वेतन भी पाते थे, अथवा उनसे संबंध थे, तो यूँ विरोध संभव नहीं था।

लेकिन, बंकिम चंद्र चटर्जी के आनंदमठ (1882) के बाद से ही कुछ राष्ट्रवादी माहौल बनने लगा था। ‘भारतमाता’ का कंसेप्ट उभर रहा था, जिसमें दयानंद सरस्वती और विवेकानंद जैसे विचारकों का भी प्रभाव था। 1893 में बाल गंगाधर तिलक ने पूना में गणपति महोत्सव आयोजित कर दिया, जिसमें ‘गणपति बप्पा मौर्या’ के साथ ब्रिटिश-विरोधी नारे भी लगने लगे। उसी वर्ष अरविंद घोष भी अपनी आवाज़ बुलंद करने लगे। कांग्रेस के उदारवादी नेताओं को अंग्रेज़ों से भीख मांगने वाला कहा जाने लगा। पंजाब के लाला लाजपत राय ने कांग्रेस के अधिवेशनों में शामिल होने से इंकार कर दिया। 

तमिल ब्राह्मण भी तीन फांकों में बँट गए। मयलापुर के ब्राह्मण अंग्रेज़ों के समर्थक थे। एगमोर के ब्राह्मण कुछ संवाद स्थापित करना चाहते थे। उनका नेतृत्व ‘द हिंदू’ अखबार के संपादक कस्तूरी रंगा आयंगार कर रहे थे। वहीं सेलम के ब्राह्मण घोर राष्ट्रवादी बनते जा रहे थे, और वे ‘वंदे मातरम’ का गान कर रहे थे। इनका नेतृत्व सी. राजागोपालाचारी (राजाजी) कर रहे थे। 

1905 में जब बंगाल विभाजन हुआ, तो साथ ही साथ 1907 के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस भी विभाजित हो गयी। लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल, और बाल गंगाधर तिलक (लाल-बाल-पाल) कहलाए ‘गरम दल’। जबकि दादाभाई नौरोजी, गोपालकृष्ण गोखले और रासबिहारी घोष जैसे कहलाए ‘नरम दल’। 

इस मध्य 1906 में मार्ले-मिंटो सुधार के तहत पहली बार ब्रिटिश राज में भारतीय प्रतिनिधियों के लिए चुनाव हुए। हालाँकि यह आम चुनाव नहीं थे, और इन्हें निगम आदि के प्रतिष्ठित समूहों द्वारा ही चुना जाता। चूँकि वहाँ भी ब्राह्मणों का ही दबदबा था, तो मद्रास प्रेसिडेंसी से ब्राह्मण ही चुने जाते रहे। 

1916 में तमिलनाडु के ग़ैर-ब्राह्मण समुदाय के कद्दावर नेता टी.एम. नायर और त्यागराज चेट्टी मद्रास के गवर्नर से मिलने पहुँचे। 

उन्होंने कहा, “सर! काउंसिल में हमारे समुदायों का प्रतिनिधित्व बिल्कुल नहीं। उस पर ब्राह्मणों ने कब्जा जमा रखा है, जबकि जनता हमारे साथ है।”

“क्योंकि आप चुनाव में जीत नहीं रहे”

“चुनाव-प्रक्रिया तो आपको मालूम ही है। जब अधिकांश मजिस्ट्रेट ब्राह्मण ही हैं, तो चुना कौन जाएगा?”

“फिर तो आपके समुदाय को ऊँचे पदों तक पहले पहुँचना होगा”

“आपने मुसलमानों को 1909 से अलग प्रतिनिधित्व देना शुरू किया है, तो हमारी भी जातिगत प्रतिनिधि दें”

“इस तरह संभव नहीं। हिंदू नेता ही नहीं मानेंगे। कांग्रेस चाहे तो अन्य जाति के नेता जोड़ सकती है”

“कांग्रेस कुछ नहीं करेगी। हमें ही करना होगा। हमने अपना दल बनाया है साउथ इंडियन लिबरेशन फेडरेशन। हम ‘जस्टिस’ नाम से अखबार भी निकाल रहे हैं।”

“यह तो और भी अच्छा है। वैसे आपको एक अंदर की खबर बता रहा हूँ। चुनाव प्रक्रिया बदलने वाली है। संभव है कि जल्द ही आम चुनाव हों।”

“अगर ऐसा हुआ तो हमें ये ब्राह्मण नहीं हरा सकते”

जब कांग्रेस को यह खबर मिली कि उन्हें ब्राह्मणवादी दल का तमगा मिल रहा है, तो उन्होंने एक ग़ैर-ब्राह्मण चेहरा ढूँढना शुरू किया। 

उनके नेता केशव पिल्लई ने कहा, “एक आदमी है ईरोड निगम में। थोड़ा सनकी है। ब्राह्मणों से नफ़रत करता है। ऐसे माहौल में हमारे लिए वह उपयुक्त रहेगा।”

“क्या नाम है?”

“रामास्वामी नायकर। उम्र लगभग पैंतीस वर्ष। अभी से पेरियार (श्रेष्ठ) कहलाने लगा है”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास (9)
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धीरे धीरे ककीस्टोक्रेसी ( मूढ़तंत्र ) में परिवर्तित होते हम / विजय शंकर सिंह

अगर पिछले सात साल के गवर्नेंस की समीक्षा करें तो आप पाएंगे कि, हम एक ऐसे शासन तंत्र के आधीन शासित हो रहे हैं, जिसकी न कोई अर्थनीति है, न विदेशनीति, न गृहनीति और न ही लोककल्याण की ही कोई नीति। सरकार अगर यदि किसी एक विंदु पर स्थिर दिखती है तो, वह है, चुनाव कैसे जीता जाय। चुनाव जीतने के लिए, धर्म का उन्माद फैलाना पड़े, या मौलिक अधिकारों का निर्लज्ज हनन करना पड़े, या हर वह कदम उठाना पड़े, जिससे देश मे सामाजिक वैमनस्यता का वातावरण बने। इन सब मे इस सरकार और सत्तारूढ़ दल को महारत हासिल है। और अंत मे अपने फोटो लगे झोले में 5 किलो अनाज, नमक, तेल, आदि के साथ कुछ रुपये जिसे वह सम्मान निधि कहते हैं, को जनता को देकर, लोककल्याण का भ्रम फैलाने की महारत  हासिल है। जनता को रोजगार मिल रहा है या नहीं, बच्चों को शिक्षा मिल रही है या नहीं, बीमारों को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हो रही हैं या नहीं, न तो यह सरकार के एजेंडे में शामिल है, न नीति में, न तो सरकार की ऐसी कोई नीयत ही दिख रही है।

गवर्नेंस के कुछ प्रमुख उदाहरण देखें,
● नोटबन्दी हो गयी, क्यों हुयी, किस लिए हुयी, इसका किसे लाभ मिला, देश और जनता को क्या लाभ मिला, यह न तो सरकार को पता है और न ही सरकार के मुखिया को। न तो सत्तारूढ़ दल को पता है, न ही उसके थिंकटैंक को।
● इसी तरह से, कोरोना आया, तो लॉकडाउन लग गया, पर उससे जो कठिनाई जनता और कामगारों को झेलनी पड़ी, उंसकी कोई भी जवाबदेही सरकार ने नहीं लिया।
● तीन कृषि क़ानून, कृषि सुधार के नाम पर लाये गए, साल भर से सरकार, किसानों को समझाते रहे, पर किसान इन कानूनों के खिलाफ सालभर से अधिक समय तक शीत, घाम,बरसात सहते हुए, बैठे रहे अंत मे सरकार खुद ही समझ गए कि संसद में बहुमत और पीठ का दुरुपयोग कर के कानून तो पास कराया जा सकता है, पर उसे जनता न चाहे तो लागू नहीं कराया जा सकता है। अंततः यह तीनों कानून सरकार ने वापस  ले लिये। पर मन मसोस कर। यह अफसोस कृषिमंत्री की ज़ुबान पर कभी न कभी आ ही जाता है।
● कभी नाम बदलने की सनक चढ़ती है तो, अकबर इलाहाबादी, अकबर प्रयागराज हो जाते हैं, पर जब दिमाग की बत्ती जलने लगती है तो वे फिर इलाहाबादी हो जाते हैं।
● प्रधानमंत्री, और मुख्यमंत्री जिन पर देश मे कानून व्यवस्था बनाये रखने की प्रथम और महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है, वह कोई ऐसा मौका नहीं चूकते जिससे समाज मे धार्मिक और सामाजिक वैमनस्यता फैले, पर देश की जनता जिसे रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य चाहिए, वह इनकी इन विभाजनकारी बातों को अब अधिक तवज्जो नहीं देती है, फिर भी यह अपने चिरपरिचित विभाजनकारी एजेंडे पर लगे ही रहते हैं, क्योंकि, यह न तो गवर्नेंस जानते हैं और न ही समाज मे एका बनाये रखना।
● विदेशनीति और देश की सुरक्षा की बात करें तो, 15 जून 2020 को, चीन की सेनाएं लदाख की सीमा में घुसपैठ कर के एक कर्नल सहित 20 सैनिकों को मार देती हैं, और प्रधानमंत्री इस घटना के महज चार दिन बाद ही, 19 जून को सर्वदलीय बैठक में कहते हैं, न तो कोई आया था, न कोई आया है। घुसपैठ, विदेशी आक्रमण और 20 सैनिकों की शहादत को या तो कोई कायर सरकार ही नजरअंदाज कर सकती है या एक मूढ़ तंत्र ही ऐसा कह सकता है। 

यह कुछ उदाहरण है जब सरकार एक विफल और अदूरदर्शिता भरे शासक के रूप में नज़र आईं है। यह एक प्रकार का मूढ़तंत्र है, ककीस्टोक्रेसी है। शायद यह दुनिया की पहली सरकार होगी जो अपने ही देश मे एक ऐसा सामाजिक वातावरण बनाना चाहती है जिससे देश टूटने की ओर बढ़े, एक ऐसा आर्थिक मॉडल लाना चाहती है जिससे समाज मे आर्थिक विषमता बढ़े, एक ऐसा अवैज्ञानिक और अतार्किक बुद्धिविरोधी समाज गढ़ना चाहती है, जो सोच और मानसिकता में प्रतिगामी हो। ऐसा शासन तंत्र मूढ़ तंत्र नहीं तो क्या कहा जायेगा ? क्या हम एक मूढ़तंत्र या ककीस्टोक्रेटिक शासन तंत्र के दौर में नहीं आ पहुंचे है? अब बात थोड़ी अकादमिक और पोलिटिकल साइंस की। पर एंटायर पोलिटिकल साइंस की नहीं ! आखिर ककीस्टोक्रेसी क्या है, इस पर चर्चा करते हैं।

अनेक शासन पद्धतियों के बीच एक अल्पज्ञात शासन पद्धति है काकिस्टोक्रेसी, Kakistocracy . इसका अर्थ है, सरकार की एक ऐसी प्रणाली, जो सबसे खराब, कम से कम योग्य या सबसे बेईमान नागरिकों द्वारा संचालित की जाती है। इसे कोई शासन प्रणाली नहीं कही जानी चाहिये बल्कि इसे किसी भी लोकतांत्रिक प्रणाली के एक ग्रहण काल की तरह कहा जा सकता है जब हम निकम्मे लोगों द्वारा शासित हो रहे हों तब। यह शब्द 17 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में इस्तेमाल किया गया जब फ्रांस का लोकतंत्र और इंगलेंड का शासन गड़बड़ाने लगा था। इंग्लैंड ने तो अपनी समृद्ध लोकतांत्रिक परम्परा के कारण  खुद को संभाल लिया था पर फ्रांस ख़ुद को संभाल नहीं पाया था। तब अयोग्य और भ्रष्ट लोगों द्वारा शासित होने के कारण , 1829 में यह शब्द एक अंग्रेजी लेखक द्वारा इस्तेमाल किया गया था। मैने अपनी समझ से इसका हिंदी नाम मूढ़तन्त्र रखा है। मुझे शब्दकोश में इसका शाब्दिक अर्थ नहीं मिला।

इस का शाब्दिक अर्थ यूनानी शब्द काकिस्टोस जिसका मतलब ' सबसे खराब ' होता है और क्रेटोस यानी ' नियम ' , को मिला कर बनता है, सबसे खराब विधान । ग्रीक परम्परा से आया यह शब्द पहली बार अंग्रेजी में इस्तेमाल किया गया था, फिर राजनीति शास्त्र के विचारकों ने इसे अन्य भाषाओं में भी रूपांतरित कर दिया ।

राजनीतिशास्त्र के अनुसार इस की अकादमिक परिभाषा इस प्रकार है ~

A "kakistocracy" is a system of government which is run by the worst, least qualified, or most unscrupulous citizens.

काकिस्टोक्रेसी, शासन की एक ऐसी प्रणाली है जो सबसे बुरे, सबसे कम शिक्षित और सबसे निर्लज्ज लोगों द्वारा संचालित की जाती है ।

यह कोई मान्य शासन प्रणाली नहीं है बल्कि यह लोकतंत्र का ही एक विकृत रूप है । लोकतंत्र जब अपनी पटरी से उतरने  लगता है और शासन तंत्र में कम पढ़े लिखे और अयोग्य लोग आने  लगते हैं तो व्यवस्था का क्षरण होंने लगता है। उस अधोगामी व्यवस्था को नाम दिया गया काकिस्टोक्रेसी । लोकतंत्र में सत्ता की सारी ताक़त जनता में निहित है। जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है और वे चुने हुये प्रतिनिधि एक संविधान के अंतर्गत देश का शासन चलाते हैं। शासन को सुविधानुसार चलाने के लिये प्रशासनिक तंत्र गठित किया जाता है जो ब्यूरोक्रेसी के रूप में जाना जाता है। ब्यूरोक्रेसी, सभी प्रशासनिक तंत्र के लिये सम्बोधित किया जाने वाला शब्द है। जिसने पुलिस, प्रशासन, कर प्रशासन आदि आदि सभी तंत्र सम्मिलित होते हैं। इसी को संविधान में कार्यपालिका यानी एक्ज़ीक्यूटिव कहा गया है। ब्यूरोक्रेसी मूलतः सरकार यानी चुने हुये प्रतिनिधियों के मंत्रिमंडल के अधीन उसके दिशा निर्देशों के अनुसार काम करती है। पर ब्यूरोक्रेसी उस मन्त्रिमण्डल का दास नहीं होती है और न ही उनके हर आदेश और निर्देश मानने के लिये बाध्य ही होती है । ब्यूरोक्रेसी का कौन सा तंत्र कैसे और किस प्रक्रिया यानी प्रोसीजर और विधान यानी नियमों उपनियमों के अधीन काम करती है , यह सब संहिताबद्ध है। नौकरशाही से उन्हीं संहिताओं का पालन करने की अपेक्षा की जाती है । पर यहीं पर जब ब्यूरोक्रेसी कमज़ोर पड़ती है या स्वार्थवश मंत्रिमंडल के हर काम को दासभाव से स्वीकार कर नतमस्तक होने लगती है तो प्रशासन पर इसका बुरा असर पड़ता है और एक अच्छी खासी व्यवस्था पटरी से उतरने लगती है । ऐसी दशा में चुने हुये प्रतिनिधियों की क्षमता, मेधा और इच्छाशक्ति पर यह निर्भर करता है कि वे कैसे इस गिरावट को नियंत्रित करते हैं। अगर सरकार का राजनैतिक नेतृत्व प्रतिभावान और योग्य नेताओं का हुआ तो वे ब्यूरोक्रेसी को वे कुशलता से नियंत्रित भी कर लेते हैं अन्यथा ब्यूरोक्रेसी बेलगाम हो जाती है और फिर तो दुर्गति होनी ही है। इसी समय राजनैतिक नेतृत्व से परिपक्वता और दूरदर्शिता की अपेक्षा होती है। इसे ही अंग्रेज़ी में स्टेट्समैनशिप कहते हैं।

लोकतंत्र में जनता का यह सर्वोच्च दायित्व है कि वह जब भी चुने अच्छे और योग्य लोगों को ही चुने और न ही सिर्फ उन्हें चुने बल्कि उन पर नियंत्रण भी रखे। यह नियंत्रण, अगर चुने हुये प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का कोई प्राविधान संविधान में नहीं है तो, वह मीडिया, स्थानीय प्रतिनिधि पर दबाव, आंदोलन आदि के द्वारा ही रखा जा सकता है और दुनिया भर में जहाँ जहाँ लोकशाही है, जनता अक्सर इन उपायों से अपनी व्यथा और नाराज़गी व्यक्त करते हुये नियंत्रण रखती भी है। इसी लिये दुनिया भर में जहां जहां भी लोकतांत्रिक व्यवस्था है वहां वहां के संविधान में मौलिक अधिकारों के रूप में अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी है। जनता का यह दायित्व और कर्तव्य भी है कि वह निरन्तर इस अधिकार के प्रति सजग और जागरूक बनी रहे और जिन उम्मीदों से उसने सरकार चुनी है उसे जब भी पूरी होते न देखे तो निडर हो कर आवाज़ उठाये । इसी लिये लोकतंत्र में विरोध की आवाज़ को पर्याप्त महत्व दिया है और विरोध कोई हंगामा करने वाले अराजक लोगों का गिरोह नहीं है वह सरकार को जागरूक करने उसे पटरी पर बनाये रखने के उद्देश्य से अवधारित किया गया है । यह बात अलग है कि इसे देशद्रोही कह कर सम्बोधित करने का फैशन हो गया है।

लोकतंत्र तभी तक मज़बूत है जब तक जनता अपने मतदान के अधिकार के प्रति सचेत है और सरकार चुनने के बाद भी इस बात पर सचेत रहे कि चुने हुये प्रतिनिधि उसके लिये, उसके द्वारा  चुने गए हैं। पर हम चुन तो लेते हैं पर चुनने के बाद सरकार को ही माई बाप मानते हुये उसके हर कदम का दुंदुभिवादन करने लगते हैं । यही ठकुरसुहाती भरा दासभाव लोकतंत्र का क्षरण करता है और ऐसे ही लोकतंत्र फिर, धीरे धीरे मूढ़तन्त्र में बदलने लगता है।

लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है। उसके द्वारा चुनी गई संसद सर्वोच्च है। उसके प्रतिनिधियों द्वारा बनाया गया संविधान, देश की सर्वोच्च विधि संहिता है पर सरकार, सर्वोच्च नहीं है। वह चुनाव में जनता से किये गए वादों पर एक तय समय के लिये चुनी जाती है और जैसे ही विधायिका का विश्वास टूट जाता है या वह तय समय समाप्त हो जाता है या जनता उसे नकार देती है, सरकार समाप्त हो जाती है। ऐसे में जनता का यह परम दायित्व और कर्त्तव्य है कि वह सरकार और सत्तारूढ़ दल को बार बार याद दिलाते रहे कि वह किसलिए सत्तासीन किये गए हैं। लोकतंत्र में जब नेता जब व्यक्ति पूजा का माध्यम बनने लगते हैं और विकल्पहीनता के मिथ्या आवरण में उनकी अपरिहार्यता के किस्से  जानबूझकर जनता में फैलाये जाने लगते हैं तो लोकतंत्र गंदलाने लगता है, और वह धीरे धीरे तानाशाही में बदलने लगता है। और जब शासक, एक लोकसेवक न होकर अवतार, अपरिहार्य और विकल्पहीन होने लगता है तो देश उसकी सनक, ज़िद और मर्जी को भोगने के लिये अभिशप्त हो जाता है। 

( विजय शंकर सिंह )

Wednesday, 29 December 2021

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास (9)

कुछ रहस्यमय भी घट रहा था। थियोसॉफिकल सोसाइटी की चर्चा के बिना द्रविड़ आंदोलन की बात शुरू करनी कठिन है। यह रंगमंच के सजने से पहले का नाट्यारंभ है। मद्रास में हो रही इन गतिविधियों से ही भारत का भविष्य तय होने वाला था। 

1875 में न्यूयॉर्क में कुछ विचित्र किस्म के लोग मिले, जिन्होंने एक समूह बनाया। इसका चिह्न ऐसा था जिसमें स्वास्तिक, ओम्, डेविड का सितारा, और मिस्र-ग्रीक का वह सर्प था जो अपनी पूँछ अपने मुँह में दबाए था। ये एक ऐसे धर्म की बात कर रहे थे, जिसका कोई धर्म न होगा। ये कुछ सूफ़ियाना मिज़ाज के लोग थे, जो तंत्र-मंत्र, और यहूदी कबाला जैसी विधियाँ कर रहे थे।

कश्मीर के महाराजा रणबीर सिंह भी इसी मिज़ाज के व्यक्ति थे। उन्होंने इनसे संपर्क साधा। उस समय मद्रास के एक तीस वर्ष के वकील युवक सुब्बा राव दार्शनिक हो चले थे। उन्होंने महाराज की मदद से उन्हें बुलवाया और मद्रास के एक हरे-भरे शांत इलाके अडयार में जमीन दिलवायी। वहाँ इस सोसाइटी का मुख्यालय बना। इसकी मुखिया थी एक रहस्यमयी अंग्रेज़ महिला मैडम ब्लाताव्स्की और एक अमरीकी बौद्ध मिस्टर ऑल्कॉट। इसी सोसाइटी के कार्यालय में किसी विचित्र संक्रमण से सुब्बा राव अल्पायु ही चल बसे। 

इस सोसाइटी से मद्रास के संभ्रांत तमिल ब्राह्मण आकर्षित हो रहे थे। आखिर अंग्रेज़ी में धर्म पर चर्चा हो रही थी। यूरोपीय और अमरीकियों के साथ बैठ विमर्श करने का आनंद मिलता। दयानंद सरस्वती का आर्य समाज भी इससे कुछ समय के लिए आकर्षित हो गया।

मगर इनकी मंशा क्या थी? ये कौन लोग थे? यह बात तो ब्रिटिश भी समझना चाह रहे थे कि ये फिरंगी आखिर भारत में ईसाई धर्म न लाकर क्या लाना चाहते हैं? क्या ये उस जमाने के हिप्पी किस्म के लोग थे, जो हिंदू और बौद्ध ग्रंथों में निर्वाण ढूँढ रहे थे? 

थियोसॉफिकल सोसाइटी का मूल मंत्र था- ‘सत्यम नास्ति परो धर्म:’ (नास्ति सत्यात् परो धर्म: पर आधारित)। यह दर्ज़ है कि मैडम ब्लाताव्सकी को यह मंत्र काशी के महाराजा ने बताया था। इस मंत्र का जो उन्होंने अर्थ निकाला, वह था- सत्य से बढ़ कर कोई धर्म नहीं। अर्थ तो ठीक ही था, लेकिन इसमें ‘कोई धर्म नहीं’ पर बल था। न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई, न बौद्ध, न यहूदी। (जबकि एक साधारण समझ वाला भारतीय भी इस श्लोक का अर्थ समझता है। यहाँ धर्म का अर्थ कर्तव्य से है, आधुनिक दुनिया के तमाम धर्मों से नहीं।) 

खैर, इसी सोसाइटी के लोगों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नींव रखी। यह कोई साधारण घटना नहीं थी, यह बात हम अब जानते हैं। आज़ादी से पहले के सौ साल, और आज़ादी के बाद के चार-पाँच दशक तक तो इसी दल या इसकी शाखा ने भारत का नेतृत्व किया। स्वयं गांधी जब वकालत की पढ़ाई करने गए थे तो मैडम ब्लाताव्सकी से मिले, और उन्होंने गांधी को भगवद्गीता पढ़ने का सुझाव दिया। गांधी के विचारों में सत्य के आग्रह और उनकी अपनी धर्म की परिभाषा में थियोसॉफिकल सोसाइटी का योगदान है। गांधी ने कहा कि वह मैडम ब्लाताव्स्की से प्रभावित थे, किंतु उनके रहस्यमयी विधियों पर उन्हें शंका थी।

बाद में इस सोसाइटी का जिम्मा एनी बेसेंट ने संभाला, और वह कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष भी बनी। उन्होंने बाद में तिलक के साथ मिल कर स्वराज (होम रूल) की बात की, और मदन मोहन मालवीय के साथ मिल कर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना में भूमिका निभायी।

तमिलनाडु में एनी बेसेंट और इस सोसाइटी का होना एक संयोग था। लेकिन, कांग्रेस के माध्यम से तमिल ब्राह्मणों का राजनीतिक प्रभुत्व बढ़ना कोई संयोग नहीं था। (गांधी के आने से पूर्व) कांग्रेस बंगाली, मराठी और तमिल ब्राह्मणों, पारसियों, कुछ यूरोपीयों, और गिने-चुने अन्य अभिजात्य सवर्णों का जमावड़ा ही थी। तमिलनाडु में यह बात लोगों को खल रही थी, क्योंकि वहाँ ब्राह्मण अति-अल्पसंख्यक थे। लेकिन, ब्राह्मणों के ख़िलाफ़ बोलता कौन? धर्म की सत्ता, और प्रशासनिक सत्ता, दोनों उनके पास थी। 

एक धनाढ्य व्यवसायी दंपति वर्षों से पुत्र-कामना में मंदिरों के चक्कर लगा रहे थे। आखिर तिरुपति दर्शन के बाद उनके दो पुत्र हुए, जिनके नाम उन्होंने विष्णु अवतारों पर रखे- कृष्णास्वामी और रामास्वामी। 

उन्हें नहीं मालूम था कि यह रामास्वामी ही राम-कथा और संपूर्ण ब्राह्मण समाज के सबसे वीभत्स आलोचकों में एक बनेंगे, जब वह कहलाएँगे ‘पेरियार’।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास (8)
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Monday, 27 December 2021

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास (8) 1884, मद्रास

यूँ तो यह मद्रास की एक आम सुबह थी, लेकिन शहर के पॉश इलाके मयलापुर में अंग्रेज़ी चाय पीते कुछ संभ्रांत युवक उत्साहित लग रहे थे। वे आम युवक थे भी नहीं। एक कचहरी में प्रतिष्ठित वकील था, एक ‘द हिंदू’ अखबार के पहले स्तंभकारों में था, एक सिविल सर्वेंट था, एक रियल-एस्टेट का मालिक, एक प्रोफेसर। यह अंग्रेज़ी तालीम लिए तमिल ब्राह्मणों का जमावड़ा था, जो यह सोचते थे कि इस देश के भविष्य की ज़िम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर है। कुछ वैसा ही, जैसे बंबई-पूना और कलकत्ता के अभिजात्य सवर्णों को लगता था। यह भारत का ताज़ा-तरीन एलीट क्लब था, जो मैकालेवादी अंग्रेज़ी शिक्षा की नींव पर खड़ा हुआ था। रक्त से भारतीय, सोच से अंग्रेज़। 

“कल का कॉंफ़्रेंस अच्छा था। तुम नहीं आए?”, एक ने कहा।

“मैं एक मुकदमे की याचिका बनाने में व्यस्त हो गया। है क्या यह थियोसॉफिकल सोसाइटी? सुना है अडयार में बड़ी जमीन मिली है उन्हें।”

“आज कल तो एकेश्वरवाद, एक सार्वभौमिक धर्म, ब्रह्म समाज, आर्य समाज, हर जगह यही बातें चल रही है। इनका भी कुछ ऐसा ही है।”

“अच्छा? मैंने तो सुना है वह मैडम ब्लाताव्सकी कुछ वू-डू करते हुए पकड़ी गयी”

“हा हा! ऑकल्ट कहते हैं उसे। कोई बौद्ध तंत्र-मंत्र है।”

“ईसाई मिशनरी तो इनसे पक्का नाराज़ हो जाएँगे।”

“नाराज़ तो हो चुके हैं। आज शाम को चलो। कोई सीक्रेट मीटिंग होने वाली है दीवान साहब के घर में।”

“दीवान रघुनाथ राव?”

“हाँ! अपनी महाजन सभा और उनकी सोसाइटी के कुछ लोग मिलने वाले हैं।”

“एजेंडा क्या है?”

“मुझे भी मालूम नहीं। मगर कुछ बड़ी योजना है।”

उस शाम सत्रह व्यक्ति मद्रास स्थित दीवान रघुनाथ राव के घर पर इकट्ठा हुए। इस मीटिंग की अध्यक्षता एक सेवानिवृत्त अंग्रेज़ अफसर कर रहे थे।

उन्होंने कहा, “मैं आप सभी गुणीजनों और प्रतिभावान विभूतियों का स्वागत करता हूँ। आप सभी इस देश के चुने हुए लोग हैं। आप सब पर अहम जिम्मेदारियाँ हैं। समाज के लिए उत्तरदायित्व है। आप में से अधिकतर लोगों ने 1857 नहीं देखा। मैंने इस देश की गरीब जनता पर वह अन्याय अपनी आँखों से देखा है। मगर अफ़सोस कि मेरे हाथ बँधे हुए थे। मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सका। मैं एक अंग्रेज़ नौकर था। 

लेकिन, आप भारतीय हैं। आप सभी को इस निरंकुश राज से मुक्ति पानी है। लोकतंत्र की स्थापना करनी है। एक ऐसे राज्य की माँग करनी है, जहाँ प्रशासन आपके हाथों में हो।

मुझे मालूम पड़ा कि आप लोगों ने एक मद्रास महाजन सभा बनायी है। एक ‘द हिंदू’ अखबार छपना शुरू हो चुका है। बंबई-पूना में भी सभाएँ बनी है। कलकत्ता में मैंने कुछ प्रेसिडेंसी कॉलेज के युवाओं से बात की। उन्होंने भी एक क्लब बनाया है। 

हमें इन सबको मिला कर एक राजनैतिक शक्ति खड़ी करनी है, जो ब्रिटिश राज के समक्ष जनता का प्रतिनिधित्व करे। जो आपकी माँगे रखे। 

हमारी थियोसॉफिकल सोसाइटी इस कार्य में यथासंभव सहयोग देगी।”

एक युवक ने पूछा, “सर! उस शक्ति का नाम क्या होगा?”

“अभी सोचा नहीं है। अभी तो हम पहले हर साल मिलना शुरू करें।”

“इंडियन नैशनल यूनियन?”

“अच्छा सुझाव है। मैं वायसराय को चिट्ठी लिखूँगा कि हमारे इस यूनियन को हर वर्ष एक कांग्रेस (सम्मेलन) की इजाज़त दी जाए जहाँ हम देश भर के मुद्दों पर विमर्श करें।”

यह अंग्रेज़ व्यक्ति थे एओ ह्यूम, और वे सत्रह व्यक्ति (Mylapore 17) रच रहे थे नींव इंडियन नैशनल कांग्रेस की। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास (7)
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महामारी के दौरान भारत में स्कूली शिक्षा का हाल / विजय शंकर सिंह

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री से अपील की है कि कोरोना के नए वैरिएंट ओमिक्रोन के संभावित प्रकोप को देखते हुए, देश मे 2022 में होने वाले चुनाव टाल दिए जांय। मैं इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस कथन की कानूनी पड़ताल के पचड़े में न पड़ते हुए, इसका निर्णय, भारत निर्वाचन आयोग के ऊपर छोड़ता हूँ, क्योंकि संविधान के अंतर्गत, देश मे, चुनाव कराने, टालने और संशोधित करने की सारी शक्तियां आयोग के पास हैं। अभी मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने कहा भी है कि इस विषय  राज्यों से विचार विमर्श के बाद ही निर्णय लिया जाएगा। कल क्या होगा, यह अभी नहीं बताया जा सकता है। फिलहाल तो इस महामारी ने बच्चों की शिक्षा पर क्या असर डाला है इस विंदु पर चर्चा करते हैं।

 देश मे कोरोना की आमद 30 जनवरी 2020 में केरल में मिले एक मरीज से हुयी और धीरे धीरे 2020 के खत्म होते होते कोरोना ने देश मे तबाही के कई मंज़र दिखा दिए। इसका व्यापक असर, न केवल उद्योगों और व्यापार पर पड़ा, बल्कि इसका एक बड़ा असर स्कूलों पर, बच्चों की मानसिक स्थिति और उनकी मनोदशा पर भी पड़ा है। लगभग, दो वर्ष से महामारी के कारण, पूरे भारत के अधिकांश स्कूल बंद चल रहे हैं। बच्चे घरों में ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं। स्कूली छात्रों की सामान्य दिनचर्या, जिसमे केवल क्लासरूम में प्रत्यक्ष पढ़ाई ही नहीं शामिल होती है, बल्कि स्पोर्ट्स, हॉबी विकास, अन्य शिक्षणेतर गतिविधियां भी होती हैं, बाधित हो गयी हैं। अचानक हुए इस परिवर्तन ने सभी राज्यों, वर्गों, जाति, लिंग और सभी क्षेत्रों के बच्चों की एक बड़ी संख्या को प्रभावित किया है। बच्चे एक प्रकार के कैदखाने में कैद हो गए हैं। विशेषकर, उन घरों में जो एकल परिवार के हैं और छोटे छोटे फ्लैटों में पहले ही एक प्रकार के आइसोलेशन में जी रहे हैं। संयुक्त परिवारों और बड़े घरों में तो थोड़ी बहुत, राहत है, पर एकल परिवार और कामकाजी दंपतियों के परिवार के बच्चों पर इस महामारी जन्य कैदखाने का बेहद प्रतिकूल असर पड़ा है।

इस सम्बंध में यूनिसेफ द्वारा एक अध्ययन किया गया है। इस अध्ययन पर सुजॉय घोष जो अर्थव्यवस्था और उसके राजनीतिक असर पर अक्सर लिखते रहते हैं ने इंडियन पोलिटिकल डिबेट वेबसाइट पर एक गम्भीर लेख लिखा है। हाल ही में किए गए यूनिसेफ के उक्त अध्ययन के अनुसार, स्कूलों के बंद होने से 286 मिलियन छात्र, जिनमे 48 प्रतिशत लड़कियां हैं, और जो पूर्व-प्राथमिक से उच्च माध्यमिक स्कूलों में पढ़ती हैं, प्रभावित हुयी हैं। महामारी के दौरान, भारत मे, स्कूलों के अचानक बंद हो जाने के कारण, पारंपरिक कक्षा आधारित भारतीय स्कूली शिक्षा प्रणाली अब एक अनियोजित ऑनलाइन आधारित शिक्षा प्रणाली के रूप में स्थानांतरित हो गई है। अनियोजित इसलिए कि, न तो हम मानसिक रूप से और न ही तकनीकी रूप से ऑनलाइन शिक्षा की इस अचानक आ पड़ी, चुनौती से निपटने के लिये, तैयार थे। आचानक होने वाला यह अप्रत्याशित तकनीकी बदलाव न केवल छात्रों को, डिजिटल रूप से विभाजित कर रहा है, बल्कि उनके सीखने की क्षमता, और उनकी समग्र प्रगति (सामाजिक और सांस्कृतिक कौशल, फिटनेस, आदि) को भी धीमा कर दे रहा है। सामूहिकता न केवल तरह तरह से सीखने की क्षमता को बढ़ाती है, बल्कि वह तरह तरह की होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिये बच्चों को मानसिक रूप से तैयार भी करती है। बच्चों पर, उनकी सीखने की क्षमता और विविधता के अलावा, स्कूली शिक्षा की अनुपस्थिति का, बच्चों और किशोरों के समग्र विकास पर दीर्घकालिक प्रभाव भी पड़ेगा।

कोरोना महामारी के दौरान स्कूलों के बंद होने के कारण छात्रों के  सीखने की क्षमता, लर्निंग कैपेसिटी, पर क्या प्रभाव पड़ा है, का आकलन करने के लिए, यूनिसेफ ने देश के छह राज्यों, असम, बिहार, गुजरात, केरल, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से आंकड़े जुटाए और उनका मूल्यांकन और अध्ययन किया। यह अध्ययन, "कोविड के संदर्भ में स्कूल बंद" प्रोजेक्ट के अंतर्गत किया गया है। इस अध्ययन के प्रमुख निष्कर्षों में से एक निष्कर्ष यह भी है कि, "छात्र स्कूल बंद होने पर स्व-अध्ययन पर समय तो अधिक व्यतीत कर रहे हैं पर सीख कम रहे हैं, जबकि, स्कूल में कम समय बिताते हैं और, अधिक सीखते हैं।" यानी स्कूलों में वे कम समय के बावजूद, अधिक मात्रा में और अधिक तेजी से पाठ्यक्रम सीखते हैं। जबकि घरों में स्वअध्ययन यानी ऑनलाइन पर अधिक समय देने के बावजूद, अधिक नहीं सीख पा रहे हैं। यह अंतर सामूहिक और एकल अध्ययन के गुणदोष का है। अध्ययन में आये आंकड़ों के अनुसार, 97% छात्र प्रतिदिन औसतन 3 से 4 घंटे पढ़ाई और सीखने में व्यतीत करते हैं। लेकिन प्रति दिन 3-4 घंटे की पढ़ाई स्कूल की प्रत्यक्ष पढ़ाई की मात्रा से कम है। साथ ही, स्कूल खुलने के बाद भी, छात्र आमतौर पर होमवर्क, ट्यूशन और अन्य स्व-निर्देशित, चीजों के सीखने की गतिविधियों पर समय बिताते ही हैं। सामूहिकता सीखने की क्षमता, लालसा और उत्कंठा को बढ़ा देती है, जबकि एकल अध्ययन, नीरस और उबाऊ हो जाता है। यह अध्ययन स्कूली बच्चों पर है, न कि स्वाध्याय की प्रवित्ति वालों पर।

अब अगर हम ऑनलाइन शिक्षा के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे और प्रौद्योगिकी की उपलब्धता और नेट की पहुंच क्षमता का आकलन करें तो पाएंगे कि, हम में से अधिकांश अपने देश में भौगोलिक और सामाजिक-आर्थिक वर्गों में 'डिजिटल हैव नॉट्स' की तरह ही हैं। डिजिटल हैव नॉट्स यानी वे इलाके जो नेटवर्क और अन्य सायबर सुविधाओं में पिछड़े हैं। इस अध्ययन के अनुसार, उपरोक्त छह राज्यों में, 10 प्रतिशत छात्र स्मार्ट फोन, फीचर फोन, टीवी, रेडियो, या लैपटॉप / कंप्यूटर आदि किसी भी उपकरण से वंचित हैं। यह मुख्यतः ग्रामीण क्षेत्रों की व्यथा है, जहां स्कूल और शिक्षक तो हैं पर ऑनलाइन पढ़ाई के लिये आवश्यक उपकरण नहीं हैं। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि, जनता तक प्रौद्योगिकी की पहुंच अभी दूर की बात है। यह भी एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि कई इलाकों में दूरस्थ शिक्षण संसाधनों, ऑनलाइन सुविधाओं की उपलब्धता के बावजूद, सर्वेक्षण किए गए छह राज्यों में 40 प्रतिशत छात्रों ने स्कूलों के बंद होने के बाद से किसी भी प्रकार के दूरस्थ या ऑनलाइन शिक्षा का उपयोग नहीं किया। जब ऑनलाइन शिक्षा का उपयोग न करने वाले छात्रों से पूछा गया कि, उन्होंने ऑनलाइन शिक्षण उपकरणों का उपयोग क्यों नहीं किया, तो 73 प्रतिशत छात्रों ने, इसे सीखने की सामग्री या संसाधनों के बारे में जागरूकता की कमी का होना बताया। 

उपरोक्त अध्ययन, दो महत्वपूर्ण समस्याओं का संकेत देते हैं। एक,  ऑनलाइन शिक्षण संसाधनों का सामर्थ्य और दूसरे इनके प्रति, जागरूकता। माता-पिता या अभिभावकों के एक समूह के लिए, एक मुख्य बाधा डिवाइस और इंटरनेट (डेटा) पाने की क्षमता और सामर्थ्य है, यानी वे ऑनलाइन पढ़ाना तो चाहते हैं पर उनमे इतनी आर्थिक क्षमता नहीं है कि ऑनलाइन शिक्षा के लिये, ज़रूरी उपकरण खरीद सकें। वहीं दूसरी ओर, एक अन्य समूह, ऐसे माता-पिता और अभिभावकों का है, जो अपने बच्चों के लिए उपकरण और इंटरनेट दोनों का खर्च, आसानी से वहन कर सकते हैं, लेकिन ऑनलाइन शिक्षण उपकरण और प्रक्रिया के उपयोग के बारे में, उनमे पर्याप्त जागरूकता का अभाव है। 

यूनिसेफ ने इस अध्ययन में, ऑनलाइन स्कूली शिक्षा की प्रभावशीलता को अपने अध्ययन का एक प्रमुख बिंदु रखा है। यूनिसेफ के इस अध्ययन के निष्कर्ष के अनुसार, "माता-पिता और शिक्षक दोनों महसूस करते हैं कि छात्र स्कूलों की तुलना में दूरस्थ (ऑनलाइन अध्ययन के लिए, दूरस्थ शब्द का प्रयोग किया गया है) शिक्षा के माध्यम से कम सीखते हैं। 5 से 13 वर्ष की आयु के छात्रों के 76 प्रतिशत और 14 से 18 वर्ष की आयु के 80 प्रतिशत, किशोरों के बारे में इस अध्ययन की रिपोर्ट है कि छात्र स्कूलों में जितना, सीखते हैं, उसकी तुलना में ऑनलाइन शिक्षा में वे कम सीख रहे हैं। अध्ययन के अनुसार, 67 प्रतिशत शिक्षक यह मानते हैं कि यदि स्कूल खुले रहते तो, जितना छात्र स्कूलों में जाकर पढ़ते सीखते हैं, उसकी तुलना में छात्र, अपनी समग्र सीखने की क्षमता में पिछड़ रहे हैं। खासकर प्राथमिक स्कूलों के छात्र इसमें अधिक नुकसान में हैं।

सीखने की क्षमता में कमी के अतिरिक्त,  स्कूल बंद होने के कारण, छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ा है। जैसे-जैसे छात्र अपने घरों में, महामारी जन्य आइसोलेशन में कैद होते गए, वे अपने मित्रों और शिक्षकों से दूर होते गए। साथ ही महामारी में आने वाली बुरी खबरों का असर जो घर के बड़ों पर पड़ा, उनके तनाव से भी बच्चों और किशोरों के मन मस्तिष्क पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। माता-पिता की नौकरियों पर असर पड़ा, कुछ महामारी के ग्रास बन गए तो, इसका असर पड़ा, और घर मे लगातार महामारी जन्य नकारात्मकता ने बच्चों को मानसिक रूप से रुग्ण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। घर के जबरिया थोपे गए एकांत और हमउम्र मित्रों के अभाव के कारण उपजी संवादहीनता ने, बच्चों के सीखने की क्षमता और स्वाभाविक जिज्ञासु भाव को बहुत अधिक प्रभावित किया है। अध्ययन से यह पता चलता है कि, 5 से 13 वर्ष की आयु के एक तिहाई छात्रों और लगभग आधे किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य पर खराब असर या बहुत ही खराब असर पड़ा है। अध्ययन के दौरान परिवारों से साक्षात्कार भी लिये गये। उनके अनुसार, "सामाजिक अलगाव, सीखने में व्यवधान और परिवार की वित्तीय असुरक्षा खराब मानसिक स्वास्थ्य के प्रमुख कारण हैं।"

देश में, स्कूल फीडिंग प्रोग्राम (मुख्य रूप से सरकारी स्कूलों में), मिड डे मील (एमडीएम) के कई लाभ हैं जैसे कि, कक्षा में भूख से बचना, स्कूल में उपस्थिति बढ़ाना और सबसे प्रमुख, कुपोषण को दूर करना है।  अब, देश भर में स्कूल बंद होने के कारण, 'स्कूल फीडिंग कार्यक्रम अब योजना (एमडीएम पोर्टल) के तहत नामांकित 115.9 मिलियन बच्चों को बहुत जरूरी मुफ्त दोपहर का भोजन प्रदान नहीं कर सका।'  इसलिए, सीखने के अलावा, स्कूली शिक्षा की अनुपस्थिति का भी बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेगा। कोरोना की स्थिति तुलनात्मक रूप से थोड़ी बेहतर हुयी तो, माता-पिता और सरकार ने स्कूलों को फिर से खोलने के बारे में सोचना शुरू कर ही दिया था, कि, कोविड के नए वैरिएंट ओमिक्रोन के मामले बढ़ने लगे। बच्चों का टीकाकरण अभी नही हुआ है और संक्रमण का खतरा उठाना भी उचित नहीं है तो स्कूलों को खोलने की योजना पर सरकारें जो सोच रही थीं, उन पर फिर ग्रहण लग गया। 

यूनिसेफ की रिपोर्ट ने एक और तथ्य की ओर इशारा किया है कि, 
'लगभग 8 प्रतिशत छात्र स्कूल खुलने के बाद, अगले तीन महीनों में या उसके बाद स्कूल नहीं लौट सकेंगे। उनमें से अधिकांश (60%) स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के कारण स्कूल नहीं लौट पाएंगे। इस त्वरित मूल्यांकन रिपोर्ट ने यह भी उजागर किया कि 'स्कूल बंद होने के एक बड़े झटके के रूप में, कुछ बच्चे वापस लौटने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं। वे पूरी तरह से स्कूल छोड़ सकते हैं। 10 प्रतिशत परिवारों का कहना है कि वे बच्चों को वापस स्कूल भेजने का जोखिम नहीं उठा सकते जबकि 6 प्रतिशत का कहना है कि उन्हें जीने योग्य आय अर्जित करने के लिए, अपने बच्चों की मदद की आवश्यकता है।' पश्चिम बंगाल में एक हालिया सर्वेक्षण में पाया गया है कि महामारी के दौरान स्कूल जाने वाले बच्चों के बाल श्रम में 105% की वृद्धि हुई है। महामारी के दौरान 'सेव द चिल्ड्रन' द्वारा इसी तरह के एक सर्वेक्षण में शामिल 62 प्रतिशत परिवारों, जिसमें क्रमशः ग्रामीण क्षेत्रों में 67 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 55 प्रतिशत हैं, के बच्चों की शिक्षा प्रभावित हुयी है। 

महामारी का व्यापक असर देश की आर्थिकी पर पड़ा है। 2016 में हुयी नोटबन्दी के कारण 31 मार्च 2020 तक देश की जीडीपी में 2 प्रतिशत गिरावट आ चुकी थी और फिर जब महामारी का दौर आया तो, लम्बे समय तक चलने वाले रुक रुक के लॉक डाउन, कामगारों के व्यापक और देशव्यापी विस्थापन ने, देश की बेरोज़गारी दर को और बढ़ा दिया जिससे मंदी जैसे हालात पैदा हो गये। इसका सीधा असर, लोगों की जीवन शैली पर पड़ा और बच्चों की शिक्षा इससे बुरी तरह से प्रभावित हुयी। लोगों के पास, स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने के लिये धन की कमी हुयी तो शिक्षा जो सरकार की प्राथमिकता में तो वैसे भी नहीं है, अब इन विपन्न होते परिवारों में भी प्राथमिकता से धीरे धीरे बाहर होने लगी। इसका प्रभाव आगे चल कर उन गरीब परिवारों पर अधिक पड़ेगा, जिन्हें बजट की कमी का सामना बराबर करना पड़ रहा है। परिणामस्वरूप, गरीब होते परिवारों के बच्चे स्कूल छोड़ देंगे और अपने माता-पिता की कमाई में मदद करने के लिए आर्थिक गतिविधियों में लग जाएंगे। यह स्पष्ट है कि बच्चे जितने अधिक समय तक स्कूल से बाहर रहते हैं, वे उतने ही कमजोर होते जाते हैं और उनके स्कूल लौटने की संभावना भी कम होती जाती है। 

सरकार को शिक्षा, विशेषकर स्कूली शिक्षा से जुड़ी समस्याओं को गम्भीरता से लेना होगा। देश मे सरकारी स्कूली शिक्षा की बात करे तो उसकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। निजी स्कूल ज़रूर बहुत हैं और अब भी खुल रहे हैं, पर वे दिन पर दिन महंगे भी होते जा रहे हैं और तरह तरह के शुल्कों के कारण, एक सामान्य वेतनभोगी या निम्न मध्यवर्ग की पहुंच के बाहर भी हैं। ऐसे स्कूलों के फीस ढांचे पर सरकार का या तो कोई नियंत्रण नहीं है या सरकार जानबूझकर उन्हें नियंत्रित करना ही नहीं चाहती है। ऐसी स्थिति में पढ़ाई की असल नींव जो स्कूली शिक्षा में पड़ती है, वह नहीं बन पा रही है। महामारी एक अस्थायी समस्या है। टीकाकरण और अन्य इलाज की संभावनाएं तलाश की जा रही हैं। स्थिति सामान्य होगी ही और स्कूल भी खुलेंगे। पर शिक्षा, कम से कम स्कूली शिक्षा तो सर्वसुलभ हो, यह देश और समाज की बेहतरी के लिये अनिवार्य है। ऑनलाइन शिक्षा, एक मज़बूरी भरा विकल्प है जो इस महामारी जन्य आफ़तकाल में स्कूल से आभासी रूप से जोड़े रखने का एक उपक्रम भर है। असल शिक्षा तो स्कूलों, विद्यालयों, महाविद्यालयों में सामूहिक क्लास रूम में मिलती है न कि मोबाइल, टैबलेट या लैपटॉप के स्क्रीन पर। 

© विजय शंकर सिंह

असद हम वो जुनूं जौलां - ग़ालिब./ विजय शंकर सिंह

आज 27 दिसंबर है और आज मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म दिन भी है। मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू के महानतम शायर थे। साहित्य में अनेक विभूतियाँ जन्मती है और अपनी प्रतिभा से लोगों को चमत्कृत करती रहती हैं पर आकाशगंगा में कहीं खो जाती हैं। कुछ तो गुमनामी के अँधेरे में ब्लैक होल की तरह विलीन ही हो जाती हैं। पर कुछ प्रतिभाएं समय के अनेक प्रभाव को झेलते हुए , मौज़ ए वक़्त को पार करते हुए , कालजयी हो कर अनवरत रूप से दैदीप्यमान बनी रहती हैं।  ऐसी प्रतिभाएं लगभग विश्व के हर साहित्य में मिलेंगी और उनकी प्रासंगिकता सदैव बनी रहती है। ग़ालिब उन्ही कालजयी शख्शियतों में से एक है। 

आज भी हर अवसर पर उन्हें उद्धृत कर माहौल को वज़नदार और मौज़ू बनाया जा सकता है। ग़ालिब एक सामंत थे, सूफी थे, कला के पारखी थे, फक्कड़ थे और मद्यप भी ।  1857 के विप्लव के समय एक बार अंग्रेजों ने विप्लव का दमन कर लेने के बाद जब उन्हें पकड़ा और जब पूछताछ की, तो एक  सवाल , कि तुम्हारा मजहब क्या है, पर उन्होंने कहा कि " मैं आधा मुसलमान हूँ, और आधा काफ़िर।  शराब पीता हूँ , पर सूअर नहीं खाता हूँ।"  यह ग़ालिब का व्यंग्य था या उनकी साफ़ बयानी, यह तो वही बता पाएंगे । पर इस उत्तर ने माहौल को हल्का कर दिया। 

ग़ालिब मूलतः फारसी के शायर थे । फारसी राजभाषा थी तब। मुगल काल की वही भाषा थी । लश्करों में विभिन्न क्षेत्रों से आये सैनिकों की संपर्क भाषा के रूप में उर्दू का स्वरूप बन रहा था । फिर ग़ालिब ने भी इस स्वरुप को अपनाया और उर्दू उनकी प्रतिभा से समृद्ध  हुयी।  ग़ालिब की शायरी में दर्शन भी है , इश्क़ ए हक़ीक़ी भी और इश्क मजाज़ी भी। तंज भी और इबादत भी। उनका अंदाज़ ए बयाँ भी अलग और उनकी अदा भी अलग। इसी लिए ग़ालिब आज भी न सिर्फ समकालीनों में बल्कि अपने बाद की महान साहित्यिक प्रतिभाओं में भी अलग ही चमकते हैं। यही विशिष्टता , ग़ालिब को ग़ालिब बनाती है। 

दिल्ली में हजरत निज़ामुद्दीन की दरगाह के पहले ही जाते समय ग़ालिब अकादेमी है और उसी के आगे ग़ालिब भी चिर निद्रा में लीन हैं। पर बहुत कम लोग ग़ालिब की मज़ार पर जाते हैं। शायद बहुत ही कम। किसी किसी की नज़र पड़ती है तो वहाँ एक सादगी भरा सन्नाटा पसरा रहता है। साहित्यकार पत्थरों से नहीं अमर होते हैं, वे अमर रहते हैं अक्षरों में। अक्षर का अर्थ ही है , जिसका क्षय न हो। और ग़ालिब की कीर्ति का कभी क्षय नहीं होगा। वह अक्षुण्ण  रहेगी। नीचे उनका एक शेर प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह फारसी के शब्दों से भरा पड़ा है , इस लिए इसका शब्दार्थ और अर्थ भी दे रहा हूँ। 

ग़ालिब -
असद हम वो जुनूं जौलां गदा ए बे सर ओ पा हैं, 
कि है, सर पंजा ए मिज्गान ए आहू पुश्त खार अपना !! 

असद - ग़ालिब का नाम असदुल्ला खान 
जुनूं जौलां - उन्माद ग्रस्त. 
गदा - भिखारी, 
बे सर ओ पा - बिना सर और पैर के, यानी बिना सहारे. 
मुज्गा - पलक, 
आहू - हिरण.
पुश्त - पीठ. 

हम ऐसे उन्माद ग्रस्त भाग्यहीन भिखारी हैं, हिरण की पलकें, जिसकी पीठ खुजाने का पंजा बनी हुयी हैं.

यह उन्माद या धुन की पराकाष्ठा है. हिरण की पलकों से पीठ खुजाने की कल्पना, भूषण की एक प्रसिद्ध पंक्ति, जो तीन बेर खाती थीं, तीन बेर खाती हैं की याद दिला देती है। धुन में कुछ भी ज्ञात नहीं है, उन्माद में भी सिर्फ उन्माद का कारक ही दिखता है। उन्माद का कारक कुछ भी हो सकता है। दैहिक प्रेम हो या दैविक प्रेंम, जिसे सूफ़ी संतों ने इश्क हकीकी और इश्क मजाजी में बांटा है। पूरा सूफी दर्शन ईश्वर को माशूक, प्रेमिका के रूप में देखता है. ईश्वर के प्रति यह नजरिया भारतीय दर्शन परंपरा के लिए नया नहीं है। राधा कृष्ण का प्रेम, या कृष्ण गोपी प्रेम भी इश्क हकीकी ही था। भक्तिकाल का पूरा निर्गुण साहित्य इसी प्रेरणा से प्रभावित है. उन्माद की इस पराकाष्ठा में ग़ालिब यह भी विस्मृत कर गए हैं कि कहीं हिरण की पलकों से पीठ खुजाई जा सकती है. यह उन्माद और कुछ नहीं ईश्वर को पाने की उद्दाम लालसा है. जिसमे वेदना है, विरह है और भरपूर आशावाद है। 

ग़ालिब को उनके जन्मदिन पर, उनका विनम्र स्मरण। 

© विजय शंकर सिंह 

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास (7)

“क्या तमिल ब्राह्मण महामानव थे, जो तीन नोबेल जीत गए?”

“महामानव? वह क्या होता है?”

“आनुवंशिक या नस्लीय श्रेष्ठता?”

“इस श्रेष्ठता का हौवा उन्नीसवीं सदी में डार्विन के साथ आया। इक्कीसवीं सदी के ‘मानव पलायन आनुवंशिकता’ (Human migration genetics) के साथ फुस्स हो गया।”

“क्या मतलब?”

“दुनिया में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं, जहाँ मानव दूसरे क्षेत्र से आए-गए न हों।”

“तो फिर कोई मूल निवासी कैसे कहा जाता है?”

“मूल निवासी का कंसेप्ट तभी संभव है, जब आने-जाने के रास्ते किसी प्राकृतिक या अन्य कारण से बंद हों। जैसे ऑस्ट्रेलिया सरीखे द्वीप पर आदिवासी रहते थे, और जहाजों का आविष्कार नहीं हुआ था। वहाँ सदियों तक बिना किसी बाहरी मिश्रण के रह गए”

“और भारत में?”

“भारत में तो अनगिनत क्षेत्रों से लोग आए। हज़ारों वर्षों तक न सिर्फ़ बाहरी मिश्रण हुए, बल्कि अंदर में भी कई तरह के मिश्रण हुए। आखिर यह अवसरों का देश था। आज के अमरीका की तरह। अब कोई पीढ़ी-दर-पीढ़ी ठान ले कि हज़ारों वर्षों तक एक ही स्थान पर एक ही पारिवारिक समूह में वंश रखेगा, तो वह मूल निवासी कहला सकता है। लेकिन, खानाबदोशी कृषक युग से लेकर ग्लोबल इकॉनॉमी तक यह एक असंभव कल्पना है।”

“क्या अब नस्ल का कोई मतलब नहीं? द्रविड़ कोई नस्ल नहीं? कॉकेशियन कोई नस्ल नहीं?”

“अब संजातीय समूह (ethnic groups) या पॉपुलेशन का प्रयोग होता है, जिसमें भिन्न आनुवंशिकता के लोग भी रह सकते हैं। मसलन अभिनेता टॉम अल्टर के पुत्र जैमी अल्टर क्या सांस्कृतिक रूप से कॉकेशियन कहलाएँगे ? अमरीका में तो हर तीसरा परिवार भिन्न-भिन्न आनुवंशिकता के हैं, वे क्या कहलाएँगे? नस्ल की अवधारणा कुछ कूढ़मगजों तक सिमट कर रह जाएगी।”

“फिर तमिल ब्राह्मण इतने आगे कैसे गए ? तीन नोबेल कैसे जीता ? गूगल और पेप्सी के सीईओ कैसे बने ?”

“ब्राह्मण मतलब क्या? वे क्या मदुरै के मंदिर में पूजा करवा रहे थे? वे तो पश्चिमी शिक्षा पा कर वहाँ तक पहुँचे”

“रामानुजन ? सी वी रामन ?”

“अंग्रेज़ों के आने के बाद जब पश्चिमी स्कूल-कॉलेज खुले, तो उसमें ब्राह्मणों ने बढ़-चढ़ कर शिक्षा ली। यह उन्हें सूट करता था। मद्रास प्रेसिडेंसी के तमाम मिशनरी स्कूलों में सबसे अधिक ब्राह्मण ही पढ़े। तमिल ब्राह्मण सबसे पहले सूट-बूट में आए, फिर बंबई और कलकत्ता के ब्राह्मण।”

“कोई आँकड़ा?”

“उन्नीसवीं सदी में मद्रास से 16 आइसीएस अधिकारी चुने गए, जिनमें पंद्रह ब्राह्मण थे। 27 अभियंताओं में 21. इसी तरह अधिकांश प्रशासनिक पदों पर। शिक्षण संस्थाओं में। जबकि वे सिर्फ़ तीन प्रतिशत जनसंख्या थे।”

“वे पढ़ते अधिक होंगे? बुद्धि तीक्ष्ण होगी?”

“उनकी दक्षता ही यही थी। उन्होंने अपनी सामाजिक गतिशीलता (social mobility) के लिए शिक्षा का उपयोग किया। उन्होंने मंदिरों और यजमानों को छोड़ा और अंग्रेज़ी शिक्षा में एक पारिवारिक माहौल बना कर लग गए।”

“हाँ! इंद्रा नूयी ने एक साक्षात्कार में कहा है कि उनके घर पर दिन भर पढ़ाई ही चलती रहती थी। कोई खेल-कूद आदि नहीं।”

“शिखा में रस्सी बाँध कर पढ़ने वाली कहानी तो नहीं कह दी?”

“जो भी हो, इससे किसी को क्या समस्या थी?”

“शिक्षा से कोई समस्या नहीं। लेकिन, जब तीन प्रतिशत जनसंख्या वाला वर्ग सभी प्रमुख पदों पर दिखायी दे, तो यह बात बहुसंख्यक वर्ग को चुभ सकती है। मैक्स-मूलर ने 1857 के संग्राम के बाद एक बात कही थी…”

“क्या?”

“कहा था -भारत को हमने एक बार शक्ति से पराजित किया है। एक बार और पराजित करेंगे। शिक्षा से।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

दक्षिण भारत का इतिहास (6)
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Saturday, 25 December 2021

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास (6)

तैम्ब्रैम, यानी तमिल ब्राह्मण। अमरीकी विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले अधिकतर भारतीय उनसे मिले होंगे। एक ग़ैर-ब्राह्मण तमिल मित्र से बातचीत को मैं यहाँ कुछ काल्पनिक विस्तार दे रहा हूँ। जब मैं उनसे तमिल जाति-व्यवस्था समझ रहा था, तो उन्होंने सभी जातियाँ गिनानी शुरू की। 

मैंने पूछा- “और ब्राह्मण?”

उन्होंने तंज कर कहा- “तुम तो मनुष्य की जातियाँ पूछ रहे हो। तैम्ब्रैम इस पृथ्वी से कहीं ऊपर देवलोक में रहते हैं। वे हमें भाव नहीं देते। बाकी तमिल एक तरफ़, तैम्ब्रेम एक तरफ़”

“लेकिन, उत्तर भारत में तो सवर्ण जातियों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य सभी आ जाते हैं”

“उत्तर भारत तो आर्यावर्त है, जहाँ आर्य होते हैं। आर्यों में यह वर्ण विभाजन रहा है। मगर यह द्रविड़ों का क्षेत्र हैं।”

“कैसा आर्यावर्त? वैदिक कालीन? पिछले दो हज़ार वर्षों में तो कभी कोई आर्यावर्त नहीं रहा।”

“तभी तो आर्य थ्योरी पर उत्तर भारत के सवर्ण लपक पड़े”

“मतलब?”

“उन्हें लगा कि वे यूरोपीय नस्ल के समकक्ष कहलाएँगे। तुम्हें ऐसे ब्राह्मण मिल जाएँगे जो स्वयं को गर्व से आर्यपुत्र कहेंगे, और आर्यावर्त की कल्पना कर रहे होंगे”

“मगर यह आर्य नस्ल तो मैक्स-मूलर के दिमाग की उपज है”

“किसी ने विरोध किया? डिबेट तो यह है कि आर्य भारत में ही थे या कहीं और से भारत आए। आर्य नस्ल के न होने पर कोई चर्चा होती है?”

“यह संभव है कि हज़ार वर्षों से मुसलमान राज और फिर ब्रिटिश राज में रह कर इस ‘आर्य’ शब्द से उन हिंदुओं का कॉन्फिडेंस बढ़ गया हो।”

“बिल्कुल। बॉम्बे और कलकत्ता प्रेसिडेंसी के ब्राह्मणों ने तो इसका स्वागत किया। तिलक ने अपनी किताब में मैक्स-मूलर को दिल से आभार व्यक्त किया है, और उनका अनूदित ऋग्वेद संदर्भित किया है।”

“मगर अंग्रेज़ों ने स्वयं को भारतीयों के नस्ल के बराबर माना क्यों? पहले तो वे खुद को श्रेष्ठ मानते थे”

“यह 1857 संग्राम के ठीक बाद एक मास्टर-स्ट्रोक था। पहला यह कि भारत का शूद्र समाज आर्यों से भिन्न नस्ल हो गया। दूसरा यह कि दक्षिण का द्रविड़ समाज उनसे भिन्न हो गया। मुसलमान तो पहले से भिन्न थे ही। भारत चार फाँकों में बँट गया, फिर क्या लड़ता?”

“भारत तो बँटा ही हुआ था। ब्राह्मण तो शूद्र को पहले भी घर की चौखट पर नहीं बैठने देते”

“वह दोष यूरोप और अमेरिका में भी था। इंग्लैंड के वर्तमान राजपरिवार की कहानी तो सुनते ही रहते हैं। फिरंगियों से भी बड़ा नस्लभेदी दुनिया में कोई हुआ? बंगाल के मुख्यमंत्री डॉ. बीसी रॉय को अमरीका की एक गोरी वेट्रेस ने खाना सर्व करने से मना कर दिया था।”

“हम्म…उत्तर के ब्राह्मण स्वयं खुद को आर्य कहने लगे, तो तमिल ब्राह्मणों ने क्या किया?”

“वे क्या करते? वे तीन प्रतिशत थे। 97 प्रतिशत तो वहाँ द्रविड़ थे। अगर यह अंग्रेज़ों की आर्य-द्रविड़ थ्योरी न आयी होती, तो उनके लिए बेहतर होता। वे भारत के सर्वोत्तम बुद्धियों में से थे।”

“थे मतलब?”

“साठ के दशक तक कई तमिल ब्राह्मण चुप-चाप पलायित कर गए। द्रविड़ आंदोलन का मूल ही ब्राह्मणवाद का विरोध था। उस समय तो विद्यार्थी जनेऊ भी कपड़ों के अंदर छुपा कर रखते, अन्यथा स्कूल में कोई तोड़ देता।”

“मगर ब्राह्मणों ने इस आंदोलन में स्वयं क्यों नहीं भाग लिया?”

“कांग्रेस में तो कई ब्राह्मण थे ही। राजागोपालाचारी ब्राह्मण थे। ‘द हिंदू’ अखबार ब्राह्मणों का रहा। कई ब्राह्मण अपने जनेऊ तोड़ कर और उपनाम त्याग कर समाजवादी और वामपंथी हुए।”

“इंद्रा नूयी, सुंदर पिचाई, ये लोग तो तैम्ब्रैम ही हैं?”

“तीन विज्ञान नोबेल विजेता। गणितज्ञ रामानुजन। अमरीका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस भी आधी तैम्ब्रैम।”

“यानी भारत के उत्तरी छोर कश्मीर और दक्षिणी छोर तमिलनाडु, दोनों स्थानों से ब्राह्मणों का पलायन हुआ। क्योंकि बाकी के 97 प्रतिशत से तारतम्य न बैठ सका?”

“तीन प्रतिशत को कभी कोई तारतम्य बिठाने की ज़रूरत नहीं होती। तुम आईने में देखो और सोचो कि तुम सो-कॉल्ड ‘आर्य’ इसके लिए कितने जिम्मेदार हो? अगर आर्य न होते, तो द्रविड़ भी नहीं होते”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

दक्षिण भारत का इतिहास (5)
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Friday, 24 December 2021

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास (5)

‘आर्य’ और ‘द्रविड़’ शब्द पहले से मौजूद थे। लेकिन क्या अंग्रेज़ों से पहले भारत में इनका उपयोग एक सामूहिक नस्ल के लिए था? आर्य बनाम द्रविड़ प्रश्न की ‘टाइमिंग’ पर एक बार ध्यान देना चाहिए।

1835 में लॉर्ड मकाले ने वह भाषण दिया (रिनैशाँ’ पुस्तक में अनूदित कर सम्मिलित)। 1856 में पादरी रॉबर्ट काल्डवेल द्वारा द्रविड़ व्याकरण लिखा गया, और एक द्रविड़ नस्ल की बात की गयी। उस समय तक आर्य नस्ल रडार पर नहीं था। 1857 में भारत में क्रांति हुई। 1861 में पहली बार लंदन में मैक्समूलर नामक भाषाविद ने एक वाक्य कहा, “आर्य नस्ल के पूर्वज कृषक खानाबदोश थे”। उसके बाद वह उसी भाषण में आर्य भाषाओं पर चर्चा करने लगे। 

सिर्फ़ एक दशक में इन दो नस्ल-सूचक शब्दों का अचानक उभर आना क्या एक इत्तिफ़ाक़ या मैक्समूलर का ‘स्लिप ऑफ टंग’ कहा जाए? मामला इतना सुलझा हुआ नहीं है। 

जो लोग ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ को ग़लत या सही ठहराते हैं, क्या वह मूल लिखित रूप में यह सिद्धांत दिखा सकते हैं? मैक्समूलर की किताबें तो खुले रूप से ऑनलाइन भी उपलब्ध हैं। क्या वहाँ ऐसा कोई सिद्धांत मौजूद है? अगर नहीं तो इस शिगूफे की शुरुआत कब हुई, और कैसे यह सिद्धांत रूप में स्थापित हो गया? 

मैं अब तमिलनाडु से उठ कर पुन: यूरोप इतिहास में थोड़ी देर लौट रहा हूँ। उस देश में, जहाँ यह आर्य शब्द भविष्य में विस्फोटक सिद्ध हुआ। 

मैक्समूलर की पैदाइश जर्मनी की थी, जो उस समय एक छोटे देश प्रशिया रूप में था। उस देश में एक स्वप्न पल रहा था कि जर्मन नस्ल का एक एकीकृत बड़ा देश बने। उन्होंने विश्व के ग्रंथों में कुछ तार ढूँढने शुरू किए, जिसमें भारतीय ग्रंथ भी आए। मैक्समूलर से पहले ही जर्मनी में कुछ उपनिषदों, भगवद्गीता और कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ के अनुवाद हो चुके थे। श्लेगल यूरोप के पहले संस्कृत प्रोफेसर बने थे। आर्य शब्द ढूँढ लिया गया था, और कम से कम दो भाषा-वैज्ञानिकों ने यह तर्क दिया कि भारत से सभ्यता के तार जुड़े हो सकते हैं। यह शब्द पारसी ग्रंथ ‘अवेस्ता’ में नस्ल रूप में अधिक स्पष्ट था, जहाँ ‘आर्यनम वेज:’ को ईरानी पूर्वजों का स्थल बताया गया।

जब मैक्समूलर ने भाषाओं का साम्य दिखा कर एक आर्य समूह की भाषाओं की बात कही, यह शब्द लपक लिया गया। न सिर्फ़ जर्मनों ने, बल्कि भारतीयों ने भी लपक लिया। भारतीय सवर्ण इसे नस्लीय श्रेष्ठता से जोड़ने लगे, और दलित स्वयं को आर्य-आक्रमण से पीड़ित मूल निवासी कहने लगे। जो इसका विरोध कर रहे थे, वे एक ऐसे सिद्धांत का विरोध कर रहे थे जो दिया ही नहीं गया था! 

दयानंद सरस्वती ने आर्यों को भारतीय-तिब्बती मूल का बताया, वहीं बाल गंगाधर तिलक सीधे स्कैंडिनैविया से तार जोड़ने लगे, और ज्योतिबा फुले ने निचली जातियों को मूल निवासी मानने पर बल दिया। ब्रह्म-समाज के बुद्धिजीवियों जैसे केशवचंद्र सेन और रामतनु लाहिरी आदि और ईसाई मिशनरियों ने इस आर्य आक्रमण सिद्धांत को स्थापित करने में सहयोग दिया।

जब जर्मनी एक एकीकृत देश बन गया, और वहाँ का नस्लीय राष्ट्रवाद उफान मारने लगा तो मैक्समूलर को अपनी ग़लती माननी पड़ी। उन्होंने जर्मनी में स्ट्रासबर्ग स्थित कैसर विलियम विश्वविद्यालय उद्घाटन अवसर पर कहा, 

“अगर कोई व्यक्ति आर्य नस्ल, आर्य रक्त, आर्य केश, आर्य आँखों की बात करे तो वह बहुत बड़ा पाप कर रहा है। वह भाषा विज्ञान को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है (dolicocephalic dictionary and brachycephalic grammar)। काले से काला हिंदू भी एक गोरे स्कैंडिनैवियाई की अपेक्षा भाषा विकास-क्रम में पूर्वज है।”

अब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। भले आर्य नामक नस्ल स्वयं मैक्समूलर के शब्दों में निराधार थी; लेकिन, भारत में आर्य-द्रविड़, आर्य-शूद्र नस्लीय द्वंद्व अनंत काल तक चलता रहेगा। भारत-विशेषज्ञ मैक्समूलर कभी भारत नहीं आए, मगर यह आग तो लगा गए। यह और बात है कि इस आग की जद में उनकी जर्मनी पहले खाक हो गयी।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

दक्षिण भारत का इतिहास (4)
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प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास (4)

यहाँ हड़बड़ा कर निष्कर्ष तक नहीं पहुँचना कि कौन ग़लत था, कौन सही। वह परिभाषा यूँ भी हर किसी की अपनी-अपनी बनती है। अभी तो यह बात शुरू ही हो रही है। इसकी पूर्वपीठिका मैं पहले ‘रिनैशां’ पुस्तक में लिख चुका हूँ कि कैसे अंग्रेज़ आए और ऊँघता-अनमना भारतीय समाज जागा।

अब अगला प्रश्न अधिक पेचीदा, किंतु सीधा निशाने पर है। बंगाल में तमाम समाज-सुधार भद्रलोक (उच्च जाति) द्वारा शुरू हुए, और वह अपनी धोती बचा-बचा कर ही सुधार करते रहे। राम मोहन राय जैसे व्यक्ति ने भी जनेऊ उतार कर नहीं फेंका। जबकि दक्षिण में यह आंदोलन ब्राह्मणों और ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ आक्रामक रूप से उभरा। ऐसा क्यों हुआ? 

जब रेवरेंड (श्रद्धेय पादरी) रॉबर्ट काल्डवेल की ‘द्रविड़ व्याकरण’ पर पुस्तक आयी तो खलबली मच गयी। 

“रेवरेंड ने लिखा है कि तमिल का मूल संस्कृत नहीं?”

“सही तो लिखा है। संस्कृत का पितृ, मातृ हमें तमिल में कहाँ मिलता है? यहाँ तो अप्पा-ताई बोलते हैं। जबकि फादर-मदर और पितृ-मातृ में साम्य है। तमिल भाषा भारोपीय आर्य शाखा से पूरी तरह भिन्न है।”

“और क्या लिखा है उन्होंने? हम कहाँ से आए?”

“हम कहीं से नहीं आए। आर्य बाहर से आए, और ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य जातियाँ बना ली।”

“हमें वह क्या कहते थे?”

“म्लेच्छ, दष्यु, असुर, राक्षस…”

“आर्य संस्कृत लेकर आए तो उससे पहले हम क्या बोलते थे?”

“भारत में कई मिलती-जुलती प्राचीन भाषाएँ थी। आज के तमिल, मलयालम, तुलु, तेलुगु और यहाँ तक कि गोंड, ओराँव आदिवासी भाषा एक ही शाखा की हैं। इनका संबंध काला सागर के निकट सीथिया वासियों से संभव है। वे आर्य से भिन्न थे।”

“आर्यों से पहले उत्तर भारतीय भाषाएँ भी तमिल जैसी होगी?”

“रेवरेंड लिखते हैं कि आर्यों का प्रभाव उत्तर भारत में अधिक रहा, जिसे वह आर्यावर्त कहते थे। इस कारण वहाँ की भाषाओं में संस्कृत का प्रभाव अब अधिक है। जैसे-जैसे हम दक्षिण की ओर जाएँगे, तो संस्कृत घटता जाएगा, तमिल शाखा के शब्द बढ़ते जाएँगे।”

“लेकिन, यहाँ के मंदिर? पूजा-विधि? ब्राह्मण? संस्कृत मंत्र? ये सभी तो…”

“रेवरेंड के अनुसार मनु और रामायण के अनुयायियों ने अपनी सभ्यता का प्रभाव डालना शुरू किया। उन्होंने ही यहाँ ब्राह्मण भेजे।”

“यानी तमिल ब्राह्मण मूलत: तमिल नहीं हैं? वे संस्कृत-भाषी और आर्यों के धर्म-प्रचारक थे?”

“धर्म-प्रचारक तो खैर रेवरेंड भी हैं। उनको ब्राह्मणों की सत्ता से समस्या होगी ही। लेकिन, सोच कर देखो। पूरे तमिल प्रदेश में सिर्फ़ तीन प्रतिशत ब्राह्मण हैं। न हमारा रंग, न हमारी भाषा। वे तो अब भी हमें म्लेच्छ समझते हैं, विवाह की बात तो छोड़ो, हमें हाथ भी नहीं लगाते।”

“रेवरेंड चाहते क्या हैं? हम ईसाई बन जाएँ? हमारा धर्म क्या होगा?”

“नहीं। ऐसी बात तो नहीं लिखी। लेकिन, हम एक हो जाएँ, यह इच्छा तो है। तमिल, तेलुगु, मलयाली, कन्नड़, तुलू सब मिल जाएँ। एक भाषा, एक रंग और एक संस्कृति के लोग कहलाएँ ‘द्रविड़’।”

“और यहाँ के ब्राह्मण? वे क्या हुए?”

“वे चाहें तो हमारा साथ दें। मगर वे द्रविड़ तो कतई नहीं हैं।”

“हम्म…रेवरेंड एक अंग्रेज़ हैं। पंद्रह वर्ष पहले बाइबल के प्रचार के लिए भारत आए। उन्होंने हज़ार वर्षों से अधिक की संपूर्ण दक्षिण संस्कृति और भाषा पर एक फ़ुल एंड फाइनल किताब लिख दी? और हम मान भी लें? कुछ जल्दबाज़ी नहीं है यह?”

“तुम स्वयं पढ़ लो। एक-एक बात नाप-तौल कर, ठोक-बजा कर लिखी है”

“नाप-तौल कर….कहीं यह किताब हम तमिलों की बाइबल न बन जाए”

“तमिलों नहीं, द्रविड़ों कहो”

“कुछ वक्त दो। मैं किताब पढ़ लेता हूँ। तमिल से द्रविड़ बनने में सिर्फ़ एक किताब का फ़ासला है।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास (3)
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Wednesday, 22 December 2021

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास (3)

चित्र: वह पुस्तक जिसमें पहली बार ‘Dravidian’ शब्द प्रयोग किया गया

दक्षिण भारत में अंग्रेज़ पहले आए, अंग्रेज़ी भाषा पहले आयी, और पश्चिमी संस्कृति भी पहले आयी। पुर्तगाली, डच, फ्रेंच, ब्रिटिश सभी वहाँ पहले आए। यहाँ तक कि डेनमार्क की ईस्ट इंडिया कंपनी तमिलनाडु में मौजूद थी।

किसी का यह मानना कि उत्तर भारतीय अधिक पाश्चात्य और ‘स्ट्रीट-स्मार्ट’ हैं, या दक्षिण भारतीय पारंपरिक रूढ़िवादी हैं, सही नहीं है। न ही यह मान्यता ठीक है कि तमिलों ने अंग्रेज़ी उत्तर भारतीयों से संवाद के लिए सीखी। वे इस विदेशी भाषा को सीखने-बोलने में उत्तर भारतीयों की अपेक्षा एक सदी से अधिक आगे रहे हैं। उन्होंने यह भाषा यूरोपीयों से संवाद के लिए सीखी, या उन्हें मिशनरियों द्वारा सिखायी गयी।

जब ब्रिटिश मद्रास शहर बसा रहे थे, तो उन्होंने देखा कि वहाँ पहले से एक जीर्ण-शीर्ण गिरजाघर मौजूद है। वे देख कर चौंक गए। 

“यहाँ यह गिरजाघर किसने बना दिया? हमसे पहले भी कोई इस स्थान पर आया था?”

“मैंने कुछ मछुआरों से पूछा। कुछ मुसलमान इसकी देख-भाल कर रहे थे। वे इसे बोथुमा बुलाते हैं।”

“मगर यह तो चर्च है”

“इसकी कहानी यीशु मसीह के समय की है”

“मतलब?”

“यहाँ यीशु के बारह प्रचारकों में से एक संत थॉमस की कब्र है”

“यह क्या बकवास है? वे कब भारत आ गए? अगर आ ही गए तो उनके बनाए ईसाई कहाँ गए?”

“क़िस्सा तो यह है कि यहाँ के तमिल हिंदुओं ने उन्हें मार डाला”

“इसका क्या सबूत है?”

“कोई सबूत नहीं। एक और क़िस्सा मार्को पोलो ने लिखा है।”

“अब वह भी सुना दो”

“मार्को जब भारत आए थे, तो वह इस जगह पर आए थे। उन्होंने सुनी हुई कथा लिखी है कि संत थॉमस यहीं जंगल में कुछ मोर पंछियों के साथ बैठे थे। तभी एक हिंदू गोवि जाति के बहेलिए का तीर ग़लती से उन्हें लग गया। वह यहीं मर गए।”

“अच्छा? उन्होंने यह गिरजाघर देखा था?”

“नहीं। उस समय तो यह एक टीला था। बाद में पुर्तगालियों ने इसे एक चर्च बना दिया।”

“संत थॉमस का काम तो अधूरा रह गया। हमारे मिशनरी यह काम पूरा कर सकते हैं”

“एक बार हमारे पाँव तो जम जाएँ। वह काम भी पूरा होगा”

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक मद्रास प्रेसीडेंसी में कुल 1185 मिशनरी विद्यालयों में लगभग 38000 भारतीय विद्यार्थी पढ़ रहे थे। जबकि बंगाल और बंबई प्रेसीडेंसी मिला कर मिशनरी स्कूलों की संख्या 472, और विद्यार्थियों की संख्या 18000 थी।

इस गणित का क्या महत्व है? अंग्रेज़ी स्कूल खुल गए, यह तो मद्रास के लिए अच्छी बात हुई। इससे तमिलनाडु के राजनीतिक भविष्य का आखिर क्या लेना-देना? 

1856 में एक ईसाई मिशनरी रॉबर्ट काल्डवेल ने एक मोटी शोधपूर्ण किताब लिखी। इसमें पहले ही पृष्ठ पर उन्होंने लिखा- 

“मनु ने कहा है- क्षत्रियों के कुछ वंश ब्राह्मणों से संपर्क तोड़ कर और अपना पवित्र धर्म भूल कर वृषाल (outcast) बन गए हैं- पौन्ड्रक, औद्र, यवन, कम्बोज, चीन, खासा….और द्रविड़!”

इससे पहले अगर ‘द्रविड़’ शब्द किसी ने प्रयोग किया भी होगा, तो उसके न जाने क्या मायने रहे होंगे। मगर काल्डवेल द्वारा ‘नव-आविष्कृत’ इस शब्द ने एक चिनगारी का काम किया, जिसने पूरे दक्षिण भारत को सदा के लिए उत्तर भारत से भिन्न ‘नस्ल’ बना दिया। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
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दक्षिण भारत का इतिहास (2)
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प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास (2)

चित्र: येल का विवादित चित्र जिसमें एक काले रंग की ग़ुलाम लड़की दिखती है। यह कहाँ से लायी गयी थी, यह किताबों में ‘अस्पष्ट’ है (और भारतीय मन में स्पष्ट)

दक्षिण अफ़्रीका के पूर्व राष्ट्रपति एफ. डब्ल्यू. डी क्लार्क ने अपनी जीवनी में लिखा है कि उनकी पूर्वज ग़ुलाम बना कर भारत से लायी गयी थी। इस प्रकरण का मैंने अपनी पुस्तक ‘कुली लाइंस’ में जिक्र किया है। सनद रहे, ये गिरमिटिया नहीं थे, ये ग़ुलाम थे। इन्हें बिना किसी कॉन्ट्रैक्ट के, जबरन और कुछ को जंजीरों में बाँध कर ले जाया गया था। हिंद महासागर में चल रहा यह ग़ुलाम व्यापार एक ऐसा सब-प्लॉट है, जिसे समझे बिना द्रविड़ राजनीतिक इतिहास तक पहुँचना कठिन है। ख़ास कर यह अंदाज़ा लगाना कि वे किस वर्ग के लोग थे, जिन्हें यूँ पशुओं की तरह जहाजों पर चढ़ा कर सुदूर अनजान द्वीपों और फिरंगी घरों में आजीवन ग़ुलाम बना कर ले जाया गया।

एक तरफ़ अंग्रेज़ों ने मद्रास शहर बसाना शुरू किया था, दूसरी तरफ़ विजयनगर साम्राज्य उजड़ रहा था। विजयनगर के महाराजा के सामंतों (नायकों) ने विद्रोह कर दिया था। उसी दौरान 1671 में एक 23 वर्ष के नवयुवक एलिहू येल मामूली मुनीम की नौकरी पर मद्रास पहुँचे। 

नवनिर्मित फोर्ट सेंट जॉर्ज किले के इर्द-गिर्द जार्जटाउन नामक यूरोपीय बस्ती बस गयी थी, और शहर के दूसरे छोर पर कुछ झोपड़ियाँ उग आयी थी। उसे ‘ब्लैक टाउन’ कहा जाता, जहाँ फिरंगियों के तमिल सेवक रहते थे।

“हमारी कंपनी आखिर यहाँ कितना व्यवसाय कर लेगी? हमें क्या मिलेगा? इतने गरम प्रदेश में आने का भला क्या मतलब है?”, एलिहू ने खीज कर अपने एक मित्र से पूछा

“वहाँ पांडिचेरी में फ्रेंच कुंडली मार कर बैठे हैं, पुलिकट में डच। मैसूर से हमें लड़ना पड़ सकता है। औरंगज़ेब धमकियाँ देता रहता है। तुम्हें अब भी मतलब नहीं समझ आ रहा?”

“समझ तो आ रहा है। लेकिन, मुझे यहाँ के असभ्य लोग पसंद नहीं। काले भद्दे लोग। कुछ तो कपड़े भी नहीं पहनते।”

“ग़ुलाम को कपड़े पहना कर क्या करोगे?”, उनके मित्र ने हँस कर कहा

“तुम कुछ छुपा रहे हो”

“छुपाना क्या है? तुम्हें क्या लगता है? इनके फोर्ट गेल्ड्रिया में क्या होता है?”

“डच गुलाम बेचते हैं? फिर हम क्यों हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं? मेरा बस चले तो इन तमिलों को कोड़े मार कर जहाज पर ले जाऊँ”

“कर लेना मनमर्जी। वैसे भी तुम बड़े खतरनाक खेल रहे हो। सुना है तुम्हारा अपने वाइस-प्रेसिडेंट की बीवी कैथरीन से चक्कर है?”

“प्रेम है। हम विवाह करेंगे। कभी न कभी।”

कैथरीन विधवा हुई। एलिहू येल ने उनसे भारत का पहला पंजीकृत ईसाई विवाह किया, और वह फोर्ट जॉर्ज के प्रेसिडेंट (गवर्नर) बने। उनका निर्देश था कि हर जहाज पर दस गुलाम तो ज़रूर चढ़ाए जाएँ। बाद में जब तमिल बच्चों का अपहरण कर गुलाम बनाने की शिकायत आयी, तो उन्होंने यह निर्देश दिया कि ग़ुलामों की जाँच कर ली जाए। 

एक भ्रष्ट प्रशासक और ग़ुलाम व्यापार में लिप्त येल सिर्फ दस पाउंड वेतन की नौकरी पर भारत आए थे, और धन्ना-सेठ बन कर इंग्लैंड लौटे। उन पर अभियोग लगा। उनके एक सदी बाद एक अन्य युवा मुनीम कलकत्ता आए। अपनी मेहनत से गवर्नर जनरल पद तक पहुँचे। वह भी येल की ही तरह भ्रष्टाचार में लिप्त रह कर अभियोग तक पहुँचे। उनका नाम वारेन हेस्टिंग्स था। 

खैर, येल ने भारत में किए अपने पापों का प्रायश्चित अमरीका में एक महाविद्यालय (अब येल विश्वविद्यालय) को किताब दान देकर किया। जब 1985 में युवा राजीव गांधी अमरीका के सीनेट में भाषण देने पहुँचे, तो उन्होंने कहा, 

“काश! एलिहू येल मद्रास के गवर्नर न होते। हमारे देश में भी वह विश्वविद्यालय ही बनाते”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
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दक्षिण भारत का इतिहास (1)
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प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास (1)

ओस्लो की एक दुकान के ‘सब माल पचास टक्का’ सेक्शन में एक किताब दिखी। उस किताब के आवरण पर एक विशाल हाथी था जिसके मस्तक पर जालीदार कवच और पीठ पर मशालें बँधी थी। यह मशहूर वयोवृद्ध थ्रिलर लेखक विल्बर स्मिथ की नॉवेल ‘गोस्ट फ़ायर’ थी। यह कहानी उसी काल-खंड और उसी स्थान से शुरू हो रही थी, जहाँ से मैं यह इतिहास-कथा शुरू कर रहा हूँ। 

अगस्त 1639 की एक दोपहर थी, जब दो अंग्रेज़ पुलीकट के दक्षिण में समुद्र तट पर एक वीरान ज़मीन को निहार रहे थे। 

“क्या लगता है? अपने कारखाने के लिए यह ठीक रहेगा?”,   फ्रांसिस डे ने कहा

“अब पूछ रहे हो? अब तो मैंने वेंकटाद्री से बात फ़ाइनल भी कर ली”, एंड्रयू ने कहा

“अक्सर हम अपने निर्णय पर तभी शंका करते हैं जब निर्णय लिया जा चुका होता है”

“तुमने चंद्रगिरी में महाराज वेंकट राय का वैभव देखा? क्या आलीशान महल! क्या हाथी-घोड़े, सोना…नर्तकियाँ!”

“हमें उससे क्या? मैंने तो यह जगह इसलिए चुनी कि कपड़े सस्ते में बन जाएँगे। बीस टक्का तक का मुनाफ़ा है। 

“तुम्हें क्या लगता है महाराज यूँ ही ज़मीन दे रहे हैं?”

“वह महाराज अब खत्म हो रहा है। उसे हमारे हथियारों और फौज़ की ज़रूरत है।”

“इनकी चिंता छोड़ो। पुलीकट में डच आ गए हैं। कंपनी से हिदायत है इन कमीनों को अपने पैर नहीं फैलाने देना। उनके पड़ोस की ज़मीन हथिया कर तुमने बिल्कुल ठीक फैसला लिया।”

“हाँ! हम यहीं अपना भव्य किला बनाएँगे। उस महाराज और डच कंपनी से भी बड़ा और मॉडर्न। यहाँ नदी किनारे और समंदर किनारे प्लॉट काट कर यूरोपीय बस्ती बनाएँगे।”

“यह विचार अच्छा है। इन काले लोगों को इस शहर से दूर ही रखना। बड़े ही असभ्य लोग हैं।”

“वह वेंकटाद्री देख लेगा। मैंने कह दिया है कि मछुआरों का गाँव खाली करवा दे।”

“वह ठीक है। मगर उन मछुआरों में तुमने एक बात ग़ौर की?”

“क्या?”

“वे दिखने में दुबले-पतले हैं मगर ताकत अफ़्रीकियों से कम नहीं”

“तुम क्या कह रहे हो? इन्हें पकड़ कर बेचना है?”

“मैं तो बस सोच रहा था। दाम मिले तो क्या बुराई है? वैसे भी कंपनी हमें देती ही क्या है? कुछ तो हमारी भी कमाई हो”

“हा हा! यह भी सही कहा। कमाने को तो यहाँ बहुत कुछ है और कंपनी को खबर भी न होगी। तभी तो इस भीषण गर्मी में इन कालों के देश में पसीना बहा रहा हूँ। मगर नाम क्या रखें शहर का?”

“तुम कह रहे थे कोई गाँव है मछुआरों का?”

“मदर…”

“हाँ! यह लिखा है न काग़ज़ में। मद्रासा..पट्टनमा..”

“कोई आसान नाम? मैड्रास ठीक रहेगा। लिखो- M..A..D..R..A..S”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
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दक्षिण भारत का इतिहास (भूमिका)
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Monday, 20 December 2021

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - भूमिका


तमिल प्रदेश में उत्तर भारतीय कई कारणों से जाते होंगे। मंदिरों में तीर्थ करने। चेन्नई की किसी कंप्यूटर कंपनी में नौकरी करने। किसी सरकारी पोस्टिंग में। शिवकाशी के पटाखा उद्योग में। कोयंबतूर के गुजरातियों और मारवाड़ियों की फैक्ट्री में। सलेम के कारखानों में।

तिरुपुर में मैंने एक बिहार के व्यक्ति से पूछा कि आप यहाँ कैसे। उसने कहा कि गाँव के एक भाई ने नौकरी लगवा दी।

मैंने पूछा, “अंग्रेज़ी आती है?

उसने कहा, “अंग्रेज़ी तो मुश्किल है। इसलिए, तमिल सीख ली।”

एक ‘ब्लू कॉलर जॉब’ में लगे निरक्षर व्यक्ति ने तमिल सीख ली। लेकिन, वहीं चेन्नई में दस वर्षों से ‘वाइट कॉलर जॉब’ कर रहे एक उत्तर भारतीय ने कहा कि उन्होंने एक ही पंक्ति सीखी है- ‘तमिल तेरियातु’ (तमिल नहीं आती)।

तमिल नहीं आती, तो तमिल प्रदेश को समझा नहीं जा सकता। न ही उस विषय में विश्वसनीयता से लिखा जा सकता है। एक उत्तर भारतीय के लिए तो इसलिए भी कठिन है, क्योंकि पूर्वाग्रह या प्रतिरोध अंतर्निहित हो सकता है। श्रेष्ठता-बोध भी हो सकता है, और तमिलों के हिंदी-विरोधी होने की वजह से चिढ़ भी। मेरे लिए रूस, यूरोप, अमरीका या पाकिस्तान पर लिखना जितना सहज रहा, उतना तमिलों पर लिखना शायद न हो।

मैंने अलग-अलग समय तमिलनाडु को फौरी तौर पर देखा। पहले मद्रास को, और 1996 के बाद से चेन्नई को। सुविधा यह थी कि बहुत कुछ अपने आकार से बड़ा दिख रहा था। जैसे पूरी संस्कृति किसी ने ‘ज़ूम’ कर रखी हो। आपको यह पूछने की आवश्यकता नहीं कि सरकार किसकी है। जिस नेता के आदम-कद से भी कहीं ऊँचे पोस्टर पूरे शहर में लगे हों, सरकार उसी की है।

दो दशकों तक वहाँ कृष्ण पक्ष-शुक्ल पक्ष की तरह काला चश्मा लगाए मुस्कुराते करुणानिधि की तस्वीर, और हरी साड़ी में जयललिता की तस्वीर अदल-बदल कर आती रही। इन दो तस्वीरों से जैसे इस प्रदेश का संपूर्ण राजनीतिक इतिहास सामने आ जाता है। न सिर्फ़ इस प्रदेश का, बल्कि संपूर्ण भारत का। नस्ल, जाति, धर्म, भाषा और संस्कृति का।

इनमें एक स्वयं को हिंदू ब्राह्मणी कहती रही, और दूसरे इन दोनों शब्दों यानी ‘हिंदू’ और ‘ब्राह्मण’ पर प्रश्न उठाने वाली विचारधारा के रहे। एक मूर्तिपूजक, तो दूजे मूर्तिभंजक विचारधारा के। सवर्ण-दलित राजनीति तो उत्तर भारत में भी खूब चली, लेकिन दक्षिण में यह उनके तमाम विशाल पोस्टरों की तरह ‘ज़ूम मोड’ में है।

यह कहानी फ़िल्मी नहीं, इसके सभी किरदार भी फ़िल्मी हैं। जैसे उन पोस्टरों से निकल कर हीरो-हीरोइन बाहर आ गए हों। रोमांस, ड्रामा, ऐक्शन करने लगे हों।

एक उत्तर भारतीय वहाँ खड़ा उन पर तंज कर रहा है, “द्रविड़ों! तुम लोग श्रीलंका में अलग देश मांगते हो। भारत में अलग देश क्यों नहीं माँगते?”

वह उत्तर देता है, “आर्यों! यह देश तो सदा से हमारा है। हमारे मूल में कोई संदेह नहीं। तुम्हारे मूल पर संदेह है कि तुम कब और कहाँ से आए।”

तमिल राजनैतिक इतिहास ऐसे और इससे कहीं अधिक असहज प्रश्नों से होकर गुजरता है, जिस पर प्रत्युत्तर की तीव्र इच्छा होगी। कुछ का खून भी खौल सकता है, और कुछ मुझ पर ही बरस सकते हैं।

जब हम चेन्नई में ताज़ा-ताज़ा लगी एम के स्टालिन के पोस्टर से इतिहास में पीछे लौटेंगे। जब हम लौटेंगे उस व्यक्ति के पास, जिनकी मृत्यु पर लगी भीड़ पूरी दुनिया का ‘गिनीज़ रिकॉर्ड’ रही है। या उस ई. वी. रामास्वामी के पास, जिन्हें लोग पेरियार के नाम से जानते हैं।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

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Sunday, 19 December 2021

गांधी हत्याकांड पर नयी किताब - द मर्डरर, द मोनार्क एंड द फ़क़ीर./ विजय शंकर सिंह

द मर्डर, द मोनार्क एंड द फकीर, (The Murderer, The Monarch and The Fakeer) इस साल सावरकर पर आने वाली तीसरी महत्वपूर्ण किताब है। इसके पहले दो और किताबे आयीं जिनकी बहुत चर्चा हुयी, पर इस किताब की चर्चा उतनी नहीं हुयी, जितनी उन किताबो की चर्चा हुयी है। उदय माहुरकर की किताब, "वीर सावरकर - द मैन हू कैन हैव  प्रिवेंटेड पार्टिशन” और विक्रम संपत की किताब, सावरकर-ए कंटेस्टेड लिगेसी पर खूब चर्चाएं हुई और, सावरकर को धो पोंछ कर बेहतर तरीके से दिखाने की कोशिश भी की गयी पर इस नयी किताब जिसका मैं उल्लेख कर रहा हूँ, उस पर बहुत अधिक चर्चा नहीं हुयी। यह किताब, गांधी हत्या में दर्ज मुक़दमे की विवेचना और अभियोजन पर केंद्रित है तथा एक महत्वपूर्ण सवाल उठाती है कि, क्या सावरकर के खिलाफ पर्याप्त रूप से सुबूत न मिलना, दोषपूर्ण पुलिस तफतीश का एक परिणाम तो कहीं नहीं है? उदय माहुरकर और विक्रम संपत की किताब सावरकर की 'वीरता' पर केंद्रित हैं जबकि यह किताब गांधी हत्या की साज़िश में सावरकर की संलिप्तता पर। 

इस साल सितंबर-अक्टूबर में जारी यह नई किताब "द मर्डरर, द मोनार्क एंड द फकीर - महात्मा गांधी की हत्या की एक नई जांच" पर एक नयी बहस को शुरू करती है। पत्रकार अप्पू एस्थोस सुरेश और प्रियंका कोटमराजू द्वारा संयुक्त रूप से लिखी गयी यह किताब, हार्पर कॉलिन्स, इंडिया द्वारा प्रकाशित की गयी है, और प्रिंट तथा किंडल, दोनों ही रूपों में उपलब्ध है। 234 पृष्ठों की इस किताब के लेखक,  अंतर्राष्ट्रीय असमानता संस्थान, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस में सीनियर अटलांटिक फेलो हैं। किताब पढ़ने से लगता है कि, लेखकों ने गहनता से शोध करके सामग्री इकट्ठा की और उनकी तार्किक विवेचना भी की है। उन्होंने पुलिस विवेचना जैसे प्रोवेशनल, नीरस और जटिल पुलिस जांच को, सुगमता से प्रस्तुत किया है, जिससे उत्सुकता और रोचकता बनी रहती है। सामग्री के लिए उन्होंने, राष्ट्रीय अभिलेखागार, एनएमएमएल, बॉम्बे पुलिस रिकॉर्ड और जीवन लाल कपूर आयोग की रिपोर्ट के अनेक अंश लिये हैं उन्हें, उद्धृत भी किया है।

गांधी हत्या पर एक और तथ्यात्मक और सभी घटनाओं और राजनीतिक स्थिति का विश्लेषण करती हुयी एक और किताब पिछले साल आयी है, अशोक कुमार पांडेय की, 'उसने गांधी को क्यों मारा'। इस किताब का अनुवाद, अन्य भारतीय भाषाओं में भी हुआ है और यह प्रकाशित होते ही लोकप्रिय भी खूब हुयी है। यह किताब इस महत्वपूर्ण घटना और तत्कालीन इतिहास के अनावश्यक विस्तार से बचते हुए, घटना के विवरण, षड़यंत्र और उसके राजनीतिक पहलुओ का ईमानदार विश्लेषण करती है। कमोबेश, अंग्रेजी पुस्तक, द मर्डरर, द मोनार्क, एंड द फकीर में, साजिश के बारे में जो बातें कही गयी हैं उनका उल्लेख "उसने गांधी को क्यों मारा' किताब में पहले ही लिखा जा चुका है। 'उसने गांधी को क्यों मारा' में कपूर आयोग की रिपोर्ट के महत्वपूर्ण संदर्भ दिए गए  हैं, जिनसे पता चलता है कि सावरकर की भूमिका साज़िश में थी, पर यह सारे सुबूत अदालत में अभियोजन ने प्रस्तुत नही किये।

यह पुस्तक उस समय जब पुलिस तफ्तीश में वैज्ञानिक तकनीक का अभाव था और विवेचना में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति कोई उत्सुकता भी नहीं थी के समय की गयी ढीली ढाली विवेचना के बारे में ध्यान खिंचती है। किताब इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि, 'तब की गयी इस अपराध की विवेचना,  हमारी आपराधिक जांच पद्धति में व्याप्त गंभीर दोषों को भी उजागर करती है। तब आज की तरह से सीबीआई, एनआईए जैसी विशिष्ट जांच एजेंसियां जो, विभिन्न स्थानों पर हुई साजिश की सूक्ष्मता से जांच करने के लिए देशव्यापी अधिकार क्षेत्र के साथ उपलब्ध नहीं थी। अतः प्रत्यक्षदर्शियों के आधार पर जो साक्ष्य एकत्रित किये जा सके, किये गए पर, हत्या के साज़िश की परतें, प्रोफेशनल तरह से नहीं खोली जा सकीं, जिनके आधार पर सदी की सबसे जघन्य हत्या को अंजाम तक पहुंचाया गया।

किताब में यह सवाल भी उठाया गया है कि, अभियोजन ने किन कानूनी विन्दुओं और साक्ष्यों की कमी के कारण, वीडी सावरकर के खिलाफ उनके ही अंगरक्षक अप्पा रामचंद्र कसार और सचिव गजानन विष्णु दामले द्वारा 4 मार्च 1948 को बॉम्बे पुलिस को दी गई साजिश में शामिल होने के सबूत को, मुकदमे में क्यों नहीं पेश किया ? क्योंकि वे साज़िश के एक महत्वपूर्ण साक्ष्य थे, जो अदालत में कभी पेश ही नहीं किए गए। लेखकों के अनुसार, "यदि वे बयान, साक्ष्य परीक्षण के दौरान प्रस्तुत किये गए होते, तो मुक़दमे का परिणाम भिन्न हो सकता था"।

किताब के पृष्ठ 88 पर, लेखकद्वय दिवंगत जेडी नागरवाला, पुलिस उपायुक्त (विशेष शाखा), बॉम्बे की केस डायरी का हवाला देते हैं, जिसमें उल्लेख किया गया है कि 
" आरोपी एनवी गोडसे ने पूछताछ के दौरान उल्लेख किया था कि, उसने बैठक के बाद दादर में कॉलोनी रेस्तरां में भोजन किया था।" 
क्राइम रिपोर्ट नंबर: 25 की 29 फरवरी 1948 के अनुसार, कॉलोनी रेस्तरां के मालिक सीताराम अनंतराव शटे का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि, सावरकर के पास आने वाले लोग उनके रेस्तरां में भोजन करते थे और कभी-कभी उनके पैसे दामले द्वारा भुगतान किए जाते थे।"  
रेस्तरां मालिक ने कहा कि,
" 23 और 25 जनवरी, 1948 के बीच "नाथूराम भोजन के लिए उनके होटल गए थे और उस समय वह विशेष रूप से भ्रमित अवस्था में पाए गए थे"।

( The case diary of J.D. Nagarwala noted the follow Indings: 'In the course of interrogation of accused NV Godse s transpired that on 23.1.48 he had taken food in the colony estaurant at Dadar after meeting Sawarkar." [sic]

This was corroborated by the owner of the restaurant.

A statement of Sitaram Anantrao Shate, proprietor of the Colony restaurant, Shivaji Park, Dadar was recorded on 26.2.48. He states that most of the visitors to Savarkar have their meals in his hotel and sometimes the money was paid by Damle, V.D Sawarkar's secretary. He says that he knows Apte and Nathuram Godse, and between 23rd and 25th Jan'48 Nathuram had visited his hotel for food and at that time he was found particularly in a confused state of mind. [sic]
(Pg 88)

लेखकों का कहना है कि, 
"1 फरवरी 1948 की केस डायरी में गजानन विष्णु दामले और अप्पा रामचंद्र कसार से पूछताछ के दौरान जो बताया था, वे महत्वपूर्ण सबूत "सावरकर की मृत्यु के बाद, 1960 के दशक के अंत तक, दबे ही रहे और उन्हें तब तक, सामने कभी भी नहीं लाया गया।"

किताब में, 1 फरवरी 1948 को नागरवाला को उद्धृत करते हुए लिखा गया हैं कि,
"इन दो व्यक्तियों द्वारा जो कहानी और बातें बतायी गयी हैं से ऐसा प्रतीत होता है, कि इन दो व्यक्तियों के साथ सावरकर की इन बैठकों में, महात्माजी को खत्म करने की योजना को अंतिम रूप दिया गया था"

"नागरवाला ( तत्कालीन बॉम्बे पुलिस उपायुक्त ) के अंतर्गत, बॉम्बे पुलिस द्वारा की गई जांच ने सावरकर की साजिश में शामिल होने को निर्णायक रूप से साबित कर दिया था ।  यह तथ्य कि गोडसे और आप्टे सावरकर के पहले और बाद के प्रयास से पहले और वास्तविक हत्या से पहले संपर्क में थे, संदेह से परे साबित हुआ था।"
लेकिन कपूर आयोग की रिपोर्ट सामने आने तक, यह तथ्य देश के सामने नहीं आ पाए थे। उनका कहना है कि मुकदमे के दौरान अभियोजन पक्ष ने कभी भी दामले और अप्पाराव के बयानों के साथ सावरकर का सामना नहीं कराया और नही इनके बयानों के आलोक में सावरकर का क्रॉस एग्जामिनेशन यानी, जिरह ही कराई गयी।

( February 1, 1948: “From the story related by these two persons it appears that it was at these meetings of Swarkar (sic) with these two individuals that the plan to do away with Mahatmaji was finalised”

“The investigation by the Bombay Police under Nagarwala conclusively proved Savarkar’s involvement in the conspiracy. The fact that Godse and Apte had been in touch with Savarkar before and after the earlier attempt and ahead of the actual assassination was proved beyond doubt… These facts remained undisclosed to the public until the Kapur Commission reports”)

लेखकद्वय गांधीजी को, उनकी हत्या से बचाने में एक और प्रशासनिक विफलता का उल्लेख करते हैं। किताब की पृष्ठ 84 पर, वे कहते हैं कि 
" मदनलाल पाहवा ने प्रोफेसर जेसी जैन से संपर्क किया था, जिन्होंने पहले शरणार्थी के रूप में उसकी मदद की थी और सावरकर और अन्य द्वारा गांधीजी के खिलाफ की जा रही हिंसक गतिविधियों के बारे में भी संकेत दिया था। जैसी जैन ने उन्हें तब तक गंभीरता से नहीं लिया जब तक कि उन्होंने 20 जनवरी, 1948 को हत्या के असफल प्रयास के बारे में अखबारों में नहीं पढ़ा था। इसके बाद वे बॉम्बे के गृह मंत्री मोरारजी देसाई के पास पहुंचे, जिन्होंने डिप्टी कमिश्नर बॉम्बे पुलिस, नागरवाला को, यह निर्देश दिया कि वे करकरे को गिरफ्तार करें और सावरकर पर कड़ी नजर रखें। लेकिन यह जितनी गम्भीरता से होना चाहिए था, नहीं किया गया।" 

Madanlal Pahwa had approached Prof. J.C.Jain, who had helped him earlier as a refugee and given a hint about the violent activities against Gandhiji by Savarkar and others. Jain did not take him seriously until he read about the failed assassination attempt on January 20, 1948. After that he rushed to Bombay Home Minister Morarji Desai who in turn asked Nagarwala to arrest Karkare and keep a close watch on Savarkar. This was never achieved. 
(Pg 84)

जीवन लाल कपूर आयोग की नियुक्ति, "केसरी" (पुणे) के संपादक गजानन विश्वनाथ केतकर के एक दावे के बाद हंगामा मचने के बाद जांच के लिये नियुक्त किया गया था। केतकर ने कहा था कि "उन्हें गांधी की हत्या की संभावना का पूर्व ज्ञान था।" प्रकरण इस प्रकार है। 12 नवंबर 1964 को पुणे में गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा और विष्णु करकरे को सजा की अवधि पूरी होने के बाद, उन्हें सम्मानित करने के लिए एक समारोह आयोजित किया गया था।  केतकर ने उस समारोह में यह बात कही थी।  उन्होंने यह भी दावा किया कि " उन्होंने यह बात "बालुकाका कानिटकर" को बताया था, जिन्होंने बॉम्बे राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीजी खेर को यह बात बता दी थी।"

( Gajanan Vishwanath Ketkar, editor of “Kesari”(Pune) that he had prior knowledge of the possibility of Gandhi assassination. On 12 November 1964 a function was held in Pune to felicitate Gopal Godse, Madanlal Pahwa and Vishnu Karkare after completion of their term of sentences. Ketkar spoke at that time. He also claimed that he had conveyed this to “Balukaka Kanitkar” who had told the then Chief Minister of Bombay State B.G.Kher.)

उस आयोजन में कही गयी गजानन विश्वनाथ केतकर की इस बात के बाद संसद में काफी हंगामा हुआ।  तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गुरुजारीलाल नंदा ने सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और सांसद गोपाल स्वरूप पाठक के नेतृत्व में, इस संदर्भ की जांच के लिये एक जांच दल का गठन किया। समस्त रिकॉर्ड की जांच के बाद उन्हें अपनी रिपोर्ट देने  के लिए 3 महीने का समय दिया गया था, क्योंकि बालुकाका कानिटकर और बीजी खेर दोनों तब तक जीवित नहीं थे।

 इसी बीच, गोपाल स्वरूप पाठक, केंद्रीय मंत्री बना दिये गए, और वे इस कारण, जांच का काम पूरा नहीं कर सके।  लेकिन केंद्र सरकार ने जांच कार्य जारी रखने के लिए 21 नवंबर 1966 को न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) जीवन लाल कपूर को एक सदस्यीय जांच आयोग के रूप में नियुक्त किया। जांच के जो संदर्भ तय किये गए थे, वे थे, क्या किसी को महात्मा गांधी की हत्या के बारे में पूर्व जानकारी थी ? और हत्या को रोकने के लिए बॉम्बे सरकार द्वारा क्या कदम उठाए गए थे ? कपूर आयोग ने 162 बैठकों के दौरान 101 गवाहों से पूछताछ की और 30 सितंबर 1969 तक काम पूरा कर लिया।

पृष्ठ 305 पर आयोग ने कहा है,
" केएम मुंशी ने महात्मा गांधी के प्रति वैमनस्य और दुश्मनी का संकेत दिया है और उनकी नीतियों और नेतृत्व को सावरकर के नेतृत्व वाले समूह की तरफ़ झुकाव के लिए जाना जाता था।" 

( Mr. K.M.Munshi has indicated the antipathy and antagonism to Mahatma Gandhi and his policies and leadership was known to exist in a goodly measure i.e., the group led by Savarkar”)

अदालत ने बॉम्बे पुलिस की इस त्रुटिपूर्ण विवेचना के लिये भर्त्सना ( स्ट्रिक्चर ) भी की है जो पृष्ठ 322-323 पर अंकित है। 
" करकरे और आप्टे का पता लगाने और महात्मा की रक्षा करने में समन्वय की कमी के लिए बॉम्बे राज्य पुलिस के खिलाफ वे सख्त थे।"

( On pages 322-323, there were strictures against Bombay State police for lack of coordination in tracing Karkare and Apte and protecting the Mahatma.)

हत्या के बाद पुलिस सक्रियता पर तंज करते हुए कपूर कमीशन ने जो कहा है वह एक तीखी टिप्पणी है। 
" हत्या के बाद, अचानक सक्रिय हो गयी, और उंसकी गतिविधियां अचानक देश भर में बढ़ गयीं, जिनको हत्या के पहले इस साजिश का कुछ पता ही नहीं था।'
( पृष्ठ 323 )

 (After the murder, the police suddenly woke up into diligent activity throughout India of which there was no evidence before the tragedy. - Pg.323)

पहले की अनदेखी खुफिया रिपोर्टों और पुलिस रिकॉर्ड के आधार पर, यह पुस्तक महात्मा गांधी की हत्या की परिस्थितियों, इससे जुड़ी घटनाओं और उसके बाद की जांच को फिर से बताती है।ऐसा करके यह किताब एक ऐसी साजिश को बताती है जो इस जघन्य अपराध से कहीं अधिक गहरी है।

द मर्डरर, मोनार्क और फकीर इस उथल-पुथल भरी घटना के महत्व को उजागर करने के लिए एक खोजी पत्रकारिता और नए सबूतों पर आधारित है। यह किताब न तो राजनीतिक घटनाओं का विश्लेषण करती है और न ही तत्कालीन परिस्थितियों का विवेचन। किताब खुद को गांधी हत्या के मुकदमे की तफ्तीश और अदालत में उसके अभियोजन की पड़ताल तक ही सीमित रखती है। हत्या, यदि क्षणिक आवेश में नहीं की गयी है तो निश्चित ही उस अपराध के पीछे कोई न कोई साज़िश होती है। गांधी जी की हत्या की साज़िश रचना न तो किसी एक व्यक्ति के बस में था और न ही, इसके तार इसने सरल थे कि उन्हें आसानी से सुलझाया जा सके। हत्यारे और साजिशकर्ता यह बात बहुत ही अच्छी तरह से जानते थे कि, जो जघन्य कृत्य वे करने जा रहे हैं, उसका असर दुनियाभर में पड़ सकता है और भारत मे तो वह कृत्य भूचाल ला देगी। हत्यारे तो मौके पर पकड़ लिये गए पर इस हत्या की साज़िश की तफ्तीश उतने प्रोफेशनल तरह से नहीं हो की गई, जैसा कि, उसे किया जाना चाहिए था। साज़िश के सारे सुबूत हालांकि वीडी सावरकर की तरफ इंगित करते हैं और कपूर कमीशन तो इस निष्कर्ष पर पहुंच ही चुका था, पर उसे अदालत में साबित नहीं किया जा सका और कुछ सुबूतों को तो अदालत में लापरवाही से रखा भी गया और जितनी कुशलता से जिरह की जानी चाहिए थी, उतनी दक्षता, न्यायालय में अभियोजन ने दिखाई भी नहीं। साज़िश को साबित कर पाना कठिन तो होता है पर अभियोजन की सफलता भी तो उसी कठिन कार्य को सम्पन्न करना है। पुस्तक रोचक है और पठनीय है। 

( विजय शंकर सिंह )