Thursday, 30 June 2022

खुसरो बाग, प्रयागराज - इतिहास से बैर न करें इतिहास को गंभीरता से पढ़े / विजय शंकर सिंह

उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, प्रयागराज को सूफी कवि हजरत अमीर खुसरो और मुगल शहजादा खुसरो जो जहांगीर का पुत्र था, का इतिहास नहीं पता है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय, मध्यकालीन इतिहास के विद्वानों का गढ़ है और वहीं के केंद्र की यह अज्ञानता तकलीफदेह और हैरान करने वाली है। 

यह केंद्र 'शान ए खुसरो' के नाम से एक आयोजन कर रहा है और यह कार्ड छपा कर सबको बता रहा है कि इलाहाबाद जो अब प्रयागराज है का प्रसिद्ध खुसरो बाग में जो मकबरा है वह हिंदवी के कवि और कव्वाली के जन्मदाता माने जाने वाले हजरत अमीर खुसरो का है। यानी अमीर खुसरो वहीं दफ्न हैं। अमीर खुसरो का जन्म जिला एटा के पटियाली गांव में हुआ था और उनकी मृत्यु दिल्ली में अपने गुरु निजामुद्दीन के चरणों में हुई थी। 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार अमीर खुसरो की मृत्यु-1324 ईस्वी में हुई थी। वे, चौदहवीं सदी के लगभग दिल्ली के निकट रहने वाले एक प्रमुख कवि, शायर, गायक और संगीतकार थे। उनका परिवार कई पीढ़ियों से राजदरबार से सम्बंधित था I स्वयं अमीर खुसरो ने 8 सुल्तानों का शासन देखा था I अमीर खुसरो प्रथम मुस्लिम कवि थे जिन्होंने हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है I वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी, हिन्दवी और फारसी में एक साथ लिखा I उन्हे खड़ी बोली के आविष्कार का श्रेय दिया जाता है I वे अपनी पहेलियों और मुकरियों के लिए जाने जाते हैं। सबसे पहले उन्होंने ही अपनी भाषा के लिए 'हिन्दवी' शब्द, यानी हिंद की भाषा, का उल्लेख किया था। वे फारसी के कवि भी थे। उनको दिल्ली सल्तनत का आश्रय मिला हुआ था। उनके ग्रंथो की सूची लम्बी है। साथ ही इनका मध्यकालीन इतिहास लेखन में, एक इतिहास स्रोत रूप में भी महत्त्व है। अमीर खुसरो को हिन्द का तोता कहा जाता है।

यह सभी जानते हैं कि, हजरत अमीर खुसरो हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह जो निजामुद्दीन, दिल्ली में हैं वहां दफन हैं। लोग पहले अमीर खुसरो की दरगाह पर जाते हैं, फूल चढ़ाते हैं और तब उसके बाद हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर हाजिरी लगाते हैं। सूफी संत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह का एक आकर्षण, अमीर खुसरो की कव्वालियां भी हैं जो सूफी साहित्य और सूफी संगीत की धरोहर हैं। 

अब आइए जहांगीर के बेटे शहजादा खुसरो के इतिहास पर। खुसरो मिर्ज़ा, जहांगीर का ज्येष्ठ पुत्र था। उसने अपने पिता और वर्तमान शासक जहाँगीर के खिलाफ 1606 ईस्वी में विद्रोह कर दिया था। वह बंगाल का गवर्नर था और उसने वैसे ही विद्रोह किया जैसे कभी खुद सलीम यानी जहांगीर ने अकबर के खिलाफ किया था। जहांगीर भी असफल हुआ और खुसरो भी। शहजादा खुसरो पर प्रोफेसर Heramb Chaturvedi जी ने एक बहुत अच्छा उपन्यास लिखा है, आप उसे पढ़ सकते हैं। 

अब आइए खुसरो बाग पर। खुसरो बाग एक विशाल ऐतिहासिक बाग है, जहां जहांगीर के बेटे खुसरो और सुल्तान बेगम के मकबरे स्थित हैं। चारदीवारी के भीतर इस खूबसूरत बाग में, बलुई पत्थरों से बने तीन मक़बरे, मुग़ल वास्तुकला के बेहतरीन उदहारण हैं। इसके प्रवेश द्वार, आस-पास के बगीचों और सुल्तान बेगम के त्रि-स्तरीय मक़बरे की डिज़ाइन का श्रेय आक़ा रज़ा को जाता है, जो जहांगीर के दरबार के स्थापित आर्किटेक्ट थे।

मकबरों की श्रेणी में, अंतिम मक़बरा पड़ता है शाहजादा खुसरो का। अपने पिता जहांगीर के प्रति विद्रोह करने के बाद खुसरो को पहले इसी बाग में नज़रबंद रखा गया था। यहां से भागने के प्रयास में खुसरो मारा गया। कहते हैं यह आदेश खुसरो के भाई और जहांगीर के तीसरे बेटे खुर्रम ने दिया था। बाद में खुर्रम गद्दी पर बैठा और बादशाह शाहजहां के नाम से, इतिहास में जाना गया।

उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के अधिकारियों को यह भूल सुधार करनी चाहिए। यह गलती किसी ऐसे केंद्र से होती जो इतिहास से दूर रहता है तो क्षम्य भी थी, पर यह सरकार का एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र है। इसे तत्काल सुधारा जाना चाहिए।

(विजय शंकर सिंह)

कनक तिवारी / हिन्दू, हिन्दुत्व, सेक्युलरिज़्म और मुसलमान (4)

धर्मनिरपेक्षता में कितने पेंच?
(1)  संविधान में ‘पंथनिरपेक्ष‘ राज्य का आदर्श है। इसका मायने है कि राज्य सभी धार्मिक मतों की समान रूप से रक्षा करेगा। किसी मत को राज्य धर्म के रूप में नहीं मानेगा। बयालीसवां संशोधन अधिनियम 1976) द्वारा ’पंथनिरपेक्ष’ शब्द को शामिल किया गया है। उद्देशिका में धर्म और उपासना की स्वतंत्रता को अनुच्छेद 25 से 28 में सभी नागरिकों के मूल अधिकार के रूप में शामिल किया गया है। ये अधिकार, प्रत्येक व्यक्ति को धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार का अधिकार देते हैं।

(2) डाॅ. अम्बेडकर ने अनोखा प्रस्ताव पेश किया था। उनके मुताबिक बहुसंख्यक मतदाताओं के चुनाव से उसी उम्मीदवार को विजयी घोषित किया जाए, जो उस क्षेत्र के अल्पसंख्यक मतदाताओं के मतों का एक निर्धारित प्रतिशत प्राप्त करे। प्रस्ताव को किसी सदस्य ने समर्थन नहीं दिया। मुस्लिम लीग के सदस्य चौधरी खलीकुज्ज़मां ने अनोखा सुझाव दिया कि पूरी रिपोर्ट बहुसंख्यक वर्ग के तीन या चार चुनिंदा सदस्यों को सौंप दी जाए जिनका मनोनयन कांग्रेस उच्च कमान करे। ऐसी समिति को ट्रिब्यूनल का दर्जा भी दिया जा सके। सरदार पटेल की सदारत वाली बैठक में अल्पसंख्यकों के लिए अलग निवाचन क्षेत्र गठित करने का प्रस्ताव सिरे से खारिज कर दिया गया।

(3) धार्मिक आजा़दी की गारंटी संविधान में दी गई है। उसका ढांचा कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और डा. अम्बेडकर ने रचा था। मुंशी के प्रारूप में सभी धर्मावलम्बियों को बराबर आज़ादी दिए जाने का प्रावधान था। आर्थिक, वित्तीय और राजनीतिक गतिविधियां यदि धर्म की आड़ में चलाई जाएं तो उन्हें संवैधानिक आजादी के तहत नहीं रखा गया था। यह भी कि कोई व्यक्ति टैक्स देने उत्तरदायी नहीं होगा, यदि उस टैक्स को किसी अन्य समुदाय की धार्मिक ज़रूरतों के लिए खर्च किया जाना हो। धार्मिक निर्देश भी दीगर धर्मावलंबियों के लिए अमल में नहीं लाए जाएंगे। डाॅ. अम्बेडकर के प्रारूप में अपने धर्म का प्रचार करने और धर्म परिवर्तन की आजा़दी दिए जाने का अधिकार शामिल था। यह भी कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा। संविधान में ‘पंथनिरपेक्ष‘ राज्य का आदर्श है। इसका अर्थ है कि राज्य सभी मतों की समान रूप से रक्षा करेगा और किसी मत को राज्य धर्म के रूप में नहीं मानेगा। 

(4) 3 दिसम्बर 1948 तथा 6 दिसम्बर, 1948 को इसी पर जिरह करते कांग्रेस सदस्य लोकनाथ मिश्र ने कहा था कि अनुच्छेद 19 स्वतंत्रता का घोषणापत्र है, तो अनुच्छेद 25 हिन्दुओं को गुलाम बनाने का घोषणापत्र। यह बेहद अपमानजनक अनुच्छेद संविधान के मसौदे का सबसे काला दाग है। राज्य को सेक्युलर घोषित करने का अर्थ है कि हमें धर्म से कोई प्रयोजन नहीं। धर्म प्रचार के कारण ही देश को पाकिस्तान और भारत में बांटना पड़ा। इस्लाम इस देश पर अपनी इच्छा नहीं थोपता, तो भारत सेक्युलर तथा एकरूप राज्य होता। हमने धर्म को हटाकर ठीक किया। मूल अधिकार में हर व्यक्ति को अपने धर्म का प्रचार करने का अधिकार देना ठीक नहीं। आप धर्म को स्वीकार करते हैं, तो आपको हिन्दुइज़्म को ही स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि भारत की एक बड़ी आज़ादी इसी धर्म पर चलती है। 

उन्होंने आगे कहा कि, "बार बार बात दुहराया गया है कि राज्य सेक्युलर होगा। गैरहिन्दुओं पर ज़्यादा उदारता दिखाने हिन्दू प्रधान देश ने राज्य को सेक्युलर बनाना स्वीकार किया। क्या सचमुच हमारा विश्वास है जीवन से धर्म को बिलकुल अलग रखा जा सकता है?                   ‘‘हज़रत मोहम्मद या ईसा मसीह और उनके विचारों और कथनों से हमारा झगड़ा नहीं है। प्रत्येक विचारधारा और संस्कृति का महत्व है लेकिन धर्म का नारा लगाना खतरनाक है। समाज सम्प्रदायों में बंट जाता है। लोग अपने अपने दल बनाकर संघर्ष का रास्ता अख्तियार करते हैं। अनुच्छेद 25 में  propagation’ (धर्मप्रचार) शब्द रखा गया है। इसका एकमात्र नतीजा हिन्दू संस्कृति एवं हिन्दुओं की जीवन तथा आचार पद्धति के पूरे विनाश का ही मार्ग प्रशस्त होने से है। इस्लाम ने हिन्दू विचारधारा के लिए दुश्मनी घोषित कर रखी है। ईसाइयों की नीति है हिन्दुओं के सामाजिक जीवन में दबे पांव प्रवेश किया जाय। यह इस कारण सम्भव हो सका क्योकि हिन्दू मत ने अपनी सुरक्षा के लिए दीवारें नहीं खड़ी कीं। हिन्दुओं की उदार विचारधारा का दुरुपयोग किया गया और राजनीति ने हिन्दू संस्कृति को कुचल दिया है। दुनिया के किसी भी संविधान में धर्म प्रचार को मूल अधिकार नहीं कहा गया है और न ही अदालतों में चुनौती योग्य माना गया है।"
(जारी) 

कनक तिवारी
© Kanak Tiwari

हिन्दू, हिन्दुत्व, सेक्युलरिज़्म और मुसलमान  (3)
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Wednesday, 29 June 2022

हिन्दू, हिन्दुत्व, सेक्युलरिज़्म और मुसलमान (3)

(11) बाद में सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संवैधानिक पीठ ने अभिराज सिंह और नारायण सिंह के मुकदमे में 2 जनवरी 2017 के अहम फैसले में कहा कि उम्मीदवार या उसके समर्थकों द्वारा धर्म, जाति, समुदाय, भाषा के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी है। चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष पद्धति है। धर्म के आधार पर वोट मांगना संविधान के खिलाफ है। जन प्रतिनिधियों को अपने कामकाज धर्मनिरपेक्ष आधार पर ही करने चाहिए।
 
भाजपा की दलील थी कि धर्म के नाम पर वोट मांगने का मतलब उम्मीदवार के धर्म से ही होना चाहिए। राजनीतिक पार्टी अकाली दल का गठन सिक्खों के लिए काम करने बना है। आईयूएमएल मुस्लिमों के कल्याण की बात करता है। डीएमके भाषा के आधार पर काम करने की बात करता है। ऐसे में धर्म के नाम पर वोट मांगने को पूरी तरह से कैसे रोका जा सकता है?              

कांग्रेस की ओर से सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल की दलील थी कि किसी भी उम्मीदवार, एजेंट या अन्य पक्ष द्वारा भी धर्म के नाम पर वोट मांगना भ्रष्ट आचरण है। राजस्थान, मध्यप्रदेश तथा गुजरात की ओर से एडीशनल साॅलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि धर्म को चुनावी प्रक्रिया से अलग नहीं किया जा सकता। उम्मीदवार धर्म के नाम पर वोट मांगे तो उसे भ्रष्ट आचरण माना जाए।                               

मुख्य न्यायाधीश ने टिप्पणी की कि धर्म के नाम पर इसकी इजाज़त क्यों दी जाए। सुनवाई के दौरान माकपा ने मामले में दलील दी कि धर्म के नाम पर वोट मांगने पर चुनाव रद्द हो। सात जजों की बेंच ने लेकिन यह भी साफ किया कि वह हिंदुत्व के मामले में दिए गए 1995 के फैसले की दोबारा समीक्षा नहीं कर रही है। सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड, सेवानिवृत्त प्रोफेसर शमसुल इस्लाम और पत्रकार दिलीप मंडल ने आवेदन दाखिल कर धर्म और राजनीति को अलग करने की गुहार लगाई थी। 
 
(12) हिन्दू धर्म को लेकर पहला उल्लेखनीय फैसला सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों की पूर्ण पीठ ने 1966 की मकर संक्रांति के दिन दिया। कोर्ट ने कई आनुषंगिक सवालों के संविधान के संदर्भ में उठ खड़े होने से धर्म की उत्पत्ति, व्युत्पत्ति और निष्पत्ति को लेकर मानक/शास्त्रीय संवैधानिक शब्दावली में धर्म मीमांसा की। मुख्य न्यायाधीश पी.बी. गजेन्द्र गड़कर ने फैसला लिखने में मोनियर विलियम्स की कृति ‘हिंदुइज़्म एंड रिलीजस थाॅट्स एंड लाइफ इन इंडिया‘, डाॅ. राधाकृष्णन की पुस्तकों ‘दी हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ‘ और ‘इंडियन फिलाॅसफी‘ तथा मैक्समूलर की ‘सिक्स सिस्टम्स ऑफ इंडियन फिलासफी , बाल गंगाधर तिलक की ‘गीता रहस्य‘ और ऑर्नल्ड टॅायनबी के ग्रंथ ‘दी प्रेजेंट डे एक्सपेरिमेंट इन वेस्टर्न सिविलिजेशन‘ पर अपनी तार्किकता को निर्भर किया।                हिन्दुओं की परिभाषा तथा हिन्दू धर्म के स्त्रोतों को लेकर कोर्ट ने उसी पारंपरिक थ्योरी पर विश्वास किया जो ‘हिन्दू‘ शब्द की पैदाइश सिंधु (नदी) से बताती है। यही मत ‘एन्सायक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन और एथिक्स‘ का है। डाॅ. राधाकृष्णन भी इसी मतवाद का समर्थन करते हैं। कहते हैं इस शब्द का ऋग्वेद में भी उसी भौगोलिक आधार पर उल्लेख है।       


सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हिन्दू धर्म की परिभाषा में उसके सभी तरह के मतावलंबियों , विश्वासों, उपासना पद्धति और वर्गों को सहसा समेटा नहीं जा सकता। यह आम फहम तर्क भी कोर्ट ने किया कि हिन्दू धर्म अकेला है जिसका एक ईश्वर, धर्मपुस्तक, पैगंबर या देवता नहीं है। यह धर्म ऐसा समुच्चय है जिसमें असहमति बल्कि नास्तिकता के साथ तक की इजाजत है शब्दों, तर्कों, व्याख्याओं और शास्त्रीय नस्ल के चश्मों से हिन्दू धर्म को देखने की कोशिश की जाये तो आंखें चुंधियाने लगती हैं। 

(13) सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि जिन चश्मों या औजारों से दुनिया के बाकी धर्मों को जांचने कोशिश की जा सकती है, वह हिन्दू धर्म के लिए मुमकिन नहीं।              हिन्दू दर्शन के तमाम आचार्यों में एक दूसरे से विसंगत लेकिन देवी देवताओं और ढेरों ढेर दार्शनिक कृतियों के बावजूद ऐसा कोई समानधर्मी आंतरिक तत्व अलबत्ता है, जो हिन्दू धर्म की पहचान मुकम्मिल करता है। न्यायिक धर्म यात्रा में कोर्ट ने हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के इतिहास सहित बासव, ध्यानेश्वर, तुकाराम, गुरुनानक, दयानंद, चैतन्य, रामकृष्ण और विवेकानंद तक का हिन्दू धर्म की पारस्परिक/पारस्परिक अभिव्यक्तियों को समझने में हवाला दिया।              

इस ऐतिहासिक फैसले का सबसे छोटा पैरा खुद सुप्रीम कोर्ट ने बाद में भुला दिया।  
पहला यह कि, संत या धार्मिक सुधारक वही है , जो विद्रोह करे अन्यथा वह सुधार क्या खा़क करेगा। 
दूसरा यह कि, रूढ़ियां या पुरोहित वर्ग धर्म वृक्ष पर लिपटी अमर बेलें हैं। उनकी कोई जड़ नहीं है लेकिन वे पेड़ का खून चूसे बिना जी नहीं सकतीं। 
तीसरा यह कि, धर्म रूढ़ियों के मकड़जाल और पुरोहितों के पंजों में जकड़ा जा सकता बल्कि जकड़ लिया गया है। 
चौथा यह कि, धर्म के जनपक्ष की भाषा सत्ता की अभिव्यक्ति की भाषा नहीं होती। 
पांचवां यह कि, जनपदीय और लोक बोलियों में धर्म की गति और गूंज है, वरना ऐसी लोक भाषाएं केवल दैनिक व्यवहार की कामचलाऊ भाषाएं भर बनकर रह जाएंगी।

(14) सुप्रीम कोर्ट ने इस पहले ऐतिहासिक फैसले में मोटे तौर पर दो सवालों पर संक्षेप में लेकिन सारवान विचार किया। 
पहला यह कि हिन्दू कौन हैं? हिन्दू धर्म के मुख्य अवयव क्या हैं? 
दूसरा यह कि हिन्दू धर्म के अनुसार इन्सानियत की मंजि़ल क्या है? 
सुप्रीम कोर्ट ने मोक्ष या निर्वाण को हिन्दू धर्म का अंतिम सत्य माना। इस मकसद को पाने तरह तरह के मार्ग और विचार हैं। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार संविधान निर्माता भी इस स्थिति से वाकिफ थे। मूल अधिकारों की रचना करते प्राचीन हिन्दू विश्वासों का फैलाव और असर देखकर संविधान निर्माताओं ने अनेक कारणों से सिक्ख, जैन और बुद्ध मतावलम्बियों को हिन्दू धर्म के दायरे से बाहर नहीं रखा था।
(जारी)

कनक तिवारी
© Kanak Tiwari

हिन्दू, हिन्दुत्व, सेक्युलरिज़्म और मुसलमान (2)
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Tuesday, 28 June 2022

आधी रात को सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमे सुने हैं, पर वे कौन से मुकदमे थे ? / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट की वेकेशन बेंच द्वारा महाराष्ट्र शिवसेना के बागी मंत्री एकनाथ शिंदे की याचिका पर तत्काल सुनवाई के निर्णय पर यह सवाल उठा था कि, क्या यह याचिका इतनी महत्वपूर्ण थी कि, इसपर तत्काल सुनवाई की जाय ? जबकि तत्काल सुनवाई के लिए जो गाइडलाइन सुप्रीम कोर्ट ने तय की थी, उनमें यह याचिका नहीं आती है। फिर भी अदालत ने इसकी तत्काल सुनवाई की और एकनाथ शिंदे को राहत देते हुए, उनकी बर्खास्तगी की नोटिस पर 12 जुलाई तक का समय दे दिया। अब यह मामला विचाराधीन न्यायालय है।

जब इस पर सुप्रीम कोर्ट की आलोचना की गई तो, यह तर्क सामने आया कि सुप्रीम कोर्ट पहले भी आधी रात को आतंकवादियों के लिए खुल चुकी है और यह कोई नई बात नहीं है। यह बात बिल्कुल सही है कि सुप्रीम कोर्ट पहले भी आधी रात को खुल चुकी है, पर क्यों और किन मामलो के लिए आधी रात को अदालत बैठी है, इसपर चर्चा करते हैं। 

सुप्रीम कोर्ट न्याय का अंतिम आश्रय है और सुप्रीम कोर्ट के ही एक पूर्व सीजेआई जस्टिस वाय.के. सब्बरवाल ने भी एक बार कहा था, ' हमारा फैसला न्यायपूर्ण है या नहीं इस पर विवाद हो सकता है, पर हमारा फैसला अंतिम है, इस पर कोई विवाद नहीं है।' यह इसलिए कहा गया था कि फैसला कोई भी हो, उसकी आलोचना और प्रशंसा के विंदु हर फैसले में मिल जाते हैं। देश का शीर्ष न्यायालय होने के कारण, सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी है कि वह फरियादी को कम से कम अपनी बात कहने का मौका तो दे। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि, 
'यह सजायाफ्ता व्यक्ति की उम्मीद की तरह है कि, क्या पता वह फिर फीनिक्स की तरह जी उठे।'

अब तक, सुप्रीम कोर्ट आधी रात को कुल चार बार खुली और अदालत लगाई गई है तथा उसने  बेहद अहम मुकदमों की सुनवाई की है। पांच साल पहले, बॉम्बे ब्लास्ट मामले में मेमन को फांसी दिए जाने से कुछ घंटे पहले जुलाई 2015 में सुप्रीम कोर्ट में इसी तरह की घटनाओं की एक श्रृंखला शुरू हुई थी जिसे मिड नाइट हियरिंग यानी आधी रात की सुनवाई कहते हैं। जो मामले सुने गए, वे हैं,

1. निर्भया रेप केस के चारों दोषियों को दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी दी जानी थी। लेकिन इसे टालने के लिए दोषियों के वकील एपी सिंह की तरफ से हर तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे थे। दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ एपी सिंह सुप्रीम कोर्ट पहुंचे और रात को ढाई बजे इस मामले पर सुनवाई हुई। हालांकि, करीब दो घंटे तक चली हलचल के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी याचिका को खारिज कर दिया और दोषियों को फांसी पर लटका दिया गया। 

यह भी उल्लेखनीय है कि, निर्भया कांड की सुनवाई में, पहली बार सुप्रीम कोर्ट की एक महिला न्यायाधीश, न्यायमूर्ति आर भानुमति ने शीर्ष अदालत की पीठ का नेतृत्व किया, जिसने 20 मार्च की सुबह इस मामले की सुनवाई की। दोषी पवन गुप्ता की याचिका पर न्यायमूर्ति भानुमति का एक पंक्ति का, याचिका बर्खास्तगी आदेश, अंतिम आदेश बन गया। 

निर्भया कांड तीसरा मौत की सजा का मामला था जिसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने हाल के दिनों में 'आधी रात की सुनवाई' के लिए अपने दरवाजे खोले।  इससे पहले दो मौके निठारी हत्याकांड और याकूब मेमन मामले में थे।

2. 1993 के मुंबई सीरियल बम धमाके के दोषी याकूब मेमन की याचिका को जब राष्ट्रपति की ओर से खारिज कर दिया गया था, तब 30 जुलाई 2015 की आधी रात को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खुला। वकील प्रशांत भूषण सहित कई अन्य वकीलों की तरफ से देर रात को फांसी टालने के लिए अपील की गई थी। तब जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई में तीन जजों की एक बेंच ने रात के तीन बजे इस मामले को सुना था। 30 जुलाई 2015 की रात को 3.20 पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हुई थी, जो कि सुबह 4.57 तक चली थी। हालांकि, फांसी टालने की इस याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था और बाद में याकूब मेमन को फांसी दे दी गई। 

इस मामले पर रिपोर्टिंग करते हुए एक अखबार के लिखा था,
"एक थकी हुई बेंच, जो कोर्ट फोर में इकट्ठी हुई, ने मेमन के वकीलों द्वारा दी गई दलीलों को सुना और भारत के तत्कालीन अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने एक घंटे से भी अधिक समय तक बचाव पक्ष का जवाब दिया। बेंच ने आखिरकार मेमन द्वारा की गई उस याचिका को खारिज कर दिया।"

मेमन मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में, ऐसे मौत की सजा के मामलों को "फीनिक्स जैसे अनंत चरित्र" के रूप में उल्लेख किया था, जो मध्यरात्रि सुनवाई का औचित्य साबित करता हैं। अदालत ने आश्चर्य जताया था कि,
"क्या यह सजायाफ्ता व्यक्ति की उस उम्मीद से उपजा है, जो उसे आधी रात को भी, शीर्ष अदालत के समक्ष खींच लाई है कि, वह अपने जीवन के अंतिम घंटों में भी, जीवित रहने की इच्छा के लिए संघर्षरत है, और यह उम्मीद करते हुए कि उसका मामला "फ़ीनिक्स पक्षी की तरह जी उठेगा" और यहां तक ​​​​कि "संभवतः वह इस उम्मीद को बरकरार रखता है कि उसमे जीवन की अदम्य इच्छा है।" 

3. हालाँकि, 2014 में, फांसी के एक अन्य मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने, मध्यरात्रि की सुनवाई में, सुरिंदर कोली जो, निठारी हत्याकांड का फांसी की सजा प्राप्त अपराधी था को, कुछ राहत दे दी थी। मेरठ में फांसी दिए जाने से ठीक दो घंटे पहले शीर्ष अदालत में एक याचिका दायर की गई थी। शीर्ष अदालत ने इसमें हस्तक्षेप किया और उसकी फांसी को स्थगित कर दिया था। हालांकि बाद में फांसी की सजा बहाल रही। 

4. फांसी के मामले से इतर राजनीतिक मसले को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट आधी रात को खुली थी। 2018 में कर्नाटक में जब राज्यपाल की तरफ से आधी रात को बीजेपी को सरकार बनाने का अवसर मिला था, तब कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था। और 17 मई 2018 को रात 2 बजे सुनवाई शुरू हुई और सुबह करीब 5 बजे तक चली थी। हालांकि, अदालत ने बीएस येदियुरप्पा की शपथ रोकने से इनकार किया था। 

(विजय शंकर सिंह)

कमलाकांत त्रिपाठी / कालिदास की वैज्ञानिक दृष्टि और उनका अखिल भारतीय राष्ट्रीय क्षितिज

पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
संत: परीक्षान्यतरद्भजन्ते मूढ़: परप्रत्ययनेयबुद्धि:॥ 

(कालिदास, मालविकाग्निमित्रम्‌;1-2)

[पुरानी होने से ही कोई चीज़ (यहाँ काव्य) अच्छी नहीं हो जाती, न ही नई होने से बुरी। समझदार लोग तो विवेक से परीक्षण करने के बाद ही अच्छे-बुरे का निर्णय करते हैं, जब कि मूर्खों की बुद्धि सुनी-सुनाई बातों पर जाती है।]

आज जिसे वैज्ञानिक मिज़ाज (scientific temper) कहते हैं, क्या वह कालिदास के इस सूक्तिनुमा पद्य से कोई भिन्न अवधारणा है ? कालिदास पहली शताब्दी ई. पू. के संस्कृत के ऐसे कवि (संस्कृत में नाटककार भी कवि है) हैं जिनकी अप्रतिम प्रतिभा का साक्षात्कार हमें उनके तीन नाटकों—अभिज्ञानशाकुंतलम्‌, विक्रमोर्वशीयम्‌ और मालविकाग्निमित्रम्‌--तथा तीन प्रबंधकाव्यों—रघुवंशम्‌, कुमारसंभवम्‌ और मेघदूतम्‌--में होता है। एक उत्कृष्ट कवि होने के साथ-साथ कालिदास की एक सुलझी हुई जीवनदृष्टि भी है जिसमें परंपरा और नवाचार का सुष्ठ संगम है। और यही उनकी वैज्ञानिक सोच का आधार है। 

परंपरा कोई जड़ या स्थिर अवधारणा नहीं, यह सतत गतिशील और काल-सापेक्ष परिवर्तन के अधीन है। एक निरंतर प्रवहमान सरिता जो पुराने खर-पतवार को उत्सर्जित करती और नई ज़मीन की तासीर को आत्मसात्‌ करती चलती है। परंपरा  यदि रूढ़ि बन जाए तो उसका अग्रगामी प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है, उसका जल ठहरकर सड़ने लगता है। इसलिए नवनवोन्मेष उसकी केंद्रीय प्रकृति है।

कालिदास का मिज़ाज तो वैज्ञानिक था ही, वे वैज्ञानिक खोजों और जनता में प्रचलित अंधविश्वासों के प्रति भी सचेत थे। रघुवंशम्‌ में प्रसंग है सीता के बारे में उठा जनापवाद सुनने के बाद विचलित राम द्वारा  भ्राताओं को बुलाकर उन्हें अपने निर्णय से अवगत कराने का। उसी संदर्भ में राम का कथन है—

आवैमि चैनामनघेति किंतु लोकापवादो बलवान्मतो मे। 
छाया हि भूमे: शशिनो मलत्वेनारोपिता शुद्धिमत: प्रजाभि:॥14:40॥ 

[मैं जानता हूँ कि सीता निर्दोष हैं, किंतु जनापवाद सत्य से अधिक बलवान होता है। निर्मल चंद्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ने को लोग राहु से ग्रसित चंद्रमा का कलंक मान लेते हैं, झूठ होने पर भी लोग यही कहते हैं। {चंद्रग्रहण का खगोलीय कारण कालिदास के समय तक ज्ञात हो चुका था किंतु जनमानस में राहु द्वारा ग्रसित होने का जो अंधविश्वास आज प्रचलित है, तब भी प्रचलित था.}] 

कालिदास की दृष्टि वैज्ञानिक होने के साथ-साथ समग्र, समावेशी और लोकधर्मी  भी है। इसीलिए वे देश के पहले राष्ट्रकवि माने जाते हैं। यह मान्यता किसी वैचारिक  गढ़ंत का हासिल नहीं, उनकी कृतियों के अंत:साक्ष्य से स्वत:सिद्ध है। उनकी दृष्टि अखिलभारतीय है जिसमें भिन्नवर्णी प्राकृतिक सौंदर्य के कोलाज़ के साथ एक उदार सांस्कृतिक चेतना और अस्मिता-बोध का प्रखर स्वर घुला हुआ है।   

यहाँ केवल दो प्रसंग पर्याप्त होंगे: 
  
एक-इंदुमती स्वयंवर (रघुवंशम्‌, षष्ठ सर्ग): भारत के विभिन्न राज्यों के भूक्षेत्र का प्राकृतिक-सांस्कृतिक आख्यान   

कालिदास अपने सृजन में जिस राष्ट्रीय-सांस्कृतिक क्षितिज को मूर्तिमान करते हैं उसमें वर्चस्ववाद या  उग्र राष्टवाद या नामोनिशान तक नहीं। बस प्राकृतिक सुषमा और सांस्कृतिक परिदृश्य का एक हृदयग्राही चित्र उभरता है और उसकी विविधता का हर घटक अपनी सूक्ष्मता और सौंदर्य में हमारे सामने साकार हो उठता है। हो न हो, कालिदास ने अपने युग की दुरूहताओं के बावजूद देश का चतुर्दिक्‌ भ्रमण और हर प्रांतर का अतिशय उदारता, ग्रहणशीलता और संवेदना की गहराई से निरीक्षण किया हो। उसका अर्जित उनके समस्त सृजन में अनुस्यूत है.

रघुवंशम्‌, षष्ठ सर्ग. राम के पूर्वज रघु के पुत्र अज (ब्राह्म मुहूर्त में पैदा होने के नाते पिता ने ब्रह्मा के नाम पर यह नाम रखा) अयोध्या के राजकुमार हैं। विदर्भ के राजा भोज की बहन इंदुमती के स्वयंवर में आमंत्रित हैं। स्वयंवर का सभा-मंडप। विभिन्न भारतीय राज्यों के नरेश वहाँ उपस्थित हैं। इंदुमती हाथ में जयमाल लेकर प्रवेश करती है। अंत:पुर की प्रतिहारी सुनंदा उसके साथ है। सुनंदा राजवंशों के इतिहास में निष्णात है और वाचाल भी। इंदुमती को राजाओं का परिचय देने का दायित्व उसी पर है। राजाओं के इसी परिचय के व्याज से कालिदास ने देश के विभिन्न भूभागों की भौगोलिक-प्राकृतिक छटा को कोलाज़ की तरह सजा दिया है. कुछ चुने हुए छंद :

(अवंतिका)

असौ महाकालनिकेतनस्य वसन्नदूरे किल चंद्रमौले:।
तमिस्रपक्षेSपि सह प्रियाभिर्ज्योत्स्नावतोनिर्विशति प्रदोषान्‌।।6:34॥
अनेन यूना सह पार्थिवेन रम्भोरु कच्चिन्मनसो रुचिस्ते।
सिप्रातरंङानिलकम्पितासु विहर्तुमुद्यानपरम्परासु॥35॥

[अवंतिराज का राजभवन महाकाल मंदिर में विद्यमान शिव के निकट है। शिव ने मस्तक पर चंद्रमा धारण कर रखा है। चंद्रमा के प्रकाश में अवंतिराज अपनी स्त्रियों के साथ हमेशा शुक्ल पक्ष का ही आनंद लेते हैं। केले के खम्भे के समान जंघाओंवाली इंदुमती ! क्या तुम अवंतिका के उन उद्यानों में विहार नहीं करना चाहोगी जिनमें दिन-रात सिप्रा नदी से आनेवाला शीतल पवन हरहराया करता है?]

(अनूपदेश--नर्मदा तटवर्ती)

अस्याङ्कलक्ष्मीर्भव दीर्घबाहोर्माहिष्मतीवप्रनितम्बकाञ्चीम्‌।
प्रासादजालैर्जलवेणिरम्यां रेवां यदि प्रेक्षितुमस्ति काम:॥43॥

[यदि तुम राजभवन के गवाक्षों से माहिष्मती नगरी के चारों ओर करधनी-जैसी लिपटी, सुंदर लहरोंवाली नर्मदा का मनोहारी दृश्य देखना चाहो तो अनूपदेश के इन महाबाहु राजा की अंकलक्ष्मी बन जाओ।]

(मथुरा)

यस्यावरोधस्तनचंदनानां प्रक्षालनाद्वारिविहारकाले।
कलिंदकन्या मथुरां गतापि गङ्गोर्मिसंसक्तजलेव भाति॥48॥

संभाव्य भर्तारममुं युवानं मृदुप्रवालोत्तरपुष्पशय्ये।
वृंदावने चैत्ररथादनूने निर्विश्यतां सुंदरि यौवनश्री:॥50॥

[ये (मथुरा-नरेश सुषेण) जब अपनी रानियों के साथ यमुना में जल-विहार करते हैं, रानियों के स्तन पर लिपा चंदन जल में धुलकर नदी में बहने लगता है। उस समय यमुना का रंग देखकर लगता है जैसे गंगा की लहरों के साथ यमुना का संगम वहीं पर हो गया हो......युवा सुंदरी इंदुमती, इन युवक नरेश को पति बनाकर कुबेर के चैत्ररथ नामक उद्यान से भी अधिक सुंदर वृंदावन में कोमल पत्तों और फूलों की शय्या पर आसीन हुआ करना।]

(कलिंग)

यमात्मन: सद्मनि संनिकृष्टो मंद्रध्वनित्याजितयामतूर्य:।
प्रासादवातायनदृश्यवीचि: प्रबोधयत्यर्णव एव सुप्तम्‌॥56॥
अनेन सार्धं विहराम्बुराशेस्तीरेषु तालीवनमर्मरेषु।
द्वीपान्तरानीतलवङ्गपुष्पैरपाकृतस्वेदलवा मरुद्भि:॥57॥

[इन (कलिंग-नरेश हेमांगद) के राजभवन के ठीक नीचे समुद्र हिलोरें लेता है। राजभवन की खिड़कियों से समुद्र की लहरें साफ़ दिखती हैं। जब ये राजभवन में सोते हैं, समुद्र ही अपने नगाड़े के स्वर से भी अधिक गंभीर गर्जन से प्रात: इन्हें जगाया करता है। इनके साथ विवाह करके समुद्र के उन तटों पर विचरण करना जहाँ दिन-रात ताड़ के पत्तों की खड़खड़ाहट सुनाई पड़ती है। विचरण करते समय जब भी तुम्हें पसीना होगा, पूर्वी द्वीपों से आनेवाली, लौंग के फूलों की सुगंध से भरी हवा उसे सुखा देगी.]

(पांड्य देश--धुर दक्षिण)

अनेन पाणौ विधिवद्गृहीते महाकुलीनेन महीव गुर्वी।
रत्नानुविद्धार्णवमेखलाया दिश: सपत्नी भव दक्षिणस्या:॥63॥
ताम्बूलवल्लीपरिणद्धपूगास्वेलालतालिङ्गितचंदनासु।
तमालपत्रास्तरणासु रन्तुं प्रसीद शश्वन्मलयस्थलीषु॥64॥

[यह (पांड्य-नरेश) बड़े ही कुलीन हैं और तुम हो पृथ्वी की तरह गम्भीर। इनके साथ विधिपूर्वक विवाह करके तुम उस रत्नखचित दक्षिणदिशा की सपत्नी बन जाओ जिसकी करधनी स्वयं रत्नों से भरा समुद्र है। यदि तुम मलय प्रांत की उन घाटियों में विचरण करना चाहती हो, जिनमें पान की बेलों से ढके सुपारी और इलायची की बेलों से लिपटे चंदन के पेड़ हैं और जगह-जगह ताड़ के पत्ते बिखरे हुए हैं, तो तुम इन्हीं से विवाह कर लो।]

दो-पूर्वमेघ: बादल के यात्रा-पथ के रूप में विंध्य से कैलाश तक की प्राकृतिक-सांस्कृतिक सुषमा की एक कला-दीर्घा

मेघदूतम्‌ उत्कट स्वकीया प्रेम का ऐसा आख्यान है जिसमें शृंगार रस आद्यंत अपने उत्कृष्टतम, उदात्त रूप में अनुस्यूत है। अलकापुरी में कुबेर के यहाँ प्रतिदिन मानसरोवर से स्वर्णकमल लाने के काम पर नियुक्त एक यक्ष पत्नी के प्रेम में इस क़दर डूबा कि एक दिन अपने काम में प्रमाद कर गया। कुबेर ने उसे एक वर्ष के लिए अलकापुरी से निष्कासित कर दिया। शाप की यह अवधि बिताने के लिए उसने रामगिरि (नागपुर के पास आज की रामटेक पहाड़ी) के आश्रमोंवाले उस भूप्रदेश को चुना जो जलाशयों और सघन छायादार वृक्षों की प्राकृतिक सुषमा से आप्यायित है। आषाढ़ के पहले दिन घिरे हुए बादलों से लिपटी पहाड़ी को देखकर उसकी विरह-वेदना असह्य हो उठी। वियोग-विकल यक्ष ने चलायमान बादल के माध्यम से अलकापुरी में उसके वियोग से तड़प रही पत्नी को संदेश भेजने का निश्चय किया।

बादल को रामगिरि से अलकापुरी तक का मार्ग बताने के व्याज से देश के मध्य और उत्तरी भाग के एक गलियारे की प्राकृतिक सुषमा और वहाँ के जनजीवन की एक विहंगम दृश्यावली है पूर्वमेघ। यह दृश्यावली हवाई सर्वेक्षण के कोण से अद्भुत भौगोलिक प्रामाणिकता के साथ मूर्तिमान हुई है।  इस हवाई सर्वेक्षण वाली कला में कालिदास निष्णात हैं. रघुवंशम्‌ में पुष्पक विमान से लंका से अयोध्या तक की यात्रा के दौरान सीता को अपने वनवास-काल के आत्मीय दृश्यों को दिखाते हुए राम इसी कोण से उनका वर्णन करते हैं। एक प्राकृतिक-सांस्कृतिक इकाई के रूप में समग्र देश का विविधवर्णी बिंब कालिदास के मानस में गहराई से अंकित था। इस बिंब को उन्होंने बहुत सटीक और विश्वसनीय ढंग से कलात्मक अभिव्यक्ति दी है।

रामगिरि से अलकापुरी की ओर बढ़ते हुए सबसे पहले ‘सिद्धों’ के प्रदेश का ज़िक्र आता है—सिद्धों की भोली-भाली स्त्रियाँ आँखें फाड़-फाड़कर तुम्हें देखेंगी कि कहीं हवा पहाड़ की चोटी ही तो नहीं उड़ाए ले जा रही। फिर मिलेंगी मालव प्रांत की मासूम कृषक बालाएँ जिन्हें भौंहें नचाकर रिझाने की कला तो नहीं आती पर वे ताकेंगी तुम्हें बहुत आदर और प्रेम से, क्योंकि उनकी फ़सलों का होना, न होना तुम्हारे ऊपर ही निर्भर करता है। इस कृषि-प्रांतर में खेतों के सद्य: जोते जाने से सोंधी गंध उठ रही होगी। वहाँ तुम वर्षा अवश्य कर देना। उसके आगे थोड़ा-सा पश्चिम की ओर मुड़कर फिर उत्तर की दिशा में बढ़ोगे तो मिलेगा आम्रकूट पर्वत, जो पके हुए आम के वृक्षों से घिरा होने के कारण पीला-पीला नज़र आएगा। उसके जंगलों में, जैसा कि ग्रीष्म में अमूमन होता है, प्रकृत आग लगी होगी। वहाँ तो तुम मूसलाधार बारिश ही कर देना; पर्वत तुम्हारा बड़ा उपकार मानेगा। आम्रकूट के कुंजों में तुम्हें वनवासी स्त्रियाँ घूमती दिखेंगी, वहाँ तनिक रुक जाना और तब जल बरसा चुकने से हल्के हुए शरीर से तेज़ी के साथ आगे बढ़ लेना। आगे तुम्हें विंध्य के पठार पर कई-कई धाराओं में बँटकर फैली नर्मदा दिखाई पड़ेगी, ऐसे लगेगा जैसे किसी विशाल हाथी का शरीर भभूत से चित्रित कर दिया गया हो। हाथियों के मद से सुगंधित और जामुन के झुरमुटों से होकर बहती नर्मदा का जल ज़रूर पी लेना तुम ताकि फिर से भारी हो जाओ और हवा तुम्हें इधर-उधर भटका न दे।

नर्मदा के इस वन-प्रांतर के विशद मनोहारी वर्णन के बाद आगे पड़नेवाले दशार्ण प्रांत का उल्लेख है जिसके उपवन की बाड़ें पुष्पित केतकी (केवड़ा) के फूलों से उज्वल रेखा-सी दिखाई पड़ेंगी। दशार्ण की राजधानी विदिशा विलास की सामग्रियों से ऐसी भरपूर दिखेगी कि जब तुम वहाँ से गुज़रती चंचल लहरोंवाली वेत्रवती (बेतवा) का मीठा जल पीने लगोगे तो प्रतीत होगा जैसे कटीली भौहोंवाली कामिनी के होंठों का रस पी रहे हो। जंगली नदियों के किनारे के उपवनों में जूही की कलियों को अपनी फुहार से सींचते हुए और वहाँ फूल उतारनेवाली मालिनों के उन मुखड़ों पर छाया करते हुए तुम निकल जाना जिनके गालों पर बहते पसीने से लगकर कमल की पंखुड़ियों के कर्णफूल मलिन हो गए होंगे। 

जाना तुम्हें उत्तर है और उज्जयिनी वहाँ से पश्चिम तुम्हारे मार्ग से हटकर है। पर उस नगरी के भवनों और वहाँ की नागर स्त्रियों की चंचल चितवन को बिना देखे निकल गए तो तुम्हारा जन्म ही निरर्थक जाएगा। फिर तो कालिदास यक्ष के माध्यम से उज्जयिनी (जहाँ के वे निवासी थे) के समृद्ध नागर जीवन के समुल्लास और महाकाल के विशद वर्णन में ऐसे डूबते हैं कि बादल को वहीं रात बिताने की सलाह दे डालते हैं।

उज्जयिनी से आगे तुम देवगिरि पर्वत की ओर बढ़ोगे, जहाँ स्कंद भगवान का निवास है। उधर से आती ठंडी हवा तुम्हें सुखकर लगेगी, उसमें तुम्हारे द्वारा बरसाए जल से आनंद की साँस लेती धरती की सुगंध भरी होगी, जिसे चिग्घाड़ते हुए हाथी अपनी सूँड़ से पी रहे होंगे; उस हवा से गूलर भी पकने लगी होगी। उसके आगे मिलेगी चर्मण्वती (चम्बल) नदी जो राजा रंतिदेव द्वारा किए गए यज्ञ की कीर्ति बनकर पृथ्वी पर प्रवाहित है। चर्मण्वती पारकर तुम्हें दशपुर (मंदसर) की ओर बढ़ना होगा और वहाँ ब्रह्मावर्त्त (लुप्त सरस्वती का तटवर्ती) प्रदेश पर छाया करते हुए तुम कुरुक्षेत्र निकल जाना जो कौरवों और पांडवों के भीषण युद्ध के नाते कुख्यात है। वहाँ यदि तुमने सरस्वती नदी का पवित्र जल पी लिया तो बाहर से काला होने के बावजूद तुम्हारा मन उज्वल हो जाएगा। कुरुक्षेत्र से आगे तुम्हें कनखल में सगर के पुत्रों का उद्धार करनेवाली, स्फटिक की तरह स्वच्छ-धवल जलवाली गंगा मिलेंगी। जब तुम झुककर गंगा का जल पीना चाहोगे तो तुम्हारी गतिमान छाया से लगेगा जैसे प्रयाग से पहले ही वे यमुना से मिल रही हों।

आगे मिलेगा हिमालय जिसकी हिमाच्छदित चोटियों पर बैठकर कुछ देर अपनी थकावट दूर कर लेना। हिमालय के आसपास के रमणीय स्थलों को देखने के बाद तुम क्रौंच रंध्र (दर्रे) के सँकरे मार्ग से लम्बे और तिरछे होकर मानसरोवर निकल जाना। वहाँ से ऊपर उठकर तुम कुमुदिनी-जैसी श्वेत चोटियोंवाले कैलास पर पहुँच जाओगे। और उसी कैलास की गोद में बसी है हमारी अलकापुरी।

ध्यातव्य है कि यहाँ कालिदास की लोकधर्मी दृष्टि से मालव प्रांत की मासूम कृषक बालाएँ नहीं छूटतीं जिन्हें भौंहें नचाकर रिझाने की कला तो नहीं आती किंतु बारिश के इंतज़ार में वे चलायमान बादलों की ओर बहुत आदर और प्रेम से ताकती रहती हैं। बेतवा की सहायक जंगली नदियों के किनारे के उपवनों में फूल चुननेवाली मालिनों को भी कालिदास नहीं भूलते जिनके गालों पर बहते पसीने से लगकर कमल की पंखुड़ियों के कर्णफूल मलिन हो गए थे। 

इस तरह स्त्री के प्रकृत सौंदर्य के साथ कालिदास उसके श्रम-सौंदर्य के भी अद्भुत पारखी हैं। अभिज्ञानशाकुंतलम्‌ में दुष्यंत जब सहेलियों के साथ घड़े से आश्रम के पौधे सींचती शकुंतला को देखते हैं तो उनकी दृष्टि शकुंतला के सौंदर्य-विलास पर नहीं, उसके श्रम-सौंदर्य पर टिकती है:   

स्रस्तांसावतिमात्रलोहिततलौ बाहूघटोत्क्षेपणा
दद्यापि स्तनवेपथं जनयति श्याम: प्रमाणाधिक:।
बद्धं कर्णशिरीषरोधि वदने धर्मांभसां जालकं
बन्धे स्रंसिनि चैकहस्तयमित: पर्याकुला मूर्धजा:॥1:27॥

[हाथ से घड़ा उठाने से इनके कंधे झुक गये हैं, हथेलियाँ अत्यधिक लाल हो गई हैं, साँस तेज़ चलने से वक्ष उठ-गिर रहे हैं, चेहरे पर उभरी पसीने की बूँदों से कानों में पहने शिरीष के फूल चिपक गये हैं और बालों की वेणी खुल जाने से एक हाथ से सँभाले जाने के बावजूद लटें बिखर गई हैं।]
   
मेरे सामने भारत का प्राकृतिक मानचित्र खुला है और विंसेंट स्मिथ की पुस्तक में उपलब्ध प्राचीन भारत के नक़्शेवाली प्लेट। और मैं देश के भूगोल, विविधवर्णी प्राकृतिक बनावट तथा विभिन्न प्रदेशों के जन-जीवन में कालिदास की गहरी पैठ और उनके विशद एवं सम्यक्‌ भौगोलिक ज्ञान के सामने नतमस्तक हूँ। आज इतने सारे सूचना-स्रोत उपलब्ध होने के बावजूद तथाकथित यथार्थवादी कथाकृतियों में हम भूगोल के प्रति कितनी असावधानी बरतते हैं ! और उस प्राचीन युग में एक काव्य-रूपक लिखते हुए कालिदास का यक्ष बादल को उसके मार्ग का जैसे एक सर्वथा त्रुटिहीन और सटीक नक़्शा थमा रहा हो..... और कुछ  ‘विद्वान’ लेखक मानते हैं कि भारत का पहला नक़्शा वारेन हेस्टिंग्स ने बनवाया (उदय प्रकाश, वारेन हेस्टिग्स का साँड़) ! संस्कृत की अवहेलना का यही हश्र होना था !!
  
कालिदास का राष्ट्रप्रेम किसी आग्रह या दिखावे का मुहताज नहीं, उनके लिए वह निहायत सहज और प्रकृत है। अकारण नहीं कि वे अपने महाकाव्य कुमारसंभवम्‌ का प्रारम्भ उसकी कथाभूमि हिमालय की भौगोलिक महत्ता के यशोगान से करते हैं-- 

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नागाधिराज:।
पूर्वापरौ तोयनिधीवगाह्य स्थित: पृथिव्या इव मानदण्ड:॥
(कुमारसम्भवम् 1:1)

[(भारतके) उत्तर में देव-तुल्य हिमालय नाम का पर्वतों का राजा है, जो पूरब और पश्चिम के समुद्रों को छूता हुआ ऐसे स्थित है, जैसे पृथ्वी का मानदंड हो.]

प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. इरफान हबीब ने अमीर ख़ुसरो (1253-1325) की लम्बी कविता ‘नुह सिपिह्र’ (नौ आकाश) को भारत की पहली देशभक्ति की कविता बताया है। वे लिखते हैं‌--

“The first patriotic poem in which India is praised, India is loved, Indians are acclaimed is Amir Khusrau’s long poem in his Nuh Sipihir written in 1318. I am very sorry that now we are losing this heritage. How many people here would be able to read Amir Khusrau, and so appreciate that here is the praise for India for the first time in its history. What does Amir Khusrau praise India for? For its climate first of all which I think is very unconvincing statement, its natural beauty, its animals and along with its animals its women, their beauty as well as faithfulness. Then he comes to Brahmans. He praises their learning. He praises their language Sanskrit. He identifies India not only with Brahmans, but also with Muslims. Those who speak Persian, as well as those who speak Turkish, he says, are to be found throughout India. He praises all the languages of India from Kashmiri to Mabari i.e. Tamil. All these languages that were spoken in India, not only north India but also in the south India, are listed there. He called them Hindavi. He adds that besides these languages there is the Sanskrit language, which is the language of science, and of learning. And had Arabic not been the language of the Quran, he would have preferred Sanskrit to Arabic. He then says India has given many things to the world: India has given Panchtantra tales, as well as chess, and most surprisingly, he says India has given the world the decimal numerals what are known as Arab numerals or International numerals. He is correct in all the three points. And, as for decimal notation Aryabhatta theoretically recommended its use in 4th century AD.”

इसमें दो राय नहीं कि अमीर ख़ुसरो भारतीय लोकजीवन में रचे-बसे, अरबी, फ़ारसी और हिंदवी के प्रकांड विद्वान और उदात्त शायर थे और इस देश की मिट्टी से, इसकी तहज़ीब से, इसकी आबोहवा से, इसके सौंदर्य से बेहद प्यार करते थे। किंतु ख़ुसरो का उल्लेख करते समय देशप्रेम को लेकर उनकी कविता के प्रथम होने का दावा करना, उनसे तेरह सौ वर्ष पूर्व के दूसरे कवि कालिदास के योगदान के प्रति न्याय नहीं होगा। संभवत: यह उसी तरह की जानकारी के अभाव में, ग़ैरइरादतन हो गया हो, जिसे लेकर ख़ुसरो के संदर्भ में प्रो. हबीब ने दु:ख और निराशा व्यक्त की है। 

कमलाकांत त्रिपाठी
© Kamlakant  Tripathi


Sunday, 26 June 2022

डॉ कैलाश कुमार मिश्र / नागालैंड, जनजातीय अस्मिता और संस्कृति प्रकृति के बीच संतुलन के लिए शंखनाद (1)

2007 में नागालैंड की राजधानी कोहिमा में एक होटल में एक संभ्रांत नागा युवक से बात कर रहा था। युवक कोन्यक नागा समुदाय से थे। राजकीय प्रशासनिक अधिकारी थे। उनको नागालैंड, नागा और समस्त उत्तरपूर्वी भारत की चिंता थी। वे चिंतित थे संकृति संरक्षण के लिए, पारिस्थितिकी संतुलन के लिए प्राकृतिक संसाधन का क्षय रोकने के लिए, और सबसे अधिक नागा समाज जो प्रकृति और संस्कृति के बीच अपना जड़ और जुड़ाव खोता जा रहा है उसके पुनर्स्थापन के लिए। उनके मन का युवा अपने अस्तित्व के संरक्षण के लिए द्वंद झेल रहा था। युवक मन विचलित हो रहा था। 

वे महोदय कुछ ही क्षण के परिचय के उपरान्त मुझसे घुल मिल गए थे। चावल से निर्मित स्थानीय बीयर इस मिलन का प्राणवायु बन चुका था। यद्यपि वे जो बात और तर्क कर रहे थे उसमे कहीं भी लीक से हटकर नही बोल रहे थे। भावनाएं स्वच्छंद होते हुए भी जड़ से जुड़े हुए थे। 

युवक ने बताया: "जानते हैं सर, गलती तो हमारे नागा पूर्वजों ने इस राज्य के नामांकरण के समय कर लिया था। कहिए भला एक तरफ आपने नाम रखा मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, मणिपुर जो हर दृष्टिकोण से भारतीय मुख्यधारा का अभिन्न अंग लगता है, दिखता है। वहीं हमारे राज्य का नाम नागालैंड बना दिया गया। इसमें भारतीयता कहां है? हम तो नामकरण में हॉलैंड, इंग्लैंड,स्विटजरलैंड की तरह लगते हैं। बिलकुल एक अलग थलग सा राज्य। हमे भी अपना नाम नागा प्रदेश, नागांचल, नागभूमि,नागमणि जैसा रखना था। अगर ऐसा होता तो हम मुख्यधारा के करीब होते, मुख्यधारा के लोग भी हमलोगो से सांस्कृतिक रूप से जुड़  पाते। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अगर शहरों के नाम बदल सकते हैं तो राज्य का नाम क्यों नही बदल सकता? यह गंभीर विषय है, जिसपर सरकार और यहां की जनता को जागरूक होने की आवश्यकता है। लोग सोचने भी लगे हैं। हम इसके लिए गांव गांव घूमकर लोगों को जागरूक करना है।"

नागा युवक गंभीर होते हुए पुनः बोलने लगे: "क्रिश्चियन मिशन और स्कूल ने तो हमारा भट्टाधार कर दिया है सर। शिक्षा और आधुनिकता के बहाने इन लोगों ने हमलोगों को अपनी संस्कृति के जड़ से अलग थलग कर दिया है। ठीक है, हम बाल दूसरे अंदाज में रखते थे, आधुनिक वस्त्र धारण नही करते थे, लेकिन हम प्रकृति के करीब होते थे। दुर्भाग्य से मिशन स्कूल ने हमे अंग्रजी तो सीखा दिया लेकिन अपनी भाषा और संस्कृति से अलग-थलग कर दिया। हम ईसाई धर्म में परिवर्तित होते गए और अपने ग्राम देवता, कुल देवता, कृषि देवता, मातृदेवी, औषधि देवता को भूलते गए। हम ने प्रकृति पूजा छोड़ दिया और चर्च में पेंट शर्ट पहनकर जाने लगे। हम अपनी धरती, नदियों, झरने, लोकगाथाओं, प्रकृति पूजा के मंत्र भूलने लगे और न्यू टेस्टामेंट को याद करने लगे। हम अपनी मधुर वाणी और संगीत को छोड़कर अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य धुन में गाने लगे, बजाने लगे। सच कहूं तो हमलोग ठगे ठगे से लगते हैं, अनुभव करते हैं। दुर्भाग्य से वामपंथी विचारधारा के लोग हमारी भावना को नहीं समझते। विचारधाराएं और कुत्सित मानसिकता उन्हें हमारे लिए स्वर उठाने नही देते। कौन सुनेगा भला हमारी? लगभग 97 प्रतिशत नागा समुदाय ईसाई बन चुके हैं। लेकिन रुकिए सर! 3 प्रतिशत अभी भी मूल परम्परा में है। हमे उनके साथ रहकर अपनी जड़ तलासने हैं। हम अंग्रेजी अथवा ईसाई धर्म के विरोधी नही हैं, हमे तो अपनी संस्कृति और भाषा के साथ अपनी प्रकृति को पुनः जोड़ने की जरूरत है। अगर ऐसा कर पाते हैं तो यही स्पिरिट ऑफ नागा और स्पिरिट ऑफ नागालैंड है। "

युवक भावुक हो रहा था लेकिन बात तर्कपूर्ण कर रहा था। ऐसे में अगर कोई घर वापसी की बात करता है तो क्या बुरा करता है। युवक के साथ अन्य प्रसंग पर फिर कभी चर्चा करेंगे । अभी इतना ही। 
(क्रमशः) 

© डॉ कैलाश कुमार मिश्र 

सुप्रीम कोर्ट की अवकाश पीठ और त्वरित सुनवाई के नियम.

सुप्रीम कोर्ट की अवकाश पीठ और त्वरित सुनवाई के नियम.

शिवसेना के बागी नेता और विधायक, एकनाथ शिंदे ने, 26/06/22 की शाम 6.30 पर, एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की। रविवार होने के बावजूद, 26/06/22 को ही, शाम 7.30 बजे, रजिस्ट्री ने याचिका लिस्ट कर, अगले ही दिन, सोमवार यानी, 27/06/22 की तिथि सुनवाई के लिए तय भी कर दी। सामान्यतः एक याचिका जब दायर होती है तो, रजिस्ट्री उसका डिफेक्ट ढूंढती है और डिफेक्ट ठीक होने पर, लिस्टिंग के लिए रखी जाती है। सामान्य स्थिति में, कोर्ट से आवश्यक मामलों की सुनवाई के लिए अदालत से अनुरोध किया जाता है, जिसे मेंशनिंग कहते हैं। क्या शिंदे की याचिका में यह सब हुआ है? आजकल सामान्य अदालती कामकाज नहीं चल रहा है, बल्कि वेकेशन बेंच है जो अत्यावश्यक मामलों की सुनवाई और लिस्टिंग की जाती है। 

वेकेशन बेंच, किन मामलो में तुरंत सुनवाई करेगी, इसका भी एक सर्कुलर सुप्रीम कोर्ट ने ही जारी कर रखा है। उस सर्कुलर में उन प्रकरणों का उल्लेख भी है जिन्हे बेंच अत्यावश्यक सुनवाई के लिए तैयार होगी। सर्कुलर इस प्रकार है।
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भारत का सर्वोच्च न्यायालय
फा.नं.4/न्यायिक./2022, नई दिल्ली, 13 मई, 2022

परिपत्र

इसके द्वारा सभी संबंधितों की जानकारी के लिए अधिसूचित किया जाता है कि, आगामी अवकाश के दौरान
निम्नलिखित अत्यावश्यक मामलों को सूचीबद्ध करने के लिए मानदंड/दिशानिर्देश निर्धारित किए गए हैं। 23.05.2022 से 10.07.2022 तक, अवकाश न्यायालय के समक्ष पेश किए जाने वाले प्रत्येक मामले के साथ एक हलफनामा भी होना चाहिए, जिसमें, क्यों लिस्टिंग की जाय इसकी आवश्यक सभी भौतिक तथ्यों के साथ, दर्शाया गया हो। जैसे, 

 i) मामले की प्रकृति;
 ii) आक्षेपित आदेश की तिथि, यदि कोई हो;
 iii) यदि आक्षेपित आदेश दिया गया था या कार्रवाई का कारण पहले की तारीख में उत्पन्न हुआ था, तो छुट्टी से पहले इसे दाखिल नहीं करने का कारण;
 iv) उसमें दर्शाई गई तात्कालिकता को देखते हुए नवीनतम तिथि जिस तिथि तक मामले की सुनवाई की जा सकती है;  तथा
v) मांगे गए अंतरिम आदेश की प्रकृति, जिसके लिए तात्कालिकता का संकेत दिया गया है, का उल्लेख किया जाना चाहिए।

माननीय अवकाश न्यायाधीशों के समक्ष सूचीबद्ध करने के लिए किसी भी मामले पर तब तक विचार नहीं किया जाएगा जब तक कि अन्य बातों के साथ-साथ, ऐसा शपथ पत्र जो माननीय अवकाश न्यायाधीशों द्वारा सुनवाई की तात्कालिकता को इंगित करने के लिए पर्याप्त न हो।

2.
निम्नलिखित मामलों को अवकाश के दौरान सूचीबद्ध करने के लिए अत्यावश्यक प्रकृति के मामलों के रूप में माना जाएगा:

1. मामले जिनमें मृत्युदंड दिया गया है;
2. बंदी प्रत्यक्षीकरण के लिए याचिका और उससे संबंधित मामले;
3. संपत्ति के विध्वंस की आसन्न आशंका से संबंधित मामले;
4. बेदखली/बेदखली से संबंधित मामले।
5. अग्रिम जमानत के मामले और आदेश के खिलाफ दायर मामले-अस्वीकार करना/जमानत देना;

3.
निम्नलिखित मामलों को अवकाश के दौरान सूचीबद्ध करने के लिए तत्काल प्रकृति के मामलों के रूप में नहीं माना जाएगा:

1. अंतर्वर्ती आदेशों से उत्पन्न मामले;
2. रिमांड आदेशों से संबंधित मामले;
3. निर्दिष्ट विधियों के तहत कर, जुर्माना आदि के पूर्व जमा से संबंधित मामले;
4. आजीवन कारावास या एक वर्ष से अधिक की सजा से उत्पन्न मामले;
5. सेवा मामलों में स्थानांतरण और/या प्रत्यावर्तन, बर्खास्तगी और सेवा से निष्कासन शामिल है;
6. परिवहन मामले, परमिट रद्द करने और तत्काल अंतरिम आदेशों की आवश्यकता से संबंधित मामलों को छोड़कर;
7. फरमान और उनके निष्पादन से संबंधित मामले।

4.
इसके द्वारा सभी संबंधितों की जानकारी के लिए आगे अधिसूचित किया जाता है कि अवकाश पीठों के समक्ष मामलों को सूचीबद्ध करने के अनुरोध पर सायं 4.00 बजे से पहले विचार नहीं किया जाएगा।  गुरुवार 19 मई, 2022 को और उसके बाद दोपहर 1.00 बजे तक प्राप्त अनुरोध, शनिवार 21 मई, 2022 को सोमवार 23 मई, 2022 को सूचीबद्ध करने के लिए विचार किया जाएगा और सोमवार 23 मई, 2022 से सायं 4.00 बजे तक सभी आवश्यक मामलों को दर्ज किया जाएगा।  गुरुवार 26 मई, 2022 को शुक्रवार 27 मई, 2022 को सूचीबद्ध किया जाएगा और इसी तरह।

एसडी / (बीएलएन आचार्य) रजिस्ट्रार (जे-द्वितीय) 13.05.2022

एसडी/(चिराग भानु सिंह) रजिस्ट्रार (जे-आई)
13.05.2022

 प्रति: 1. सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन परिपत्र की पांच अतिरिक्त प्रतियों के साथ इस अनुरोध के साथ कि बार के सदस्यों को जानकारी के लिए बार एसोसिएशन के नोटिस बोर्ड पर परिपत्र प्रदर्शित किया जा सकता है।
2. सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन सर्कुलर की पांच अतिरिक्त प्रतियों के साथ इस अनुरोध के साथ कि एसोसिएशन के सदस्यों को जानकारी के लिए सर्कुलर को एसोसिएशन के नोटिस बोर्ड पर प्रदर्शित किया जा सकता है।
3. सभी नोटिस बोर्ड।
4. सभी संबंधित।
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SUPREME COURT OF INDIA
F.No.4/Judl./2022 New Delhi, May 13, 2022

CIRCULAR

1.
It is hereby notified for the information of all concerned that the following norms/guidelines have been laid down for listing of urgent matters during the ensuing vacation viz. from 23.05.2022 to 10.07.2022: Every matter to be moved before vacation Court should be accompanied by an affidavit, indicating all the material facts necessary for the formation of opinion about its

urgency. The required material facts and particulars should invariably include:

i) The nature of the matter;
ii) The date of the impugned order, if any;
iii) The reason for not filing it before the vacation, if the impugned order was made or the cause of action arose on an earlier date; 
iv) The latest date upto which the matter can be heard in view of the urgency indicated therein; and 
v) The nature of interim order sought for which the urgency is indicated must be mentioned.

No matter shall be entertained and considered for listing before the Hon'ble Vacation Judges unless it is, inter alia, accompanied by such an affidavit which is sufficient to indicate the urgency for its being heard by the Hon'ble Vacation Judges.

2.
The following matters shall be treated as matters of urgent nature for listing during the vacation :

1. Matters in which death penalty has been awarded;
2. The petition for Habeas Corpus and matters relating to it; 
3. Matters relating to imminent apprehension of demolition of property;
4. Matters relating to dispossession/evivtion.
5. Matters for anticipatory bail and matters filed against orders-refusing/granting bail;

3. 
The following matters shall not be treated as matters of urgent nature for listing during vacation :

1. Matters arising out of interlocutory orders;
2. Matters relating to remand orders;
3. Matters relating to pre-deposit of tax, penalty etc., under specified statutes;
4. Matters arising out of life sentence or sentences for more than one year;
5. Service matters involving transfer and/or reversion, dismissal and removal from service;
6. Transport matters, except those relating to cancellation of permits and needing urgent interim orders; 
7. Matter related to decrees and their execution. 

4. 
It is hereby further notified for the information of all concerned that request for listing the matters before Vacation Benches will not be entertained before 4.00 P.M. on Thursday the 19th May, 2022 and requests received thereafter till 1.00 P.M. on Saturday the 21 May, 2022 will be considered for listing on Monday the 23rd May, 2022 and that all the urgent matters filed from Monday the 23 May, 2022 upto 4.00 P.M. on Thursday the 26th May, 2022 will be listed on Friday 27th May, 2022 and so on.

Sd/ (B.L.N. Achary) Registrar (J-II) 13.05.2022

Sd/ (Chirag Bhanu Singh) Registrar (J-I)

13.05.2022

To: 
1. Supreme Court Bar Association with five spare copies of the Circular with a request that the Circular may be displayed on the Notice Board of the Bar Association for information to the Members of the Bar.
2. Supreme Court Advocates-on-Record Association with five spare copies of the Circular with a request that the Circular may be displayed on the Notice Board of the Association for information to the Members of the Association. 
3. All the Notice Boards.
4. All concerned.

(विजय शंकर सिंह) 

कनक तिवारी / हिन्दुत्व, सेक्युलरिज़्म और मुसलमान (2)

           (विनायक दामोदर सावरकर) 

(6) विनायक दामोदर सावरकर ने कहा है हिन्दू वह है जो सिंधु नदी से लेकर सिंधु अर्थात समुद्र तक फैले भू भाग को पितृभूमि मानता है और उनके रक्त का वंशज है। जो उस जाति या समुदाय की भाषा संस्कृत का उत्तराधिकारी है और अपनी धरती को पुण्य भूमि समझता है।   हिन्दुत्व के प्रमुख लक्षण हैं एक जाति और एक संस्कृति। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘‘वीः अवर नेशनहुड डिफाइंड‘‘ में यहां तक कहा कि हमारा इकलौता मकसद हिन्दू राष्ट्र के जीवन को ऊंचाई और उज्जवलता के शिखर पर बिठाना है। वे ही राष्ट्रवादी और देशभक्त हैं जो हिन्दू जाति को गौरव प्रदान करने के मकसद से अपनी गतिविधियों में संलग्न हैं। इस लिहाज से हिन्दुस्तान के गैरहिन्दुओं को हिन्दू संस्कृति और भाषा स्वीकार करनी होगी। उन्हें हिन्दू धर्म के प्रति श्रद्धावान होना होगा। वे देश में हिन्दू राष्ट्र के मातहत बिना कोई मांग या सुविधा के रह सकते हैं। उन्हें कोई प्राथमिकता यहां तक कि नागरिक के भी अधिकार नहीं मिलेंगे।    अचरज है सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दुत्व की परिभाषा समझाने में इस बौद्धिक जद्दोजहद की पृष्ठभूमि का खुलासा नहीं किया है। जिसमें यहां तक कहा गया था कि पहला हिन्दू राज्य महाराष्ट्र में स्थापित होगा।   हिन्दुत्व शब्द का उल्लेख विनायक दामोदर सावरकर के पहले लाला लाजपत राय ने भी किया था। नास्तिक सावरकर ईश्वर को नहीं मानते थे। संघ परिवार हिन्दुत्व और ईश्वर दोनों को मानता है। हिन्दुत्व के नाम पर वोट मांगने को कुछ मुकदमों में सुप्रीम कोर्ट ने जायज़ ठहराया है, लेकिन अन्य फैसलों में हिन्दुत्व और हिन्दुइज़्म (हिन्दू धर्म) को अलग भी करार दिया है। रामकृष्ण मिशन ने भी एक मुकदमें में मांग की थी कि वह प्रचलित अर्थ में हिन्दू धर्म का अनुयायी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने यह दलील नहीं मानी।   कई आदिवासी समूह हिन्दू घोषित किया जाने पर कहते हैं कि वे हिन्दू धर्म के अनुयायी नहीं हैं। हिन्दू धर्म के अनेक मत, विभाजन, संप्रदाय जातिभेद और वर्गविभेद का पूरा ज्ञान किसी धर्माचार्य को भी नहीं हो सकता।

(7) ‘‘हम यह चुनाव हिन्दुत्व की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं इसलिए हम मुस्लिम वोटों की कोई फिक्र नहीं करते। यह देश हिन्दुओं का है और आगे भी रहेगा।..........।‘‘ ‘‘यदि तुम मस्जिदें खोदोेगे तो उन सबके नीचे हिन्दू मन्दिरों के अवशेष पाओगे। जो कोई हिन्दुओं के खिलाफ खड़ा होगा उसे उसकी जगह बता दी जानी चाहिए या उसकी पूजा जूतों से करनी चाहिए। प्रभु (उम्मीदवार) को हिन्दू के नाम पर जिताना है। यद्यपि यह देश हिन्दुओं का है फिर भी यहां राम और कृष्ण का अपमान होता है। हमें मुसलमानों के वोट नहीं चाहिए। शहाबुद्दीन जैसा सांप जनता पार्टी में बैठा है। मतदाताओं को उस पार्टी को दफना देना चाहिए।‘‘।         ये उन भाषणों के अंश हैं। जोे महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में रमेश प्रभु नामक निर्दलीय उम्मीदवार के समर्थन में शिवसेना की ओर से बाल ठाकरे द्वारा दिए गए थे। बम्बई हाईकोर्ट ने प्रभु का चुनाव लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत दो समुदायों के बीच धार्मिक घृणा फैलाने के आरोप में रद्द कर दिया। ठाकरे और प्रभु ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। उनका कहना था उन्होंने हिन्दू धर्म के आधार पर वोट नहीं मांगा है, क्योंकि उनके अनुसार ‘हिन्दुत्व‘ धर्म नहीं भारतीय संस्कृति की शैली है। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी अपील स्वीकार कर बम्बई हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर दिया। 

(8) हिन्दुत्व और हिन्दुइज़्म में ज़मीन आसमान का फर्क है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जे. एस. वर्मा के अनुसार हिन्दुत्व एक जीवन शैली और बहुसंख्यक समाज का अक्स तथा प्राण तत्व है।    हिन्दुइज़्म हिन्दू धर्म के अनुयायियों का संगठन समाज है। 1995 के इस फैसले में जस्टिस वर्मा ने दोनों को गड्डमगड्ड कर दिया। हिन्दुइज़्म और हिन्दुत्व का अंतर बारीक या पेचीदा नहीं है। लेकिन न्यायमूर्ति वर्मा ने उलझा दिया। हिन्दुत्व शब्द के आविष्कारक सावरकर ने खुद अचरज किया था कि दोनों शब्दों को एक ही अर्थ में क्यों समझा जाता है। (1969)। मुमकिन है न्यायमूर्ति वर्मा ने फैसला नीयतन नहीं किया होगा।   फैसले की बौद्धिक क्षेत्रों में तीखी आलोचना हुई कि हिन्दुइज़्म पुरानी अभिव्यक्ति है लेकिन हिन्दुत्व आधुनिक। हिन्दुइज़्म धार्मिक विश्वास का प्रतीक है। लेकिन हिन्दुत्व नई परिस्थितियों का तकाज़ा है। हिन्दुइज़्म धर्म है, लेकिन हिन्दुत्व नहीं। हिन्दुइज़्म निजी मुक्ति का साधन हो सकता है लेकिन हिन्दुत्व जातीय, राष्ट्रीय और सांस्कृतिक फलक का राज्य और समाज के स्तर पर सियासत का भी अहसास है। हिन्दुइज़्म विचार के सभी आयामों का समुच्चय है। हिन्दुत्व को उसके एक धार्मिक वैश्वासिक हिस्से की हैसियत एक मजहब की संकीर्णता द्वारा स्वीकार किया जाता है।

                  (बाला साहेब ठाकरे) 

(9) भारतीय जनता पार्टी के 1999 के चुनाव घोषणा पत्र में जस्टिस वर्मा की बेंच द्वारा दिए गए फैसलों का लाभ लिया गया। शुरुआत में ही सुप्रीम कोर्ट को भारतीय जनता के साथ इस समझ का श्रेय दिया गया कि हिंदुत्व को एक सेक्टर का बहिष्कृत विचार नहीं माना गया। ऐसे सैद्धांतिक तर्को को भाजपा ने अपने उन राजनीतिक कृतियों की वैचारिक नींव  की तरह रेखांकित किया जिनके कारण राम जन्मभूमि आंदोलन को तर्क सिद्ध किया गया।

16 जनवरी 1999 को श्रीमती सोनिया गांधी की अध्यक्षता में कांग्रेस कार्यसमिति ने अपने प्रस्ताव में हिंदुइज़्म को भारत में सेकुलर वाद का प्रभावशाली जमानतदार करार दिया। श्रीमती गांधी ने उसके पहले भी अपने भाषण में हिंदुओं को लेकर इसी तरह के विचार व्यक्त किए थे। भाजपा ने बिल्ली के भाग से छींका टूटा जैसी शैली में जानबूझकर यह बयान जारी किया कि कांग्रेस ने हिंदुत्व संबंधी भारतीय जनता पार्टी की अवधारणा को भारतीय राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय तादात्म्य  के प्रतीक के रूप में स्वीकार कर लिया है । ऐसा ही भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि हिंदुत्व एक जीवन शैली है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने हिंदुत्व संबंधी अवधारणा के कारण श्रीमती गांधी की प्रशंसा की। यहां संघ परिवार ने जानबूझकर कांग्रेस की सद्भावनाजन्य  भूल के कारण हिंदुत्व और हिंदू शब्दों को गड्मडड्ड किया और राजनीतिक फलितार्थ निकाले।

 (10 )कई बार अदालतों ने संविधान निर्माताओं की समझ से परे जाकर ‘हिन्दू‘, ‘हिन्दी‘, ‘हिन्दुस्तान‘, ‘हिन्दूधर्म‘ जैसे शब्दों की अपनी व्याख्याएं कीं। ये दार्शनिक, नीतिशास्त्रीय, धार्मिक और ऐतिहासिक तथा भाषायी आधारों पर भी सही प्रतीत नहीं होतीं। न्यायालयों को अधिकार दिए गए हैं कि वे कानूनों की व्याख्या करने के अलावा राष्ट्रीय जीवन के हर प्रश्न का विवेचन करें जो उनके दायरे में पहुंचता है। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं को समझने में जजों ने कई बार निजी समझ और मान्यताओं पर भी भरोसा किया है। संविधानसम्मत तथा परंपरापोषित धार्मिक प्रथाओं का सांस्कृतिक स्पेस हिन्दू तथा मुस्लिम कठमुल्लापन ने प्रदूषित कर दिया है। इसलिए सेक्युलरवाद सही अर्थ खोकर संकुचित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में बदला जाता रहा है। संविधान के लिए लेकिन पेचीदी मुश्किलें केवल हिन्दुओं ने ही पैदा नहीं कीं। वैसे मुसलमान बेरोजगार, गरीब, हिंसक, ‘अपराधी‘ (?) और अलग थलग भी दिखलाये जाते रहे हैं। हालांकि उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन , साहित्य , संस्कृति , सेना , फिल्मों और खेलकूद आदि में भारतीय रहने का अहसास जिया है। राष्ट्रीय जीवन संविधान की पोथी बांच कर रोज ब रोज नहीं चलता। संविधान की आयतें घर के बड़े बूढ़ों की समझाइशों की तरह हो जाती हैं जिनके मानने या न मानने की मजबूरी नहीं महसूस होती।
(जारी)

कनक तिवारी
© Kanak Tiwari

हिन्दू, हिन्दुत्व, सेक्युलरिज़्म और मुसलमान (1) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/06/1_26.html 

कनक तिवारी / हिंदू , हिंदुत्व , सेकुलरिज्म और मुसलमान (1)

                        
दक्षिण पूर्व एशिया के मुल्कों के बनिस्बत भारत हिंदूइज़्म को 85% भारतीयों के प्रतिनिधि धर्म के रूप में सुरक्षित रख पाया है। वह प्रलोभन से बचता रहा कि अंतरराष्ट्रीय प्रचार कर उसे विश्व धर्म बनाए । वह उसे राज्य धर्म बनाने से भी परहेज करता रहा है।                   

हिंदू धर्म असल में जनधर्म रहा है। हिंदू धर्म ने संगठन बनाकर धार्मिक विश्वासों का राज्यीकरण, संप्रदायीकरण या एकाधिकार नहीं किया। भारत पर अन्यों के आक्रमण और हुकूमत के बावजूद हिंदू धर्म ने हिंसक राजनीतिक चुनौतियां देने के बदले अपने सांस्कृतिक आयामों पर  भरोसा करते बार-बार और तरह-तरह से संवाद स्थापित किया ।    ‌   वसुधा के लिए कुटुंब- दृष्टि रखने के बावजूद हिंदू धर्म की बुनियाद सामाजिक अवधारणाओं, व्यक्ति की अपरिमित आजा़दी और आत्मानुशासन से सहिष्णुता पर निर्भर रही है । इसमें इतना खुलापन रहा कि भौगोलिक , वैचारिक या राजनीतिक सरहदें उसे बांध नहीं सकीं।              

हिंदू धर्म हवाओं की तरह लिरिकल और पानी की तरह वैचारिक तरल है। इस धर्म की अग्नि है जो मनुष्य होते रहने के संकल्प को बाले रहती है ।इस धर्म का विस्तार अबूझे आकाश की तरह है। सामाजिक, माननीय कर्तव्यों के लिए धरती के एक-एक अवयव में यह धर्म दिखाई देता है।            

हिंदू धर्म व्यक्ति से लेकर मुक्ति की यात्रा में आजा़दी के रास्ते चाहता रहा है । उसके लिए संभव नहीं कि उसे राज्य, सरकार या कोई समूह नियंत्रित करे। वह देह में निवास नहीं करता। अलबत्ता देह की पहचान धारे व्यक्ति के उत्कर्ष और उत्सर्ग  के लिए कदम कदम चलकर उसके सोच और विश्वास में अपनी अभिव्यक्तियां टांकता चलता है ।             वह अन्य धर्म के मानने की सीख नहीं देता और प्रचार नहीं करता। वह खुद को सीख देता ,खुद को ही समझता रहता है। लोग हिंदू धर्म के पास आत्मा से नियंत्रित होकर आते हैं। उनका विवेक उन्हें समझाइश  देता है कि  हिंदू होने का मर्म समझें, यहां तक कि हिंदू न होने का भी।
          
हिंदुओं की ऐतिहासिक या मिथकीय पैदाइश से लेकर उनकी उपलब्धियों तक धर्म को भूगोल से पनाह मिलती रही । हिमालय से कन्याकुमारी और अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक अक्षांशों और देशांशों  घिरी जमीन पर हिंदू अपना एकाधिकार नहीं मानता रहा। लेकिन उसे अपनी प्रयोगशाला ज़रूर समझता  रहा है ।              

सत्य के साथ लगातार प्रयोग करने के हिमायती रहते उसमें प्रतिविश्वास भी घुलते गए । हिंदू की सत्य दृष्टि अविचल, अटल और अकल्पनीय है। उसके लिए सत्य समुद्र है और व्यक्ति का सत्य समुद्र का जल। मनुष्य के लिए आजा़दी है कि अपने को समुद्र की एक बूंद समझे या अपने को पूरा समुद्र ही समझ ले।              एक जीवित इकाई से दूसरी इकाई के रिश्ते की पड़ताल करना हिंदू धर्म के केंद्रीय आग्रहों में रहा है। वह जड़ वस्तु में भी लुप्त चेतना तलाशने में एकजुट रहा है । वह एक साथ वैचारिक एकांत और व्यावहारिक सामाजिकता का समर्थक है। उसका नष्ट करने में विश्वास नहीं है। वह दंत कथाओं के फीनिक्स पक्षी की तरह मुट्ठी भर राख से उठने की जिजीविषा का संदेश समझता है।
     
         
इतना सब होने पर भी हिंदू धर्म लेकिन भौतिक धरातल पर मैनेजमेंट की कला नहीं सीख पाया‌। उसने आत्मा की रोशनी देखने में कितनी ऊर्जा झोंक दी कि जीवन - मरण के काले और कुटिल पक्षों को काबू करना नहीं सीख पाया । हिंदू धर्म को ठीक से नहीं समझने वाले या उसे जानबूझकर विकृत अर्थ में समझने वाले तमाम व्यक्तियों ने अपने अपने संगठन खड़े कर दिए। उन्होंने सभी तरह के व्यक्त, अव्यक्त विश्वासों और रूहानी प्रतिबद्धताओं को रूढ़ियों ,परंपराओं और उपासना पद्धतियों में तब्दील कर दिया‌। हिंदू धर्म ने उत्सवधर्मिता के भौतिक रूपों से परहेज ही किया था। मनुष्य की उत्सवधर्मिता की ललक का धार्मिक संस्थाओं द्वारा व्यावसायीकरण किया गया।                  

मंदिर ,मठ ,देवालय और धर्मशालाएं धार्मिक विश्वासों को पत्थर और सीमेंट कांक्रीट की इमारतों के जरिए इमारतों में बदलती रहीं। हिंदू धर्म की बुनियादी बानगियां  समूचे परिदृश्य में गंदलाने और धुंधलाने लगीं।              

हिंदू एक साथ तीन स्तरों पर जीते रहे हैं। एक तो सर्वोच्च ज्ञान की परंपराओं के वाहकों के साथ जो पहाड़ों की कन्दराओं में तपस्या करते थे। दूसरे उन संगठनबद्ध धार्मिक क्रियाओं में उलझते पूजा-पाठ और तरह-तरह के मनोविलास के उपकरणों में फंस कर भी लेकिन धर्म की सत्ता की बांग  ज़रूर देते रहे‌ तीसरा उनके जीवन में वे लोग घुस गए थे जो न तो बौद्धिक थे और न ही धार्मिक संगठनों के सूत्रधार ,सदस्य या भक्त।                          ‌अपराजित और अबूझ रहकर भी उदासीन हिंदू धर्म अपनी साधना में कायम रहा। विदेशी हमलों के सांस्कृतिक, धार्मिक और दूसरे असर भी हुए। बचाव और अनुशासन तंत्र नहीं बनाने की वजह से हिंदू नागरिक इस्लाम और ईसाई धर्म में जबरिया लालच के कारण ले जाए गए। उनकी वापसी की कोशिशें नहीं हुई सिवाय इक्का-दुक्का संगठनों द्वारा। बीसवीं सदी के मध्य में राजनीतिक आजा़दी भारत को मिली। उसने पहली बार आत्मिक, सामाजिक, वैयक्तिक और अन्य अनुशासन का आत्मिक तंत्र संविधान बनाकर गढ़ा।            संविधान पहला लिखित बुनियादी दस्तावेज है जो कई दिशाओं में एक साथ जाने की प्रेरणा देता है। उसमें धर्म के इतिहास की खोह भी शामिल है। हिंदू धर्म अपनी अशेष बुनियादी अवधारणाओं और जनता के लगभग सर्वमत से आत्मानुशासन रचता है कि माननीय प्रतिबद्धता के साथ समवेत होकर चलेगा ।              

यह किसी के द्वारा सुझाया गया रास्ता नहीं है, बल्कि खुद के द्वारा उकेरा गया है । संविधान की धार्मिक आयतें भी इसी लिए आत्मविश्वास का एक और संस्करण हैं।
        
हिंदू धर्म का विश्वास है कि हर अन्य धर्म में भी पूर्णता की मंजि़ल तक पहुंचने के रास्ते हैं। डॉक्टर राधाकृष्णन ने कहा था हिंदुइज़्म एक आंदोलन है, यात्रा का ठहराव नहीं। वह प्रक्रिया है, नतीजा नहीं। वह विकासशील परंपरा है, ठूंठ समझ नहीं । दूसरों का नकार हिंदू धर्म के मुताबिक आत्म का स्वीकार नहीं है।              हिंदू धर्म के पाखंड को देखकर लेकिन विवेकानंद गरजे थे कि 33 करोड़ देवी देवताओं के बदले मंदिरों में दलितों, मुफ़लिसों  को स्थापित कर दिया जाए।               संविधान के नायाब टीकाकार ग्रेनविल ऑस्टिन ने लिखा है हिंदू धर्म में इतने विभेद और सिरफुटौवल है कि उन्हें दूसरे धार्मिक मतों से लड़ने की ज़रूरत ही नहीं है। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने शरीयत अदालत को भी नकारते  हुए उसके फैसलों को असंवैधानिक करार दिया है।              विवेकानंद और गांधी धर्म परिवर्तन के कटु आलोचक हैं। दोनों कट्टर और संकीर्ण हिंदू दिमागों  पर जमकर बरसे भी हैं ,जो रूढ़ियों की केचुल  में घुसे रहकर अपना डंक हिंदू कौम की देह में इंजेक्ट करते रहते हैं।
(जारी)।

कनक तिवारी
© Kanak Tiwari 

Saturday, 25 June 2022

याचिका खारिज, याचिकाकर्ता से जुड़े लोग हिरासत में / विजय शंकर सिंह

यह देश के न्यायिक इतिहास का संभवतः पहला मामला होगा जिसमे याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया और याचिकाकर्ता को उसके तुरंत बाद पुलिस ने हिरासत में ले लिया। याचिकाएं खारिज होती रहती हैं और याचिकाकर्ताओं पर जुर्माने भी लगा करते हैं, पर इधर याचिका खारिज हुई और उधर याचिकाकर्ता हिरासत में धर लिया गया। ऐसा पहली बार हुआ है। क्या यह एक संदेश के रूप में भी है कि बहुत अधिक याचिकाएं दायर नहीं की जानी चाहिए ? जिस याचिका के खारिज होने के बाद यह गिरफ्तारी हुई है, वह याचिका थी, गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और अब प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी और 63 अन्य को 2002 के दंगों में गठित विशेष जांच दल की क्लीन चिट, जिसे गुजरात हाईकोर्ट ने बरकरार रखा था, की अपील, जो सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता जकिया जाफरी ने दायर किया था। इस संबंध में कई याचिकाएं तीस्ता सीतलवाड ने भी दायर की थीं। सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ जिसमें, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस सीटी रविकुमार थे, ने यह याचिका खारिज कर दी और यह कहा कि, किसी साजिश का सुबूत एसआईटी को नहीं मिला है। साथ ही यह भी कहा कि, " जकिया जाफरी की याचिका बेबुनियाद है, और सुझाव दिया कि एसआईटी ने जिस झूठ का पर्दाफाश किया था, उसका दावा करके "असंतुष्ट (गुजरात) अधिकारियों द्वारा, एक साथ मिलकर सनसनी पैदा करने" का प्रयास किया गया था।" यानी गुजरात दंगे में षडयंत्र की बात कहना अदालत को नागवार लगा। 

मुकदमे का विस्तृत विवरण इस प्रकार है। 28 फरवरी 2002 को गुजरात के गोधरा रेलवे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस के कुछ डिब्बों में आगजनी की गई और इस घटना में लगभग 65 व्यक्ति जल कर मर गए। कहा जाता है कि ये सभी कारसेवक थे जो अयोध्या से गुजरात वापस लौट रहे थे। उस समय नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। उसी के बाद गुजरात के कुछ शहरों में भयानक साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे। यह दंगे लंबे समय तक चले। इसी में यह आरोप लगा कि सरकार ने दंगो को रोकने के लिए उचित कदम समय से नहीं उठाए और जनधन की व्यापक हानि होती रही। यही वह दंगा था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने अहमदाबाद का दौरा किया था और मुख्यमंत्री को राजधर्म का पालन करने की सलाह दी थी। उसी दंगो की जांच के लिए एक एसआईटी का गठन किया गया जिसने दंगे के षडयंत्र की जांच में राज्य सरकार के उच्चतम स्तर पर किसी की लिप्तता के सुबूत नहीं पाए। एसआईटी की उसी जांच को जकिया जाफरी और तीस्ता सीतलवाड ने गुजरात हाईकोर्ट में चुनौती दी और वहां से जब उनकी याचिका खारिज हो गई तो, उसकी अपील सुप्रीम कोर्ट में की गई जहां से यह याचिकाएं फिर खारिज कर दीं गई। 

यह एक स्थापित न्यायिक प्रक्रिया है कि, कोई भी व्यक्ति अपनी अपील कानून के अनुसार उच्चतर न्यायालयों में कर सकता है और सुप्रीम कोर्ट सर्वोच्च न्यायिक पीठ है जहां उस मामले का अंतिम निपटारा होता है। इस केस में भी यही हुआ। पर इस केस में वह भी हुआ जो आज तक किसी भी केस में नहीं हुआ है कि याचिका कर्ता को याचिका के खारिज करने के बाद गिरफ्तार कर लिया जाय। यह न्याय का एक अजीब और गरीब पहलू दोनो है। अपील को खारिज करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, 
"केवल राज्य प्रशासन की निष्क्रियता या विफलता के आधार पर साजिश का आसानी से अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।"  

आगे कहा गया है कि, 
"राज्य प्रशासन के एक वर्ग के कुछ अधिकारियों की निष्क्रियता या विफलता राज्य सरकार के अधिकारियों द्वारा पूर्व नियोजित आपराधिक साजिश का अनुमान लगाने या इसे राज्य प्रायोजित अपराध (हिंसा) के रूप में परिभाषित करने का आधार नहीं हो सकती है।
एसआईटी ने पाया था कि दोषी अधिकारियों की निष्क्रियता और लापरवाही को, उनके खिलाफ विभागीय कार्रवाई शुरू करने के लिए, उचित स्तर संज्ञान लिया गया है।"

अब आगे पढ़िए, 
"इस तरह की निष्क्रियता या लापरवाही, एक आपराधिक साजिश रचने का आधार नहीं बन सकती है। इसके लिए अपराध के कृत्य या योजना में किसी की भागीदारी स्पष्ट रूप से सामने आनी चाहिए। एसआईटी इन मुकदमों की जांच करने के लिए नहीं बनाई गई थी। बल्कि, राज्य प्रशासन की गंभीर विफलताओं और उच्चतम स्तर पर संगठित साजिश की जांच करने के लिए इस न्यायालय द्वारा बनाई गई थी।"
यह कहना है, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर, दिनेश माहेश्वरी और सीटी रविकुमार की पीठ द्वारा दिये गए फैसले में। 

अदालत की  उपरोक्त टिप्पणी, याचिकाकर्ता जकिया जाफरी के एडवोकेट, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल द्वारा उठाए गए तर्कों के संदर्भ में है। कपिल सिब्बल ने कहा था,
"दंगाइयों को नियंत्रित करने के लिए उचित कार्रवाई करने में राज्य प्रशासन और पुलिस मशीनरी की विफलता थी और सांप्रदायिक बिल्ड-अप के बारे में खुफिया जानकारी की अनदेखी की गई थी।"

साजिश के विंदु पर पीठ ने अपने फैसले में कहा है कि,
"बड़े आपराधिक साजिश का मामला  बनाने के लिए, राज्य भर में संबंधित अवधि के दौरान किए गए अपराध (अपराधों) के लिए, संबंधित व्यक्तियों के दिमाग में क्या चल रहा है, इन सबमें, साज़िश का लिंक स्थापित करना आवश्यक है।" 
इस संदर्भ में कहा गया है कि, 
"इस प्रकार की कोई कड़ी अदालत के सामने नहीं आ रही है। इस न्यायालय के निर्देशों के तहत एक ही एसआईटी द्वारा जांचे गए नौ मामलों में से किसी में भी ऐसा खुलासा और साज़िश स्थापित नहीं किया गया था।"

पीठ ने दोहराया कि,
"संबंधित अधिकारियों द्वारा की गई निष्क्रियता या प्रभावी उपायों का अभाव, राज्य के अधिकारियों की ओर से की गई आपराधिक साजिश नहीं मानी जा सकती है। खुफिया एजेंसियों के संदेशों पर कार्रवाई करने में विफलता को आपराधिक साजिश का कार्य नहीं माना जा सकता है जब तक कि सम्बंधित लोगों की बैठक में, क्या सोचा गया था, के संबंध में ज़रूरी साज़िश के लिंक प्रदान करने के लिए सामग्री न हो और राज्य भर में सामूहिक हिंसा फैलाने की योजना को प्रभावित करने के लिए जानबूझकर कोई कार्य न किया जाये।"

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह भी कहा कि, 
"गोधरा ट्रेन कांड के बाद की घटनाएं "त्वरित प्रतिक्रिया" में हुईं और अगले ही दिन, 28 फरवरी, 2002 को सेना के अतिरिक्त टुकड़ी की मांग कर दी गई और अशांत क्षेत्रों में कर्फ्यू लगा दिया गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार सार्वजनिक आश्वासन दिया था कि दोषियों को दंडित किया जाएगा। राज्य सरकार द्वारा सही समय पर किए गए इस तरह के सुधारात्मक उपायों के आलोक में और तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा बार-बार सार्वजनिक आश्वासन दिया गया कि दोषियों को उनके अपराध के लिए दंडित किया जाएगा, और शांति बनाए रखी जाएगी, में साज़िश के सुबूत स्पष्ट नहीं होते हैं। नामजद अपराधियों के मन मस्तिष्क में उच्चतम स्तर पर साजिश रचने के बारे में संदेह का उपजना मुश्किल है। न्याय की बात करने वाले महानुभाव, अपने वातानुकूलित कार्यालय के एक आरामदायक वातावरण में बैठकर ऐसी भयावह स्थिति के दौरान विभिन्न स्तरों पर राज्य प्रशासन की विफलताओं के तार, जोड़ने में सफल हो सकते हैं। यहां तक ​​​​कि जमीनी हकीकत को कम जानते हुए या, यहां तक ​​​​कि जमीनी हकीकत का जिक्र करते हुये, लगातार प्रयास करने में सफल हो सकते हैं। लेकिन, राज्य भर में सामूहिक हिंसा के बाद सामने आने वाली स्वाभाविक रूप से अशांति की स्थिति को नियंत्रित करने के लिए क्या प्रयास किया गया इसे भी देखा जाना चाहिये। थोड़े समय के लिए प्रशासनिक मशीनरी का बिखराव, संवैधानिक तंत्र के टूटने का मामला नहीं कहा जा सकता है।"

कोर्ट ने कहा कि, 
"आपातकाल के समय में राज्य प्रशासन का बिखर जाना कोई ऐसी घटना नहीं है जिसे सब न जानते हों और COVID महामारी के दौरान, दबाव में चरमरा रही स्वास्थ्य सुविधाएं, सबसे अच्छी सुविधाओं वाली सरकारों में भी देखी गई।"
फिर कोर्ट ने पूछा, 
"क्या इसे आपराधिक साजिश रचने का मामला कहा जा सकता है?
इसी प्रकार,
"कम अवधि के लिए, कानून-व्यवस्था के सिस्टम का टूटना, कानून के शासन या संवैधानिक संकट के ध्वस्त होने का प्रमाण नहीं कहा जा सकता है। इसे अलग तरह से कहें तो, अल्पकालिक प्रशासनिक विफलता को, कानून-व्यवस्था बनाए रखने की विफलता नहीं मानी जा सकती है। संविधान के अनुच्छेद 356 में सन्निहित सिद्धांतों के संदर्भ में संवैधानिक तंत्र की विफलता का मामला देखा जा सकता है। कानून-व्यवस्था की स्थिति को विफल करने में की स्थिति को, राज्य प्रायोजित ध्वंस, मानने के बारे में कोई न कोई विश्वसनीय सबूत होना चाहिए।"

सुप्रीम कोर्ट ने 27 फरवरी को तत्कालीन मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक के संबंध में संजीव भट्ट आईपीएस, गुजरात के तत्कालीन मंत्री हरेन पंड्या, तत्कालीन एडीजीपी आरबी श्रीकुमार द्वारा लगाए गए आरोपों को खारिज कर दिया और कहा कि,
"हम प्रतिवादी-राज्य के तर्क में बल पाते हैं कि श्री संजीव भट्ट, श्री हरेन पंड्या और श्री आर.बी. श्रीकुमार की गवाही केवल मुद्दों में सनसनीखेज और राजनीतिकरण करने के लिए थी। जिन व्यक्तियों को उक्त बैठक की जानकारी नहीं थी, जहां कथित तौर पर तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा कथित तौर पर बयान दिए गए थे, उन्होंने खुद को चश्मदीद गवाह होने का झूठा दावा किया और एसआईटी द्वारा गहन जांच के बाद, यह स्पष्ट हो गया कि बैठक में उपस्थित होने का उनका दावा मिथ्या था। इस तरह के झूठे दावे पर, उच्चतम स्तर पर बड़े आपराधिक साजिश रचने का ढांचा खड़ा किया गया है जो, ताश के पत्तों की तरह ढह गया।"
एसआईटी जांच की सराहना करते हुए अदालत ने कहा कि 
"हम एसआईटी अधिकारियों की टीम द्वारा चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में किए गए अथक कार्य के लिए अपनी प्रशंसा व्यक्त करते हैं और फिर भी, हम पाते हैं कि उन्होंने इस जांच में मेहनत की है।"

2002 के गुजरात दंगों के दौरान गुलबर्ग सोसाइटी हत्याकांड में मारे गए कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी की विधवा जकिया जाफरी ने गुजरात उच्च न्यायालय के अक्टूबर 2017 के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की थी, जिसने एसआईटी की क्लोजर रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया था। हालांकि, गुजरात  उच्च न्यायालय ने जकिया जाफरी को पुनः जांच की मांग करने की स्वतंत्रता दे दी थी। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आगे की जांच के लिए भी कोई सामग्री नहीं है और एसआईटी की क्लोजर रिपोर्ट को वैसे ही स्वीकार किया जाना चाहिए जैसे वह है, और कुछ नहीं।
"आगे की जांच का सवाल उच्चतम स्तर पर बड़े षड्यंत्र के आरोप के संबंध में नई सामग्री/सूचना की उपलब्धता पर ही उठता, जो इस मामले में सामने नहीं आ रहा है। इसलिए, एसआईटी द्वारा प्रस्तुत अंतिम रिपोर्ट,  , इसे और कुछ किए बिना स्वीकार किया जाना चाहिए।"

अदालत ने यह कहा है कि 
"यदि प्रशासनिक मशीनरी बिखरती भी है तो उसे किसी साजिश का अंश नहीं माना जा सकता जब तक कि साजिशकर्ता का दिमाग पढ़ न लिया जाय।" 
अदालत यहां मेंसेरिया की बात कह रही है। मेंसेरियां का निर्धारण कृत्यों से भी किया जाता है क्योंकि किसी के दिमाग में क्या चल रहा है यह उसके कृत्यों से ही स्पष्ट हो सकेगा। गुजरात में जिस तरह से लम्बे समय तक दंगा चला, सेना बुलाई गई पर सेना को ड्यूटी पर देर से उतारा गया, जैसा कि यह भी एक आरोप है, जकिया जाफरी के पति एहसान जाफरी की मुख्यमंत्री से हुई बातचीत और उसके बाद भी उन्हें सुरक्षा तत्काल न उपलब्ध कराने के आरोप जैसा कि जकिया जाफरी बार बार कह रही हैं, आदि खबरें तब भी अखबारों में छपी थीं और अब फिर वे प्रकाशित हो रही हैं, तो उन खबरों को देखते हुए किसी के भी मन में साजिश का संशय स्वाभाविक रूप से उठेगा। गुजरात दंगो पर ऐसा नहीं है कि केवल गुजरात या भारत के ही अखबारों और मीडिया में यह सब छप और दिखाया जा रहा था बल्कि विश्व मीडिया में यह सब बराबर सुर्खियों में छाया रहा। लेकिन एसआईटी, साजिश के कोण को साबित नहीं कर पाई और जो एसआईटी ने किया उसे सुप्रीम कोर्ट ने भी जस का तस स्वीकार कर लिया और यह याचिका खारिज कर दी। 

सबसे अधिक हैरानी की बात है कि, गुजरात पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा, क्लीन चिट की पुष्टि करने के एक दिन बाद तीस्ता सीतलवाड़ को हिरासत में ले लिया है और वह गुजरात दंगों के पीछे कथित बड़ी साजिश की जांच की मांग करने वाली याचिकाकर्ताओं में से एक थीं। उनके साथ ही आरबी श्रीकुमार जो दंगे के समय गुजरात के डीजीपी थे को भी गिरफ्तार किया गया है। इनके खिलाफ दर्ज प्राथमिकी गुजरात दंगों की साजिश के मामले में सबूत गढ़ने और झूठी कार्यवाही शुरू करने के आरोपों पर है। गुजरात पुलिस की शिकायत में तीस्ता सीतलवाड, सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी आरबी श्रीकुमार और जेल की सजा भुगत रहे, पूर्व आईपीएस (गुजरात) संजीव भट्ट का नाम जालसाजी (468,471), झूठे सबूत देने (194), साजिश (120 बी), झूठे रिकॉर्ड बनाने (218), का आरोप है। गुजरात पुलिस की शिकायत में कहा गया है, 
"पर्दे के पीछे की आपराधिक साजिश और अन्य व्यक्तियों, संस्थाओं और संगठनों की मिलीभगत से विभिन्न गंभीर अपराधों के लिए वित्तीय और अन्य लाभों का पता लगाने के लिए यह कार्यवाही की गई है।"

(विजय शंकर सिंह)


 

Friday, 24 June 2022

आक्रामक राष्ट्रवाद और देश की आर्थिक प्रगति / विजय शंकर सिंह

भारत की अर्थव्यवस्था और शिक्षा की भूमिका पर दिए अपने व्याख्यान में, अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने भारत की तुलना अर्जेंटीना से करते हुए कहा कि,

"1862 के बाद अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था में तगड़ी वृद्धि दर देखने को मिली थी। 1920 के दशक में अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था काफ़ी मज़बूत हो गई थी और तब अर्जेंटीना अमीर देशों में गिना जाने लगा था। अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था में उभार का श्रेय वहाँ के बुद्धिजीवियों को दिया गया लेकिन 1930 के दशक में एक रूढ़िवादी और तानाशाही प्रवृत्ति की सरकार वहा सत्ता में आई और वहा की अर्थव्यवस्था में गिरावट आनी शुरू हो गई। इस सरकार ने अंध-राष्ट्रवाद की वकालत की, नतीजा यह हुआ कि देश की अर्थव्यवस्था पटरी से उतर गई। अर्जेंटीना ने अंधराष्ट्रवाद के कारण शिक्षित लोगों के लिए दरवाज़ा बंद कर दिया था और इसका सीधा असर वहाँ की अर्थव्यवस्था पर पड़ा। अर्जेंटीना का यह संदर्भ भारत के लिए एक चेतावनी है।"
कौशिक बसु के इस भाषण का संदर्भ बीबीसी की एक खबर है। 

फिलहाल देश की सत्ता जिस राजनीतिक दल की है, उसकी राजनीतिक विचारधारा, अंध राष्ट्रवाद और धार्मिक कट्टरता के इर्दगिर्द घूमती है। अर्जेंटीना की तुलना में हम एक बहुजातीय, बहुधार्मिक, बहुभाषिक, बहुसांस्कृतिक बहुलतावादी समाज हैं जिसकी सदियों पुरानी एक प्रवाहमान सभ्यता रही है। जिस राष्ट्रवाद की आज पैरवी की जा रही है वह राष्ट्रवाद, भारतीय परंपरा से उद्भूत राष्ट्रवाद नहीं बल्कि बीसवीं सदी का यूरोपियन फासिस्ट राष्ट्रवाद के मॉडल से प्रेरित और उस पर आधारित है। उस राष्ट्रवाद में राष्ट्र की आर्थिक उन्नति, विकास, सामाजिक समानता और समरसता की बात ही नहीं की जाती है बल्कि एक उन्मादित, अतार्किक और प्रतिशोधात्मक समाज का सपना देखा जाता है। 

आप को इस पागल राष्ट्रवाद ने ऐसे दुष्चक्र में फंसा दिया है कि, यदि आप की कोई तयशुदा, नियमित कमाई, वेतन या पेंशन है तो थोड़ी गनीमत है, पर उसपर भी कुछ बचा कर गाढ़े वक़्त के लिये रखना चाहें तो, उस बचत मे कोई वृद्धि नहीं होनी है, बल्कि वह धन धीरे धीरे कम ही होती जाएगी। 

एक आर्थिक आकलन पढ़िए, 
"देश में महंगाई 8% है और बैंक में जमा करने पर 4.8% रिटर्न मिलता है। अब या तो जनता अपनी गाढ़ी कमाई शेयर में डाले तो व्यापारी के पास रखे। बैंक में डाला तो भी कम ब्याज की वजह से, व्यापारी के पास गया। लोन लेके कम्पनी डूबी तो सरकार write off कर देगी। और शेयर डूबे तब भी नुकसान।"

राष्ट्रवाद कोई विचारधारा नहीं है। यह मूलतः यूरोपीय फासिज़्म के समय की विकसित सोच है जो श्रेष्ठतावाद पर आधारित है। श्रेष्ठतावाद, हर दशा में भेदभावमूलक समाज ही बनाता है। इसी कौमी श्रेष्ठतावाद की सोच पर जिन्ना और सावरकर का द्विराष्ट्रवाद खड़ा हुआ था और परिणामस्वरूप, भारत विभाजित हुआ। 1940 से 1945 तक के इन पांच सालों का इतिहास पढियेगा, विशेषकर सुभाषचंद्र बोस औऱ हिन्दू महासभा के बीच के रिश्तों का तो आप सत्य से रूबरू होंगे और एक फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद जो जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का ही सहोदर था का भी असल चेहरा देखेंगे।

कमाल का राष्ट्रवाद है इनका। कभी सारी खूबी ब्रिटिश साम्राज्यवाद में इन्हे दिखाई देती थी। इतनी खूबी कि, आजादी के आंदोलन का विरोध, उनकी मुखबिरी, और तो और फंडिंग भी उन्हीं की। अब आज़ादी के अमृत काल में सारी खूबियां इन्हे, इजराइल में दिखने लग रही हैं। फासिज़्म की तासीर ऐसी ही होती है।

कौशिक बसु की बात पर यदि गंभीरता से मनन किया जाय तो आज की बिगड़ती आर्थिक स्थिति के कारणों तक पहुंचा जा सकता है। आज आर्थिक स्थिति के बिगड़ने का ही एक परिणाम है कि हम सेना जैसी महत्वपूर्ण संस्था का खर्च बचाने के लिए सैनिकों की नियमित भर्ती न करके राग अग्निपथ का गुणगान कर रहे हैं और संविदा पर नौकरी का एक नया चलन लगभग सभी सेवाओं में लाने की बात भी उठने लगी है। सरकार को यह सोचना चाहिए कि आठ सालों के कार्यकाल में सरकार का वित्तीय प्रबंधन इतना अकुशल क्यों रहा कि वित्त के हर मोर्चे से बुरी खबरें ही आ रही है ?

(विजय शंकर सिंह)

Thursday, 23 June 2022

अशोक कुमार पाण्डेय / श्यामाप्रसाद मुखर्जी और कश्मीर

[श्यामाप्रसाद प्रसाद मुखर्जी की कश्मीर में हुई मृत्यु को लेकर लोग बहुत से सवाल करते हैं। पढिए क्या हुआ था उस रोज़] 

एक देश में दो विधान! : कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना ~

गाँधी की हत्या के बाद अलग-थलग पड़ चुके हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथ के लिए आज़ाद हिन्दुस्तान का इकलौता मुस्लिम बहुल प्रदेश कश्मीर ख़ुद को प्रासंगिक बनाने के लिए सबसे मुफ़ीद ज़रिया बना और श्यामा प्रसाद मुखर्जी तथा मधोक ने प्रजा परिषद के साथ ख़ुद को झोंक दिया. यह मौक़ा मिला उन्हें वहाँ शेख द्वारा भूमि सुधार लागू करने के बाद।

भूमि सुधार : ग़रीब खुश और अमीर नाराज़ ~

यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि भूमि सुधारों में प्रजा परिषद से जुड़े अनेक लोगों की ज़मीन गई थी और चूँकि क़र्ज़ देने के धंधे में भी वे ही थे तो क़र्ज़ माफ़ी का नुक्सान भी उन्हें ही हुआ था जबकि इसके लाभार्थी ग़रीब और वंचित लोग थे. नतीजतन पहले तो उन्होंने डोगरा शासन को बनाए रखने की कोशिश की लेकिन वह अब संभव नहीं था तो भारतीय संविधान के अन्दर संपत्ति के अधिकार के तहत इसे चुनौती देने की कोशिश की गई लेकिन अनुच्छेद 370 के कारण यह भी संभव नहीं हुआ था जिसके तहत भारतीय संविधान का यह प्रावधान वहाँ लागू नहीं होता था.

इसके विरोध में उन्होंने एक तरफ़ संविधान सभा के चुनावों का बहिष्कार किया तो दूसरी तरफ़ चुनावों के बाद उसे ‘जम्मू के हिन्दुओं के संदर्भ में ग़ैर-प्रातिनिधिक’ बताया.

शेख़ के प्रति उनकी नफ़रत का एक उदाहरण शेख़ द्वारा मुखर्जी को लिखे एक ख़त में मिलता है जहाँ प्रजा परिषद की कार्यकारिणी के सदस्य ऋषि कुमार कौशल के एक बयान का ज़िक्र किया है जिसमें वह कहते हैं- हम शेख़ अब्दुल्ला और नेशनल कॉन्फ्रेंस के अन्य कार्यकर्ताओं को ख़त्म कर देंगे. हम उनका खून चूस लेंगे. हम इस सरकार को जड़ से उखाड़ देंगे और कश्मीर भेज देंगे. यह राज हमें पसंद नहीं.[i] 

फ़रवरी, 1952 के आरम्भ में और फिर नवम्बर-दिसम्बर 1953 तथा मार्च 1953 के अंत में ‘डायरेक्ट एक्शन’ का आह्वान किया गया. आश्चर्यजनक है कि यह शब्दावली सीधे जिन्ना से ली गई थी. इस दौरान जम्मू और कश्मीर राज्य के झण्डे का विरोध करते हुए 370 का विरोध करते हुए जम्मू और कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय की मांग करते हुए जम्मू में लूटपाट और हिंसा की भयानक घटनाएँ हुईं.[ii]

1965 में जब एक साक्षात्कार में ‘शबिस्तान उर्दू डाइजेस्ट’ के एक पत्रकार ने शेख़ अब्दुल्ला से पूछा कि 1953 में नेहरू से उनके सम्बन्ध क्यों ख़राब हुए तो तो वह बताते हैं कि ‘जागीरदारी के ख़ात्मे और किसानों के ऋण माफ़ी को अंजाम दिया गया तो नुक्सान हिन्दू-मुसलमान दोनों ही तरह के जागीरदारों का हुआ लेकिन हिन्दू जागीरदारों के सीधे दिल्ली से सम्पर्क थे और इसे हिन्दू विरोधी साबित कर दिया गया जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था…मुझे ब्रिटिश एजेंट, कम्युनिस्ट एजेंट और अमेरिकी एजेंट कहा गया…एक षड्यंत्र के तहत मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया.’[iii]

370 के विरोध का कारण ~

चूँकि, 370 के कारण ही भारतीय संविधान के ‘संपत्ति के अधिकार’ का क़ानून लागू कर मुआवज़ा दिलाने की उम्मीद ख़त्म हुई थी इसलिए भूमि सुधारों के विरोध की जगह 370 का विरोध शुरू किया गया. आख़िर आर्थिक मोर्चे से अधिक ताक़तवर धर्म का मुद्दा होता है और देशभक्ति अक्सर वह सबसे मज़बूत आड़ होती है जिसके पीछे आर्थिक शोषण की प्रणाली को जीवित रखा जा सकता है तो संविधान सभा में 370 पर कोई आपत्ति न करने वाले श्यामा प्रसाद “एक देश में दो विधान/ नहीं चलेगा” के नारे के साथ अपने 3 सांसदों के साथ देशभक्ति के हिंदुत्व आइकन बनकर उभरे.

शेख़ और नेहरू से लम्बी ख़त-ओ-किताबत के बाद [1] 1953 के मई महीने में उन्होंने टकराव का रास्ता चुना था तो यह कश्मीर के मुद्दे को राष्ट्रीय बनाने के लिए ही था. इस मुद्दे पर जनसंघ के साथ खड़े हुए अकाली नेता मास्टर तारा सिंह का कश्मीर को लेकर जो स्टैंड है वह उस दौर में साम्प्रदायिक शक्तियों के कश्मीर को लेकर रवैये को तो बताता ही है साथ ही यह समझने में मदद करता है कि शेख़ अब्दुल्ला और कश्मीर के लोग राज्य की स्वायत्तता को लेकर इतने संवेदनशील क्यों रहे हैं. लखनऊ के एक भाषण में मास्टर तारा सिंह कहते हैं-

‘कश्मीर पाकिस्तान का है. यह एक मुस्लिम राज्य है. लेकिन मैं इस पर दावा उस संपत्ति के बदले करता हूँ जो रिफ्यूजी पश्चिमी पाकिस्तान में छोड़ आए हैं. कश्मीरी मुसलमानों को पाकिस्तान भेज देना चाहिए जहाँ के वे असल में हैं.’[i]

क्या हुआ था कश्मीर में? ~

मुखर्जी से जुड़े घटनाक्रम पर लौटें तो पूर्वोद्धरित इंटरव्यू में शेख़ बताते हैं कि भारत सरकार ने कश्मीर को युद्ध क्षेत्र घोषित कर डिफेन्स ऑफ़ इण्डिया रूल के तहत कश्मीर में आवागमन पर पाबन्दी लगा दी गई थी. मुखर्जी को डल के पास निशात बाग़ के एक निजी घर में रखा गया था. शेख़ इसके लिए तत्कालीन गृहमंत्री बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद और जेल तथा चिकित्सा मंत्री श्यामलाल सर्राफ़ को जिम्मेदार बताते हैं, हालाँकि प्रधानमंत्री के रूप में सामूहिक जिम्मेदारी से इंकार भी नहीं करते.

शेख अब्दुल्ला बताते हैं कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु के बाद उन्होंने उनके निजी चिकित्सक बी. सी. रॉय को कश्मीर आकर जाँच का प्रस्ताव भी दिया लेकिन रॉय नहीं आए.[ii]

मुखर्जी की मृत्यु हृदयाघात से हुई थी ~

वह हृदयरोग से ग्रस्त थे और उनके लिए कश्मीर का मौसम एकदम ठीक नहीं था. मधोक को पढ़कर लगता है कि योजना बनाने वालों को यह लगा था कि उन्हें जम्मू की सीमा पर भारतीय सेना द्वारा गिरफ़्तार कर दिल्ली लाया जाएगा लेकिन उनकी गिरफ़्तारी कश्मीर में होने से ऐसा नहीं हो पाया.

हालाँकि मधोक बताते हैं कि मुखर्जी के साथ उनके एक निजी चिकित्सक वैद्य गुरुदत्त भी थे.[iii]  मुखर्जी के जीवनीकार तथागत रॉय बताते हैं कि उनके दाहिने पैर में लगातार दर्द था और उनकी भूख ख़त्म हो गई थी.

19 जून की रात उन्हें सीने में दर्द और तेज़ बुखार की शिक़ायत हुई तो डॉ अली मोहम्मद और अमरनाथ रैना को भेजा गया. लेकिन ज़ाहिर तौर पर ‘स्ट्रेप्टोमाय्सिन’ देने का गुनाह अली मोहम्मद के माथे मढ़ा गया.

वैसे मुखर्जी की जिद पर उन्हें एक हिन्दू नर्स भी उपलब्ध कराई गई थी जिसकी सुनाई गई कथित कहानी में भी यह स्पष्ट है कि उसने आख़िरी इंजेक्शन दिया था और तबियत बिगड़ने पर डॉक्टर ज़ुत्शी तुरंत पहुँचे थे !

हालाँकि अगले तीन दिनों के घटनाक्रम को रॉय काफी नाटकीय तरीके से पेश करते हैं लेकिन यह स्पष्ट लगता है कि मुखर्जी की मृत्यु हृदयाघात से हुई थी. षड्यंत्र कथाएँ बहुत सी बनाई गई हैं जिसमें एक पंडित की भविष्यवाणी से लेकर 20 जुलाई को संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर की वह रिपोर्ट भी शामिल है जिसमें कोई स्रोत नहीं दिया गया है.

रॉय यह अलग से लिखते हैं कि श्रीनगर से कोलकाता भेजे जाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि मुखर्जी की मृत देह किसी मुसलमान से न छू जाए![iv]

 [ राजकमकल प्रकाशन से प्रकाशित मेरी किताब ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित‘ से]

स्रोत
[i] देखें, पेज 46, नेहरू-मुखर्जी-अब्दुल्ला करिस्पांडेस, जनवरी-फरवरी, 1953

[ii] देखें, वही, पेज़ 166

[iii] देखें, पेज़ 38, द टेस्टामेंट ऑफ़ शेख़ अब्दुल्ला, वाय डी गुंडेविया, पालित एंड पालित पब्लिशर्स, दिल्ली -1974

[1] नेहरू-शेख़-मुखर्जी की यह ख़तो-किताबत आर्काइव डॉट ओआरजी पर उपलब्ध है.

[2] हिन्दू कोड बिल और उस पर चले विवाद को गहराई से समझने के लिए पाठक चित्रा सिन्हा की किताब “डिबेटिंग पैट्रियार्की: द हिन्दू कोड बिल कंट्रोवर्सी इन इंडिया (1941-56), प्रकाशक : ओ यू पी इंडिया- 2012 पढ़ सकते हैं.

[i] देखें, पेज 47, नेहरू-मुखर्जी-अब्दुल्ला करिस्पांडेस, जनवरी-फरवरी, 1953

[ii] देखें, पेज़ 42, द टेस्टामेंट ऑफ़ शेख़ अब्दुल्ला, पालित एंड पालित पब्लिकेशन, दिल्ली -1974

[iii] देखें, पेज़ 126, बंगलिंग इन कश्मीर, बलराज मधोक, हिन्द पाकेट बुक्स, दिल्ली- 1974

[iv] देखें, पेज़ 387-90, श्यामा प्रसाद मुखर्जी : लाइफ एंड टाइम्स, तथागत रॉय, पेंग्विन, दिल्ली- 2018

[v] देखें, पेज़ 14-16, माई डेज़ विथ नेहरू, बी एन मलिक, अलाइड पब्लिशर्स, दूसरा संस्करण, दिल्ली- जुलाई, 1971

[vi] देखें, पेज़ 110, द टेस्टामेंट ऑफ़ शेख़ अब्दुल्ला, पालित एंड पालित पब्लिकेशन, दिल्ली -1974

[vii]देखें,पेज़ 426, डॉ अम्बेडकर : लाइफ एंड मिशन, धंनजय कीर, पॉपुलर प्रकाशन, पुनर्मुद्रित संस्करण, मुंबई-1990

[viii] देखें, पेज़ 145, कश्मीर : बिहाइंड द वेल, एम जे अकबर, रोली बुक्स, छठां संस्करण, दिल्ली – 2011

[ix] देखें, पेज़ 196, रिमेम्बरिंग पार्टीशन, ज्ञानेन्द्र पाण्डेय, कैम्ब्रिज़ यूनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली- 2012

[x] देखें, पेज़ 112, फ्लेम्स ऑफ़ चिनार, शेख़ अब्दुल्ला, शेख़ अब्दुल्ला (अनुवाद – खुशवंत सिंह), पेंगुइन- दिल्ली- 1993

[xi] देखें, पेज़ 111, वही

[xii] देखें, पेज़ 30, कश्मीर : द अनटोल्ड स्टोरी, हुमरा क़ुरैशी, पेंग्विन, दिल्ली-2004

[xiii] देखें, पेज़ 111-12, द टेस्टामेंट ऑफ़ शेख़ अब्दुल्ला, पालित एंड पालित पब्लिकेशन, दिल्ली -1974

अशोक कुमार पांडेय 
© Ashok Kumar Pandey 
संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री


Wednesday, 22 June 2022

मिचीलोत्ति माधवन - MICHILOTTI MADHAVAN

एक भारतीय विद्यार्थी जिसने फ्रांस में नाज़ियों की खिलाफत की थी,जिसे गेस्टापो द्वारा गोली से उड़ा दिया गया था । एक भूला बिसरा शहीद.... माहे, पोंडिचरी के फ्रेंच स्कूल से दसवीं पास की, फिर पोंडिचरी यूनिवर्सिटी से ग्रेड्यूट हुआ, फिर इंजीनियरिंग पढ़ने पैरिस यूनिवर्सिटी गया ।

माधवन फ्रेंच कम्युनिस्ट पार्टी का अगुआ सदस्य था जो नाज़ियों का विरोध करता था । मार्च 1942 में उसे नाज़ी ब्रिगेड ने उसे गिरफ्तार कर लिया । बाद में उसे
गेस्टापो के हवाले कर दिया गया । उस पर एक थियटर में बम फेंकने का आरोप लगाया गया जिसमें 2 नाज़ी अफसर मारे गए थे ।

उसे फोर्ट देरोमांविल्ले में बुरी तरह से टार्चर किया गया फिर गेस्टापो के कंसंट्रेशन कैम्प में 115 अन्य कैदियों
के साथ उसे हथकडी बेड़ी लगा कर मोंट वलेरिया ले गए जहां पर फायरिंग स्क्वाड द्वारा सभी को गोलियों से मार दिया गया। और वहीं दफन कर दिया गया ।

1933 से 1945 तक नाज़ियों ने लाखों लोग कंसन्ट्रेशन कैम्प में मारे जिनमे एक 28 साल का मलियाली युवक मिचलोटटी माधवन भी था, जो उच्य शिक्षा के लिए पेरिस, फ्रांस गया था । माधवन एकलौता भारतीय था जिसे नाज़ियों ने द्वतीय विश्व युध्द के दौरान 21 सितंबर 1942 को फायरिंग स्क्वाड द्वारा गोली से उड़ा दिया गया था । हिटलर शाही के खिलाफ लड़ने वाले छात्र माधवन को कोई नही जानता । ऐसे तमाम लोग हैं जो आज़ादी  के लिए लड़े और शहीद हुए....

आज तक न ही कोई मेमोरियल हुआ और न ही कोई शोकसभा ।

रामशंकर बाजपेयी
(Ramashanker bajpayi) 

Tuesday, 21 June 2022

गांधी पर मिस्र के कवि अहमद शावकी की एक कविता

'वागर्थ' में गाँधी को समर्पित मिस्र के महान कवि अहमद शावकी (1868-1932),  जो अमीर अल शूरा (प्रिंस ऑफ पोएट्स) के नाम से प्रख्यात थे, की एक कविता प्रकाशित हुई। यह कविता गाँधी के इस्तक़बाल में उस वक़्त लिखी गई जब वह बाबलमंदब और स्वेज़ के रास्ते जहाज़ से लंदन की यात्रा पर थे। भारतीय स्वाधीनता संग्राम परवान पर था उसी तरह मिस्र को औपनिवेशिक आज़ादी तो मिल चुकी थी लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के मुदाख़लत व शर्तों से मुक्ति के लिए वह राष्ट्र फिर भी छटपटा रहा था। कविता बताती है कि गाँधी किस तरह भारत की सरहद से परे एशिया और अफ़्रिका के मुल्कों में यूरोपीय औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के लिए चलनेवाले राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के लिए आशा-स्तंभ के दीप की तरह बल रहे थे । 

अहमद शावकी कवि के साथ-साथ  एक नाटककार, भाषाविद, अनुवादक और सामाज वैज्ञानिक भी थे।
साभार: वागर्थ
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मिस्रवासियो! इस भारतीय वीर को
पहनाओ अपना उम्दा ताज
उसे सलाम करो
इस रौशन रूह को अपनी बंदगी पेश करो
मुसीबत में वह तुम्हारा भाई है
तुम्हारी ही तरह लड़ रहा अन्याय के खिलाफ
आले दरजे की अपनी शहादत के साथ

सत्य की खोज करते हुए वह
लगातार कर रहा है यात्राएं
उठो, उसके गुजरते हुए जहाज को
करो नजदीक और दूर से भी सलाम
पाट दो जमीं को फूलों से
ढक दो सागर को गुलाबों से
‘राजियोटा’ जहाज के रेलिंग पर
वह खड़ा है भव्यता की प्रतिमूर्ति बन
कनफ्यूसियस की तरह बनकर पैगंबर

अपनी कथनी और करनी में वह महदी है
जिसका करते रहे हैं हम सदा इंतजार
सत्य पर अडिग, विनम्रता में वह नबी है
सचाई और सब्र के साथ सही राह दिखाते हुए
वह सदा करता है हमारा मार्गदर्शन

बीमार आत्माएं जब भी आईं उसके पास
उसने दिया उन्हें विद्वेष से मुक्ति का संदेश

इस्लाम और हिंदुत्व के बीच
मेल-मिलाप के लिए उसने लगाई है गुहार
उसकी मजबूत रूहानी ताकत से
दोनों तलवारें म्यानों में हुई हैं जब्त
अपने अहं पर करके इख्तियार
उसने पाई है शेर को भी साधने की ताकत
खुदा की रहमत से मिला है उसे सब्र का नेमत
जो किस्मत से मिलता है किसी इनसान को
जिसे कोई छीन नहीं सकता उससे बलात
लड़कर या सैनिकों के बल पर
वह मिलता नहीं है जन्म से न नसीब से
न कोशिश से न मशक्कत से
यह है अल्लाहताला से उसके बंदे को मिला सौगात

हे गांधी! नील नदी करती है आपका वंदन
पेश हैं हमारी ओर से भी ये फूल और चंदन
ये पिरामिड ये कमक और ये पपीरस
सब करते हैं आपकी महानता को नमन
हमारी घाटी के सभी शेख और
बिना अयाल वाले छोटे-छोटे शावक
सब करते हैं आपका हार्दिक अभिनंदन

आदाब है उस इनसान को जो खुद दुहता है बकरी
खुद बुनता है कपड़ा ढकने के लिए अपनी ठठरी
नमक के लिए करता है दांडी मार्च
नंगे बदन करता है इबादत नमदे पर बैठकर
जेल के कोने में जंजीरों से बंध कर
सब करते हैं उसकी सादगी की बंदगी

हे गांधी! उनके टेबल-गेम से रहना सावधान
जिसे वे खेलते हैं सम्मेलन के दौरान
जब आप कर रहे होंगे आजादी की बात
बैठक में सामने बैठे विरोधी पिशाचों के साथ

उसने कहा है– ‘ले आओ अपना काला नाग
आया है भारत का संपेरा’
पर चाहे वे करें आपको बदनाम
उसका बुरा न मान लेना
और उनकी तारीफ से भी खुद को
व्यर्थ न होने देना
आप एक सितारा हैं जिसे
छू नहीं सकती आलोचना
आपको एक सिरे से दूसरे सिरे तक
भारत को है जोड़ना।

~ अहमद शावकी
#vss