जब भी कोई बड़ी घटना होती है तो उस पर राजनीति होने लगती है. जो विपक्ष में रहता है वह विरोध की और जो सत्ता में रहता है वह समर्थन की मुद्रा में आ जाता है. वक़्त के साथ साथ मंच और संवाद , तर्क और वाग्जाल , अभिनय और मुद्रा वही रहती है पर केवल किरदार बदल जाते हैं. चाहे घटना रोहित की आत्महत्या हो या अन्य कोई. रोहित की आत्महत्या से जो सवाल उभरे थे, वे या तो नेपथ्य में चले गए या नेपथ्य में धकेल दिए गए, और वह सवाल सामने खींच कर लाये गए जिनका सिस्टम की बेहतरी से कोई सम्बन्ध नहीं है. रोहित की आत्महत्या एक दलित की आत्महत्या बना कर प्रस्तुत की जा रही है, एक प्रतिभावान छात्र की नहीं जो एक राजनैतिक विचारधारा की दुरभिसंधि से सम्पुटित विश्वविद्यालय प्रशासन की असफलता है. रोहित प्रतिभावान छात्र था, और वह वाम पंथी विचारधारा से प्रभावित था. उसका प्रवेश डॉक्टरेट में सामान्य श्रेणी में हुआ था और उसकी सामाजिक राजनीतिक सरोकारों में रूचि भी थी. वह आम्बेडकर की विचार धारा से प्रभावित था. उसने आम्बेडकर स्टूडेंट एसोशिएसन ASA के नाम से एक संस्था बनायी थी. दुर्भाग्य से आम्बेडकर अपनी सारी प्रतिभा और मेधा के बावज़ूद, एक दलित नेता के ही रूप में देखे जाते हैं. अतः उनसे जुड़े संगठन और लोग दलित के स्टैम्प से उबर नहीं पाये हैं. ASA और ABVP में वैचारिक मतभेद है. यह वैचारिक मतभेद छात्र और युवा होने के कारण अक्सर बहस मुबाहिसे से अलग हट कर मार पीट पर भी उतर जाता था. उसी झगडे का का एक कारण यह घटना है.
जब आप इस घटना को दलित एंगल से ही देखेंगे तो, यह दृष्टिदोष समस्या की जड़ तक आप को पहुँचने नहीं देगा. हालांकि दलित एंगल से देखने के कारण राजनीतिक दलों को अधिक डिविडेंड मिलेगा पर इस से वह बीमारी दूर नहीं होगी, जिसका दुष्परिणाम यह घटना है.
समस्या है , विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का राजनीतिक आक़ाओं के समक्ष आत्मसमर्पण,
समस्या है सरकार का राजनीतिक दलीय विचारधारा के आधार पर विश्वविद्यालयों के काम काज में दखल.
समस्या है नियुक्ति से ले कर प्रोन्नति में भेदभाव और स्वायत्तता की कीमत पर सरकार का दखल.
समस्या है कुलपतियों की नियुक्ति की कोई निर्धारित नियमावली का न होना.
इनके अतिरिक्त और भी समस्याएं होंगी, जो मित्र विश्वविद्यालयों से जुड़े हैं वे मुझसे अधिक इस विषय में जानते होंगे.
पर किसी भी राजनैतिक दल ने विश्वविद्यालय प्रशासन के इस मौलिक बीमारी पर न तो ध्यान दिया और न ही इसे बहस का मुद्दा बनाया. क्यों कि यह बीमारी उन्हें भी रास आयी थी, जब वे सत्ता में थे या जब वे सत्ता में आएंगे.
प्रशासनिक सुधार किसी भी राजनैतिक दल के एजेंडे में नहीं होता है. और अगर वह होता भी है तो कोई भी सरकार कभी उस एजेंडे पर काम भी नहीं करती है. आप पुलिस सुधार या प्रशासनिक सुधार आयोग की रपटें देख लें , इन पर समितियां उपसमितियों बनती रहती हैं , उनकी अनुशंसाएं आती रहती हैं और वह पड़े पड़े फाइलों में धूल खाती रहती हैं. ऐसा नहीं की वैचारिक आधार पर नियुक्तियां आज ही हो रही हैं, बल्कि यह नियुक्तियां पहले भी होती रहीं हैं और आगे भी होती रहेंगी. फिर भी विश्वविद्यालय का प्रशासन निष्पक्ष और शैक्षणिक हो इसके लिए योग्य प्रशासक की नियुक्ति होना आवश्यक है. ऐसा कभी भी संभव नहीं है कि, किसी एक विश्वविद्यालय में एक ही विचारधारा के मानने वाले सभी छात्र हो. समाज में कोई आर एस एस की विचारधारा , तो कोई मार्क्सवादी विचारधारा, तो कोई लोहियावादी विचारधारा का होता है. सबके अपने अपने तर्क और दर्शन हैं. पर किसी विचारधारा को ही देशद्रोही साबित कर उसे लांछित करने की जो परम्परा कुछ स्वयंभू राष्ट्रवादी मित्रों में आ गयी है यह भी एक प्रकार की अधिष्णुता ही है. टिटिहरी की मानसिकता से ऐसे मित्रों को उबरना होगा. वैचारिक बहस किसी भी विचारधारा की जीवंतता ही नहीं बताती है, उसका खोखलापन भी सामने लाती है.
रोहित की आत्महत्या के कारणों और परिणामों के साथ साथ , विश्वविद्यालयों या शैक्षणिक संस्थानों की बुराइयों की पहचान , पड़ताल और उनका निदान किया जा सकता है. इसे दलित और देशद्रोही के खांचे में रख कर देखेंगे तो ऐसे घटनाएं आगे भी होंगी. रोहित की आत्महत्या उस मानसिकता, और उन कमियों का दुखद परिणाम है, जो आज भी ज़िंदा है. इसका निदान आवश्यक है. सरकार ने रोहित के मामले में अपराध का मुक़दमा दर्ज़ कर लिया है. उसकी तफतीश भी हो रही होगी. पर मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि ऐसे मुक़दमे में आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वालों के खिलाफ साक्ष्य मुश्किल से ही मिलता है.
-vss.