अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के संबंध में संविधान पीठ की कार्यवाही के तेरहवें दिन, सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एसके कौल, संजीव खन्ना, बीआर गवई और सूर्यकांत की पीठ ने उत्तरदाताओं द्वारा उठाए गए तर्कों को सुना। तेरहवें दिन की सुनवाई में याचिकाकर्ताओं की दलीलों का जवाब, अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी, वरिष्ठ एडवोकेट हरीश साल्वे और राकेश द्विवेदी ने दिया।
आज अटॉर्नी जनरल का तर्क, राष्ट्रपति की शक्ति पर केंद्रित था, जिसे याचिकाकर्ताओं ने, बिना जम्मू कश्मीर की विधानसभा की सिफारिश के, और अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राज्य के गवर्नर/राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत होते हुए, राज्य का स्वरूप बदलने को लेकर, इसे असंवैधानिक बताया था। इस पर एजी का कहना था कि, यह स्थिति राष्ट्रपति की शक्तियों को कम नहीं कर देती है। अब अदालत में दी गई दलीलें पढ़िए।
० असंभवता राष्ट्रपति की शक्तियों को पंगु नहीं बना सकती।
अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी द्वारा उठाए गए तर्कों का पहला पहलू यह था कि, "कानून किसी को, वह काम करने के लिए मजबूर नहीं करता है जो, वह नहीं कर सकता।"
इस संदर्भ में, उन्होंने कहा कि, "चूंकि संविधान सभा पहले ही भंग हो चुकी है, इसलिए राष्ट्रपति को, अब अनुच्छेद 370(3) के तहत अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए, उसकी सिफारिश लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।"
उन्होंने जोर देकर कहा कि, "संविधान सभा की सिफारिश को स्वीकार करना अब असंभव है लेकिन, इसका (इरादा और उद्देश्य) राष्ट्रपति की शक्ति को पंगु बनाने और अनुच्छेद 370(3) के मूल भाग को निष्क्रिय करने का कारण नहीं बन सकता है।"
अपने तर्क के लिए, एजी ने इन रे: प्रेसिडेंशियल पोल बनाम अननोन (1974) के फैसले का सहारा लिया, जिसमें दो कानूनी कहावतों का उल्लेख किया गया है, - इम्पोटेंशिया एक्सक्यूसैट लेजेम (where there is a necessary or invincible disability to perform the mandatory part of the law the impotentia excuses. कानून में असंभवता को बाहर रखा गया है) और लेक्स नॉन कॉगिट एड इम्पॉसिबिलिया (the law does not compel a man to do anything which is impossible कानून किसी को वह करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है, जो असंभव हो). किसी व्यक्ति को वह सब कुछ करने के लिए बाध्य न करें जो असंभव है।
इस परिदृश्य में, अटॉर्नी जनरल ने तर्क दिया कि, "राष्ट्रपति के पास दो विकल्प बचे थे- एक, कि वह अनुच्छेद 370(3) के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग बिना किसी परामर्श के कर सकते हैं और; दूसरा, वह पहले के राष्ट्रपतियों द्वारा अपनाई गई मिसालों का पालन कर सकते हैं और अनुच्छेद 367 और अनुच्छेद 370(1)(डी) का सहारा ले सकते हैं।"
आगे उन्होंने जोड़ा, "वहां एक शून्यता है, खंड (3) के परंतुक (जम्मू कश्मीर की संविधान सभा की सहमति) का अनुपालन करना असंभव है (क्योंकि जम्मू कश्मीर की संविधान सभा 1957 में ही भंग हो चुकी है) और उस शून्यता से कैसे निपटा जाए? राष्ट्रपति कह सकते थे कि, बिना किसी अन्य कार्रवाई का सहारा लिए, मैं स्वयं 370 को निष्क्रिय कर सकता हूं। लेकिन राष्ट्रपति उस रास्ते को नहीं अपनाते हैं। वह एक ऐसी प्रक्रिया द्वारा निर्देशित होना चाहते हैं, जो विधान सभा के गैर-विधायी कार्यों के समान हो। यदि असंभवता का सिद्धांत, आपके रास्ते में खड़ा है, तो आप पंगु नहीं हैं।" यानी यदि आप कोई असंभव कृत्य नहीं कर सकते, तो इसका यह अर्थ नहीं हुआ कि, आप पंगु हैं।
एजी ने जोर देकर कहा कि, "आंतरिक अशांति या बाहरी आक्रामकता से संबंधित मुद्दों को हल करने के लिए कोई 'गणितीय सूत्र' (यानी कोई तायशुदा फॉर्मूला नहीं है।"
उन्होंने तर्क दिया कि, "ऐसी स्थितियों में, कुछ 'व्यापक मानकों' का पालन किया जाना चाहिए जहां मौलिक मूल्यों का उल्लंघन नहीं किया जाता है।"
इसके अलावा, उन्होंने कहा कि, "यह राष्ट्रपति के लिए खुला विकल्प है कि, वह अनुच्छेद 370 के तहत किए गए सभी अभ्यासों और उन विचारों को ध्यान में रखें, जो 'राष्ट्र के सामने बड़े हैं', खासकर जम्मू-कश्मीर के सामने, और इस तरह के विचार के अनुसार गलतियों को सुधारें।"
एजी की दलीलें खत्म होने पर सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे ने अपनी बात रखनी शुरू की और उन्होंने अनुच्छेद 370 को, एक राजनीतिक समझौते के रूप में प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, जम्मू कश्मीर की रियासत और भारत संघ के बीच हुआ विलय पत्र (आईओए) एक राजनीतिक समझौता था और यह अनुच्छेद, उसी का परिणाम था।
० अनुच्छेद 370 एक राजनीतिक समझौता था।
एक अन्य पक्ष की ओर से पेश वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने अपनी दलीलों में अनुच्छेद 370 को संवैधानिक ढांचे के भीतर 'कुछ राजनीतिक समझौतों को समायोजित करने वाला तत्व' बताया। इस प्रकार, उन्होंने कहा कि, "अनुच्छेद में शब्दों को उनका स्पष्ट अर्थ दिया जाना चाहिए।"
उन्होंने रेखांकित किया कि, "अनुच्छेद के शब्दों के अनुसार, विचार यह नहीं था कि राष्ट्रपति केवल संविधान सभा की सिफारिश को ही प्रभावी कर (मान) सकते थे, क्योंकि यदि ऐसा होता, तो उसे (राष्ट्रपति के उक्त कृत्य को) शक्ति के प्रयोग के लिए पूर्व शर्त बना दिया जाता।
"संभवतः, प्राविधान में कहा गया होगा- "यदि विधानसभा से सिफारिश प्राप्त हुई होगी, तो राष्ट्रपति को मिल सकेगी"। लेकिन, यह वह ढांचा नहीं है, जिसमें इसे तैयार किया गया था। उस तरह के प्राविधानों में से एक अनुच्छेद 249 है, - यह शुरू होता है यह कहकर कि "यदि राज्यों की परिषद ने संकल्प द्वारा घोषणा की है, तो कानून बनाना वैध होगा "
उन्होंने इस दलील जोर दिया। अपने तर्क को जारी रखते हुए, वरिष्ठ एडवोकेट, हरीश साल्वे ने कहा कि, 'सहमति' शब्द के बजाय 'सिफारिश' शब्द का इस्तेमाल जानबूझकर किया गया था।"
अनुच्छेद 370 के प्राविधान के संदर्भ पर बहस करते हुए, हरीश साल्वे ने कहा कि, "यह अनुच्छेद एक राजनीतिक समझौते के अलावा और कुछ नहीं था, जिसका उद्देश्य ऐसी स्थिति पैदा करना नहीं था, जो एकीकरण को रोकती हो।"
उन्होंने तर्क दिया कि, "अनुच्छेद का उद्देश्य संविधान को विभाजित करना नहीं, बल्कि 'चरणबद्ध एकीकरण' करना था। तदनुसार, संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद (3) के संदर्भ में अनुच्छेद 370 में एक 'सुरक्षा वाल्व' डाला था ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यदि अनुच्छेद 370(1) के तहत राजनीतिक समझौता अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल रहता है, तो हम, अनुच्छेद 370(3) के माध्यम से.'प्लग खींच सकते हैं।"
हरीश साल्वे ने इस विंदु को और स्पष्ट किया, "तो सीमावर्ती राज्य ने, अपनी सभी संवेदनशीलताओं के साथ, संविधान सभा को, विशेष व्यवस्था पर सहमत होने के लिए मजबूर किया, लेकिन, अपनी बुद्धिमत्ता से उन्होंने कहा कि, आपके पास प्लग खींचने की शक्ति है। इनमें से प्रत्येक में तर्क ढूंढना मुश्किल हो सकता है, क्योंकि यह एक राजनीतिक समझौता था। संविधान सभा की स्थापना क्यों की गई? यह एक समझौता था - समझाने के लिए किया गया। कोई भी (इस मामले में) बहुत अधिक तर्क की खोज नहीं कर सकता।"
इस संदर्भ में, उन्होंने तर्क दिया कि, "ऐसे प्रावधानों के लिए, संवैधानिक व्याख्या को हमें, यथासंभव व्यापक अर्थ देना चाहिए।
० संवैधानिक प्रावधान लागू नहीं करने से व्यक्तिगत नागरिकों को कोई अधिकार नहीं मिलता।
हरीश साल्वे ने आगे तर्क दिया कि, "विलय (रियासत के भारत संघ में) विलय की सहमति, दस्तावेज और उनकी व्याख्या हमेशा, संप्रभु के लिए एक मसला रही है। चूंकि वर्तमान मामले में, (जम्मू कश्मीर रियासत) का विलय, अनुच्छेद 1 और 3 के अनुसार पूर्ण, अपरिवर्तनीय और अटल (Complete, irrevocable and irreversible) था, इसलिए परिग्रहण (accession) से संबंधित किसी भी मामले पर अंतिम निर्णय राष्ट्रपति का होगा।"
उन्होंने आगे कहा कि, "याचिकाकर्ताओं द्वारा उद्धृत दिल्ली (भारत सरकार का जम्मू कश्मीर राज्य पुनर्गठन कानून) के निर्णयों का वर्तमान संदर्भ में कोई महत्व नहीं है क्योंकि वे संदर्भ, अत्यधिक डेलीगेशन से संबंधित थे। लेकिन चूंकि अनुच्छेद 370 और इसके तहत राष्ट्रपति को प्रदान की गई शक्ति संविधान का ही एक हिस्सा थी, इसलिए, इस अत्यधिक डेलीगेशन का कोई सवाल ही नहीं था।"
हरीश साल्वे ने अनुच्छेद 370 के तहत शक्ति की व्याख्या करते हुए कहते हैं, "370 के तहत शक्ति अपने आप में पूरी है और यह संविधान द्वारा प्रदत्त शक्ति है। पूर्ण शक्ति, अत्यधिक डेलीगेशन (किसी के सिफारिश) की चुनौती के अधीन नहीं है क्योंकि यह संविधान द्वारा ही प्रदान की गई है। दूसरा बिंदु यह है कि, प्रयोग की गई, यह शक्ति, अपने चरित्र में विधायी है। (किसी भी) प्रावधानों को लागू करना और प्रावधानों को खत्म करना, किसी कानून के प्रावधानों को संशोधित करना विधायी कार्य है।"
उन्होंने यह भी तर्क दिया कि, "संवैधानिक प्रावधान को लागू करने या लागू न करने का अधिकार, किसी नागरिक का व्यक्तिगत अधिकार नहीं है।"
यह कहते हुए कि, "जम्मू-कश्मीर के नागरिक सिर्फ "विलय के लिए समायोजन" कर रहे थे।"
उन्होंने अंतरराष्ट्रीय कानून का संदर्भ दिया और कहा कि "एक नागरिक कभी भी यह दावा नहीं कर सकता कि, मेरे पास पहले के शासन में कुछ अधिकार थे। आपके पास केवल कुछ अधिकार हैं जो आपके लिए उपलब्ध हैं।"
० कानून बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं कर सकता।
यह कहते हुए कि "उन्हें (संविधान के) मूल ढांचे के सिद्धांत का बार-बार संदर्भ आश्चर्यजनक लगा,"
साल्वे ने प्रस्तुत किया कि, "मूल ढांचा सिद्धांत (Basic structure theory) एक स्वतंत्र संवैधानिक अधिकार के रूप में एक सिद्धांत नहीं था, बल्कि अनुच्छेद 368 के तहत निहित एक सीमा थी, जिस पर संवैधानिक संशोधनों का परीक्षण किया गया था।"
साल्वे ने सुझाव देते हुए कहा, "सख्ती से कहें तो, कानून बुनियादी (मूल) ढांचे का उल्लंघन नहीं कर सकते। कानून भाग III का उल्लंघन करते हैं या भाग III का उल्लंघन नहीं करते हैं।"
उन्होंने सुझाव दिया कि, "केवल संवैधानिक संशोधनों का परीक्षण मूल ढांचा सिद्धांत के आधार पर किया जा सकता है।"
इस मौके पर, सीजेआई ने रेखांकित किया कि, "कुछ फैसलों में, अदालत ने माना था कि एक विशेष कानून, मूल ढांचे की रक्षा करता है।"
यहां, साल्वे ने प्रस्तुत किया कि, "जब नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक कानून बनाया गया था जो मूल ढांचे का एक हिस्सा बनता है, तो उसे मूल ढांचे के साथ संरेखित (align) करने के लिए कहा जा सकता है।"
आगे विस्तार से बताते हुए उन्होंने कहा, "आज अगर गिरफ्तारी, आपराधिक मुकदमे आदि की सुरक्षा के लिए जाँच और अन्य प्राविधान होते हैं - तो आप कह सकते हैं कि, यह सब, बुनियादी ढांचे की रक्षा के लिए है, लेकिन बुनियादी ढांचा, विभिन्न अधिकारों की त्रयी है। इसका मतलब यह नहीं है कि कानून का परीक्षण बुनियादी संरचना (ढांचा) पर किया गया था।"
इसके बाद वह याचिकाकर्ताओं के तर्क कि, "राष्ट्रपति शासन के तहत 'अपरिवर्तनीय' परिवर्तन नहीं किए जा सकते थे।" का जवाब देते हुए, हरीश साल्वे ने, तर्क दिया कि "एक अर्थ में सब कुछ अपरिवर्तनीय है।"
इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, "संसद राज्यों के बजट को पारित करती है - खर्च किया गया धन अपरिवर्तनीय है। राष्ट्रपति लोगों को बर्खास्त कर सकता है, लोगों को नियुक्त कर सकता है, संस्थाएँ बना सकता है, संस्थाओं को हटा सकता है - राज्यपाल ऐसा कर सकता है, राष्ट्रपति 356 के तहत कर सकता है - ये उन लोगों के लिए अपरिवर्तनीय हैं। इसीलिए योर लॉर्डशिप ने कहा है कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग बहुत ही कम मात्रा में किया जाना चाहिए, यह कठोर (प्राविधान) है।"
यह कहते हुए अपनी दलीलें खत्म की कि, "यदि ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं कि, एक निश्चित समय के लिए शासन प्रणाली, राष्ट्रपति शासन में बदल जाती है, तो अनुच्छेद 356 के अंतर्गत लिए गए निर्णय के परिणाम को स्वीकार करना होगा।"
० संविधान सभा का दृष्टिकोण बाध्यकारी नहीं हो सकता।
वरिष्ठ वकील साल्वे की दलीलों के बाद वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी ने अपनी दलीलें पेश की। राकेश द्विवेदी ने तर्क दिया कि, "याचिकाकर्ताओं पर यह दिखाने का बोझ था कि, उनके द्वारा रखा गया दृष्टिकोण सही दृष्टिकोण था और, कोई अन्य दृष्टिकोण दिया नहीं जा सकता है।"
उन्होंने कहा कि, "यदि दो विचार हैं तो उस दृष्टिकोण को अपनाया जाना चाहिए जो शक्ति के प्रयोग को कायम रखता है न कि, शक्ति के प्रयोग को पराजित करता है।"
उन्होंने आगे तर्क दिया कि, "राष्ट्रपति की शक्ति का चरित्र, एक 'घटक शक्ति' था और सामान्य कार्यकारी शक्ति की तुलना में बहुत व्यापक था।"
उन्होंने यह भी कहा कि, "किसी निचले प्राधिकारी (authorty) की सिफारिश जब किसी वरिष्ठ प्राधिकारी के समक्ष जाती है तो, वह कभी भी बाध्यकारी नहीं हो सकती, वह भी तब, जब वह निकाय (संस्था) एक अस्थायी निकाय हो।"
अपने तर्क को समाप्त करते हुए, द्विवेदी ने कहा कि, "निरस्तीकरण का निर्णय भावनाओं पर आधारित नहीं हो सकता है।"
सुनवाई अभी जारी है।
(क्रमशः)
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
'सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 के संबंध में सुनवाई (12.2) / विजय शंकर सिंह '.
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