Tuesday, 31 December 2019

अब फ़ैज़ के 'हम देखेंगे' की तफतीश ! / विजय शंकर सिंह

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की अमर नज़्म ' हम देखेंगे ',  उनके द्वारा जेल में लिखी गयी थी। जिया की तानाशाही के खिलाफ यह फ़ैज़ की बगावत थी। ऐसी बगावतें पहले भी कलम के सिपाहियों ने की है, अब भी कर रहे हैं, और आगे भी करते रहेंगे। यह कोई खास बात नहीं है।

खास बात यह है कि आईआईटी कानपुर ने एक कमेटी का गठन किया है जो यह तय करेगी कि यह नज़्म, हिंदू विरोधी है या नहीं। यह पैनल आईआईटी के एक प्रोफेसर की शिकायत पर गठित किया गया है। कोई कोई दौर ही मूढ़ता के सन्निपात से ग्रस्त हो जाता है। क्या यह दौर भी उसी का लाक्षणिक संकेत दे रहा है ?

सरकार में आपराधिक मानसिकता के और फ़र्ज़ीवाड़े करने वाले लोग बैठे हैं। न उन्हें अर्थनीति की समझ है, न देश के इतिहास, सभ्यता और संस्कृति और बहुलतावादी सोच की। हर निर्णय घृणावाद से प्रेरित है, श्रेष्ठतावाद से संक्रमित है। आज फ़ैज़ के कलाम की तफतीश हो रही है, कल भगत सिंह के भाषणों में धर्म ढूंढा जाएगा। फिर गांधी को दरकिनार करने की कोशिश की जाएगी । जब गुलामी पसंद मुखबिर राज करेंगे तो, मूढ़ता का यह सन्निपात बढ़ेगा ही, कम नहीं होगा।

नेशनल हेराल्ड के अनुसार,
" In a seemingly bizarre development, the IIT in Kanpur has set up a panel to decide whether the poem “Hum dekhenge lazim hai ki hum bhi dekhenge”, penned by Faiz Ahmad Faiz, is anti-Hindu. "

आप यह प्रसिद्ध नज़्म यहां पढ़ सकते हैं,

हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

और यही नज़्म इकबाल बानो की आवाज़ में  आप यहां सुन भी सकते हैं। जनरल जिया उल हक के शासनकाल में पाकिस्तान का इस्लामीकरण किया गया। वे सारे प्रतीक जो साझी विरासत और भारतीय परंपरा का प्रतिनिधित्व करते थे का कट्टरपंथी तऱीके से इस्लामीकरण किया गया। इस्लाम धर्म के जो भी उदारवादी चिह्न थे को अरब के संस्कृति से जोड़ कर देखने की नयी फौजी कवायद शुरू की गयी। इसी क्रम में जिया ने साड़ी को गैर इस्लामी पहनावा घोषित कर दिया। तब इकबाल बानो ने काली साड़ी पहन कर लाहौर की सडकों पर पचास हज़ार लोगों के जुलूस का नेतृत्व करते हुए, फ़ैज़ की यह ओजस्वी नज़्म गायी थी।

https://youtu.be/dxtgsq5oVy4
हम देखेंगे,

© विजय शंकर सिंह 

Monday, 30 December 2019

रोज़ रोज़ के हंगामे और पंगु होती अर्थव्यवस्था / विजय शंकर सिंह

कानपुर के सबसे बड़े औद्योगिक घरानो में से एक के मुखिया से एक दिन एक समारोह में मुलाक़ात हुयी, तो थोड़ी चर्चा देश की अर्थव्यवस्था पर भी हुयी। नयी सरकार 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आ चुकी थी। मैंने कहा कि अब तो बिजनेस फ्रेंडली सरकार है। प्रधानमंत्री खुद भी एक विकसित राज्य गुजरात के सीएम रह चुके हैं। वे विदेश यात्राएं भी खूब कर रहे हैं। अब तो विदेशी निवेश आएगा ही। देश का औद्योगिक स्वरूप भी निखरेगा। उन्होंने मुस्कुरा कर कहा, " गोलगप्पे वाला भी अपना ठेला उंस चौराहे पर नहीं लगाता है जहां रोज रोज झगड़े होते हैं। " कुछ और व्यापारी मित्र थे वहां। आयोजन भी व्यापारियों का ही कमला रिट्रीट में था। सबने हंस दिया। उन्होंने यह बात दो साल पहले कही थी, और यूपी के संदर्भ में कही थी। उनके कहने का आशय यह था कि, आर्थिक निवेश, औद्योगिक उत्पादन में वृध्दि औऱ आर्थिक समृद्धि के लिये आंतरिक शांति और कानून व्यवस्था का सुदृढ होना ज़रूरी है। जब तक देश की कानून व्यवस्था का वातावरण सामान्य और शांतिपूर्ण नहीं हो सकता तब तक औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियां सामान्य रूप से नहीं चल पाती हैं। एक संशय की स्थिति बनी रहती है, जो व्यापारी या उद्योगपति को कोई नया प्रयोग या उद्योग खड़ा करने के लिये मानसिक रूप से रोकता है। जब यह बात बेहद कम पूंजी का गोलगप्पे वाला समझता है तो उस आयोजन में तो बड़े व्यापारी और उद्योगपति जिनका बहुत बड़ा निवेश लगता है, वे तो सतर्क और सजग रहेंगे ही।

किसी भी सरकार की पहलीं प्राथमिकता, कानून व्यवस्था होती है। राज्य या सरकार की अवधारणा ही जनता को निरापद और व्यवस्थित रूप से जीने के उद्देश्य से ही की जाती है। इसी को दृष्टिगत रखते हुए कानून बनाये जाते हैं, उन्हें लागू करने के लिये तंत्र या सिस्टम का विकास होता है। जब तक जन जीवन सामान्य नहीं रह पाएगा तब तक आर्थिक प्रगति की बात सोची भी नहीं जा सकती है। यह सब मिलजुलकर कानून और व्यवस्था के नाम से कहा जाता है। अपराध नियंत्रण, अपराध अन्वेषण और जनता की सुरक्षा आदि सभी बातें मोटे तौर पर कानून व्यवस्था के ही अंग हैं। इसीलिए जब भी सरकार बदलती है तो पीएम या सीएम का पहला बयान ही यही आता है कि क़ानून व्यवस्था ठीक की जाएगी। शांति का वातावरण रहेगा। चूंकि कानून व्यवस्था, राज्य का विषय है, अतः राज्य के हर चुनाव में यह विषय एक प्रमुख मुद्दा भी बनता है और इसी विषय पर सरकारें गिरती भी हैं और चुनी भी जाती हैं।

अब जरा 2014 के चुनाव के समय की स्थिति को देखें। 2014 में भाजपा सरकार यूपीए 2 के भ्रष्टाचार और अन्ना हजारे के एन्टी करप्शन मूवमेंट से उत्पन्न व्यापक जन समर्थन के बल पर आयी थी। तब का भाजपा का संकल्पपत्र आर्थिक वादों और सामाजिक समरसता के आश्वासनों से भरा पड़ा था। सबका साथ, सबका विकास इनका प्रिय बोधवाक्य था। अब उसमे एक शब्द और जुड़ गया, सबका विश्वास। पर अपने ही संकल्पपत्र 2014 में दिए गए वादों पर देश को आर्थिक गति देने के लिये, सरकार ने कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। बल्कि कुछ ऐसे मूर्खतापूर्ण आर्थिक निर्णय सरकार द्वारा लिए गए जिससे आर्थिक स्थिति बिगड़ती ही चली  गयी और अब हालत यह हो गयी है कि देश एक गंभीर आर्थिक मंदी के दौर में पहुंच गया है। अब इस संकट से उबरने के लिये न तो सरकार में प्रतिभा है, न इच्छाशक्ति, न कौशल और न ही कोई दृष्टि। अब सरकार और सत्तारूढ़ दल सामाजिक उन्माद के अपने पुराने और आजमाए हुये मुद्दों पर लौट आये है। आर्थिकी अब नेपथ्य में है और सामने केवल सत्तारूढ़ दल के पोलिटिकल एजेंडे हैं जो दुर्भाग्य से विभाजनकारी हैं।

2014 के चुनावी मुद्दे और तब के संकल्पपत्र में जो बात कही गयी थी, वह सरकार ने तभी छोड़ दी जब वह सत्ता में आयी। सत्ता में आते ही सरकार ने भूमि अधिग्रहण बिल लाने का प्रयास किया, जो पूरी तरह से पूंजीपतियों के हित मे था। लेकिन प्रबल विरोध के कारण वह किसान विरोधी बिल वापस हो गया। यह एक संकेत था कि सरकार के अर्थनीति की दिशा क्या होगी। भाजपा मूलतः भारतीय जनसंघ का ही नया अवतार है। जनसंघ हो या अब भाजपा दोनों की कोई स्पष्ट आर्थिक दृष्टि रही ही नहीं है। क्योंकि आर्थिक आधार पर इन दोनों दलों ने कभी कोई चिंतन किया ही नहीं है। जब भाजपा बनी तो उसे गांधीवादी समाजवाद के पदचिह्नों पर चलने वाला दल बताया गया। पर यह गांधीवाद समाजवाद क्या बला है यह आज तक स्पष्ट नहीं हो सका है। हालांकि भाजपा के थिंक टैंक से जुड़ा एक स्वदेशी आंदोलन ज़रूर अस्तित्व में है, जो कभी कभी भारतीयता की बात करता रहता है। लेकिन यह आंदोलन न तो सरकार पर कोई दबाव डाल पाता है और न ही सरकार उसकी कुछ सुनती है। यह गांधी जी की विचारधारा की नकल भी लगता है। स्वदेशी का विचार ठीक है, यह आत्मनिर्भरता की बात करता है, पर यह विचार थिंकटैंक के टैंक में ही बना रहा, इसे सरकार ने व्यवहारिक स्तर पर उतारने की कोई कोशिश नहीं की। मोटे तौर पर भाजपा की अर्थनीति पूंजीवादी अर्थव्यवस्था जो निजीकरण की बात करती है, की रही है। या यूं कहें कि 2014 के बाद जैसे जैसे सत्ता केंद्रित होती गयी, वैसे वैसे ही इसकी आर्थिक नीतियां पूंजीवाद के ही एक अन्य संकीर्ण रूप क्रोनी कैपिटलिज्म या गिरोहबंद पूंजीवाद के रूप में सिमटती गयी। सरकार या यूं कहें सरकार में कुछ चुनिंदा लोगों और कुछ पूंजीपतियों का एक गठजोड़ गिरोहबंद पूंजीवाद कहलाता है जो परस्पर स्वार्थ, हित और जनविरोधी होता है।

किसी भी देश की आर्थिक प्रगति उस देश के शांतिपूर्ण वातावरण पर निर्भर करती है। एक तरफ तो देश के सामने विकास दर को बढ़ाने का सरकार का संकल्प था, लोगो को उम्मीदें भी इस सरकार से थीं, पर दूसरी तरफ देश का माहौल एक न एक नए नए तमाशे भरे मुद्दे से बिगड़ने लगा। सरकार का मुख्य उद्देश्य देश की आर्थिक प्रगति से हट कर अपने पोलिटिकल एजेंडे की ओर शिफ्ट हो गया।  बीफ और गौरक्षा के अनावश्यक मुद्दे पर, गौगुंडो द्वारा की जाने वाली मॉब  लिंचिंग, उसका सरकार के मंत्रियों द्वारा खुलकर महिमामंडन,  लव जिहाद और घर वापसी के तमाशों, से लेकर आज तक इनकी एक मात्र कोशिश यही रही है कि हर अवसर पर हिंदू मुस्लिम साम्प्रदायिक उन्माद फैले। 2014 के बाद के सरकार के चहेते टीवी चैनलों द्वारा प्रसारित किए गए कार्यक्रमों को देखिए। रोज़ ऐसे ही कार्यक्रम प्रसारित किए गए और अब भी किये जा रहे हैं, जिससे लोगों के जेहन में हिंदू मुसलमान से ही जुड़े मुद्दे बने रहें और जनमानस के दिल दिमाग की ट्यूनिंग इसी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की ओर बढती रहे। राजकृपा से अभिषिक्त गोदी मीडिया के चैनलों ने रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दे पर पिछले पांच सालों में कोई भी कार्यक्रम चलाया हो, यह याद नहीं आ रहा है। क्योंकि ऐसे मुद्दे सरकार को असहज करते हैं। उससे सवाल पूछते हैं। सरकार की जवाबदेही तय करते हैं और सरकार को कठघरे में ठेल देते हैं। लेकिन  सरकार को असहज होते भला कैसे देख सकते हैं ये दुंदुभिवादक !

गिरती क़ानून व्यवस्था और सत्तारूढ़ दल के   पोलिटिकल एजेंडे के बीच 2016 मे सरकार ने नोटबंदी जैसे कदम की घोषणा कर दी। सरकार का गुप्त उद्देश्य इस कदम को लेकर जो भी रहा हो, पर सरकार ने यह ज़ाहिर किया कि, इस कदम से, नक़ली नोट, आतंकवाद, और कालेधन की समस्या हल हो जाएगी। पर आज तीन साल बाद भी यह तीनों समस्याएं जस की तस हैं, बल्कि इसके विपरीत देश की अर्थव्यवस्था को इतना आघात लगा कि, इससे देश की आर्थिकी लुढ़कती चली गयी और अब भी उसके उबरने के आसार दूर दूर तक दिख नहीं रहे हैं।

हाल ही में, पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में एक शोधपत्र प्रस्तुत हुए कहा कि
" देश की अर्थव्यवस्था आईसीयू की तरफ बढ़ रही है। वहीं एनबीएफसी कंपनियों में जो संकट है, वो एक भूकंप जैसा है।  ट्विन बैलेंस शीट (टीबीएस) संकट की दूसरी लहर इकोनॉमी को प्रभावित कर रही है।  2004 से 2011 तक स्टील, पावर और इन्फ्रा सेक्टर के कर्ज जो कि एनपीए में बदल गए उन्हें टीबीएस-1 कहा है।  यह सामान्य मंदी नहीं है, बल्कि इसे भारत की महान मंदी कहना उचित होगा, जहां अर्थव्यवस्था के गहन देखभाल की जरूरत है। 2017-18 तक रियल स्टेट सेक्टर के 5,00,000 करोड़ रुपये के लोन में एनबीएफसी कंपनियों का हिस्सा है।यह संकट निजी कॉरपोरेट कंपनियों की वजह से आया है। "
सुब्रमण्यम आगे कहते हैं कि,
" पद पर रहते हुए 2014 में भी सरकार को टीबीएस को लेकर के मैंने चेतावनी दी थी, लेकिन उनकी सुनी नहीं गई। पहले चरण में बैंकों को एनपीए बढ़ने से मुश्किलें हुई थीं, वहीं अब दूसरे चरण में नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनियों और रिएल एस्टेट फर्मों के नकदी संकट से है। आईएलएंडएफएस का संकट भूकंप जैसी घटना थी। सिर्फ इसलिए नहीं कि आईएलएंडएफएस पर 90,000 करोड़ रुपये के कर्ज का खुलासा हुआ, बल्कि इसलिए भी क्योंकि इससे बाजार प्रभावित हुआ और पूरे एनबीएफसी सेक्टर को लेकर सवाल खड़े हो गए।"
सुब्रमण्यम इसी सरकार के विश्वस्त थे और उन्हें बड़ी उम्मीदों से सरकार ने अमेरिका से लाकर अपना आर्थिक सलाहकार बनाया था। पर वे मतभेद के चलते निजी कारणों से त्यागपत्र दे कर वापस लौट गए।

2014 में जब सरकार आयी तो इसने विदेशी निवेश को एक बड़ा मुद्दा बनाया। प्रधानमंत्री ने दुनियाभर का भ्रमण किया। दूसरे अन्य औद्योगिक देशों के प्रमुख भी आये। उम्मीद भी बंधी, पर विदेशों से कोई उल्लेखनीय निवेश नहीं आया।  प्रसिद्ध फ्रांसीसी अर्थशास्त्री गॉय सोरमैन ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना करते हुये कहा है कि
" प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आर्थिक सुधार बीच में ही रुक गए इस वजह से दुनियाभर के निवेशक भारत से दूरी बना रहे हैं। भारत सरकार ने नए उद्यमियों के समर्थन में कई ऐसे कदम उठाए लेकिन, राजनीतिक मामले पर ध्यान केंद्रित करने के वजह से यह सुधार अचानक रुक गए। इस वजह से अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहे हैं। "
वे आगे कहते हैं, कि
" भारत और विदेशी निवेशक डरे हुए हैं और इस वजह से वह भारत में निवेश करने से पीछे हट रहे हैं। "
फ्रेंच अर्थशास्त्री सोरमैन ‘इकोनॉमिक डज नॉट लाइ’ जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक सहित अनेक पुस्तकें लिख चुके हैं। उनके अनुसार,
" वर्तमान में भारत में संरक्षणवाद का व्यापक असर है। मोदी ने शुरूआत में नए भारतीय उद्यमियों को बढ़ावा दिया और एक राष्ट्रीय बाजार का निर्माण किया। लाइसेंस राज को खत्म किया। उन्होंने भ्रष्टाचार पर प्रहार किया और मेक इन इंडिया को बढ़ावा दिया। पर इतना सब कुछ करने के बाद पीएम मोदी के आर्थिक सुधार बीच में ही रुक गए। वह अपने इकॉनामिक एजेंडा को भूल गए और राजनीतिक मामलों पर ध्यान केंद्रित कर दिया। इससे भारत और भारत सरकार की छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ा। मैं हिंदुत्व और नागरिकता कानूनों पर मोदी सरकार के फैसलों के अच्छे या बुरे कारणों के बारे में अनुमान नहीं लगा सकता। ऐसे मुश्किल हालातों पर मैं कोई टिप्पणी नहीं कर सकता। वैश्विक स्लो डाउन की वजह से अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर की तरफ सभी का ध्यान खींचना चाहता हूं। निवेशकों और संस्थाओं के बीच एक विश्वास की डोर होती है जिसकी मौजूदा समय में राष्ट्रीय स्तर पर कमी है। यह निश्चित ही निराशजनक है और इसमें बदलवा की जरूरत है। "

ऊपर मैंने दो प्रमुख अर्थशास्त्रियों के उद्धरण दिए हैं। यह उद्धरण यह बताते हैं कि देश की सरकार देश की आर्थिक दुरवस्था के प्रति सजग नहीं है। जिस प्रकार से विवादास्पद कानून लाये जा रहे हैं, उनसे सरकार की प्राथमिकता का पता चलता है। अब कुछ व्यथित करने वाले आंकड़ों पर नज़र डालते हैं।
● भुखमरी और कुपोषण के संदर्भ में भारत अपने पड़ोसी देशों नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी पिछड़ा हुआ है। दो अंतरराष्ट्रीय गैर-मुनाफा संस्थाओं द्वारा जारी की गई 117 मुल्कों की इस सूची में भारत 102वें स्थान पर है।
● ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मामले में देशों को 100 सूत्री 'सीवियरिटी स्केल' (गंभीरता पैमाना) पर परखा जाता है, जिसमें शून्य (कोई भुखमरी नहीं) को बेहतरीन स्कोर माना जाता है, और 100 बदतरीन स्कोर होता है. रिपोर्ट के मुताबिक, 30.3 के स्कोर के साथ भारत भुखमरी के ऐसे स्तर से जूझ रहा है, जिसे गंभीर माना जाता है।
● भारत, ग्लोबल हंगर इंडेक्स में वर्ष 2014 में 55 वें स्थान पर मौजूद था, अब 2019 में 102 वें स्थान पर पहुंच गया है।
● वर्ष 2014 में भारत 76 मुल्कों की फेहरिस्त में 55 वें नम्बर पर था। वर्ष 2017 में बनी 119 मुल्कों की फेहरिस्त में उसे 100 वां और वर्ष 2018 में वह 119 देशों की सूची में 103 वें स्थान पर रहा था। इस साल की रिपोर्ट में 117 देशों के सैम्पलों का आकलन किया गया था, और भारत को 102 वां स्थान मिला।
● जबकि, पाकिस्तान 94वें स्थान पर है, बांग्लादेश 88 वें और नेपाल को सूची में 73 वां स्थान हासिल हुआ है।
यह सूचकांक, चार पैमानों पर आकलित किया जाता है,  कम पोषण, चाइल्ड वेस्टिंग (पांच साल से कम उम्र के बच्चे, जिनका वज़न उम्र के लिहाज़ से कम है), चाइल्ड स्टंटिंग (पांच साल से कम उम्र के बच्चे, जिनकी ऊंचाई उम्र के लिहाज़ से कम है) और पांच साल से कम आयु में शिशु मृत्यु दर।

अब कुछ सकारात्मक रिपोर्ट भी हैं जो यह उम्मीद बंधाती हैं कि अर्थव्यवस्था आगे चल कर गति पकड़ेगी। ब्रिटेन स्थित सेंटर फॉर इकोनॉमिक्स एंड बिजनेस रिसर्च की रिपोर्ट ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक लीग टेबल के अनुसार,
‘ अब भारत के 2026 में जर्मनी को पीछे छोड़कर चौथी तथा 2034 में जापान को पछाड़कर तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने का अनुमान है.’’
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार के भारतीय अर्थव्यवस्था को 2024 तक 5,000 अरब डालर की अर्थव्यवस्था बनाने के सवाल पर रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘
‘भारत पांच हजार अरब डालर की जीडीपी 2026 में हासिल कर लेगा -- सरकार के तय लक्ष्य के मुकाबले दो साल बाद.’’
उद्योग एवं वाणिज्य संगठन भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) ने रविवार को कहा कि वैश्विक व्यापारिक तनावों में कमी आने के साथ ही सरकार और रिजर्व बैंक द्वारा उठाये गये कदमों से 2020 में भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार आने की उम्मीद है।

आशावाद एक बहुत अच्छा भाव है। लेकिन आशावाद के फलीभूत होने के लिये सकारात्मक आधार भी चाहिए। मैं गिरती जीडीपी, कम होता हुआ  मैन्युफैक्चरिंग ग्रोथ रेट, घटता जीएसटी संग्रह, बढ़ती बेरोजगारी, आदि के आंकड़े नहीं दे रहा हूँ, क्योंकि वे आंकड़े सार्वजनिक रूप से बहुप्रचारित हैं और पहले से ही चिंताजनक दौर में आ चुके हैं। आज सबसे बड़ा सवाल है कि इस मंदी को कैसे दूर किया जाय, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कैसे विश्वास बहाली हो, और कैसे जनता में यह भरोसा जमे कि, सरकार अब देश की आर्थिकी को सुधारने के लिये सच मे कृतसंकल्प है।

वर्तमान समय मे नागरिकता कानून, एनआरसी और जनगणना रजिस्टर को लेकर देश मे भ्रम की स्थिति है। पहले यह केवल असम और नॉर्थ ईस्ट की समस्या थी और वहीं इस आंदोलन का एपीसेन्टर था। पर अब यह आंदोलन देशव्यापी हो गया है। देश मे हर जगह अपने अपने तरीके से लोग इस आंदोलन का विरोध कर रहे हैं। सरकार के मंत्रियों के बयान अलग अलग सुर के हैं। गृहमंत्री का कहना है एनआरसी पूरे देश मे आएगी, वहीं प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि एनआरसी पर कोई चर्चा ही नहीं हुयी है। प्रकाश जावेडकर कह रहे हैं, की एनपीआर का एनआरसी से कुछ भी लेना देना नहीं है, वहीं रविशंकर प्रसाद कहना है कि इसके आंकड़ों का उपयोग एनआरसी में हो भी सकता है और नहीं भी हो सकत्व है। इस असमंजस भरी स्थिति के कारण जनता में अफवाहें भी फैल रही हैं और सामाजिक सद्भाव को भी नुकसान पहुंच रहा है। दुनियाभर के विश्वविद्यालयों, शिक्षा संस्थानों, मानवाधिकार संगठनों और लोगों ने इस कानून का विरोध किया और अब भी कर रहे हैं, वे इस कानून को भारत की अवधारणा के खिलाफ बता रहे हैं, जो है भी।

इस आंदोलन की व्यापकता ने देश के वातावरण को अशान्तिपूर्ण बना दिया है। दुनिया के ओपिनियन मेकर अखबारों में इस आंदोलन के बारे में छपने वाली खबरों ने देश की अर्थव्यवस्था पर भी बुरा प्रभाव डालना शुरू कर दिया है। यूएस, यूके जैसे कई देशों ने अपने नागरिकों को भारत न जाने या समझबूझ कर जाने की सलाह दी है। जब सामान्य पर्यटन की यह दशा है तो विदेशी पूंजी निवेश की क्या उम्मीद की जाय । विदेशी निवेश तो दूर की बात है देशी निवेश भी सामने नहीं आ रहा है। बैंकिंग सिस्टम, बेशुमार एनपीए, घोटाले और कर्ज लेकर भाग जाने वाले पूंजीपतियों के धोखे से पहले से ही त्रस्त है। बाजार में मांग कम हो गयी है। मंदी है। पर सरकार का एक भी ऐसा कदम नहीं दिख रहा है जिससे यह पता चले कि सरकार इन सारे संकटों से उबरने के लिये सोच भी रही है। रिज़र्व बैंक, आईएमएफ, मूडी आदि एजंसियां, मंदी की बात कह रही हैं। वे समय समय पर चेतावनी भी दे रही हैं। पर सरकार या तो कुछ सोच ही नहीं पा रही है या वह अंधेरे में तीर मार रही है।

© विजय शंकर सिंह

Saturday, 28 December 2019

एसपी सिटी मेरठ के बयान पर बवाल. / विजय शंकर सिंह

एसपी सिटी मेरठ अखिलेश के, मेरठ शहर के एक घटनास्थल पर कहे गये इस वाक्य  पर कि, " खाते यहां की हो, बजाते पाकिस्तान की। पाकिस्तान  चले जाओ" पर बहुत से मित्रों की प्रतिक्रिया आ रही है। कुछ एसपी सिटी को शाबाशी दे रहे हैं तो कुछ और, तरह तरह की बातें कह रहे हैं। एसपी सिटी के बयान पर मामला राष्ट्रीय चर्चा में है और अगर यह  विवाद बढ़ा तो उनसे इस तरह के बयान पर स्पष्टीकरण भी मांगा जा सकता है। उनका यह कथन आपत्तिजनक है और इसपर कार्यवाही भी हो सकती है।

उन मित्रों से जो पुलिस के हर उस कार्य के पीछे, जो विधिसम्मत नहीं है लामबंद होकर खड़े हो जाते हैं, से मेरा निवेदन है कि वे अनावश्यक शाबाशी और वाह वाही कर के उक्त अधिकारी के लिये समस्या न उत्पन्न करें। यह विवाद जैसे ही व्यापक होकर प्रचारित होगा तो सबसे पहले एसपी सिटी की ही गर्दन नपेगी। सरकार और डीजीपी चाह कर भी उनका बहुत बचाव नहीं कर पाएंगे। क्योंकि उनके इस तरह की बयानबाजी का कोई औचित्य नहीं है। इससे विभाग भी असहज स्थिति में हो जाता है। यह मेरा आकलन है और अनुभव भी। भीड़ नियंत्रण के समय अक्सर ऐसी परिस्थितियों से सामना होता है जब पुलिस अफसर खुद ही अनियंत्रित हो जाते हैं। यह अस्वाभाविक भी नहीं है। लेकिन, पुलिसजन ऐसी ही अस्वाभाविक स्थितियों को झेलने के लिये ट्रेंड भी होते हैं।

एसपी सिटी के 'पाकिस्तान चले जाओ के बयान पर अगर एडीजी मेरठ की बात आपने सुनी होगो तो आप संकेत समझ सकते हैं। उन्होंने कहा है कि " यह बात गुस्से में निकल गयी होगी, उन्हें यह नहीं कहना चाहिये था।" हो सकता है एसपी सिटी को यह 'समझाया' भी गया हो कि सोच समझकर बोलना चाहिये। अभी चीजें गर्म हैं जब सब सामान्य हो जाता है तो ऐसे मामलों में जांच पड़ताल होती है। जब जांच पड़ताल होतीं है तो फ़र्ज़ी शाबाशी वाले कहीं नहीं दिखते हैं। मदद उसी भीड़ में से, तब कभी कभी आती है, अगर आती है तो।

क्या घटना है, क्या संदर्भ है यह हम सब जो वीडियो मीडिया में आ रहा है उससे ही जान पा रहे हैं। भीड़ ने पाकिस्तान जिंदाबाद कहा हो तो भी और न कहा हो तो भी,  किसी भी पुलिस अफसर को इस प्रकार की भाषा और बयान से बचना चाहिए। हम पुलिसजन, एक ट्रेंड अफसर हैं। हमे भीड़ का मनोविज्ञान और भीड़ प्रबंधन सिखाया जाता है। हम कोई गिरोह नहीं है। जनता की तरह भीड़ और भावनाओं में बह जाने की अपेक्षा हमसे न तो विभाग करता है और न ही सरकार न ही कानून और न ही खुद जनता।

भीड़ बहुत से अनाप शनाप नारे लगाती है।  पुलिस को बल प्रयोग करने के लिए तरह तरह से उकसाती है। इसी में  पत्रकार जानबूझकर खबर बनाने के लिये ऐसे ऐसे सवाल पूछते हैं जिससे पुलिस ही घेरे में आये और कुछ ब्रेकिंग न्यूज़ मैटीरियल मिले।  पर ऐसी परिस्थिति में कानून, सरकार और विभाग, ड्यूटी पर नियुक्त अफसर से यही अपेक्षा करते हैं कि वह स्थिति बिना विवाद और नुकसान के नियंत्रित कर ले।

भीड़ एक गैर जिम्मेदार समूह होती है। जब वह बिगड़ैल हांथी की तरह उफनती है तो उसे बटोर कर ले गया नेता भी या तो मौके से सरक जाता है या भीड़ के अनुसार और अनुरूप आचरण करने लगता है। कुछ भी गड़बड़ होने पर, भीड़ से कोई नहीँ पूछने जा रहा है कि उसने यह नारा क्यो लगाया या क्यों उकसाया । पर पुलिस से सभी यह सवाल करेंगे कि आपने यह गैर जिम्मेदारी वाली बात क्यों कही। समस्या का समाधान हिकमत अमली से क्यों नहीं किया गया।

आज का समय सूचना क्रांति से सराबोर वीडियो युग का है। हर आदमी के पास कैमरा है। जो कही गयी एक एक बात और की गयी एक एक हरकत रिकॉर्ड करता है। कोई चाहे तो उंस रिकॉर्डिंग को एडिट कर के उसे मनचाहा स्वरूप भी दे सकता है। आप उसे डॉक्टर्ड वीडियो साबित करते रहिये । नेंट बंद हो तब भी उस रिकॉर्डिंग को  मोबाइल में संरक्षित कर के जब नेंट आये मनचाही जगह भेजा जा सकता है। वायरल किया जा सकता है। ऐसे सूचना के युग मे संयमित रहना और कानून को क़ानूनी तरह से लागू करना ही निरापद है। मेरी यह सलाह, मेरे हमपेशा मित्रों के लिये हैं।

पाकिस्तान से अगर नफरत है तो उसे कब्ज़ा कर लीजिए। तोड़ दीजिए। जो चाहे सो कीजिये। कुछ नेता और मंत्री तो 2014 के बाद से ही जब चाहते हैं, जिसे चाहते है उसे  पाकिस्तान भेज ही रहे हैं। पर यह बयान जहां नेताओ के लिये राजनीतिक लाभ और कुछ के लिये तोष देगा वहीं, हम पुलिसजन के लिये आपत्तिजनक माना जायेगा। अपना राजनीतिक एजेंडा पुलिस और प्रशासन के कंधे पर रख कर आगे न बढ़ाएं।

© विजय शंकर सिंह 

27 दिसंबर, जन्मदिन पर ग़ालिब को याद करते हुए उनका एक शेर / विजय शंकर सिंह

आह को चाहिये, इक उम्र असर होने तक, 
कौन जीता है, तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक !!
( ग़ालिब )

आह, का असर हो, इसके लिए, एक उम्र यानी एक लंबा वक़्त चाहिए। तुम्हारे सुन्दर कुंतल राशि पर मेरा अधिकार हो , यह इस जन्म में संभव नहीं है। जितना समय उस कुंतल पर अधिकार करने या उसे अपना बना लेने के लिए चाहिए, उतनी तो मेरी उम्र भी नहीं है। आह , जीवन के अवसान तक मुझे तडपाती रहेगी।

ग़ालिब का यह बेहद प्रसिद्ध शेर है। यह उनकी एक लंबी ग़ज़ल का एक अंश है। ग़ालिब की यह ग़ज़ल , मुहम्मद रफ़ी, तलत महमूद , जगजीत सिंह, मेहंदी हसन , नुसरत अली खान, आदि प्रसिद्ध गायकों द्वारा गायी गयी है। पुरानी फ़िल्म मिर्ज़ा ग़ालिब में इसे भारत भूषण पर और गुलजार के सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब में इसे नसीरुद्दीन शाह पर फिल्माया गया है। यह ग़ज़ल सूफी गायकी की परंपरा में भी बहुत मशहूर हुयी है। ग़ज़ल का यह शेर, ग़ालिब की तरह श्लेषार्थक है।

इस शेर के अर्थ को ग़ालिब अपने सुखन से भी जोड़ कर देखते हैं। ग़ालिब अपने काव्य को समकालीन उर्दू साहित्य में स्वयं ही अत्यंत उत्कृष्ट कोटि का मानते थे। वह कहते भी थे, 
हैं और भी, दुनिया मे सुखनवर बहुत अच्छे, 
कहते हैं कि, ग़ालिब का है अंदाज़ ए बयां और !!
अंदाज़ ए बयानी, जिसे साहित्य में अभिव्यक्ति शैली कहते हैं। कथ्य और शिल्प की विशिष्टता और विविधता से भरी ग़ालिब की यही अंदाज़ ए बयानी, उन्हें सबसे अलग और विशिष्ट बना देती है। ग़ालिब, अपने अंदाज़ ए बयान को सबसे अलग मानते थे और थे भी वे। उनका कहना था कि उनका काव्य लोगों के दिल ओ दिमाग में अंदर तक पैठे , इसके लिए समय चाहिए। वे मानते थे कि उन्हें समझना आसान नहीं है। अतः जब तक लोग उनके काव्य को समझ कर सराहना करने लगेंगे, तब वह दिन देखने के लिए, शायद वे जीवित ही नहीं बचें ! 

ग़ालिब थे तो आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह ज़फर के दरबार के शायर, पर मिज़ाज उनका दरबारी नहीं था। ज़फर खुद भी एक शायर थे। उस समय ग़ालिब के समकालीन उसी दरबार मे एक और शायर ज़ौक़ भी थे। ज़ौक़ का रुतबा भी अधिक था। ज़ौक़ और ग़ालिब में प्रतिद्वंद्विता भी थी. इनसे थोड़े पहले मीर तक़ी मीर हो चुके थे। मीर को ग़ज़लों का बादशाह कहा जाता है। प्रेम की अत्यंत सुन्दर अभिव्यक्ति मीर के कलाम में हुयी है। पर आज इन सब के बीच ग़ालिब सबसे अधिक चमकते हैं। उनके हर कलाम में कुछ न कुछ रहस्यात्मकता छिपी हुयी है। कुछ न कुछ ढूँढने की एक अदम्य जिज्ञासा ग़ालिब के साहित्य गगन की सैर हम ज़बको कराती रहती है। ग़ालिब , खूद को तो अलग और समकालीनों में श्रेष्ठ मानते ही थे, वक़्त ने भी उनके अंदाज़ ए बयाँ का लोहा माना और वे उर्दू साहित्य के महानतम शायर स्वीकार किये गए।

ग़ालिब के हर शेर का अर्थ और भाव अलग अलग होता है। शिल्प इतना सुगढ़ और सधा हुआ कि एक भी मात्रा घटी या बढ़ी तो सब कुछ भरभरा कर गिर जाता है। काव्य मन के कोमलतम भावों की अभिव्यक्ति होती है। आदि कवि वाल्मीकि की वह प्रथम रचना, मा निषाद याद कीजिये, जो मिथुन रत क्रौंच युग्म के एक साथी को शर लग जाने के बाद अकस्मात उनके मुख से प्रस्फुटित हो गयी थी ? जैसे ग्लेशियर पिघल कर सरित प्रवाह बना देता है वैसे ही मनोभाव शब्दों के रूप में बह निकलते हैं और वही कविता बन जाती है। यहां ग़ालिब नें उसी को आह कहा है। पर उस आह को कोई पहचाने , और माने भी तो। उस आह को एक उम्र यानी पर्याप्त समय चाहिए ताकि वह लोगों की ज़ुबान पर चढ़ सके और जेहन में जगह बना सके। पर इतना समय किस के पास है ! शायर के पास इतना वक़्त नहीं है । एक अर्थ में उसके पास इतनी आयु नहीं है कि वह अपने सुखन की प्रसिद्घि को देख पाए। यह उनकी निराशा थी या पराजय या भावुक मन का डोलता हुआ आत्मविश्वास , कुछ भी कह लें और जो भी कहें पर आज ग़ालिब के जन्मदिन पर उन्हें याद ज़रूर करें ! 

© विजय शंकर सिंह 

साम्प्रदायिक सौहार्द आज की सबसे बड़ी जरूरत है / विजय शंकर सिंह

साम्प्रदायिक सौहार्द, यह शब्द, सबसे अधिक संघ भाजपा को कचोटता है। आज से ही नहीं बल्कि 1937 से ही कचोटता रहता है। आज समाज मे जितना ही साम्प्रदायिक सौहार्द बना रहेगा, संघ भाजपा उतनी ही असहज होती रहेगी। उसे गंगा जमुनी तहजीब, साझी विरासत, साझी संस्कृति, विविधता में एकता, बहुलतावाद, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, वैष्णव जन जो तेने कहिये, धर्मनिरपेक्षता आदि आदि मोहक शब्दों से थोड़ी दिक्कत होने लगती है। वे बेचैन होने लगते है। उसे अकबर से दिक्कत है, औरंगजेब से बल्कि उतनी नहीं है क्योंकि औरंगजेब की राजनीति भाजपा, संघ के लिये आधार और तर्क तैयार करती है।  हिंदू मुस्लिम वैमनस्यता और धार्मिक कट्टरता से ही इनकी विभाजनकारी विचारधारा को बल मिलता है। सावरकर को जिन्ना और अंग्रेजों से उतना बैर नहीं था जितना गांधी से। यही इनकी यूएसपी है। यही इनका आधार है। 

2014 में भाजपा सरकार यूपीए 2 के भ्रष्टाचार और अन्ना हजारे के एन्टी करप्शन मूवमेंट से उत्पन्न व्यापक जन समर्थन के बल पर आयी थी। तब का भाजपा का संकल्पपत्र आर्थिक वादों और सामाजिक समरसता के आश्वासनों से भरा पड़ा था। सबका साथ, सबका विकास इनका प्रिय बोधवाक्य था। अब उसमे एक शब्द और जुड़ गया, सबका विश्वास। पर अपने ही संकल्पपत्र 2014 में दिए गए वादों पर देश को आर्थिक गति देने के लिये, सरकार ने कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। बल्कि कुछ ऐसे मूर्खतापूर्ण आर्थिक निर्णय सरकार द्वारा लिए गए जिससे आर्थिक स्थिति बिगड़ती ही चली  गयी और अब हालत यह हो गयी है कि देश एक गंभीर आर्थिक मंदी के दौर में पहुंच गया है। अब इस संकट से उबरने के लिये न तो सरकार में प्रतिभा है, न इच्छाशक्ति, न कौशल और न ही कोई दृष्टि। अब सरकार और सत्तारूढ़ दल सामाजिक उन्माद के अपने पुराने और आजमाए हुये मुद्दों पर लौट आये है। 

बीफ और गौरक्षा के अनावश्यक मुद्दे पर, गौगुंडो द्वारा की जाने वाली मॉब  लिंचिंग, उसका सरकार के मंत्रियों द्वारा खुलकर महिमामंडन,  लव जिहाद और घर वापसी के तमाशों, से लेकर आज तक इनकी एक मात्र कोशिश यही रही है कि हर अवसर पर हिंदू मुस्लिम साम्प्रदायिक उन्माद फैले और उसी विवाद के पंक में इनका कमल खिलता रहे । आप 2014 के बाद के सरकार के चहेते टीवी चैनलों द्वारा प्रसारित किए गए कार्यक्रमों को देखिए। रोज़ ऐसे ही कार्यक्रम प्रसारित किए गए और भी किये जा रहे हैं, जिससे लोगों के जेहन में हिंदू मुसलमान से ही जुड़े मुद्दे बने रहें और जनमानस के दिल दिमाग की ट्यूनिंग इसी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की ओर बढती रहे। राजकृपा से अभिशिक्त गोदी मीडिया के चैनलों ने रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दे पर कोई भी कार्यक्रम चलाया हो, यह याद नहीं आ रहा है। क्योंकि ऐसे मुद्दे सरकार को असहज करते हैं। और सरकार को असहज होते भला कैसे देख सकते हैं ये दुंदुभिवादक ! 

लेकिन देश का साम्प्रदायिक माहौल लाख कोशिशों के बावजूद भी ऐसा अब तक नहीं हो सका जिससे बड़े और स्वयंस्फूर्त दंगे भड़क सकें जैसा कि अतीत में कई बार भड़क चुके हैं । सीएए में मुस्लिम को अन्य धर्मों से अलग रखना इनका मास्टरस्ट्रोक था, ताकि यह खुद को हिंदू हित समर्थक दिखा सकें और इस मुद्दे पर फिर एक साम्प्रदायिक विभाजन की नींव रख सकें। नागरिकता संशोधन कानून लाने और उस कानून में मुस्लिम को अलग रखने का उद्देश्य ही केवल यही था कि इसका विरोध मुसलमानों द्वारा हो और इसी बहाने फिर दंगे फैल जांय। सरकार को यह आभास नहीं था कि धर्म की दीवार तोड़ कर पूरे देश मे एक साथ लोग, इस कानून और एनआरसी के खिलाफ खड़े हो जाएंगे। असम और नॉर्थ ईस्ट जो घुसपैठिया समस्या से सबसे अधिक पीड़ित है, इस कानून के खिलाफ समवेत रूप से बिना किसी साम्प्रदायिक मतभेद के उबल बड़ा। क्योंकि घुसपैठ की समस्या के खिलाफ उठा  यह आंदोलन असम और नॉर्थ ईस्ट में, अपने जन्म के ही समय से किसी भी दशा में साम्प्रदायिक है ही नहीं। आज भी वह आंदोलन असमिया पहचान, अस्मिता और भाषा को लेकर है, न कि हिंदू मुस्लिम धर्म आधारित घुसपैठियों को लेकर। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने की हरकतें भाजपा द्वारा अब भी जारी हैं। 

अमित शाह ने संसद में एनआरसी के मुद्दे पर अपनी क्रोनोलॉजी सदन के पटल पर रखते हुए साफ साफ झूठ बोला, कि पहले सीएए आएगा और फिर पूरे देश मे एनआरसी लागू होगी। विदेशी घुसपैठिया और दीमक का जिक्र तो उनके हर चुनावी भाषण में झारखंड में था। हालांकि, प्रधानमंत्री जी ने भी, अमित शाह की सदन में रखी गयी क्रोनोलॉजी पर रामलीला मैदान दिल्ली में दिए गए अपने एक भाषण में, साफ साफ कह दिया कि ' पूरे देश मे एनआरसी लागू होने के मुद्दे पर तो कभी चर्चा ही नहीं हुयी थी। ' अब भला प्रधानमंत्री तो झूठ बोलने से रहे, तो यह झूठ तो अमित शाह ने ही बोला होगा फिर । खुल कर, कमर पर हाँथ रख के क्रोनोलॉजी समझाई थी अमित शाह ने । यह हम सबने टीवी पर लाइव  देखा और सुना है। अमित शाह का यह बयान सदन को गुमराह करना है । सदन में झूठ बोलना है। बिना कैबिनेट में चर्चा और मंजूरी के सदन में वह कह देना, जो सरकार ने सोचा ही नहीं है, न केवल कैबिनेट के सामूहिक दायित्वों, बिजनेस रूल्स का उल्लंघन है बल्कि संसद के भी विशेषाधिकार का हनन है। सरकार ने राष्ट्रपति को भी उनके अभिभाषण के माध्यम से इस झूठ में लपेट लिया। राष्ट्रपति ने भी अपने अभिभाषण में एनआरसी लागू करने की बात कही थी। राष्ट्रपति का अभिभाषण, सरकार द्वारा लिखा और अनुमोदित दस्तावेज होता है जिसे राष्ट्रपति दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में केवल पढ़ते हैं। वे अगर वैचारिक रूप से उक्त अभिभाषण से सहमत न हों तब भी उन्हें वह पढ़ना ही है। यह उनकी संवैधानिक बाध्यता है। क्योंकि, यह अभिभाषण भी कैबिनेट द्वारा मंजूर किया जाता है। अब सच क्या है और झूठ क्या है यह आप अनुमान लगाते रहिये। 

बार बार बात, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक या हिंदू उत्पीड़न की बात कही जा रही है। यह बात सच भी है कि अफगानिस्तान पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक या हिंदू उत्पीड़न हुआ है, यह अब भी हो रहा है, और आगे भी नहीं होगा इसकी कोई गारंटी भी नहीं हैं। 
पर क्या कभी इस मुद्दे पर भाजपा सरकार ने पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश से अपना विरोध दर्ज कराया और कभी अंतरराष्ट्रीय पटल पर इस मुद्दे को उठाया ?
लाहौर बस यात्रा, मुशर्रफ बाजपेयी आगरा वार्ता, नरेंद मोदी और नवाज़ शरीफ़ के बीच हुई अनेक औपचारिक, अनौपचारिक मुलाकातों, बातों के बीच यह मुद्दा क्यों नहीं उठाया गया ? 
सरकार और सत्तारूढ़ दल का उद्देश्य इस समस्या का समाधान करना है ही नहीं, बल्कि उसकी आड़ में देश मे साम्प्रदायिक उन्माद की आग जलाए रखना है। 

आज जो भी इस तरह के अनावश्यक फैसले सरकार कर रही है उसका एक मात्र उद्देश्य देश को आपस मे लड़ा कर उलझा देना है, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करते रहना है, हर बात को सांप्रदायिक चश्मे से देखना है, ताकि गर्त में जाती हुयी अर्थव्यवस्था से लोगों का ध्यान भटकता रहे। अभी और शिगूफे आएंगे। क्योंकि संघ और भाजपा की कोई भी स्पष्ट आर्थिक नीति नहीं है और कभी रही भी नहीं है। आज की सबसे बड़ी जरूरत है कि, हम सामाजिक सौहार्द बनाये रखें । इससे ये और भी अधिक असहज होते जाएंगे। इन्हें कभी यह सिखाया ही नहीं जाता है कि समाज मे कैसे सभी धर्मों, जातियों में सामाजिक समरसता को बना कर रखा जाय। क्योंकि इनकी नींव ही यूरोपीय घृणावाद से विकसित हुयी है। साम्प्रदायिक एकता भाजपा और संघ के सारे दांव विफल कर देगी। 

© विजय शंकर सिंह 

Friday, 27 December 2019

धर्म आधारित राज्य की विडंबना. / विजय शंकर सिंह

जब धर्म आधारित राज्य की ओर देश बढ़ने लगता है तो सबसे अधिक निरंकुश और स्वेच्छाचारी सुरक्षा बल ही होने लगते हैं। क्योंकि जैसे ही कोई देश धर्म आधारित होने के उपक्रम में होता है वैसे ही धर्म आधारित राज्य यानी थियोक्रैटिक सत्ता निरंकुश और अनुदार होने लगती है। जब सत्ता निरंकुश औऱ अनुदार होने लगती है तो वह सेना और सुरक्षा बलों पर खुद को बचाने के लिये धीरे धीरे और निर्भर होने लगती है। उस समय दो प्रतिक्रियाएं होती हैं। 

एक, जनता में सत्ता की लोकप्रियता पहले तो शिखर पर पहुंच जाती है। यह लोकप्रियता राज्य के जनोपयोगी कार्यो के कारण नहीं बल्कि, सत्ता द्वारा उन्माद बढाने वाले एजेंडों के कारण होने लगती है। यह उन्मदावस्था लंबे समय तक नहीं चल पाती है। क्योंकि उन्माद चाहे धर्म का हो या जाति की श्रेष्ठता का, वह लंबे समय जनता को नशे की पिनक में नहीं रख पाता है। क्योंकि रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य के मूलभूत मुद्दों से बहुत अधिक समय तक जनता को बहलाया और भरमाया नहीं जा सकता है। यह तिलस्म टूटता ही है। लेकिन जब टूटता है तो देश और जनता बहुत कुछ गंवा चुकी होती है। 
दूसरे,  थियोक्रैटिक राज्य की सेना और सुरक्षा बलों पर बढ़ती निर्भरता, सेना और सुरक्षा बलों को निरंकुश, स्वेच्छाचारी और उसे एक अपरिहार्य दबाव समूह में बदल देती है। वह दबाव समूह इतना अधिक सबल हो जाता है कि सत्ता इसे नियंत्रित तथा अनुशासित करने और इसके विरोध में खड़े होने की बात डर से सोच भी नहीं पाती है। 

सुरक्षा बलों का मूल चरित्र लोकतांत्रिक नही होता है। हो भो नहीं सकता है। क्योंकि यहां अनुशासन सुरक्षा बलों की ट्रेनिंग और धर्मिता का मूल होता है वहीं अनुशासन लोकतंत्र के लिये उतना ज़रूरी नहीं है जितनी कि लोक जागृति ज़रूरी है। सेना और सुरक्षा बलों को इसीलिए राजनीति से दूर रखा जाता है। लेकिन जब सत्ता धर्म के आधार पर अपनी जड़ जमाने लगेगी तो, वह सेना और सुरक्षा बलों का सहयोग अपनी लक्ष्यपूर्ति के लिये करती ही है। 

पाकिस्तान में बार बार लोकतंत्र को पलट कर के सैनिक तानाशाही का सत्ता में आ जाना और फिर लंबे समय तक बने रहना यह बात प्रमाणित करता है। धर्म आधारित राज्य मूलतः तानाशाही ही होते हैं। क्योंकि वे अन्य धर्मों के प्रति स्वभावतः अनुदार होते हैं, और यह प्रवित्ति उन्हें विपरीत धर्मो में स्वाभाविक रूप से अलोकप्रिय बना देती है। वे इस अलोकप्रियता जन्य आक्रोश से सदैव सशंकित रहते हैं, और यही संशय ही उनकी सेना और सुरक्षा बलों पर निर्भरता बढ़ा देता है। पाकिस्तान का 1947 के बाद का इतिहास पढें तो यह स्पष्टतः प्रमाणित होता है कि जैसे जैसे वहां लोकतंत्र कमज़ोर होता गया, वैसे वैसे सेना, निरंकुश और स्वेच्छाचारी होती गयी। एक आदर्स, उन्नत और प्रगतिशील समाज मे सेना की भूमिका बहुत अधिक नहीं होती है। 

आज जब हम खुद एक धर्म आधारित राज्य बनने का खतरनाक मंसूबा बांध बैठे हैं तो हमे इसके खतरे भी समझना चाहिये। धर्म, ईश्वर, उपासना के तऱीके, आध्यात्म, आदि बुरे नहीं है। बुरा है इनका राजनीति में घालमेल, जो समाज को इतने अधिक खानों में बांट देता है कि वही धर्म जो कभी मानव ने खुद की बेहतरी के लिये कभी गढ़ा था एक बोझ लगने लगता है। संसार का कोई धर्म बुरा नहीं है, बुरा है धर्म का उन्माद, धर्म के श्रेष्ठतावाद का नशा। 

© विजय शंकर सिंह 

Tuesday, 24 December 2019

प्रेमचंद की एक कहानी - धिक्कार / विजय शंकर सिंह

ईरान और यूनान में घोर संग्राम हो रहा था। ईरानी दिन-दिन बढ़ते जाते थे और यूनान के लिए संकट का सामना था। देश के सारे व्यवसाय बंद हो गये थे, हल की मुठिया पर हाथ रखनेवाले किसान तलवार की मुठिया पकड़ने के लिए मजबूर हो गये, डंडी तौलनेवाले भाले तौलते थे। सारा देश आत्मरक्षा के लिए तैयार हो गया था। फिर भी शत्रु के कदम दिन-दिन आगे ही बढ़ते जाते थे। जिस ईरान को यूनान कई बार कुचल चुका था, वही ईरान आज क्रोध के आवेग की भाँति सिर पर चढ़ा आता था। मर्द तो रणक्षेत्र में सिर कटा रहे थे और स्त्रियाँ दिन-दिन की निराशाजनक खबरें सुनकर सूखी जाती थीं। क्योंकर लाज की रक्षा होगी ? प्राण का भय न था, सम्पत्ति का भय न था, भय था मर्यादा का। विजेता गर्व से मतवाले होकर यूनानी ललनाओं को घूरेंगे, उनके कोमल अंगों को स्पर्श करेंगे, उनको कैद कर ले जायेंगे ! उस विपत्ति की कल्पना ही से इन लोगों के रोयें खड़े हो जाते थे।

आखिर जब हालत बहुत नाजुक हो गयी तो कितने ही स्त्री-पुरुष मिल कर डेल्फी मंदिर में गये और प्रश्न किया- देवी, हमारे ऊपर देवताओं की यह वक्र दृष्टि क्यों है ? हमसे ऐसा कौन-सा अपराध हुआ है ? क्या हमने नियमों का पालन नहीं किया, कुरबानियाँ नहीं कीं, व्रत नहीं रखे ? फिर देवताओं ने क्या हमारे सिरों से अपनी रक्षा का हाथ उठा लिया ?

पुजारिन ने कहा- देवताओं की असीम कृपा भी देश को द्रोही के हाथ से नहीं बचा सकती। इस देश में अवश्य कोई-न-कोई द्रोही है। जब तक उसका वध न किया जायगा, देश के सिर से यह संकट न टलेगा।

‘देवी, वह द्रोही कौन है ?’

‘जिस घर से रात को गाने की ध्वनि आती हो, जिस घर से दिन को सुगंध की लपटें आती हों, जिस पुरुष की आँखों में मद की लाली झलकती हो, वही देश का द्रोही है।’

लोगों ने द्रोही का परिचय पाने के लिए और भी कितने ही प्रश्न किये; पर देवी ने कोई उत्तर न दिया।

2

यूनानियों ने द्रोही की तलाश करनी शुरू की। किनके घर में से रात को गाने की आवाजें आती हैं सारे शहर में संध्या होते स्यापा-सा छा जाता था। अगर कहीं आवाजें सुनायी देती थीं तो रोने की; हँसी और गाने की आवाज कहीं न सुनायी देती थी।

दिन को सुगंध की लपटें किस घर से आती हैं ? लोग जिधर जाते थे, उधर से दुर्गंध आती थी। गलियों में कूड़े के ढेर-के-ढेर पड़े रहते थे, किसे इतनी फुरसत थी कि घर की सफाई करता, घर में सुगंध जलाता; धोबियों का अभाव था, अधिकांश लड़ने के लिए चले गये थे, कपड़े तक न धुलते थे; इत्र -फुलेल कौन मलता !

किसकी आँखों में मद की लाली झलकती है ? लाल आँखें दिखाई देती थीं; लेकिन यह मद की लाली न थी, यह आँसुओं की लाली थी। मदिरा की दूकानों पर खाक उड़ रही थी। इस जीवन और मृत्यु के संग्राम में विलास की किसे सूझता ! लोगों ने सारा शहर छान मारा लेकिन एक भी आँख ऐसी नजर न आयी जो मद से लाल हो।

कई दिन गुजर गये। शहर में पल-पल पर रणक्षेत्र से भयानक खबरें आती थीं और लोगों के प्राण सूखे जाते थे।

आधी रात का समय था। शहर में अंधकार छाया हुआ था, मानो श्मशान हो। किसी की सूरत न दिखाई देती थी। जिन नाट्यशालाओं में तिल रखने की जगह न मिलती थी, वहाँ सियार बोल रहे थे। जिन बाजारों में मनचले जवान अस्त्र -शस्त्रस सजाये ऐंठते फिरते थे, वहाँ उल्लू बोल रहे थे। मंदिरों में न गाना होता था न बजाना। प्रासादों में अंधकार छाया हुआ था।

एक बूढ़ा यूनानी जिसका इकलौता लड़का लड़ाई के मैदान में था, घर से निकला और न-जाने किन विचारों की तरंग में देवी के मंदिर की ओर चला। रास्ते में कहीं प्रकाश न था, कदम-कदम पर ठोकरें खाता था; पर आगे बढ़ता चला जाता। उसने निश्चय कर लिया था कि या तो आज देवी से विजय का वरदान लूँगा या उनके चरणों पर अपने को भेंट कर दूँगा।

3

सहसा वह चौंक पड़ा। देवी का मंदिर आ गया था। और उसके पीछे की ओर किसी घर से मधुर संगीत की ध्वनि आ रही थी। उसको आश्चर्य हुआ। इस निर्जन स्थान में कौन इस वक्त रंगरेलियाँ मना रहा है। उसके पैरों में पर-से लग गये, मंदिर के पिछवाड़े जा पहुँचा।

उसी घर से जिसमें मंदिर की पुजारिन रहती थी, गाने की आवाजें आती थीं ! वृद्ध विस्मित होकर खिड़की के सामने खड़ा हो गया। चिराग तले अँधेरा ! देवी के मंदिर के पिछवाड़े यह अंधेर ?

बूढ़े ने द्वार से झाँका; एक सजे हुए कमरे में मोमबत्तियाँ झाड़ों में जल रही थीं, साफ-सुथरा फर्श बिछा हुआ था और एक आदमी मेज पर बैठा हुआ गा रहा था। मेज पर शराब की बोतल और प्यालियाँ रखी हुई थीं। दो गुलाम मेज के सामने हाथ में भोजन के थाल लिए खड़े थे, जिनमें से मनोहर सुगंध की लपटें आ रही थीं।

बूढ़े यूनानी ने चिल्लाकर कहा- यही देशद्रोही है, यही देशद्रोही है !

मंदिर की दीवारों ने दुहराया- द्रोही है !

बगीचे की तरफ से आवाज आयी- द्रोही है !

मंदिर की पुजारिन ने घर में से सिर निकालकर कहा- हाँ, द्रोही है !

यह देशद्रोही उसी पुजारिन का बेटा पासोनियस था। देश में रक्षा के जो उपाय सोचे जाते, शत्रुओं का दमन करने के लिए जो निश्चय किये जाते, उनकी सूचना वह ईरानियों को दे दिया करता था। सेनाओं की प्रत्येक गति की खबर ईरानियों को मिल जाती थी और उन प्रयत्नों को विफल बनाने के लिए वे पहले से तैयार हो जाते थे। यही कारण था कि यूनानियों को जान लड़ा देने पर भी विजय न होती थी। इसी कपट से कमाये हुये धन से वह भोग-विलास करता था। उस समय जबकि देश में घोर संकट पड़ा हुआ था, उसने अपने स्वदेश को अपनी वासनाओं के लिए बेच दिया था। अपने विलास के सिवा उसे और किसी बात की चिंता न थी, कोई मरे या जिये, देश रहे या जाय, उसकी बला से। केवल अपने कुटिल स्वार्थ के लिए देश की गरदन में गुलामी की बेड़ियाँ डलवाने पर तैयार था। पुजारिन अपने बेटे के दुराचरण से अनभिज्ञ थी। वह अपनी अँधेरी कोठरी से बहुत कम निकलती, वहीं बैठी जप-तप किया करती थी। परलोक-चिंतन में उसे इहलोक की खबर न थी, मनेन्द्रियों ने बाहर की चेतना को शून्य-सा कर दिया था। वह इस समय भी कोठरी के द्वार बंद किये, देवी से अपने देश के कल्याण के लिए वन्दना कर रही थी कि सहसा उसके कानों में आवाज आयी- यही द्रोही है, यही द्रोही है !

उसने तुरंत द्वार खोलकर बाहर की ओर झाँका, पासोनियस के कमरे से प्रकाश की रेखाएँ निकल रही थीं और उन्हीं रेखाओं पर संगीत की लहरें नाच रही थीं। उसके पैर-तले से जमीन-सी निकल गयी, कलेजा धक्-से हो गया। ईश्वर ! क्या मेरा बेटा देशद्रोही है ?

आप-ही-आप, किसी अंतःप्रेरणा से पराभूत होकर वह चिल्ला उठी- हाँ, यहाँ देशद्रोही है !

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यूनानी स्त्री-पुरुष झुंड-के-झुंड उमड़ पड़े और पासोनियस के द्वार पर खड़े हो कर चिल्लाने लगे- यही देशद्रोही है !

पासोनियस के कमरे की रोशनी ठंडी हो गयी, संगीत भी बंद था; लेकिन द्वार पर प्रतिक्षण नगरवासियों का समूह बढ़ता जाता था और रह-रहकर सहस्रो कंठों से ध्वनि निकलती थी- यही देशद्रोही है !

लोगों ने मशालें जलायीं और अपने लाठी-डंडे सँभालकर मकान में घुस पड़े। कोई कहता था- सिर उतार लो। कोई कहता था- देवी के चरणों पर बलिदान कर दो। कुछ लोग उसे कोठे से नीचे गिरा देने पर आग्रह कर रहे थे।

पासोनियस समझ गया कि अब मुसीबत की घड़ी सिर पर आ गयी। तुरंत जीने से उतरकर नीचे की ओर भागा। और कहीं शरण की आशा न देखकर देवी के मंदिर में जा घुसा।

अब क्या किया जाय ? देवी की शरण जानेवाले को अभय-दान मिल जाता था। परम्परा से यही प्रथा थी ? मंदिर में किसी की हत्या करना महापाप था।

लेकिन देशद्रोही को इतने सस्ते कौन छोड़ता ? भाँति-भाँति के प्रस्ताव होने लगे-

‘सुअर का हाथ पकड़कर बाहर खींच लो।’

‘ऐसे देशद्रोही का वध करने के लिए देवी हमें क्षमा कर देंगी।’

‘देवी, आप उसे क्यों नहीं निगल जातीं ?’

‘पत्थरों से मारो, पत्थरों से; आप निकलकर भागेगा।’

‘निकलता क्यों नहीं रे कायर ! वहाँ क्या मुँह में कालिख लगाकर बैठा हुआ है ?

रात भर यही शोर मचता रहा और पासोनियस न निकला। आखिर यह निश्चय हुआ कि मंदिर की छत खोदकर फेंक दी जाय और पासोनियस दोपहर की तेज धूप और रात की कड़ाके की सरदी से आप ही आप अकड़ जाय। बस फिर क्या था। आन की आन में लोगों ने मंदिर की छत और कलस ढा दिये।

अभागा पासोनियस दिन-भर तेज धूप में खड़ा रहा। उसे जोर की प्यास लगी; लेकिन पानी कहाँ ? भूख लगी, पर खाना कहाँ ? सारी जमीन तवे की भाँति जलने लगी; लेकिन छाँह कहाँ ? इतना कष्ट उसे जीवन-भर में न हुआ था। मछली की भाँति तड़पता था और चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को पुकारता था; मगर वहाँ कोई उसकी पुकार सुननेवाला न था। बार-बार कसमें खाता था कि अब फिर मुझसे ऐसा अपराध न होगा; लेकिन कोई उसके निकट न आता था। बार-बार चाहता था कि दीवार से टकराकर प्राण दे दे; लेकिन यह आशा रोक देती थी कि शायद लोगों को मुझ पर दया आ जाय। वह पागलों की तरह जोर-जोर से कहने लगा- मुझे मार डालो, मार डालो, एक क्षण में प्राण ले लो, इस भाँति जला-जलाकर न मारो। ओ हत्यारो, तुमको जरा भी दया नहीं।

दिन बीता और रात- भयंकर रात- आयी। ऊपर तारागण चमक रहे थे मानो उसकी विपत्ति पर हँस रहे हों। ज्यों-ज्यों रात भीगती थी देवी विकराल रूप धारण करती जाती थी। कभी वह उसकी ओर मुँह खोलकर लपकती, कभी उसे जलती हुई आँखों से देखती। उधर क्षण-क्षण सरदी बढ़ती जाती थी, पासोनियस के हाथ-पाँव अकड़ने लगे, कलेजा काँपने लगा। घुटनों में सिर रख कर बैठ गया और अपनी किस्मत को रोने लगा; कुरते को खींचकर कभी पैरों को छिपाता, कभी हाथों को, यहाँ तक कि इस खींचातानी में कुरता भी फट गया। आधी रात जाते-जाते बर्फ गिरने लगी। दोपहर को उसने सोचा गरमी ही सबसे कष्टदायक है। इस ठंड के सामने उसे गरमी की तकलीफ भूल गयी।

आखिर शरीर में गरमी लाने के लिए एक हिकमत सूझी। वह मंदिर में इधर-उधर दौड़ने लगा। लेकिन विलासी जीव था, जरा देर में हाँफकर गिर पड़ा।

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प्रातःकाल लोगों ने किवाड़ खोले तो पासोनियस को भूमि पर पड़े देखा। मालूम होता था, उसका शरीर अकड़ गया है। बहुत चीखने-चिल्लाने पर उसने आँखें खोलीं; पर जगह से हिल न सका। कितनी दयनीय दशा थी, किंतु किसी को उस पर दया न आयी। यूनान में देशद्रोह सबसे बड़ा अपराध था और द्रोही के लिए कहीं क्षमा न थी, कहीं दया न थी।

एक- अभी मरा नहीं है ?

दूसरा- द्रोहियों को मौत नहीं आती !

तीसरा- पड़ा रहने दो, मर जायगा !

चौथा- मक्र किये हुए है ?

पाँचवाँ- अपने किये की सजा पा चुका, अब छोड़ देना चाहिए !

सहसा पासोनियस उठ बैठा और उद्दण्ड भाव से बोला- कौन कहता है कि इसे छोड़ देना चाहिए ! नहीं, मुझे मत छोड़ना, वरना पछताओगे ! मैं स्वार्थी हूँ; विषय-भोगी हूँ, मुझ पर भूलकर भी विश्वास न करना। आह ! मेरे कारण तुम लोगों को क्या-क्या झेलना पड़ा, इसे सोचकर मेरा जी चाहता है कि अपनी इंद्रियों को जलाकर भस्म कर दूँ। मैं अगर सौ जन्म लेकर इस पाप का प्रायश्चित्त करूँ, तो भी मेरा उद्धार न होगा। तुम भूल कर भी मेरा विश्वास न करो। मुझे स्वयं अपने ऊपर विश्वास नहीं। विलास के प्रेमी सत्य का पालन नहीं करते। मैं अब भी आपकी कुछ सेवा कर सकता हूँ, मुझे ऐसे-ऐसे गुप्त रहस्य मालूम हैं, जिन्हें जानकर आप ईरानियों का संहार कर सकते हैं; लेकिन मुझे अपने ऊपर विश्वास नहीं है और आपसे भी यह कहता हूँ कि मुझ पर विश्वास न कीजिए। आज रात को देवी की मैंने सच्चे दिल से वंदना की है और उन्होंने मुझे ऐसे यंत्र बताये हैं, जिनसे हम शत्रुओं को परास्त कर सकते हैं, ईरानियों के बढ़ते हुए दल को आज भी आन की आन में उड़ा सकते हैं। लेकिन मुझे अपने ऊपर विश्वास नहीं है। मैं यहाँ से बाहर निकलकर इन बातों को भूल जाऊँगा। बहुत संशय है कि फिर ईरानियों की गुप्त सहयता करने लगूँ, इसलिए मुझ पर विश्वास न कीजिए।

एक यूनानी- देखो-देखो, क्या कहता है ?

दूसरा- सच्चा आदमी मालूम होता है।

तीसरा- अपने अपराधों को आप स्वीकार कर रहा है।

चौथा- इसे क्षमा कर देना चाहिए और यह सब बातें पूछ लेनी चाहिए।

पाँचवाँ- देखो, यह नहीं कहता कि मुझे छोड़ दो। हमको बार-बार याद दिलाता जाता है कि मुझ पर विश्वास न करो !

छठा- रात-भर के कष्ट ने होश ठंडे कर दिये, अब आँखें खुली हैं।

पासोनियस- क्या तुम लोग मुझे छोड़ने की बातचीत कर रहे हो ? मैं फिर कहता हूँ, कि मैं विश्वास के योग्य नहीं हूँ। मैं द्रोही हूँ। मुझे ईरानियों के बहुत-से भेद मालूम हैं, एक बार उनकी सेना में पहुँच जाऊँ तो उनका मित्र बनकर सर्वनाश कर दूँ; पर मुझे अपने ऊपर विश्वास नहीं है।

एक यूनानी- धोखेबाज इतनी सच्ची बात नहीं कह सकता !

दूसरा- पहले स्वार्थांध हो गया था; पर अब आँखें खुली हैं !

तीसरा- देशद्रोही से भी अपने मतलब की बातें मालूम कर लेने में कोई हानि नहीं है। अगर वह अपने वचन पूरे करे तो हमें इसे छोड़ देना चाहिए।

चौथा- देवी की प्रेरणा से इसकी कायापलट हुई है।

पाँचवाँ- पापियों में भी आत्मा का प्रकाश रहता है और कष्ट पाकर जाग्रत हो जाता है। यह समझना कि जिसने एक बार पाप किया, वह फिर कभी पुण्य कर ही नहीं सकता, मानव-चरित्र के एक प्रधान तत्व का अपवाद करना है।

छठा- हम इसको यहाँ से गाते-बजाते ले चलेंगे। जन-समूह को चकमा देना कितना आसान है। जनसत्तावाद का सबसे निर्बल अंग यही है। जनता तो नेक और बद की तमीज नहीं रखती। उस पर धूर्तों, रँगे-सियारों का जादू आसानी से चल जाता है। अभी एक दिन पहले जिस पासोनियस की गरदन पर तलवार चलायी जा रही थी, उसी को जुलूस के साथ मंदिर से निकालने की तैयारियाँ होने लगीं, क्योंकि वह धूर्त था कि जनता की कील क्योंकर घुमायी जा सकती है।

एक स्त्री- गाने-बजानेवालों को बुलाओ, पासोनियस शरीफ है।

दूसरी- हाँ-हाँ, पहले चलकर उससे क्षमा माँगो, हमने उसके साथ जरूरत से ज्यादा सख्ती की।

पासोनियस- आप लोगों ने पूछा होता तो मैं कल ही सारी बातें आपको बता देता, तब आपको मालूम होता कि मुझे मार डालना उचित है या जीता रखना।

कई स्त्री-पुरुष- हाय-हाय, हमसे बड़ी भूल हुई। हमारे सच्चे पासोनियस !

सहसा एक वृद्धा स्त्री किसी तरफ से दौड़ी हुई आयी और मंदिर के सबसे ऊँचे जीने पर खड़ी होकर बोली- तुम लोगों को क्या हो गया है ? यूनान के बेटे आज इतने ज्ञानशून्य हो गये हैं कि झूठे और सच्चे में विवेक नहीं कर सकते ? तुम पासोनियस पर विश्वास करते हो ? जिस पासोनियस ने सैकड़ों स्त्रियों और बालकों को अनाथ कर दिया, सैकड़ों घरों में कोई दिया जलाने वाला न छोड़ा, हमारे देवताओं का, हमारे पुरुषों का, घोर अपमान किया, उसकी दो-चार चिकनी-चुपड़ी बातों पर तुम इतने फूल उठे। याद रखो, अबकी पासोनियस बाहर निकला तो फिर तुम्हारी कुशल नहीं। यूनान पर ईरान का राज्य होगा और यूनानी ललनाएँ ईरानियों की कुदृष्टि का शिकार बनेंगी। देवी की आज्ञा है कि पासोनियस फिर बाहर न निकलने पाये। अगर तुम्हें अपना देश प्यारा है, अपने पुरुषों का नाम प्यारा है, अपनी माताओं और बहुनों की आबरू प्यारी है तो मंदिर के द्वार को चुन दो। जिससे देशद्रोही को फिर बाहर निकलने और तुम लोगों को बहकाने का मौका न मिले। यह देखो, पहला पत्थर मैं अपने हाथों से रखती हूँ।

लोगों ने विस्मित होकर देखा- यह मंदिर की पुजारिन और पासोनियस की माता थी।

दम के दम में पत्थरों के ढेर लग गये और मंदिर का द्वार चुन दिया गया। पासोनियस भीतर दाँत पीसता रह गया।

वीर माता, तुम्हें धन्य है ! ऐसी ही माताओं से देश का मुख उज्ज्वल होता है, जो देश-हित के सामने मातृ-स्नेह की धूल-बराबर परवाह नहीं करतीं ! उनके पुत्र देश के लिए होते हैं, देश पुत्र के लिए नहीं होता।

( प्रेमचंद )
( विजय शंकर सिंह )
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Monday, 23 December 2019

एनआरसी और आशंका भरा नासंका ( सीएए ) / विजय शंकर सिंह

" आप को सड़क पर खड़े होकर छड़ी घुमाने का अधिकार है, पर तभी तक, जब तक कि वह छड़ी किसी की नाक में न लगे। " 

यह एक प्रसिद्ध उद्धरण है जो निजी स्वतंत्रता की सीमा रेखा तय करता है। नागरिकता संशोधन कानून ( नासंका ) या सीएए के पारित हो जाने के बाद देश भर में उसका विरोध शुरू हुआ और कहीं कहीं हिंसक भी हुआ। राजनीतिक विरोध प्रदर्शनों में धर्म का घालमेल घातक है। एनआरसी और सीएए के खिलाफ होने वाले प्रदर्शन अगर किसी भी धार्मिक स्थल में होते हैं तो उनका बहिष्कार किया जाना चाहिये। धर्म का राजनैतिक विरोधों में घालमेल न केवल निंदनीय है बल्कि यह भी उसी संविधान के प्रतिकूल है जिसके नाम और भावना पर हम सीएए का विरोध कर रहे हैं। सरकार को अराजकता फैलाने वाले हिंसक तत्वो से सख्ती से निपटना चाहिये।

नागरिकता संशोधन बिल पर काफी चर्चा हुयी और अंततः संसद ने बहुमत से उस कानून को मंजूरी दे दी। बिल और अब कानून बनने के बाद, विधिवेत्ताओं में यह चर्चा आम है कि संविधान की कसौटियों पर यह बिल खरा उतरता है या नहीं। इस बिल को लेकर अब तक कुछ 69 याचिकायें सुप्रीम कोर्ट में विभिन्न याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर की जा चुकी हैं। 18 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने इन याचिकाओं की सुनवाई की और सरकार को नोटिस जारी की तथा शीतावकाश के बाद जब अदालत बैठेगी तब इसकी सुनवायी होगी। लेकिन अदालत ने कानून के लागू होने पर कोई स्थगनादेश नहीं दिया है। कानून अब लागू है। हालांकि अब प्रधानमंत्री कह रहे हैं, कि एनआरसी के बारे में सरकार ने कोई फैसला ही नहीं लिया है। जबकि अमित शाह ने लोकसभा में एनआरसी लाने की बात मजबूती से कही थी। 

19 दिसंबर 2019 को देश भर में इस कानून के विरोध करने के लिये लोगों द्वारा धरना प्रदर्शन करने का आह्वान किया गया। जिन राजनीतिक दलों ने संसद में विरोध किया था, उन्होंने इसका सड़क पर भी विरोध करने का आह्वान किया। दिल्ली कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई, बेंगलुरु, हैदराबाद, लखनऊ, कानपुर, अहमदाबाद सहित पूरे देश मे प्रदर्शन हुए औऱ इससे देश मे साम्प्रदायिक भेदभाव बढाने वाला कानून कह कर इसका विरोध किया। आम जनता से लेकर ख्यातिप्राप्त विद्वान, बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक, वकील तथा अन्य लोग भी सड़को पर उतरे और गिरफ्तारी दी। सामान्य विश्वविद्यालयों के छात्र और अध्यापक तो सड़कों पड़ उतरे ही, पर अमूमन देश की मुख्य धारा और राजनीतिक प्रदर्शनों से अलग रहने वाले आईआईटी, औआईएम औऱ इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के छात्र भी सड़कों पर आए। इस आंदोलन का असर विश्वव्यापी रहा। दुनियाभर के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों के छात्रों ने सड़कों पर उतर कर भारतीय संविधान के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद की। यह आंदोलन अब भी चल रहा है।

अब यह सवाल उठता है कि लोग इतने आंदोलित क्यों हैं ? यह कानून किस प्रकार से भारतीय संविधान के स्थापित मानदंडों और प्राविधानों के विपरीत है ? सरकार लोगों को यह क्यों नहीं समझा पा रही है कि यह कानून देश के सर्वोच्च कानून, भारतीय संविधान के विपरीत नहीं है ? कैसे इससे जनता का हित सधेगा और कैसे यह कानून लंबे समय से चले आ रहे नॉर्थ ईस्ट में घुसपैठ की समस्या का समाधान करेगा ? सरकार ने जनता को समझाने की बात तो छोड़ ही दीजिए, सरकार ने इस कानून को पारित करने के पूर्व सभी राजनीतिक दलों को भी विश्वास में नहीं लिया और वह लोगों को यह विश्वास दिलाने में सफल नहीं हुई कि इस कानून से जनता का अहित नहीं होगा।

इस कानून से सबसे अधिक प्रभावित असम के लोग होंगे। असम की जिस समस्या से इस कानून का उद्गम हुआ है आइए उस पर एक चर्चा करते हैं। असम का महाभारत कालीन नाम प्राग्ज्योतिषपुर था जो कामरूप की राजधानी थी।1228 ई में चीनी मूल के बर्मा का एक राजा चाउ लुंग सिउ का फा,, ने इस पर अपना अधिकार कर लिया, जो ‘अहोम’ वंश का था, जिसके कारण, राज्य का नाम असम हो गया।1826 ई में अंग्रेजों ने असम जीत लिया और  1874 में संयुक्त असम, जिसमें आज के नागालैंड, मेघालय, मिजोरम और अरुणाचल भी शामिल थे, पर अंग्रेज़ चीफ कमिश्नर का राज शुरू हो गया.।

अंग्रेजों ने असम के पहाड़ों की ढलान पर चाय के बागान लगाना शुरू कर दिया और इन बागानों में काम करने के लिये बंगाल और बिहार से मजदूर जो हिंदू और मुसलमान दोनों ही थे, आये और यह मजदूर असम में ही बसने लगे। असम के तीन जिले आज के बांग्लादेश की सीमा से लगते हैं लेकिन फिर भी असम में बांग्ला भाषियों की एक बड़ी संख्या रहती है।
बंटवारे के दौरान और फिर उसके बाद लगातार लोग ईस्ट पाकिस्तान से आकर असम में बसते गए. आज़ादी के बाद पहले और दूसरे दशक में असम की आबादी 36 और 35 फीसदी बढ़ी. जो शेष भारत के आबादी वृध्दि की दर से,10 - 12 फीसदी अधिक थी। इससे असम के मूल निवासियों के मन में अपनी ज़मीन पर ही अल्पसंख्यक बनने का डर पैदा हो गया। मूल समस्या की जड़ यही है।

1972 तक सिक्किम और त्रिपुरा के अलावा नॉर्थ-ईस्ट के सभी राज्य असम का हिस्सा थे। ऐसे में असम की पूरी सीमा तब के पूर्वी पाकिस्तान से लगती थी जो 1971 में बांग्लादेश बना। तब तक बांग्लादेश से बहुत से लोग, भारत में मुख्य रूप से संयुक्त असम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में  आकर बसने लगे।. लेकिन संयुक्त असम के और हिस्सों, (जो बाद में अलग राज्य बन गए) में ये ज़्यादा दिन टिक न सके। क्योंकि वे इलाके जनजातीय बहुल और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों से भरे थे। इस कारण,  ज़्यादातर बांग्लादेशियों ने बंगाल, त्रिपुरा और असम में बसना पसंद किया। वे नागालैंड, मिजोरम, और अरुणाचल की ओर नहीं गये। इन घुसपैठियो में, बांग्लादेश से अच्छी खासी संख्या में हिंदू भी आकर  भारत में बस गए थे। धीरे धीरे असम के कई  सीमावर्ती इलाकों में बांग्लादेशियों की संख्या इतनी अधिक हो गई कि वे वहां के मूल निवासियों पर हावी होने लगे।  फिर असम में मूल निवासियों और घुसपैठियों में छिटपुट हिंसा भी होने लगी थी।

असम की एक विधानसभा सीट मंगलडोई के 1979 में हुए उपचुनाव में अचानक जब 70,000 वोटर बढ़ गए तो असम में इस अप्रत्याशित वृध्दि को लेकर हंगामा खड़ा हो गया और असम गण परिषद और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन ने असम से विदेशियों / बांग्लादेशियों को निवालने के लिये आंदोलन शुरू कर दिया। आसू एक पुराना छात्र संगठन था जो 1940 में दो फाड़ होकर  ऑल असम स्टूडेंट फेडरेशन और ऑल असम स्टूडेंट कांग्रेस हो गया लेकिन,1967 में दोनों मिल कर पुनः ऑल असम स्टूडेंट यूनियन बन गये।आसू के नेता, प्रफुल्ल कुमार महंता और असम गण परिषद का नेतृत्व बिरज कुमार शर्मा के पास था। दोनों ने मांग की कि 1961 के बाद असम में आए बांग्लादेशियो के नाम वोटर लिस्ट से हटाए जाएं और इनको यहां से खदेड़ा जाये। असम का यह आंदोलन असम आंदोलन कहलाया। असम आंदोलन की पूरी पृष्ठभूमि असमिया अस्मिता और  पहचान को लेकर थी. इसीलिए उनके निशाने पर वो सब थे जो असमिया नहीं थे। असम आंदोलन मुसलमानों के खिलाफ नहीं बल्कि, विदेशी या बांग्लादेश से आये हिंदू के भी उतना ही खिलाफ था।  बिहार और यूपी से गए लोगों को भी असम आंदोलन बाहरी ही मानता था। यह आंदोलन न तो तब सांप्रदायिकता के आधार पर शुरू हुआ था औऱ न अब हिंदू मुस्लिम आधार पर है।

1979 से असम आंदोलन तेज़ हो गया, और 1979 से लेकर 1985 असम समझौते तक राज्य में राजनीतिक अस्थिरता बनी रही।इसी की आड़ में यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम जैसे कुछ अलगाववादी संगठन, जो आतंकी संगठन थे, सक्रिय हो गए। 1983 में, असम के सभी क्षेत्रीय दलों ने राज्य विधानसभा के चुनावों का बहिष्कार किया। उनकी मांग थी कि, सरकार पहले घुसपैठियों के नाम वोटर लिस्ट से खारिज करे, तब चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो। लेकिन सरकार ने इसे नहीं माना, परिणामस्वरूप, चुनाव के दौरान जमकर हिंसा हुई। इसी बीच, 18 फरवरी, 1983 को नेली में 14 गांवों को घेरकर करीब 2,000 मुसलमानों की हत्या कर दी गई। इसके पीछे असम आंदोलन के लोगों का भी नाम आया। ऐसी अशन्ति के वातावरण में केवल, 126 विचानसभा की सीटों में से 109 सीटों पर ही चुनाव हुआ, और  कांग्रेस ने 91 सीटें जीतकर सरकार बना ली और हितेश्वर सैकिया नए मुख्यमंत्री बने। .

नेली नरसंहार के बाद, बिहार, बंगाल या भारत के ही किसी अन्य क्षेत्र के व्यक्ति को, बाहरी बताकर राज्य से बेदखल न किया जाए इस दृष्टिकोण को सामने रखकर इंदिरा गांधी की सरकार ने 1983 में एक और कानून बनाया जिससे सारा मामला और उलझ गया। यह कानून था इल्लीगल माइग्रेंट्स (डिटरमिनेशन बाय ट्राइब्यूनल) एक्ट, जो बना तो था, विदेशियों को असम से बाहर भेजने के लिए, लेकिन इसके ज़्यादातर  प्राविधान असम के मूल निवासियों को रास नहीं आये। कानून के मुख्य प्राविधान, यह थे,
● किसी विदेशी के खिलाफ शिकायत पर, शिकायतकर्ता को ही यह आरोप सिद्ध करना होगा कि आरोपी विदेशी है।
● अगर वह यह आरोप साबित भी कर देता है तो सरकार आरोपी को अपनी नागरिकता साबित करने का मौका देगी. इसके लिए उसे बस अपना राशन कार्ड देना होगा जिससे उसकी नागरिकता बनी रहेगी।
● साथ ही शिकायतकर्ता और आरोपी के घर तीन किलोमीटर के दायरे में होने चाहिए. नहीं तो शिकायत मान्य ही नहीं होगी।
इस जटिलता ने किसी भी विदेशी की पहचान करना, मुश्किल हो गया।

1984 में इंदिरा जी की हत्या के बाद,  राजीव गांधी, पीएम बने और 1985 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को अपार बहुमत मिला। 1985 में, राजीव गांधी की  सरकार ने असम आंदोलनकारियों से कई दौर की बातचीत के बाद, 14 अगस्त 1985 को एक समझौता किया, जो असम समझौता या असम अकॉर्ड कहा गया। भारत सरकार से हुये, इस समझौते पर, असम की तरफ से,  प्रफुल्ल महंता, बीके फुकान और ऑल असम संग्राम गण परिषद ने हस्ताक्षर किये । एक लंबे विवाद का यह तात्कालिक समाधान था।

असम समझौता 1985 के मुख्य प्राविधान निम्न थे,
● ऐसे विदेशी लोग जो पहले असम से बाहर निकाल दिए गए लेकिन फिर से वापस आ गए. उन्हें बाहर निकाला जाएगा.
● जो लोग 1 जनवरी, 1966 से 24 मार्च 1971 की मध्यरात्रि तक असम में आए, इन लोगों को विदेशी माना जाएगा. इन लोगों के नाम वोटर लिस्ट से हटाए जाएंगे. ऐसे लोगों को रजिस्ट्रेशन ऑफ फोरेनर रूल,1939 के तहत खुद को विदेशी नागरिक की तरह जिला पंजीकरण ऑफिस में रजिस्टर कराना होगा।
●  विदेशी नागरिकों की पहचान और उन्हें देश से बाहर निकालने की कार्रवाई के लिए 1 जनवरी 1966 से पहले असम में आए विदेशी नागरिक, जिनके नाम 1967 में हुए आम चुनाव की वोटर लिस्ट में था वो भारत के नागरिक माने जाएंगे.
● 25 मार्च, 1971 के बाद जो भी विदेशी असम में आए हैं उनकी पहचान कर असम से बाहर निकाला जाएगा।
● असम राज्य की सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषाई पहचान को बचाए रखने के लिए भारत सरकार संवैधानिक और प्रशासनिक मदद देगी।
● भारत सरकार ही सिटीजनशिप सर्टिफिकेट बांट सकेंगी.
इसके बाद, सीएम हितेश्वर सैकिया ने इस्तीफा दे दिया। 13-14 अक्टूबर, 1985 को गोलघाट में बने, एक राजनीतिक दल,  असम गण परिषद.को चुनाव में सफलता मिली और 32 साल के, प्रफुल्ल कुमार महंता. देश के सबसे युवा सीएम बने। लेकिन बांग्लादेशी लोगों को वापस भेजने के लिए कोई ठोस कदम नहीं किसी ने नहीं उठाया। सरकारें बदलती रहीं और समस्या बनी रही।

यह समाधान इस समस्या को सुलझा नहीं सका। असम के क्षेत्रीय दलों ने, आईएमडीटी एक्ट, को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने 2005 में इस एक्ट को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया। असम में विदेशियों के मामले पर फिर से सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई और सुप्रीम कोर्ट ने एक रजिस्टर जो नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन एनआरसी, जिसमें असम में रहने वाले भारतीय नागरिकों की पहचान दर्ज हो, बनाने का आदेश दिया। और यह भी कहा कि, जिसका नाम उसमें न हो, वह विदेशी माना जाए।  यह एनआरसी, 2015 से चल रही थी, जो सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में पूरी हुयी और उसके अनुसार, 19 लाख लोग भारतीय नागरिक नहीं माने गए जिसमें 14 लाख हिंदू और शेष मुस्लिम हैं।

घुसपैठिया समास्या के निदान के लिये बनायी गयी एनआरसी ने एक नयी समस्या उत्पन्न कर दी। इन घुसपैठियों का क्या किया जाय ? हालांकि बांग्लादेश देश ने शुरू में तो अपने नागरिकों के होने की बात से इंकार किया लेकिन बाद में उसने अपने नागरिकों की सूची मांगी और वापस लेने की पेशकश भी की। लेकिन यह भी कहा क़ि उनके यहां भी, पांच लाख बिहारी हैं जो बांग्लादेश में रह रहे हैं। भारत ने बांग्लादेश से उसके नागरिकों को वापस लेने के लिए कोई बातचीत नहीं की, क्योंकि जब बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना से इस समस्या के बारे में पूछा गया तो, उन्होंने कहा कि भारत ने इसे अपनी आंतरिक समस्या बताया है। सच तो यह है कि, भाजपा की असल समस्या 14 लाख हिंदुओ को लेकर है। जैसा परिणाम एनआरसी की जांच पड़ताल से आया है वैसे परिणाम की उम्मीद भाजपा को नहीं थी। अतः एनआरसी का विरोध असम सहित पूरे नॉर्थ ईस्ट में होने लगा। तब इनको नागरिकता देने के लिये सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून बनाया, जिससे धर्म के आधार पर 2014 तक असम में आये गैर मुस्लिम घुसपैठिया को नागरिकता देने का प्राविधान किया गया। धर्म पर आधारित इसी भेदभाव से यह कानून अनेक आशंकाओं को जन्म देता है।

इस प्रकार 1600 करोड़ रुपये और लम्बा समय खर्च करने के बाद एनआरसी की कवायद  न तो अपना उद्देश्य पूरा कर पायी और न ही असम की जनता को संतुष्ट कर पायी। अगर नागरिकता संशोधन कानून को एनआरसी से अलग कर के देखेंगे तो यह केवल असम तक ही सिमटी जान पड़ेगी, अगर हम इस कानून की संवैधानिकता की बहस फिलहाल छोड़ दें तब भी। लेकिन जब, जैसा कि गृहमंत्री ने लोकसभा में कहा कि एनआरसी पूरे देश मे लागू होगी, के साथ सीएए को जोड़ कर देखें तो हम एक बड़ी समस्या खुद ही पैदा करने जा रहे हैं। देशव्यापी एनआरसी में 130 करोड़ की आबादी को यह साबित करना पड़ेगा कि वह इस देश का नागरिक है। क्या दस्तावेज मांगे जाएंगे, वर्तमान आधार कार्ड और वोटर आईडी की क्या हैसियत होगी, यह अभी पता नहीं है। असम का अनुभव केवल घुसपैठिया को ही नहीं बल्कि सारे नागरिकों को आशंकित किये हुए हैं। फिर एक जटिल  अभियान के बाद अगर सबकुछ तय हो गया और जो एनआरसी में नहीं आ पाएंगे उनका क्या होगा ? तब सीएए की समय सीमा जो 31 दिसंबर 2014 है को बढ़ाई जाएगी या उसी के अनुसार जो गैर मुस्लिम हैं उन्हें नागरिकता दे दी जाएगी ? अब फिर मुस्लिम और तमिल हिंदुओ का क्या होगा ? क्योंकि सीएए में श्रीलंका सम्मिलित नहीं है और वे तमिल भी धार्मिक उत्पीड़न के शिकार है। उत्तर है, डिटेंशन कैम्प या उन्हें वापस भेजना, जहां से वे आये हैं। लेकिन क्या यह दोनों उपाय संभव हैं ? नहीं। लंबे समय तक हम मानवाधिकार और शरणार्थियों के प्रति सजग समाज और विश्व मे किसी को भी डिटेंशन सेंटर में रख कर सड़ा नहीं सकते और जैसी आर्थिक स्थिति आज भारत की हो चली है उसमे हम अपने नागरिकों को ही ढंग से रख सकें तो यही हमारी उपलब्धि होगी।

आज पूरा देश आंदोलित है। सीएए और नासंका ने लोगों विशेषकर मुस्लिम समाज को तमाम आशंकाओं से भर दिया है। मुस्लिम समाज की आशंका का एक मजबूत कारण असम की एनआरसी का अनुभव है। ऐसे में जगह जगह कानून व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो रही है। अफवाहें फैल रही है। सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड, नोटबंदी, जीएसटी, आर्थिक सुधारों के मुद्दे पर बेहद खराब और अविश्वसनीय रहा है। सरकार साख के संकट से जूझ रही है। नागरिक और सरकार के बीच एक अविश्वास का भाव है। ऐसी हालत में सरकार अगर कुछ सच भी कहे तो उसपर लोगों को यकीन नहीं हो रहा है। लोग आशंकित हैं और डरे हुए हैं। सरकार को पहले लोगो के मन से यह भय और आशंका निकालनी होगी। यह भय और आशंका केवल एनआरसी और नासंका को ही लेकर नहीं है, बल्कि, यह छात्रों में उनजे भविष्य और कैरियर को लेकर, युवाओं में रोजगार को लेकर, किसानों में उनकी खेतीबाड़ी को लेकर, मज़दूरों में उनके श्रम कानूनों को लेकर है, व्यापारियों में बाजार में घटती मांग को लेकर है, बड़े उद्योगपतियों में आर्थिक मंदी को लेकर है, समाज मे बढ़ते अपराध और भेदभाव को लेकर है, और अब नागरिकों में अपनी नागरिकता को लेकर हो रही है। सरकार को इस अशनि संकेत को समझना होगा और देश किसी संकट पंक में न फंस जाय, इसका उपाय और उपचार करना होगा।

© विजय शंकर सिंह

Wednesday, 18 December 2019

खुशवंत सिंह ने कहा था, बहुलतावादी संस्कृति को नकारना, भारत की अवधारणा के खिलाफ / विजय शंकर सिंह

अंग्रेजी के प्रसिद्ध पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह का यह उद्धरण,  द एंड ऑफ इंडिया, जो 2003 में प्रकाशित उनकी पुस्तक है, से लिया गया है। इस उद्धरण का पहले हिंदी अनुवाद पढ

‘हर फ़ासिस्ट सरकार को ऐसे समाज और समूहों की आवश्यकता पड़ती है, जिनका आसुरिकरण कर वे अपनीजड़ें जमा सकें। शुरुआत में तो यह एक या दो समूहों से शुरू होता है. लेकिन इसका अंत यहीं  नहीं समाप्त होता है। इसे नफरत पर आधारित एक आंदोलन से लगातार, जिंदा रखा जाता है। और यह लगातार डर और झगड़े का माहौल बनाकर ही जारी रखा जा सकता है. हममें से जो लोग इस वक्त सुरक्षित महसूस कर रहे हैं, क्योंकि हम मुस्लिम या ईसाई नही हैं, तो हम मूर्खो के स्वर्ग में रह रहे हैं। संघ ( आरएसएस ) पहले से ही वामपंथी इतिहासकारो और ‘पाश्चात्य तरीके’ से रहने वाले युवाओं को अपना निशाना बनाता रहा है। कल वह अपनी नफरत उन महिलाओं पर निकालेगा जो स्कर्ट पहनती हैं, उन लोगों पर निकालेगा जो मांस खाते हैं, शराब पीते हैं, विदेशी फिल्में देखते हैं, तीर्थयात्रा में मंदिरों में नहीं जाते हैं, दंत मंजन की जगह टूथपेस्ट इस्तेमाल करते हैं, वैद्य की जगह एलोपेथिक डॉक्टर्स के पास जाते हैं, ‘जय श्री राम’ बोलने की जगह हाथ मिलाकर या परस्पर चुम्बन कर एक-दूसरे का अभिवादन करते  हैं। कोई भी सुरक्षित नहीं है। अगर हम भारत को जीवित रखना चाहते हैं, तो हमें इन बातों को  समझना जरूरी है.। "

अब इसका मूल अंग्रेजी अंश पढें,
" Every fascist regime needs communities and groups, it can demonize in order to thrive. It starts with one group or two. But it never ends there. A movement built on hate can only sustain itself by continually creating fear and strife. Those of us today who feel secure because we are not Muslims or Christians are living in a fool's paradise. The Sangh is already targeting the Leftist historians, and ' westernized ' youth. Tomorrow it will turn its hate on women who wear skirts, people who eat meat, drink liquor, watch foreign films, don't go on annual pilgrimage to temples, use toothpaste instead of danth manjan, prefer allopathic doctor to vaids, kiss or shake hands in greetings instead of shouting Jai Shri Ram.. No one is safe. We must realize this, if we hope to keep India alive. "

2003 में प्रकाशित यह किताब मैंने पढ़ी नहीं है। पर कल जब एक प्रतिभावान और जागरूक बालिका सना गांगुली की एक इंस्टाग्राम पोस्ट नज़र से गुजरी तो इस किताब के बारे में उत्कंठा हुयी । किताब नेंट पर भी उपलब्ध है। उत्कंठावश जब शुरुआती कुछ पन्ने नेंट पर पढें तो किताब के बारे में, उत्सुकता भी बढ़ी और नयी पीढ़ी के प्रति गर्व भी हुआ कि, वह देश और दुनिया मे क्या घट रहा है, उसके प्रति अनजान और उदासीन नहीं है। सना गांगुली का यह पोस्ट डिलीट किया जा चुका है। डिलीट करने या डिलीट हो जाने का कारण महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है खुशवंत सिंह की भविष्यवाणी भरा यह कथन जो उन्होंने 2003 में प्रकाशित अपनी किताब, द एंड ऑफ इंडिया में लिखी थी।

यह किताब, 2003 में छपी है। खुशवंत सिंह इस पुस्तक में 1984 के सिख विरोधी दंगे, उड़ीसा के पादरी ग्राहम स्टेन्स की बर्बर हत्या,  2002 के गुजरात दंगों, नक्सल आन्दोलन आदि आदि तथा और भी कुछ ऐसी घटनाएं जो घृणा और विद्वेष पर आधारित हैं, का उल्लेख और उनकी विवेचना करते हैं । साथ ही वह, यह चेतावनी भी देते हैं कि अगर हम ऐसे ही, घृणा भरी विभाजनकारी राहों पर चलते रहे तो भारत के अंत की यह शुरुआत होगी। खुशवंत सिंह, अंग्रेजी के एक सिद्धहस्त लेखक, प्रखर पत्रकार और जीवंत व्यक्ति रहे हैं। उनके साथ भी मेरी एक अकस्मात और विचित्र परिस्थितियों में मुलाकात हो चुकी है। उससे उनकी जिंदादिली का पता चलता है।

भारत एक देश है पर विविधता से भरा हुआ। इसे यूरोपीय नेशन स्टेट की तरह नहीं देखा जा सकता है। मुसोलिनी और हिटलर के चश्मे से तो कत्तई नहीं। भारत एक  ऐसे क्रुसिबिल की तरह है जहां भांति भांति की नस्लें, धर्म,जाति, विचारधाराएं समय समय पर आती गयीं और फिर एक दूसरे से मिलते जुलते, सांस्कृतिक आदान प्रदान की दीर्घ परंपरा का निर्वाह करते हुए अपने अलग अलग अस्तित्व के साथ साथ एक मिलीजुली सभ्यता और संस्कृति का निर्माण भी करती रही हैं और यह सिलसिला आज भी चल रहा है। फ़िराक़ साहब ने अपने इस प्रसिद्ध शेर में इस सिलसिले को बेहद खूबसूरती से कहा है।
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़' 
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया !!
( फ़िराक़ गोरखपुरी )

खुशवंत सिंह ने अपनी किताब में इसी बहुलतावादी संस्कृति को नकार कर कट्टरता की विचारधारा को फैलाने के खतरे के प्रति आगाह किया है, और कहा है कि वह प्रवित्ति भारत की अवधारणा के विपरीत और भारत के अंत का प्रारंभ होगा। किताब मैंने अभी पूरी नहीं पढ़ी है, अतः फिलहाल इतना ही। 

© विजय शंकर सिंह 

क्या हम एक बड़ी आर्थिक मंदी की ओर बढ़ रहे हैं / विजय शंकर सिंह

नागरिकता संशोधन कानून ( सीएए ) के तमाम विरोध और तमाशो के बीच वित्तमंत्री थोड़ी चैन से हैं। केंद्र सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने शुक्रवार को हार्वर्ड विश्वविद्यालय में एक रिसर्च पेपर का प्रजेंटेशन करते हुए कहा कि देश की अर्थव्यवस्था आईसीयू की तरफ बढ़ रही है। वहीं एनबीएफसी कंपनियों में जो संकट है, वो एक भूकंप जैसा है।  ट्विन बैलेंस शीट (टीबीएस) संकट की दूसरी लहर इकोनॉमी को प्रभावित कर रही है।  

2004 से 2011 तक स्टील, पावर और इन्फ्रा सेक्टर के कर्ज जो कि एनपीए में बदल गए उन्हें टीबीएस-1 कहा है। सुब्रमण्यन ने कहा कि यह सामान्य मंदी नहीं है, बल्कि इसे भारत की महान मंदी कहना उचित होगा, जहां अर्थव्यवस्था के गहन देखभाल की जरूरत है।  

2017-18 तक रियल स्टेट सेक्टर के 5,00,000 करोड़ रुपये के लोन में एनबीएफसी कंपनियों का हिस्सा है।यह संकट निजी कॉरपोरेट कंपनियों की वजह से आया है 2014 में भी दी थी चेतावनी सुब्रमण्यन ने कहा कि पद पर रहते हुए 2014 में भी सरकार को टीबीएस को लेकर के चेतावनी दी थी, लेकिन उनकी सुनी नहीं गई। पहले चरण में बैंकों को एनपीए बढ़ने से मुश्किलें हुई थीं, वहीं अब दूसरे चरण में नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनियों और रिएल एस्टेट फर्मों के नकदी संकट से है।

पिछले साल सितंबर में सामने आया आईएलएंडएफएस का संकट भूकंप जैसी घटना थी। सिर्फ इसलिए नहीं कि आईएलएंडएफएस पर 90,000 करोड़ रुपये के कर्ज का खुलासा हुआ, बल्कि इसलिए भी क्योंकि इससे बाजार प्रभावित हुआ और पूरे एनबीएफसी सेक्टर को लेकर सवाल खड़े हो गए।

उन्होंने कहा कि बड़ी मात्रा में नकदी नोटबंदी के बाद बैंकों में जमा हुए हैं और इस राशि का बड़ा हिस्सा गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां(एनबीएफसी) को दिया है। इसके बाद एनबीएफसी ने इस राशी को रियल एस्टेट सेक्टर में खर्च किया है। साल 2017-18 तक रियल एस्टेट के पांच लाख करोड़ रुपये के बकाया अचल संपत्ति ऋण के आधे भाग के लिए गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां जिम्मेदार थे। 

© विजय शंकर सिंह 

छात्रों का यह आंदोलन अब रोटी कपड़ा मकान शिक्षा स्वास्थ्य के मुद्दों पर हो / विजय शंकर सिंह

छात्रों को चाहिए कि वे अपना आंदोलन का एजेंडा, एनआरसी सीएए से थोड़ा अलग कर के सस्ती शिक्षा और सस्ते स्वास्थ्य के मुद्दे पर ले आएं। फेसबुक के मित्रो से भी यही अनुरोध है कि अब हमें आर्थिक मुद्दों पर ही केंद्रित होना चाहिये। क्योंकि सरकार इसी मुद्दे पर बगलें झांकने लगती है। अगर देश की आर्थिक स्थिति ठीक होती और आर्थिक एजेंडे पर सरकार की कुछ उपलब्धियां होती तो सरकार बिलकुल ही एनआरसी के चक्कर मे नहीं पड़ती। पर सरकार करे भी तो क्या करे। दरअसल भाजपा के पास कोई अर्थदृष्टि है ही नहीं। क्योंकि इन्होंने इस पर कभी सोचा ही नहीं है। आप जनसंघ से लेकर आज तक भाजपा के आर्थिक प्रस्तावों को देख लीजिए कहीं भी कोई ठोस आर्थिक सोच मिलेगी ही नहीं। निजीकरण की बात मिलेगी, पूंजीवाद की बात मिलेगी पर पूंजीवाद के विकास के भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव आपको इनकी सोच में मिलेगा। 

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल-नवंबर, 2019 के बीच सेंट्रल जीएसटी कलेक्शन बजट अनुमान से 40 फीसद कम रहा है। अब इस घाटे की पूर्ति के लिए दिसंबर 2019 से मार्च 2020 के बीच हर महीने 1 लाख 10 लाख करोड़ रुपये का जीएसटी कलेक्शन लक्ष्य रखा गया है। जब से जीएसटी लागू हुआ है आज तक जीएसटी का मंथली कलेक्शन कभी भी 1 लाख 4 हजार करोड़ नही पुहंचा है। चालू वित्त वर्ष के आठ महीनों में से चार महीनों का जीएसटी कलेक्शन एक लाख करोड़ रुपये से ऊपर रहा है। इनमें से सिर्फ एक महीने वसूली का आंकड़ा 1.1 लाख करोड़ रुपये के ऊपर रहा है, लेकिन अब कहा जा रहा है कि लक्ष्य तक पुहंचने के लिए हर महीने 1 लाख 10 हजार करोड़ रुपये चाहिए। यह कैसे होगा ? इसका कोई जवाब सरकार के पास नही है! अब तो आरबीआई के गवर्नर को भी मंदी दिखने लगी है  वैसे हम हर महीने 1 लाख 10 हजार करोड़ वसूलने से भी हम लक्ष्य तक नही पुहंचेंगे, लक्ष्य के लिए इन चार महीनों में किसी एक महीने में टैक्स कलेक्शन 1.25 लाख करोड़ रुपये होना चाहिए।

सरकार जब आर्थिक दृष्टिकोण से विफल होने लगी तो इसने राष्ट्रवाद का अप्रासंगिक मुद्दा छेड़ दिया। जब देश आजाद होने के लिये व्यग्र था, एक लंबी और विविधता भरी लड़ाई लड़ रहा था,  एक व्यापक राष्ट्रवाद के प्रति समर्पित था, जब ये जिन्ना के बगलगीर हो, अंग्रेजों के मुखबिर बने थे और हिटलर मार्का संकीर्ण और श्रेष्ठतावादी राष्ट्रवाद के विभाजनकारी मार्ग पर बढ़ रहे थे। आज भी बांटने और लड़ाने की वही पुरानी आदत गयी नहीं है। यह एनआरसी और सीएए उसी सोच का परिणाम है। सरकार को कहिये कि वह उसे लागू करे। इसकी नियमावली पहले बने। महकमे बनें। बजट तय हो। कुछ तो शुरू करे। रातोरात न तो कोई देश से बाहर भेजा जा रहा है और न डिटेंशन कैंप बन जा रहे हैं। असम से सीखिये। उन्होंने इस आंदोलन को आज भी, धर्म और साम्प्रदायिक भेदभाव से बचाकर रखा है। सरकार और सत्तारूढ़ दल की पूरी कोशिश है कि यह मुद्दा साम्प्रदायिक रंग ले ले। दरअसल इसके अलावा उन्हें कुछ आता ही नहीं है। सरकार की इस कोशिश को प्रछन्न रूप से कामयाब मत होने दीजिए। 

डिटेंशन कैंप भी अब बनने शुरू हो जाने चाहिये। इसका ठेका भी एलेक्टोरेल बांड से पैसा भेजने वाले लोगों की हैसियत देख कर हो। क्योंकि सरकार का इरादा तो चट्टान की तरह है। अब जब हुकूमत पत्थर हो जाय तो उससे सिर नहीं टकराना चाहिये। उस पर चढ़ना चाहिये। उसे चढ़ कर पार करना चाहिये। क्योंकि चट्टान जड़ हो जाती है। जड़ता हमारी संस्कृति में हेय समझी गयी है। चेतन बनिये । चैतन्य रहिये। सरकार को एनआरसी लाने दीजिए। अगर कागज़ात हैं आप के पास तो सम्भाल के रखिये। जब सरकार उसे मांगने आएगी तो देखा जाएगा। पहले वह मांगने की स्थिति तक तो आये। पढ़ाई लिखाई के डिग्री की चिंता नहीं करनी है। यह सरकार डिग्री नहीं मांगेगी। डिग्री की बात करते ही सरकार शरमाने लगती है। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट ने कह रखा है कि आधार और वोटर आईडी है तो व्यक्ति नागरिक है। सुप्रीम कोर्ट ने आज पचास याचिकाओं पर नोटिस जारी की है। सुनवायी हो ही रही है। 

अहिंसक विरोध करें। लेख लिखें। सेमिनार आयोजित करें। पढ़ाई के साथ साथ लोगो जो आर्थिक मुद्दों पर ले जाँय। महंगाई, बिगड़ती आर्थिक हालात, बेरोजगारी, और सरकारी दुर्व्यवस्था की ओर लोगो को ले जांय। अपनी बात कहें और समझाएं । हर सरकार को हिंसक आंदोलन सूट करता है। हिंसक आंदोलन का दमन आसान होता है। क्योंकि सुरक्षा बलों को हिंसक भीड़ पर बल प्रयोग करने का अवसर कानूनन मिल जाता है। अहिंसक आंदोलन अक्सर सुरक्षा बलों को खिजा देता है। क्योंकि वहां धैर्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अगर अहिंसक आंदोलन पर नाजायज बल प्रयोग होता है तो उसकी बदनामी सरकार औऱ सुरक्षा बलों पर आती है। इससे दोनों ही बचना चाहते हैं।  गांधी जी यह मर्म समझ गए थे। सार्वजनिक संपत्ति, प्रकारांतर से हम सबकी सम्पत्ति है। केवल इलेक्टोरल बांड से घूस लेने वाले राजनीतिक दलों की ही नहीं। 

हिंसक आंदोलन अक्सर विफल हो जाते हैं। शांतिपूर्ण आंदोलन एक भ्रम है। अमूमन कोई भी आंदोलन शांतिपूर्ण होता नहीं है। उसमें हिंसा होती ही है। जब महात्मा गांधी द्वारा संचालित जन आंदोलन अहिंसक नही रह पाए तो शेष आंदोलन कैसे अहिंसक रह पाएंगे। उदाहरण के लिये आप 1921 का असहयोग आंदोलन और 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन का उल्लेख कर सकते हैं। पर एक अपवाद भी है। दो साल पहले किसानों का मुंबई लांग मार्च जो वामपंथी दलों द्वारा संचालित था वह पूरी तरह से अहिंसक रहा और उसकीं प्रशंसा भी हुयी।  चाहे आंदोलनकारी उत्तेजित होकर खुद ही हिंसक हो जाँय या कोई बाहरी असामाजिक तत्व उसमे घुस कर हिंसा फैला दें। 

ऐसे हिंसक आंदोलन टूटते हैं। हिंसा, उन्मदावस्था का परिणाम होती है। उन्माद एक अस्थायी भाव है। बराबर आप क्रोध, घृणा, प्रतिशोध, और हिंसा के भाव मे नहीं रह सकते हैं। विज्ञान का यह सिद्धांत कि हर चीज़ अपनी सामान्य दाब और तापक्रम पर आकर स्थिर हो जाती है, मनोभावों के लिये भी लागू होता है।  पुलिस सबसे अधिक असहज होती है अहिंसक धरने और प्रदर्शन से। अगर शांतिपूर्ण  धरना चल रहा है और आंदोलनकारी व्यवस्थित तरह से उसे लगातार चला रहे हैं, केवल भाषण और नारेबाजी हो रही है और कोई हिंसा नहीं हो रही है तो अक्सर ऐसे आंदोलन के समय पुलिस केवल एक घेरा बनाकर  बैठ जाती है। आंदोलनकारी और पुलिस, दोनों ही एक दूसरे को थका देना चाहते है। तब पुलिस और प्रशासन न तो बल प्रयोग कर पाता है और न हीं आंदोलनकारियों को दौड़ा ही पाता है। 

ऐसी स्थिति में, तब अलग से आंदोलन को खत्म करने के लिये आंदोलनकारी नेताओ और प्रशासन की तरफ से आपसी बातचीत भी होती रहती है और समस्या के समाधान तक पहुंचने की कोशिश होती है। अक्सर बातचीत सफल भी रहती है। यह आपसी बातचीत करने वालों के स्वभाव और कौशल पर भी निर्भर करता है। 

लेकिन हिंसा के बाद अगर सार्वजनिक संपत्ति जैसे बस, रेल, डाकखाने या सरकारी इमारतें आदि में आगजनी और तोड़फोड़ होती है तो उसमें मुक़दमे कायम होते हैं और फिर कानूनी कार्यवाही होती है। हिंसा होते ही पुलिस को आंदोलनकारियों को भगाने और गिरफ्तार करने का अवसर मिल जाता है। अब चूंकि सीसीटीवी कैमरे आदि लगभग सभी महत्वपूर्ण जगहों पर लग गए  हैं तो, ऐसी हालत में उपद्रव करने वालों की पहचान आसानी से हो जाती है। और फिर उनकी धरपकड़ होने लगती है। 

जन आंदोलनों में व्यापक हिंसा एक इधर एक आदत सी बन गयी है। राजस्थान में होने वाला गुर्जर आरक्षण आंदोलन, हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन, आदि हाल में हुए व्यापक हिंसक आंदोलन रहे हैं। इनमें मुक़दमे भी कायम हुये हैं और जांच कमीशन भी बैठे हैं। पर न तो मुकदमों में कुछ उल्लेखनीय प्रगति हुयी और न ही जांच कमीशन के रिपोर्ट की सिफारिश मांगी गयीं। शांति हुयी सब भूल गए। इससे आंदोलनकारियों का हौसला बढ़ता है और भविष्य का आंदोलन और हिंसक हो जाता है। 

हरियाणा में जब जाट आरक्षण के समय हिंसक आंदोलन और व्यापक तोड़फोड़ हुयी तो उसकी जांच के लिये पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह सर की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी गठित हुयी। उन्होंने जांच तो की और अपनी रिपोर्ट भी सरकार को सौंपी, पर जब उन्होंने हिंसक गतिविधियों पर लगाम लगाने के लिये अपनी सिफारिशों की अंतिम रिपोर्ट तैयार की तो सरकार ने उन्हे वहीं रोक दिया। प्रकाश सिंह ऐसे पुलिस अफसर नहीं हैं कि वे डिक्टेटेड लाइन पर अपनी जांच रिपोर्ट सौंपे। उनकी रिपोर्ट से हरियाणा के असरदार जाट नेता और अफसर जब घिरने लगे तो उन्हें मना कर के सरकार ने खुद को असहज होने से बचाया। 

पश्चिम बंगाल में हर आंदोलन हिंसक हो ही जाता है। पहले भी, वहां जब ट्राम और बस के भाड़े में थोड़ी सी भी वृध्दि होती थी तो लोग सड़कों पर आ जाती थी और ट्राम बस तथा अन्य सरकारी संपत्ति फूंक दी जाती थी। बंगाल में ऐसे हिंसक आंदोलनों के उल्लेख से इतिहास भरा पड़ा है। यही स्थिति असम और नॉर्थ ईस्ट की भी है। छोटे छोटे जनजाति कबीलों में बंटा नॉर्थ ईस्ट अक्सर मिथ्या अस्मिता के सवाल पर एक दूसरे से उलझता रहता है। यह कबिलाई संस्कृति लोगों को एकजुट तो किये ही रहती है और उन्हें हिंसक बना देती है। 

अंग्रेजों के समय जब ऐसी व्यापक हिंसा होती थी तो वे, नुकसान की भरपाई के लिये आसपास की आबादी पर सामूहिक जुर्माना लगाते थे। जुर्माना कुछ वसूल होता था, तो कुछ नहीं होता था। पर इससे लोगों में कार्यवाही का डर बना रहता था और भविष्य में असामाजिक तत्व थोड़ा डरते भी रहते थे। 

© विजय शंकर सिंह 

Monday, 16 December 2019

कानून - घुसपैठ, नागरिकता संशोधन कानून और संविधान. / विजय शंकर सिंह

1947 में भारत आज़ाद तो हुआ पर दो भागों में बंट कर। एक भाग धार्मिक आधार पर इस्लामी मुल्क बना, दूसरा भाग जिसने स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों और भारतीय संस्कृति की आत्मा सर्वधर्म समभाव के मार्ग को चुना एक उदार और पंथनिरपेक्ष देश बना रहा। बंटवारे की बात जब चल रही थी तो शायद ही किसी को यह अंदाजा था कि देश धर्म के आधार पर, दुनिया का सबसे बड़ा हिंसक विस्थापन अपनी पहली आज़ाद सुबह को देखेगा। लेकिन हमने देखा। लाखों की हत्या, आगजनी, हिंसा, बर्बरता और करोड़ो का विस्थापन। इसे नियति का खेल कहें, या हमारे महान नेताओं का बौनापन, या अंग्रेजों की कुटिल चाल का सफल होना या सबकुछ मिलाजुलाकर कहें तो, यह वह सुबह नहीं थी, जिसकी उम्मीद हमने की थी। पर सुबह आयी और धीरे धीरे वह तमाम भी हो गयी। हमने अपनी राह पकड़ी और पाकिस्तान ने अपनी। 

यह बात बिल्कुल सही है कि 1947 के बंटवारे के बाद पाकिस्तान के दोनों हिस्सों में और 1971 के बाद बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न हुआ है। पाकिस्तान में शुरुआत में यह उत्पीड़न, हिंदू, सिख और ईसाइयों का हुआ, फिर बाद में उत्पीड़ित जमात में, अहमदिया, शिया आदि गैर सुन्नी फिरके के इस्लामी मतावलंबी भी शामिल हो गए।  यह उत्पीड़न धर्म के नाम हुआ है। इसका कारण धर्मांधता और धार्मिक कट्टरता रही है। 1971 के समय जब बांग्लादेश युद्ध हुआ तो बांग्लादेश से लाखों की संख्या में शरणार्थी भारत मे आये। इसमे हिन्दू भी थे और मुसलमान भी। 1971 में हुआ उत्पीड़न धर्म आधारित भी था और पाकिस्तान के दमन का परिणाम भी। इसी उत्पीड़न के दर्द से स्वतंत्र बांग्लादेश का जन्म हुआ। जब बांग्लादेश बना तो सबसे पहले उसे एक स्वतंत्र देश के रूप मे मान्यता, भारत ने दी और फिर भूटान ने। बाद में रूस सहित 8 अन्य देश भी सामने आए और बांग्लादेश को एक सार्वभौम देश मान लिया गया।  बाद में तो सभी देशों ने बांग्लादेश को मान्यता दे दी। अंत मे पाकिस्तान ने भी बांग्लादेश को स्वतंत्र तथा संप्रभु राष्ट्र मान लिया । इस प्रकार धर्म राष्ट्र का आधार बन सकता है, यह सिद्धांत खंडित हो गया। सावरकर और जिन्ना के सिद्धांतों का यह सुखद अंत था। 

आज़ादी के बाद जब भारत का संविधान बना तो नागरिकता के विंदु का भी उसमे समावेश किया गया। संविधान के अनुच्छेद 11 के अंतर्गत संसद को यह अधिकार दिया गया कि संसद नागरिकता के संबंध में मापदंड तय करे और एक विस्तृत कानून बनाये। क्योंकि देश बंट चुका था। दोनों ही देशों में धार्मिक आधार पर आबादी का विस्थापन जारी था। दंगे भी भड़क रहे थे। भारत सरकार शरणार्थियों के पुनर्वास कार्य मे लगी थी। यह बेहद कठिन समय था। इसी अधिकार के अंतर्गत, संसद ने  एक नागरिकता कानून, 1955 पारित किया। इस अधिनियम में यह बताया गया है कि 26 जनवरी, 1950 के बाद से भारत का नागरिक कौन होगा? कैसे उनकी नागरिकता समाप्त की जा सकती है। 

नागरिकता अधिनियम, 1955 के अंतर्गत  भारत का नागरिक होने की कुछ शर्तें हैं. इस कानून में नागरिकता के आधार तय किए गये हैैं।  1955 के नागरिकता अधिनियम में,  जन्म को भारत की नागरिकता का आधार बताते हुए कहा गया कि 
" अगर 26 जनवरी, 1950 के बाद किसी का जन्म भारत में हुआ है तो उसे भारत का नागरिक माना जाएगा । " 
लेकिन इस नियम के बाद यह समस्या आ गयी कि माता पिता के बारे में कोई नियम या मानक  नहीं किये गए थे। जन्म से नागरिकता के सिद्धांत के अनुसार, अगर किसी विदेशी का बच्चा भी भारत में पैदा होता, तो उसे अपने आप संवैधानिक तौर पर भारत की नागरिकता मिल जाती। फिर इस ऐक्ट में 1986 में संशोधन हुआ ।1986 के इस संशोधन में  बताया गया कि 26 जनवरी, 1950 के बाद भारत में पैदा हुआ शख्स भारत का नागरिक होगा लेकिन उसके माता-पिता दोनों का या उनमें से किसी एक का भारतीय नागरिक होना ज़रूरी है। 

मूल अधिनियम में, यह भी कहा गया था कि 
" 26 जनवरी, 1950 के बाद से विदेश में पैदा हुआ वो व्यक्ति भी भारत का नागरिक होगा जिसके पिता भारत के नागरिक होंगे "
लेकिन यह संशोधन लिंग के आधार पर भेदभावपूर्ण था क्योंकि पिता का उल्लेख तो था, पर माता का उल्लेख नहीं था। इसलिए 1992 में पुनः इस एक्ट में संशोधन हुआ और यह प्रावधान जुड़ा कि ' 26 जनवरी, 1950 के बाद से विदेश में पैदा हुआ वह व्यक्ति भारत का नागरिक माना जाएगा जिसके पिता या माता दोनों या दोनों में कोई एक भी भारत का नागरिक हो। " 
इसके बाद एक संशोधन और हुआ. जिसमें जोड़ा गया कि नागरिकता तभी मिलेगी जब पैदा होने के साल भर के अंदर बच्चे को उस देश की भारतीय एम्बेसी में रजिस्टर कराया गया हो.

पंजीकरण के आधार पर भी भारत के नागरिक होने का अधिकार मिलने का नियम इस एक्ट में है. जैसे अगर किसी शख्स ने भारत के नागरिक से शादी की तो उसे भारत की नागरिकता मिलेगी. लेकिन इसके लिए शर्त ये थी कि जिस नागरिक से शादी हो रही है वो 7 साल से भारत में रह रहा हो.

साल 2003 में इस कानून में फिर संशोधन हुआ। जिसमें कहा गया कि, 
" 26 जनवरी, 1950 के बाद भारत में पैदा हुआ व्यक्ति भारत का नागरिक होगा लेकिन उसके माता और पिता दोनों भारत के नागरिक होने चाहिए, या माता-पिता में से एक भारत का नागरिक हो और दूसरा अवैध प्रवासी न हो. प्रवास के सारे क़ानूनी कागज़ात उसके पास होने चाहिए । "

नागरिकता अधिनियम 1955 के अंतर्गत कोई भी अवैध प्रवासी भारत का नागरिक नहीं हो सकता है। इस एक्ट के तहत उन लोगों को अवैध प्रवासी माना जाएगा जो या तो बिना ज़रूरी कागज़ों के भारत में रह रहे हैं, या वीज़ा की अवधि ख़त्म होने के बाद भी भारत में रह रहे हैं। अवैध तौर पर रह रहे प्रवासी को द फॉरेनर्स एक्ट 1946 और द पासपोर्ट एक्ट 1920 के अनुसार, या तो जेल भेजा जा सकता है या उनके मूल देश डिपोर्ट किया जा सकता है। 

इसी प्रकार नागरिकता अधिनियम 1955 में  नागरिकता समाप्त करने के नियम भी तय किए गए थे। जैसे, 
● स्वैच्छिक त्याग. यानी कोई, अपने आप ही, अपनी नागरिकता छोड़ दें.
● टर्मिनेशन. माने किसी की नागरिकता बर्ख़ास्त कर दी जाए। अगर  किसी ने किसी अन्य देश की नागरिकता ले ली तो भारत की नागरिकता स्वतः खत्म हो जाएगी.
● अगर नागरिक किसी तरह के राष्ट्र विरोधी काम में लिप्त पाया जाता है, जैसे, किसी दुश्मन देश के लिए जासूसी कोई कर रहा हों या युद्ध में देश के ख़िलाफ़ काम कर रहा हो,  तो उसकी नागरिकता रद्द की जा सकती है।

अब  नागरिकता  कानून 1955 में 2019 के संशोधन के पारित होने के बाद अब अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान के अल्पसंख्यक बिना किसी वैध दस्तावेज के भारत में रहने के हकदार हो जाएंगे। पहले ऐसा होने के लिए उन्हें भारत में 12 साल शरणार्थी के तौर पर गुज़ारना होता था। लेकिन नए बिल के अनुसार, वह बस 7 साल में ही इसके लिए अर्ह हो जाएंगे। सरल शब्दों में कहें तो सरकार इस बिल के द्वारा ‘अवैध प्रवासियों’ की परिभाषा बदलने की तैयारी कर रही है। इस बिल को पहली बार लोकसभा में 15 जुलाई, 2016 को पेश किया गया था। लेकिन राज्यसभा में इसे पेश नहीं किया गया था। 

कानून में जिन अल्पसंख्यक समुदाय का ज़िक्र है उसमें, पाकिस्तान, बांग्लादेश और आफगानिस्तान के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्म के लोग अल्पसंख्यक हैं। 4 जनवरी, 2019 को सिलचर की रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस बिल को पास कराने की बात की थी। क्योंकि असम में ऐसे लोगो की अच्छी खासी संख्या है, जो बांग्लादेश से आए हैं और धर्म से हिंदू हैं. अब उन्हें भारत में रहने का संवैधानिक हक मिल जाएगा। देश भर में,  इस कानून के सम्बंध में, तर्क वितर्क हो रहा है, लेकिन विरोध में आवाज़ें ज़्यादा मुखर हो रही हैं। सरकार का कहना है कि 
" जिन लोगों का धार्मिक आधार पर उत्पीड़न हो रहा है, संपत्तियां ज़ब्त की जा रही हैं, पूजा-पाठ पर हमले किए जा रहे हैं, महिलाओं को निशाना बनाया जा रहा है उन्हें सहज सरल तरीक़े से नागरिकता देना ही इस संशोधन का उद्देश्य है। इसे सांप्रदायिक दृष्टिकोण से देखना बंद किया जाना चाहिए। घुसपैठिए, घुसपैठिए होते हैं, उनमें जो लोग उत्पीड़न के कारण आते हैं, उनमें अंतर करना हमारा नैतिक और संवैधानिक कर्तव्य बनता है। "

नागरिकता संशोधन बिल जब पेश हो ही रहा था तो, पूरे नॉर्थ-ईस्ट में भारी विरोध हो रहा है।असम के किसान नेता अखिल गोगोई जो  अब यूएपीए  के अंतर्गत निरुद्ध हैं, ने जब बिल पेश हो रहा था तो कहा था, 
“भारत का संविधान हमारे सांसदों को भारतीय नागरिकों के हक में काम करने का अधिकार देता है लेकिन मौजूदा सरकार बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान जैसे देशों के नागरिकों को यहां लाकर बसाने के लिए यह बिल लेकर आई है। भले ही इस बिल से असम के लोगों का जीवन खतरे में क्यों न पड़ जाए। यह बिल पूरी तरह से असंवैधानिक है और हम इसका विरोध करते है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में लिखा हुआ है कि धर्म के आधार पर किसी को नागरिकता नहीं दी जा सकती. भाजपा इस विधेयक के ज़रिए हिंदूत्व का एजेंडा मज़बूत करना चाहती है.”
इस कानूूून पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि
" यह कानून  भारत के संविधान के मूल सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है। भारत और पाकिस्तान जब दो देश बने थे तो पाकिस्तान मुसलमानों का देश बना था लेकिन हिंदुस्तान की कल्पना यह थी कि यह सभी धर्मों, जाति के लोगों के लिए बराबरी का देश होगा। "

इस कानून पर अंतरराष्ट्रीय जगत में भी सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं हुयी है। पाकिस्तान और बांग्लादेश द्वारा की गयी आपत्तियों को दरकिनार भी कर दें तो संयुक्त राष्ट्र संगठन की आपत्ति को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार निकाय ने इस कानून पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये कहा है  कि,
" इस कानून की प्रकृति ही 'मूल रूप से भेदभावपूर्ण' है। नए नागरिकता कानून में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के गैर मुस्लिम उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने का प्रावधान है। "
संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार निकाय के प्रवक्ता जेरेमी लॉरेंस ने जेनेवा में कहा, 
"'हम भारत के नए नागरिकता (संशोधन) कानून 2019 को लेकर चिंतित हैं, जिसकी प्रकृति ही मूल रूप से भेदभावपूर्ण है। "
उन्होंने आगे कहा, 
" संशोधित कानून भारत के संविधान में निहित कानून के समक्ष समानता की प्रतिबद्धता को और अंतराष्ट्रीय नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार नियम तथा नस्लीय भेदभाव उन्मूलन संधि में भारत के दायित्वों को कमतर करता दिखता है, जिनमें भारत एक पक्ष है जो नस्ल, जाति या धार्मिक आधार पर भेदभाव करने की मनाही करता है। "
यूएनओ के लॉरेंस ने आगे कहा कि 
" भारत में नागरिकता प्रदान करने के व्यापक कानून अभी भी हैं, लेकिन ये संशोधन नागरिकता हासिल करने के लिए लोगों पर भेदभावपूर्ण असर डालेगा। प्रवास की स्थिति को देखे बिना, सभी प्रवासी सम्मान, संरक्षण और अपने मानवाधिकारों की पूर्ति के हकदार हैं। मात्र 12 महीने पहले ही भारत ने 'ग्लोबल कॉम्पैक्ट फॉर सेफ, रेगुलर एंड ऑरडरली माइग्रेशन' का समर्थन किया था। इसके तहत राज्य बचनबद्ध है कि वह सुरक्षा की स्थिति में प्रवासियों की जरूरतों पर प्रतिक्रिया देगा, मनमानी हिरासत और सामूहिक रूप से देश निकाले से बचेगा और सुनिश्चित करेगा कि प्रवासियों से संबंधित व्यवस्था मानवाधिकार आधारित हो। यह मजबूत राष्ट्रीय शरण प्रणाली के जरिए होना चाहिए था जो समानता और भेदभाव नहीं करने पर आधारित है। यह उन सभी लोगों पर लागू होना चाहिए जिन्हें वास्तव में उत्पीड़न और अन्य मानवाधिकारों के हनन से संरक्षण की जरूरत है और इसमें नस्ल, जाति, धर्म, राष्ट्रीयता और अन्य का भेद नहीं होना चाहिए। हम समझते हैं कि भारत का उच्चतम न्यायालय नए कानून की समीक्षा करेगा और उम्मीद करते हैं कि भारत कानून की अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों के साथ अनुकूलता पर सावधानीपूर्वक विचार करेगा। " 

अब जरा इस कानून की पड़ताल संविधान के आलोक में करते हैं। नागरिकता कानून में यह संशोधन इजरायली होम लैंड की अवधारणा पर आधारित है। 1948 में इजरायल का जन्म यहूदियों के होमलैंड के रूप में हुआ था। इस संशोधन का आधार धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक समुदाय का उत्पीड़न है। लेकिन सभी अल्पसंख्यक समुदायों का उल्लेख करते हुए मुस्लिम समाज को अलग कर दिया गया है। यह तर्क दिया गया है कि, वे तीनों देश जहां अल्पसंख्यक उत्पीडन होता है उनका राजधर्म इस्लाम है, और हिंदू, बौद्ध जैन सिख ईसाई पारसी का वहां उत्पीड़न होता है। उत्पीड़न तो शिया, अहमदिया आदि अल्पसंख्यक समुदायों का भी इन तीन देशों में होता है। उत्पीड़न तो नास्तिकों का सबसे अधिक होता है। अगर भारतीय धर्मो को शरण देने की भी बात है तो ईसाइयो को यह सुविधा क्यों दी जा रही है ? यह प्राविधान ही मुस्लिम विरोधी और स्वेच्छाचारी है, जो संविधान की मूल भावना के विपरीत है। 

किसी भी देश की नागरिकता उस देश के नागरिकों को जोड़ती है न कि, उसे धर्म और संप्रदाय के आधार पर विभाजित करती है। संविधान के अनुच्छेद 14 में नागरिकता देते समय या किसी भी नियम कानून को बनाते समय, तार्किक वर्गीकरण की बात की गयी है न कि स्वेच्छाचारी वर्गीकरण की। नए संशोधित कानून में जहां उत्पीड़ित अल्पसंख्यक समुदायों में मुस्लिम को बाहर कर दिया है वह तार्किक वर्गीकरण नहीं बल्कि स्वेच्छाचारी वर्गीकरण का एक उदाहरण है। अनुच्छेद 14 की व्याख्या करते हुए 1973 में ईपी रोयप्पा ने कहा था कि, " समानता एक गतिशील अवधारणा है जो हर दशा और परिस्थितियों में महत्वपूर्ण और विद्यमान रहती है। यह अपनी सैद्धान्तिक अवधारणा के अनुसार, ,न  तो खंडित की जा सकती है और न हीं तोड़ी मरोड़ी जा सकती है। सकारात्मक दृष्टिकोण से देखें तो, समानता, स्वेच्छाचारिता के बिल्कुल अलग खड़ी होती है। यदि कोई कार्य स्वेच्छाचारिता के भाव से किया जाता है तो, वह समानता के सिद्धांत के विपरीत ही होता है। जो अनुच्छेद 14 की मूल भावना के विपरीत है। 

संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार कुछ अधिकार, हमे भारत के नागरिक होने के कारण मिले हैं, लेकिन अनुच्छेद 14 जो मौलिक अधिकारों के प्रारंभ में ही है के अंतर्गत प्रदत्त समानता का अधिकार, और अनुच्छेद, 21 के अंतर्गत प्रदत जीवन, स्वतंत्रता और गरिमा से जीने का अधिकार, सुप्रीम कोर्ट की एक व्याख्या के अनुसार, न केवल हम नागरिकों को प्राप्त है बल्कि उन सबको प्राप्त है जो इस देश मे रह रहे है, भले ही वे नागरिक न हों। चकमा शरणार्थियों की भी एक बड़ी समस्या से देश जूझ चुका है। चकमा एक जनजाति है जिसका उत्पीड़न बांग्लादेश में धर्म के आधार पर हुआ था। बहत से चकमा शरणार्थी उत्पीड़न से बचने के लिये भारत आये। उनके मानवाधिकार हनन के सवाल पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने, 1996 में अरुणाचल प्रदेश की सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट ने उसकीं सुनवायी करते हुए कहा था कि, बिना दस्तावेज के आये इन लोगों को भी, भले ही वे भारतीय नागरिक नहीं हैं तो भी, संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीने और स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त होगा। 

समय समय पर भारत से घुसपैठ करके आने वालों को बांग्लादेश भेजा भी गया है। आज भी बांग्लादेश ने अपने नागरिकों को वापस लेने की बात की है। राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में सरकार ने 2005 से अब तक बांग्लादेश भेजे जाने वाले घुसपैठियों का विवरण दिया है। उस विवरण के अनुसार,  यूपीए के कार्यकाल में कुल 82,728 बांग्लादेश के नागरिक जिन्होंने घुसपैठ किया था, वापस बांग्लादेश भेजे गए। इसी प्रकार एनडीए के कार्यकाल में, कुल 1822 घुसपैठियों को  वापस बांग्लादेश भेजा गया है । यह वापसी भी तभी बांग्लादेश स्वीकार करता है जब उसे प्रमाण सहित यह बता दिया जाय कि यह बांग्लादेश का ही नागरिक है, अन्यथा दुनिया का कोई देश वापसी स्वीकार नहीं करता है। सरकार को इस दिशा में भी कदम उठाना चाहिये। 

उचित तो यही है कि किसी भी घुसपैठिये को चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो, नागरिकता नहीं देनी चाहिये। 1985 में जो असम समझौता हुआ है उसे माना जाना चाहिये। आज यदि सेलेक्टिव आधार पर नागरिकता दी और ली जाने लगेगी तो, घुसपैठ का एक अंतहीन सिलसिला चल निकलेगा। फिर यह समस्या हर कुछ सालों के अंतराल में आएगी और जो भी सरकार तब होगी अपने अपने राजनीतिक एजेंडे से नागरिकता देने लगेगी। वर्ष 1971 एक असामान्य परिस्थितियों का समय था। उसी असामान्यता को हल करने के लिए नियम बने । लेकिन, असामान्य परिस्थितियों के लिये बनाये गए नियम, सामान्य परिस्थितियों में लागू नहीं किये जा सकते हैं। सीएबी का विरोध इसलिए है कि यह कानून धर्म के आधार पर भेद करता है जो असंवैधानिक है। जहां तक नागरिकता देने का प्रश्न है नागरिकता अधिनियम 1955 के अंतर्गत सरकार को किसी भी नागरिक को नागरिकता देने का अधिकार है। पहले की सरकारों ने कुछ लोगों को नागरिकता दी भी है। पर इस तरह केवल, धार्मिक आधार पर नागरिकता कानून को संशोधित करना भविष्य के लिये खतरनाक हो सकता है। 

© विजय शंकर सिंह 

Sunday, 15 December 2019

नागरिकता संशोधन कानून पर यूएनओ की प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार निकाय ने भारत के नए नागरिकता कानून को लेकर शुक्रवार को चिंता जताते हुए कहा कि इसकी प्रकृति ही 'मूल रूप से भेदभावपूर्ण' है. नए नागरिकता कानून में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के गैर मुस्लिम उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने का प्रावधान है. संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार निकाय के प्रवक्ता जेरेमी लॉरेंस ने जिनेवा में कहा, 'हम भारत के नए नागरिकता (संशोधन) कानून 2019 को लेकर चिंतित हैं, जिसकी प्रकृति ही मूल रूप से भेदभावपूर्ण है.'

उन्होंने कहा, 'संशोधित कानून भारत के संविधान में निहित कानून के समक्ष समानता की प्रतिबद्धता को और अंतराष्ट्रीय नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार नियम तथा नस्लीय भेदभाव उन्मूलन संधि में भारत के दायित्वों को कमतर करता दिखता है, जिनमें भारत एक पक्ष है जो नस्ल, जाति या धार्मिक आधार पर भेदभाव करने की मनाही करता है.'

दिल्ली में विदेश मंत्रालय ने कहा था कि नया कानून भारत में पहले से ही रह रहे कुछ पड़ोसी देशों के उत्पीड़ित धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता देने के लिए तेजी से विचार करने की बात कहता है. मंत्रालय ने कहा था कि प्रत्येक देश को विभिन्न नीतियों के जरिए अपने नागरिकों को सत्यापित करने और गणना करने का अधिकार है. लॉरेंस ने कहा कि भारत में नागरिकता प्रदान करने के व्यापक कानून अभी भी हैं, लेकिन ये संशोधन नागरिकता हासिल करने के लिए लोगों पर भेदभावपूर्ण असर डालेगा.

उन्होंने कहा कि प्रवास की स्थिति को देखे बिना, सभी प्रवासी सम्मान, संरक्षण और अपने मानवाधिकारों की पूर्ति के हकदार हैं. लॉरेंस ने कहा कि मात्र 12 महीने पहले ही भारत ने 'ग्लोबल कॉम्पैक्ट फॉर सेफ, रेगुलर एंड ऑरडरली माइग्रेशन' का समर्थन किया था. इसके तहत राज्य बचनबद्ध है कि वह सुरक्षा की स्थिति में प्रवासियों की जरूरतों पर प्रतिक्रिया देगा, मनमानी हिरासत और सामूहिक रूप से देश निकाले से बचेगा और सुनिश्चित करेगा कि प्रवासियों से संबंधित व्यवस्था मानवाधिकार आधारित हो. प्रवक्ता ने उत्पीड़ित समूहों का संरक्षण देने के लक्ष्य का स्वागत करते हुए कहा कि यह मजबूत राष्ट्रीय शरण प्रणाली के जरिए होना चाहिए था जो समानता और भेदभाव नहीं करने पर आधारित है.

उन्होंने कहा कि यह उन सभी लोगों पर लागू होना चाहिए जिन्हें वास्तव में उत्पीड़न और अन्य मानवाधिकारों के हनन से संरक्षण की जरूरत है और इसमें नस्ल, जाति, धर्म, राष्ट्रीयता और अन्य का भेद नहीं होना चाहिए. लॉरेंस ने कहा, 'हम समझते हैं कि भारत का उच्चतम न्यायालय नए कानून की समीक्षा करेगा और उम्मीद करते हैं कि भारत कानून की अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों के साथ अनुकूलता पर सावधानीपूर्वक विचार करेगा.'

(.विजय शंकर सिंह )

कविता - चाय / विजय शंकर सिंह


सुबह की चाय
ज़िंदगी का एक हिस्सा बन गयी है,
या यूं कहें, ज़िंदगी ही है,
गर्म लिहाफ में,
नीम नींद में डूबी आंखें,
जब पूरी कायनात को,
अलसायी बना देतीं है,
तब एक अदद चाय,
एक खूबसूरत नेमत नज़र आती है।

चाय अपने हमसफ़र अखबार के साथ,
नमूदार हो तो,
चाय की चुस्कियों के साथ लगता है,
एक मुकम्मल दुनिया,
मेरे ख्वाबगाह में शब्दों के पैरहन पहने,
पसर आयी है।

कभी कभी सोचता हूँ,
चाय बनी ही न होती तो,
क्या सुबह, इतनी ही अलसायी सी,
किसी तलाश में मुब्तिला,
नीमकश आंखे लिये,
सुस्त पर दिलकश सी होती कभी ?

( विजय शंकर सिंह )

अंडमान में सावरकर के एक सहयोगी - त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती / विजय शंकर सिंह


बात अंडमान की है। बात अंडमान के सेलुलर जेल की है। बात उन काल कोठरियों में कैद उन महान संघर्षशील योद्धाओं की है जिन्होंने देश को आज़ाद कराने में अपना योगदान किसी से भी कम नहीं दिया, पर उनपर बहुत कम ही लिखा गया है और साम्रगी भी कम ही उपलब्ध है।

इन हुतात्माओं ने अपनी जवानी देश को आज़ाद कराने में दे दी और काले पानी के सेलुलर जेल की काल कोठरी में ही अपना पूरा जीवन बिता दिया। प्रख्यात इतिहासकार डॉ आरसी मजूमदार ने एक पुस्तक लिखी है द पीनल सेटलमेंट ऑफ अंडमान। लगभग 350 पृष्ठों की इस पुस्तक में जो भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से प्रकाशित है मुझे आईआईटी कानपुर के पुस्तकालय में ऐसे ही कैटलॉग पलटते पलटते मिल गयी। इस पुस्तक में अंडमान निकोबार द्वीपसमूह के लोगों का इतिहास, परंपराएं और कुछ नृतत्वशास्त्रीय विवरण हैं और इन सबसे महत्वपूर्ण हैं अंडमान की खतरनाक और यातनामय सेलुलर जेल में बंद उन कैदियों की दास्तान जो वहां, 1787 से 1945 तक बंदी बना कर रखे गए हैं।

अंडमान में सभी कैदी राजनीतिक बंदी नहीं थे बल्कि दुर्दांत अपराधी ही पहले वहां बंदी बना कर रखे जाते थे। पर बाद में जब 1880 के बाद जब राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ और आज़ादी का आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगा तो क्रांतिकारी आंदोलन के दौरान उम्रकैद की सज़ा पाए बंदी इन जेलों में भेज दिए जाते थे। हालांकि राजनीतिक बंदियों को अपराधी बंदियों के साथ रखने का कोई औचित्य नहीं है पर अहंकारी सत्ता भला औचित्य और अनौचित्य का विचार ही  कब करती हैं ? इन्ही बंदियों में वीडी सावरकर भी थे जो बाद में क्षमा याचना कर के और  अंग्रेज़ी हुक़ूमत के वफादार रहने के वादे पर छूट गए थे। पर आज हम उनकी चर्चा नहीं करेंगे। आज हम चर्चा करेंगे बंगाल के क्रांतिकारी त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती की जो इस सेलुलर जेल में आज़ादी मिलने तक कैद रहे।


त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती (1888 - 1 अगस्त 1970) का जन्म 1889 ई. में बंगाल के मेमनसिंह जिले के कपासतिया गांव में हुआ था जो अब बांग्लादेश में है। बचपन से ही त्रैलोक्य चक्रवर्ती के परिवार का वातावरण राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत था। पिता 'दुर्गाचरन' तथा भाई 'व्यामिनी मोहन' का इनके जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ा था। पिता दुर्गाचरण स्वदेशी आन्दोलन के समर्थक थे। भाई व्यामिनी मोहन का क्रान्तिकारियों से संपर्क था। इसका प्रभाव त्रैलोक्य चक्रवर्ती पर भी पड़ा। देश प्रेम की भावना उनके मन में गहराई तक समाई थी। इंटर की परीक्षा देने से पहले ही अंग्रेज सरकार ने उन्हे बन्दी बना लिया। जेल से छूटते ही वे ‘अनुशीलन समिति’ में सम्मिलित हो गए। 1909 ई. में उन्हें 'ढाका षडयंत्र केस' का अभियुक्त बनाया गया, पर वे पुलिस के हाथ नहीं आए। 1912 ई. में वे गिरफ्तार तो हुए, पर अदालत में उन पर आरोप सिद्ध नहीं हो सके।

1914 ई. में उन्हें 'बारीसाल षडयंत्र केस' में सजा हुई और सजा काटने के लिए उन्हें अंडमान भेज दिया गया। वे इसे सजा नहीं तपस्या मानते थे और यह विश्वास करते थे कि उनकी इस तपस्या के परिणामस्वरुप भारतवर्ष को स्वतंत्रता मिलेगी। वीडी  सावरकर और गुरुमुख सिंह जैसे क्रान्तिकारी उनके साथ अंडमान की जेल में बंदी थे। इन लोगों ने वहां संगठन शक्ति के बल पर रचनात्मक कार्य किया। उन्होने अपने जीवन के श्रेष्ठतम तीस वर्ष जेल की काल कोठरियों में बिताये। उनका संघर्षशील व्यक्तित्व, अन्याय, अनीति से जीवनपर्यन्त जूझने की प्रेरक कहानी है। त्रैलोक्य चक्रवर्ती को 'ढाका षडयंत्र केस' तथा 'बारीसाल षडयंत्र केस' का अभियुक्त बनाया गया था। कारागार में, वे 'महाराज' के नाम से प्रसिद्ध थे।

जब वे अंडमान जेल में भेजे गए तो सावरकर वहां आ चुके थे। वीडी सावरकर के सहयोगी के रूप में उन्होंने जेल में ही हिन्दी भाषा पढ़ने और उसके प्रचार का कार्य अपनाया। त्रैलोक्य नाथ बांग्ला भाषी थे और वे हिंदी नहीं जानते थे। सावरकर से हिन्दी सीखने वाले वे पहले व्यक्ति थे। परतंत्र भारत में भी वह स्वतंत्र भारत की बातें सोचा करते थे। उन्हें विश्वास था कि जब देश स्वतंत्र हो जायेगा, तो इस विशाल देश को एक सूत्र में बाँधने के लिए एक भाषा का होना बहुत आवश्यक है। यह भाषा हिन्दी ही हो सकती है। अत: इस भाषा के प्रचार का कार्य उन्होंने सावरकर के साथ वहीँ काले पानी की जेल में ही आरम्भ कर दिया था। उनके प्रयास से 200 से भी अधिक कैदियों ने वहां हिंदी सीखी। चाहें जेल की दीवारें हों या काले पानी की कोठरियां, वहां भी मनस्वी और कर्मनिष्ठ चुप नहीं बैठते।


1934 में वे जेल से फरार हो गए। जब देश आजाद हुआ तो उनकी जन्म भूमि पूर्वी पाकिस्तान के क्षेत्र में आई। वहां दंगे भड़क चुके थे। अल्पसंख्यक हिंदुओं का पलायन हो रहा था। उन्होंने उस कठिन और चुनौतीपूर्ण माहौल में भी सामाजिक सद्भाव के लिये काम किया। वे नोआखाली में जब महात्मा गांधी गये थे तो उनके साथ भी थे।
पूर्वी पाकिस्तान सरकार ने उन्हें वर्षों तक नजरबन्द बनाये रखा। वे चार साल तक ढाका जेल में बंद रहे। भारत सरकार के हस्तक्षेप के बाद, पाकिस्तान सरकार ने खराब स्वास्थ्य के आधार पर  उन्हें बाद में रिहा किया । वर्ष, 1970 में बीबी गिरी जब राष्ट्रपति थे तो उन्होंने उनको इलाज कराने के लिये दिल्ली बुलाया, पर चक्रवर्ती जी ने  यह कहते हुवे अनुरोध ठुकरा दिया कि ऐसी आज़ादी के लिए हमने सपना नही  देखा था। अंत मे बहुत अनुनय विनय पर महाराज, भारत आए । 1970 में ढाका जेल से उन्हें छोड़ा गया।  वे भारत आये और 1 अगस्त 1970 को उनका देहावसान हो गया।

इतिहास निर्मम तो होता ही है, पर उससे निर्मम हम होते हैं जो ऐसे क्रांतिवीरों को जिन्होंने अपार यातनाएं सहीं, पर न टूटे, न झुके, न माफी मांगी और न ही बिखरे, को भुला देते हैं । हम इन सारे क्रान्तिनायकों के कृतज्ञ हैं, जिन्होंने अपना सर्वस्व हमारे लिये बलिदान कर दिया । महाराज त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती को विनम्र प्रणाम।

© विजय शंकर सिंह