आज 31 अक्टूबर को सरदार बल्लभ भाई पटेल का जन्मदिन भी है। सरदार पटेल पर बहुत कुछ लिखा गया है और यह सिलसिला आगे भी चलता रहेगा। मस्तिष्क के खोजीपन का कोई अंत नहीं है। पर राजमोहन गांधी द्वारा लिखी गयी पटेल की जीवनी, पटेल अ लाइफ उनके जीवन पर लिखी गयी सबसे प्रमाणिक पुस्तकों में से एक है। यह लेख, उसी पुस्तक के एक अंश जो नेहरू और पटेल के बीच हुये पत्राचार से सम्बंधित उस पुस्तक में है पर आधारित है।
Wednesday, 30 October 2019
पटेल और नेहरू के आपसी संबंध, आइये दिग्गजों की बात करें / विजय शंकर सिंह
आज 31 अक्टूबर को सरदार बल्लभ भाई पटेल का जन्मदिन भी है। सरदार पटेल पर बहुत कुछ लिखा गया है और यह सिलसिला आगे भी चलता रहेगा। मस्तिष्क के खोजीपन का कोई अंत नहीं है। पर राजमोहन गांधी द्वारा लिखी गयी पटेल की जीवनी, पटेल अ लाइफ उनके जीवन पर लिखी गयी सबसे प्रमाणिक पुस्तकों में से एक है। यह लेख, उसी पुस्तक के एक अंश जो नेहरू और पटेल के बीच हुये पत्राचार से सम्बंधित उस पुस्तक में है पर आधारित है।
31 अक्तूबर - इंदिरा जी की पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुये / विजय शंकर सिंह
Tuesday, 29 October 2019
एक कविता, ताल्लुक़ / विजय शंकर सिंह
ताल्लुक टूट गया है
यह ज़िक्र न करना किसी से ,
लोग देखेंगे,
ताने भरी नज़रों से ,
कुछ न कुछ पूछेंगे वे ,
होंठों में छिपी हुयी शातिर मुस्कान लिए,
ओढ़ी हुयी भलमनसाहत और,
सहानुभूति की चाशनी में ,
पगे हुए , कुछ लफ़्ज़ों की बाज़ीगरी से ।
सुनो ,
कह देना अब वह मसरूफ है ,
और, मसरूफ मैं भी हूँ !
वक़्त के गर्द ने ,
छुपा ली है,
वे सारी फूलों भरी राहें,
जिन पर बिखरे थे किस्से ,
इश्क़, मुलाक़ात और कहकहों के !
अब कोई हरियाली वहाँ नहीं है,
और न बचें हैं वे वृक्ष ,
नशेमन थे जिनमें उन परिंदों के,
जिनके कोलाहल से,
जीवंत रहती थी ज़िंदगी !
अब एक सपाट सी सड़क है वहां,
और , कहीं कहीं वह भी नहीं !
कहना उस से,
पर हाँ , सोच कर मुस्कुराते हुए,
ज़िंदगी तो गुजरती ही है
ऐसे मुकामों और बियाबाँ से,
उसकी तासीर ही ऐसी है !
वैसे भी ग़म ए रोज़गार और गम ए हयात ,
ग़म ए इश्क़ पर भारी पड़ते है !!
© विजय शंकर सिंह
कश्मीर में यूरोपीय यूनियन के सांसदों का अनधिकृत दौरा / विजय शंकर सिंह
भारतीय सांसद कश्मीर में नहीं घुस सकते। ग़ुलाम नबी आजाद जिनका घर है वे वहां नही जा सकते। सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी अपने बीमार जम्मूकश्मीर के विधायक से मिलने सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ही जा पाये। पर यूरोपीय यूनियन के 11 देशों के 27 सांसद, अनधिकृत यात्रा पर वहां के हालात जानने के लिये जा सकते हैं। यही इस बात का प्रमाण है कि वहां सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। यूरोपीय यूनियन के जो सांसद अनधिकृत रूप से लोग वहां जा रहे हैं, वे धुर दक्षिणपंथी प्रो हिटलर की मानसिकता के हैं। यह सभी निजी यात्रा पर जा रहे हैं और यूरोपीय यूनियन ने किसी भी प्रकार की अधिकृत कूटनीतिक उद्देश्य का खंडन किया है।
शायद यह भी भारतीय विदेशनीति के इतिहास में पहलीं घटना होगी कि देश के एक आंतरिक मामले में मुआयना करने हेतु कोई विदेशी शिष्ट मंडल भारत सरकार द्वारा आमंत्रित किया गया हो। यूरोपीय संघ के 27 सांसद कश्मीर का दौरा करने आ रहे हैं। हालांकि यह यूरोपीय यूनियन का अधिकृत शिष्टमंडल नहीं है बल्कि वहा के दक्षिणपंथी दल के सांसद हैं और निजी हैसियत से वहां आ रहे हैं।
अगर कश्मीर की स्थिति नागरिक आज़ादी के प्रतिबन्धों रहित 5 अगस्त के पूर्व की स्थिति होती और वे पर्यटन या किसी भी काम के लिये आते तो कोई विशेष बात नहीं थी, पर जिस राज्य में देश के विरोधी दल के नेताओ को केवल इसलिए नहीं जाने दिया गया कि वहां की स्थिति ठीक नहीं है, और अब विदेशी सांसदों को निमंत्रित कर के वहां भेज देना, अनेक आशंकाओं को जन्म देता है। मज़े की बात यह भी है कि यूरोपीय यूनियन के कुछ देशों से आने वाले सांसदों की इस यात्रा की जानकारी, उनके दूतावासों को भी नहीं है।
यूरोपीय यूनियन के प्रतिनिधि मंडल को कश्मीर जाने देना और भारतीय सांसदों को वहां जाने से रोकना यह सांसदों के विशेषाधिकार का हनन भी है। यह संप्रभुता के विपरीत भी है। जब भारतीय सांसद कश्मीर गये तो श्रीनगर एयरपोर्ट पर ही उन्हें रोक दिया गया था और उन्हें न तो राज्यपाल से मिलने दिया गया और न ही जनता से।
यह शिष्टमंडल अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को रद्द करने के बाद वहां की स्थिति का आकलन करेगा। इन 27 सांसदों में से कम से कम 22 सदस्य दक्षिणपंथी या कट्टर दक्षिणपंथी विचारधारा वाले यूके, फ्रांस, जर्मनी, इटली, पोलैंड, चेक रिपब्लिक और स्लोवाकिया जैसे देशों की पार्टियों से ताल्लुक रखते हैं।
इन सदस्यों में वे शामिल हैं जो इटली में परदेसियों के बसने के विरोधी हैं, यूके में ब्रेक्जिट का समर्थन करते हैं और देशांतरण के खिलाफ विचार रखते हैं।
● इनमें पोलैंड के जनप्रतिनिधि रिशर्ड सरनेस्की भी हैं जिन्हें यूरोपियन यूनियन के वाइस प्रेसिडेंट पद से बर्खास्त कर दिया गया था। फरवरी 2018 में एक राजनेता पर नाज़ीवादी अभद्र टिप्पणी करने के आरोप में यह कार्रवाई की गई थी। ऐसा पहली बार हुआ था जब ईयू के प्रतिनिधियों ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाल एक वरिष्ठ पदाधिकारी को बर्खास्त करने में किया था।
● फ्रांस की सांसद थियरी मरियानी ने जुलाई 2015 में रूसी अधिकारियों के साथ क्रीमिया का दौरा किया था। क्रीमिया पर रूस ने 2014 में कब्जा किया था। यह सांसद सार्वजनिक तौर पर क्रीमिया में रूस की कार्रवाई का समर्थन कर चुकी हैं। उन पर अजरबैजान देश में मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की तरफ आंखें मूंदने का भी आरोप लग चुका है।
● पोलैंड के राजनेता कोस्मा ज्लोटोवोस्की ने नवंबर 2018 में एक ट्वीट से विवाद खड़ा कर दिया था। उन्होंने अपने ट्वीट में हैशटैग #WhyNotSvastika का इस्तेमाल किया था। यह नाज़ी प्रतीक स्वास्तिक के निशान से जुड़ा हुआ था। शॉपिंग वेबसाइट एमेजॉन पर सोवियत थीम की सामग्री बेचे जाने के विरोध में चलाए जा रहे ऑनलाइन कैंपेन के समर्थन में उन्होंने यह ट्वीट किया था।
● पोलैंड के ही सांसद बोगडॉन रोजोंका ने यहूदियों पर एक टिप्पणी करके इस समुदाय को आहत कर दिया था। उन्होंने ट्वीट कर हैरानी जताई थी कि ”नरसंहार के बावजूद इतने बड़ी संख्या में यहूदी बच कैसे गए?”
यूरोपियन यूनियन ने अधिकृत रूप से कहा है कि,
" शिष्टमंडल की यह यात्रा , भारत की कोई आधिकारिक यात्रा नहीं है। यह एक एनजीओ द्वारा आमंत्रित और निवेदित यात्रा है। हमने इस तरह की कोई यात्रा प्रायोजित नहीं की है। "
ईयू के विदेश मंत्री, फेडरेका ने भारतीय विदेश मंत्री के सामने, कश्मीर में नागरिक आज़ादी के पाबंदी पर भी सवाल उठाया था। यह शिष्टमंडल 27 नेताओ का जो यूनियन के 11 देशों से हैं, और कश्मीर के नेताओं और जनता से मिलेंगे। इस पर महबूबा मुफ्ती ने कहा है कि उन्हें उम्मीद है कि, इस शिष्टमंडल को जनता और नेताओं से खुल कर मिलने दिवा जाएगा।
एक रोचक तथ्य है कि, ययूरोपीय यूनियन के 27 सांसदों में से, 22 सांसद धुर दक्षिणपंथी दलों जैसे ल पेन और ब्रेकसिट पार्टी से हैं। इस यात्रा की भूमिका अमेरिकी कांग्रेस में यह मुद्दा उठने पर कि कश्मीर में विदेशी राजनयिक और विदेशी प्रेस तथा मीडिया को अपने नियमित काम से भी नहीं जाने दिया जा रहा है, तब बनी। विदेशी मीडिया के कश्मीर में प्रतिबंधित किये जाने पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के मानवाधिकार संगठन ने भी आपत्ति जताई थी। 28 अक्टूबर को यूरोपीय यूनियन के इन सांसदों ने प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात की और प्रधानमंत्री जी ने कहा कि क्षेत्र का विकास उनका प्रमुख उद्देश्य है यह यूरोपीय यूनियन के सांसद स्वयं देख कर समझ सकते हैं। प्रधानमंत्री जी के अनुसार,
"जम्मूकश्मीर की यात्रा से शिष्टमंडल को जम्मू, कश्मीर और लदाख की सांस्कृतिक, धार्मिक, विविधता को देखने और समझने की मदद मिलेगी। "
यूरोपीय यूनियन में फ्रांस के धुर दक्षिणपंथी सांसद थेरी मैरियानी ने कहा है कि
" हम कश्मीर के उन हालात को देखने जा रहे हैं, जो वह हमें दिखाना चाहिते हैं।
यह भी एक विडंबना है कि इसी कश्मीर का दौरा करने के लिए विदेशी पत्रकारों को अनुमति नहीं दी गई, दिल्ली स्थित राजनयिकों ने कश्मीर जाने की अनुमति मांगने पर सरकार ने नहीं दी, अमरीकी कांग्रेस के क्रिस वॉन होलेन को श्रीनगर जाने का अनुरोध भारत ने ठुकरा दिया और अब ऐसा क्या हुआ कि भारत ने यूरोपीयन संघ के 27 सांसदों को कश्मीर जाने की अनुमति दे दी है ? अगर यह दौरा आधिकारिक नहीं है, निजी है तो क्या इन सांसदों की राय का कोई महत्व नहीं होगा, क्या यह उचित नहीं होता कि ये सांसद भारत के प्रेस से मिलते, सवाल जवाब का सामना करते जिससे पता चलता कि वे किसके कहने पर आए हैं और कश्मीर किन सवालों को लेकर जा रहे हैं. यही नहीं 27 सांसद किस दल के हैं, उनके दलों का अपने अपने देश में कश्मीर पर क्या रुख रहा है, यह सब स्पष्ट नहीं है।
सितंबर महीने में कश्मीर पर यूरोपियन संघ की संसद में और विदेश मामलों की कमेटी के भीतर कश्मीर पर चर्चा हो चुकी है. यूरोपीयन संघ की वाइस प्रेसिडेंट ने अपने भाषण में कश्मीर को लेकर चिन्ता तो जताई थी मगर भारत के खिलाफ कोई प्रस्ताव पास नहीं किया था. अमरीकी संसद में भी मानवाधिकार की सब कमेटी में कश्मीर के सवालों को लेकर चर्चा हुई थी और भारत की आलोचना की गई थी।
पहले इन यूरोपीय यूनियन के नेताओ को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, कश्मीर का इतिहास भूगोल बताएंगे और वे परिस्थियां बताएंगे कि क्यों यह परिवर्तन 5 अगस्त 2019 को किया गया है। जब यह अधिकृत प्रतिनिधि मंडल ही नहीं है तो उसके समक्ष नतमस्तक हो कर यह सफाई पेश करने की ज़रूरत ही क्या है। यही सब इतिहास भूगोल, कारण, परिणाम, किंतु, परन्तु तो भारतीय सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल जिसमे सभी दलों के लोग हों को भी तो समझाया जा सकता है ?
यूरोपीय यूनियन के सांसदों के कश्मीर के दौरे पर भाजपा सांसद डॉ सुब्रमण्यम स्वामी की यह प्रतिक्रिया, उचित और महत्वपूर्ण है,
"मैं अचंभित हूं कि विदेश मंत्रालय ने यूरोपीय संघ के सांसदों को जम्मू और कश्मीर के घाटी वाले इलाके में जाने के लिए व्यवस्था की है। वह भी तब, जब वह अकेले जाएंगे और यह कोई European Union का आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल नहीं होगा। यह हमारी राष्ट्रीय नीति से समझौता है। मेरी सरकार से अपील है कि वह इस दौरे को रद्द करे, क्योंकि यह अनैतिक है।"
ईयू कार्यालय ने भारत सरकार को मेल भेज कर यह जानकारी दी है कि, जो 27 सांसद यूरोपीय यूनियन के भारत गये हैं वे अपनी निजी यात्रा पर हैं यूनियन का उनकी इस यात्रा से कुछ भी लेना देना नहीं है। यूरोपीय यूनियन की संसद के संचार महानिदेशक, जेम डच गुलियट ने कहा है कि,
“ एमईपी, मेम्बर ऑफ द यूरोपीय पार्लियामेंट, के जो सदस्य भारत गये हैं, यह उनकी निजी यात्रा है, और वे यूरोपीय संसद के किसी अधिकृत शिष्टमंडल के सदस्य नहीं हैं। वे यूरोपीय यूनियन के संसद का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हैं। "
कभी कहा गया था कि कश्मीर को कभी भी अंतरराष्ट्रीय मुद्दा नहीं बनने नहीं दिया जाएगा। अब यूरोपीय यूनियन के सांसदों के इस अनधिकृत दौरे से क्या यह संदेश दुनियाभर में नहीं जाएगा या सरकार की कश्मीर नीति बदल गयी है ? आतंकवाद एक बड़ी और जटिल समस्या है। यह आतंकवाद पाक प्रायोजित है, यह दुनियाभर को पता है। पर क्या कश्मीर की जनता को लंबे समय तक नागरिक और संविधान प्रदत्त आज़ादी से वंचित कर के आतंकवाद पर केवल सुरक्षा बलों के जरिये ही काबू पाया जा सकता है ?
एक बंद और घुटता हुआ शहर, घरों की बंद खिड़कियां, उसकी दरारों से झांकते सहमे और उत्सुक चेहरे, डल गेट के आगे का ठंडा और धुंध भरा सन्नाटा, खाली शिकारे और बोट हाउस, कदम कदम पर लोहे के बड़े बड़े कोलैप्सेबल बैरियर, जिरह बख्तर पहने सुरक्षा कर्मियों की सतर्क और अनवरत खोजी निगाहें, अगर इनकी भाषा पढ़ने की आप को समझ है तो आप कश्मीर की वर्तमान दशा का अनुमान लगा सकते हैं।
© विजय शंकर सिंह
Monday, 28 October 2019
चुनाव, और गायब होते जीवन से जुड़े मुद्दे / विजय शंकर सिंह
भारत में बेरोजगारी की स्थिति पर प्रकाशित होने वाली इस सबसे विश्वसनीय रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल 2019 में हरियाणा में कुल 19 लाख बेरोजगार थे, जिनमें से 16.14 लाख दसवीं पास थे और 3.88 लाख उच्च शिक्षा प्राप्त थे (ग्रैजुएट या ऊपर)। बेरोजगारी की बुरी अवस्था का परिचायक यह भी है कि 10 वीं या 12 वीं पास युवाओं में बेरोजगारी दर 29.4 प्रतिशत जैसे ऊंचे स्तर पर है। सबसे भयावह स्थिति 20 से 24 वर्ष के उन युवाओं की है जो पढ़ाई पूरी कर अब रोजगार ढूंढ रहे हैं। इस वर्ग में 17 लाख में से 11 लाख युवा बेरोजगार हैं और बेरोजगारी की दर रिकॉर्ड तोड़ गति से बढ़ रही है। इतने भयावह आंकड़े पर दुनिया में कहीं भी मीडिया की सुर्खियां बनतीं, सड़क पर आंदोलन होते लेकिन हरियाणा में अजीब चुप्पी है।
अगर सिर्फ सरकारी आंकड़ों की बात करें तो पिछले साल भारत सरकार के राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार भी हरियाणा में राष्ट्रीय औसत से लगभग दोगुनी बेरोजगारी थी। आंकड़ों को भूल भी जाएं तो हर गांव और मुहल्ले में बेरोजगार युवकों की फौज देखी जा सकती है। सरकारी नौकरी का बैकलॉग भरने के वादे की स्थिति यह है कि सरकार इन प्रश्नों का जवाब देने से बच रही है: सत्ता ग्रहण करते समय सरकारी विभागों और अर्ध सरकारी विभागों में नौकरियों का कितना बैकलॉग था, उनमें से कितनी नौकरियां अब तक भरी गईं और कितने पद आज भी रिक्त पड़े हैं, इसका कोई संतोषजनक उत्तर सरकार के पास नहीं है। एक आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार प्रदेश के 15 जिलों में ही 15 लाख से अधिक बेरोजगार थे। रोजगार कार्यालय में पंजीकृत इन युवाओं में से मात्र 647 को रोजगार मिला। इस गंभीर स्थिति पर कार्रवाई या सुधार करने की बजाय भाजपा की सरकार ने सूचना देने वाले अधिकारियों पर ही कार्रवाई कर दी। बाद में 26 फरवरी 2019 को विधानसभा में दावा किया कि पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या केवल 6.18 लाख है। इनमें भी सरकार केवल 2461 युवाओं को ही काम दिलवा पाई थी। यानी कि आर.टी.आई. सूचना की मानें या विधानसभा के जवाब को, यह स्पष्ट है कि हरियाणा सरकार रोजगार कार्यालय में पंजीकृत 1 प्रतिशत युवाओं को भी रोजगार नहीं दे पाई।
राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी के अनुसार, करीब 26,000 पंचों और सरपंचों ने चुनाव के दौरान वोट डाले और वोटिंग प्रतिशत 98% से ज्यादा रहा। यह भी तब, जब मतदाताओं को बुलेटप्रूफ पुलिस गाड़ियों में मतदान केन्द्र तक लाया गया। काकापोरा इलाके में एक पंचायत घर की सुरक्षा में 100 से ज्यादा की संख्या में सुरक्षाकर्मी तैनात किए गए थे। इस सीट पर कुल 9 मतदाताओं में से 8 कश्मीरी पंडित थे। जम्मू के 20 ब्लॉक जो कि 11 विधानसभा सीटों में फैले हैं, इनमें साल 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 9 सीटों पर जीत दर्ज की थी। अब ब्लॉक चुनावों में भाजपा को सिर्फ 9 सीटों पर जीत मिली। कठुआ जिले में 19 ब्लॉक में भाजपा को 9 सीटों पर जीत मिली, जबकि विधानसभा चुनावों में यहां कि पांचों विधानसभा सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की थी।
Saturday, 26 October 2019
कविता - सौदा / विजय शंकर सिंह
जम्मूकश्मीर सरकार ने 7 आयोगों को भंग कर दिया / विजय शंकर सिंह
Friday, 25 October 2019
भाजपा की सत्ता के लिये गोपाल कांडा का जुगाड़ / विजय शंकर सिंह
Thursday, 24 October 2019
कविता - घोड़े / विजय शंकर सिंह
Wednesday, 23 October 2019
दो ग़ज़ ज़मीन भी ना मिली, कू ए यार में / विजय शंकर सिंह
साल 1857 की दस मई को जब मेरठ छावनी में सौनिको ने विद्रोह कर दिया तो, उन्होंने अंग्रेज़ों को मारना शुरू कर दिया। ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के साथ साथ इस विप्लव की घटनाओं पर किस्से कहानियां, और उपन्यास भी बहुत लिखे गये हैं। ऐसा ही एक औपन्यासिक वृतांत है जूलियन रैथबॉन का उपन्यास द म्यूटिनि। एक अंग्रेज परिवार के माध्यम से इस विप्लव की दास्तान इस उपन्यास कथा में कही गई है। विप्लव तो हो गया पर इस संग्राम का कोई एक शीर्ष नेता नहीं था। मेरठ से सैनिक दिल्ली की ओर कूच कर दिए। 60 मील दूर दिल्ली पहुंच कर सैनिकों ने नाव के पुल से यमुना पार किया और लालकिला को घेर लिया। मक़सद था भारत के अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफर को इस विद्रोह की कमान सौंपना। आखिरी मुग़ल को भले ही जिल्ले इलाही, ( ईश्वर की छाया ) तथा अन्य भारी भरकम पदवियों से संबोधित किया जाता हो, पर वास्तविकता यही थी कि, उसकी बादशाहत बस दिल्ली से पालम तक थी। भले ही बादशाह के हुक़ूमत की सीमा बस इतनी ही बची हो, लेकिन, बादशाह तब भी दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो के हैंग ओवर में ही मुब्तिला था।
बहादुर शाह जफर ने 'दमदमें में दम नहीं है, खैर मांगो जान की, तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की', कहते हुये इस विप्लव का नेतृत्व ग्रहण कर लिया। पर यह विद्रोह लम्बा नहीं चल सका। बहादुर शाह जफर को हुमायूं के मकबरे से अंग्रेज़ों ने गिरफ्तार कर लिया और उन्हें विद्रोह का मुख्य दोषी साबित कर के पहले कलकत्ता और फिर रंगून भेज दिया। रंगून में जफर से एक अंग्रेजी अखबार के पत्रकार ने इंटरव्यू लिया और जब उनसे उनका जुर्म पूछा तो बहादुर शाह जफर ने कहा कि उनका सबसे बड़ा जुर्म है अपने मुल्क और अवाम की सरपरस्ती और बेहतरी के लिये कुछ न करना। फिर यह कहा कि उन्हें अपने मुल्क और अवाम के प्रति की गयी लापरवाही और नज़र अंदाज़ी की उचित सजा मिली है। अंत मे 1862 में इस अंतिम मुग़ल बादशाह को दो ग़ज़ ज़मीन भी दफन के लिये अपने वतन, कू ए यार में नहीं मिल सकी। वह इरावदी नदी के किनारे रंगून शहर के एक बियाबान में सुपुर्दे खाक हो गया।
1857 के विप्लव से अंग्रेज़ों ने एक सीख यह ग्रहण की कि भारत मे हिन्दू मुस्लिम सद्भाव का बने रहना उनके अस्तित्व के लिये सदैव एक चुनौती रहेगी। यही कारण था कि इस सद्भाव को भग्न करने के लिये उन्होंने खिलाफत आंदोलन के बाद जब भी और जो भी उन्हें मौका मिला हर तरह का प्रयास किया जिससे हिन्दू मुस्लिम मतभेद बढ़े और समाज बिखरे । उन्होंने धर्मगत आधार पर अलग निर्वाचक मंडलों का गठन किया ।जिस ब्रिटिश लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्षता एक मूल रूप में थी, उसी मदर ऑफ परलियमेंट्स कही जाने वाले ब्रिटेन ने भारत मे धार्मिक विभाजन की नींव डाली। अंग्रेज़ो ने धर्म के आधार पर गठित मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा को सदैव अपनी सरपरस्ती में रखा। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि यह दोनों ही साम्रदायिक दल एक दूसरे धर्मों के प्रबल विरोधी होते हुए भी आज़ादी के आंदोलन के खिलाफ थे।
हेरिटेज टाइम्स ने बहादुर शाह जफर पर एक बेहद प्रेरक प्रसंग का उल्लेख किया है। नेताजी सुभाष बोस ने 1857 से निर्वासित जफर की मजार पर जाकर उक्त विप्लव के नायक बहादुर शाह जफर को खिराजे अकीदत पेश की । बहादुरशाह ज़फ़र के मज़ार पर हाज़री देने वालों में सबसे बड़ा नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस का है, जिन्होंने अखंड भारत के लीडर और आज़ाद हिंद फौज के कमांडर इन चीफ की हैसियत से रंगून में बहादुरशाह ज़फ़र की मज़ार पर आज़ाद हिंद फ़ौज के अफ़सरों के साथ 1942 में सलामी दी थी और ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया था।
1947 में हिंदुस्तान आज़ाद होता है, साथ मे बटवारा भी, बर्मा पहले से वजूद में था; पाकिस्तान वजूद में आता है, फिर 1971 में बंग्लादेश! रह रह कर इन मुल्क के लीडर आख़री मुग़ल शहंशाह के मज़ार पर हाज़री देने गए। पाकिस्तान के के प्रधानमंत्री रहते हुए मियां नवाज़ शरीफ़ और राष्ट्रपति रहते हुए अयूब ख़ान, परवेज़ मुशर्रफ़ और आसिफ़ अली ज़रदारी ने बहादुर शाह ज़फ़र के मज़ार पर हाज़री दी और फूल चढ़ाए। साथ ही बांग्लादेश की प्रधानमंत्री रहते हुए बेगम ख़ालिदा ज़िया ने बहादुर शाह ज़फ़र के मक़बरे कि ज़यारत की। हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री रहते हुए राजवी गांधी और नरेंद्र मोदी ने, राष्ट्रपति रहते हुए एपीजे अब्दुल कलाम ने, उपराष्ट्रपति रहते हुए भैरोंसिंह शेखावत और हामिद अंसारी ने, विदेशमंत्री रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी और जसवंत सिंह ने हिंदुस्तान के इस जिलावतन हुक्मरां बहादुर शाह ज़फ़र की क़ब्र पर हाज़री दी।
एक ज़माना था के जब भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा सब एक-दूसरे से जुड़े थे; यानी एक मुल्क थे। और आज एक दूसरे से अलग- अलग हैं। वो दौर था जब लोग काबुल से निकलते थे, पेशावर, दिल्ली, कलकत्ता होते हुए सीधे रंगून निकल जाते थे।
हाल तक हमें रंगून से एक गाना जोड़ते आया है, जिसका बोल है - ‘मेरे पिया गए रंगून, वहां से किया है टेलीफ़ून, तुम्हारी याद सताती है।’ वैसे रंगून आज से नहीं पिछले डेढ़ सदी से हमारी यादों का हिस्सा है। अंग्रेज़ों ने 1857 में दिल्ली पर क़ब्ज़ा किया। मेजर हडसन ने मुग़ल शहज़ादों का ख़ून पीया, उनके सिर तश्त में रखकर अस्सी बरस के बूढ़े बाप को दस्तऱख्वान पर भिजवाए। बहादुर शाह ज़फ़र को एक नाजायज़ और ज़ालिमाना मुक़दमा चलाकर जिलावतन किया। फिर रंगून में उन्हें क़ैद किया और मरने के छोड़ दिया और उन्हे उनके मुल्क हिंदुस्तान में दफ़न होने की ख़ातिर दो ग़ज़ ज़मीन के लिए तरसाया। हद तो यह है के बादशाह के लिए रंगून में ज़मीन नही थी … उनके लिए उस सरकारी बंगले के पीछे ज़मीन पर खुदाई की गयी जहां उन्होने 7 नवंबर 1862 को आख़री सांस ली.. और बादशाह को ख़ैरात में मिली मिटटी के निचे डाल दिया गया ... और इस तरह एक सूरज ग़ुरूब हो जाता है।
पर हिंदुस्तान के अंतिम मुग़ल शहंशाह
आज़ाद हिंद फ़ौज के सिपाही 'कर्नल' निज़ामुद्दीन के हिसाब से सुभाष बोस ही वो इंसान थे जिन्होंने आख़िरी मुग़ल शहंशाह बहादुरशाह ज़फर की क़ब्र को पूरी इज़्ज़त दिलवाई। उनके अनुसार "ज़फर की क़ब्र को नेताजी बोस ने ही पक्का करवाया था। वहाँ क़ब्रिस्तान में गेट लगवाया और उनकी क़ब्र के सामने चारदीवारी बनवाई थी।"
16 दिस्मबर 1987 को प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने यहां के विज़िटर्स बुक में अपना पैग़ाम लिख कर ख़िराज ए अक़ीदत पेश किया था, जो कुछ इस तरह था के अगर्चे आप हिंदुस्तान में दफ़न नही हैं, मगर हिन्दुस्तान आपका है, आपका नाम ज़िन्दा है, मै उस याद को ख़िराज ए अक़ीदत पेश करता हुं जो हमें हमारी पहली जंग ए आज़ादी की याद दिलाती है, जो हमने जीती थी।
9 मार्च 2006 को जब हिंदुस्तान के राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने मज़ार पर हाज़िरी दी; तब उन्होने वहां के विज़िटर्स बुक में लिखा : ‘आपने अपने एक शेर में लिखा है कि मेरे मज़ार पर कोई नहीं आएगा, न कोई फूल चढ़ाएगा, न शमा जलाएगा.. लेकिन आज मैं यहां सारे हिंदुस्तान की तरफ़ से आपके लिए फूल लेकर आया हूं और मैंने शमां रौशन की हैं।’
हेरिटेज टाइम्स के अनुसार, 26 दिस्मबर 1943 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने बर्मा के महामहिम डॉक्टर बॉ मॉऊ के साथ आख़री मुग़ल शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र के मज़ार पर हाज़री देने के बाद एक ऐतिहासिक भाषण दिया जो कुछ इस तरह से है :-
महामहिम और मित्रों,
आज हम आज़ाद हिंदुस्तान के आख़री शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र के मज़ार पर जमा हुए हैं, यह शायद इतिहास का अजीब गौरवशाली संयोग है कि जहां भारत के अंतिम सम्राट की क़ब्र बर्मा में सरज़मीन पर है, वहीं स्वातंत्र बर्मा के अंतिम राजा की अस्थियां हिंदुस्तान की मिट्टी में है!
हम अपना अडिग इरादा इस पवित्र स्मारक के सामने व्यक्त करते हैं, उसकी मज़ार के सामने खड़े हो कर व्यक्त कर रहे हैं, जो हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई का अंतिम योद्धा था, वह जो मनुष्यों के बीच एक शहंशाह था और जो शहंशाहों के बीच एक मनुष्य था। हमने बहादुर शाह ज़फ़र की यादों को संजो कर रखा है। हम हिंदुस्तानी, चाहे किसी भी मज़हब के मानने वाले क्युं न हों, बहादुर शाह ज़फ़र को हमेंशा याद करते हैं, न केवल इस लिए कि वह वही आदमी था, जिसने दुशमन पर बाहर से हमला करने के लिए देशवासियों को उत्तेजित किया था, बल्कि इस लिए भी क्युंके उसके झण्डे के नीचे सभी प्रान्तो के हिंदुस्तानी जमा हुए थे और लड़े थे।
© विजय शंकर सिंह
Monday, 21 October 2019
आर्थिक समस्याएं सरकार की प्राथमिकता में क्यों नहीं है ? / विजय शंकर सिंह
Saturday, 19 October 2019
लखनऊ में कमलेश तिवारी की हत्या और उसके बाद / विजय शंकर सिंह
Friday, 18 October 2019
लखनऊ में हिन्दू महासभा के कमलेश तिवारी की हत्या / विजय शंकर सिंह
दुआ से भी नफरत , क्या बने बात जहां बात बनाये न बने / विजय शंकर सिंह
एक बात सुन लें। अगर आप चाहते हैं कि हम सबका धन बैंकों में सुरक्षित रहे, आर्थिक स्थिति थोड़ी सुधरे, लोगों की नौकरियां बचे, तो सरकार को सावरकर को भारत रत्न दे देने दीजिए। उन्हें एक नया इतिहास लिख भी देने दीजिये। नहीं तो यह अक्षम नेतृत्व बिना मुद्दे का मुद्दा बनाएगा और हम सब उसी के इंद्रजाल में उलझे रहेंगे। यह सारे पद्म पुरस्कार, कई बार विवादित हो चुके हैं। एक बार तो सुप्रीम कोर्ट ने इन पर रोक भी लगा दी थी। राजनीतिक व्यक्ति जब ईश्वर को भी राजनीतिक गुणा भाग के चश्मे से देखता है तो, भारत रत्न कोई बहुत बड़ी चीज नही है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि जिन महान देशभक्तों को भारत रत्न नहीं मिला है वे किसी भारत रत्न प्राप्तकर्ता से कमतर हैं या उनका योगदान कम है। सावरकर को भारत रत्न दीजिये या न दीजिए, सावरकर की जो ऐतिहासिक स्थिति समाज मे है वह भारत रत्न पाने के बाद भी बनी रहेगी।
सरकार की एक बाद काबिले तारीफ है। वह जिस भी तथ्य, व्यक्ति, कथ्य, या विंदु को अपने बयानों और हरकतों द्वारा चर्चित तथा प्रासंगिक बनाते हैं, उनके बारे में नए नए तथ्य सामने आने लगते हैं। हम एक संचार क्रांति के युग मे हैं। तथ्यों को पढ़ना लिखना, खोज निकालना अब कठिन नहीं रहा। न ही तथ्यो के साथ छेड़छाड़ करना भी। पहले इनके एजेंडे पर, गांधी थे, नेहरू तो अब भी इनके पसंदीदा आइकन हैं, फिर पटेल आये, अब सावरकर आये हैं। सावरकर को भारत रत्न देने के पीछे का आधार यह बताया जा रहा है कि उन्होंने 1857 के विप्लव को देश का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहा और इस पर, मराठी में एक किताब भी उनके द्वारा लिखी गयी। यह बात सच है कि वे एक जुझारू क्रांतिकारी थे और अंग्रेजों ने उन्हें यातनापूर्ण जेल अंडमान के सेलुलर जेल में रखा था ।
लेकिन अंडमान के बाद जब वे ब्रिटिश राज से माफी मांग कर बाहर आये तो, वे राजभक्त बन चुके थे। वे आज़ादी के आंदोलन से अलग हो चुके थे। यही नहीं 1942 के सबसे प्रखर जन आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन के समय अंग्रेजों के साथ और एमए जिन्ना के सहयोगी बन कर उनकी मुस्लिम लीग के साथ सरकार चला रहे थे। यह सब दस्तावेजों में है, और बहुत पुरानी बात भी नहीं है। इन सब घटनाओं पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, आगे भी लिखा जाता रहेगा। अगर, 1857 के विप्लव को देश का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहना ही भारत रत्न पाने का मापदंड है तो, उसी स्वाधीनता संग्राम के महान नेतृत्वकर्ता, मंगल पांडेय, नाना राव पेशवा, बेगम हजरत महल, बेगम ज़ीनत महल, अजीमुल्ला खान, बाबू कुंवर सिंह, राजा राव बक्श सिंह, बहादुरशाह जफर, रानी झांसी, आदि अनेक नाम हैं जिन्होंने उस संग्राम का नेतृत्व किया था, उन्हें क्यों भुलाया जा रहा है ? सावरकर को भारत रत्न दे दीजिए पर इससे, सबसे अधिक खुश वे अंग्रेज होंगे जिन्होंने सावरकर को कृपा करके माफी दी थी और राजभक्ति की पेंशन भी।
और अंत मे यह, प्रसंग पढ़ लीजिए। यह प्रसंग, प्रसिद्ध आर्थिक पत्रकार और किसानो की व्यथा पर नियमित काम करने वाले, पी साईनाथ द्वारा ने सुनाया गया एक सन्दर्भ है।
" 1926 में एक लेखक चित्रगुप्त ने एक किताब लिखी लाइफ ऑफ बैरिस्टर सावरकर ... इस किताब ने लेखक ने सावरकर की शान में सिर्फ कसीदे पढ़े... 1987 में जब इसको रीप्रिंट किया गया तो एक बात किताब के जरिए सामने अाई कि, चित्रगुप्त खुद सावरकर थे जो चित्रगुप्त के नाम किताब लिख डाले और वो भी अपनी तारीफ के लिए। भारत रत्न बनता है। "
© विजय शंकर सिंह
अब सावरकर को भारत रत्न दे दी दीजिये, सरकार / विजय शंकर सिंह
Wednesday, 16 October 2019
बैंकिंग सेक्टर की वर्तमान दशा क्या सरकार के आर्थिक नीतियों की विफलता नहीं है ? / विजय शंकर सिंह
राष्ट्र का सैन्यबल से मजबूत होना ही राष्ट्र निर्माण नही है। राष्ट्र की निर्मिति होती है राष्ट्र के नागरिकों के सुख सुविधा और समृद्धि के मापदंड से। एक मजबूत सैन्यबल भी धन चाहता है। बिना धन के कोई भी राष्ट्र बड़ा और मजबूत सैन्यबल की तो बात ही छोड़िये, एक छोटी मोटी सेना भी संभाल नहीं सकता है। आज भी जो देश सैन्यबल के आधार पर दुनिया मे अपना स्थान रखते हैं, वे आर्थिक दृष्टि और आर्थिक संकेतकों में भी एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। चाहे अमेरिका हो, या रूस हो या चीन हो, इन सबकी आर्थिक हैसियत और इनकी सैन्य क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन करें तो आप इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे।
बात आज ग्लोबल हंगर इंडेक्स की है। 117 देशों में हमने 102 स्थान प्राप्त किया है। यह देश की आर्थिक नीतियों को बनाने और लागू करने वाले नीति नियंताओं की प्रतिभा और मेधा पर एक सवाल उठाता है। आर्थिक क्षेत्र के अन्य संकेतक चाहे वह विकास की दर से जुड़े हों, या मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से, या बैंकिंग सेक्टर से, या आयात निर्यात से या कर संग्रह से होने वाली सरकारी आय से, या बेरोजगारी से, या अन्य कोई भी अर्थ संकेतक यह संकेत नहीं दे रहा है कि आखिर हमने पिछले 6 सालों में क्या पाया । आर्थिक रूप से टूटता देश दुनियाभर के लिये एक आसान चारागाह बन जाता है। उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साख कम होती जाती है और देश के अंदर असंतोष तो उपजता ही है।
हालांकि अभी वैसी स्थिति बिल्कुल नहीं है। पर उस स्थिति पर पहुंचने के पहले ही अगर सरकार कोई सार्थक उपाय नहीं करती तो सिवाय अतीत को कोसने के कुछ भी शेष नहीं बचेगा। आज बैंकिंग सेक्टर से आने वाली तीन मौतों की खबरें अगर आप को लगता है कि भविष्य के अशनि संकेत नहीं हैं तो आप आने वाले तूफान से अनभिज्ञ हैं। तीनो आत्महत्या करने वाले व्यक्ति कोई, आर्थिक हैसियत में किसी विपन्न या निम्न वर्ग के नहीं थे। एक के खाते में तो 90 लाख जमा थे। सोचिये जिसके खाते में 90 लाख जमा हों, वह कितनी निश्चिंतता से जीवन बिता सकता है ? पर 90 लाख रुपये रख कर भी, सिर्फ उसे वक्त पर न मिलने के काऱण, उस व्यक्ति को आत्महत्या जैसे दुःखद मार्ग का सहारा लेना पड़ा।
यह बात पीएमसी बैंक की है। हम एक ऐसे वक्त में आ गए हैं जहां, विदर्भ के सूखा पीड़ित क्षेत्र का किसान भी पेंड से लटक कर आत्महत्या कर लेता है और मुंबई के एक बैंक में सुरक्षित निवेश से रखे हुए 90 लाख रुपये का खाताधारक भी आत्महत्या कर लेता है। पीएमसी बैंक के लोगों ने जब वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण से अपनी समस्या का हल पूछा तो वे, टीवी पर सुरक्षा घेरे में भागती नज़र आईं। उंस समय उनका बच निकलना भी उचित ही था। जब एक सामान्य खाताधारक को, उसके अपने ही पैसे के लिये जिसे वह एक विद्ड्राल स्लिप पर भर कर निकाल सकता है, देश के वित्तमंत्री से अपने ही जमा पैसों के निकालने लिये असहज भरे सवाल करना पड़ जाय और सरकार, बजाय इन सवालों के समाधान के, भागती नज़र आये तो समझ लीजिए, या तो सरकार असंवेदनशील है या जिस आर्थिक और बैंकिंग दुरवस्था में खाताधारक आ गए हैं, उसे सुधारना उनके बस में नहीं है।
तीन खाताधारकों की मौत, दो को हार्ट अटैक, एक डॉक्टर ने की आत्महत्या! क्या यह खबर आक्रोशित नहीं करती हमें ? पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव (पीएमसी) बैंक घोटाले से पीड़ित एक और खाताधारक की मौत हो गई है. 59 साल के फत्तोमल पंजाबी की मंगलवार को हार्ट अटैक के कारण मौत हुई है. पीएमसी बैंक घोटाले के कारण बीते 24 घंटे में यह दूसरे खाताधारक की मौत है। यह सिलसिला यहीं थम जाय,, हमे ऐसी आशा करनी चाहिये। इस असामयिक और दुःखद मृत्यु की जिम्मेदारी कौन लेगा। सरकार तो लेने से रही। उसने जब पुलवामा शहीदों के मृत्यु की जिम्मेदारी नहीं ली तो इन अभागे खाताधारकों की क्या जिम्मेदारी लेंगे। ईश्वर और नियति पर यह जुर्म चिपकाते जाइये। उन्हें आदत है यह सब देखने और देख कर भी चुप रह जाने की।
वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का आज बयान आया है कि बैंकिंग सेक्टर की इस दुरवस्था के लिये 2004 से 2014 तक का यूपीए, या डॉ मनमोहन सिंह की सरकार और डॉ रघुरामराजन के आरबीआई गवर्नरशिप जिम्मेदार है। वित्तमंत्री के इस बयान को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिये। हो सकता है उनकी बात में दम हो और यूपीए सरकार ही इसके लिये जिम्मेदार हो। पर यह बयान आज 6 साल बाद आ रहा है। 2014 के तत्काल बाद जो आर्थिक सर्वेक्षण सरकार बजट के पहले संसद में पेश करती है, तब तो सरकार ने यह बात कही नहीं। 2014 के बाद 2019 तक लगातार 6 बजट यह सरकार पेश कर चुकी है पर यह बात न तब कही गयी और न बैंकों के दुरवस्था को रोकने के लिये सरकार ने कोई उपाय किये।
हर सरकार अपने पूर्ववर्ती सरकार के कामकाज पर सवाल उठाती है। यह एक मानवीय कमज़ोरी है। नौकरशाही में भी यही होता है। हम भी नौकरी में थे तो, यही कहते और सुनते थे कि खराब कानून व्यवस्था हमे विरासत में मिली है और अब जाकर तो कुछ ठीक ठाक हुआ है। पर यह बहाना भी लंबा नहीं चलता था। पर यहां तो सरकार इसे 6 साल से खींच रही है और सरकार के समर्थक तो सोशल मीडिया पर लगातार यही तर्क दे रहे हैं कि पिछला कूड़ा साफ किया जा रहा है।
आज के वित्तमंत्री के इस बयान पर कि, बैंकिंग सेक्टर को सबसे अधिक नुकसान डॉ मनमोहन सिंह और डॉ रघुरामराजन के कार्यकाल में हुआ है, मेरा यह कहना है कि, सरकार 2004 से 2019 तक सभी बैंकों के बारे में एक श्वेतपत्र जारी करे। श्वेतपत्र में साफ साफ यह बताये कि,
● किस साल किस किस संस्थान को कितना रुपया ऋण दिया गया था।
● किसके सिफारिश पर ऋण दिया गया, और बैंक के किस अधिकारी ने केवल सिफारिश पर ही ऋण दे दिया।
(.वित्तमंत्री ने कहा है कि तब फोन पर ऋण दिए जाते थे )
● कितनो के ऋण समय पर मय व्याज के वापस नहीं आये।
● ऋण न आने पर क्या कार्यवाही की जानी चाहिये थी, औऱ क्या कार्यवाही नहीं की गई।
● एनपीए क्यो हुये और इसके लिये किसकी जिम्मेदारी है।
● सिफारिश पर अपात्र को ऋण देने के मामले या बड़ी राशि के ऋण को डिफॉल्ट करने के मामले में बैंक या सरकार के वित्त मंत्रालय या पीएमओ क़ी कितनी भूमिका है।
● आज तक सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भी सरकार ने डॉ रघुरामराजन तत्कालीन आरबीआई गवर्नर, द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गयी उन बड़े लोन डिफान्टर्स की सूची सार्वजनिक नहीं की है। क्यों ?
● उनके नाम सार्वजनिक करने से सरकार को क्या नुकसान हो सकता है, यही सरकार बता दे।
● अगर बैंक का ऋण लेना और फिर उसे गटक जाना पूंजीपतियों की एक आदत बनती जा रही है तो सरकार उन्हें चेतावनी दे, और न सुधार हो तो नाम सार्वजनिक करें। ऐसे कर्ज़खोरों के डिफ़ॉल्टरी का खामियाजा ईमानदारी से लोन लेकर अपनी ज़रूरतें काट कर, नियमित ईएमआई देने वाला मध्यम वर्ग क्यों भुगते ?
इन सब जिज्ञासाओं और विन्दुओं को समेटता हुआ, सरकार को बैंकिंग सेक्टर के बारे में एक श्वेत पत्र लाना चाहिये। दोषी चाहे मनमोहन सिंह हो, या रघुरामराजन, इनके दोष जनता के सामने आने चाहिये। कोई उद्योगपति एनपीए या कर्ज़ न चुका पाने के संताप में आत्महत्या नहीं करता है। मरता है तो दस बीस हज़ार कमा कर, व्याज की आस में बैंकों में पैसा रखने वाला, सामान्य व्यक्ति जब उसे अपने ही धन के लिये नोटबंदी के समय हफ़्तों लाइन में खड़ा होना पड़ा, या 90 लाख रुपये रख कर भी वक़्त पर जब उसे अपना ही पैसा नहीं मिला तो वह व्यक्ति। क्या यह सरकार के आर्थिक नीतियों की विफलता नहीं है ?
मैं कोई बैंकिग एक्सपर्ट नहीं हूं। पर एक बात मैं कहना चाहता हूं कि, बैंकर और खताधारक के बीच जो महत्वपूर्ण रिश्ता है वह है परस्पर विश्वास का, और यह परस्पर विश्वास टूटा है 2016 के नोटबंदी के समय जब बैंकों पर लोग बदहवासी से भरे उमड़ पड़े थे, और अब पीएमसी बैंक के डूबने की खबर पर जब खताधारक रोज़ ही सोशल मीडिया में अपनी व्यथा सुना रहे हैं। यह सब सवाल मेरे जेहन में उठ रहे हैं, जिन्हें आप से मैं साझा कर रहा हूँ। आप की असहमति का भी स्वागत है।
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