चल ज़िन्दगी, अभी कई क़र्ज़ चुकाना बाकी है.
Thursday, 31 December 2015
साल 2015 का आख़िरी ब्लॉग / विजय शंकर सिंह
चल ज़िन्दगी, अभी कई क़र्ज़ चुकाना बाकी है.
Sunday, 20 December 2015
निर्भया का नाबालिग बलात्कारी - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह
बलात्कार , मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही होते रहे हैं और सभ्यता के इति तक होते रहेंगे. समाज कितना भी प्रतिभाशाली, बौद्धिक, और अग्रगामी हो जाय यह कुंठा जनित अपराध होगा ही . इसे रोकना न तो पुलिस के लिए संभव है और न ही न्याय व्यवस्था के लिए. समाज जब उदात्त और जाग्रत होगा तो हो सकता है इस अपराध पर थोड़ी लगाम लगे. पर इस अपराध की समाप्ति हो जाय यह असंभव है.
निर्भया के साथ जो बलात्कार की घटना हुयी थी, वह ह्रदय विदारक और अत्यंत बीभत्स थी. देश के जन मानस को झकझोर देने वाली इस घटना ने देश में न केवल इस अपराध के लिए अत्यंत कड़े क़ानून बनाने के लिए एक वातावरण तैयार किया बल्कि इस घटना ने समाज में महिलाओं की स्थिति पर भी बहस को आगे बढ़ाया है. डॉ लोहिया, बलात्कार को अत्यंत घृणित और गर्हित अपराध मानते थे. यह पीड़िता की आत्मा की , उसके निजता की, उसके इच्छा की हत्या है. कभी कभी यह अपराध , शत्रुता जन्य हत्या के अपराध से भी अधिक हेय और गंभीर मुझे लगता है. स्त्री पुरुष संबंधो पर अपने विचार व्यक्त करते हुए, डॉ लोहिया ने कहा था, " बलात्कार और वादाखिलाफी छोड़ कर सारे स्त्री पुरुष सम्बन्ध जायज़ है. "
निर्भया के मामले में बलात्कारियों में से एक अपराधी नाबालिग है. भारतीय क़ानून के अनुसार नाबालिग को जेल नहीं भेजा जा सकता है और उसे फांसी भी नहीं दी जा सकती है. उसे सजा भी बालिग़ अपराधियों की तुलना में कम ही दी जाती है. इस मामले में भी ऐसा ही किया गया है और उसे कुला तीन साल की सजा दी गयी है. अदालतें उसी क़ानून का पालन करती हैं जो क़ानून संसद द्वारा बनाये गए दंड संहिता में उल्लिखित है. इस मामले में ऐसा साबित हुआ है कि अपराध के समय अत्यंत क्रूरतम आचरण इसी अवयस्क अपराधी का रहा है. जब कि इसे कुल सजा केवल तीन साल की मिली. और वह भी सुधारगृह में. इस से जनता में आक्रोश है जो स्वाभाविक भी है.आज वह अपराधी सुधारगृह से मुक्त कर दिया गया और जन मानस में व्याप्त आक्रोश को देखते हुये उसे अज्ञात स्थान पर भेज भी दिया गया. आक्रोश का एक प्रतिफल यह भी है कि बदायूं के जिस गाँव का वह रहने वाला है , उस गाँव के लोगों ने भी उसे गाँव में प्रवेश न करने देने का निर्णय किया है.
लेकिन यह आक्रोश है किसके प्रति ?
अदालत के प्रति ?
पुलिस के प्रति ?
समाज के प्रति ?
मीडिया के प्रति ?
किसके किसके प्रति ?
या अलक्ष्यित आक्रोश जिसका कोई अर्थ नहीं होता और जो कुंठा को जन्म देता है केवल ?
पुलिस की बड़ी आलोचना इस मामले में हुयी थी. याद कीजिए जंतर मंतर और इंडिया गेट के वे दिन. जली हुयी मोमबत्तियां और टी वी कैमरों के सामने लोगों के आक्रोशित चेहरे. पर पुलिस ने क़ानून के अनुसार अभियुक्तों का पता लगाया और उन्हें गिरफ्तार कर के जेल भेजा. मुक़दमा चला और सज़ाएँ मिली.
अदालतों ने जैसा सुबूत पाया वैसी सजा दी. एक नाबालिग है तो क़ानून की किताब के अनुसार जैसी और जितनी सजा दी जा सकती है उतनी दी गयी. हालांकि यह सजा पर्याप्त और उपयुक्त नहीं है , फिर भी यह कानूनन सही है.
अदालतें वैसे भी न्याय करती हैं या नहीं, ऐसे भारी भरकम शब्द की मायाजाल में पडने की बजाय मैं यह कहूँगा कि वह मुक़दमों का ट्रायल करती हैं. साक्ष्यों की पड़ताल करती हैं. साक्ष्यों के आधार पर उनका परीक्षण भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत ही होता है , और उसी अनुसार अपराध की गुरुता तय होती है और तब जो सजा क़ानून की किताबों में निर्दिष्ट होती है, वह सजा अभियुक्त को दी जाती है. इस मामले में भी ऐसा ही हुआ है.
या तो नाबालिगों के द्वारा किये गए अपराधों के सम्बन्ध में क़ानून लचर है या नाबालिग तय करने का नियम ही गलत है. इस मामले में भी अपराध भले ही नाबालिग द्वारा किया गया हो पर अपराध की प्रकृति और सह आरोपी से अधिक उक्त नाबालिग की उग्र भूमिका से स्पष्ट है कि नाबालिग जो कृत्य कर रहा था, उसके कारण और परिणाम से वह पूर्णतया परिचित था. उसके सारे सह अभियुक्त बालिग़ थे और यह बलात्कार जिस षड्यंत्र के अनुसार , अत्यंत आपराधिक रूप से किया गया है उस से सिर्फ उम्र कम होने का लाभ इस नाबालिग अभियुक्त को दे दिया जाना मेरे विचार से उचित नहीं है. नाबालिग को न केवल यह पता था कि वह क्या करने जा रहा है बल्कि वह अपने सह अभियुक्तों की तुलना में सक्रिय भी अधिक था. अगर उसकी केवल उपस्थिति होती और इस अपराध में लिप्तता मात्र साथ होने और कौतुहल वश दर्शक की होती तो और बात थी. पर इतनी सक्रिय और घिनौने अपराध में सहभागिता के बावज़ूद , वह केवल इस लिए बच जाय कि उसकी उम्र कुछ महीने कम है तो यह बात समझ से परे हैं.
निर्भया के माता पिता दुखी और आक्रोशित है. किसी के भी परिजन ऐसी परिस्थिति में दुखी और आक्रोशित होंगे. कुछ के तो बदला भी लेंने के सोचते. पर उनका यह अरण्य रोदन किसे विचलित और विगलित करेगा , यह मुझे नहीं मालूम.
( विजय शंकर सिंह )
Sunday, 6 December 2015
अयोध्या , 6 दिसंबर 1992 - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह
यह शौर्य , किस शत्रु के पराभव पर प्रदर्शित हुआ था ?
वह युद्ध किस से लड़ा गया था ?
कौन शत्रु खेत रहा ?
क्या मिला इस शौर्य से देश को ?
यह सारे सवाल मेरे ही नहीं , आने वाली पीढ़ियों के मन में सदैव खटकते रहेंगे.
Wednesday, 2 December 2015
दीनदयाल , फ़ोर्बेस मैगज़ीन नहीं पढता है ! / विजय शंकर सिंह
' गाँव जाना तो पूछना कि फ़ोर्ब्स मैगज़ीन का नाम तुम्हारे घर वालों ने सुना है कहीं ? '
मैगज़ीन शब्द से उसे कट्टा बन्दूक याद आ गयी और चेहरे पर एक चमक. दोष उसका नहीं है. दोष उस इलाके का है, जहां का वह रहने वाला है. इलाक़ा, खूब लड़ी मर्दानी का है.अँगरेज़ भले 1857 जीत चुके थे, पर वीरांगना का नाम उनके मेरुदंड में सिहरन 1947 तक पैदा कर देता था. जी यह बुंदेलखंड है. महाभारत के शिशुपाल का चेदि, इतिहास का जैजाक भुक्ति और पठारों , पत्थरों और खनिज सम्पदा समेटे धरती के सबसे वृद्ध पर्वत विंध्याचल का क्षेत्र है. यहां के बारे में जब मैं एस पी बांदा नियुक्त हुआ तो, तो मैंने खुद ही एक कहानी गढ़ ली, और उससे जुडी एक उक्ति भी रच ली. कथा और उक्ति इस प्रकार है,
' मैंने कल्पना की कि अगर ईश्वर साक्षात प्रगट हो जाएँ और पूरा कथाओं में वर्णित वर देने की मुद्रा में आ जाएँ तो अधिकतर लोग तो मोक्ष मांगेंगे. हालांकि मुझे खुद नहीं पता है कि मोक्ष ले कर किया क्या जाएगा. पर बुंदेलखंड का निवासी एक अदद लाइसेंस मांगेगा और, एक बन्दूक. जब तक बन्दूक और लाइसेंस न मिल जाय तब तक वह कट्टा पर ही संतोष कर लेगा. पुलिस का उसे डर नहीं है. इस ज़ुर्म के लिए वह पुलिस की थाना चौकी मैनेज कर लेगा. ईश्वर को इन सब के लिए तक़लीफ़ नहीं देगा. उसके लिए वही जिला मैजिस्ट्रेट अच्छा और दमदार प्रशासक है जिसने खूब उदारता से लाइसेन्स बांटे है. '
मैगज़ीन पर फिर आएं हम लोग.दीनदयाल ने पहली बार में ही इसे असलहा से ही जुडी चीज़ समझी. जब उसे बताया गया कि यह पढ़ने वाली मैगज़ीन है. और दुनिया भर में हर साल बड़े बड़े और मोटे लोगों की सीढ़ियाँ तय करके उनके दर्ज़े तय करती रहती है तो उसके चेहरे पर न तो कोई भाव आया और न ही आँखे फ़ैली.