Friday, 31 August 2018

एक कविता - नींद से बोझिल तेरी पलकें / विजय शंकर सिंह

नींद से बोझिल तेरी पलकें ,
रात के इस रूमानी सफ़र को,
कभी कभी ,
कितना मादक बना देती हैं !

चलो अब सो जाओ !
कहीं ऐसा न हो , कि ,
रात के इस सन्नाटे में ,
झुटपुटे से छन कर आती हुयी ,
यह मदिर बयार ,
और ....

कल्पना में उभरती तेरी ,
अमिय , हलाहल , मद भरी ,
नीमकश ख्वाबीदा आँखें ,
कहीं मेरी ,
नींदें न उड़ा  दें !!

© विजय शंकर सिंह

Thursday, 30 August 2018

नोटबंदी - शासन न करने की कला - करोगे याद तो हरेक बात याद आएगी / विजय शंकर सिंह

8 नवंबर 2016 को रात 8 बजे जब टीवी ने बताया था कि प्रधानमंत्री एक ज़रूरी इत्तला देश को देने जा रहे हैं तो हम सब अपने अपने घरों में टीवी सेट्स की ओर ध्यानमग्न हो बैठ गए थे। तभी कुछ तस्वीरों में पीएम सेनाध्यक्षों के साथ नज़र आये। मेरा भी दिमाग सीमा और सीमापार से संचालित गतिविधियों की ओर चला गया। मैंने टीवी का वॉल्यूम थोड़ा और बढ़ा दिया।

पीएम नमूदार हुये। बोलना शुरू किया उन्होंने। अचानक उन्होंने कहा कि
" आज आधी रात से रात के बारह बजे से 500 और 1000 रुपये के नोट लीगल टेंडर नहीँ रहेंगे। "
यही वाक्य दुबारा दुहराया गया। हम सबने इसे गौर से सुना। और एक ही फरमान में देश की 77 % मुद्रा चलन से बाहर हो गयी ।

कितने हुलास से कहा था प्रधानमंत्री जी ने तब। थोड़ा याद कीजिए। कहा था, नोटबंदी से तीन काम सधेंगे।
* नक़ली मुद्रा समाप्त हो जाएगी।
* आतंकियों की फंडिंग रुक जाएगी।
* सारा कालाधन जो देश मे है वह सामने आ जायेगा ।
* भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगा।
पर हुआ क्या,
* 99 % से अधिक मुद्रा बैंकों में वापस आ गयी।
* कितनी नक़ली मुद्रा थी, उसका अनुमान भी सरकार नहीं लगा सकी।
* आतंकवाद पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा। उल्टे इतनी अधिक आतंकी गतिविधियां बढ़ गयीं कि चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर के गवर्नर का शासन लागू करना पड़ा।
* सरकार यह तक बता नहीं पायी कि आतंकियों की फंडिंग पर क्या असर पड़ा।
* कालाधन गया कहाँ ? सोने में निवेश हो गया या स्विस बैंक में चला गया। क्योंकि सोने का आयात भी बढ़ा है और स्विस बैंक में जमा रकम भी।
* भ्रष्टाचार के बारे में पूंजीपतियों और व्यवसायियों से पूछ कर देख लें। वे सभी विभागों की रेट लिस्ट थमा देंगे और यह भी बता देंगे कि कितना किसका कब कब बढ़ा है।
* नोटों के बदलने में तो खुल कर रिजर्व बैंक और अन्य बैंकों ने भ्रष्टाचार किया। उनके तो रेट ही तय हो गए थे। यह रेट 30 % का लोग बता रहे थे।

मेरा खाता कानपुर एसबीआई की मोतीझील ब्रांच में है। मुझे याद है कैश निकालने के लिये गया था तो दो दो हजार के दो नोट देते हुए जब मैनेजर साहिबा ने एहसान चढ़ाती नज़रों से देखा तो लगा कि राष्ट्र निर्माण के इस महायज्ञ में हम भी कुछ आहुति दे रहे हैं। उस समय तो प्रधानमंत्री जी ने भी यही कहा था कि यह राष्ट्र निर्माण की बेला है। थोड़ा कष्ट सहिये। रुपया मेरा, बैंक मेरा, ब्रांच मेरी और खाता मेरा। एहसान सरकार का।

पर तब भी देश मे बहुत लोग समझदार भी थे, जो राष्ट्र निर्माण के इस खोखलेपन को समझ रहे थे। उन्ही में से एक है डॉ मनमोहन सिंह, जो पूर्व पीएम तो है ही एक बड़े अर्थशास्त्री भी है । अमूमन कम बोलने वाले डॉ सिंह ने नोटबंदी पर बहस के दौरान निम्न वाक्य सदन में कहा था ~

"A monumental management failure by the Central govt. In fact this is organised loot & legalised plunder."

इस वाक्य का एक एक शब्द आज सच साबित हुआ। आज जब आरबीआई की रिपोर्ट आयी तो देश के आर्थिक इतिहास की अब तक की सबसे बड़ी गलती भी सामने आ गयी। सरकार को ऐसी सलाह देने वाले, बिना योजना के ऐसा एडवेंचर करने वाले अफसरों, सलाहकारों और मंत्रियों और प्रधानमंत्री के खिलाफ जिम्मेदारी तय करने के लिये एक न्यायिक जांच आयोग गठित कर के उनके विरुद्ध कार्यवाही की जानी चाहिये।

याद कीजिये, प्रधानमंत्री ने लाल किला से भाषण देते हुये 15 अगस्त 2017 को कहा था, कि " नोटबंदी से 3 लाख करोड़ कालाधन पकड़ा गया है, " और आरबीआई के गवर्नर अब कुछ और कह रहे हैं। फिर झूठ किसने बोला है। पीएम ने, या गवर्नर साहब ने ?

एक और भाषण याद कीजिये। यूट्यूब पर मिल जाएगा। जब उन्होंने हाँथ नचा नचा कर पता नहीं किसका मज़ाक़ उड़ाते हुए गंगा में नोटों के प्रवाहित करने का एक किस्सा सुना के तंज भरे शब्दों में कहा था कि घर मे शादी है और पैसे नहीं है...और फिर एक सैडिस्ट हंसी। वह मुद्रा औऱ वह हंसी किसी आम आदमी की तो हो सकती है पर देश के सबसे जिम्मेदार पद पर बैठने वाले की तो कदापि नहीं हों सकती है। पर है। यह भी सच है।

एक और भाषण याद कीजिए। कहा था उन्होंने कि
" बहुत बड़े बड़े लोग उनके पीछे पड़े हैं। वे लोग उन्हें मार देंगे। भाइयों और बहनों पचास दिन, बस पचास दिन हमें दे दो। "
वह सूरत भी याद कीजिए, मासूमियत और बेबसी का मुखौटा ओढ़े।

फिर उन्होंने कहा था, वे किसी चौराहे पर आ जाएंगे।
अब चौराहे पर वे आयें या न आयें, देश की अर्थव्यवस्था को ज़रूर उन्होंने एक ऐसे चौराहे पर खड़ा कर दिया है कि सही दिशा और सही वक्त चुनने में अब जो दिक्कत आएगी उसकी कल्पना अर्थशास्त्री ही कर सकते है।

150 लोग, लाइनों में लगे लगे दम तोड़ गये। लोगों के परिवार की शादियां टूट गई या टल गयीं, लोगों के ज़रूरी काम अटक गये, उद्योगों में जो मंदी आयी वह आज भी बरकरार है या यूं कहिये अभी भी बढ़ रही है। आखिर इस बेवक़ूफ़ी भरे निर्णय की जिम्मेदारी कौन लेगा ?

एक मित्र ने सीधे शब्दों में समझाया कि इस तमाशे से #जीडीपी का 1% नुकसान हुआ जिसकी राशि 2.25 लाख करोड़ की होती है। इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा ? नरेंद्र मोदी  या अरुण जेटली या आरबीआई का कोई बेचारा अधिकारी ?

क्या प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और आरबीआई के गवर्नर पर नोटबंदी से हुये आर्थिक नुकसान तथा अव्यवस्था के लिये न्यायिक जांच गठित कर मुक़दमा नहीं चलाया जाना चाहिये ?

यह जानना बहुत ज़रूरी है कि आखिर यह नोटबंदी का फैसला किसे लाभ पहुंचाने के लिये, किसके इशारे पर, अचानक बिना पर्याप्त तैयारी के सरकार ने 8 नवम्बर 2016 को कर दिया था, जिससे देश के उद्योग धंधे, विशेषकर असंगठित क्षेत्र में मंदी के आसार आ गए । लाभ की तो बात ही छोड़ दीजिये, देश की जीडीपी, प्रगति, आयात निर्यात, मौद्रिक अनुशासन, बैंकों की व्यवस्था, आदि पर व्यापक नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। जानकारों का कहना है कि कम से कम 10 साल इस आघात को पूरा करने में लगेगा।

धुआँ जो कुछ घरों से उठ रहा है...
न पूरे शहर पर छाये तो कहना...
जावेद अख़्तर का यह शेर भी बरबस याद आ गया !
नोटबंदी की फिलहाल तो एक ही उपलब्धि दिख रही है, भाजपा का नया भव्य और कॉरपोरेट की स्टाइल पर बना मुख्यालय।

© विजय शंकर सिंह

Wednesday, 29 August 2018

जावेद अख्तर की कविता - नया हुक्मनामा / विजय शंकर सिंह

किसी का हुक्म है, सारी हवाएं
हमेशा चलने से पहले बताएं,
के इनकी सम्त क्या है
हवाओं को बताया ये भी होगा
चलेंगी जब तो क्या रफ्तार होगी
के आंधी की । अब नहीं है.
हमारी रेत की ये सब फ़सीलें
ये कागज़ के महल जो बन रहे हैं
हिफ़ाज़त इनकी करना है ज़रूरी
और आंधी है पुरानी इनकी दुश्मन,
ये सभी जानते हैं
किसी का हुक्म है दरिया की लहरें
ज़रा ये सरकशी कम कर लें, अपनी
हद में ठहरें
उभरना, फिर बिखरना, और बिखरकर फिर उभरना
ग़लत है उनका ये हंगामा करना
ये सब है सिर्फ़ वहशत की अलामत,
बग़ावत की अलामत
बग़ावत तो नहीं बर्दाश्त होगी
ये वहशत तो नहीं बर्दाश्त होगी
अगर लहरों को है दरिया में रहना
तो उनको होगा अब चुपचाप बहना

किसी का हुक्म है, इस गुलशिता में
बस एक रंग के ही फूल होंगे
कुछ अफ़सर होंगे जो ये तय करेंगे
गुलिस्तां किस तरह बनना है कल का
यक़ीनन फूल तो यकरंग होंगे,
मगर ये रंग होगा कितना गहरा,
और कितना हल्का, ये अफ़सर तय करेंगे
किसी को कोई ये कैसे बताए
गुलिस्तां में कहीं भी फूल यकरंगी नहीं होते
कभी हो ही नहीं सकते
के हरेक रंग में छुपकर बहुत से रंग रहते हैं
जिन्होंने बाग यकरंगी बनाना चाहे थे,
उनको ज़रा देखो
के जब एकरंग में सौ रंग ज़ाहिर हो गए हैं तो
वो अब कितने परेशां हैं, वो कितने तंग रहते हैं

किसी को अब कोई कैसे बताए
हवाएं और लहरें कब किसी का हुक्म सुनती हैं
हवाएं हाकिमों की मुट्ठियों में,
हथकड़ी में, क़ैदखानों में नहीं रुकतीं
ये लहरें रोकी जाती हैं, तो दरिया कितना भी हो पुरसुकूं
बेताब होता है
और इस बेताबी का अगला क़दम सैलाब होता है
किसी को ये कोई कैसे बताए....
***
© विजय शंकर सिंह

मार्टिन नीलोमर एक कालजयी कविता.- First they came / विजय शंकर सिंह

First they came for communists,
And I didn't speak out because I wasn't communist.

Then they came for trade unionists,
And I didn't speak out because I wasn't a trade unionist.

Then they came for Jews,
And I didn't speak out because I wasn't a Jew.

Then they came for me,
And there was no one left to speak out for me.

मार्टिन निमोलार की जर्मन में लिखी इस कविता का  ब्रेख्त ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है। यह एक प्रसिद्ध कविता है जो समाज मे अन्याय और अपराध के प्रति व्याप्त बढ़ती उदासीनता के खतरे बताती है। अत्याचार, अन्याय और अपराध एक मनोवृत्ति होती है। जब यह अनियंत्रित होकर भड़कती है तो किसी को भी नहीं छोड़ती है। यह कविता नाज़ी जर्मनी में हिटलर की बढ़ती लोकप्रियता फिर लोकप्रियता जन्य फासिस्ट तानाशाही के कदम दर कदम बढ़ते आतंक और तत्कालीन जर्मनी में समय समय पर अलग अलग समाजों की उदासीनता की मानसिकता को खुल कर बताती है। यह कविता दुनिया भर के उद्धरणों के बीच सबसे अधिक उद्धरित की जाने वाली कविताओं में से एक है। पास्टर मार्टिन निमेलर ने, जैसे कोई अंधकार धीरे धीरे लीलता जाता है एक एक कर के समाज के विभिन्न वर्गों को और जब एक समाज अत्याचार और अन्याय के तले कराह रहा होता है तो उदासीन पड़ा दूसरा समाज जो मूकदर्शक बना यह तमाशा देख रहा होता है, और वह सोच बैठा होता है कि खतरा उस तक नहीं आएगा, लेकिन वह हतभाग्य अपने ककून में बैठा, कल आने वाली काल बैसाखी की तीव्रता का अनुमान नहीं लगा पाता है और वह भी अंततः उसी अत्याचार और अन्याय की गिरफ्त में आ ही जाता है, की मनोदशा और उसके दुष्परिणाम को बहुत ही सरल शब्दों में अभिव्यक्त किया है।

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा, उनका भी अपराध।

दिनकर की यह कालजयी पंक्तियां पास्टर की कविता को बेहद खूबसूरती से अभिव्यक्त करती हैं।

पास्टर की कविता का अनुवाद मैं पस्तुत कर रहा हूँ।

पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था।

फिर वे आए ट्रेड यूनियन वालों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था।

फिर वे यहूदियों के लिए आए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।

फिर वे मेरे लिए आए
और तब तक कोई  बचा था
जो मेरे लिए बोलता।

सीधे शब्दों में बिना किसी काव्य लालित्य  के लिखे गए ये शब्द तटस्थता और उदासीनता के खतरे बयां कर जा रहे हैं। यहां न छंद है न अलंकार, न कल्पना की अनन्त उड़ान और न ही इश्क़ की आहो फुगां, बस कुछ शब्द हैं जो हमे आगाह कह रहे हैं। इसे कविता कहिये, या एकालाप या आह्वान या चेतावनी, जो भी कहिये पर इन शब्दों ने हिटलर के समय जर्मनी के विभिन्न समाजों में जो उदासीनता और तटस्थता पसरी थी को बेहद मजबूती से अभिव्यक्त कर दी है।

मार्टिन नीमोलर, ( 14 जनवरी - 6 मार्च 1884 ) का पूरा नाम फ्रेडरिक गुस्ताव एमिल मार्टिन निलोमर  Martin Niemöller (German: [ˈniːmœlɐ]; 14 January 1892 – 6 March 1984)  है, जो एक जर्मन पास्टर था । हिटलर और नाज़ीवाद के सतत विरोध के कारण, वह सुर्खियों में रहा। 1930 में वह नाज़ीवाद के प्रबल विरोध में खड़ा हुआ। उसकी यह कविता, दुनिया भर के अनेक भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। प्रारम्भिक जीवन में वह रूढ़िवादी और एडोल्फ हिटलर के समर्थन में था। लेकिन बाद में वह चर्च की उस विचारधारा का संस्थापक बन गया जो हिटलर और नाज़ीवाद के विरुद्ध थी। यह संगठन, प्रोटेस्टेंट चर्च के नाज़ीकारण के विरुद्ध था। यह हिटलर के शुद्ध आर्य रक्त के सिद्धांत के विरुद्ध था और यहूदियों के बारे में इसके विचारों का नाज़ीवादियों ने विरोध किया। इसे साचसेनाहुसें और दाचाऊ के यातना गृहों में 1938 से 45 रहना पड़ा। वहां यह किसी तरह से फांसी के दंड से बचा था। बाद में जब अपराधों की स्वीकारोक्ति के लिये स्टटगार्ड डिक्लेरेशन ऑफ गिल्ट ( Stuttgard Declaration of Guilt ) का गठन हुआ तो यह उसके संस्थापकों में से रहा। वह शांति का पैरोकार और युद्ध विरोधी एक्टिविस्ट था और 1966 से 72 तक वॉर रेसिस्टर इंटरनेशनल War Resister International का उपाध्यक्ष रहा। वियतनाम युद्ध के दौरान इसने होची मिन्ह से भी मुलाकात की थी। और उन्हें अपना समर्थन दिया था। परमाणु अस्त्रों का यह मुखर, मार्टिन ने अपने जीवन मे हिटलर की इतनी नृशंस हिंसक गतिविधियां देखी थी कि बाद में यह जीवन पर निःशस्त्रीकरण के लिये अपनी आवाज़ उठाता रहा।

© विजय शंकर सिंह

Tuesday, 28 August 2018

इश्क़ तौफ़ीक़ है, गुनाह नहीं - आज फ़िराक़ का जन्मदिन है, उनकी चर्चा और उनका स्मरण / विजय शंकर सिंह

फ़िराक़ साहब ( 28 अगस्त 1896 से 3 मार्च 1982 ) एक जीनियस थे। रहने वाले गोरखपुर के, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी के टॉपर, और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में ही अंग्रेज़ी के अध्यापक, और उर्दू के एक अज़ीम शायर। ज़िंदगी का सफर भी उनका, कुछ गमें जानां तो कुछ दौरां। कभी प्रेयसी का गम, तो कभी ज़माने का गम। निजात इस गम से ? ' मौत से पहले आदमी, इस गम से निजात पाए क्यों ' यह फ़िराक़ के जन्म से आधी सदी से पहले सुपुर्दे खाक हो चुके, इसी सिलसिले के एक और महान शायर ग़ालिब पहले ही कह चुके हैं। आज उन्ही फ़िराक़ का जन्मदिन है।

गोरखपुर के बारे में मेरे एक मित्र का कहना है कि यह शहर जंगलों में बसा था। अब तो यह भरापूरा शहर है। इसी शहर में 28 अगस्त 1896 को फ़िराक़ साहब का जन्म हुआ था। फिराक गोरखपुरी तो ये बाद में हुये, इनका असल नांम रघुपति सहाय था। शिक्षा प्राप्ति के बाद वे सिबिल सेवा के लिये चुने गए, पर 1920 में उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। आज़ादी के आंदोलन में वे जेल गए। एक साल जेल में भी रहे। उनका संपर्क कांग्रेस के नेताओं से भी था। वे जवाहरलाल नेहरू के साथ वे कुछ दिनों के लिये कांग्रेस के अवर सचिव भी रहे थे। पर राजनीति में फिर उसके बाद वे सक्रिय नहीं हुए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वे 1930 से 1959 तक अंग्रेज़ी के प्राध्यापक थे। उन्होंने डॉक्टरेट नहीं की थी, पर खुद को किसी भी अंग्रेज़ी के किसी विद्वान से कम नहीं समझते थे। और वे थे भी नहीं।

आधुनिक उर्दू ग़ज़ल के लिए राह बनाने वालों में अग्रणी शायर फ़िराक गोरखपुरी अपने दौर के मशहूर लेखक भी, आलोचक भी और शायर भी थे। शुरू में फ़िराक़ साहब की शायरी के हुस्न को लोगों ने उस तरह नहीं पहचाना क्योंकि वो रवायत से थोड़ी हटी हुई शायरी थी। जब उर्दू में नई ग़ज़ल शुरू हुई तो लोगों ने फ़िराक़ की तरफ़ ज़्यादा देखा। फिराक गोरखपुरी की शायरी में गुल-ए-नगमा, मश्अल, रूह-ए-कायनात, नग्म-ए-साज, ग़ज़लिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज व कायनात, चिरागां, शोअला व साज, हजार दास्तान, बज्मे जिन्दगी रंगे शायरी के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधीरात, परछाइयाँ और तरान-ए-इश्क जैसी खूबसूरत नज्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों हैं। उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया और कई कहानियाँ भी लिखी हैं। उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी भाषा में गद्य की भी दस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।

फ़िराक़ के जीवन से जुड़े कई रोचक प्रसंग हैं जिनसे उनके जीवन और मेधा के अनेक आयाम नज़र आते हैं। उर्दू शायरी पर अनेक शायरों के कलाम को देवनागरी में उपलब्ध कराने वाले प्रकाश पंडित ने अपनी पुस्तक फ़िराक़ और शायरी में उनसे जुड़ा एक रोचक संस्मरण लिखा है, मैं उसे यहां उद्धृत कर रहा हूँ,

" एक बार बम्बई की एक ‘महफ़िल में, जिसमें सरदार जाफ़री, जानिसार ‘अख़्तर’, साहिर लुधियानवी, ‘कैफ़ी’ आज़मी इत्यादि कई प्रगतिशील शायर मौजूद थे, ‘फ़िराक़’ साहब ने बड़े गौरव से एक शेर पढ़ा-

मौत इक गीत रात गाती थी
ज़िन्दगी झूम-झूम जाती थी।

सरदार जाफ़री ने यह समझकर कि फ़िराक़ साहब ने ज़िन्दगी पर मौत को प्रधानता दी है, ऊँची ज़बान से ललकारा, ‘‘फ़िराक़ साहब ! गुस्ताखी मुआफ हो, हमें आप शेर सुनाइए, बकवास मत कीजिए।’’
‘फ़िराक़’ साहब भला इस गुस्ताख़ी को कैसे मुआफ़ कर सकते थे तुरन्त भड़ककर बोले, ‘‘मैं तो शेर ही सुना रहा हूँ, बकवास तो आप कर रहे हैं।’’

और इसके बाद उपस्थित सज्जनों ने ‘फ़िराक़’ साहब की ज़बान से ज़िन्दगी और मौत की फ़िलासफ़ी की ऐसी ऐसी बातें सुनी कि यदि स्वयं ज़िन्दगी और मौत साकार होतीं, तो इन बातों से पनाह माँगने लगतीं।

बातें करने का भी फ़िराक़ साहब को उन्माद की हद तक शौक है-जीवन दर्शन से लेकर वे मेंढकों की विभिन्न जातियों तक के बारे में बेथकान बोल सकते हैं बल्कि ढूंढ़-ढूंढकर बोलने के अवसर निकालते हैं। हैदराबाद में एक महत्त्वपूर्ण उर्दू कान्फ्रेंस थी। कान्फ्रेंस के चौथे दिन की एक बैठक में फ़िराक़ साहब को अभिभाषण देना था। कान्फेंस के प्रबन्धक तो ख़ैर पहले से उन्हें सूचना दे चुके थे कि भाषण पहले से प्रकाशित किया जाएगा, कान्फ्रेंस में भाग लेने वाले शायरों अदीबों ने भी उनसे बहुत आग्रह किया कि वे शीघ्रातिशीघ्र भाषण लिख लें। इस उद्देश्य के लिए, यानी उनसे भाषण लिखवाने के लिए, दो व्यक्ति मुक़र्रर किए गए जो जब मौक़ा मिलता, काग़ज़ क़लम लेकर बैठ जाते कि लिखवाइए। फ़िराक़ साहब एक आध वाक्य लिखवाने के बाद ही उन्हें इस प्रकार बातों में उलझा लेते कि वे स्वयं भाषण की बात भूल जाते। चौथा दिन आ पहुँचा और भाषण की केवल चार पंक्तियाँ पूर्ण हुईं। लोगों ने फ़िराक़ साहब को क़लम काग़ज़ देकर जबर्दस्ती एक कमरे में बंद कर दिया ताकि दोपहर तक, जैसे भी हो, वे भाषण पूरा कर लें। दोपहर के अधिवेशन के समय जब वालंटियर उन्हें लिवाने उनके निवास-स्थान पर पहुँचे तो फ़िराक़ साहब को मकान के किसी कमरे में भी न पाकर बहुत चकराए। निराश होकर लौट रहे थे कि रसोईघर से बातें करने की आवाज़ आई। झांककर देखा तो फ़िराक़ साहब बैंगन हाथ में लिए बैंगन के भुरते के बारे में बावर्ची से बातें कर रहे थे।

यही नहीं, काग़ज़ों का पुलंदा लेकर जब वे जलसे में अपना अभिभाषण पढ़ने लगे तो केवल चार पंक्तियाँ पढ़कर ही उन्होंने पुलंदा एक तरफ रख दिया और माइक्रोफ़ोन थामकर बोले, ‘‘लिखे हुए अभिभाषण की क्या ज़रूरत है ? बड़ी मुद्दत के बाद हैदराबाद आने का मौक़ा मिला है। दोस्तों से दो बातें ही कर लें !’’
और अभिभाषण के नाम पर वे निरन्तर दो घण्टे तक बातें करते रहे और मेज़ पर पड़ा कोरे काग़ज़ों का पुलंदा प्रबन्धकों का मुँह चिढ़ाता रहा। "

उनकी उर्दू शायरी का एक बड़ा वक्त रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता का रहा, जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए।

एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं।

फ़िराक़ साहब केवल शायर ही नहीं थे, बल्कि वे अंग्रेज़ी साहित्य के विद्वान भी थे। उनका दावा था कि ,
"भारत में अंग्रेज़ी सिर्फ़ ढाई लोगों को आती है। एक मैं, दूसरे डॉ. राजेंद्र प्रसाद और जवाहर लाल नेहरू को आधी अंग्रेज़ी आती है।"
फ़िराक़ साहब के बारे में एक क़िस्सा बहुत प्रचलित है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से रिटायर होने के बाद उन्हें सरकारी बंगला खाली करने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन को नोटिस आया। नोटिस अंग्रेज़ी में था और उन्होंने उसमें दसियों ग़लतियां निकाल कर प्रशासन को वापस थमा दिया और कहा कि अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर को नोटिस भेजा है, ग़लतियां सुधार कर लाइए। नोटिस दोबारा भेजा गया और उन्होंने उसमें फिर कई ग़लतियां निकाल दी। इसके बाद प्रशासन ने उन्हें न नोटिया दिया और ना ही बंगला खाली करने को कहा। वे अंतिम समय तक उसी बंगले में रहे।

एक प्रसंग और पढ़े,
" उनका जामिया मिलिया विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रोफ़ेसर एमेरिटस शमीम हनफ़ी से लगभग एक दशक का साथ रहा। उनके बारे में हनफ़ी साहब रेहान फजल को बताते हैं- 'साहित्य की बात एक तरफ़, मैंने फ़िराक़ से बेहतर बात करने वाला अपनी ज़िंदगी में नहीं देखा। मैंने उर्दू, हिंदी और अंग्रेज़ी साहित्य के चोटी के लोगों से बात की है लेकिन फ़िराक़ जैसा किसी को भी नहीं पाया। इस संदर्भ में मुझे सिर्फ़ एक शख़्स याद आता, डाक्टर सेमुअल जॉन्सन, जिन्हें बॉसवेल मिल गया था, जिसने उनकी गुफ़्तगू रिकॉर्ड की। अगर फ़िराक़ के साथ भी कोई बॉसवेल होता और उनकी गुफ़्तगू रिकॉर्ड करता तो उनकी वैचारिक उड़ान और ज़रख़ेज़ी का नमूना लोगों को भी मिल पाता। "

उन्हें गुले-नग्मा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से सम्मानित किया गया। बाद में 1970 में इन्हें साहित्य अकादमी का सदस्य भी मनोनीत कर लिया गया था। फिराक गोरखपुरी को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन 1968 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था। दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फिराक ने अपनी शायरी का अद्भुत संसार रचा था । फारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रची-बसी रही।

उनकी शायरी के किस्से, उनसे जुड़े तमाम प्रसंग, उनकी सनक की कहानियां, इतनी अधिक संख्या में मुझे संदर्भों में मिलीं कि यह संदेह होने लगा कि इनमें सच क्या है और झूठ है। महान लोगों के साथ अमूमन ऐसा ही होता है। इतनी अधिक लोकश्रुत और बहुश्रुत क्षेपक उभर कर आ जाते हैं कि कभी कभी यह सब दन्तकथाओं जैसी लगने लगती हैं। लेकिन इन कहानियों और किस्सों से फ़िराक़ के बहुआयामी व्यक्तित्व का पता चलता है। उनपर काम करने वाले डॉ मुकेश पांडेय ने उनके व्यक्तित्व को इन शब्दों में उकेरा है,
" अदा-अदा में अनोखापन, देखने-बैठने-उठने-चलने और अलग अंदाज़े-गुफ़्तगू, बेतहाशा गुस्सा, अपार करुणा, शर्मनाक कंजूसी और बरबाद कर देने वाली दरियादिली, फ़कीरी और शाहाना ज़िंदगी का अद्भुत समन्वय था उनमें।
फ़िराक़ की शख़्सियत में इतनी पर्तें थी, इतने आयाम थे, इतना विरोधाभास था और इतनी जटिलता थी कि वो हमेशा से अपने चाहने वालों के लिए पहेली बन कर रहे। वह थे आदि विद्रोही, धारा के विरुद्ध तैरने वाले बाग़ी। "

मशहूर शायर अनवर जलालपुरी ने एक शायर और साहित्यकार के रूप में मूल्यांकन करते हुये कहा कि,  " फ़िराक़ साहब से पहले उर्दू में सिर्फ अल्लामा इक़बाल ही ऐसी शख़्सियत हैं, जो एशिया और यूरोप के उलूम (ज्ञान) पर गहरी नज़र रखते थे। दोनों इलाहों के मजहबों के फलसफों पर भी उनकी गहरी नज़र होती थी। 'फ़िराक़' दूसरी बड़ी शख़्सियत हैं जो एशिया और यूरोप के मुल्कों के मजहबी फलसफों और दोनों इलाकों के साहित्य पर भी बेइंतहा गहरी नज़र रखते थे। "
फ़िराक़ खुद अपनी शायरी के बारे में क्या कहते हैं, यह उन्हीं की लेखनी से पढ़ लें,
"मैं शायरी का एक मकसद यह भी समझता हूं कि जिन्दगी के खुशगवार और नाखुशगवार हालात व तजुर्बात का एक सच्चा जमालियाती एहसास हासिल किया जाय। जिन्दगी का एक विजदानी शऊर हासिल करना वह आसूदगी अता करता है जिसके बगैर जिन्दगी के सुख-दुख दोनों नामुकम्मल रहते हैं। यही एहसास मेरी शायरी के रहे हैं; इसके अलावा हर कौम की अपनी एक तारीख होती है, उसका एक मिजाह होता है, फिर तमाम इंसानियत की जिन्दगी की भी तारीख होती है और उस जिन्दगी की कुछ कदरें होती हैं। कौमी जिन्दगी और आलमी जिन्दगी की इन कदरों और हिन्दुस्तान के कल्चर के मिजाज को अपनी शायरी में समोना मुल्की और आलमी जिन्दगी के पाकीजा जज्बात को जबान देना मेरी शायरी का मकसद रहा है। उर्दू शायरी में बहुत सी खूबियों के बावजूद कुछ कदरो की कमी रही है। १९३६ के बाद मेरी कोशिश यह होने लगी है कि मैं मसायल को आलमगीर इंसानियत की तरक्की की रोशनी में पेश करूं, जिन्दगी जैसी है उसे मुतास्सिर होना कौमी कलचर और कौमी मिजाज के तसव्वर पर झूमना उसे अब मैं नाकाफी समझने लगा। अब दुनिया और जिन्दगी पर झूमने के बदले दुनिया और जिन्दगी को बदलने का तसव्वर काम करने लगा।"

फ़िराक़ साहब के जन्मदिन पर उनका विनम्र स्मरण।
आप थे हंसते-खेलते मयखाने में फ़िराक,
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए !!

© विजय शंकर सिंह