Monday, 4 December 2023

स्वामी सहजानन्द सरस्वती - "मेरा भगवान ... किसान है." / विजय शंकर सिंह

स्वामी सहजानन्द सरस्वती (22 फरवरी 1889 - 26 जून 1950) भारत के राष्ट्रवादी नेता एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उनका जन्म, ग़ाज़ीपुर जिले के दुल्लहपुर गाँव में हुआ था। वे शंकराचार्य परंपरा के दंडी स्वामी थे। उन्हे भारत में किसान आन्दोलन का जनक कहा जाता है। वे बुद्धिजीवी, लेखक, समाज-सुधारक, क्रान्तिकारी, इतिहासकार एवं किसान-नेता थे। उन्होने 'हुंकार' नामक एक पत्र भी प्रकाशित किया। 

बिहार में किसान सभा आंदोलन, सहजानंद के नेतृत्व में शुरू हुआ जब, जिन्होंने 1929 में बिहार प्रांतीय किसान सभा (बीपीकेएस) का गठन किया था, ताकि, जमींदारी हमलों के खिलाफ किसानो को सागठित किया जा सके। अप्रैल 1936 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लखनऊ सत्र में अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) का गठन हुआ , जिसमें स्वामी जी, इसके पहले अध्यक्ष हुए। अन्य प्रमुख नेताओं में, एनजी रंगा और ईएमएस नंबूदरीपाद थे।  

बाद में स्वामी जी ने, कांग्रेस को त्याग दिया और उन्होंने नेताजी सुभाष बोस, के नेतृत्व में गठित एक नई पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक में शामिल हो गए। किसान आंदोलन के दौरान, स्वामी जी के कॉमरेड, ईएमएस नंबूदरीपाद भी कांग्रेस से बाहर आ गए और वे बाद में, कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए। साल 1936 - 37 में कांग्रेस से एक और समाजवादी धड़ा अलग हुआ था, जिसमे, आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन और डॉ राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेता शामिल थे। समाजवादी  विचारधारा और इस धड़े के, यह सब नेता, भारत छोड़ो आंदोलन के समय, अग्रिम पंक्ति में शामिल थे, जब कांग्रेस के सभी बड़े नेता, 9 अगस्त 1942 को,  जेल में डाल दिए गए थे और नेताजी सुभाष बाबू, देश से बाहर निकल कर आजाद हिंद फौज की योजना बना रहे थे। 

एक किसान घोषणापत्र, अगस्त 1936 में जारी किया गया था, जिसमें, जमींदारी प्रथा को समाप्त करने और  ग्रामीण ऋणों को रद्द करने की मांग की गई थी। अक्टूबर 1937 में, AIKS ने लाल झंडे को अपने बैनर के रूप में अपनाया। स्वामी जी, ने 1937-1938 में बिहार में बकाश्त आंदोलन की शुरुआत की। "बकाश्त" का अर्थ है स्व-संवर्धित। यह आंदोलन जमींदारों द्वारा बकाश्त भूमि से किरायेदारों को बेदखल करने के खिलाफ था और इसके कारण बिहार किरायेदारी अधिनियम और बकाश्त भूमि कर पारित हुआ। उन्होंने बिहटा में डालमिया चीनी मिल में सफल संघर्ष का भी नेतृत्व किया, जिसकी, किसान-मजदूर एकता सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी। 

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान स्वामी सहजानंद की गिरफ्तारी के बारे में सुनकर, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक ने ब्रिटिश राज द्वारा उनकी कैद के विरोध में 28 अप्रैल के दिन को, अखिल भारतीय स्वामी सहजानंद दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया था। कांग्रेस छोड़ कर, स्वामी जी, नेताजी सुभाष चंद्र बस के नेतृत्व मे गठित, आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक से जुड़ गए थे। 26 जून 1950 को, स्वामी सहजानंद सरस्वती की मृत्यु हो गई। 

भारत छोड़ो आंदोलन मे जब स्वामी सहजानंद गिरफ्तार हुए तो, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, जो तब, देश के बाहर थे ने, स्वामी सहजानंद की गिरफ्तारी के विरोध मे कहा था .... 

"स्वामी सहजानंद सरस्वती, हमारी धरती पर, एक ऐसा नाम है जिसे याद किया जा सकता है। भारत में किसान आंदोलन के निर्विवाद नेता, वह आज जनता के आदर्श और लाखों लोगों के नायक हैं। रामगढ़ में अखिल भारतीय समझौता-विरोधी सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्हें पाना वास्तव में एक दुर्लभ सौभाग्य था। फॉरवर्ड ब्लॉक के लिए उन्हें वामपंथी आंदोलन के अग्रणी नेताओं में से एक और फॉरवर्ड ब्लॉक के मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक के रूप में पाना एक विशेषाधिकार और सम्मान की बात थी। स्वामीजी के नेतृत्व के बाद, बड़ी संख्या में किसान आंदोलन के अग्रणी नेता फॉरवर्ड ब्लॉक के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं।"

यह अंश स्वामी सहजानंद के एक लेख का है, जिसे मैंने प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी की एक पोस्ट से लिया है.... 

"कहते हैं कि वह (ईश्वर) सब काम पलक मारते कर देता है और जिस बात को नहीं चाहता उसे कदापि नहीं होने देता। लेकिन दूसरों का काम सँभालने और भक्तों का हुक्म बजाने से पहले वह अपना काम तो सँभाले। तभी हम मानेंगे कि वह बड़ा शक्तिमान् या सब कुछ कर सकने वाला है - सब कुछ करता है। एक दिन किसान के घी से भगवान् के मन्दिर में दीप मत जलाइये और भगवान् से कह दीजिये कि आपकी सामर्थ्य की परीक्षा आज ही है। देखें, आपके घर में - मन्दिर में - मस्जिद में - अँधेरा ही रहता है या उजाला भी होता है। रात भर देखते रहिये। मन्दिर का फाटक बन्द करके छोटे से सूराख से रह-रहकर देखिये कि कब चिराग जलता है ! आप देखेंगे कि जलेगा ही नहीं, रात भर अँधेरा ही रहेगा !

इसी प्रकार एक दिन न घण्टी बजे, न आरती हो और न भोग लगे ! किसान के गेहूँ, दूध और उसके पैसे से खरीदी घण्टी, आचमनी आदि हटा लीजिये। फिर देखिये कि दिन-रात ठाकुरजी भूखे रहते और प्यासे मरते हैं या उन्हें भोजन उनकी लक्ष्मीजी पहुँचाती हैं, दिन-रात मन्दिर सुनसान ही और मातमी शक्‍ल बनाये रह जाता है या कभी घण्टी वगैरा भी बजती है ! पता लगेगा कि सब मामला सूना ही रहा और ठाकुरजी या महादेव बाबा को ‘सोलहों दण्ड एकादशी’ करनी पड़ी ! एक बूँद जल तक नदारद-आरती, चन्दन, फूल आदि का तो कहना ही क्या ! सभी गायब ! वे बेचारे जाने किस बला में पड़ गये कि यह फाकामस्ती करनी पड़ी।

और ये मन्दिर बनते भी हैं किसके पैसे और किसके परिश्रम से? जब मन्दिर का कोना टूट जाय, तो ललकार दीजिये ठेठ भगवान् को ही जरा खुद-ब-खुद मरम्मत तो करवा लें। नये मन्दिर बनाने की तो बात ही दूर रही ! वह कोना तब तक टूटा का टूटा ही रहेगा जब तक किसान का पैसा और मजदूर का हाथ उसमें न लगे ! यदि कोई मन्दिर भूकम्प से या यों ही अकस्मात् गिर गया हो और भगवान् उसी के नीचे दब गये हों तो उनसे कह दीजिये कि बाहर निकल आयें अगर शक्तिमान् हैं ! पता लगेगा कि जब तक गरीब लोग हाथ न लगायें, तब तक भगवान् उसी के नीचे दबे कराहते रहेंगे। चाहे मरम्मत हो या नये-नये मन्दिर बनें - सभी केवल मेहनत करने वालों के ही पैसे या परिश्रम से तैयार होते हैं।

आगे बढ़िये ! गंगा को तीर्थ, मन्दिर को मन्दिर, जगन्नाथ धाम को धाम किसने बनाया है? किसके चरणों की धूल की यह महिमा है कि तीर्थों, मन्दिरों और धामों का महत्त्व हो गया? किसने गोबर को गणेश और पत्थर को विष्णु या शिव बना डाला? क्या अमीरों और पूँजीपतियों ने? सत्ताधारियों ने? यदि नंगे पाँव और धूल लिपटे किसान-मजदूर गंगा में स्नान न करें, उन्हें गंगा माई न मानें, मन्दिरों में न जायँ, जगन्नाथ और रामेश्वर धाम न जायँ तो क्या सिर्फ मालदारों के नहाने, दर्शन करने या तीर्थ-यात्रा से गंगा आदि तीर्थों, मन्दिरों और धामों का महत्त्व रह सकता है? उनका काम चल सकता है? गरीबों ने यदि बहिष्कार कर दिया तो यह ध्रुव सत्य है कि राजों-महाराजों और सत्ताधारियों की लाख कोशिश करने पर भी गंगा और तलैया में कोई अन्तर न रह जायगा, मन्दिर और दूसरे मकान में फर्क न होगा और धामों या तीर्थों की महत्ता खत्म हो जायगी। उन लोगों के दान-पुण्य से ही मन्दिरों और धामों का काम और खर्च भी नहीं चल सकता यदि गरीबों के पैसे-धेले न मिलें। जल्द ही दिवाला बोल जायगा और पण्डे-पुजारी मन्दिरों, तीर्थों और धामों को छोड़कर भाग जायँगे !

यह तो करोड़ों गरीबों के नंगे पाँवों में लगी धूल-चरण रज-की ही महिमा है, यह उसी का प्रताप है कि वह जब गंगा में पहुँचकर धुल जाती है तो वह गंगा माई कहाती है; जब मन्दिरों में वही धूल पहुँच जाती है तो वहाँ भगवान् का वास हो जाता है, पत्थर को भगवान् व गोबर को गणेश कहने लगते हैं; जब वही धूल जगन्नाथ और रामेश्वर के मन्दिरों में जा पहुँचती है तो उनकी सत्ता कायम रहती है और उनकी महिमा अपरम्पार हो जाती है। गरीबों के तो जूते भी नहीं होते। इसीलिए तो उनके पाँवों की धूल ही वहाँ पहुँच कर सबों को महान् बनाती है।

कहते हैं कि महादेव बाबा खुद तो दरिद्र और नंगे-धड़ंगे श्मशान में पड़े रहते हैं, मगर भक्तों को सब सम्पदायें देते हैं - उन्हें बड़ा बनाते हैं ! पता नहीं, बात क्या है? किसी ने आँखों से देखा नहीं। मगर ये किसान और कमाने वाले तो साफ ही ऐसे 
‘महादेव बाबा’
हैं कि स्वयं दिवालिये होते हुए भी, ईश्वर तक को ईश्वर बनाते और खिलाते-पिलाते हैं !

ईश्वर सबको खिलाता-पिलाता है, ऐसा माना जाता है - सही। मगर किसने उसे हल चलाते, गेहूँ, बासमती उपजाते, गाय-भैंस पाल कर दूध-घी पैदा करते, हलुवा-मलाई बनाते तथा किसी को भी खिलाते देखा है? लेकिन किसान तो बराबर यही काम करता है। वह तो हमेशा ही दुनिया को खिलाता-पिलाता है !

इतना ही नहीं। कहते हैं कि ईश्वर तो केवल भक्तों को खिलाता और पापियों को भूखों मारता है। वह अपनों को ही खिलाता है। इसिलए वह एक प्रकार की तरफदारी करता है। मगर किसान की तो उल्टी बात है ! वह तो जालिमों और सतानेवाले जमींदारों, साहूकारों और सत्ताधारियों को ही हलुवा-मलाई खिलाता है और खुद बाल-बच्चों के साथ या तो भूखा रहता है या आधा पेट सत्तू अथवा सूखी रोटी खाकर गुजर करता है ! ऐसी दशा में असली भगवान् तो यह किसान ही हैं !

दुनिया माने या न माने। मगर मेरा तो भगवान् वही है और मैं उसका पुजारी हूँ। खेद है, मैं अपने भगवान् को अभी तक हलुवा और मलाई का भोग न लगा सका, रेशम और मखमल न पहना सका, सुन्दर सजे-सजाये मन्दिर में पधरा न सका, मोटर पर चढ़ा न सका, सुन्दर गाने-बजाने के द्वारा रिझा न सका और पालने पर झुला न सका। मगर उसी कोशिश में दिन-रात लगा हूँ - इसी विश्वास और अटल धारणा के साथ कि एक-न-एन दिन यह करके ही दम लूँगा; सो भी जल्द !"

- विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 


Sunday, 3 December 2023

प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को आरोपी को गिरफ्तारी के कारण लिखित रूप में बताने होंगे / विजय शंकर सिंह

जब किसी भी संस्था की साख, चाहे राजनीतिक दखलंदाजी या संस्था प्रमुख की बेजा महत्वाकांक्षा या राजनीति का स्वतः एक उपकरण बन जाने की लालसा, या कोई और कारण से हो, तो उसके हर एक्शन पर लोगों की निगाह उठती है, सवाल खड़े किए जाते हैं, और उक्त संस्था द्वारा उठाया गया कदम यदि नेकनीयती तथा विधि सम्मत हो तो भी, लोग, उसे संदेह की दृष्टि से ही देखते है। यदि वह संस्था, सीधे जनता से जुड़े सरोकारों के संबंध में कोई जांच या छानबीन कर रही हो, तो उसकी चर्चा वे भी करने लगते हैं, जो, उक्त संस्था के किसी भी एक्शन से सीधे प्रभावित नहीं होते। मैं बात कर रहा हूं, देश की शीर्ष जांच एजेंसी, प्रवर्तन निदेशालय यानी एनफोर्समेंट डायरेक्टोरेट जिसे सामान्यतया ईडी के नाम से जाना और पुकारा जाता है। 

पिछले दस सालों में यदि किसी महत्वपूर्ण जांच एजेंसी की प्रतिष्ठा हानि या बुरी तरह साख गिरी है तो, वह जांच एजेंसी, पीएमएलए यानी प्रिवेंशन ऑफ मनी लांड्रिंग एक्ट के अंतर्गत सर्वाधिकार प्राप्त एजेंसी, ईडी है। आज ऐसी स्थिति हो गई है कि, सामान्य पुलिस की जांचों की तरह से ईडी की जांच पर सवाल उठ रहे हैं, उनकी गिरफ्तार करने की शक्ति को अदालतों में चुनौती दी जा रही है, उनकी, मुल्जिम को, रिमांड पर रखने के अधिकार पर संशय खड़ा किया जा रहा है, और तो और सुप्रीम कोर्ट में ईडी को राजनीतिक प्रतिशोध और उत्पीड़न का एक हथियार कहा जा रहा है। 

ईडी को गिरफ्तारी की कितनी शक्तियां हैं और क्या ईडी को, गिरफ्तारी के संबंध में, पुलिस की शक्तियां प्राप्त हैं या नहीं, इस पर अभी भी कुछ याचिकाएं, सुनवाई हेतु सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं, पर गिरफ्तारी की शक्ति के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने, पवन बंसल मामले में सुनवाई करते हुए कहा है कि, "प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को आरोपी को गिरफ्तारी के कारण लिखित रूप में बताने होंगे..." यानी गिरफ्तार व्यक्ति को, क्यों और किस कारण से गिरफ्तार किया गया है, इसका विवरण, लिखित रूप में उसे अवगत कराना होगा। 

इस तरह का आदेश देते हुए, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस पीवी संजय कुमार की पीठ ने कहा कि, "मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम अधिनियम (पीएमएलए) की धारा 19, ईडी के अधिकारियों को मनी लॉन्ड्रिंग अपराध के दोषी किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की शक्ति देती है। लेकिन, इस अधिकार का उपयोग करते हुए, अभियुक्त को 'ऐसी गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित किया जाएगा'।  हालांकि, उक्त धारा में यह, निर्दिष्ट नहीं किया गया कि, गिरफ्तारी के आधार की जानकारी कैसे दी जानी चाहिए।  

इस मामले में सुनवाई करते हुए, पीठ ने यह भी कहा कि, "विजय मदनलाल चौधरी मामले में, यह माना गया था कि "किसी दिए गए मामले में ईसीआईआर (मनी लॉन्ड्रिंग मामलों में दर्ज होने वाली एफआईआर को ईसीआईआर कहते है) की गैर-आपूर्ति को गलत नहीं पाया जा सकता है, क्योंकि ईसीआईआर में विवरण शामिल हो सकते हैं।  ईडी के कब्जे में मौजूद सामग्री और उसका खुलासा करने से जांच या पूछताछ के अंतिम नतीजे पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है।  साथ ही, यह भी माना गया था कि जब तक व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के आधार के बारे में 'सूचित' किया जाता है, तब तक यह संविधान के अनुच्छेद 22(1) के आदेश का पर्याप्त अनुपालन होगा।"

तो, वर्तमान मामले में मुद्दा गिरफ्तारी के आधार को सूचित करने के तरीके के बारे में था - चाहे वह मौखिक हो या लिखित। जस्टिस संजय कुमार द्वारा लिखे गए फैसले में संविधान के अनुच्छेद 22(1) का उल्लेख किया गया है जिसमें प्रावधान है कि, "गिरफ्तार किए गए किसी भी व्यक्ति को, ऐसी गिरफ्तारी के आधार के बारे में जितनी जल्दी हो सके सूचित किए बिना हिरासत में नहीं रखा जाएगा।"
फैसले में कहा गया, "गिरफ्तार व्यक्ति को दिया गया, यह एक मौलिक अधिकार है, इसलिए गिरफ्तारी के आधार की जानकारी देने का तरीका, आवश्यक रूप से सार्थक होना चाहिए ताकि इच्छित उद्देश्य की पूर्ति हो सके।"

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने आगे कहा कि, "पीएमएलए की धारा 19 के अनुसार, ईडी के अधिकारी किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकते हैं यदि उनके पास "विश्वास करने का कारण" है कि आरोपी पीएमएलए के तहत अपराधों का दोषी है।  पीएमएलए की धारा 45 के तहत जमानत पाने के लिए, आरोपी को यह स्थापित करना होगा कि यह मानने का कोई उचित आधार नहीं है कि वह दोषी है। इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए, गिरफ्तार व्यक्ति को उन आधारों के बारे में पता होना आवश्यक होगा जिन पर अधिकृत अधिकारी ने उसे धारा 19 के तहत गिरफ्तार किया है, और अधिकारी के 'विश्वास करने के कारण' के आधार पर कि, वह 2002 के अधिनियम के तहत दंडनीय अपराध का दोषी है। यदि गिरफ्तार व्यक्ति को इन तथ्यों की जानकारी है तभी, वह विशेष अदालत के समक्ष, अपने बचाव में, दलील देने और खुद को निर्दोष साबित करने की स्थिति में होगा कि, यह मानने का आधार है कि वह ऐसे अपराध का दोषी नहीं है, ताकि जमानत से, उसे राहत मिल सके। इसलिए, गिरफ्तारी के आधार की सूचना, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 22(1) और 2002 के अधिनियम की धारा 19 द्वारा अनिवार्य है, इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए, रखी गई है, और इसे उचित महत्व दिया जाना चाहिए।"

पीएमएलए की धारा, 19 के अनुसार, प्राधिकृत अधिकारी को यह विश्वास करने के कारणों को लिखित रूप में दर्ज करना होगा कि, "जिस व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाना है, वह 2002 के अधिनियम के तहत दंडनीय अपराध का दोषी है। धारा 19(2) के लिए प्राधिकृत अधिकारी को यह बताने की आवश्यकता है कि, धारा 19(1) में निर्दिष्ट, उसके कब्जे में मौजूद सामग्री के साथ गिरफ्तारी आदेश की प्रति, एक सीलबंद लिफाफे में न्यायनिर्णायक प्राधिकारी को भेजें।"

इन प्रावधानों के आलोक में, न्यायालय ने कहा, "हालांकि गिरफ्तार व्यक्ति को धारा 19(2) के तहत जुडिशियल प्राधिकारी को भेजी गई सभी सामग्री प्रदान करना आवश्यक नहीं है, लेकिन उसे गिरफ्तारी के आधार के बारे में 'सूचित' होने का संवैधानिक और वैधानिक अधिकार है।  , जिन्हें अधिनियम 2002 की धारा 19(1) के अधिदेश को ध्यान में रखते हुए प्राधिकृत अधिकारी द्वारा लिखित रूप में अनिवार्य रूप से दर्ज किया जाता है।"

सुप्रीम कोर्ट ने ईडी द्वारा, एक समान परंपरा का पालन नहीं करने पर आश्चर्य व्यक्त किया कि, ईडी आरोपी को गिरफ्तारी के कारणों को लिखित रूप में सूचित करने की किसी सुसंगत और समान प्रथा का पालन नहीं कर रहा है। शीर्ष अदालत ने कहा, "आश्चर्यजनक रूप से, इस संबंध में ईडी द्वारा कोई सुसंगत और समान प्रथा का पालन नहीं किया जाता है, क्योंकि देश के कुछ हिस्सों में गिरफ्तार व्यक्तियों को गिरफ्तारी के आधार की लिखित प्रतियां प्रदान की जाती हैं, लेकिन अन्य क्षेत्रों में, उस प्रथा का पालन नहीं किया जाता है और  गिरफ़्तारी के आधार या तो उन्हें पढ़कर सुनाए जाते हैं या उन्हें पढ़ने की अनुमति दी जाती है।"

अभियुक्त को गिरफ्तारी का आधार लिखित रूप में क्यों दिया जाना चाहिए, इस पर अदालत का आधार तार्किक है। न्यायालय ने यह मानने के लिए मुख्य रूप से दो कारण बताए कि गिरफ्तारी के आधार के बारे में आरोपी को लिखित रूप में सूचित किया जाना चाहिए। 

अदालत ने कहा, "सबसे पहले, ऐसी स्थिति में गिरफ्तारी के ऐसे आधार मौखिक रूप से गिरफ्तार व्यक्ति को पढ़े जाते हैं या ऐसे व्यक्ति द्वारा बिना किसी अतिरिक्त जानकारी के पढ़े जाते हैं और यह तथ्य किसी दिए गए मामले में विवादित है, तो यह शब्द के खिलाफ गिरफ्तार व्यक्ति के शब्द तक सीमित हो सकता है  प्राधिकृत अधिकारी से पूछें कि इस संबंध में उचित और उचित अनुपालन है या नहीं।"
न्यायालय ने कहा कि गिरफ्तार व्यक्ति को छोड़ने के बजाय, उचित स्वीकृति के तहत 2002 के अधिनियम की धारा 19(1) के संदर्भ में अधिकृत अधिकारी द्वारा दर्ज गिरफ्तारी के लिखित आधार प्रस्तुत करके अनिश्चित स्थितियों से आसानी से बचा जा सकता है। 

दूसरा कारण यह है कि, "गिरफ्तार व्यक्ति को ऐसी जानकारी देने का, उद्देश्य संवैधानिक अधिकार में निहित है। इस जानकारी का संप्रेषण न केवल गिरफ्तार व्यक्ति को यह बताना है कि उसे क्यों गिरफ्तार किया जा रहा है, बल्कि  साथ ही ऐसे व्यक्ति को कानूनी सलाह लेने के लिए, सक्षम बनाना और उसके बाद, यदि वह चाहे तो जमानत पर रिहाई के लिए धारा 45 के तहत अदालत के समक्ष, अपना मामला प्रस्तुत कर सकता है। इस संवैधानिक और वैधानिक संरक्षण का उद्देश्य संबंधित अधिकारियों को केवल गिरफ्तारी के आधारों को पढ़ने या पढ़ने की अनुमति देने से निरर्थक हो जाएगा, चाहे उनकी लंबाई और विवरण कुछ भी हो, और अनुच्छेद 22(1) और 2002 के अधिनियम की धारा 19(1) के तहत वैधानिक आदेश की संवैधानिक आवश्यकता के उचित अनुपालन का दावा करें। 

मुल्जिम को गिरफ़्तारी का आधार बताना,  आमतौर पर संवेदनशील जानकारी नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि, "2002 के अधिनियम की धारा 19(1) के संदर्भ में अधिकृत अधिकारी द्वारा दर्ज की गई गिरफ्तारी का आधार, गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के लिए व्यक्तिगत होगा और आमतौर पर, इसे लिखित तौर पर बताने में, कोई जोखिम नहीं होना चाहिए। फिर भी, यदि प्राधिकृत अधिकारी द्वारा दर्ज किए गए गिरफ्तारी के ऐसे आधारों में ऐसी किसी संवेदनशील सामग्री का उल्लेख मिलता है, तो उसके लिए यह, विकल्प हमेशा खुला रहेगा कि वह दस्तावेज़ में दर्ज ऐसे संवेदनशील हिस्सों को संशोधित करे और गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधारों की, संशोधित प्रति दे, ताकि जांच की शुचिता की रक्षा की जा सके। 

न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि, गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार की जानकारी देने के 2002 के अधिनियम की धारा 19(1) के संवैधानिक और वैधानिक आदेश को सही अर्थ और उद्देश्य देने के लिए, हम मानते हैं कि अब से यह आवश्यक होगा कि इसकी एक प्रति दी जाए। गिरफ्तारी के ऐसे लिखित आधार गिरफ्तार व्यक्ति को निश्चित रूप से और बिना किसी अपवाद के प्रस्तुत किए जाते हैं।"

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

क्या राज्य को केंद्रीय अधिकारियों के रिश्वत मामले में, कार्यवाही करने का अधिकार है? / विजय शंकर सिंह

तमिलनाडु के भ्रष्टाचार निवारण विभाग ने, प्रवर्तन निदेशालय ED के एक अधिकारी, बीस लाख की रिश्वत लेते गिरफ्तार किया है। इसके पहले, ईडी के अधिकारी का एक ट्रैप, राजस्थान में हुआ और छत्तीसगढ़ में, ईडी के एक छापे पर, ईडी के ही, गवाह और वादी ने सवाल उठा दिया। अमूमन, केंद्रीय एजेंसी के खिलाफ इस तरह की, कार्यवाही, राज्य के सतर्कता या एंटी करप्शन संस्थान नहीं करते हैं। यह घटनाएं, एक नया संकेत हैं, जो आगे चल कर बिगड़ते हुए केंद्र राज्य संबंधों में और खटास ही उत्पन्न करेंगी। 

हुआ यह कि, तमिलनाडु के सतर्कता एवं भ्रष्टाचार निरोधक निदेशालय (डीवीएसी) ने, ईडी के एक अधिकारी को, एक सरकारी कर्मचारी से 20 लाख रुपये की रिश्वत मांगने और स्वीकार करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। इसे ट्रैप कहा जाता है। यह ट्रैप डिंडीगुल में हुआ और ईडी के अफसर को, हिरासत में लिए जाने के बाद, डीवीएसी अधिकारियों की एक टीम ने मदुरै में उप-क्षेत्र ईडी कार्यालय में, अन्य अधिकारियों और कर्मचारियों से भी  'पूछताछ' की। 

डीवीएसी ने, गिरफ्तार अधिकारी का नाम, अंकित तिवारी बताया है, जो "केंद्र सरकार के मदुरै प्रवर्तन विभाग कार्यालय में एक प्रवर्तन अधिकारी के रूप में कार्यरत है।" अक्टूबर में, अंकित तिवारी ने, डिंडीगुल के एक सरकारी कर्मचारी से संपर्क किया और उस जिले में उनके खिलाफ दर्ज एक सतर्कता मामले का उल्लेख किया, जिसका निस्तारण "पहले ही किया जा चुका था।"
अंकित तिवारी ने "कर्मचारी को सूचित किया कि जांच करने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय से निर्देश प्राप्त हुए हैं" और सरकारी कर्मचारी को 30 अक्टूबर को मदुरै में ईडी कार्यालय के सामने पेश होने के लिए कहा।"

एफआईआर के अनुसार, जब वह व्यक्ति मदुरै गया, तो अंकित तिवारी ने मामले में कानूनी कार्रवाई से बचने के लिए, उक्त कर्मचारी से, 3 करोड़ रुपये रिश्वत देने को कहा। "बाद में, ईडी के अफसर, अंकित तिवारी ने कहा कि, उसने अपने वरिष्ठों से बात की है और उनके निर्देशों के अनुसार, वह रिश्वत के रूप में 51 लाख रुपये लेने के लिए सहमत हुए। अंकित तिवारी ने, उक्त कर्मचारी को व्हाट्सएप कॉल और टेक्स्ट संदेशों के माध्यम से कई बार धमकाया कि उसे 51 लाख रुपये की पूरी राशि का भुगतान करना होगा, अन्यथा उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे, ” ऐसा डीवीएसी की विज्ञप्ति में कहा गया है।

ईडी के इस दबाव से, सरकारी कर्मचारी को संदेह हुआ और उसने गुरुवार को डिंडीगुल जिला सतर्कता और भ्रष्टाचार विरोधी इकाई में अपनी शिकायत दर्ज कराई। शुक्रवार को डीवीएसी के अधिकारियों ने अंकित तिवारी को, शिकायतकर्ता से 20 लाख रुपये की रिश्वत लेते हुए, रंगे हांथ पकड़ लिया। उसी विज्ञप्ति के अनुसार, "इसके बाद, अंकित तिवारी को, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत सुबह 10.30 बजे गिरफ्तार कर लिया गया। यह उल्लेख करना उचित है कि अधिकारियों ने उनके कदाचार के संबंध में कई आपत्तिजनक दस्तावेज जब्त किए हैं। यह स्पष्ट करने के लिए जांच की जा रही है कि क्या उन्होंने इस पद्धति को अपनाकर किसी अन्य अधिकारी को ब्लैकमेल/धमकी दी थी या नहीं तमिलनाडु सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसी ने कहा, "ऑपरेंडी" और प्रवर्तन निदेशालय के नाम पर धन एकत्र किया।"

डीवीएसी के अनुसार, "ईडी के अन्य अधिकारियों की संभावित संलिप्तता का पता लगाने के लिए भी, पूछताछ की जाएगी, इसमें कहा गया है कि सतर्कता अधिकारी, ईडी के अफसर, अंकित तिवारी के आवास और मदुरै में उनके प्रवर्तन निदेशालय कार्यालय पर तलाशी ले रहे हैं और, "अंकित तिवारी से जुड़े स्थानों पर आगे की तलाशी ली जाएगी।"

ईडी केंद्र सरकार के अंतर्गत आती है तो, मदुरै में केंद्रीय एजेंसी ईडी के कार्यालय में डीवीएसी अधिकारियों के पहुंचने के बाद, भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) के जवानों को 'सुरक्षा' उपाय के रूप में ईडी कार्यालय के अंदर अधिकारियों द्वारा तैनात किया गया था। एक ही समय में राज्य पुलिस और केंद्रीय पुलिस बल (आईटीबीपी, केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों के तहत) की मौजूदगी से मदुरै इलाके में थोड़ा तनाव हो गया था। 

इस घटना और ट्रैप को लेकर यह सवाल उठ रहा है कि, क्या राज्य के सतर्कता निदेशालय और भ्रष्टाचार निवारण विभाग को, केंद्र सरकार के किसी कर्मचारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार या रिश्वत लेने की घटनाओं पर कार्यवाही करने का अधिकार है?

तमिलनाडु के इस मामले के गुण-दोष को दरकिनार करते हुए, यह कहा जा सकता है कि, सतर्कता और भ्रष्टाचार निरोधक निदेशालय, तमिलनाडु, को, यानी राज्य को, रिश्वतखोरी के आरोप में एक ईडी अधिकारी (केंद्र सरकार कर्मचारी) को गिरफ्तार करना, राज्य पुलिस के अधिकार क्षेत्र में है। राज्य सरकार द्वारा डीएसपीई अधिनियम (जिसके अंतर्गत सीबीआई काम करती है, की धारा 6 के तहत सीबीआई के लिए, राज्यों द्वारा दी जाने वाली सामान्य सहमति को रद्द करने के साथ, राज्य पुलिस के पास, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत, अपने क्षेत्र में केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों पर भी, कार्यवाही करने का, उसका एकमात्र अधिकार क्षेत्र, बन जाता है।

सीबीआई, भले ही केंद्र सरकार के आधीन आती है, पर किसी भी राज्य में उसे कोई जांच करने, ट्रैप करने या अन्य कोई भी राज्य सरकार से जुड़े कार्य कलाप की जांच करने के पहले, राज्य द्वारा धारा 6 DSPE (डीएसपीई) के अंतर्गत, सामान्य सहमति प्राप्त करनी होती है। तमिलनाडु सरकार ने, सीबीआई को यह जनरल कंसेंट नहीं दिया है तो, फिर सीबीआई, उक्त राज्य में कोई गतिविधि नहीं चला पाएगी। सीबीआई के ऊपर जब राजनैतिक दुरुपयोग की शिकायतें मिलीं, तब गैर बीजेपी राज्यों में से अधिकांश ने, सीबीआई को, इस तरह की दी गई कंसेंट वापस ले लिया। ऐसे में, यदि कोई भ्रष्टाचार या रिश्वत मांगने की शिकायत प्राप्त होती है तो, राज्य का सतर्कता या एंटी करप्शन विभाग, अपने राज्य की सीमा में, ट्रैप कर सकता है। 

इस संबंध में, केरल हाईकोर्ट ने, 2023 के एक फैसले में, कहा है कि, 

"पीसी अधिनियम या डीएसपीई अधिनियम का कोई भी प्रावधान केंद्र सरकार के कर्मचारियों से संबंधित मामलों में जांच के लिए अकेले सीबीआई या केंद्रीय सतर्कता आयोग या किसी अन्य केंद्रीय सरकारी एजेंसी को अधिकृत नहीं करता है। किसी अन्य सक्षम कानून के तहत अपराधों की जांच करने के लिए नियमित पुलिस अधिकारियों की शक्ति को विघटित करने वाले डीएसपीई अधिनियम या पीसी अधिनियम में किसी विशिष्ट प्रावधान के अभाव में, यह नहीं कहा जा सकता है कि, राज्य पुलिस या किसी विशेष एजेंसी की शक्ति को, अपने राज्य में केंद्र सरकार के कर्मचारियों द्वारा, कथित तौर पर किए गए अपराध को दर्ज करने और उसकी जांच करने का अधिकार छीन लिया गया है।  इन कारणों से, मेरा मानना ​​है कि वीएसीबी, मुख्य रूप से पी.सी. के तहत रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार और कदाचार की जांच करने के लिए एक विशेष रूप से गठित निकाय है। अधिनियम को हमेशा राज्य के भीतर होने वाले भ्रष्टाचार से जुड़े अपराधों की जांच करने का अधिकार दिया गया है, चाहे वह केंद्र सरकार के कर्मचारी द्वारा किया गया हो या राज्य सरकार के कर्मचारी द्वारा।"

यानी, इन दोनो कानून में कहीं भी राज्य सरकार को, किसी केंद्र सरकार के अधिकारी/कर्मचारी के खिलाफ, करप्शन के अपराध में, कार्यवाही करने पर रोका नहीं गया है। हालांकि, व्यवहारतः ऐसा होता नहीं है। राज्य सरकार के सतर्कता या एंटी करप्शन विभाग को, यदि केंद्र सरकार के किसी कर्मचारी के खिलाफ रिश्वत मांगने की सूचना आती भी है तो, उसे सीबीआई को रेफर कर दिया जाता है, और फिर यह ट्रैप, सीबीआई करती थी। यह केंद्र और राज्यों के एक अलिखित समझदारी भरा तालमेल है, जो लगता है, अब टूट रहा है। क्योंकि, जबसे केंद्रीय एजेंसियों ने, राजनीतिक दृष्टिकोण से, गैर बीजेपी राज्यों में अपना  तंत्र फैलाना शुरू किया तो राज्यों ने भी इस अधिकार का उपयोग करना शुरू कर दिया। 

एक बात और, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत धारा 17 ए की मंजूरी की आवश्यकता के संबंध में: पीसी अधिनियम की धारा 17 ए के तहत प्रावधानों में प्रावधान है कि रंगे हाथों पकड़े गए रिश्वत के मामले में किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं है। यानी ट्रैप के मामले में किसी की अनुमति की जरूरत नहीं है। ऐसा इसलिए किया गया है, जिससे ट्रैप की गोपनीयता बनी रहे और जल्दी से जल्दी ट्रैप की कार्यवाही पूरी हो सके। 

धारा 17ए सरकारी कर्मचारियों को, उनके द्वारा राज कार्य में किए गए कार्यों के संबंध में, बिना सरकार की अनुमति के जांच करने से रोकती है। उक्त धारा के अनुसार, 

"कोई भी पुलिस अधिकारी इस अधिनियम के तहत किसी लोक सेवक द्वारा कथित तौर पर किए गए किसी अपराध की कोई जांच बिना पूर्व अनुमोदन के नहीं करेगा, जहां कथित अपराध ऐसे लोक सेवक द्वारा अपने आधिकारिक कार्यों के निर्वहन में की गई किसी सिफारिश या लिए गए निर्णय से संबंधित है। 

(ए) ऐसे व्यक्ति के मामले में जो उस सरकार के या संघ (यूनियन ऑफ इंडिया) के मामलों के संबंध में उस समय कार्यरत था या कार्यरत है जब अपराध किए जाने का आरोप लगाया गया था;

(बी) ऐसे व्यक्ति के मामले में, जो किसी राज्य के मामलों के संबंध में, उस सरकार में उस समय कार्यरत था या कार्यरत है, जब अपराध किए जाने का आरोप लगाया गया था;

(सी) किसी अन्य व्यक्ति के मामले में, उस समय जब, अपराध किए जाने का आरोप लगाया गया था।

लेकिन, अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई भी अनुचित लाभ (रिश्वत) स्वीकार करने या स्वीकार करने का प्रयास करने के आरोप में किसी व्यक्ति की मौके पर ही गिरफ्तारी से जुड़े मामलों के लिए ऐसी कोई मंजूरी आवश्यक नहीं होगी। 

इस प्रकार रिश्वत मांगने वाला व्यक्ति यदि केंद्र सरकार का अधिकारी हो तब भी राज्य की एंटी करप्शन एजेंसी को, उसे सूचना पर ट्रैप करने का अधिकार है। 

पिछले कुछ सालों से ईडी, सीबीआई, आयकर के गंभीर दुरुपयोग की शिकायतें मिलने लगी हैं। चाहे ऑपरेशन लोटस जैसे गैर लोकतांत्रिक मिशन के अंतर्गत, राज्यों की चुनी हुई सरकारों को तोड़ना या अस्थिर करना हो, या चाहे अडानी समूह को, कोई नई कंपनी या हवाई अड्डे दिलवाना हो, इन एजेंसियों का दुरुपयोग निर्लज्जता पूर्वक किया गया। राज्यो को मंत्रियों, यहां तक कि मुख्य मंत्रियों को भी ईडी के छापों से अर्दब में लेने की कोशिश की गई और अब भी की जा रही है। ईडी इस समय देश की सबसे अधिक विवादित जांच एजेंसी है और अब, जब राज्य सरकारों को, ईडी के अफसरों के खिलाफ रिश्वत मांगने डराने धमकाने की शिकायत मिली तो उन्होंने भी एक नया मोर्चा खोल दिया। इससे केंद्र और राज्य सरकार की जांच और प्रवर्तन एजेंसियों के बीच जो तनाव और शत्रुता फैलेगी, वह, एक आदर्श गवर्नेंस के लिए, बेहद नुकसानदेह होगी। 

- विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh