पिछले 10 दिन से भारतीय लोकतंत्र में एक अत्यंत नयी और अच्छी बात हुयी है। देश की सबसे नयी पार्टी , आ आ पा में आपसी द्वंद्व बहुत मचा है । पार्टी घोषित रूप से दो गुटों में तो अभी नहीं बंटी है पर सच तो यह है कि पार्टी पूरी तरह दो भागों में बंट चुकी है। एक गुट अरविन्द केजरीवाल का, जो मुख्य धड़ा है , दूसरा अभी उसका नाम तय नहीं हुआ है , वह प्रशांत भूषण , योगेन्द्र यादव , आनंद कुमार और अजीत झा का है। पूरी दुनिया में राजनीतिक दल कभी विचारधारा के आधार पर , तो कभी कुछ नेताओं के उपेक्षित होने के कारण , तो कभी निजी कारणों से बंटते रहे हैं। आगे भी यह विभाजन होता रहेगा। विभाजन की सतत प्रक्रिया यह बताती है कि , लोकतंत्र में वैचारिक मतभेद होते ही हैं। अगर किसी दल में वैचारिक मतभेद नहीं है तो समझ लीजिये उस दल में विचार प्रवाह थम गया है। या विचार सूखने की स्थिति में आ गए हैं। पूरी दुनिया , या सभी लोग एक ही विचार को मानें और उसी पर अमल करें यह आज तक तो असंभव ही रहा है।
जैसे ही कोई नया विचार या नयी धारणा जन्म लेती है , उस पर शंका भी तुरंत उठने लगती है । जब वह शंका समाधान हेतु जिज्ञासु हो जाती है तो उस जिज्ञासा का कोई न कोई समाधान आवश्यक हो जाता है , अथवा उस शंका का अपने मूल विचार से , मोह भंग हो जाता है , परिणामतः पुनः एक नयी धारणा का जन्म होता है । और वह विचार प्रवाह आगे बढ़ जाता है। मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना , इसी को कहा गया है। विचार जन हित में है या नहीं , तार्किक है या कुतर्कों से भरा हुआ , या समाज के लिए उपयोगी होगा या नहीं , यह सारे विषय और विवाद विन्दु बाद में आते हैं। यह एक सतत प्रक्रिया है।
नयी बात यह नहीं है कि दल में टूट हुयी। नयी बात यह है कि , पार्टी की हर गतिविधि , सम्मलेन , यहां तक निजी बातचीत भी गोपनीयता के आवरण में नहीं रही , वह सबके सामने परोस दी गयी। टी वी चैनलों पर खुल कर बहस हुयी। दूसरे दलों के लोगों ने भी खुल कर अपने विचार प्रस्तुत किये। सभी को यह अचम्भा भी हुआ कि , षड्यंत्र और झूठ बोला गया , धोखा दिया गया , और चुनाव में न जीत पाने की कसक भी निकली। ऐसा लगा षड्यंत्र , झूठ , और धोखा ने पहली बार किसी दल में जन्म लिया हो। आ आ पा को ऐसा विशेष रूप से कवर करने का एक प्रमुख कारण मुझे यह समझ में आया कि , इस दल ने घोषित रूप से राजनीति के प्रचलित मानदंडों के विपरीत एक नयी राह चुनने की आस लोगों में जगाई थी। लेकिन आदर्शवाद और यथार्थ में बहुत अंतर होता है। जब यथार्थ की गर्माहट मिलती है तो , आदर्श पिघलने लगता है। वह आदर्श चाहे राजनीति का हो या सेवा का।
वैसे भी राजनीति में आदर्श का कोई स्थान अवतारों के काल में भी नहीं रहा है तो उसकी अपेक्षा करना भी उचित नहीं होगा। राम को बनवास और बालि का बध , कुटिल राजनीति ही तो थी। राजनीति अपने स्थापित मानदंडो , साम - समझा बुझा कर ,,दाम - धन , यह शब्द संस्कृत के द्रम्म से आया है जिसका अर्थ धन है ,,दंड - स्पष्ट है , और भेद - फूट डालना , के अनुसार ही चलती रही है और चलती रहेगी। यह अलब बात है कि हम स्वभावतः अपना छिद्र नहीं देख पाते हैं , और दूसरे का तो झाँक कर देखना चाहते हैं। आप इस भ्रम में बिलकुल नहीं रहिये , कि प्राचीन काल के या चाणक्य काल के राजनीतिक मानदंड बहुत आदर्श रहे हैं , और आज हम पतनोन्मुख हो गए हैं ।
एक उदाहरण देना चाहूँगा। महाभारत में , कौरवों की सभा में पांडवों के सम्मुख , उनकी पत्नी द्रौपदी का वस्त्र हरण किया गया , और सारे आदर्श वहाँ मूक थे। क्यों? फिर भी हम इस कृत्य पर सभा में स्थित सभी महानुभाओं के मौन के लिए उनकी निंदा तो करते हैं , पर वे हमारे कहीं न कहीं आदर्श भी हैं। जब सारे रिश्ते , पति , श्वसुर , सास , देवर , जेठ अपने अर्थ खो चुके तो उस समय काम आया मित्र का रिश्ता। यह चीर हरण भी राजनीति का ही दुष्परिणाम था। वह महापुरुष भी उसी सभा में थे , जिनकी एक प्रतिज्ञा और उस प्रतिज्ञा निभाने के हठ ने न केवल उनके कुल का सर्वनाश किया बल्कि सदियों तक वर्ण संकर संतानें पैदा होती रही। राजनीति को पानी पी पी कर कोसने वाले मित्रों से अनुरोध है कि , कम से कम , आज संसद के किसी सदन में किसी महिला का वस्त्र हरण हो, ऐसी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। अतीत को स्वर्णिम देखने और वर्तमान को सदैव कम कर आंकने की आदत एक प्रकार की हीन ग्रंथि भी है । जो आज वर्तमान है वही अतीत बनता है। यह केवल काल की महायात्रा है।
उस काल में प्रेस नहीं था। टी वी चैनेल नहीं थे। खबर जुटाने की गलाकाट प्रतियोगिता नहीं थे। थे तो वेदव्यास , और आज है उनका भारी भरकम ग्रन्थ , जय , जो आज महाभारत है। पर आज मीडिया है और इलेक्ट्रॉनिक आँखे हैं , जो आप न भी देखना चाहें आप को जगा कर दिखा दें। यह जागरूकता सभी दलों के लिए लागू हो तो इसके सुखद परिणाम निकलेंगे। हमने राजा नहीं चुना है , हमने अपना प्रतिनिधि चुना है। उसकी ठकुर सुहाती करने के लिए हम बाध्य नहीं है। जिन वादों , सिद्धांतों और आदर्शों की लालच में उन्हें चुना गया है , वह उन्हें जनता को देना होगा। जनता को भी उन्हें यह एहसास बराबर दिलाते रखना होगा कि , वह वहाँ क्यों है और किसकी कृपा से हैं। लेकिन यह मापदंड सबके लिए लागू होना चाहिए। अन्यथा यह भी राजनीति की ही भेंट चढ़ जाएगा।मुझे उम्मीद है कि हर राजनीतिक दलों की गतिविधियों को इसी प्रकार से गंभीरता से कवर किया जाएगा। लोकतंत्र में व्यक्ति नहीं लोक ही महत्वपूर्ण होता है
( विजय शंकर सिंह )