संविधान स्पष्ट कहता है कि, राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करेगा । वह अपने विवेक से कुछ नहीं करेगा । अगर वह सलाह से सहमत नहीं है तो, उस सलाह को , वापस मंत्रिमंडल को वापस कर देगा । पर यदि मंत्रिमंडल ने उसी सलाह को फिर से भेज दिया तो, राष्ट्रपति के पास कोई अन्य विकल्प नहीं है । यह संवैधानिक बाध्यता है और परम्परा भी ।
उत्तराखंड उच्च न्यायालय की एक टिपण्णी कि राष्ट्रपति भी गलती कर सकते हैं, से राष्ट्रपति के पद की गरिमा के हनन की ध्वनि आ रही है । अदालत ने यह भी कहा कि वह राजा नहीं है और न ही सर्व शक्तिमान हैं । यही बात जब राष्ट्रपति के अधिकार और कर्तव्यों पर , संविधान सभा में बहस हो रही थी, तो कही गयी थी , कि,भारत का राष्ट्रपति, ब्रिटेन का सम्राट नहीं है । सम्राट गलती नहीं कर सकते हैं , यह एक बेहद प्रसिद्ध उक्ति है । पर यह धारणा राष्ट्रपति के बारे में बनाये रखना उचित नहीं है । वह एक निर्वाचक मंडल द्वारा चुना गया वरिष्ठतम जन प्रतिनिधि है । उसका कृत्य भी न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता है । अदालत की टिप्पणी , मूलतः राष्ट्रपति के ऊपर टिप्पणी नहीं , बल्कि राष्ट्रपति के द्वारा, धारा 356 के अंतर्गत किये गए निर्णय के औचित्य पर टिप्पणी है । यह टिप्पणी, मंत्रिमंडल के उस निर्णय के ऊपर है , जो उसने धारा 356 के अंतर्गत उत्तराखंड राज्य के सन्दर्भ में लिया गया है । यह टिप्पणी सरकार के ऊपर है । सरकार कोई भी हो, किसी की भी हो उसके निर्णय राजनीतिक पहलुओं से प्रभावित भी हो सकते हैं । अतः ऐसे निर्णयों पर अदालत समीक्षा कर सकती है । यह निर्णय भी न्यायिक समीक्षा के लिए अदालत के समक्ष है अतः इस पर बहस होगी और जब बहस होगी तो कुछ न कुछ प्रिय अप्रिय कहा ही जाएगा । वैसे यह प्रकरण अब सवोच्च न्यायालय , में केंद्र सरकार द्वारा ले जाया जा रहा है, देखना है सबसे बड़ी अदालत का क्या रुख होता है ।
धारा 356, में केंद्र सरकार को यह अधिकार प्राप्त है कि, वह संवैधानिक तंत्र के विफल होने पर उस राज्य का शासन अपने आधीन ले ले । इसे ही राष्ट्रपति शासन कहते हैं । उस अवधि में राज्यपाल प्रशासनिक प्रमुख हो जाता है । उस की सहायता के लिए कुछ सलाहकार होते हैं। प्रकारान्तर से यह नौकरशाही का शासन होता है । इस धारा का बहुत दुरूपयोग भी हुआ है । सबसे पहला राज्य केरल था जहाँ देश की सबसे पहली बार चुनी गयी, कम्युनिस्ट सरकार बर्खास्त की गयी थी । इंदिरा गांधी के समय में भी, इस धारा का दुरूपयोग हुआ, और निर्वाचित सरकारें बर्खास्त हुयी हैं । 1992 में 6 दिसंबर को जब अयोध्या में विवादित ढांचा जब तोडा गया और देश में व्यापक दंगे हुए तब उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार तो बर्खास्त हुयी ही , राजस्थान, मध्य प्रदेश, और हिमाचल की भाजपा सरकारें भी बर्खास्त हुयी। यह कदम न्यायोचित नहीं था । क्यों कि संविधान की अवहेलना और सर्वोच्च न्यायालय को विवादित ढांचे पर यथास्थिति बनाये रखने का वचन भंग उत्तर प्रदेश सरकार ने किया था, न कि, अन्य सरकारों ने । जब इस धारा का प्रयोग राजनीतिक गुणा भाग से किया जाएगा तो, मीन मेख निकलेंगे ही। और राजनितिक पूर्वाग्रह का यह परिणाम हुआ कि, यह सारे मामले अदालत में जाने लगे । इसी लिए इधर कुछ समय से , इस धारा का प्रयोग कम हो गया था । 356 में सबसे अहम भूमिका राज्यपाल की होती है । राज्यपाल निष्पक्ष होता है और वह बिना दबाव के काम करता है, ऐसा माना जाता है, पर ऐसा होता नहीं है । अक्सर ऐसा पाया गया है कि, राज्यपालों ने संविधान के इरादों के ऊपर अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धताओं को अधिक तरज़ीह दी है।
धारा 356 का सबसे पहली बार प्रयोग 31 जुलाई 1959 को, केरल की चुनी हुयी कम्युनिस्ट सरकार के विरुद्ध किया था । 1 नवम्बर 1956 को केरल राज्य का गठन, राज्य पुनर्गठन एक्ट के अंतर्गत , मालाबार, त्रावणकोर कोचीन, ज़िलों और कासरगोड तथा दक्षिण कनारा को मिला कर किया गया था । 1957 के प्रथम चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी के महान नेता ई एम एस नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में, पहली बात चुन कर वामपंथी सरकार अस्तित्व में आयी थी । नम्बूदरीपाद जो स्वयं एक बड़े और प्रतिष्ठित ज़मींदार परिवार से थे, ने जब अपनी पार्टी के घोषणा पत्र के अनुसार, भूमि सुधार, और शिक्षा में सुधार का एजेंडा लागू करने का प्रयास किया तो, उसके विरोध में, केरल कैथोलिक चर्च , नायर सोसायटी के लोगों और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, ने कांग्रेस की सहायता से इसका विरोध करना शुरू कर दिया । पूरे प्रदेश में विरोध प्रदर्शन होने लगे और क़ानून व्यवस्था के प्रश्न पर नम्बूदरीपाद सरकार बर्खास्त कर के राष्ट्रपति शासन 31 जुलाई 1957 को लगा दिया गया ।
अगर आंकड़ों का अध्ययन करें तो, 27 जनवरी 2016 तक कुल 125 बार धारा 356 का प्रयोग किया गया है । राज्यवार विवरण इस प्रकार है । आंध्र प्रदेश में 3 बार, अरुणांचल में 2, आसाम में 4, बिहार में 8, दिल्ली में 1, गोआ में 5, गुजरात में 5, हरियाणा में 3, हिमाचल प्रदेश 2, जम्मू कश्मीर 6, झारखंड 3, कर्नाटक 6, केरल 4, मध्य प्रदेश, 4, महाराष्ट्र 2, मणिपुर 10, मेघालय 2, मिजोरम 3, नागालैंड 4, ओडिशा 6, पुड्डुचेरी 6, पंजाब 9, राजस्थान 4, सिक्किम 2, तमिल नाडु 5, त्रिपुरा 3, उत्तर प्रदेश 9,और पश्चिम बंगाल में 4 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया ।
सबसे कम अवधि का राष्ट्रपति शासन, कर्नाटक में 10 अक्टूबर से 17 अक्टूबर तक 7 दिन का, पश्चिम बंगाल में 1 जुलाई 62 से 8 जुलाई 62 तक 7 दिन के थे । इसी प्रकार सबसे लंबी अवधि का राष्ट्रपति शासन जम्मू कश्मीर में 19 जनवरी 90 से 9 अक्टूबर 96 तक 6 वर्ष 264 दिन का लगाया गया था । जिसे हम राष्ट्रपति शासन कहते हैं वही जम्मू कश्मीर में राज्यपाल का शासन कहलाता है । यह धारा 92 के अंतर्गत लगाई जाती है, ऐसा धारा 370 के अंतर्गत जम्मू कश्मीर को प्रदत्त प्राविधान के कारण है ।
धारा 356 के प्राविधान के प्रयोग पर बहुत ही बहस हो चुकी है और आगे भी होगी। अदालतों में भी इस प्राविधान के अंतर्गत लागू किये हुए आदेशों पर सुनवाई भी हुयी । जून 1983 में, सुप्रीम कोर्ट के अवकाशप्राप्त जज, जस्टिस रंजीत सिंह सरकारिया, की अध्यक्षता में, केंद्र राज्य सम्बन्ध और 356 के प्राविधान पर अध्ययन करने और इसका दुरूपयोग न हो सके, इस हेतु सुझाव और समाधान प्रस्तुत करने के लिए एक आयोग का गठन किया गया । आयोग ने पाया कि, 1950 से 1954 तक, 3 बार इस प्राविधान का प्रयोग किया गया । जब कि 1965 से 1969 तक कुल 9 और 1975 से 1979 तक 21 बार इस प्राविधान का उपयोग किया गया । 1975 में ही आपात काल भी लगा था । 1980 से 1987 तक कुल 18 बार इस प्राविधान के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लगाया गया । सबसे अधिक दुरूपयोग 1975 से 1980 के बीच किया गया । राजीव गांधी के समय में इसके दुरूपयोग पर कुछ लगाम लगी । सरकारिया आयोग ने दुरूपयोग रोकने के लिए जो संस्तुतियाँ की थी वे कभी लागू भी नहीं हुयी।
जो भी दल विरोध में रहते हुए, जिन विन्दुओं पर वह सत्तारूढ़ दल की आलोचना करते रहते है, जब वे सत्ता में आते है तो वही वही कार्य करते है जिनकी वे आलोचना करते नहीं थकते थे । वर्तमान सरकार ने अरुणांचल और उत्तराखंड में विद्रोही कांग्रेसी विधायकों के कारण अस्थिर कांग्रेस सरकारों को बर्खास्त किया । दोनों ही मामलों में सरकार को अदालतों की तल्ख़ टिप्पणी सुननी पडी । आज तो उत्तराखंड में लगा हुआ राष्ट्रपति शासन का अध्यादेश भी रद्द हो गया । इस से केंद्र सरकार की किरकिरी भी हुयी है । संविधान सर्वोच्च है । और अदालतें उनकी हिफाज़त करने के महती दायित्व से बंधी है । संसद चाहे तो संविधान बदल दे पर जो प्राविधान उसमे दिए गए हैं उनकी न्यायिक समीक्षा का पूरा अधिकार संविधान के ही अनुसार हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को है ।
( विजय शंकर सिंह )