इन चुनावों में सभी दल अपने अपने वादों और रणीति के अनुसार जनता के समक्ष साष्टांग है। यही वह समय होता है जब जनता, जनार्दन की भूमिका में होती है और उसकी आवाज़, यानी आवाज़ ए खल्क ईश्वर की आवाज़ समझी जाती है। पर यह चांदनी महज कुछ दिनों की होती है फिर तो जनता अपनी जगह, नेता अपनी जगह और सरकार अपने ठीहे में, और उन वादों की, जो चुनाव के दौरान राजनीतिक लोगों ने जनता से किए होते हैं, कोई चर्चा भी नहीं करता है। चुनाव के दौरान भी नये वादे किये तो जाते हैं,
पर पुराने वादों पर कोई दल मुंह नहीं खोलता है, और जनता भी कम ही उनके बारे में सवाल उठाती है। जैसे जैसे मतदान की तिथि नजदीक आने लगती है, नये नये वादे और तेजी से उभरते हैं, जैसे संगीत में पहले विलंबित फिर द्रुत उभरता है। अंत में यह सारा शोर मतदान के दिन ही जब वोट मशीनें सुरक्षा घेरे में मतगणना स्थल की ओर ले जाई जाती रहती हैं तो थम जाता है और फिर गांव में फिर वही मायूसी और सुस्ती लौट आती है जो वहां का स्थायी भाव बन चुका होता है।
चुनाव दर चुनाव होते रहते हैं। पर गांव की समस्याएं और तस्वीर बहुत कुछ नहीं बदलती है। न तो वादे बदलते हैं, न ही समस्याएं, न वादे करने वालों के इरादे, न ही गांव की सड़कें, स्कूल, अस्पताल, और बेरोजगार युवाओं की अड्डेबाजी, बहुत कुछ अपरिवर्तित जैसा दिखता है, बस चुनाव में नेताओ की गाड़ियों के मॉडल ज़रूर बदल जाते हैं। कुछ उम्मीदें जनता की बढ़ जाती हैं, और उसे कुछ नए और मोहक आश्वासन भी मिल जाते हैं।
भारत मे संसदीय लोकतंत्र के चुनाव के इतिहास में, सन 1952 से 1967 तक देश मे एक ही दल, कांग्रेस का वर्चस्व रहा लेकिन 1967 में कांग्रेस को सभी राजनीतिक दलों की चुनौती एक साथ डॉ लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत के अनुसार मिली। लेकिन फिर भी केंद्रीय सत्ता से कांग्रेस की विदाई नहीं हो सकी और 1971 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस एक नए कलेवर में बहुत बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आयी।
1977 का चुनाव, किसी दल को सत्ता में लाने के बजाय इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करने के मुद्दे पर आपातकाल के खिलाफ एक जनादेश था। वैचारिक रूप से अलग थलग पर एक ही झंडे और चुनाव चिह्न से जुड़ी जनता पार्टी 1977 में सत्ता में तो आई, पर वैचारिक अंतर्विरोधों के कारण अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी और 1980 में जनता ने इंदिरा गांधी को पुनः सत्ता सौंप दी। इस चुनाव में मुद्दा जनता दल की नाकामी और आंतरिक कलह बना।
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुये, मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस को 'न भूतो' बहुमत मिला। यह राजीव गांधी के पक्ष में कोई जनादेश नही था बल्कि इंदिरा गांधी को दी गयी, एक जन श्रद्धांजलि थी। अपार बहुमत की राजीव सरकार, बोफोर्स घोटाले के मुद्दे पर ढह गयी और 1989 में वीपी सिंह, दो वैचारिक ध्रुवों पर स्थित, भाजपा और वाम मोर्चे की बैसाखी पर सवार होकर प्रधानमंत्री बने पर दो साल के अंदर ही उन्हें पद छोड़ना पड़ा।
1991 में कांग्रेस सबसे बडी पार्टी बन कर उभरी। उसी साल चुनाव के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या हो जाती है और पीवी नरसिम्हा राव को नया प्रधानमंत्री चुना जाता है। 1996 तक यह सरकार रहती है। यह सरकार नयी आर्थिक नीति के लिये याद की जाती है। लेकिन 1996 के बाद अस्थिरता का एक दौर आता है, जो 1999 तक चलता है जब अटल जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए सत्ता में आती है। यह दौर एकल दल के वर्चस्व की समाप्ति का दौर होता है जो 2014 तक चलता है।
2004 में एनडीए सत्ता से बाहर हो जाती है और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यूपीए सत्ता में आती है जो दस साल सरकार में रहती है। फिर 2014 में पहली बार भाजपा अपने दम पर सत्ता में पूर्ण बहुमत से आती है, जो एक बड़ी उपलब्धि है। यह अलग बात है कि, भाजपा ने अपने मंत्रिमंडल में एनडीए के अन्य सहयोगियों को भी सरकार में शामिल किया। 2014 के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को और भी बेहतर बहुमत मिला और नरेन्द्र मोदी पीएम के अपने दूसरे कार्यकाल में हैं।
संसदीय लोकतंत्र में सरकार जनता के द्वारा चुनी जाती है और जनता जिन मुद्दों पर वोट देती है वह मुद्दे चुनाव घोषणापत्र में शामिल होते हैं। पर चुनावी राजनीति का सबसे दुःखद पहलू यह है कि, सभी राजनीतिक दल उन मुद्दों पर बात करने से कतराते हैं, जो उन्होंने अपने घोषणापत्र में दे रखे हैं। वे उन वादों की स्टेटस रिपोर्ट भी जनता के सामने नहीं रखना चाहते जो सरकार ने अपने कार्यकाल में पूरे किये हैं। चुनाव उन मुद्दों पर भटका दिया जाता है जो न जनता की मूल समस्या से जुड़े होते हैं और न ही विकास से, बल्कि चुनाव को जानबूझकर धर्म और जाति के मुद्दों की ओर ठेल दिया जाता है, जिससे वे असल मुद्दे नेपथ्य में चले जाते हैं। और जब जवाबदेही वाले मुद्दे सामने नहीं होंगे तो धार्मिक और जातिगत मुद्दों पर तो केवल वाचालता और मिथ्यवाचन ही हावी रहेगा, जिसका परिणाम गैर जिम्मेदारी औऱ हवाई मुद्दों के आधार पर चुनी गयी सरकार के रूप में होता है, और ऐसी सरकार, पूरे कार्यकाल में केवल धर्म और जाति के दलदल में ही फंसी रहना चाहेगी क्योंकि वह इस मानसिकता में आ जाती है और जनता को यही मुद्दे अधिक प्रभावित करते हैं। धीरे धीरे यह मानसिकता मतदाताओं की बन भी जाती है कि लोकहित के कार्य धर्म और जाति के मुद्दों के आगे महत्वहीन होते हैं।
1977 के बाद साल 2014 का चुनाव भी एक जनांदोलन और तत्कालीन सरकार की विफलता से उत्पन्न व्यापक आक्रोश के आधार पर लड़ा गया था। अंतर बस यह था कि 1977 में मुख्य मुद्दा इंदिरा सरकार द्वारा थोपा गया आपातकाल था, जबकि 2014 में मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार था। अन्ना आंदोलन लोकप्रिय ज़रूर हुआ था पर न तो वह जेपी आंदोलन की तरह व्यापक था और न मनमोहन सरकार द्वारा आपातकाल जैसी ज्यादती ही हुयी थी। लेकिन 2014 के चुनाव में कांग्रेस को बुरी तरह से पराजित होना पड़ा और उसकी स्थिति यह हो गयी कि मान्यता प्राप्त विपक्षी दल का दर्जा भी उसे न तो 2014 में मिला और न ही 2019 में।
अब बात करते हैं 2014 के मुख्य मुद्दे की, जो भ्रष्टाचार से जुड़ा था। यूपीए 2 के अंतिम साल घोटालों से भरे रहे और आरोपों, सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिकाओं और सीएजी की कुछ रपटों से यह परिदृश्य बन गया कि यह सरकार अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार है। भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा पहले भी था पर 2014 में यह लगा कि आने वाली नरेंद्र मोदी सरकार, लम्बे समय से चली आ रही इस व्याधि पर कुठाराघात करेगी और एक बेहतर और सुव्यवस्थित शासन प्रणाली की शुरुआत होगी। गुजरात का विकास देश के लिये एक मॉडल के रूप में रखा गया। पर जब सरकार 2014 में बदली और एनडीए की सरकार बनी, तब से लेकर आज तक 2014 के सबसे ज्वलंत मुद्दे पर कोई उल्लेखनीय कदम सरकार द्वारा उठाया जाना तो दूर रहा, बल्कि सरकार ने ऐसे कदम उठा लिये जिनसे सरकार की पारदर्शिता और धुंधली हो गयी।
अब एक नज़र 2014 में किये गए उन प्रमुख वादों पर डालते हैं, जिन पर सरकार को काम करना था,
● मूल्य वृद्धि रोकने का प्रयास :
● न्याय-व्यवस्था के सभी स्तरों में फास्ट ट्रेक कोर्ट स्थापित करना।
● शिक्षा के स्तर का विकास :
● प्रत्येक नागरिक के लिए उचित स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराना।
● हर सूबे में 'एम्स' स्थापित करना।
● भ्रष्टाचार की गुंजाइश न्यूनतम करके ऐसी स्थिति पैदा की जाएगी कि कालाधन पैदा ही न होने पाए।
● विदेशी बैंकों और समुद्र पार के खातों में जमा कालेधन का पता लगाने और उसे वापस लाने के लिए हरसंभव प्रयास करेगी।
जब यह वादे 2014 के स्वप्निल माहौल में, उम्मीद की न जाने कितनी सतरें जगा रहे थे और टीवी की स्क्रीन 'अच्छे दिन आने वाले हैं' के मनमोहक और कर्णप्रिय विज्ञापनों से गुलज़ार हो रही थी तो, लग रहा था कि, कोई सरकार नहीं बनने जा रही है, बल्कि एक अवतार का आगमन हो रहा है, जो अब सब कुछ बदल कर रख देगा। तब देश का माहौल ही कुछ अजब गजब हो चला था। तब के संकल्पपत्र 2014 को, फिर से पढिये। वक़्त के उसी दौर में खुद को ले जाकर आत्ममंथन कीजिए कि इतने सुनहरे और खूबसूरत वादों पर सवार होकर आने वाली सरकार जब 2019 का चुनाव लड़ रही थी तो, न तो इन वादों का उल्लेख सत्तारूढ़ दल कर रहा था, और न ही जनता मुखर होकर उनसे सवाल कर रही थी। 100 स्मार्ट सिटी, 2 करोड़ लोगों को प्रतिवर्ष रोजगार, उद्योगों का संजाल, और भी न जाने क्या क्या यह सब कहाँ खो गए ? अब तो इनकी चर्चा भी कोई नहीं करता है । वे भी नहीं जो इन वादों को मास्टरस्ट्रोक और गेम चेंजर मान रहे थे। इन वादों को तो, सरकार अपने कार्यकाल के पहले ही साल भूल गयी और इन वादों को फिर कोई याद न दिलाये, तो कह दिया गया कि चुनावों के दौरान ऐसी वैसी बातें कह दी जातीं ही हैं। यह सब जुमले होते हैं। मतलब छोड़िये इन्हें। इन पर खाक डालिये !
2014 के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव और उसके पहले तथा बाद में होने वाले राज्यो के चुनावों में, न तो 2014 के वादों पर बहस हुयी और न ही 2014 के बाद होने वाले मास्टरस्ट्रोक नोटबन्दी और जीएसटी पर कोई बात हुयी। सत्तारूढ़ दल को अपनी उपलब्धियों के बजाय अपने पुराने आजमाए नुस्खे, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, कब्रिस्तान बनाम श्मशान, कपड़ो से दंगाइयों की पहचान का दर्शन, और आतंकी आ जाएंगे आदि मुद्दों पर बात करना सहज लगा और उन्होंने इन्ही मुद्दों को जनता के बीच ज़िंदा रखने की कोशिश की। बिहार के चुनाव में भी जब जेपी नड्डा यह कहते हैं कि 300 आतंकी जम्मूकश्मीर में अपनी गतिविधियों को अंजाम तक पहुंचाने के लिये तैयार बैठे हैं तो वे यह भी भूल जाते हैं कि यह कथन उनके ही निकम्मेपन को उजागर कर रहा है, क्योंकि 2014 से अब तक देश औऱ जम्मूकश्मीर में भाजपा की ही सरकार है और नोटबन्दी तथा अनुच्छेद 370 के खात्मे ने, सरकार के ही अनुसार, आतंकवाद की कमर तोड़ दी है। चुनाव में सत्तारूढ़ दल सदैव ही निशाने पर रहता है, पर विपक्ष के पास कुछ भी कहने का असीम विस्तार होता है। ऐसे में अगर सरकार ने अपने घोषणापत्र पर कोई ज़मीनी काम नहीं किया है तो उसकी स्थिति, उसी छात्र की तरह हो जाती है, जो असहज मानसिकता में परीक्षा हॉल में जाता है और सारे देवी देवताओं को याद करता हुआ अपना पर्चा लिखता है। आज यही स्थिति बिहार के चुनाव में भाजपा की है कि उन्हें अपने 15 साल की उपलब्धियां याद नही हैं पर 15 साल के पहले वाले 15 साल के जंगल राज की याद ताजा है। यह एक प्रकार की सेलेक्टिव याददाश्त का उदाहरण है।
अब एक नज़र 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा द्वारा किये गये, मुख्य चुनावी वादों पर डालते हैं,
● बिहार में नए कृषि विश्वविद्यालय और एक वेटनरी विश्वविद्यालय की स्थापना होगी।
● समय पर ऋण चुकाने वाले किसानों को शून्य प्रतिशत ब्याज पर कृषि ऋण देने की योजना।
● हर गांव को बारहमासी पककी सड़क से जोड़ा जाएगा।
● हर स्कूली बच्चे को मिलेगा स्वास्थ्य कार्ड। बीमारी निकलने पर सरकारी खर्च पर इलाज होगा।
● सभी भूमिहीनों को घर बनाने के लिए जमीन दिया जाएगा।
● 2022 तक सभी गृहविहीनों को शुद्ध पेयजल, शौचालय एवं बिजली कनेक्शन के साथ पक्के घर मुहैया कराए जाएंगे।
● 10वीं और 12वीं पास 50 हजार मेधावी छात्रों को लैपटॉप दिया जाएगा।
● युवाओं को बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए जाएंगे।
● राष्ट्रीय स्तर के मेडिकल, इंजीनियरिंग, पॉलीटेक्निक, आईटीआई स्थापित किए जाएंगे।
● 24x7 एंबुलेंस सेवा और ट्रॉमा केयर की व्यवस्था की जाएगी।
● हर शहर में हर साल रोजगार मेले का आयोजन किया जाएगा। इसमें बड़ी बड़ी कंपनियों को बुलाया जाएगा।
● सभी प्रखंडों में मिनी आईटीआई, सभी उपखंडों में एक आईटीआई सभी जिलों में एक पॉलिटेक्निक और सभी प्रमंडलों में एक एक इंजीनियरिंग और चिकित्सा महाविद्यालय की स्थापना होगी।
सूची बहुत लंबी है पर मैंने उन्ही वादों को लिखा है जो शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से जुड़े है ।
क्या 2015 के इन वादों के बारे में कोई चर्चा नहीं की जानी चाहिए ? यह तर्क दिया जा सकता है कि सभी वादे पूरे नहीं किये जा सकते, और यह एक वाजिब तर्क भी है। पर यह तो सरकार को अपने चुनावी सभा मे बताना ही चाहिए कि, किन वादों को पूरा किया गया और किन को नही छुआ गया। चुनावी घोषणापत्र पर जब बहस, जवाबदेही और पूछताछ बंद होने लगेगी तो सबसे अधिक राहत की सांस राजनीतिक दल ही लेंगे क्योंकि वादे कर दरिया में डाल, उनकी आदत बन गयी है और वे इसे केवल एक इवेंट से अधिक नहीं समझते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश के रे के एक ब्लॉग में ब्रूकिंग्स इंडिया के सर्वे में बिहार के विकास की जमीनी स्थिति के कुछ आंकड़े प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो बिहार के इस चुनाव में मुद्दे बनने चाहिए।
● स्वास्थ्य पर औसतन प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष ख़र्च 348 रुपए है, जबकि राष्ट्रीय औसत 724 रुपया है।
● निजी अस्पतालों में भर्ती का अनुपात राज्य में 44.6 फ़ीसदी है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 56.6 फ़ीसदी है।
● निजी अस्पतालों में दिखाने का अनुपात बिहार में 91.5 फ़ीसदी है. इसमें राष्ट्रीय अनुपात 74.5 फ़ीसदी है.
● बिहार की सिर्फ़ 6.2 फ़ीसदी आबादी के पास स्वास्थ्य बीमा है. इसमें राष्ट्रीय औसत 15.2 फ़ीसदी है।
● स्वास्थ्य पर बहुत भारी ख़र्च के बोझ तले दबे परिवारों का आँकड़ा 11 फ़ीसदी है, जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 13 फ़ीसदी है.
● यह सैंपल सर्वे के आँकड़े 2016 के हैं। अगर कुछ बेहतरी हुयी है तो सरकार उसे भी बता सकती है। कुछ साल पुराने ● वर्ष 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत के बाद सालाना 10 फ़ीसदी बजट में बढ़ोतरी की दरकार को बिहार सरकार ने लागू नहीं किया है।
● 2014-15 में बजट का 3.8 फ़ीसदी हिस्सा स्वास्थ्य के मद में था और यह 2016-17 में 5.4 फ़ीसदी हो गया, लेकिन 2017-18 में यह गिरकर 4.4 फ़ीसदी हो गया. इस अवधि में कुल राज्य बजट में 88 फ़ीसदी की बढ़त हुई थी.
● बिहार में स्वास्थ्य ख़र्च का लगभग 80 फ़ीसदी परिवार वहन करता है, जबकि इस मामले में राष्ट्रीय औसत 74 फ़ीसदी है.
● बिहार में एक भी ऐसा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है, जो स्थापित मानकों पर खरा उतरता हो.
● एक लाख जनसंख्या पर एक कम्युनिटी हेल्थ सेंटर होना चाहिए, अर्थात बिहार में 800 केंद्रों की ज़रूरत की तुलना में 200 ही ऐसे केंद्र हैं।
● राज्य में 3,000 से अधिक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र अपेक्षित हैं, लेकिन ऐसे केंद्रों की संख्या सिर्फ़ 1,883 है.
● एक ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेंद्र के तहत लगभग 10 हज़ार आबादी होनी चाहिए, लेकिन बिहार में ऐसा एक उपकेंद्र 55 हज़ार से अधिक आबादी का उपचार करता है।
● नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल के मुताबिक, बिहार में 28,391 लोगों पर एक डॉक्टर है, जबकि दिल्ली में यही आँकड़ा 2,203 पर एक डॉक्टर का है।
● नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल, 2018 के अनुसार, बिहार की 96.7 फ़ीसदी महिलाओं को प्रसव से पहले पूरी देखभाल नहीं मिलती है.
● यूनिसेफ़ के अनुसार, बच्चों में गंभीर कुपोषण के मामले में भी बिहार देश में पहले स्थान पर है. साल 2014-15 और 2017-18 के बीच पोषण का बजट भी घटाया गया।
क्या राजनीतिक दल, सजग जनता और मिडिया बंधु इन्हें चुनाव प्रचार के दौरान उठाना चाहेंगे ?
2014 के बाद एक नयी प्रवित्ति विकसित हुयी है कि, सरकार के खिलाफ बोलना, सरकार से सवाल पूछना, सरकार को याद दिलाना, सरकार के कृत्यों के सम्बंध में प्रमाण मांगना यह सब हेय, पाप और देशद्रोह है। इस संस्कृति ने एक ऐसे समाज का विकास किया जो स्वभावतः चाटुकार और मानसिक रूप से दास बनने लगा। सत्ता को तो ऐसा ही समाज रास आता है। सत्ता को प्रखर, विवेक, संदेह करने और प्रमाण मांगने वाला समाज भी रास नहीं आता है। उसे भेड़ में परिवर्तित आज्ञापालक समाज ही रास आता है।
और ऐसा तब होता है जब जनता यह भूल बैठती है कि आखिर उसने किसी को चुना क्यों है ? किस उम्मीद पर चुना है ? किन वादों पर सत्ता सौंपी है ? उन उम्मीदों का क्या हुआ ? उन वादों का क्या हुआ ? और अगर कुछ हुआ नहीं तो फिर हुआ क्यों नही ? इसके लिये जिम्मेदार कौन है ? और जो जिम्मेदार है उसे क्यों नहीं दण्डित किया गया ? यह सारे सवाल लोकतंत्र को जीवित रखते हैं और सत्ता को असहज। प्रश्न का अंकुश ही सत्ता के मदांध गजराज को नियंत्रित रख सकता है।
विवेकवान, जाग्रत, अपने अधिकारों के लिये सजग और सतर्क रहने वाली जनता से अधिकार सम्पन्न सत्ता भी डरती और असहज रहती है। वह डरती रहती है। हम सरकार को कुछ उद्देश्यों के लिये उनके द्वारा किये गए वायदों को पूरा करने के लिये चुनते हैं न कि राज करने के लिये अवतार की अवधारणा करते हैं। सरकार हमारे लिये और हमारे दम पर है न कि हम सरकार की मर्ज़ी पर निर्भर है। वक़्त मिले तो सोचिएगा कि, हमने सरकार से उसके वादों और नीतियों के बारे में पूछताछ करना क्यों छोड़ दिया, और हमारी इस चुप्पी का परिणाम अंततः भोगना किसको पड़ेगा ?
( विजय शंकर सिंह )