Friday, 29 September 2023

प्रेमचंद की कहानी - ठाकुर का कुंआ

ओम प्रकाश वाल्मीकि की कविता, ठाकुर का कुंआ, पर आजकल विवाद छिड़ा है, लगे हाथ, इसी नाम से प्रेमचंद की एक कहानी भी है, उसे पढ़ लीजिए। अब मुझे यह नहीं पता है कि, वाल्मिकी की कविता प्रेमचंद से प्रेरित है या किसी और दृष्टांत से ~ 

ठाकुर का कुआँ
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जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आयी । गंगी से बोला- यह कैसा पानी है ? मारे बास के पिया नहीं जाता । गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाये देती है !

गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी । कुआँ दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था । कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी ! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी । जरुर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहाँ से?

ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा ? दूर से लोग डाँट बतायेंगे । साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परंतु वहाँ भी कौन पानी भरने देगा ? कोई तीसरा कुआँ गाँव में है नहीं।

जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला- अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता । ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूँ ।

गंगी ने पानी न दिया । खराब पानी से बीमारी बढ़ जायगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती हैं । बोली- यह पानी कैसे पियोगे ? न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं दूसरा पानी लाये देती हूँ।

जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा- पानी कहाँ से लायेगी ?
ठाकुर और साहू के दो कुएँ तो हैं। क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे?
‘हाथ-पाँव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा । बैठ चुपके से । ब्रह्म-देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेगें, साहूजी एक के पाँच लेंगे । गरीबों का दर्द कौन समझता है ! हम तो मर भी जाते है, तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे ?’

इन शब्दों में कड़वा सत्य था । गंगी क्या जवाब देती, किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया ।

रात के नौ बजे थे । थके-माँदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस-पाँच बेफिक्रे जमा थे। मैदानी बहादुरी का तो अब न जमाना रहा है, न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं । कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक खास मुकदमे में रिश्वत दी और साफ निकल गये। कितनी अक्लमंदी से एक मार्के के मुकदमे की नकल ले आये । नाजिर और मोहतमिम, सभी कहते थे, नकल नहीं मिल सकती । कोई पचास माँगता, कोई सौ। यहाँ बेपैसे- कौड़ी नकल उड़ा दी । काम करने ढंग चाहिए ।

इसी समय गंगी कुएँ से पानी लेने पहुँची ।

कुप्पी की धुँधली रोशनी कुएँ पर आ रही थी । गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इंतजार करने लगी । इस कुएँ का पानी सारा गाँव पीता है । किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते ।

गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा- हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं ? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं ? यहाँ तो जितने है, एक- से-एक छँटे हैं । चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें । अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिये की भेड़ चुरा ली थी और बाद मे मारकर खा गया । इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते है । काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है । किस-किस बात में हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे है, हम ऊँचे । कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!

कुएँ पर किसी के आने की आहट हुई । गंगी की छाती धक-धक करने लगी । कहीं देख लें तो गजब हो जाय । एक लात भी तो नीचे न पड़े । उसने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अंधेरे साये मे जा खड़ी हुई । कब इन लोगों को दया आती है किसी पर ! बेचारे महँगू को इतना मारा कि महीनो लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी । इस पर ये लोग ऊँचे बनते हैं ?

कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी । इनमें बात हो रही थी ।
‘खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।’
‘हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है ।’
‘हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियाँ ही तो हैं।’
‘लौडिंयाँ नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी-कपड़ा नहीं पातीं ? दस-पाँच रुपये भी छीन- झपटकर ले ही लेती हो। और लौडियाँ कैसी होती हैं!’
‘मत लजाओ, दीदी! छिन-भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता ! यहाँ काम करते- करते मर जाओ; पर किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता ।’

दोनों पानी भरकर चली गयीं, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएँ की जगत के पास आयी। बेफिक्रे चले गऐ थे । ठाकुर भी दरवाजा बंद कर अंदर आँगन में सोने जा रहे थे। गंगी ने क्षणिक सुख की साँस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बूझकर न गया हो । गंगी दबे पाँव कुएँ की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था।
उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला । दायें-बायें चौकन्नी दृष्टि से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सुराख कर रहा हो । अगर इस समय वह पकड़ ली गयी, तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती-भर उम्मीद नहीं । अंत मे देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया ।

घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता । जरा भी आवाज न हुई । गंगी ने दो- चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे ।घड़ा कुएँ के मुँह तक आ पहुँचा । कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से न खींच सकता था।

गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया । शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।
गंगी के हाथ से रस्सी छूट गयी । रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हिलकोरे की आवाजें सुनाई देती रहीं ।

ठाकुर कौन है, कौन है ? पुकारते हुए कुएँ की तरफ आ रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी । घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाये वही मैला-गंदा पानी पी रहा है।

प्रेमचंद 
०००

Saturday, 23 September 2023

रमेश विधूड़ी का निंदनीय और शर्मनाक बयान, मूल मुद्दे से भटकाने की साजिश है / विजय शंकर सिंह

रमेश विधूड़ी ने जो कहा है, यह आरएसएस और उनके लोग अपनी आंतरिक बैठकों में बराबर कहते रहे है। अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुस्लिम समाज के खिलाफ उनकी सोच, उन्हीं शब्दों के इर्द गिर्द बनी हुई है, जिसे रमेश विधूड़ी ने संसद भवन में कही है। मोहन भागवत जी जो कभी कभी उदारता और समावेशी दिखते हुए, बात करते हैं, वह मुखौटा है। वही मुखौटा, जिसे गोविंदाचार्य ने कभी अटल जी के लिए कहा था। आरएसएस के दो चेहरे हैं। एक मुखौटा ओढ़ा हुआ, जिसे गाहे बगाहे वे, सार्वजनिक रूप से सबके सामने लाते रहते हैं, दूसरा, विधूड़ी वाला असल और बेनकाब चेहरा। यह जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं, उसका भारतीय संस्कृति, वांग्मय, मनीषा, दर्शन और आध्यात्म से कुछ भी लेना देना नही है। यह ऐसे शब्द सिर्फ इसलिए कहते हैं जिससे इनका उदारवादी स्वरूप लोगों को दिखता रहे।उनके द्वारा गाहे बगाहे चलाए जाने वाले समावेशी कार्यक्रम, अपने मूल या हिडेन एजेंडा को, धूर्ततापूर्ण पोशीदा रखने का एक विज्ञापन भी है। 

रमेश विधूड़ी ने उसी विकृति और इनकी मूल सोच को, संसद के विशेष अधिवेशन में दिखा दिया। यही कारण है कि, आरएसएस की पृष्ठभूमि के अत्यंत सज्जन कहे जाने वाले डॉक्टर हर्षवर्धन जी और सुप्रीम कोर्ट के बड़े वकील रविशंकर प्रसाद जी जो, खुद भी सरकार के केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं, विधूड़ी के बयान से, रत्ती भर भी असहज नहीं हुए और जिस तरह का आह्लाद उनके मुख से झलक रहा था, उस देह भाषा को, यदि शब्दो में बदलें तो लगेगा कि, वह भी उन्ही शब्दों को कहना चाहते थे, पर उनकी अभिजात्यता उन शब्दों को जबान पर लाने से थोड़ा कतरा जाती है। इसीलिए, जैसे ही रमेश विधूड़ी के इस बयान पर, देशव्यापी प्रतिक्रिया आई वैसे उन दोनों महानुभावों ने भी ट्विटर पर विधूड़ी से असहमति व्यक्त करते हुए, उस भाषण से अपनी दूरी बना ली और इस तरह अपने अभिजात्यता की खोल में महफूज बने रहने की कोशिश कर की। 

लोकसभा के स्पीकर इस बयान पर तब तक कोई कार्यवाही नहीं करेंगे जब तक कि, उन्हे इस पर कोई कार्यवाही करने के लिए कहा न जाय। आरएसएस अक्सर विधूड़ी टाइप प्रयोग करता रहता है। वह ऐसे शिगूफे छोड़ता रहता है। यह सब बयान टेस्ट बैलून की तरह हैं। जब उसे लगता है कि, इन बयानों के खिलाफ, देश की जनता एकजुट हो रही है तो, वह उससे किनारा कर लेता है, पर छोड़ता तब भी नहीं है, उन ऐसे बयानों के पक्ष में, उनका दुष्प्रचार तंत्र सामने आ जाता है जिससे न केवल अफवाहें फैलती हैं, बल्कि जनता, जिसके दिमाग के रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य से जुड़े मामले सवालों की शक्ल में, उमड़ते घुमड़ते रहते हैं, को भी नेपथ्य में धकेलने की कोशिश की जाने लगती है। 

सरकार, बीजेपी और आरएसएस यह अच्छी तरह से जानते है कि, दस साल तक मोदी सरकार ने रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य के मुद्दों पर सिवाय प्रचार और वंदन, अभिनंदन जैसे ड्रामे करने के कुछ किया नहीं है, तो, उनके पास विधूड़ी मॉडल की बातें करने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। इसलिए जैसे ही कर्नाटक में, बजरंग दल पर बैन की बात कांग्रेस ने कही, बीजेपी ने चुनाव को, धार्मिक रंग देने और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के उद्देश्य से बजरंग बली को मुद्दा बना दिया और हाल ही में, जैसे ही उदयनिधि स्टालिन का बयान आया, पीएम और बीजेपी ने सनातन बचाने की घोषणा कर दी। इतनी तेजी तो पूज्य शंकराचार्यों ने भी नहीं दिखाई जो सनातन के मान्यता प्राप्त शीर्ष आचार्य है। यहां भी मकसद, न तो सनातन बचाना है और न ही धर्म। बस सत्ता बचानी है और सत्ता भी सिर्फ इसलिए ताकि गिरोहबंद पूजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज्म फलता फूलता रहे। 

रमेश विधूड़ी के बयान की निंदा दुनियाभर में हो रही है। पर इस बयान पर उत्तेजित होने के बजाय, बयान का उद्देश्य और टाइमिंग समझें। महिला आरक्षण विधेयक पर, ओबीसी और एससीएसटी नाराज हैं। वे पहले से ही कोटा के अंदर कोटा की मांग को लेकर विरोध कर रहे थे। अब जातीय जनगणना एक बड़ा मुद्दा बन गया है। धर्म के पहरुए के रूप में ओबीसी का उपयोग करने वाले संगठन, ओबीसी की इस मांग पर तब भी चुप थे और अब तो वे असहज महसूस कर रहे है। कभी कांग्रेस भी, इस मसले पर चुप थी पर अब, कांग्रेस इस मुद्दे के साथ है। ऐसे में रमेश विधूड़ी ने यह एक नया और अपने दल का चिर परिचित दांव चला है ताकि बहस, हिंदू बनाम मुसलमान में उलझ कर रह जाय। 

इस पाश से बचिए और सरकार से दस साल का हिसाब मांगिए, अडानी के ₹20 हजार करोड़ के निवेश घोटाले और सरकारी खाते से ₹21 हजार करोड़ के किसी गोपनीय खाते में ट्रांसफर किए जाने की सीएजी की रपट, महंगाई, बेरोजगारी, महिला आरक्षण में ओबीसी एससीएसटी की स्थिति, सीएजी की हालिया रिपोर्ट में वित्तीय अनियमितता की शिकायतों और मोदी अडानी रिश्तों पर सवाल पूछना जारी रखें। विधूड़ी का बयान केवल और केवल इन मुद्दों से हटाने की साजिश है, उन्होंने वही कहा है जो उन्होंने अपने मातृ संगठन से सीखा है और उनके मातृ संगठन के लोग यह शब्द अक्सर प्रयोग में लाते रहे हैं और वे आगे भी लाते रहेंगे। सबसे जरूरी है, इन्हे सत्ता से बाहर करना और राजनीतिक रूप से कमज़ोर कर के संविधान की मूल धारणा आइडिया ऑफ इंडिया को बचाए और मजबूत बनाए रखना।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Tuesday, 19 September 2023

अडानी घोटाले की जांच के लिए गठित, एक्सपर्ट कमेटी के तीन सदस्यों पर अडानी से निकटता और हितों के टकराव का आरोप / विजय शंकर सिंह

अडानी-हिंडनबर्ग मामले के संदर्भ में, एक ताजे घटनाक्रम के अनुसार, अडानी समूह की कंपनियों के खिलाफ अदालत की निगरानी में जांच की मांग करने वाले याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में एक नया हलफनामा दायर किया है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति के खिलाफ आशंकाएं जताई गई हैं। याचिकाकर्ता अनामिका जयसवाल द्वारा दायर हलफनामे में आरोप लगाया गया है कि समिति के छह में से तीन सदस्य अपने बैकग्राउंड और अडानी समूह के साथ संबंधों के चलते, "देश के लोगों के बीच, निष्पक्षता का विश्वास पैदा करने में विफल रहे।" 

उल्लेखनीय है कि, 3 मार्च, 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने अडानी-हिंडनबर्ग मुद्दे के, संदर्भ आलोक में, नियामक तंत्र SEBI  सेबी द्वारा जांच और समीक्षा के लिए, एक एक्सपर्ट कमेटी समिति का गठन किया था। इस कमेटी में, ओपी भट्ट, जस्टिस जेपी देवधर, बॉम्बे HC के पूर्व न्यायाधीश, केवी कामथ, नंदन नीलेकणि और श्री सोमशेखर सुंदरेसन, सदस्य हैं, और इसकी अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश, जस्टिस (सेवानिवृत्त) अभय मनोहर सप्रे बनाए गए। 

अनामिका जायसवाल के हलफनामे के अनुसार, "विशेषज्ञ समिति के सदस्यों में से एक, भारतीय स्टेट बैंक एसबीआई के पूर्व अध्यक्ष ओपी भट्ट, वर्तमान में ग्रीनको के अध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं।  हलफनामे में इसे प्रमुखता के साथ रेखांकित किया गया है कि, मार्च, 2022 से ग्रीनको और अडानी समूह, भारत में अडानी समूह के साथ,  ऊर्जा सेक्टर में, "एक करीबी साझेदारी" के रूप में काम कर रहे हैं। इसमें कहा गया है कि, "हितों के इस स्पष्ट टकराव (Conflict of interest) को खुद भट्ट द्वारा, समिति का सदस्य नामित होते ही, सुप्रीम कोर्ट को, इस तथ्य से अवगत कराया जाना चाहिए था।

इसके अतिरिक्त, हलफनामे में कहा गया है कि, "ओपी भट्ट से, मार्च 2018 में भगोड़े आर्थिक अपराधी, विजय माल्या को ऋण देने में कथित लिप्तता के आरोप में, भी पूछताछ की गई थी।"  
यह भी आरोप लगाया गया है कि, "भट्ट ने 2006 और 2011 के बीच एसबीआई के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त थे, जबकि उसी अवधि में, एसबीआई द्वारा, अधिकांश ऋण, विजय माल्या की कंपनियों को दिए गए थे। सीबीआई ने आरोप लगाया है कि एसबीआई के नेतृत्व वाले ऋणदाताओं के संघ ने माल्या की कंपनियों की 'खराब वित्तीय स्थिति' के बारे में पता होने के बावजूद कोई 'फॉरेंसिक ऑडिट' नहीं किया।"

हलफनामे में समिति के सदस्य के रूप में एक नाम,  सोमशेखर सुंदरेसन का भी है। इनके खिलाफ भी, आरोप और आशंकाएं जताई गई हैं। हलफनामे में, दावा किया गया है कि, "सुंदरेसन सेबी बोर्ड सहित विभिन्न मंचों पर अडानी का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील रहे हैं।" इसके अलावा, हलफनामे के अनुसार, "याचिकाकर्ता द्वारा पहले भी हितों के इस टकराव की ओर इशारा किया गया था।"

अंत में, हलफनामे में कहा गया है कि, "केवी कामथ, जो 1996 से 2009 तक आईसीआईसीआई ICICI बैंक के अध्यक्ष थे, का नाम आईसीआईसीआई बैंक धोखाधड़ी मामले में सीबीआई की एफआईआर में आया था। धोखाधड़ी का यह मामला, चंदा कोचर से संबंधित है, जिन्होंने 2009 से 2018 तक आईसीआईसीआई बैंक के प्रबंध निदेशक और सीईओ के रूप में कार्य किया।"

हलफनामे के अनुसार, "सीबीआई CBI ने आरोप लगाया है कि, उन्हें और उनके परिवार को उनके कार्यकाल के दौरान वीडियोकॉन समूह को प्रदान किए गए ऋणों के बदले विभिन्न रिश्वतें मिलीं, जिनमें से कई गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) में बदल गईं। केवी कामथ उस समय बैंक के गैर-कार्यकारी अध्यक्ष थे, जब कुछ  उन ऋणों को मंजूरी दी गई थी।" 

इसी संदर्भ में, याचिकाकर्ता ने विशेषज्ञ समिति को भंग करने और एक नई समिति के गठन की मांग की है। हलफनामा में यह प्रार्थना किया गया है कि, "ऐसी आशंका है कि वर्तमान विशेषज्ञ समिति (एक्सपर्ट कमेटी) देश के लोगों में विश्वास जगाने में विफल रहेगी। इसलिए आदरपूर्वक प्रार्थना की जाती है कि एक नई विशेषज्ञ समिति का गठन किया जाए।"

इस हलफनामे के, ठीक एक सप्ताह पहले, याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया था कि, "भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) के मामले की जांच में स्पष्ट रूप से 'हितों का टकराव' था और बाजार नियामक उल्लंघनों और मूल्य हेरफेर के आरोप में, अडानी समूह को, एक बचाव 'ढाल' देने के लिए, सेबी में, कई संशोधन किए गए थे। मई में, विशेषज्ञ समिति ने अडानी समूह की कंपनियों के संबंध में सेबी की ओर से नियामक विफलता के आरोप को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Sunday, 17 September 2023

ईडी की नोटिस, को सीएम झारखंड, हेमंत सोरेन की सुप्रीम कोर्ट में चुनौती / विजय शंकर सिंह

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने मनी लॉन्ड्रिंग मामले में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा जारी नवीनतम समन/नोटिस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के नेता हेमंत सोरेन ने पहले केंद्रीय एजेंसी ईडी, द्वारा पहले जारी किए गए समन को चुनौती देते हुए शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें उन्हें रांची में भूमि पार्सल की धोखाधड़ी की बिक्री से जुड़ी मनी लॉन्ड्रिंग जांच के संबंध में पूछताछ के लिए उपस्थित होने के लिए कहा गया था।  .

हेमंत सोरेन ने अपनी याचिका में आरोप लगाया गया है कि, प्रवर्तन निदेशालय ने सुप्रीम कोर्ट में, लंबित कानूनी चुनौती के बावजूद, उन्हें समन जारी करना, जारी रखा है। जारी नवीनतम समन पर रोक लगाने और उसे रद्द करने की मांग करने वाली अपनी हालिया याचिका में, मुख्यमंत्री ने उन्हें 'धमकाने, अपमानित करने और डराने-धमकाने' के लिए 'बार-बार' किए गए समन को 'राजनीति से प्रेरित' बताया है। हेमंत  सोरेन के अनुसार, ये सम्मन 'अपमानजनक, अनुचित और अवैध' होने के अलावा, किसी राज्य के मुख्यमंत्री के उच्च पद को कमजोर करने का भी प्रभाव रखते हैं।  इस संबंध में, उन्होंने आगे बताया कि सम्मन कथित तौर पर उन्हें झारखंड के मुख्यमंत्री के रूप में संबोधित किया गया है, न कि व्यक्तिगत क्षमता में।

 “…याचिकाकर्ता का संदर्भ और ‘झारखंड के मुख्यमंत्री’ के रूप में उनकी उपस्थिति की मांग करना न केवल अनुचित है, बल्कि उनके पद का अत्यधिक अपमान भी है।  सम्मन का स्वरूप, अपने आप में ही, प्रवर्तन निदेशालय के राजनीतिक मकसद और एजेंडे को उजागर करता है जिसने, अपने कार्यों से, उस उद्देश्य को कमजोर कर दिया है जिसके लिए इसे एक, वैधानिक प्राधिकरण के रूप में गठित किया गया था।"

सोरेन ने दावा किया है कि, केंद्रीय एजेंसी प्रमुख विपक्षी नेताओं का 'पीछा' करने के लिए केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रही है। आगामी आम चुनावों के मद्देनजर और भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन, INDIA/इंडिया नामक विपक्षी मोर्चे के गठन के बाद कथित तौर पर इस तरह की टारगेटेड नोटिस में तेजी आई है।  

आवेदन में कहा गया है, 
“प्रवर्तन निदेशालय इस देश में विपक्ष को चुप कराने के लिए एक राजनीतिक उपकरण बनकर रह गया है। केंद्र सरकार उन विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने के लिए प्रवर्तन निदेशालय का उपयोग कर रही है जो एनडीए सरकार के साथ नहीं हैं और आम चुनावों की तारीख तेजी से नजदीक आने और विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A के गठन के साथ इस टारगेटेड नोटिस प्रक्रिया में तेजी आई है। आम चुनाव नजदीक आने के साथ, सत्तारूढ़ शासन द्वारा देश में राजनीतिक माहौल खराब कर दिया गया है और राजनीतिक नेताओं को अपमानित करने और डराने के सभी प्रयास किए जा हैं, खासकर, जब विपक्ष ने I.N.D.I.A बनाने के लिए एकजुट होकर गठबंधन कर लिया है तब। विवादित समन की टाइमिंग, I.N.D.I.A. के समानांतर है।  इंडिया एलायंस की बैठक,  मुंबई में, 1 सितंबर को हुई थी।"

हेमंत सोरेन ने परिणामस्वरूप तर्क दिया है कि, "प्रवर्तन निदेशालय को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 'नियंत्रित' करने और उसके कामकाज की निगरानी करने की आवश्यकता है। "यह भी सुनिश्चित करने की जरूरत है कि जांच मशीनरी के इस तरह के बेशर्म दुरुपयोग की अनुमति नहीं हो।" 

"लोकतंत्र में कानून का शासन बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि [प्रवर्तन निदेशालय] की शक्तियों को [सुप्रीम कोर्ट] द्वारा नियंत्रित, नियंत्रित, सीमित और विनियमित किया जाए, और इसके लिए मानदंड निर्धारित किए जाय। अन्यथा यह एजेंसी, उन लोगों के विरुद्ध, वैसे ही काम करती रहेगी  करना, जो सत्तारूढ़ शासन के साथ अनुकूल स्थिति में नहीं हैं, उन लोगों को निशाना बनाने के लिए अपनी शक्तियों का बेशर्मी से दुरुपयोग करना।

 न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस और न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी की पीठ केंद्रीय एजेंसी द्वारा पहले जारी किए गए समन को चुनौती देने वाली सोरेन द्वारा दायर रिट याचिका पर कल यानी सोमवार, 18 सितंबर को सुनवाई करेगी।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Friday, 15 September 2023

मीडिया ट्रायल और मुकदमों का ब्रीफिंग मैनुअल / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को केंद्रीय गृह मंत्रालय को तीन महीने की अवधि के भीतर पुलिस कर्मियों द्वारा मीडिया ब्रीफिंग पर एक व्यापक मैनुअल तैयार करने का निर्देश दिया है।  सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने सभी राज्यों के पुलिस महानिदेशकों (डीजीपी) को मैनुअल के लिए अपने सुझाव प्रस्तुत करने का भी निर्देश दिया।  इसके अतिरिक्त, अदालत ने निर्देश दिया कि इस मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के इनपुट पर भी विचार किया जाए।

इस तरह के मैनुअल की जरूरत इसलिए पड़ी कि, लंबे समय से यह महसूस किया जा रहा है कि, आपराधिक मुकदमों, की रिपोर्टिंग के समय, कुछ न्यूज चैनल, उन मुकदमों के बारे में, जो खबरें प्रसारित करते हैं, वे खबरें कम, एक प्रकार की समानांतर तफ्तीश होती है। कतिपय मुकदमों की पुलिस द्वारा की जा रही तफ्तीशों में, बहुत से तथ्य ऐसे होते हैं, जिनकी पुष्टि की जानी, अभी बाकी होती है और उनके सार्वजनिक हो जाने से, न सिर्फ उन मुकदमों की तफ्तीश पर असर पड़ता है बल्कि सुबूतों के साथ भी छेड़छाड़ होने की संभावना रहती है। इस तरह से कुछ टीवी चैनल, उन मुकदमों की ब्रेकिग न्यूज चला कर, जनमानस में एक पूर्वाग्रह का वातावरण भी बना देते हैं। अभियुक्त, सक्षम अदालत में, दोषी ठहराए जाने के पहले ही, मीडिया और मीडिया के इस संक्रमण के कारण, समाज में, दोषी की तरह देखा जाने लगता है। 

मीडिया ट्रायल की इन सब समस्याओं से निपटने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने एक ब्रीफिंग  मैनुअल बनाने का निर्देश दिया है। फिलहाल अदालत के सामने, यह  मामला दो महत्वपूर्ण मुद्दों से संबंधित है: पहला, मुठभेड़ों की स्थिति में पुलिस द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रियाएं, और दूसरा, चल रही आपराधिक जांच के दौरान मीडिया ब्रीफिंग करते समय पुलिस द्वारा कतिपय प्रोटोकॉल का पालन। जबकि मुठभेड़ वाला मुद्दा, पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र राज्य के 2014 के फैसले में संबोधित किया गया था और, सर्वोच्च न्यायालय, अब मीडिया ब्रीफिंग वाले मामले पर केंद्रित है।

मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ ने इस मुद्दे के बढ़ते महत्व, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रिपोर्टिंग के उभरते और बदलते परिदृश्य के मद्देनजर, जोर दिया है। उन्होंने कहा है कि, "इस मामले में सार्वजनिक हित की कई परतें शामिल हैं, जिनमें जांच के दौरान जनता के जानने का अधिकार (सूचना का अधिकार), जांच प्रक्रिया पर पुलिस के खुलासे का संभावित प्रभाव, आरोपियों के कानूनी अधिकार और न्याय का समग्र प्रशासन के विंदु शामिल है।

न्यायालय ने पहले वरिष्ठ अधिवक्ता, गोपाल शंकरनारायणन को अपनी सहायता के लिए न्याय मित्र (एमिकस क्यूरी) नियुक्त किया था। गोपाल शंकरनारायणन ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को, एक प्रश्नावली वितरित की थी, जिनमें से कुछ से प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं।  इसके अलावा, इस मामले में याचिकाकर्ताओं में से एक, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) द्वारा टिप्पणियां प्रस्तुत की गईं।  वरिष्ठ अधिवक्ता ने सिफारिश की कि, हालांकि मीडिया को रिपोर्टिंग से रोका नहीं जा सकता है, लेकिन सूचना के स्रोत, जो अक्सर सरकारी संस्थाएं हैं, को विनियमित (Regulate) किया जा सकता है। इस दृष्टिकोण का उद्देश्य घटनाओं से जुड़ी, कई और अलग अलग  खबरों को, मीडिया में प्रस्तुत होने से रोकना है, जैसा कि पिछले कई मामलों में हुआ है, जबकि एक ही घटना की रिपोर्टिंग, मीडिया के अलग अलग चैनलों ने, अलग अलग तरह से प्रसारित की। जिससे भ्रम फैला। सीजेआई ने कहा, "हम मीडिया को रिपोर्टिंग करने से नहीं रोक सकते। लेकिन स्रोतों (खबरों की) को रोका जा सकता है। क्योंकि स्रोत राज्य (के आधीन) है।" 
शीर्ष अदालत ने आरुषि मामले में, मीडिया की भूमिका का विशेषरूप से उल्लेख भी किया। 

इसे ध्यान में रखते हुए, एमिकस क्यूरी, सीनियर एडवोकेट गोपाल शंकरनारायणन ने मैनुअल तैयार करने के उद्देश्य से, विचार करने के लिए दिशानिर्देश प्रस्तुत किए। उन्होंने कहा कि, "दिशानिर्देश लॉस एंजिल्स पुलिस विभाग (एलएपीडी) और न्यूयॉर्क पुलिस विभाग (एनवाईपीडी) की मीडिया रिलेशंस हैंडबुक के साथ-साथ यूके के मुख्य पुलिस अधिकारियों के संघ और यहां तक ​​​​कि, सीबीआई की जन संपर्क शाखा की सलाह से लिए गए हैं।" 

सुप्रीम कोर्ट के आदेश में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार, निष्पक्ष जांच के दौरान, आरोपी के अधिकार और पीड़ितों की गोपनीयता के बीच स्थित नाजुक संतुलन पर भी जोर दिया गया है। कोर्ट ने आदेश में कहा है, "किसी भी आरोपी को फंसाने वाली मीडिया रिपोर्ट का प्रसारण अनुचित है। पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग से जनता में यह संदेह भी पैदा होता है कि उस व्यक्ति ने अपराध किया है। मीडिया रिपोर्ट में पीड़ितों की गोपनीयता का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए।"

अपने आदेश में, सुप्रीम कोर्ट ने अद्यतन (uptodate) दिशानिर्देशों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है। क्योंकि मौजूदा दिशानिर्देश एक दशक पहले बनाए गए थे, और अपराध की मीडिया रिपोर्टिंग (Crime Reporting) के पैटर्न तब से काफी विकासित और उसमें बदलाव हो चुका है, जिसमें प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों की अपनी अपनी  महत्वपूर्ण भूमिका हैं। आदेश में कहा गया है कि, "भारत सरकार द्वारा,  लगभग एक दशक पहले 1 अप्रैल, 2010 को, दिशानिर्देश तैयार किए गए थे। तब से, न केवल प्रिंट मीडिया बल्कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी अपराध की रिपोर्टिंग में वृद्धि होने के साथ, संतुलन बनाए रखने के लिए नए मैनुअल का निर्माण किया जाना महत्वपूर्ण हो जाता है।"

शीर्ष अदालत ने माना है कि, "मीडिया को दी जाने वाली जानकारी की प्रकृति, पीड़ितों और आरोपी व्यक्तियों की उम्र और लिंग जैसे कारकों को ध्यान में रखते हुए, प्रत्येक मामले की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुरूप होनी चाहिए।" 
इसमें आगे कहा गया है, "खुलासे (केस के) की प्रकृति एक समान नहीं हो सकती है, क्योंकि यह अपराध की प्रकृति और पीड़ितों, गवाहों और अभियुक्तों सहित संबंधित अन्य हितधारकों पर निर्भर होना चाहिए। पीड़ित और अभियुक्त की उम्र और लिंग के खुलासे का, मुकदमे की प्रकृति पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा, जिसे, मीडिया को कोई भी सूचना देते समय पुलिस या जांच एजेंसी को, इसका ध्यान रखना चाहिए ।"
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि, "पुलिस के खुलासे का परिणाम "मीडिया-ट्रायल" के रूप में, नहीं होना चाहिये। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि, खुलासे के परिणामस्वरूप मीडिया ट्रायल न हो ताकि, आरोपी के अपराध का पूर्व-निर्धारण हो सके।"

इस तरह का एक विस्तृत और लगभग सभी प्रासंगिक बिंदुओं को, समेटते हुए एक मैनुअल तैयार करने के लिए गृह मंत्रालय को आदेश की तारीख से, तीन महीने तक की समय सीमा दी गई है।एक महीने के भीतर सभी डीजीपी को दिशानिर्देशों के लिए अपने सुझाव गृह मंत्रालय को बताने होंगे और, मैनुअल तैयार करते समय, एनएचआरसी की सिफारिशों पर भी विचार  किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "गृह मंत्रालय से अपेक्षा की जाती है कि वह तीन महीने के भीतर इस कार्य को समाप्त कर लेगा और दिशानिर्देशों की एक प्रति एमिकस क्यूरी सीनियर एडवोकेट गोपाल शंकरनारायणन और सुश्री शोभा गुप्ता, एनएचआरसी के वकील को देगा।  

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Wednesday, 13 September 2023

अडानी घोटाले में सुप्रीम कोर्ट में दायर नया हलफनामा और सेबी की जांच पर सवाल / विजय शंकर सिंह

अडानी-हिंडनबर्ग मामले में, अडानी समूह की कंपनियों के खिलाफ, अदालत की निगरानी में जांच की मांग करने वाले, एक याचिकाकर्ता ने, अडानी समूह के बारे में, कुछ मीडिया घरानों द्वारा प्रकाशित कतिपय जांच रिपोर्टों के आलोक में,  सुप्रीम कोर्ट में एक नया हलफनामा दायर किया है। मीडिया रिपोर्ट्स में, बराबर यह खबर आ रही थी, सेबी को, जांच में कुछ प्रमाणिक तथ्य नहीं मिल रहे है, और सेबी के जांचकर्ता, गौतम अडानी के समधी है। इसके अतिरिक्त और भी तरह तरह की खबरें अखबारों तथा विभिन्न मीडिया समूहों में आ रही है। 

दरअसल, अडानी से जुड़े, टैक्स हेवेन समझे जाने वाले देशों से, संदिग्ध निवेश की खबरें तो आ ही रही हैं, साथ ही, प्रधानमंत्री मोदी जी के अडानी समूह से रिश्ते को लेकर, विपक्ष विशेषकर, कांग्रेस नेता राहुल गांधी काफी मुखर है। संसद में अडानी समूह के, 20 हजार करोड़ रुपए के संदिग्ध निवेश और नरेंद्र मोदी तथा गौतम अडानी के निजी रिश्तों को लेकर, राहुल गांधी ने, लोकसभा में एक बेहद तार्किक और तथ्यात्मक भाषण दिया था। इस भाषण से न केवल, प्रधानमंत्री, बल्कि पूरा सत्तापक्ष बौखला गया था। हालांकि, अडानी समूह के इस संदिग्ध निवेश से जुड़े राहुल गांधी के भाषण को, सदन की कार्यवाही से निकाल दिया गया, लेकिन अब भी प्रधानमंत्री की असहजता कम नहीं हुई है। 

सुप्रीम कोर्ट ने, इस मामले में दायर याचिकाओं पर, सेबी को, जांच करने और एक तथ्यात्मक रिपोर्ट सौंपने का निर्देश दिया है। सेबी ने जांच की और अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंपी है। लेकिन, इसी बीच, जब अखबारों में इस जांच को लेकर, तरह तरह की खबरें मीडिया में आई तो, एक याचिकाकर्ता अनामिका जायसवाल ने सुप्रीम कोर्ट में, एक हलफनामा दायर कर, उक्त हलफनामे में, यह आरोप लगाया है कि, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) सेबी, द्वारा की गई, इस मामले की जांच में स्पष्ट रूप से 'हितों का टकराव' (Conflict of interest) दिख रहा है। 

याचिकाकर्ता, अनामिका जायसवाल ने, यह भी आरोप लगाया है कि, "बाजार नियामक (सेबी) ने अडानी समूह द्वारा नियामक उल्लंघनों और मूल्य हेरफेर का बचाव हो सके, इसलिए, 'ढाल' के रूप में, (अडानी समूह को परोक्ष रूप से लाभ पहुंचाने के लिए) कई संशोधन किये हैं।" हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सेबी द्वारा तथ्यों को कथित रूप से दबाने और साक्ष्यों को दरकिनार करने तथा, अडानी परिवार द्वारा अपनी ही कंपनियों में जानबूझकर, स्टॉक हासिल करने के दोष का सुबूतों सहित विवरण  भी दिया गया है।

० सेबी ने अडानी के पैसे निकालने के बारे में 2014 डीआरआई अलर्ट को छुपाया

अनामिका जायसवाल के हलफनामे में कहा गया है कि, "2014 में, राजस्व खुफिया निदेशालय (डीआरआई), संयुक्त अरब अमीरात स्थित एक सहायक कंपनी से, अडानी समूह की विभिन्न संस्थाओं द्वारा, उपकरण और मशीनरी के आयात के अधिक मूल्यांकन (over valuation) के मामले की जांच कर रहा था।  उस समय, डीआरआई ने तत्कालीन सेबी SEBI अध्यक्ष को एक पत्र भेजकर, सचेत (alert) किया था कि अडानी समूह की कंपनियों द्वारा, बिजली उपकरणों के आयात में ओवरवैल्यूएशन के तौर-तरीकों का उपयोग करके, शेयर बाजार में हेरफेर किया जा सकता है, और अडानी समूह, पैसे भी निकाल सकता हैं।" 
पत्र के साथ एक सीडी भी, सलग्न की गई थी, जिसमें ₹2323 करोड़ की हेराफेरी के सबूत थे। डीआरआई द्वारा, इस मामले की जांच की जा रही थी। हलफनामे में आरोप लगाया गया है कि, "सेबी ने इस जानकारी (डीआरआई द्वारा भेजी गई जानकारी) को दबाया और छुपाया तथा डीआरआई के उक्त अलर्ट पत्र के आधार पर कभी कोई जांच नहीं की।"

यहीं यह सवाल उठता है कि, आखिर सेबी ने, डीआरआई के इस अलर्ट पत्र पर कोई भी कार्यवाही या जांच करने के बजाय, इसे बस्ता खामोशी या ठंडे बस्ते में क्यों डाल दिया ? याद कीजिए, तब तक सरकार बदल चुकी थी, और अडानी समूह से नजदीकी संबंधों की चर्चा वाले, नरेंद्र मोदी, देश के प्रधानमंत्री बन चुके थे। तब तक अडानी समूह से मोदी जी की निकटता की बात सार्वजनिक भी होने लगी थी। 

हलफनामे में आगे कहा गया है कि, "यह चौंकाने वाली बात है कि, सेबी ने माननीय न्यायालय के समक्ष आज तक उक्त पत्र (डीआरआई पत्र) की प्राप्ति और डीआरआई से साक्ष्य का खुलासा नहीं किया है।"
हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सेबी द्वारा अपनाए गए इस आश्चर्यजनक रुख की ओर इशारा करते हुए कहा गया है कि, "सेबी ने अदालत में कहा है कि, उसने, जून-जुलाई 2020 में ही अदानी समूह के खिलाफ जांच शुरू कर दी थी।" 
हलफनामे में दावा किया गया है कि, "सेबी का अदालत ने दिया गया यह बयान, जानबूझकर,  तथ्यों को छिपाना और अदालत को,  झूठी जानकारी प्रदान करना है, जो झूठी गवाही (perjury) का अपराध है।"
हलफनामे में यह भी बताया गया है कि, "उस समय, साल 2014 में, यूके सिन्हा, सेबी निदेशक थे,  और अब वह एनडीटीवी जिसे 2022 में अदानी समूह द्वारा अधिग्रहित किया गया है, के गैर-कार्यकारी निदेशक हैं।"

स्पष्ट रूप से यह हितों का टकराव है, क्योंकि जब डीआरआई ने, सेबी को अडानी समूह के संदिग्ध लेनदेन की जांच करने के एक अलर्ट पत्र भेजा तो, तत्कालीन सेबी निदेशक ने, उसकी जांच में कोई रुचि नहीं ली, और जब वे रिटायर हुए तो, अडानी समूह ने उन्हें उपकृत करते हुए, अपने यहां एनडीटीवी में, गैर कार्यकारी निदेशक बना दिया। 

० सेबी ने किसी भी जांच के निष्कर्ष का खुलासा नहीं किया है
 
अनामिका जायसवाल के हलफनामे के अनुसार, सेबी ने (अदालत में) अपनी जो स्टेटस रिपोर्ट प्रस्तुत की है, उसमें कहा गया है कि, "अडानी समूह के खिलाफ हिंडनबर्ग रिपोर्ट से उत्पन्न 24 जांचों में से 22 जांचे, पूरी हो चुकी हैं और 2 जांचे अभी अंतरिम हैं।" 
हालाँकि, हलफनामे में कहा गया है कि, "सेबी ने इनमें से, किसी भी जांच के निष्कर्ष का खुलासा नहीं किया है।"
इसे और स्पष्ट करते हुए, हलफनामा में कहा गया है कि, "प्रतिभूति अनुबंध (विनियमन) नियम, 1957 के नियम 19 ए के उल्लंघन से संबंधित पहली जांच की समयावधि साल 2016 से साल 2020 के बीच बताई गई थी। इसका तात्पर्य यह है कि, अक्टूबर 2020 से हिंडनबर्ग रिपोर्ट के प्रकाशन की तिथि, यानी जनवरी 2023 तक के समय को, इस मामले में जांच के दायरे से बाहर रखा गया।'' 
इसके अलावा, यह भी कहा गया है कि, "सेबी की जांच के दायरे में 13 विदेशी संस्थाएं शामिल थीं, जिसमें उसकी (सेबी की) रिपोर्ट के अनुसार 12 एफपीआई (फॉरेन पोर्टफोलियो इन्वेस्टमेंट) शामिल थे। हालाँकि, सेबी इन 12 एफपीआई के आर्थिक हित वाले शेयरधारकों का अडानी समूह से क्या संबंध रहा है, यह स्थापित करने में असमर्थ रहा क्योंकि यह  संस्थाएँ टैक्स हेवन देशों के क्षेत्राधिकार में स्थित थीं।

० सेबी द्वारा अडानी की जांच में स्पष्ट 'हितों का टकराव'
 
हलफनामे द्वारा, यह भी प्रस्तुत किया गया है कि, "सेबी द्वारा इस मामले में जांच करने में हितों का टकराव (Conflict of interest) स्पष्ट है। क्योंकि, सेबी के अधिकारी सिरिल श्रॉफ, लॉ फर्म, अमरचंद मंगलदास (सीएएम) के प्रबंध भागीदार हैं, जो कॉर्पोरेट प्रशासन में, सेबी की उस समिति के सदस्य रहे हैं, जो अंदरूनी व्यापार जैसे अपराधों पर निगरानी रखती है।"
हलफनामे के अनुसार, "श्री श्रॉफ की बेटी की शादी गौतम अडानी के बेटे करण अडानी से हुई है, इसलिए हितों का टकराव हो रहा है।" 
हलफनामे में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि, "सेबी की 24 जांच रिपोर्टों में से 5 अडानी समूह की कंपनियों के खिलाफ अंदरूनी व्यापार के आरोपों पर हैं।"

० संगठित अपराध और भ्रष्टाचार रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट मॉरीशस में स्थित अपारदर्शी निवेश फंड दिखाता है जो अडानी शेयरों में निवेश कर रहा है
 
हलफनामे के अनुसार, "संगठित अपराध और भ्रष्टाचार रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट (ओसीसीआरपी) के जो, नए दस्तावेज सामने आए हैं, वह यह बताते हैं कि, मॉरीशस स्थित दो कंपनियों, इमर्जिंग इंडिया फोकस फंड (ईआईएफएफ) और ईएम रिसर्जेंट फंड (ईएमआरएफ) ने साल, 2013 और 2018 के बीच अदानी कंपनियों के शेयरों की बड़ी मात्रा में निवेश और कारोबार किया था। इन दोनों कंपनियों के नाम सेबी की 13 संदिग्ध एफपीआई की सूची में हैं, हालांकि, सेबी उनके अंतिम लाभकारी मालिकों या आर्थिक हित वाले शेयरधारकों का पता लगाने में असमर्थ रही है।" 
हलफनामे में आगे कहा गया है कि, इस क्रम में  निवेश किया गया पैसा, बरमूडा-आधारित निवेश फंड जिसे ग्लोबल अपॉर्चुनिटीज फंड (जीओएफ) कहा जाता है, के माध्यम से भेजा गया था।" 

इसे और स्पष्ट करते हुए, हलफनामे में कहा गया है, "ओसीसीआरपी जांच से पता चला है, कि विनोद अडानी (गौतम अडानी के भाई) और अडानी प्रमोटर समूह के सदस्य के स्वामित्व वाली एक्सेल इन्वेस्टमेंट एंड एडवाइजरी सर्विसेज लिमिटेड नामक यूएई स्थित एक पोशीदा फर्म (secretive firm) को, साल, 2012 से 2014 के बीच ईआईएफएफ, ईएमआरएफ और जीओएफ कंपनियों के प्रबंधन से, सलाहकार शुल्क के रूप में 1.4 मिलियन डॉलर से अधिक की धनराशि प्राप्त हुई थी। ओसीसीआरपी ने, उन आंतरिक ईमेल का भी खुलासा किया, जिससे यह पता चलता है कि ईआईएफएफ, ईएमआरएफ और जीओएफ कंपनिया, विनोद अडानी के आदेश पर अडानी समूह के शेयरों में धन निवेश कर रहे थे।"

 ० अन्य आपत्तिजनक तथ्य
 
अनामिका जायसवाल का हलफनामा, इसके अतिरिक्त, अन्य 'अपराधिक कृत्यों का भी उल्लेख किया गया है, जैसा कि गार्डियन जैसे अंतरराष्ट्रीय समाचारपत्रों द्वारा प्रकाशित किये गये खुलासे हैं, जैसे, "मोदी से जुड़े अडानी परिवार ने गुप्त रूप से अपने शेयरों में निवेश किया था' शीर्षक से प्रकाशित एक लेख और कुछ  दस्तावेजों का संदर्भ दिया गया है। जिसके अनुसार ओसीसीआरपी द्वारा प्राप्त नए दस्तावेजों से पता चलता है कि, "मॉरीशस में एक अज्ञात और जटिल अपतटीय (offshore) ऑपरेशन" का विवरण, जो अडानी समूह के, सहयोगियों द्वारा नियंत्रित लगता है, और जिसका उपयोग, साल 2013 से 2018 तक अपने समूह की कंपनियों के शेयर की कीमतों का समर्थन करने के लिए किया गया था, के बारे में, यह अनुमान लगाया गया है कि, वे अडानी परिवार के सहयोगी हो सकते हैं। हलफनामे में रॉयटर्स द्वारा प्रकाशित इस विषय पर एक लेख का भी हवाला दिया गया है।

० सेबी ने अडानी को फायदा पहुंचाने के लिए कई संशोधन किए
 
हलफनामे में कहा गया है कि, "सेबी ने न केवल आंखें मूंद लीं, बल्कि अडानी समूह के नियामक उल्लंघनों और मूल्य हेरफेर को बचाने और माफ करने के लिए नियमों और परिभाषाओं में लगातार संशोधन भी किए।"
इनका विवरण देते हुए कहा गया है, 
1. एफपीआई नियमों में संशोधन ~ 
नियमों में निर्दिष्ट किया गया था कि शेयर बाजार में नामित डिपॉजिटरी प्रतिभागी यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य हैं कि विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक के पास अपारदर्शी संरचनाएं न हों। 
इस प्राविधान को, 2018 में सेबी द्वारा संशोधित किया गया था, जिसके तहत 'अंतिम लाभकारी मालिकों' को पीएमएलए, 2002 के तहत परिभाषित 'लाभकारी मालिक' के समान अर्थ के लिए फिर से परिभाषित किया गया था। इसके बाद, 2019 में, एफपीआई नियमों में 'अपारदर्शी संरचना' खंड  को, पूरी तरह से ख़त्म कर दिया गया और इसकी जगह 'पीएमएलए के तहत सभी आवश्यकताओं का अनुपालन' कर दिया गया।

 2. एलओडीआर में संशोधन ~
सेबी एलओडीआर (सूचीबद्धता दायित्व और प्रकटीकरण आवश्यकता) ने 'संबंधित पक्ष' को कंपनी अधिनियम की धारा 2(76) के तहत वही अर्थ के रूप में परिभाषित किया गया था।  2018 में सेबी द्वारा 'संबंधित पार्टी' की परिभाषा में संशोधन किया गया, जिसमें एक अलग प्रावधान जोड़ा गया था, जो किसी सूचीबद्ध कंपनी के प्रमोटर समूह के किसी सदस्य या इकाई को, संबंधित पार्टी के रूप में तभी समझा जा सकता है, जब उस व्यक्ति की शेयरधारिता कम से कम 20% हो।

इस प्रकार अदालत में दाखिल अनामिका जायसवाल का हलफनामा, न केवल सेबी की लचर जांच का उल्लेख कर रहा है बल्कि यह भी तथ्यों और सबूतों सहित स्पष्ट कर रहा है कि, 
० सेबी ने, साल 2014 में डीआरआई के अलर्ट पत्र पर कोई कार्यवाही नही की और जिस समय सेबी डीआरआई के पत्र पर मौन बना बैठा रहा, उस समय सेबी के निदेशक यूके सिन्हा थे, जो बाद में अडानी समूह के ही मीडिया संस्थान एनडीटीवी के निदेशक बने। 
० सेबी के नियमों में बदलाव किया गया और पारदर्शिता की शर्त हटा दी गई। 
० सेबी के कॉर्पोरेट प्रशासन का काम देखने वाले सिरिल श्रॉफ, गौतम अडानी के समधी हैं। 

सुप्रीम कोर्ट ने अनामिका जायसवाल का यह हलफनामा, न सिर्फ नए आरोप को स्पष्ट करता है बल्कि सेबी के अंदर व्याप्त उन अनियमितताओं को भी उजागर करता है, जिनका लाभ प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से, अडानी समूह को मिलता रहा है। अब देखना है, शीर्ष अदालत में इस हलफनामे के जवाब में सेबी अपना क्या पक्ष रखती है। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 


Tuesday, 12 September 2023

मणिपुर हिंसा और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के खिलाफ एफआईआर / विजय शंकर सिंह

मणिपुर हिंसा से संबंधित, एक तथ्यान्वेषी रिपोर्ट (fact finding report) पर एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया (ईजीआई) के सदस्यों के खिलाफ दर्ज एफआईआर को चुनौती देने वाली याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने आज मौखिक रूप से टिप्पणी की कि, "यह मुद्दा सिर्फ एक रिपोर्ट से संबंधित है और  यह ज़मीन पर किसी के द्वारा अपराध करने का मामला नहीं है।" 
पत्रकार सीमा गुहा, संजय कपूर, भारत भूषण और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष द्वारा संयुक्त रूप से दायर रिट याचिका पर भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ सुनवाई कर रही है। अदालत ने यह भी कहा कि, "वह एफआईआर को रद्द करने के पक्ष में नहीं है और इस बात पर विचार कर रही है कि क्या मामले को दिल्ली उच्च न्यायालय में स्थानांतरित किया जाना चाहिए या मणिपुर उच्च न्यायालय द्वारा सुना जाना चाहिए।"

सुनवाई के दौरान सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने टिप्पणी की, "आखिरकार यह एक रिपोर्ट है। मूल प्रश्न यह है कि, वे जो तर्क दे रहे हैं वह यह है कि, उन्होंने एक रिपोर्ट बनाई है। यह उनकी व्यक्तिपरक राय का मामला है। क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है...यह इनमें से एक ऐसा मामला नहीं है, जहां किसी व्यक्ति ने, वास्तव में,  कुछ अपराध किया है। उन्होंने तो एक रिपोर्ट प्रकाशित की है।"
सीजेआई ने भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, जो मणिपुर राज्य का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, से कहा, "आप बिना किसी रियायत या किसी अन्य भविष्य के मामले के, एक बड़ा बयान दे सकते हैं, इसमें कोई आपत्ति नहीं है..।"
पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने, याचिकाकर्ताओं को एफआईआर के सिलसिले में दंडात्मक कार्रवाई से अंतरिम सुरक्षा दी थी।

प्रारंभ में, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने जोर देकर कहा कि, "ईजीआई ने स्वयं मणिपुर जाकर रिपोर्ट बनाने के लिए स्वेच्छा से काम नहीं किया। उन्हे, सेना द्वारा उसे ऐसा करने के लिए आमंत्रित किया गया था क्योंकि यह सेना ही थी जो मणिपुर राज्य में जमीनी स्तर पर रिपोर्टिंग का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन चाहती थी।"
उन्होंने कहा, "हमने (EGI) स्वेच्छा से वहां जाने की इच्छा नहीं जताई थी। सेना ने हमसे अनुरोध किया था। यह बहुत गंभीर मामला है। कृपया एडिटर्स गिल्ड को दिया गया सेना का पत्र देखें। यह एडिटर्स गिल्ड को सेना का निमंत्रण है, देखें क्या है  वहां क्या हो रहा है - स्थानीय मीडिया द्वारा अनैतिक, एकपक्षीय रिपोर्टिंग। यह उनके निमंत्रण पर है कि हम गए थे।"

इस दलील पर सीजेआई ने पूछा, "लेकिन सेना ने एडिटर्स गिल्ड को मणिपुर आने के लिए क्यों कहा?"
सिब्बल ने जवाब दिया, "क्योंकि वे ज़मीन पर क्या हो रहा है इसका वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन चाहते थे।"
सिब्बल ने कहा कि, "एक बार ईजीआई ने अपनी रिपोर्ट दे दी, तो उस पर दंड संहिता के तहत अपराध के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।"

इस पर सॉलिसिटर जनरल, तुषार मेहता ने कहा, ईजीआई, अपने खिलाफ दर्ज एफआईआर के खिलाफ, मणिपुर उच्च न्यायालय जा सकता है। पर वे इसे, एक 'राष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दा' बना रहे हैं। वह मामले की मेरिट पर बहस नहीं करेंगे। इस मामले की सुनवाई मणिपुर उच्च न्यायालय द्वारा की जा सकती है और याचिकाकर्ताओं को इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय जाने की आवश्यकता नहीं है।"
हालाँकि, सिब्बल ने इस पर आपत्ति जताई और कहा, "ये अपराध कैसे टिके रह सकते हैं? हमें यहां उच्च न्यायालय में मामले पर मुकदमा चलाने की अनुमति दें।" 
कुकी प्रोफेसर की पैरवी करने वाले एक वकील पर हुए हमले का जिक्र करते हुए सिब्बल ने कहा, "क्योंकि वहां भी वकील पीछे हट रहे हैं. एक वकील हैं जिनका घर जला दिया गया है. इस वक्त वहां जाना खतरनाक है।"

इस दलील पर, एसजी ने कहा कि, "याचिकाकर्ता वस्तुतः उच्च न्यायालय के समक्ष भी उपस्थित हो सकते हैं।"
हालाँकि, सिब्बल ने अपनी पिछली बात दोहराई और मणिपुर के मुख्यमंत्री द्वारा ईजीआई के खिलाफ दिए गए बयानों का हवाला दिया। और कहा, "इसके आधार पर हम पर मुकदमा क्यों चलाया जाना चाहिए? यह रिपोर्ट 2 सितंबर को दर्ज की गई थी। 3 तारीख की रात, एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी। 4 तारीख को, मुख्यमंत्री ने एक बयान दिया।"
एसजी (SG) ने कपिल सिब्बल के बयान पर जताई आपत्ति और कहा, "यदि आप इसे राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक बनाना चाहते हैं, तो हम कर सकते हैं। अन्यथा, उच्च न्यायालय इससे निपट सकता है।"

सिब्बल ने अपनी दलीलें जारी रखीं और कहा, "हम ऐसी स्थिति नहीं चाहते जहां हमें वकीलों को शामिल करना शुरू करना पड़े क्योंकि वहां वकील पीछे हट गए हैं...वकीलों के घरों में तोड़फोड़ की गई है।"
इस समय, सीजेआई ने स्पष्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट एफआईआर को रद्द नहीं करने जा रहा है, बल्कि केवल इस पर विचार कर रहा है कि क्या उसे याचिकाकर्ताओं को मणिपुर जाने के लिए कहना चाहिए या मामले को दिल्ली उच्च न्यायालय में स्थानांतरित करना चाहिए।"  
अब इस मामले की सुनवाई 15 सितंबर 2023 को होगी।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 


संयुक्त सचिव और उसके ऊपर के अधिकारियों के खिलाफ जांच करने और मुकदमे चलाने के लिए अब सरकार की पूर्व अनुमति की कोई जरूरत नहीं होगी ~ सुप्रीम कोर्ट / विजय शंकर सिंह

वरिष्ठ नौकरशाही (संयुक्त सचिव और उसके ऊपर के पदाधिकारियों) को प्रभावित करने वाले एक महत्वपूर्ण फैसले में, सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने 11/09/23 को, दिए गए अपने एक फैसले में कहा है कि, 
"सुप्रीम कोर्ट का 2014 का फैसला, जिसके अनुसार, जिसने दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम 1946 की धारा 6ए को असंवैधानिक घोषित किया गया था, अब पूर्वव्यापी प्रभाव (Retrospective Effect) से लागू होगा।"

सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच जिसमे, जस्टिस जेके माहेश्वरी, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एएस ओका, जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस विक्रम नाथ थे, द्वारा, दिए, इस फैसले के अनुसार, 
"अब जॉइंट सेक्रेटरी और उससे ऊपर के अफसरों पर भ्रष्टाचार का मुकदमा चलाया जा सकेगा और उनके खिलाफ आरोपों की, नियमानुसार, जांच भी हो सकेगी। जांच और अभियोजन के लिए उच्चाधिकारियों/शासन के अनुमति की, अब कोई जरूरत नहीं होगी।" 
सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक, यह आदेश, 11 सितंबर 2003 से मान्य और लागू होगा।

जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता में गठित, पांच जजों की पीठ का यह फैसला एकमत से दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2014 के फैसले का जिक्र करते हुए कहा कि, 
"तब दिल्ली स्पेशल पुलिस स्टेबलिशमेंट (DSPE) एक्ट 1946 के प्रावधान को रद्द कर दिया था। यह प्रावधान कुछ अफसरों को भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच से सुरक्षा (इम्यूनिटी) प्रदान करता है।"
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, "2014 का फैसला, 11 सितंबर 2003 से ही मान्य होगा। क्योंकि, 11 सितंबर 2003 से ही DSPE Act में धारा 6(A) जोड़ी गई थी, जिसके अनुसार, संयुक्त सचिव या उसके ऊपर के अधिकारियों के लिए,  किसी भी जांच या अभियोजन के लिए केंद्र सरकार के अनुमति की जरूरत होगी।"

सुप्रीम कोर्ट ने मई 2014 को, दिए अपने आदेश में, डीएसपीई एक्ट की धारा 6A(1) को अमान्य ठहराया था और,  कहा था कि, धारा 6A में,  'भ्रष्टाचारियों को बचाने की प्रवृत्ति' है। उसी के बाद यह मामला, संविधान पीठ को संदर्भित हुआ। संविधान पीठ को यह तय करना था कि, 
"क्या किसी जॉइंट सेक्रेटरी लेवल के सरकारी अधिकारी को कानून के किसी प्रावधान के तहत गिरफ्तारी से मिला संरक्षण तब भी कायम रहता है, अगर उसकी गिरफ्तारी के बाद आगे चलकर उस कानून को ही रद्द कर दिया गया हो।" 
इस पर, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा कि, 
"जो अधिकारी, सेक्शन के रद्द होने से पहले गिरफ्तार किए गए थे, उनके खिलाफ केस चल सकता है।"

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के पास, विचाराधीन सवाल था कि, 
"क्या किसी व्यक्ति को प्रतिरक्षा-अनुदान immunity प्रावधान को रद्द करने वाले फैसले के, पूर्वव्यापी प्रभाव यानी बैकडेट से, वैधानिक रूप से प्रदत्त किसी भी प्रतिरक्षा से वंचित किया जा सकता है?"
इस सवाल पर विचार करने के लिए, मार्च 2016 में कोर्ट की एक डिविजन बेंच ने इस मुद्दे को पांच जजों की बेंच के पास भेज दिया था।

यह मामला दिल्ली पुलिस विशेष स्थापना अधिनियम, 1946 के तहत बिना पूर्व मंजूरी के की गई एक गिरफ्तारी से उपजा था, जिससे धारा 6A के उल्लंघन के आधार पर कानूनी चुनौती मिली, जिसके तहत केंद्रीय जांच ब्यूरो को, भ्रष्टाचार के मामलों में संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के पद के किसी अधिकारी की जांच करने से पहले, सरकार की पूर्व मंजूरी लेनी आवश्यक थी। 

तब दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि, 
"चूंकि केंद्रीय जांच ब्यूरो CBI ने गिरफ्तारी से पहले जांच शुरू कर दी थी, इसलिए स्पॉट गिरफ्तारी के लिए धारा 6ए की उप-धारा (2) में निहित अपवाद लागू नहीं होगा।"  
तदनुसार, उच्च न्यायालय ने एजेंसी को पुन: जांच के लिए केंद्र सरकार की मंजूरी लेने का निर्देश दिया था।  

इस फैसले को 2007 में सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, लेकिन जब मामले की सुनवाई हो रही थी, तभी, सुब्रमण्यम स्वामी (2014) के एक मामले में, सुप्रीम कोर्ट द्वारा, धारा 6ए को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया।  हालाँकि, लंबित मामलों में इस फैसले का क्या परिणाम या असर होना चाहिए, यह अस्पष्ट रहा। इसी वजह से, मौजूदा मामले को, एक संवैधानिक पीठ को भेजा गया था, जिस पर, पांच जजों की बेंच द्वारा, दलीलें सुनने के बाद नवंबर 2022 में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया गया था। 

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा है कि, 
"एक बार जब किसी कानून को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया जाता है कि, यह संविधान के भाग III के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों में से किसी का उल्लंघन करता है, तो इसे अधिनियमन की तारीख से अप्रवर्तनीय माना जाएगा।" 
फैसले का अंश कहता है, 
“यह बिल्कुल स्पष्ट है कि एक बार जब किसी कानून को संविधान के भाग III का उल्लंघन करते हुए असंवैधानिक घोषित कर दिया जाता है, तो इसे अनुच्छेद 13 (2) के मद्देनजर शुरू से ही शून्य, मृत, अप्रवर्तनीय और गैर-स्थायी माना जाएगा। इस प्रकार, सुब्रमण्यम स्वामी के मामले में संविधान पीठ द्वारा की गई घोषणा पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू होगी।"

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Sunday, 10 September 2023

तमिलनाडु का आत्मसम्मान विवाह यानी सुयमरियाथाई विवाह कानून / विजय शंकर सिंह

धार्मिक भेदभाव और अस्पृश्यता को लेकर देश में सबसे प्रखर आंदोलन, तमिलनाडु में चला है और ईवी रामासामी पेरियार, तमिल सुधार आंदोलनों के एक मजबूत स्तंभ रहे हैं। वहां एक विवाह पद्धति है, सुयमरियाथाई, जिसे आत्मसम्मान विवाह प्रथा के रूप में देखा और कहा जाता है। उसी विवाह पद्धति को, सुप्रीम कोर्ट ने, अपने एक हालिया आदेश में, विधि सम्मत घोषित किया है। यह विवाह पद्धति, हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन के बाद, तमिलनाडु सरकार ने अपने राज्य में लागू किया था। 

तमिलनाडु में, प्रचलित, इसी आत्मसम्मान विवाह के बारे में, सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद, सुयमरियाथाई यानी आत्मसम्मान विवाह पर पूरे देश में बहस छिड़ गई है। सुप्रीम कोर्ट ने, हाल ही में दायर एक याचिका पर, जो मद्रास हाईकोर्ट के आदेश के बाद, अपील के रूप में, सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी, पर सुनवाई के बाद कहा कि, "जीवन साथी चुनना, मौलिक अधिकार है।" शीर्ष कोर्ट ने अपने आदेश में आगे कहा है कि, "हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 7(ए) के तहत 'आत्मसम्मान' विवाह या 'सुयमरियाथाई' को सार्वजनिक समारोह या घोषणा की आवश्यकता नहीं है।"

तमिलनाडु सरकार ने 1968 में, सुयमरियाथाई विवाह को वैध बनाने के लिए कानून के प्रावधानों में संशोधन किया था। इसका उद्देश्य, किसी भी शादी की प्रक्रिया को सरल बनाते हुए ब्राह्मण पुजारियों, पवित्र अग्नि और सप्तपदी (सात चरण) की अनिवार्यता को खत्म करना था।" यानी हिंदू विवाह पद्धति की सबसे अनिवार्य तत्व अग्नि और सप्तपदी को भी इस कानूनी संशोधन ने, मान्यता नहीं दी है। 

इसी आदेश  के साथ सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास उच्च न्यायालय के 2014 के फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें कहा गया था कि, "अधिवक्ताओं द्वारा कराई गई शादियां वैध नहीं हैं और ‘सुयमरियाथाई’ या ‘आत्म-सम्मान’ विवाह को संपन्न नहीं किया जा सकता है।" 

सुप्रीम कोर्ट ने 29 अगस्त को आत्मसम्मान विवाह पर फैसला सुनाते हुए है कहा, "तमिलनाडु में, संशोधित हिंदू विवाह कानून के तहत वकील परस्पर सहमति से दो वयस्कों के बीच 'सुयमरियाथाई' (आत्मसम्मान) विवाह संपन्न करा सकते हैं।" इस मामले में जस्टिस एस रवींद्र भट्ट और जस्टिस अरविंद कुमार की पीठ ने यह भी कहा कि, "वकील अदालत के अधिकारियों के रूप में पेशेवर क्षमता में काम नहीं कर रहे हैं, बल्कि व्यक्तिगत रूप से दंपती को जानने के आधार पर वो कानून की धारा-7(ए) के तहत विवाह करा सकते हैं।"

अब सुयमरियाथाई विवाह का कानूनी पक्ष देखें। आत्मसम्मान विवाह या सुयमरियाथाई विवाह प्रथा, तमिलनाडु में 1968 से शुरू हुई है। साल 1968 में हिंदू विवाह  (तमिलनाडु संशोधन) अधिनियम, 1967 पारित किया गया. जिसमें धारा 7A के तहत हिंदू विवाह अधिनियम 1955 को संशोधित किया गया था। यह विशेष प्रावधान उन "दो वायस्क स्त्री पुरुष को बिना, किसी, धार्मिक रीति-रिवाज का पालन करते हुये, शादी करने की अनुमति देता है, जिनकी उम्र कानूनी रूप से शादी के लायक हैं।"

आत्मसम्मान विवाह में पुजारी, अग्नि या किसी भी तरह की शादी के, धार्मिक या परंपरागत रीति रिवाजों के पालन करने की जरुरत नहीं होती है। दो वयस्क, स्त्री पुरुष द्वारा अपने जानने वालों की मौजूदगी में, एक-दूसरे को पति-पत्नी मान लेना भी, इस विवाह को स्वीकृति प्रदान करता और, विवाह को, वैध बनाता है। हालांकि ऐसी शादियों को कानूनी रूप से पंजीकृत करना भी जरूरी है। साथ ही, ऐसी शादियां आमतौर पर रिश्तेदारों, दोस्तों या अन्य लोगों की मौजूदगी में की जा सकती हैं। 

आत्मसम्मान विवाह या तमिल में, सुयमरियाथाई, पेरियार के सुधारवादी आंदोलनों का एक परिणाम है। तमिल समाज सुधारक पेरियार ने 1925 में आत्मसम्मान आंदोलन का नेतृत्व किया था, जिसका मकसद जात-पात के भेदभाव को दूर करना और समाज में जिन जातियों को नीचा दिखाया जाता है, उन्हें समाज में एक समान अधिकार दिलाना था।  आत्मसम्मान विवाह के अभियान को आत्मसम्मान आंदोलन के एक बड़े अंग के रूप में चलाया गया था। 

पहला स्वाभिमान विवाह 1928 में, खुद पेरियार ने संपन्न कराया था, जिसमें दो जातियों के भेदभावों को दूर कर, दो लोगों के एक-दूसरे के साथ जीने की आजादी की मांग भी थी. ये शादियां किसी भी जाति में की जा सकती हैं। 

आत्मसम्मान विवाह का वर्तमान विवाद, मद्रास हाईकोर्ट की एक कार्रवाई के बाद चर्चा में आया है। मई 2023 में मद्रास हाईकोर्ट ने, तमिलनाडु राज्य बार काउंसिल को, उन वकीलों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने का आदेश दिया था जो अपने कार्यालयों या ट्रेड यूनियन कार्यालयों में, इस आत्मसम्मान विवाह कानून के अंतर्गत, गुप्त शादियां करवा रहे थे और साथ ही विवाह प्रमाण पत्र भी जारी कर रहे थे। 

मद्रास हाईकोर्ट के मदुरै पीठ के जज एम. धंदापानी और न्यायमूर्ति आर. विजयकुमार की पीठ ने कहा कि, "आत्म-सम्मान विवाह सहित सभी विवाहों को तमिलनाडु विवाह पंजीकरण अधिनियम, 2009 के तहत पंजीकृत किया जाना चाहिए. साथ ही उन्होंने कहा कि इसके लिए पार्टियों को अदालत में उपस्थित भी होना होगा।"
उच्च न्यायालय ने एस बालाकृष्णन पांडियन मामले में अपने 2014 के फैसले को सही ठहराया, जिसमें कहा गया था कि, "वकीलों के कार्यालयों और बार एसोसिएशन के कमरों में गोपनीयता से की गई शादी कानून के तहत वैध शादी नहीं हो सकतीं।"

हालांकि, एक अन्य कानून भी धर्म निरपेक्ष विवाह को मान्यता देता है। वह है विशेष विवाह अधिनियम, 1872 जो, ब्रिटिश सरकार द्वारा अंतर-धार्मिक विवाह की अनुमति देने के लिए बनाया गया था, जहां किसी भी पक्ष को अपने संबंधित धर्म को त्यागना नहीं पड़ता था। इस अधियनियम के तहत उचित नियमों का पालन करने के बाद दो लोग धर्म निरपेक्ष विवाह में बंध सकते हैं। इस अधिनियम को 1954 में संसद द्वारा तलाक और अन्य मामलों के प्रावधानों के साथ फिर से पारित किया गया। 

यह अधिनियम पूरे भारत में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन और बौद्ध सहित सभी धर्मों के लोगों पर लागू होता है। इस तरह के विवाह करने की इच्छा रखने वालें लोगों को उस जिले के विवाह अधिकारी को लिखित रूप में एक नोटिस देना जरूरी है, जिसमें नोटिस से ठीक पहले कम से कम एक पक्ष उस जिले में कम से कम 30 दिनों तक रहा हो। 

इस कानून के अंतर्गत, सबसे अधिक आलोचना, इसके प्रावधानों में से एक, धारा 7 की होती है, जिसके अनुसार, कोई भी व्यक्ति नोटिस दिए जाने की तारीख से तीस दिन पहले इस तरह की शादी पर इस आधार पर आपत्ति कर सकता है कि ये अधिनियम की धारा 4 की शर्तों का उल्लंघन होगा। ऐसे मामलों में यदि कोई आपत्ति की गई है तो संबंधित विवाह अधिकारी तब तक विवाह नहीं करा सकता, जब तक कि मामले की जांच न हो जाए और वो संतुष्ट न हो जाए कि ये आपत्ति विवाह के खिलाफ नहीं है.

आज जब समान नागरिक संहिता या यूसीसी को देश के नागरिक कानूनों में एकरूपता लाने वाले एक उपकरण के रूप में देखा जा रहा है, तो, भारतीय समाज में ऐसी बहुत सी प्रथाएं, सामाजिक परंपराएं, और समय समय पर बने कानून हैं, जो भारतीय बहुलतावाद को प्रतिबिंबित है, अक्सर एक चुनौती के रूप में खड़े दिखते हैं। हिंदू विवाह पद्धति में सप्तपदी का सबसे अधिक महत्व माना जाता है और इस प्रथा को, हिंदू विवाह को, पूर्ण मान्यता देने वाले कदम के रूप में स्वीकार किया जाता है, पर तमिलनाडु के 'आत्मसम्मान' विवाह में ऐसी किसी भी प्रथा को कानूनन अमान्य कर दिया गया है। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Friday, 8 September 2023

संसदीय अधिवेशन और विशेष सत्र / विजय शंकर सिंह

संसद का सत्र बुलाने की शक्ति सरकार के पास है। यह निर्णय संसदीय मामलों की कैबिनेट समिति द्वारा लिया जाता है, और राष्ट्रपति द्वारा औपचारिक रूप दिया जाता है, जिनके नाम पर सांसदों को एक सत्र के लिए बुलाया जाता है।

भारत में कोई निश्चित संसदीय कैलेंडर नहीं है।  परंपरा के अनुसार, संसद की बैठक एक वर्ष में तीन सत्रों के लिए होती है।  
० सबसे लंबा, बजट सत्र, जनवरी के अंत में शुरू होता है, और अप्रैल के अंत या मई के पहले सप्ताह तक समाप्त होता है।  सत्र में अवकाश का प्राविधान इसलिए किया गया है, ताकि संसदीय समितियां बजटीय प्रस्तावों पर चर्चा कर सकें।
० दूसरा सत्र तीन सप्ताह का मानसून सत्र है, जो आमतौर पर जुलाई में शुरू होता है और अगस्त में समाप्त होता है।  
० संसदीय वर्ष का समापन तीन सप्ताह लंबे शीतकालीन सत्र के साथ होता है, जो नवंबर से दिसंबर तक आयोजित होता है।

1955 में, लोकसभा की सामान्य प्रयोजन समिति द्वारा, संसदीय अधिवेशनों के आयोजित करने की, एक सामान्य योजना की सिफारिश की गई थी। इस सिफारिश को, जवाहरलाल नेहरू सरकार ने स्वीकार भी कर लिया था, लेकिन इसे लागू नहीं किया जा सका। 

संसद के अनुसार, संसद का अधिवेशन आहूत करने संबंधी प्राविधान, संविधान के अनुच्छेद 85 में दिए गए है। यह अनुच्छेद, संविधान के अनेक अनुच्छेदों  की ही तरह, भारत सरकार अधिनियम, 1935 (Government of India Act 1935) के एक प्रावधान पर आधारित है, जो यह कहता है कि, "केंद्रीय विधायिका (तब की सेंट्रल असेंबली, जो अब संसद है) को वर्ष में कम से कम एक बार बुलाया जाना चाहिए, और दो सत्रों के बीच 12 महीने से अधिक का समय नहीं होना चाहिए।"

तब सेंट्रल असेंबली की भूमिका सीमित थी और लोकतंत्र बराए नाम था, और वायसरॉय तथा उनकी काउंसिल ही, भारत की भाग्य विधाता थी। वायसरॉय और उसकी काउंसिल, ब्रिटिश संसद को, रिपोर्ट करती थी। सेंट्रल असेंबली के सदस्यों की भूमिका सीमित थी और अधिकतर वे राजभक्त थे। 

सेंट्रल असेंबली के इस प्राविधान पर, संविधान सभा में, हालाँकि, डॉ. बीआर अम्बेडकर ने कहा था कि, "उस प्रावधान का उद्देश्य केवल राजस्व इकट्ठा करने के लिए विधायिका को बुलाना था, और साल में एक बार बैठक विधायिका द्वारा सरकार की आलोचना से बचने के लिए डिज़ाइन की गई थी।" 
इसके बाद, संविधान सभा ने, हमारे संविधान के संसदीय अधिवेशन से संबंधित प्रावधान, के उसके आहूत सत्रों के बीच के, अंतर को छह महीने तक कम कर दिया, और निर्दिष्ट किया कि, "संसद को वर्ष में कम से कम दो बार अपनी बैठक करनी चाहिए।"

डॉ आंबेडकर ने यह भी कहा कि, “जैसा कि यह खंड (प्राविधान) मौजूद है, विधायिका को खंड में दिए गए प्रावधान (साल में दो बार) से अधिक बार बुलाए जाने से रोकता नही है। वास्तव में, मुझे डर यह है, अगर मैं ऐसा कह सकूं, कि, संसद के सत्र इतने बार-बार और इतने लंबे होंगे कि, विधायिका के सदस्य शायद सत्रों से थक जाएंगे।” 
इसीलिए आंबेडकर, लंबे सत्रों की परंपरा बनने देने के लिए सहमत नहीं थे। 

संविधान सभा के डिबेट्स के अनुसार, इस विंदु पर भी बहस हुई और बिहार के,  प्रोफेसर के टी शाह ने अपनी बात रखी और सलाह दी कि, "संसद की बैठक पूरे साल, बीच-बीच में अंतराल के साथ, चलनी चाहिए।"
प्रोफेसर केटी शाह यह भी चाहते थे कि, "दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को कुछ परिस्थितियों में संसद बुलाने का अधिकार भी दिया जाए।"
लेकिन सभा ने इन सुझावों को स्वीकार नहीं किया गया और डॉ आंबेडकर का ही सुझाव माना गया, जो, अनुच्छेद 85 का अंग बना।

यदि संसदीय बैठकों के दिनवार संख्या का, आकलन करें तो, यह स्पष्ट होता है कि, पिछले कुछ वर्षों में संसद की बैठकों में गिरावट आई है। बैठकों के दिन भी, दिन पर दिन कम होते गए हैं, और प्रतिभागी भी उनमें पर्याप्त संख्या में नहीं आ रहे हैं। एकाध बार तो, कोरम की भी दिक्कत हुई है। लेकिन, संसद के पहले दो दशकों के दौरान, लोकसभा की बैठकें वर्ष में औसतन 120 दिन से कुछ अधिक होती थीं। जबकि, हाल के दशक में यह घटकर लगभग 70 दिन की रह गई है।  

नियमित सत्रों के अतिरिक्त, कुछ विशेष सत्र भी आहूत किए गए हैं। एक विशेष सत्र तो, अभी इसी 18 सितंबर को, पांच दिन के लिए बुलाया गया है, जिसका उद्देश्य और एजेंडा अभी तक स्पष्ट नहीं है। बस लोगों द्वारा कयास लगाए जा रहे हैं। कुछ का अनुमान है कि, यह, लोकसभा के शीघ्र चुनाव के लिए आहूत है तो, कुछ का अनुमान है, ओबीसी के लिए गठित रोहिणी बिल पर चर्चा के लिए तो कुछ का यह भी कहना है कि, कोई मनी बिल भी आ सकता है। फिलहाल अभी कोई अधिकृत एजेंडा, सामने नहीं आया है। 

आगामी विशेष सत्र, जो 18 सितंबर को बुलाया गया है, वह, नियमित रूप से निर्धारित बजट, मानसून और शीतकालीन सत्र के अलावा, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा आयोजित दूसरा विशेष सत्र होगा। पिछली बार संसद ने इसी तरह का एक विशेष सत्र, साल, 2017 में आयोजित किया था। लोकसभा और राज्यसभा दोनों की आधी रात की उस बैठक में, सरकार ने वस्तु और सेवा कर (GST) जीएसटी लागू किया था। तब जीएसटी को, आजादी के बाद का, सबसे बड़ा अप्रत्यक्ष कर सुधार बताया गया था, और उम्मीद की गई थी, यह पूरे कर ढांचे को, बदल कर रख देगा। कर ढांचा तो बदला, पर, जीएसटी से, अनेक बड़ी जटिलताएं भी उत्पन्न हुई, जिसका असर, अर्थ और व्यापार पर अनुकूल नहीं पड़ा और कर प्रशासन में, तरह तरह के कनफ्यूजन भी सामने आए और भी आ रहे हैं।

यह भी पहली बार ही था कि, कोई विधायी अधिनियम (जीएसटी) एक विशेष मध्यरात्रि सत्र में पारित करने के लिए बुलाया गया। विशेष सत्र पहले भी बुलाए गए थे, पर, उनका उद्देश्य और विषय, ऐतिहासिक महत्व की घटनाओं को स्मरण करना था, न कि कोई नियमित विधाई कार्य संपन्न कराना था।

उपरोक्त के अतिरिक्त, संसद के विशेष सत्रों की क्रोनोलॉजी देखें...
० पहली बार, 14-15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर।
० दूसरी बार, 15 अगस्त 1972 को स्वतंत्रता की रजत जयंती मनाने के लिए। 
० तीसरी बार, 9 अगस्त 1992 को भारत छोड़ो आंदोलन की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर।
० चौथा विशेष सत्र, 15 अगस्त 1997 को मध्यरात्रि, स्वाधीनता दिवस की पचासवीं वर्षगांठ पर, आयोजित किया  गया था। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Thursday, 7 September 2023

सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 के संबंध में सुनवाई (15.2) / विजय शंकर सिंह

सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, संजीव खन्ना, बीआर गवई, सूर्यकांत की संविधान पीठ के समक्ष धारा 370 की सुनवाई के पंद्रहवें दिन (दिनांक 4 सितंबर 2023) धारा 370 मामले में केंद्र सरकार और अन्य प्रतिवादियों की दलीलें समाप्त हो गईं। फिर से समापन टिप्पणी (concluding remarks) के लिए  याचिकाकर्ताओं को अवसर दिया गया। इस तरह एक प्रतिउत्तर तर्क (Rejoinder arguments) की शुरुआत हुई। 
० जम्मू-कश्मीर विलय को ऐतिहासिक संदर्भ में अवश्य देखें

प्रतिवादी पक्ष की बहस का उत्तर देते हुए, शुरुआत में, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने तर्क दिया कि, "उत्तरदाताओं द्वारा उठाए गए अधिकांश तर्क "अनचाहे" (unwanted) और याचिकाकर्ताओं द्वारा दिए गए तर्कों के "संदर्भ के बिना" (out of context) थे।" 
उन्होंने स्पष्ट किया कि, "याचिकाकर्ताओं की ओर से किसी ने भी भारत की संप्रभुता को चुनौती नहीं दी है।"  
अपना निवेदन जारी रखते हुए उन्होंने कहा, 
"मुझे कुछ दुख हुआ, जब एक वकील ने तर्क दिया कि, हम जम्मू-कश्मीर के लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हैं लेकिन आपको भी हमारी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। हम इस मामले को भारत के संविधान की भावनात्मक, बहुसंख्यकवादी व्याख्या तक सीमित नहीं कर सकते। जम्मू-कश्मीर के सभी निवासी  भारत के नागरिक हैं। यदि ऐतिहासिक रूप से कोई अनुच्छेद है जो उन्हें कुछ अधिकार देता है, तो वे कानून के रूप में इसका बचाव करने के हकदार हैं। यह कहना कि आपको हमारी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए जैसे कि वे कोई और ही हों, एक तरह का निर्माण करना है  इससे कोई खाई पैदा नहीं होनी चाहिए।"

इसके बाद कपिल सिब्बल ने अनुच्छेद 370 की ऐतिहासिक संदर्भ में व्याख्या करने के लिए पीठ को जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के इतिहास की जानकारी दी। उन्होंने कहा कि, "अन्य रियासतों के विपरीत, जम्मू और कश्मीर का भौगोलिक रूप से भारत के साथ कोई संबंध नहीं था और जिन दो सिद्धांतों के आधार पर विलय होना था, वे निकटता और जनसंख्या थे और उक्त निर्णय शासक द्वारा लिया जाना था। इस प्रकार, ऐतिहासिक संदर्भ में, किसी को यह ध्यान रखना चाहिए कि जम्मू और कश्मीर में जो कुछ हुआ वह केवल यह सुनिश्चित करने के लिए था कि जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन जाए।"

० क्या अनुच्छेद 370 को बुनियादी ढांचे से ऊपर रखा जा सकता है?

वरिष्ठ अधिवक्ता ने, तब जोर देकर कहा कि, "उत्तरदाताओं (Respondents) द्वारा दिया गया यह तर्क कि, संसद के पास जम्मू और कश्मीर को लागू करने के लिए संविधान के तहत पूर्ण शक्तियां थीं, गलत था। क्योंकि जम्मू और कश्मीर के संबंध में कानून बनाने की संसद की शक्ति अनुच्छेद 370 द्वारा सीमित थी।  इस प्रकार, संसद के पास ऐसी कोई पूर्ण शक्ति नहीं थी और यह तय करना मंत्रिपरिषद का काम था कि जम्मू और कश्मीर पर कौन से कानून लागू होंगे, न कि संसद को। उन्होंने कहा कि यह सुनिश्चित करना था कि, एक ऐसी प्रक्रिया के माध्यम से जम्मू-कश्मीर का भारत में धीमी गति से एकीकरण हो जो आसान हो और दोनों अधिकारियों को एक-दूसरे के साथ संवाद करने की अनुमति दे।"
सिब्बल ने कहा कि, "अनुच्छेद 370(3) के अनुसार, पहला कदम संविधान सभा से सिफारिश करना था और उसके बाद ही राष्ट्रपति कोई आदेश पारित कर सकते थे।" 
उन्होंने कहा, "आप आदेश को उलट नहीं सकते।"

इस मौके पर सीजेआई ने टिप्पणी की कि, भारतीय संविधान में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि, "जम्मू-कश्मीर संविधान लागू होने के बाद क्या किया जाना है और इस संबंध में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है।"
इस प्रकार, उन्होंने कहा कि, "एकीकरण समाप्त होने के बाद अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं होने के संदर्भ में, अनुच्छेद 370 में कुछ 'चुप्पी' बाकी थीं।" 
इस पर सिब्बल ने टिप्पणी की, "संविधान की व्याख्या की जानी है...हमें यह नहीं देखना है कि संविधान में क्या चुप्पी है।"

 सीजेआई ने तब कहा, "आपके तर्क को स्वीकार करने के लिए, हमें प्रावधान में एक और शर्त पढ़नी होगी कि, संविधान सभा की सिफारिश राष्ट्रपति द्वारा प्रस्तावित कार्रवाई के समान शर्तों पर होनी चाहिए। लेकिन यह प्रावधान में नहीं है।"
सिब्बल ने जवाब दिया कि, "अब तक, परंतुक की कभी भी उस तरह से व्याख्या नहीं की गई थी जैसी कि भारत संघ व्याख्या करना चाह रहा था।"
न्यायमूर्ति खन्ना ने तुरंत जवाब देते हुए कहा कि, "ऐसा अवसर पहले कभी नहीं आया।" 
तब सीजेआई ने की टिप्पणी, "खंड (3) के परंतुक पर आपके प्रस्तुतीकरण का अनुक्रम यह है कि, एक बार जब संविधान सभा ने जम्मू-कश्मीर का संविधान तैयार कर लिया, तो प्रावधान का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इस स्थिति में, 370 एक स्थायी चरित्र मान लिया जाता है...तो इसमें हमारे संविधान में एक प्रावधान है, जो मूल संरचना से ऊपर है?"

सीजेआई ने टिप्पणी कि, "जम्मू-कश्मीर पर लागू अनुच्छेद 368 के अनुसार, संसद की संशोधन शक्ति अनुच्छेद 370 के संबंध में लागू नहीं की जा सकती है। ऐसा इसलिए था क्योंकि 1954 के संविधान (जम्मू-कश्मीर पर लागू) आदेश में अनुच्छेद में एक प्रावधान जोड़ा गया था। अनुच्छेद 368 में कहा गया है, "बशर्ते कि ऐसा कोई भी संशोधन जम्मू और कश्मीर राज्य के संबंध में तब तक प्रभावी नहीं होगा जब तक कि अनुच्छेद 370 के खंड (1) के तहत राष्ट्रपति के आदेश द्वारा लागू नहीं किया जाता है"। परिणामस्वरूप, अनुच्छेद 370 संसद की संशोधन शक्ति से परे था। इसलिए, यदि 370(3) का उपयोग जम्मू-कश्मीर संविधान सभा की सिफारिश के बिना अनुच्छेद को निरस्त करने के लिए नहीं किया जा सकता है, जिसका अस्तित्व 1957 के बाद समाप्त हो गया, तो इसका मतलब यह होगा कि 370 को बिल्कुल भी नहीं छुआ जा सकता है।"
आगे विस्तार से बताते हुए सीजेआई ने कहा, "तो आप कह रहे हैं कि अनुच्छेद में संशोधन करने की शक्ति अनुच्छेद में ही निहित है और इसलिए हम एक ऐसे प्रावधान से निपट रहे हैं जो शायद मूल संरचना सिद्धांत से भी ऊंचा है।"

सिब्बल ने नकारात्मक जवाब दिया और कहा कि "यह याचिकाकर्ता का तर्क बिल्कुल नहीं था। उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता कोई समाधान देने के लिए नहीं थे और पूरा अधिनियम एक राजनीतिक कृत्य और एक राजनीतिक प्रक्रिया है जिसका राजनीतिक समाधान भी होना चाहिए।"
सीजेआई ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा, "तो आपके अनुसार, संविधान के भीतर कश्मीर का कोई समाधान नहीं है? अंततः यही तर्क है - कि समाधान राजनीतिक होना चाहिए। लेकिन सभी समाधान संविधान के ढांचे के भीतर होने चाहिए।"
इस पर सिब्बल ने दोहराया कि संघ के लिए उचित समाधान ढूंढना न तो अदालत का कर्तव्य है और न ही याचिकाकर्ताओं का।  उन्होंने कहा कि न्यायालय अनुच्छेद 370 को कैसे निरस्त किया जाए, इस बारे में सलाहकारी अधिकार क्षेत्र में नहीं बैठा है। वर्तमान कार्यवाही केवल संघ द्वारा पहले से ही की गई कार्रवाइयों की वैधता तय करने के लिए है, न कि संघ को सलाह देने के लिए।"

० अनुच्छेद 356 का गलत उपयोग

वरिष्ठ अधिवक्ता सिब्बल की दलीलों का अगला चरण इस बात पर केंद्रित था कि, अनुच्छेद 356 का प्रयोग कैसे अवैध था।  उन्होंने कहा कि, "संघ ने पहले संविधान सभा को विधान सभा से प्रतिस्थापित किया और फिर अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया, जिसके द्वारा उसने संसद को अपनी सहमति देने के लिए विधान सभा बना दिया।"
उसी को अस्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, "अनुच्छेद 356 के तहत प्रक्रिया यह है कि, आप विधानसभा को निलंबित अवस्था में रखते हैं, यदि आपको लगता है कि कोई संभावना नहीं है, तो 356 लगाने के बाद, आप भंग कर देते हैं और चुनाव कराते हैं।"

सिब्बल ने तब तर्क दिया कि सही प्रक्रिया निम्नलिखित होती, "उन्हें (राज्यपाल को) यह सिफ़ारिश करनी पड़ी होगी कि वे संविधान के प्रावधानों के अनुसार काम नहीं कर रहे हैं - क्योंकि राज्यपाल 6 महीने से शासन कर रहे थे। आप कभी भी विधानसभा को तुरंत भंग नहीं करते क्योंकि तब आपको चुनाव कराने होंगे। डेमोक्रेटिक  प्रक्रिया को ख़राब नहीं किया जा सकता।"
सुनवाई अभी जारी है। 

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

'सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 के संबंध में सुनवाई (15.1) / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/09/370-151.html

Wednesday, 6 September 2023

दिल्ली में शिवलिंग के सजावटी फव्वारे / विजय शंकर सिंह



जब काशी विश्वनाथ कॉरिडोर बन रहा था, तब असी नदी में और जहां तहां, काफी अधिक संख्या में, शिवलिंग उपेक्षित रूप से इधर उधर बिखरे पाए गए थे। लोग अक्रोशित थे और उन्हे शिव की ही नगरी में, शिव का यह अनादर और अपमान आहत कर रहा था। तब आज के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद जी भी वहां गए थे और उन्होंने रोष जताया था। तब तो बाबा का मॉल बन रहा था। लोग इसी पिनक में थे,  बाबा का 'उद्धार' हो रहा है। यह भी वे भूल गए कि, सबका उद्धार करने वाले बाबा का उद्धार करने वाला कौन पैदा हो गया ! बात आई गई हो गई। 

काशी विश्वनाथ मंदिर में, शिव की कचहरी तोड़ दी गई, पंच विनायकों के लंबे समय से पूजित विग्रह हटा दिए गए, पंचकोशी यात्रा मार्ग कहां खो गया, यह पता नहीं, उसी परिसर में प्रतिष्ठित मां अन्नपूर्णा कहां चली गई, यह आज तक नहीं पता चला और अब वहां होटल या गेस्ट हाउस खुल गया है। तीर्थ, अब पर्यटन में बदल गया और काशी भी वही है, बाबा भी वहीं हैं, बस बदला तो आस्था और अध्यात्म, जो एक बाजार के रूप में तब्दील हो गया। 

इसी तरह से दिल्ली में G 20 की महत्वपूर्ण बैठक हो रही है, दिल्ली सजाई बजाई जा रही है, दिल्ली के कुछ हिस्सों में, सुरक्षा के कारण आवागमन पर प्रतिबंध है, पर कोई बात नहीं, हमारा समाज, अतिथि देवो भव है तो, यह सब कष्ट कुछ ही दिनों का है, बीत ही जायेगा। वैसे भी कष्ट सहने की एक सनातन मनोवृत्ति भी हममें है। 

दिल्ली सजाने के क्रम में, शहर में, जगह जगह फव्वारे बनाए गए और फव्वारे की शक्ल में, और कोई स्थापत्य या मूर्ति या कलाकृति, दिल्ली सरकार यानी एलजी, (अब तो वही हाकिम ए आला है) को, नहीं मिली तो, उन्होंने शिव को शिवलिंग के ही रूप में, फव्वारों में लगवा दिया। शिवलिंग के कतारों में लगे फव्वारों की फोटो, अखबारो और सोशल मीडिया में घूम रही है। इस पर आस्था के  कारोबारी चुप हैं। अभी किसी सनातनी संत महात्मा के आहत होने की खबर, नहीं दिखी है। 

सड़क पर लगे हुए, शिवलिंग की कतार से जुड़े यह फव्वारे, किसी की आस्था आहत करते हैं या नहीं, यह तो लोगों की, अपनी अपनी आस्था के गुणांक पर निर्भर है, पर इस तरह से, शिवलिंग का एक सजावटी फव्वारे के रूप में, जगह जगह उपयोग करना, क्या सनातन धर्म का अपमान नहीं है? यह सवाल पूछते समय मुझे Purushottam Agrawal सर का उपन्यास नाकोहस याद आ रहा है। 

अभी कुछ दिन पहले, एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें, एक मंत्री, शिव के अरघा में हांथ धोते देखे गए। यह भी पहली ही बार है, कि, शिव का पवित्र अरघा, जिसके जल से आचमन किया जाता है, उसमें वे वाश बेसिन की तरह हांथ धो रहे हैं। पर इस पर किसी की भी भावना आहत नहीं हुई और यह खबर भी आई गई हो गई। 

आज के अखबारो में एक खबर दिखी की, आम आदमी पार्टी ने लेफ्टिनेंट गवर्नर के खिलाफ, शिवलिंग के फव्वारे के रूप में, उपयोग करने को लेकर,  शिकायत दर्ज कराई है। इस शिकायत पर जब पत्रकारों ने, एलजी से पूछा तो, एलजी ने कहा, कि, "वह एक आकार है, शिवलिंग नहीं, फिर भी किसी को उसमे शिव दिखते हैं तो, कोई बात नहीं, भगवान तो कण कण में है।"

बात तो लेफ्टिनेंट गवर्नर साहब बहादुर की भी सही है कि, कण कण में भगवान हैं, पर क्या एक ऐसे देश में, जहां, सौंदर्य बोध की एक समृद्ध परंपरा रही है, शहर को सजाने के लिए किसी ऐसे प्रतीक या कलाकृति का उपयोग नहीं किया जा सकता था, जो विविध रूपों और आकारों में हो, उससे किसी देव प्रतिमा का साम्य भी न हो रहा हो, और सब कुछ आकर्षक और सुंदर भी दिखे ?

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Tuesday, 5 September 2023

सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 के संबंध में सुनवाई (15.1) / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के समक्ष अनुच्छेद 370 को संशोधित करने के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई के पंद्रहवें दिन (दिनांक 4 सितंबर 2023) केंद्र सरकार और अन्य प्रतिवादियों (Respondents) ने भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बीआर गवई और सूर्यकांत की पीठ के समक्ष अपनी दलीलें समाप्त कीं। 

० अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान की सामान्य संघीय विशेषताओं के अनुरूप नहीं था।

पिछले दिन की सुनवाई से अपनी दलीलें जारी रखते हुए, वरिष्ठ अधिवक्ता, वी गिरी ने तर्क दिया कि, "अनुच्छेद 370 ने जम्मू और कश्मीर के लिए एक ऐसा राज्य या क्षेत्र बनाया, जो देश के बाकी हिस्सों (अन्य राज्यों) के लिए संविधान की सामान्य संघीय विशेषताओं के साथ, 'समान' नहीं था।"
उन्होंने कहा कि, "यह अनुच्छेद केंद्र और जम्मू-कश्मीर के बीच संबंधों को एक अलग स्तर पर स्थापित करता है जो, केंद्र और अन्य राज्यों के बीच के संबंधों से अलग है।"
उन्होंने कहा कि, "जब संवैधानिक आदेश 272 द्वारा अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया और भारतीय संविधान के सभी प्रावधान जम्मू और कश्मीर पर लागू हो गए, तो जम्मू और कश्मीर राज्य 'पूरी तरह से अन्य सभी राज्यों के बराबर' राज्य बन गया।"

एडवोकेट वी गिरि ने, आगे कहा कि, "अगर अनुच्छेद 370 को पुनर्जीवित किया गया तो, यह भारतीय संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन होगा।"
लेकिन, संविधान पीठ की तरफ से, सीजेआई ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुए इसे असमर्थनीय दलील  (Untenable argument) बताते हुए, अपनी आपत्ति व्यक्त की, "यह थोड़ा दूर की कौड़ी लगती है क्योंकि तब यह मान लिया जाएगा कि मूल अनुच्छेद 370 बुनियादी ढांचे का उल्लंघन था।"
जब गिरि ने जोर देकर कहा कि, "अनुच्छेद 370, जिस समय अस्तित्व में था, उसे पहले ही जमीन पर चुनौती दी जा चुकी थी।"
सीजेआई ने कहा, "आप हमें एक असमर्थनीय प्रस्ताव पर अपना पक्ष रखने के लिए आमंत्रित नहीं कर सकते।"

० 370(3) के तहत राष्ट्रपति की असाधारण शक्ति को बिना किसी प्रतिबंध के पढ़ा जाना चाहिए। 

भारत संघ की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज ने जोर देकर कहा कि, "अनुच्छेद 370 संविधान में एकमात्र प्रावधान था जिसमें 'आत्म-विनाश तंत्र' था।"
उन्होंने आगे तर्क दिया कि, "अनुच्छेद 370, जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को किसी भी प्रकार का अधिकार प्रदान नहीं करता है और वास्तव में, अनुच्छेद 370 के निरंतर जारी रहने से, जम्मू-कश्मीर के नागरिकों और देश के अन्य नागरिकों के बीच भेदभाव हुआ है और इस प्रकार, भारतीय संविधान ने, इसकी मूल संरचना का विरोध किया था।"

अनुच्छेद 370 को अनुच्छेद 368 के साथ जोड़ते हुए, एएसजी ने प्रस्तुत किया कि, "जहां तक ​​अनुच्छेद 370 के तहत प्रक्रिया का संबंध है, संघवाद के सिद्धांत का कोई अनुप्रयोग नहीं है।"  
उन्होंने कहा कि, "अनुच्छेद 368 संविधान में संशोधन के संदर्भ में संघवाद को मान्यता देता है और सामूहिक सहमति सिद्धांत भी पेश करता है। हालाँकि, अनुच्छेद 370 में 'सिफारिश' शब्द का इस्तेमाल किया गया था और इस प्रकार, उन्होंने कहा कि "इन दोनों लेखों को एक अलग भाषा में एक साथ पढ़ने से उनमें से कोई भी निरर्थक हो जाएगा।"

न्यायमूर्ति खन्ना ने एएसजी की दलीलों को स्पष्ट करते हुए टिप्पणी की, "मिस्टर नटराज, शायद, आप जो उजागर करने की कोशिश कर रहे हैं, वह यह है कि, यह तर्क कि, 370 को निरस्त करने के कारण संघीय ढांचा प्रभावित होता है, इस कारण से, स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए कि, संघीय ढांचा 368 द्वारा संरक्षित है।"
एएसजी नटराज ने सकारात्मक जवाब दिया और रेखांकित किया कि, "अनुच्छेद 370(3) के अंतर्गत राष्ट्रपति को प्रदान की गई शक्ति, एक "अद्वितीय, असाधारण शक्ति" थी और इसमें घटक शक्ति, कार्यकारी शक्ति और विधायी शक्ति के तत्व, सभी एक में संयुक्त रूप से शामिल थे।"
इस प्रकार, उन्होंने तर्क दिया कि, "ऐसी असाधारण शक्ति को किसी भी सीमा के साथ नहीं पढ़ा जाना चाहिए और इसे पूर्ण अर्थ दिया जाना चाहिए।"

० सीओ 272 में कोई ठोस बदलाव नहीं किया गया, बस एक अंतर्निहित प्रावधान को मान्यता दी गई। 

वरिष्ठ वकील महेश जेठमलानी उन हस्तक्षेपकर्ताओं की ओर से पेश हो रहे थे जो जम्मू-कश्मीर में गुज्जर बकरवाल समुदाय के सदस्य थे। जेठमलानी ने पीठ को बताया कि, "गुज्जर बकरवाल एक अनुसूचित जनजाति है और जम्मू-कश्मीर की कुल अनुसूचित जनजाति आबादी का 73.25% से अधिक है।  उन्होंने कहा कि समुदाय ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने का समर्थन इसलिए किया क्योंकि संशोधन से पहले, अनुसूचित जनजातियों से संबंधित, भारतीय संविधान के प्रावधान कभी भी जम्मू और कश्मीर में लागू नहीं किए गए थे।"
अपने तर्कों में, जेठमलानी ने जोर देकर कहा कि, "जहां तक ​​राजनीतिक संप्रभुता का सवाल है, यह केंद्र सरकार के पास है और इसे भारतीय और जम्मू-कश्मीर दोनों संविधानों की 'प्रस्तावना पर एक साधारण नज़र' से साबित किया जा सकता है।" 
उन्होंने रेखांकित किया कि, "जबकि 'संप्रभु' शब्द भारतीय संविधान में एक प्रमुख विशेषता थी, इसके विपरीत, जम्मू और कश्मीर संविधान की प्रस्तावना में संप्रभुता का कोई उल्लेख नहीं था। और यहां तक ​​कि संघ और राज्य के मौजूदा संबंधों को भी परिभाषित किया गया था।" 

सीनियर एडवोकेट महेश जेठमलानी के अनुसार, "यह 'राज्य पर संघ की संप्रभुता की स्वीकृति' थी।"
उन्होंने कहा कि, "अनुच्छेद 370(3) इस तथ्य का सूचक था कि अंतिम 'कानूनी संप्रभुता' भारत संघ के पास है।"
एडवोकेट महेश जेठमलानी ने, सीओ 10, सीओ 39 और सीओ 48 जैसे विभिन्न संविधान आदेशों के माध्यम से यह साबित करने के लिए पीठ का सहारा लिया कि, "संविधान सभा और विधान सभा जहां तक ​​​​भारत के संविधान पर लागू होते हैं, एक दूसरे के, पर्यायवाची हैं।" 
उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि, "सीओ 48 को पारित करते समय, पहली बार अनुच्छेद 367 मार्ग का उपयोग जम्मू और कश्मीर में भारतीय संविधान के आवेदन में संशोधन करने के लिए किया गया था।"

इस पर सीजेआई ने टिप्पणी की, "तथ्य अभी भी कायम है कि 26 जनवरी, 1957 को जम्मू-कश्मीर का संविधान बनने के बाद, अनुच्छेद 367(4)(डी) को खंड (डी) को हटाने के लिए फिर से संशोधित किया गया था। इसलिए घटक और विधान सभा के बीच समानता उसी क्षण समाप्त हो जाती है  जब जम्मू-कश्मीर का संविधान बन गया है।”
हालाँकि, जेठमलानी ने दावा किया कि, "यह खंड हटा दिया गया था क्योंकि संविधान सभा के विघटन के बाद, जम्मू और कश्मीर की घटक शक्ति अब विधान सभा के पास थी।"
 उन्होंने एसजी की दलील को भी दोहराया कि, "वैकल्पिक निष्कर्ष यह होगा कि कोई भी अनुच्छेद 370 को कभी भी निरस्त नहीं कर सकता।" 
उन्होंने कहा, "367 में संशोधन ने जो कुछ किया वह एक अंतर्निहित प्रावधान को मान्यता देना था। यह न केवल पर्यायवाची था बल्कि उसका उत्तराधिकारी भी था। सीओ 272 ने कोई ठोस परिवर्तन नहीं किया। इसने एक स्पष्ट परिवर्तन किया जो पहले से ही अंतर्निहित था।"

० अधिकारों का परिप्रेक्ष्य प्रक्रियात्मक कमज़ोरियों के सभी आरोपों को झुठलाता है। 

जम्मू-कश्मीर के उस हिस्से, जिसे अब पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर (पीओके) कहा जाता है, से विस्थापित लोगों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता गुरुकृष्ण कुमार ने कहा कि, "याचिकाकर्ताओं द्वारा दी गई चुनौती की वैधता निर्धारित करने के मामले में 'अधिकार परिप्रेक्ष्य' निर्णायक कारक था।"
यह कहते हुए कि, "अधिकारों का परिप्रेक्ष्य, प्रक्रियात्मक कमज़ोरियों के सभी आरोपों को मात देगा", उन्होंने उन आवेदकों द्वारा भोगे गए भेदभाव और अधिकारों के हनन को रेखांकित किया जिनका वे प्रतिनिधित्व कर रहे थे। उन्होंने मुख्य रूप से विभाजन के दौरान विस्थापित हुए लोगों के अधिकारों पर ध्यान केंद्रित किया, जिन्हें, जम्मू और कश्मीर संविधान की धारा 6 और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 35 ए के तहत जम्मू और कश्मीर के 'स्थायी निवासियों' के रूप में मान्यता देने से बाहर रखा गया था। उन्होंने आगे जोड़ा, "मैंने यह स्पष्ट किया है कि, कैसे विभाजन के दौरान लगभग 8700 लोगों ने वह जगह छोड़ दी थी। आज, विवादित सीओ की घोषणा के बाद, कम से कम 23,000 लोगों को अधिवास प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ है।"

यह तर्क देते हुए कि, "विवादित सीओ परिवर्तनकारी संवैधानिकता को दर्शाते हैं, उन्होंने कहा कि सीओ ने यह भी सुनिश्चित किया कि भारत का संविधान अपने सभी पूर्ण दायरे के साथ जम्मू और कश्मीर राज्य पर लागू हो।  उन्होंने कहा, "याचिकाकर्ताओं की चुनौती विरोधाभासी है क्योंकि यह एक ऐसा मामला है जहां भारत के संविधान के आवेदन को चुनौती दी गई है। सीओ (स्वैधानिक आदेश) अधिकारों की प्राप्ति के लिए प्रावधान करते हैं।"

इसके बाद हस्तक्षेपकर्ताओं (आईए दाखिल करने वाले) द्वारा तर्क दिये गये। भारत संघ की ओर से अधिवक्ता कनु अग्रवाल ने तर्क दिया कि, "भारतीय संविधान में संघीय विविधता दो आयामी धरातल पर मौजूद है।"
उन्होंने कहा, "केंद्र में एक राज्य की विशिष्ट  समझ (Classical  Understanding) होगी। इसके दाई तरफ, गुजरात या महाराष्ट्र जैसे विशेष सुविधाओं वाले कुछ ही राज्य होंगे। इसके बाद पांचवीं या छठी अनुसूची के तहत राज्य होंगे। इसके एक ओर पूर्ववर्ती अनुच्छेद 370 होगा।  370 के याचिकाकर्ता यह भूल जाते हैं कि, इसके बायीं ओर भी एक पैमाना है। बायीं ओर का पैमाना विधानमंडल वाले केंद्र शासित प्रदेश, दिल्ली जीएनसीटी का केंद्र शासित प्रदेश और शायद शुद्ध केंद्र शासित प्रदेश है। इसलिए, संघीय विविधता निस्संदेह है।" 

यह कहते हुए कि विविधता एक संवैधानिक तथ्य है, उन्होंने जोर देकर कहा कि, "सभी संवैधानिक तथ्यों को बुनियादी संरचना (मूल ढांचे) के स्तर तक नहीं उठाया जा सकता है।" फिर उन्होंने कहा कि, "घटक शक्तियाँ दो प्रकार की होती हैं- मूल और व्युत्पन्न शक्ति। यह मानते हुए कि इस मामले में संसद जैसी अन्य विधायिकाओं को हमेशा व्युत्पन्न शक्ति प्रदान की जाती थी, उन्होंने जोर देकर कहा कि जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा के पास कोई मूल घटक शक्तियाँ नहीं थीं, क्योंकि वह एक महाराजा की उद्घोषणा के अंतर्गत स्थापित की गई थीं जिन्होंने पहले ही विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे।" 
उन्होंने कहा कि, "महाराजा ने पहले ही भारतीय संविधान की सर्वोच्चता को मान्यता दे दी थी और अनुच्छेद 1 को स्पष्ट रूप से लागू किया गया था। ऐसी स्थिति में, एक महाराजा जो संप्रभु नहीं था, उसके पास जो उपाधि थी, उससे बेहतर कोई उपाधि नहीं हो सकती थी। "यदि वह एक संप्रभु नहीं था, तो संविधान सभा (जम्मू कश्मीर की संविधान सभा) कभी भी एक संप्रभु संविधान सभा नहीं हो सकती थी, कभी भी एक संप्रभु संविधान स्थापित नहीं कर सकती थी। यह स्वचालित रूप से व्युत्पन्न घटक शक्तियों का प्रयोग करती है। यदि यह व्युत्पन्न घटक शक्तियों का प्रयोग कर रही है, तो यह एक विधान सभा के ही समान है।" 

एडिशनल सॉलिसिटर जनरल (एएसजी) विक्रमजीत बनर्जी की ओर से भी अनुच्छेद 370 को 'अस्थायी' प्रावधान मानने की दलीलें दी गईं। अधिवक्ता अर्चना पाठक दवे ने उन महिलाओं के अधिकारों की बात की, जिन्होंने जम्मू-कश्मीर राज्य के बाहर शादी की और उन्हें स्थायी निवास के साथ-साथ रोजगार, छात्रवृत्ति और अचल संपत्ति रखने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। अन्य वकीलों ने जम्मू-कश्मीर के नागरिक की राष्ट्रीयता से जुड़े सम्मान के अधिकार पर सवाल उठाए जाने की बात कही।  2019 से पहले सताए गए लोगों के अधिकारों के उल्लंघन पर भी प्रकाश डाला गया। 

इन सब बहसों के साथ ही उत्तरदाताओं ने, इस मामले में अपनी दलीलें समाप्त कर दीं। 

इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 370 मामले के एक याचिकाकर्ता से भारत की संप्रभुता को स्वीकार करने और भारतीय संविधान के प्रति निष्ठा की पुष्टि करते हुए हलफनामा दाखिल करने को कहा। इसे आप भाग 15.2 में पढ़िएगा। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh

'सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 के संबंध में सुनवाई (14) / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/09/370-14.html

सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 के संबंध में सुनवाई (14) / विजय शंकर सिंह

अनुच्छेद 370 को शुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ कर रही है, जिसमें, सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़,और  जस्टिस संजय किशन कौल, संजीव खन्ना, बीआर गवई और सूर्यकांत, कुल पांच जज हैं। इस संविधान पीठ के समक्ष, अनुच्छेद 370 के संदर्भ में दायर याचिका की सुनवाई के चौदहवें दिन (1 सितंबर2023) प्रतिवादीगण (respondent) द्वारा अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की राष्ट्रपति की शक्तियों और जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सिफारिशी शक्ति से संबंधित, दलीलें पेश की गईं।  

० राजशाही ख़त्म हो गई, याचिकाकर्ता 'डूबते ताज' पर भरोसा कर रहे हैं। 

वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने, पिछले  दिन भी अपनी दलीलें दी थीं और चौदहवें दिन भी अपनी दलीलें जारी रखते हुए कहा कि, "अनुच्छेद 370(3) के मूल भाग के अंतर्गत, प्रदान की गई शक्ति का, यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता है कि, यदि प्राविधान (provosio) समाप्त हो जाता है, तो राष्ट्रपति को प्रदान की गई घटक शक्ति भी समाप्त हो जाती है।" 
आगे उन्होंने इसमें जोड़ा, "हां, जब तक जेकेसीए (जम्मू-कश्मीर संविधान सभा) जीवित है तब तक प्रावधान की एक सीमा है। लेकिन इसकी मृत्यु (समाप्ति)  का अर्थ, मुख्य शक्ति की मृत्यु (समाप्ति) नहीं है।"
यहां मुख्य शक्ति का अर्थ भारत के राष्ट्रपति से है। 

संघवाद के संबंध में, याचिकाकर्ताओं द्वारा दिए गए तर्कों का प्रतिवाद करते हुए, द्विवेदी ने जोर देकर कहा कि, संविधान निर्माता सभी राज्यों के लिए 'समान संघवाद' चाहते थे और वह संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) थी, न कि, राज्यों के बीच कोई विषमता, अंतर या विविधता नहीं, जो विशेष परिस्थितियों के कारण तब हुई थी।  
एडवोकेट राकेश द्विवेदी का तर्क था कि, "विशेष परिस्थितियों पर आधारित शक्ति का कोई भी अंतर, कभी भी स्थायी नहीं हो सकता क्योंकि, जैसे ही परिस्थितियाँ बदलती हैं, उन प्रावधानों को भी बदलना पड़ता है।"

एडवोकेट राकेश द्विवेदी आशय यह है कि, अनुच्छेद 370 एक असामान्य या विशेष परिस्थितियों में, भारतीय संविधान के अंतर्गत लाया गया प्राविधान था। और जब स्थितियां, सामान्य हो गईं तो, वह अनुच्छेद, जो असामान्य परिस्थितियों के कारण इंट्रोड्यूस किया गया था, अब सामान्य स्थितियों में, उसे हटा दिया गया। 

इसे और विस्तार से समझते हुए सीनियर एडवोकेट राकेश द्विवेदी ने कहा, "सवार  (जम्मू कश्मीर की विधान सभा) जाता (यानी भंग हो जाती) है, मुख्य भाग (अनुच्छेद 370 के अधीन संघ की शक्तियों) का विस्तार (विधान सभा की विधाई शक्तियां, संसद में समाहित) हो जाती है। प्राविधान जाता है, मुख्य भाग का विस्तार होता है और अनुमोदन की कोई आवश्यकता नहीं होगी। राष्ट्रपति का अर्थ है, मंत्रिपरिषद और मंत्रिपरिषद का अर्थ है, संसद के प्रति सामूहिक रूप से जिम्मेदारी। इसलिए अनुच्छेद 53 के साथ पढ़ें  73 और 75(3) के साथ पढ़ें, मंत्रिपरिषद, अपने विचार प्राप्त करने के लिए किसी भी समय संसद में जा सकती है।"

एडवोकेट राकेश द्विवेदी ने कहा कि, "राष्ट्रपति ने इसे रद्द करने का निर्णय अकेले नहीं लिया था, बल्कि, पूरी संसद को विश्वास में लेकर किया था।"  
इस संदर्भ में, उन्होंने कहा कि "पूरे देश की आवाज़ सुनी जाती है, जिसमें कश्मीर की संसद के सदस्य भी शामिल हैं, जिनका प्रतिनिधित्व मंत्रिपरिषद के अंतर्गत भी होता है।"

अपनी दलीलों में, द्विवेदी ने यह भी तर्क दिया कि, "जम्मू-कश्मीर के पास कोई अवशिष्ट (residuary) संप्रभुता नहीं बची है, जैसा कि याचिकाकर्ताओं ने, अपनी दलीलों में, आरोप लगाया है।" 
उन्होंने कहा कि, "यदि याचिकाकर्ताओं का यह तर्क कि जम्मू-कश्मीर में 'अवशिष्ट संप्रभुता, अवशेष संप्रभुता और आंतरिक संप्रभुता' बनी हुई है, स्वीकार कर लिया जाता है तो यह बेहद शक्तिशाली होगा।  उन्होंने कहा कि ऐसी 'अवशेष संप्रभुता' यदि अस्तित्व में है तो उसे भारत के संविधान के भीतर पाया जाना चाहिए। हालाँकि, यह सच नहीं था।"  
उन्होंने कहा, "तो राजशाही मर चुकी है। याचिकाकर्ताओं की दलीलें डूबते ताज पर भरोसा कर रही हैं।"

० जम्मू-कश्मीर संविधान सभा को वह स्वतंत्रता नहीं मिली जो भारतीय संविधान सभा को प्राप्त थी। 

एडवोकेट राकेश द्विवेदी के अनुसार, "जम्मू-कश्मीर संविधान बनाते समय, जम्मू-कश्मीर संविधान सभा को वह स्वतंत्रता नहीं प्राप्त थी जो भारत की संविधान सभा को प्राप्त थी, क्योंकि वह (जम्मू कश्मीर की संविधान सभा) विभिन्न चीजों से बंधी हुई थी।"
उन्होंने निम्नलिखित को जम्मू-कश्मीर संविधान सभा की सीमाओं के रूप में सूचीबद्ध किया,

1. जम्मू-कश्मीर संविधान सभा इस तरह से बाध्य थी कि, भारत के संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।

2. जम्मू-कश्मीर संविधान सभा को न्याय, स्वतंत्रता, भाईचारा सुनिश्चित करना था।

3. यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 1 से भी बंधी हुई थी और इस प्रकार, खुद (राज्य) को भारत की संघीय इकाई का हिस्सा नहीं घोषित नहीं करती थी।

4. जम्मू-कश्मीर संविधान सभा यह नहीं कह सकती थी कि, जम्मू-कश्मीर क्षेत्र का कोई भी हिस्सा भारत का केंद्र शासित प्रदेश नहीं बन सकता।

5. यह भी नहीं कह सकती थी कि, जो लोग जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासी हैं, वे भारत के नागरिक नहीं होंगे।

सीनियर एडवोकेट राकेश द्विवेदी ने कहा, "जम्मू-कश्मीर संविधान सभा की यह पद्धति शक्तियों के हस्तांतरण की न्यायिक अवधारणा के समान है। संदर्भ के लिए, सत्ता का हस्तांतरण एक संप्रभु राज्य की केंद्र सरकार से क्षेत्रीय या स्थानीय स्तर पर शासन करने के लिए शक्तियों का वैधानिक प्रतिनिधिमंडल है। यह प्रशासनिक विकेंद्रीकरण का एक रूप है।" 
एडवोकेट राकेश द्विवेदी ने कहा कि, "यह अवधारणा ब्रिटेन में अक्सर लागू की जाती थी, जहां ब्रिटेन की संसद को सर्वोच्च माना जाता था लेकिन स्कॉटलैंड, उत्तरी द्वीप और वेल्स जैसे अन्य राज्यों की अपनी संसदें थीं।" 

उन्होंने इसे विस्तार से स्पष्ट किया, "तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप इसे सदर-ए-रियासत, सीएम, गवर्नर कहते हैं - इन अभिव्यक्तियों से कद नहीं बढ़ता है। कद प्रयोग की गई शक्ति की प्रकृति पर निर्भर करता है। यह भारत के प्रधान मंत्री की, शक्ति की प्रकृति के बराबर नहीं है भले ही आप इसे प्रधान मंत्री कहें।"
इसके बाद उन्होंने कहा कि, "जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा बनाने का विचार भारत सरकार से ही आया था।"

अपने तर्कों को समाप्त करते हुए, राकेश द्विवेदी ने टिप्पणी की,  "यह आश्चर्य की बात है कि मेरे दाहिनी ओर के मित्र,(याचिकाकर्ताओं के वकील) लोकतंत्र से समर्पित, उस ताज के आधार पर स्थायित्व की मांग कर रहे हैं जो लंबे समय से चला आ रहा है। राजा मर चुका है, राजा लंबे समय तक जीवित रहें (The King is dead, Longlive the King)। आपको इसके लिए किसी दस्तावेज़ को स्वीकार करने या निष्पादित करने की आवश्यकता नहीं है  इकाइयाँ बनने का उद्देश्य। प्रस्तावना, अनुच्छेद 1, 5, मौलिक अधिकार- ये सभी गणतंत्र बनाते हैं। इसके बिना, कोई गणतंत्र नहीं है।"

० जम्मू-कश्मीर के पास कोई अवशिष्ट शक्ति नहीं बची। 

एक अन्य वरिष्ठ वकील, गिरि ने तर्क देते हुए कहा कि, "भारत के साथ जम्मू-कश्मीर का एकीकरण अब पूरा हो गया है और अब जम्मू-कश्मीर के पास कोई अवशिष्ट शक्ति नहीं बची है।" 
उन्होंने कहा कि, "आदर्श रूप से अनुच्छेद 370 को 1957 में जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के विघटन के बाद हटा दिया गया होता, लेकिन अब भी यह तर्क नहीं दिया जा सकता है कि अनुच्छेद 370 (3) के तहत राष्ट्रपति को शक्तियां उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि प्रावधान  अनुच्छेद 370(3) अब क्रियान्वित होने के लिए उपलब्ध नहीं था क्योंकि संविधान सभा अस्तित्व में नहीं थी।"  

एडवोकेट गिरी ने कहा, "(जम्मू कश्मीर) संविधान सभा की अनुशंसा शक्ति का उद्देश्य संविधान सभा के जीवन को समाप्त करना था, जिसे राज्य का संविधान बनने के बाद भंग कर दिया गया था।"
सुनवाई अभी जारी है। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

'सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 के संबंध में सुनवाई (13) / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/09/370-13.html

Sunday, 3 September 2023

सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 के संबंध में सुनवाई (13) / विजय शंकर सिंह

अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के संबंध में संविधान पीठ की कार्यवाही के तेरहवें दिन, सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एसके कौल, संजीव खन्ना, बीआर गवई और सूर्यकांत की पीठ ने उत्तरदाताओं द्वारा उठाए गए तर्कों को सुना। तेरहवें दिन की सुनवाई में याचिकाकर्ताओं की दलीलों का जवाब, अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी, वरिष्ठ एडवोकेट हरीश साल्वे और राकेश द्विवेदी ने दिया।

आज अटॉर्नी जनरल का तर्क, राष्ट्रपति की शक्ति पर केंद्रित था, जिसे याचिकाकर्ताओं ने, बिना जम्मू कश्मीर की विधानसभा की सिफारिश के, और अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राज्य के गवर्नर/राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत होते हुए, राज्य का स्वरूप बदलने को लेकर, इसे असंवैधानिक बताया था। इस पर एजी का कहना था कि, यह स्थिति राष्ट्रपति की शक्तियों को कम नहीं कर देती है। अब अदालत में दी गई दलीलें पढ़िए। 

० असंभवता राष्ट्रपति की शक्तियों को पंगु नहीं बना सकती। 

अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी द्वारा उठाए गए तर्कों का पहला पहलू यह था कि, "कानून किसी को, वह काम करने के लिए मजबूर नहीं करता है जो, वह नहीं कर सकता।"  
इस संदर्भ में, उन्होंने कहा कि, "चूंकि संविधान सभा पहले ही भंग हो चुकी है, इसलिए राष्ट्रपति को, अब अनुच्छेद 370(3) के तहत अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए, उसकी सिफारिश लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।" 
उन्होंने जोर देकर कहा कि, "संविधान सभा की सिफारिश को स्वीकार करना अब असंभव है लेकिन, इसका (इरादा और उद्देश्य) राष्ट्रपति की शक्ति को पंगु बनाने और अनुच्छेद 370(3) के मूल भाग को निष्क्रिय करने का कारण नहीं बन सकता है।" 
अपने तर्क के लिए, एजी ने इन रे: प्रेसिडेंशियल पोल बनाम अननोन (1974) के फैसले का सहारा लिया, जिसमें दो कानूनी कहावतों का उल्लेख किया गया है, - इम्पोटेंशिया एक्सक्यूसैट लेजेम (where there is a necessary or invincible disability to perform the mandatory part of the law the impotentia excuses. कानून में असंभवता को बाहर रखा गया है) और लेक्स नॉन कॉगिट एड इम्पॉसिबिलिया (the law does not compel a man to do anything which is impossible कानून किसी को वह करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है, जो असंभव हो). किसी व्यक्ति को वह सब कुछ करने के लिए बाध्य न करें जो असंभव है।

इस परिदृश्य में, अटॉर्नी जनरल ने तर्क दिया कि, "राष्ट्रपति के पास दो विकल्प बचे थे- एक, कि वह अनुच्छेद 370(3) के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग बिना किसी परामर्श के कर सकते हैं और;  दूसरा, वह पहले के राष्ट्रपतियों द्वारा अपनाई गई मिसालों का पालन कर सकते हैं और अनुच्छेद 367 और अनुच्छेद 370(1)(डी) का सहारा ले सकते हैं।"
आगे उन्होंने जोड़ा,  "वहां एक शून्यता है, खंड (3) के परंतुक (जम्मू कश्मीर की संविधान सभा की सहमति) का अनुपालन करना असंभव है (क्योंकि जम्मू कश्मीर की संविधान सभा 1957 में ही भंग हो चुकी है) और उस शून्यता से कैसे निपटा जाए? राष्ट्रपति कह सकते थे कि, बिना किसी अन्य कार्रवाई का सहारा लिए, मैं स्वयं 370 को निष्क्रिय कर सकता हूं। लेकिन राष्ट्रपति उस रास्ते को नहीं अपनाते हैं। वह एक ऐसी प्रक्रिया द्वारा निर्देशित होना चाहते हैं, जो विधान सभा के गैर-विधायी कार्यों के समान हो। यदि असंभवता का सिद्धांत, आपके रास्ते में खड़ा है, तो आप पंगु नहीं हैं।" यानी यदि आप कोई असंभव कृत्य नहीं कर सकते, तो इसका यह अर्थ नहीं हुआ कि, आप पंगु हैं। 

एजी ने जोर देकर कहा कि, "आंतरिक अशांति या बाहरी आक्रामकता से संबंधित मुद्दों को हल करने के लिए कोई 'गणितीय सूत्र' (यानी कोई तायशुदा फॉर्मूला नहीं है।"
उन्होंने तर्क दिया कि, "ऐसी स्थितियों में, कुछ 'व्यापक मानकों' का पालन किया जाना चाहिए जहां मौलिक मूल्यों का उल्लंघन नहीं किया जाता है।"  
इसके अलावा, उन्होंने कहा कि, "यह राष्ट्रपति के लिए खुला विकल्प है कि, वह अनुच्छेद 370 के तहत किए गए सभी अभ्यासों और उन विचारों को ध्यान में रखें, जो 'राष्ट्र के सामने बड़े हैं', खासकर जम्मू-कश्मीर के सामने, और इस तरह के विचार के अनुसार गलतियों को सुधारें।"

एजी की दलीलें खत्म होने पर सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे ने अपनी बात रखनी शुरू की और उन्होंने अनुच्छेद 370 को, एक राजनीतिक समझौते के रूप में प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, जम्मू कश्मीर की रियासत और भारत संघ के बीच हुआ विलय पत्र (आईओए) एक राजनीतिक समझौता था और यह अनुच्छेद, उसी का परिणाम था। 

० अनुच्छेद 370 एक राजनीतिक समझौता था। 

एक अन्य पक्ष की ओर से पेश वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने अपनी दलीलों में अनुच्छेद 370 को संवैधानिक ढांचे के भीतर 'कुछ राजनीतिक समझौतों को समायोजित करने वाला तत्व' बताया।  इस प्रकार, उन्होंने कहा कि, "अनुच्छेद में शब्दों को उनका स्पष्ट अर्थ दिया जाना चाहिए।" 
उन्होंने रेखांकित किया कि, "अनुच्छेद के शब्दों के अनुसार, विचार यह नहीं था कि राष्ट्रपति केवल संविधान सभा की सिफारिश को ही प्रभावी कर (मान) सकते थे, क्योंकि यदि ऐसा होता, तो उसे (राष्ट्रपति के उक्त कृत्य को) शक्ति के प्रयोग के लिए पूर्व शर्त बना दिया जाता।

"संभवतः, प्राविधान में कहा गया होगा- "यदि विधानसभा से सिफारिश प्राप्त हुई होगी, तो राष्ट्रपति को मिल सकेगी"। लेकिन, यह वह ढांचा नहीं है, जिसमें इसे तैयार किया गया था। उस तरह के प्राविधानों में से एक अनुच्छेद 249 है, - यह शुरू होता है  यह कहकर कि "यदि राज्यों की परिषद ने संकल्प द्वारा घोषणा की है, तो कानून बनाना वैध होगा "
उन्होंने इस दलील जोर दिया। अपने तर्क को जारी रखते हुए, वरिष्ठ एडवोकेट, हरीश साल्वे ने कहा कि, 'सहमति' शब्द के बजाय 'सिफारिश' शब्द का इस्तेमाल जानबूझकर किया गया था।" 

अनुच्छेद 370 के प्राविधान के संदर्भ पर बहस करते हुए, हरीश साल्वे ने कहा कि, "यह  अनुच्छेद एक राजनीतिक समझौते के अलावा और कुछ नहीं था, जिसका उद्देश्य ऐसी स्थिति पैदा करना नहीं था, जो एकीकरण को रोकती हो।"  
उन्होंने तर्क दिया कि, "अनुच्छेद का उद्देश्य संविधान को विभाजित करना नहीं, बल्कि 'चरणबद्ध एकीकरण' करना था। तदनुसार, संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद (3) के संदर्भ में अनुच्छेद 370 में एक 'सुरक्षा वाल्व' डाला था ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यदि अनुच्छेद 370(1) के तहत राजनीतिक समझौता अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल रहता है, तो हम, अनुच्छेद 370(3) के माध्यम से.'प्लग खींच सकते हैं।"  

हरीश साल्वे ने इस विंदु को और स्पष्ट किया, "तो सीमावर्ती राज्य ने, अपनी सभी संवेदनशीलताओं के साथ, संविधान सभा को, विशेष व्यवस्था पर सहमत होने के लिए मजबूर किया, लेकिन, अपनी बुद्धिमत्ता से उन्होंने कहा कि, आपके पास प्लग खींचने की शक्ति है। इनमें से प्रत्येक में तर्क ढूंढना मुश्किल हो सकता है, क्योंकि  यह एक राजनीतिक समझौता था। संविधान सभा की स्थापना क्यों की गई? यह एक समझौता था - समझाने के लिए किया गया। कोई भी (इस मामले में) बहुत अधिक तर्क की खोज नहीं कर सकता।"
इस संदर्भ में, उन्होंने तर्क दिया कि, "ऐसे प्रावधानों के लिए, संवैधानिक व्याख्या को हमें,  यथासंभव व्यापक अर्थ देना चाहिए।

० संवैधानिक प्रावधान लागू नहीं करने से व्यक्तिगत नागरिकों को कोई अधिकार नहीं मिलता। 

हरीश साल्वे ने आगे तर्क दिया कि, "विलय (रियासत के भारत संघ में) विलय की सहमति,  दस्तावेज और उनकी व्याख्या हमेशा, संप्रभु के लिए एक मसला रही है। चूंकि वर्तमान मामले में, (जम्मू कश्मीर रियासत) का विलय, अनुच्छेद 1 और 3 के अनुसार पूर्ण, अपरिवर्तनीय और अटल (Complete, irrevocable and irreversible) था, इसलिए परिग्रहण (accession) से संबंधित किसी भी मामले पर अंतिम निर्णय राष्ट्रपति का होगा।"

उन्होंने आगे कहा कि, "याचिकाकर्ताओं द्वारा उद्धृत दिल्ली (भारत सरकार का जम्मू कश्मीर राज्य पुनर्गठन कानून) के निर्णयों का वर्तमान संदर्भ में कोई महत्व नहीं है क्योंकि वे संदर्भ, अत्यधिक डेलीगेशन से संबंधित थे। लेकिन चूंकि अनुच्छेद 370 और इसके तहत राष्ट्रपति को प्रदान की गई शक्ति संविधान का ही एक हिस्सा थी, इसलिए, इस अत्यधिक डेलीगेशन का कोई सवाल ही नहीं था।"

हरीश साल्वे ने अनुच्छेद 370 के तहत शक्ति की व्याख्या करते हुए कहते हैं, "370 के तहत शक्ति अपने आप में पूरी है और यह संविधान द्वारा प्रदत्त शक्ति है। पूर्ण शक्ति, अत्यधिक डेलीगेशन (किसी के सिफारिश) की चुनौती के अधीन नहीं है क्योंकि यह संविधान द्वारा ही प्रदान की गई है। दूसरा बिंदु यह है कि, प्रयोग की गई, यह शक्ति, अपने चरित्र में विधायी है। (किसी भी) प्रावधानों को लागू करना और प्रावधानों को खत्म करना, किसी कानून के प्रावधानों को संशोधित करना विधायी कार्य है।" 
उन्होंने यह भी तर्क दिया कि, "संवैधानिक प्रावधान को लागू करने या लागू न करने का अधिकार,  किसी नागरिक का व्यक्तिगत अधिकार नहीं है।"  
यह कहते हुए कि, "जम्मू-कश्मीर के नागरिक सिर्फ "विलय के लिए समायोजन" कर रहे थे।" 
उन्होंने अंतरराष्ट्रीय कानून का संदर्भ दिया और कहा कि "एक नागरिक कभी भी यह दावा नहीं कर सकता कि, मेरे पास पहले के शासन में कुछ अधिकार थे। आपके पास केवल कुछ अधिकार हैं जो आपके लिए उपलब्ध हैं।"

० कानून बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं कर सकता। 

यह कहते हुए कि "उन्हें (संविधान के) मूल ढांचे के सिद्धांत का बार-बार संदर्भ आश्चर्यजनक लगा," 
साल्वे ने प्रस्तुत किया कि, "मूल ढांचा सिद्धांत (Basic structure theory) एक स्वतंत्र संवैधानिक अधिकार के रूप में एक सिद्धांत नहीं था, बल्कि अनुच्छेद 368 के तहत निहित एक सीमा थी, जिस पर संवैधानिक संशोधनों का परीक्षण किया गया था।"
साल्वे ने सुझाव देते हुए कहा, "सख्ती से कहें तो, कानून बुनियादी (मूल) ढांचे का उल्लंघन नहीं कर सकते। कानून भाग III का उल्लंघन करते हैं या भाग III का उल्लंघन नहीं करते हैं।" 
उन्होंने सुझाव दिया कि, "केवल संवैधानिक संशोधनों का परीक्षण मूल ढांचा सिद्धांत के आधार पर किया जा सकता है।"

इस मौके पर, सीजेआई ने रेखांकित किया कि, "कुछ फैसलों में, अदालत ने माना था कि एक विशेष कानून, मूल ढांचे की रक्षा करता है।"
यहां, साल्वे ने प्रस्तुत किया कि, "जब नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक कानून बनाया गया था जो मूल ढांचे का एक हिस्सा बनता है, तो उसे मूल ढांचे के साथ संरेखित (align) करने के लिए कहा जा सकता है।"
आगे विस्तार से बताते हुए उन्होंने कहा, "आज अगर गिरफ्तारी, आपराधिक मुकदमे आदि की सुरक्षा के लिए जाँच और अन्य प्राविधान होते हैं - तो आप कह सकते हैं कि, यह सब, बुनियादी ढांचे की रक्षा के लिए है, लेकिन बुनियादी ढांचा, विभिन्न अधिकारों की त्रयी है। इसका मतलब यह नहीं है कि कानून का परीक्षण बुनियादी संरचना (ढांचा) पर किया गया था।"

इसके बाद वह याचिकाकर्ताओं के तर्क कि, "राष्ट्रपति शासन के तहत 'अपरिवर्तनीय' परिवर्तन नहीं किए जा सकते थे।" का जवाब देते हुए, हरीश साल्वे ने, तर्क दिया कि "एक अर्थ में सब कुछ अपरिवर्तनीय है।"  
इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, "संसद राज्यों के बजट को पारित करती है - खर्च किया गया धन अपरिवर्तनीय है। राष्ट्रपति लोगों को बर्खास्त कर सकता है, लोगों को नियुक्त कर सकता है, संस्थाएँ बना सकता है, संस्थाओं को हटा सकता है - राज्यपाल ऐसा कर सकता है, राष्ट्रपति 356 के तहत कर सकता है - ये उन लोगों के लिए अपरिवर्तनीय हैं। इसीलिए योर लॉर्डशिप ने कहा है कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग बहुत ही कम मात्रा में किया जाना चाहिए, यह कठोर (प्राविधान) है।"
यह कहते हुए अपनी दलीलें खत्म की कि, "यदि ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं कि, एक निश्चित समय के लिए शासन प्रणाली, राष्ट्रपति शासन में बदल जाती है, तो अनुच्छेद 356 के अंतर्गत लिए गए निर्णय के परिणाम को स्वीकार करना होगा।"

० संविधान सभा का दृष्टिकोण बाध्यकारी नहीं हो सकता। 

वरिष्ठ वकील साल्वे की दलीलों के बाद वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी ने अपनी दलीलें पेश की। राकेश द्विवेदी ने तर्क दिया कि, "याचिकाकर्ताओं पर यह दिखाने का बोझ था कि, उनके द्वारा रखा गया दृष्टिकोण सही दृष्टिकोण था और, कोई अन्य दृष्टिकोण दिया नहीं जा सकता है।" 
उन्होंने कहा कि, "यदि दो विचार हैं तो उस दृष्टिकोण को अपनाया जाना चाहिए जो शक्ति के प्रयोग को कायम रखता है न कि, शक्ति के प्रयोग को पराजित करता है।" 
उन्होंने आगे तर्क दिया कि, "राष्ट्रपति की शक्ति का चरित्र, एक 'घटक शक्ति' था और सामान्य कार्यकारी शक्ति की तुलना में बहुत व्यापक था।"
उन्होंने यह भी कहा कि, "किसी निचले प्राधिकारी (authorty)  की सिफारिश जब किसी वरिष्ठ प्राधिकारी के समक्ष जाती है तो, वह कभी भी बाध्यकारी नहीं हो सकती, वह भी तब, जब वह निकाय (संस्था) एक अस्थायी निकाय हो।"
अपने तर्क को समाप्त करते हुए, द्विवेदी ने कहा कि, "निरस्तीकरण का निर्णय भावनाओं पर आधारित नहीं हो सकता है।"
सुनवाई अभी जारी है। 
(क्रमशः)

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

'सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 के संबंध में सुनवाई (12.2) / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/09/370-122.html