अगर धरोहरों के रखरखाव और पुनरुत्थान के प्रति कॉरपोरेट्स के मन मे इतना ही प्रेम छ्छा रहा है तो वे कालिंजर का दुर्ग क्यों नहीं ठेके पर लेते है ? उनकी नज़र लाल किले पर ही क्यों है ? कालिंजर यहां एक दुर्ग के तौर पर देखा जा सकता है और एक उपेक्षित दुर्ग के प्रतीक के रूप में भी। कहने का आशय प्रमुख धरोहरों और उपेक्षित धरोहरों के बीच चयन की मानसिकता का अंतर है। जो उपेक्षित है उसे कोई कॉरपोरेट नहीं लेना चाहेगा। अपवाद हो सकता है , हों ।
कालिंजर का दुर्ग बांदा जिले का एक ऐतिहासिक दुर्ग है। चंदेल राजाओं द्वारा बनवाया गया यह महान किला ऐतिहासिक धरोहर है। इसी किले में बारुदखाने का निरीक्षण करते हुये शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गयी थी। जिसे वहां से ला कर सासाराम में स्थित शेरशाह के मकबरे में दफनाया गया था। यह किला शहर से दूर है, निर्जन है, और रात में रहस्यमय लगता है। इसके देखभाल की ज़रूरत भी है। पर इस पर किसी डालमिया, जेएमआर, आईटीसी की नज़र नहीं पड़ेगी। क्यों कि इन घरानों का उद्देश्य ही मुनाफा कमाना और धनादोहन है न कि धरोहरों की साज संभाल करना। अपने पुलिस अधीक्षक बांदा के कार्यकाल के दौरान मैंने कई रात इस किले में बिताई हैं।
धरोहरें, जो ठेके पर दी जा रहीं है के सम्बंध में एक तर्क यह दिया जा रहा है कि 2013 के कम्पनी एक्ट में एक संशोधन किया गया था जिसके अनुसार कम्पनी को अपने लाभ का कुछ अंश सामाजिक दायित्वों पर व्यय करना होगा। कम्पनी एक्ट के ये नियम जिन्हें कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी (CSR) नियम कहा जाता है, 1अप्रैल 2014 से लागू किये गए हैं । इस नियम के अनुसार यदि किसी कम्पनी की नेटवर्थ, 500 करोड़ सालाना या 1000 करोड़ की सालाना आय, या 5 करोड़ का सालाना लाभ, जो भी इनमे से हो, तो उन कम्पनियों को सामाजिक दायित्वों पर कुछ राशि खर्च करना जरूरी होता है। यह खर्च तीन साल के औसत लाभ का कम से कम 2% होना चाहिए। इन नियमों के अनुसार, इन दायित्वों के प्रावधान केवल भारतीय कंपनियों पर ही लागू नहीं होते हैं बल्कि यह भारत में विदेशी कंपनी की शाखा और विदेशी कंपनी के परियोजना कार्यालय के लिए भी लागू होते हैं। यह एक उचित संशोधन है। गलाकाट मुनाफेबाज़ी की दौड़ में शामिल कम्पनियां, शायद इसी कानून से डर कर अपने लाभ का कुछ अंश जन हित पर व्यय करें, इस कानून के बनाने के पीछे सरकार की यही मंशा थी।
सामाजिक दायित्वों में निम्न विंदु आते है।
सामाजिक दायित्वों में निम्न विंदु आते है।
1. भूख, गरीबी और कुपोषण को खत्म करना
2. शिक्षा को बढ़ावा देना
3. मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य सुधारना
4. पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करना
5. सशस्त्र बलों के लाभ के लिए उपाय
6. खेल गतिविधियों को बढ़ावा देना
7. राष्ट्रीय विरासत का संरक्षण
8. प्रधान मंत्री की राष्ट्रीय राहत में योगदान
9. स्लम क्षेत्र का विकास करना
10. स्कूलों में शौचालय का निर्माण
2. शिक्षा को बढ़ावा देना
3. मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य सुधारना
4. पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करना
5. सशस्त्र बलों के लाभ के लिए उपाय
6. खेल गतिविधियों को बढ़ावा देना
7. राष्ट्रीय विरासत का संरक्षण
8. प्रधान मंत्री की राष्ट्रीय राहत में योगदान
9. स्लम क्षेत्र का विकास करना
10. स्कूलों में शौचालय का निर्माण
इस कानून की ज़रूरत क्यों पड़ी ?
भारतीय ही नहीं वैश्विक परम्परा में दान या चैरिटी की एक स्थापित परम्परा रही है। धन सम्पन्न लोग अक्सर मन्दिर, धर्मशालाएं, या कुछ न कुछ जन कल्याण का कार्य करते रहते थे । बहुत से कार्य गुप्त दान की अवधारणा के अनुसार होते थे। कोई राजकीय बाध्यता नहीं थी। पर पिछले कुछ सालों से आर्थिक उदारीकरण ने बाजार और उपभोक्तावाद का जो चेहरा दिखाया है वह केवल लाभ प्राप्त करने की गलाकाट प्रतिद्वंद्विता का चेहरा है। वहां दान पुण्य आदि का स्थान गौड़ होता गया। सारी ऊर्जा कर बचाने और अधिक से अधिक लाभ लेने में खपती गयी। तब एक कर इंसेंटिव के रूप में कम्पनी कानून में 2013 में संशोधन कर के इन पूंजीपति घरानों को समाज के वृहत्तर दायित्व की ओर ध्यान देने के लिये बाध्य किया गया। तब सरकार ने इन घरानों से यह अपेक्षा की वे अपने लाभ का कुछ अंश इन पर व्यय करेंगे। धरोहरों को ठेके पर देने का चलन इसी कानून से शुरू हुआ है।
भारतीय ही नहीं वैश्विक परम्परा में दान या चैरिटी की एक स्थापित परम्परा रही है। धन सम्पन्न लोग अक्सर मन्दिर, धर्मशालाएं, या कुछ न कुछ जन कल्याण का कार्य करते रहते थे । बहुत से कार्य गुप्त दान की अवधारणा के अनुसार होते थे। कोई राजकीय बाध्यता नहीं थी। पर पिछले कुछ सालों से आर्थिक उदारीकरण ने बाजार और उपभोक्तावाद का जो चेहरा दिखाया है वह केवल लाभ प्राप्त करने की गलाकाट प्रतिद्वंद्विता का चेहरा है। वहां दान पुण्य आदि का स्थान गौड़ होता गया। सारी ऊर्जा कर बचाने और अधिक से अधिक लाभ लेने में खपती गयी। तब एक कर इंसेंटिव के रूप में कम्पनी कानून में 2013 में संशोधन कर के इन पूंजीपति घरानों को समाज के वृहत्तर दायित्व की ओर ध्यान देने के लिये बाध्य किया गया। तब सरकार ने इन घरानों से यह अपेक्षा की वे अपने लाभ का कुछ अंश इन पर व्यय करेंगे। धरोहरों को ठेके पर देने का चलन इसी कानून से शुरू हुआ है।
लेकिन, पूंजीवाद की मूल मानसिकता होती है लाभ । अगर किसी भी परियोजना में उन्हें लाभ नहीं दिख रहा है तो वे उसे क़भी नहीं चलाएंगे भले ही उस परियोजना से व्यापक जन कल्याण का हित सधता हो। ये घराने वही धरोहर ठेके पर लेंगे जो या तो मुख्य शहर में हो, बहु प्रचारित हो और जहां से उन्हें लाभ हो सके। अडॉप्ट ए हेरिटेज से यह ध्वनि निकल रही है हम जब साझ संभाल में सक्षम नहीं तो इन पूंजीपति घरानों को बुला कर ये धरोहरें बेहतर रख रखाव के लिये सौंप रहे हैं। यह सरकार की अक्षमता है या पूंजीपति घरानों के साथ दुरभिसंधि यह तो भविष्य ही बताएगा। मैं इसे दोनों ही मानता हूं।
यह कहा जा रहा है कि डालमिया लाल किले का स्वरूप नहीं बदलेंगे। वे केवल रख रखाव करेंगे। यह बात मान भी ली जाय कि वे स्वरूप नहीं बदलेंगे और केवल रख रखाव ही करेंगे। तो वे रख रखाव में करेंगे क्या ? लाल किला साढ़े तीन सौ साल पुरानी इमारत है। वक़्त की मार इस पर भी पड़ती है। ऐसी इमारतों के संरक्षण के लिये जिस विशेषज्ञता की ज़रूरत होगी क्या वह डालमिया ग्रुप के पास है ? क्या वह एक किले के रखरखाव के लिये ऐसा कोई विशेषज्ञ समूह जिसमे पुरातत्व, इतिहास और म्युजियोलॉजी के जानकार हों बनाएंगे ? क्या यह ग्रुप जो कर राहत में लाभ के लिये सामाजिक दायित्व कानून के अंतर्गत यह किला ले रहा है वह एक अच्छी खासी धनराशि, धरोहरों के जीर्णोद्धार के लिये व्यय करेगा ? क्या ग्रुप की रुचि धरोहरों के रखरखाव में सच मे है या केवल सीएसआर की फ़र्ज़ अदायगी ही यह कदम होगा ? निरंतर लाभोन्मादी पूंजीपति घराना इन धरोहरों के लिये अतिरिक्त व्यय करना चाहेगा। अब यह कहा जा सकता है कि यह सब काम पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करेगा। एएसआई एक विशेषज्ञ विभाग है। उसमें विषय के जानकर हैं जो ऐसी धरोहरों के रखरखाव में निपुण है। जब इन्हें ही किले का रख रखाव करना है तो फिर डालमिया को किला देने का क्या तुक है ? मेरे मित्रगण एएसआई में हैं और उनके अनुसार धरोहरों के रखरखाव पर अच्छा खासा पैसा खर्च होता है। इन रख रखाव के बीच सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह होता है कि धरोहरों का मूल स्वरूप न परिवर्तित हो और वे आकर्षक बने भी रहें।
डालमिया ग्रुप वहां जो लाइट एंड साउंड शो हो रहा है उसे थोड़ा आधुनिक करेगा, थोड़ी प्रकाश व्यवस्था ठीक होगी, हरियाली बढ़ेगी और इन सबके एवज में वे शहर के सबसे प्रमुख स्थल पर अपने उत्पादों का विज्ञापन करेंगे। यह सारा विज्ञापन, होर्डिंग, जिन्हें लगाने के लिये उन्हें लाखों रुपये महीने खर्चे करने पड़ते , यहां मुफ्त में लग जाएंगे। लाल किला का 120 एकड़ का परिसर अगर भविष्य में चल कर कहीं थीम आधारित शादियों के लिये भी दिये जाने लगे तो हैरानी की बात है। वहां एक होर्डिंग की क्या दर होगी यह दिल्ली की कोई भी विज्ञापन एजेंसी बता सकती है। असल इरादा ग्रुप का यही है। फिर वैश्विक स्तर पर लाल किला के ठेकेदार होने की साख जो है वह तो अलग है ही।
मैंने कालिंजर का उल्लेख इस लिये किया है कि, यह एक दुर्गम दुर्ग है। उपेक्षित है।और जनशून्य भी। यहां आने के लिये थोड़ा सुरक्षा भाव भी मन मे रखना होता है। पर इसे ठेके पर लेने के लिये कोई भी पूंजीपति घराना आगे नहीं आएगा। किसी के भी मन मे धरोहरों के लिये प्रेम नहीं उमड़ेगा। यह सारा प्रेम लाल किला, ताजमहल, कोणार्क का सूर्य मंदिर, महाबलीपुरम के मंदिर संकुल, खजुराहो के भव्य मंदिर , अजंता एलोरा एलिफेंटा के प्रख्यात गुफा गृह, सारनाथ के स्तूप आदि के लिये उमड़ेगा क्यों कि यहां की प्रसिद्धि से उनका प्रचार होगा। उनके उत्पादों का विज्ञापन होगा। यह मुनाफे की मानसिकता है न कि धरोहरों के प्रति अनुराग । कालिंजर में उन्हें ऐसी सुविधा नहीं मिलेगी । यह ठेकेदारी प्रथा या अडॉप्ट ए हेरिटेज केवल सीएसआर कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के नाम पर कर राहत लेने की चाल है।
© विजय शंकर सिंह
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