Wednesday, 30 November 2022

किशन पटनायक / प्रोफेसर से तमाशगीर

प्रणय रॉय पर किशन पटनायक ने यह लेख 1994 में लिखा था। प्रणय रॉय के नियंत्रण से एनडीटीवी के बाहर होने के बाद, किशन जी के इस लेख को पढ़ना रोचक होगा। इस लेख की पृष्ठभूमि उस दौर की है, जब प्रणय रॉय देश के नए मीडिया के प्रारंभिक सूत्रधार के रूप में उभर रहे थे।
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प्रोफेसर से तमाशगीर
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काश के अंग्रेजी न जानने वाले लोग प्रणय राय को नहीं जानते होंगे। लेकिन प्रणय राय को जानना जरूरी है क्योंकि वह एक नयी सामाजिक घटना का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रणय राय की प्रसिद्धि शुक्रवार को दूरदर्शन पर चलने वाले साप्ताहिक विश्वदर्शन कार्यक्रम से बनी है। जिस अंदाज से कोई जादूगर तमाशा (शो) दिखाता है, उसी अंदाज से टीवी दर्शकों का ध्यान केंद्रित करके दूरदर्शन द्वारा चुने हुए समाचारों या वक्तव्यों के प्रति श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करके रखना दूरदर्शन की एक खास विधा बन गयी है। प्रीतीश नंदी का शो, प्रणय राय का साप्ताहिक विश्वदर्शन (द वर्ल्ड दिस वीक) आदि इस विधा के श्रेष्ठ प्रदर्शन हैं।

देश के बुद्धिजीवियों में ऐसे लोग शायद बिरले ही होंगे, जो अत्यंत बुद्धिशाली होने के साथ-साथ बीच बाजार में तमाशा भी कर सकें। ऐसे बिरले प्रतिभाशाली बुद्धिजीवियों की तलाश टेलीविजन व्यवसायियों को रहती है। उनके माध्यम से टेलीविजन के प्रदर्शन-व्यवसाय को कुछ बौद्धिक प्रतिष्ठा मिल जाती है, जिससे बहुत-से भद्दे और अश्लील कार्यक्रमों को चलाना सम्मानजनक भी हो जाता है।

जब शुक्रवार के विश्वदर्शन कार्यक्रम के चलते प्रणय राय टीवी के दर्शकों के प्रिय हो गये, तब उनको सरकार की आर्थिक नीतियों के बारे में सूचना देने का कार्यक्रम दिया गया। पिछले साल के बजट से नयी अर्थनीति का यह दूरदर्शन-प्रयोग शुरू हुआ, और इस साल उसकी अवधि और उस पर पैसा काफी बढ़ा दिया गया है (संभवतः एक विदेशी कंपनी इसके लिए पैसा दे रही है)। फरवरी, 1994 की 28 तारीख की शाम को वित्तमंत्री ने जो बजट भाषण संसद में दिया, उसका सीधा प्रसारण किया गया। भाषा की जटिलता के कारण बहुत कम लोग बजट की बातों को समझ पाते हैं, ज्यादातर लोग इंतजार करते हैं कि कोई उस बजट की व्याख्या करके उन्हें सुनाये। जो लोग अंग्रेजी जानते हैं और बजट को समझकर दूसरों को भी समझाना चाहते हैं, ऐसे मत-निर्माता समूह (ओपीनियन मेकर्स) – व्यापारी, प्राध्यापक, लेखक, पत्रकार, राजनैतिक नेता आदि बजट की व्याख्या तत्काल सुनने के लिए उत्सुक रहते हैं। ये लोग लगभग दो लाख होंगे जो करीब 50 लाख या शायद एक करोड़ पढ़े-लिखे लोगों तक अपनी बात पहुंचाते हैं। ये सारे लोग 28 फरवरी की शाम सात बजे से रात दस बजे तक अपने-अपने घरों में टेलीविजन देख रहे थे। इस बार की बजट व्याख्या दो किस्तों में करीब डेढ़ घंटे चली और एक घंटा तो खुद वित्तमंत्री मनमोहन सिंह प्रणय राय के पास बैठे रहे और सवालों के जवाब देते रहे। सवाल सचित्र आ रहे थे – लंदन, हांगकांग और न्यूयॉर्क से; मुंबई, कलकत्ता और बेंगलूर से। अनुमान है कि प्रणय राय को इस ‘शो’ के लिए करीब दस लाख रुपये मिले होंगे।

प्रणय राय दूरदर्शन की सेवा शुरू करने से पहले दिल्ली में अर्थशास्त्र की एक प्रसिद्ध अध्ययन और अनुसंधानशाला में प्रोफेसर थे (दिल्ली में प्रोफेसरों को बहुत अच्छी तनख्वाह मिलती है)। वे न सिर्फ एक अच्छे विद्वान थे, बल्कि प्रगतिशील धारा से भी उनका घनिष्ठ संबंध था तथा उनके निबंधों में प्रगतिशीलता का रुझान स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता था। अध्ययन, अनुशीलन और अनुसंधान के कार्यक्षेत्र को छोड़कर प्रणय राय दूरदर्शन के कार्यक्रम के निर्माता बन गये। एक सामाजिक घटना के तौर पर इसका महत्व इस बात में है कि तीक्ष्ण बुद्धि के एक प्रगतिशील बुद्धिजीवी को अपना मध्यवर्गीय जीवन-स्तर काफी ऊंचा होते हुए भी अध्ययन और अनुसंधान के कार्यकलाप को छोड़ देने में कोई झिझक नहीं हुई और काफी नाम तथा धन कमाने के लिए (यानी एक प्रचलित जायज उद्देश्य के लिए) वह खुशी-खुशी दूरदर्शन का एक तमाशगीर (यह एक मराठी शब्द है, जिसे ‘शो मैन’ के लिए हम व्यवहार कर रहे हैं) बन गया।

28 फरवरी को यह बजट-दर्शन बहुत ही कुशलतापूर्वक दिखाया गया। एक मशहूर व्यापार-पत्रिका के संपादक को पास बैठाकर उसे बजट पर बातचीत के द्वारा प्रणय राय ने बजट की मुख्य बातें बता दीं। जाहिर था कि इस शुरुआती बातचीत का उद्देश्य बजट संबंधी चर्चा के मुख्य बिंदुओं को तय करना था और ये बिंदु उदारीकरण के मानदंड से चिन्हित किये गये थे। जिन चार-पांच मुख्य बातों को प्रणय राय ने रेखांकित किया, बाद के पूरे बजट-कार्यक्रम में सिर्फ उनकी पुष्टि की जा रही थी। बजट में अत्यधिक घाटे, सीमा-शुल्क में भारी रियायत, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के ऋण की समय से पहले अदायगी आदि इसकी मुख्य बातें थीं। सारी बातचीत इन्हीं तीन-चार मुद्दों पर केंद्रित रही। जब देश के महानगरीय व्यवसायियों की बारी आयी तो उन्होंने भी इन्हीं बातों को कुछ नम्रता पूर्वक रखा। मुंबई के शेयर बाजार से खबर आयी कि भाव गिर रहा है। मगर क्यों? इसलिए कि व्यापारियों ने ‘इससे भी बढ़िया’ बजट की उम्मीद कर रखी थी। लेकिन कोई खास परेशानी की बात नहीं। कुल मिलाकर बजट ‘सही दिशा’ में चल रहा है। शेयर बाजार कुछ दिनों में फिर अपनी रफ्तार में आ जाएगा। वित्तमंत्री ने एक प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा भी कि ‘रातोंरात सब कुछ’ नहीं हो जाएगा।

जब बजट-कार्यक्रम का सारा समय अंतर्राष्ट्रीय और महानगरीय व्यापारियों से बातचीत में चला गया, तब प्रणय राय को (या दूरदर्शन को) याद आया कि कुछ साधारण आदमियों से यानी किसान, महिला, युवा और उपभोक्ता नागरिक से भी बजट संबंधी बातचीत दिखायी जाए, नहीं तो बजट-कार्यक्रम शायद अधूरा रह जाएगा।

शुरू में देश के महानगरों के व्यवसायी-संगठनों आदि की प्रतिक्रिया बतायी गयी। लेकिन बाद में जब वित्तमंत्री आ गये, तो उनसे बातचीत करने और सवाल पूछने के लिए हमारे दूरदर्शन का द्वार विश्व के लिए खुल गया और बजट का ग्लोबीकरण हो गया। लंदन, वाशिंगटन और हांगकांग में बैठे हुए विदेशी व्यापारियों ने सीमा-शुल्क घटाने के वायदे को पूरा करने के लिए धन्यवाद देते हुए मनमोहन सिंह के मुंह पर यह पूछा कि इतना घाटा क्यों रखा गया है? बरकरार राजकीय अनुदानों को खत्म क्यों नहीं किया गया? घाटे के परिणामस्वरूप मूल्य आदि की अस्थिरता के कारण क्या विदेशी व्यापारियों का उत्साह कम नहीं हो जाएगा? सारी दुनिया के सामने उन विदेशी व्यापारियों द्वारा भारत सरकार के बजट पर भारत सरकार के वित्तमंत्री से इस तरह के सवाल पूछने का इसके सिवा क्या अर्थ क्या है कि हमारे बजट को धनी देशों के व्यापारियों के प्रति पूर्ण रूप से जवाबदेह होना चाहिए। यह उदारीकरण के मानदंड से बजट की समीक्षा थी। एक किसान को दिखाया गया, जो बुजुर्ग था और विलायती ढंग से सूत पहने हुए था। उसके अंग्रेजी बोलने में व्याकरण की कोई गलती नहीं थी और उसका अंग्रेजी उच्चारण भी बढ़िया था। यह दूरदर्शन पर नयी आर्थिक नीति के किसान की छवि थी। उसने सिर्फ एक सवाल पूछा और मनमोहन सिंह के जवाब के बाद वह शांत हो गया।

जब कार्यक्रम समाप्त होने में बस एक-दो मिनट बाकी रह गया था, तब जल्दी में बेंगलूर महानगर के किसी दफ्तर में कुछ लोगों को दिखाया गया (कुछ साधारण आदमियों और उपभोक्ताओं को दिखाना था)। एक बेरोजगार युवक की हैसियत से जिससे बेरोजगारी के संबंध में सवाल पूछना था, उसने बेरोजगारी का नाम तो लिया मगर सवाल यह पूछा कि घाटे के बजट को देखकर पूंजी-निवेश करने वाले हतोत्साहित होंगे तो रोजगार कैसे बढ़ेगा। बिलकुल अंत में एक-दो सेकंडों में एक महिला ने उपभोक्ताओं से संबंधित एक सवाल रखा और वित्तमंत्री का जवाब पाकर संतुष्ट हो गयी। उसे महिला और उपभोक्ता दोनों की भूमिकाओं में दिखाकर प्रणय राय ने सोचा होगा कि पूरे समाज को उन्होंने बजट से जोड़ दिया और देश के सभी वर्गों की प्रतिक्रिया भी आ गयी।

जिस तरह इंडिया टुडे का संपादक कुछ महानगरों के विद्यार्थियों से बातचीत का हवाला देकर देश की युवा पीढ़ी के बारे में एक खास तरह का निष्कर्ष और एक खास तरह की छवि प्रचारित करने की कोशिश करता है, ठीक उसी तरह की कोशिश दूरदर्शन पर प्रणय राय कर रहे हैं। सर्वप्रथम हांगकांग और अमरीका के व्यापारी, दूसरे क्रम में मुंबई और कलकत्ता के व्यापारिक संघ और शेयर बाजार, तीसरे क्रम में सूट-बूट पहने हुए भूस्वामी और चौथे क्रम में कुछ हद तक महानगरीय खाते-पीते मध्यम वर्ग के लोग। बाकी सभी लोग और समूह बजट के लिए बिलकुल अप्रासंगिक क्यों हो गये हैं? इस प्रश्न का उत्तर हमें मिल सकता है, यदि हम प्रणय राय को एक नये किस्म के बुद्धिजीवी वर्ग के उभार के प्रतिनिधि के रूप में देखें, जिसका जनता से लगाव खत्म हो चुका है।

यहां हम प्रणय राय को एक व्यक्ति के रूप में नहीं, बल्कि एक सामाजिक घटना के रूप में देखने की कोशिश करें, क्योंकि प्रणय राय की वर्तमान भूमिका कोई अकेली दुर्घटना नहीं है। इसकी व्याप्ति काफी बढ़ गयी है। एक मध्यवर्गीय प्रतिभा-संपन्न बुद्धिजीवी, जिसका अपनी युवावस्था में प्रगतिशीलता की तरफ झुकाव हो जाता है, दिल्ली के एक प्रतिष्ठित शिक्षा-केंद्र में प्राध्यापक था। उसे तनख्वाह के रूप में अच्छी रकम मिलती थी, जिससे वह आर्थिक रूप से सुरक्षित था। अपने प्रगतिशील रुझान के कारण वह जनसाधारण से जुड़ाव महसूस करता था। चार-पांच साल पहले टेलीविजन के माध्यम से एक नयी विज्ञापनी संस्कृति का अनुप्रवेश होता है। देश की अर्थनीति में ऐसे परिवर्तन तेजी से होने लगते हैं कि वह मध्यवर्गीय उच्च-शिक्षित, मेधावी, प्रगतिशील रुझान वाला युवा बुद्धिजीवी अब मध्यवर्गीय न रहकर साल में पच्चीस-तीस लाख की कमाई कर सकता है। टेलीविजन और नयी अर्थनीति का संयोग उसके लिए अपने को विज्ञापित करने और साथ ही प्रचुर धन हासिल करने का आकर्षण पैदा कर देता है। वह इसकी गिरफ्त में आ जाता है और उस पर धन की हविस तथा आधुनिक मीडिया की चकाचौंध हावी हो जाती है। उसका सामाजिक लगाव छूट जाता है। भारत के करोड़ों साधारण जन उसके लिए अप्रासंगिक हो जाते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां उसको काफी धन देकर उसकी मेधा का इस्तेमाल करने के लिए होड़ लगाती हैं। इस बात की होशियारी बरती जाती है कि उसे पता न चले कि वह एक बिकाऊ माल है। इसलिए उसे ऐसे ही काम में लगाया जाता है, जिसमें उसे यही आभास हो कि चमत्कारी ढंग से एक बौद्धिक कार्य में लगा हुआ है। वह स्वयं को खुशी-खुशी बेच सके, इसके लिए यह जरूरी है कि उसके काम की एक बौद्धिक छवि हो तथा वह स्वयं के बारे में यह धारणा बना सके कि देश आगे बढ़ रहा है। प्रणय राय के इस तरीके देश को आगे बढाने के लिए यह जरूरी है कि करोड़ों साधारण जनों को अप्रासंगिक मानकर देश के बारे में सोचा जाए।

नयी आर्थिक नीति तथा आधुनिक संचार माध्यमों के संयोग से एक नये बुद्धिजीवी वर्ग का उदय हो रहा है। इस वर्ग के पहले उभार में वे महानगरीय बुद्धिजीवी हैं, जो अपने को विज्ञापन का हिस्सा बनाने के लिए और करोड़ों साधारण जनों को अप्रासंगिक मानने के लिए तैयार हो गये हैं।

(किशन पटनायक)

किशन पटनायक, प्रखर समाजवादी चिन्तक, लेखक एवं राजनेता थे। उन्होंने समाजवादी जन-परिषद की नींव रखी और सामयिक वार्ता नाम की एक पत्रिका शुरू की। उनकी तीन किताबें छपी हैं : किसान आंदोलन–दशा और दिशा, भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि और विकल्पहीन नहीं है दुनिया। इन तीनों किताबों का कॉपीराइट फ्री है और गूगल लाइब्रेरी में ये उपलब्‍ध हैं।

(विजय शंकर सिंह) 

Monday, 28 November 2022

कश्मीर फाइल्स एक प्रोपेगेंडा और वल्गर (अश्लील) फिल्म है ~ ज्यूरी, IFFI / विजय शंकर सिंह

इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के निर्णायक मंडल के अध्यक्ष, नादव लापिड ने सोमवार को पणजी, के समापन समारोह में कहा कि, विवेक अग्निहोत्री की फिल्म, "द कश्मीर फाइल्स" एक 'प्रोपेगेंडा और वल्गर फिल्म' है और IFFI में भारत के अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता खंड में, शामिल होने के योग्य नहीं है। दर्शकों को संबोधित करते हुए ज्यूरी प्रमुख ने यह बात कही। उस समय, केंद्रीय आईबी मंत्री अनुराग ठाकुर, गोवा के सीएम प्रमोद सावंत, बैठे थे। इजरायली निदेशक ने कहा कि अग्निहोत्री के बयान से "सभी ज्यूरी सदस्य" "परेशान और हैरान" थे।  फिल्म, 1990 के दशक में कश्मीरी पंडितों के, घाटी से हुए दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद पलायन पर है। 

यह एक गंभीर टिप्पणी है और भारतीय फिल्म निर्माताओं को, आईएफएफआई में, की गई ज्यूरी की इस टिप्पणी को गंभीरता से लेना चाहिए। दुनिया में, हम सबसे अधिक फिल्में बनाने वाले देश के रूप में जाने जाते हैं। ज्यूरी प्रमुख, लैपिड ने कहा, "यह हमें पूरी तरह से एक प्रचार, अश्लील फिल्म की तरह लगी, जो इस तरह के एक प्रतिष्ठित फिल्म समारोह के कलात्मक प्रतिस्पर्धी खंड के लिए अनुपयुक्त है। मैं यहां मंच पर आपके साथ इन भावनाओं को खुले तौर पर साझा करने में पूरी तरह से सहज महसूस करता हूं।"

आगे वे कहते हैं, "क्योंकि उत्सव में हमने जो भावना महसूस की वह निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण चर्चा को भी स्वीकार कर सकती है, जो कला और जीवन के लिए आवश्यक है।" इजरायली फिल्म निर्देशक, लापिड के अलावा, इस निर्णायक मंडल में, अमेरिकी निर्माता जिंको गोटोह, फ्रांसीसी फिल्म संपादक पास्कल चावांस, फ्रांसीसी वृत्तचित्र फिल्म निर्माता जेवियर अंगुलो बार्टुरेन और एक भारतीय निर्देशक, सुदीप्तो सेन  थे। लापिड इज़राइल के एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त निर्देशक हैं और उनकी फिल्में कई अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में पुरस्कृत और सराही जा चुकी हैं। 

अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में आईएफएफआई के ज्यूरी प्रमुख की यह टिप्पणी, फिल्म, रंगमंच और अन्य ललित कलाओं को, किसी खास उद्देश्य के लिए, घृणित और वैमनस्यता फैलाने वाली मानसिकता से दूर रखने का एक संदेश और आग्रह भी है। फिल्म, कश्मीर फाइल्स जब पर्दे पर आई थी, तभी उस पर कश्मीर से जुड़ी कुछ मिथ्या घटनाओं के चित्रण के आरोप भी लगे थे। पर जब उन घटनाओं पर बात शुरू हुई तो, आलोचकों को ही फिल्म के समर्थकों ने ट्रोल करना शुरू कर दिया था। फिल्म के, प्रदर्शन के लिए जिस तरह से, बीजेपी शासित सरकारों ने, दीवानगी दिखाई, उससे तभी लग रहा था, यह फिल्म, एक विशेष मानसिकता के प्रोपेगेंडा के उद्देश्य से ही बनाई गई है। 

फिल्म ने आशा के विपरीत धन कमाया, पर उसका कारण, फिल्म का कथ्य, शिल्प, अभिनय आदि में श्रेष्ठ होना नहीं था, बल्कि फिल्म देखने के लिए एक मिशन की तरह से, सांप्रदायिक आधार पर लोगों को प्रेरित या ध्रुवीकृत किया जाना था। लगभग सभी बीजेपी राज्यों में फिल्म को कर मुक्त किया गया था। फिल्म की विशेष स्क्रीनिंग की गई। और तो और, फिल्म की आलोचना, भले ही वह फिल्म के तकनीकी पक्ष की, की गई हो, या अभिनय की, या निर्देशन की, उसे देश की अस्मिता से जोड़ कर देखा जाने लगा था। फिल्म के पक्ष और विरोध में जैसा वातावरण बनाया गया था, वैसा, अब तक, शायद ही किसी फिल्म को लेकर, बनाया गया होगा। 

हालांकि, फिल्म समीक्षक, तब भी इस फिल्म को एक प्रोपेगेंडा फिल्म के ही रूप में देखते थे, और इसे एक औसत फिल्म ही मानते थे। फिल्म के, सांप्रदायिक आधार पर विभाजनकारी, होने की बात भी कही गई है। आईएफएफआइ की जूरी में, अंतर्राष्ट्रीय स्तर के काबिल और प्रोफेशनल फिल्म निर्देशक होते हैं, जो कला, अभिव्यक्ति, संवेदनशीलता की आड़ में, फैलाए जाने वाले प्रोपेगेंडा को आसानी से भांप जाते हैं। जूरी ने फिल्म के उद्देश्य, प्रोपेगेंडा, और कथ्य तथा शिल्प को, वल्गर कह कर, इसे एक शॉक देने वाली फिल्म बताया है। ज्यूरी का यह बयान, किसी समय, 'कश्मीर का सच दिखाने वाली फिल्म' के रूप में प्रचारित इस फिल्म पर एक गंभीर और प्रोफेशनल टिप्पणी है। 

लेकिन, :द कश्मीर फाइल्स' फिल्म पर IFFI जूरी हेड और इजराइल के फिल्म मेकर नदव लैपिड के बयान पर विवाद मच गया है. इस मामले में भारत में इजराइल के राजदूत नाओर गिलोन ने भी प्रतिक्रिया दी है। उन्होने जूरी हेड लैपिड के बयान को निजी बताया. उन्होंने कहा कि नदव लैपिड के बयान पर हमें शर्म आती है। दरअसल, गोवा में आयोजित 53वें फिल्म फेस्टिवल समारोह के समापन पर IFFI जूरी प्रमुख नदव लैपिड ने 'द कश्मीर फाइल्स' को वल्गर और प्रोपेगेंडा फिल्म करार दिया था. उन्होंने कहा, 'मैं इस तरह के फिल्म समारोह में ऐसी फिल्म को देखकर हैरान हूं। आईएफडीआई IFFI ज्यूरी के बयान पर फिल्म स्टार अनुपम खेर ने सख्त प्रतिक्रिया दी है. उन्होंने ट्वीट कर जूरी के प्रमुख इजरायली फिल्म मेकर लैपिड पर निशाना साधा. वहीं, फिल्म मेकर अशोक पंडित ने कश्मीरियों का अपमान बताया। 

(विजय शंकर सिंह)

सुप्रीम कोर्ट में, नोटबंदी पर दायर, 1978 और 2016 की दो याचिकाएं और उनमें मौलिक अंतर / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ, जिसमे पांच जेजे शामिल हैं, नोटबंदी के बारे में, नियमित सुनवाई कर रही है। भारत  सरकार का 8 नवंबर 2016 को जारी किया गया, यह विवादास्पद आर्थिक कदम, न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ गया है। संविधान पीठ ने 12 अक्टूबर को, नोटबंदी को चुनौती देने वाली 58 याचिकाओं की सुनवाई शुरू की, जिसमें प्रभावी रूप से 86% मुद्रा को रातोंरात प्रचलन से बाहर कर दिया गया था।

संविधान पीठ की, पांच जजों की बेंच, में जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर, बीआर गवई, एएस बोपन्ना, वी रामासुब्रमण्यन, और बीवी नागरत्ना सम्मिलित है। सुनवाई के दौरान, वरिष्ठ अधिवक्ता पी चिदंबरम ने विमुद्रीकरण की नीति की तीखी आलोचना की और अन्य बातों के साथ-साथ, इस बात पर, जोर दिया कि, "आधिकारिक राजपत्र (गजट) में एक अधिसूचना ,(नोटिफिकेशन) जारी करके किसी भी मूल्यवर्ग के बैंक नोटों की सभी श्रृंखलाओं को विमुद्रीकृत करने की शक्ति भारतीय रिज़र्व बैंक आरबीआई की धारा 26 (2) के तहत उपलब्ध नहीं थी।  भारत अधिनियम, 1934 और तदनुसार, उसके नीचे दिए गए, प्राविधानों को, पढ़ा जाना चाहिए।" चिदंबरम, अपनी दलील में कहते हैं, "इस खंड के तहत प्रदत्त शक्ति "अनिर्देशित और असंबद्ध" होगी, और संविधान के भाग III के अनुशासन के अधीन होगी।" 
यानी संविधान के भाग III के निर्देशों से नियंत्रित होगी। अब आरबीआई की उक्त  प्राविधान को यहां पढ़ें। 

आरबीआई अधिनियम 1934 की धारा 26: "नोटों की कानूनी निविदा प्रकृति" `
(1) उप-धारा (2) के प्रावधानों के अधीन, प्रत्येक बैंक नोट भारत में किसी भी स्थान पर भुगतान के रूप में या उसमें व्यक्त राशि के लिए कानूनी निविदा होगी, और केंद्र सरकार द्वारा गारंटी दी जाएगी।
(2) केंद्रीय बोर्ड की सिफारिश पर, केंद्र सरकार, भारत के राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, यह घोषणा कर सकती है कि अधिसूचना में निर्दिष्ट तिथि से, किसी भी मूल्यवर्ग के बैंक नोटों की कोई भी श्रृंखला समाप्त हो जाएगी। कानूनी निविदा बैंक के ऐसे कार्यालय या एजेंसी में और उस सीमा तक जिसे अधिसूचना में निर्दिष्ट किया जा सकता है।
इसी प्राविधान को लागू करने के लिए पी चिदंबरम, संविधान के भाग III के अनुशासन की बात कर रहे हैं। इस संबंध में, वरिष्ठ वकील ने नोटबंदी के साथ भारत के पहले प्रयासों का भी उल्लेख किया।

साल 2016 की नोटबंदी के पहले, भारत में, विमुद्रीकरण के पहले दो और प्रकरण हो चुके हैं। पहली बार, 1946 में ब्रिटिश सरकार ने, 1000 रुपये और 10000 रुपये के नोटों को प्रचलन से हटा दिया था। उसके तीन दशक बाद, जनता पार्टी की सरकार में, मोरारजी देसाई जब प्रधानमंत्री थे तो, सरकार ने 1978 में भारतीय रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर, आईजी पटेल की सहमति के बिना ही, 1000 और 10000 रुपए के नोटों को चलन से बाहर कर दिया। लेकिन उस नोटबंदी का भारत की अर्थव्यवस्था पर, कोई प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि, जितनी मुद्रा तब चलन में थी, उसकी तुलना में, चलन से बाहर की गई मुद्रा एक प्रतिशत से भी कम थी। जबकि, मोदी सरकार के समय की गई, 8 नवंबर, 2016 की नोटबंदी में, चलन से बाहर की गई मुद्रा का प्रतिशत, कुल मुद्रा का 86% था। 

1978 की नोटबंदी के बारे में,  घोष, चंद्रशेखर और पटनायक द्वारा लिखी गई किताब, "डिमोनेटाइजेशन डिकोडेड: ए क्रिटिक ऑफ इंडियाज करेंसी एक्सपेरिमेंट" में उल्लेख किया गया है कि, "दोनों ही मामलों (1946 और 1978 में की गई नोटबंदी) में रद्द लिए गए नोट, अत्यधिक उच्च मूल्य के नोट थे, जो प्रचलन में नोटों के मूल्य के एक प्रतिशत से भी कम का प्रतिनिधित्व करते थे।" 1946 और 1978 में की गई नोटबंदी की प्रक्रिया भी अलग अलग अपनाई गई थी। 1946 में, वायसराय और भारत के गवर्नर जनरल, सर आर्चीबाल्ड वावेल ने उच्च मूल्यवर्ग के बैंक नोट (विमुद्रीकरण) अध्यादेश को, जारी कर के नोटबंदी की थी, जबकि 1978 में, संसद द्वारा उच्च मूल्यवर्ग के बैंक नोट (विमुद्रीकरण) अधिनियम को एक अध्यादेश के स्थान पर लागू किया गया था। यानी संसद ने नोटबंदी अधिनियम पारित किया था। 

1946 और 1978 की नोटबंदियों के संदर्भ में, अपनाए गए अलग अलग प्राविधानों का उल्लेख करते हुए, पी चिदंबरम ने 2016 की नोटबंदी के खिलाफ चुनौती पर सुनवाई कर रही संविधान पीठ से पूछा, "यदि धारा 26 ने सरकार को यह शक्ति दी है, तो 1946 और 1978 में पहले की नोटबंदी के दौरान अलग-अलग अधिनियम क्यों बनाए गए थे? यदि शक्ति थी, तो 1946 और 1978 के अधिनियम 'धारा 26 में निहित कुछ भी होने के बावजूद' शब्दों से क्यों शुरू हुए?" 
फिर वे खुद ही इस सवाल का उत्तर देते हुए दलील देते हैं कि, "संसद ने महसूस किया कि इस तरह की शक्ति नहीं थी। क्या सरकार संसदीय कानून या बहस के बिना इस शक्ति का प्रयोग कर सकती है?"

एक रोचक तथ्य यह भी है कि, 1978 की नोटबंदी कवायद को एक संवैधानिक चुनौती दी गई थी।  1978 के अधिनियम की वैधता को, अन्य बातों के साथ-साथ, अनुच्छेद 19(1)(जी) के तहत व्यापार के मौलिक अधिकारों और अनुच्छेद 19(1)(एफ) के तहत संपत्ति के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के रूप में, अदालत में याचिका दायर कर के, चुनौती दी गई थी।  जस्टिस कुलदीप सिंह, एमएम पुंछी, एनपी सिंह, एमके मुखर्जी, और सैय्यद सगीर अहमद, द्वारा सुने गए, जयंतीलाल रतनचंद शाह बनाम भारतीय रिज़र्व बैंक (1996) के मामले में,  याचिकाकर्ताओं की दलील, का मुख्य जोर यह था कि, विवादित अधिनियम को "सार्वजनिक उद्देश्य" के लिए लागू नहीं किया गया था, जो कि, एकमात्र आधार होना चाहिए था। अनुच्छेद 31(2) के तहत ही, संपत्ति अनिवार्य रूप से अधिग्रहित की जा सकती थी।

न्यायालय ने इस दलील को इस प्रकार से, संक्षेपित किया, "याचिकाकर्ताओं के अनुसार, उच्च मूल्यवर्ग के बैंक नोटों के धारकों के लिए बैंक से देय और देय ऋणों को विवादित अधिनियम ने समाप्त कर दिया। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि ऋणों की इस तरह की समाप्ति अनुच्छेद 31 (2) के अनुसार,  संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण की राशि है।) चूंकि अधिग्रहण (नोटबंदी) एक सार्वजनिक उद्देश्य के लिए नहीं की गवी थी और न ही, संबंधित अधिनियम में उसके संबंध में मुआवजे के भुगतान के लिए पर्याप्त और उचित प्रावधानों को शामिल किया गया था, इसलिए विवादित अधिनियम उपरोक्त अनुच्छेद का उल्लंघन था।"

इस दलील अदालत ने निरस्त करते हुए, जस्टिस मुखर्जी द्वारा लिखे गए फैसले के माध्यम से कहा, "प्रस्तावना से, यह प्रकट होता है कि इस अधिनियम को, बेहिसाब (अन अकाउंटेड मनी) धन के गंभीर खतरे से बचने के लिए, पारित किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप न केवल, देश की अर्थव्यवस्था को गंभीर रूप से प्रभावित हुई थी, बल्कि राजकोष को प्राप्त होने वाले, राजस्व की बड़ी मात्रा से वंचित भी कर दिया था। इस बुराई को दूर करने के लिए उपरोक्त अधिनियम की मांग की गई है, यह नहीं कहा जा सकता है कि, यह एक सार्वजनिक उद्देश्य के लिए अधिनियमित नहीं किया गया था।"

1978 की नोटबंदी के खिलाफ दायर, याचिका में, यह भी दावा किया गया था कि, "याचिकाकर्ताओं को इस तरह के अनिवार्य अधिग्रहण का मुआवजा पाने के लिए अनुच्छेद 31 के तहत, प्राप्त अधिकार से वंचित किया गया था, और वैकल्पिक रूप से, भले ही यह मान लिया गया हो कि अनुच्छेद का उल्लंघन नहीं किया गया था, उच्च मूल्यवर्ग के विनिमय के लिए निर्धारित समय  1978 के अधिनियम की धारा 7 और 8 के तहत बैंक नोट "अनुचित और उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन" था।"

अदालत ने, हालांकि, तर्क की इस पंक्ति को प्रेरक नहीं पाया, "विमुद्रीकरण अधिनियम की धारा 7 और 8 उच्च मूल्यवर्ग के बैंक नोटों के लिए आवेदन करने और उसके तहत निर्धारित तरीके से समान मूल्य प्राप्त करने के लिए एक विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित करती है ... जब अधिनियम के उपरोक्त प्रावधानों को उद्देश्य के संदर्भ में माना जाता है  विमुद्रीकरण अधिनियम, यथाशीघ्र उच्च मूल्यवर्ग के बैंक नोटों के प्रचलन को रोकने के लिए, याचिकाकर्ताओं के उपरोक्त तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। साथ ही, ऐसे नोटों के धारकों को समान विनिमय करने के लिए एक उचित अवसर प्रदान करना आवश्यक था। जाहिर है, इन प्रतिस्पर्धी और असमान विचारों के बीच संतुलन बनाने के लिए धारा 7(2) विमुद्रीकरण अधिनियम ने नोटों के आदान-प्रदान के लिए समय को सीमित कर दिया।"
इसलिए, अंतिम विश्लेषण में, न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह के नेतृत्व वाली संविधान पीठ ने फैसला किया कि 1978 का अधिनियम "कानून का एक वैध टुकड़ा" था, जिसमें भूमि के उच्चतम न्यायालय द्वारा कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया था।

साल, 2016 के विमुद्रीकरण को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं ने निम्नलिखित पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए, 1978 की याचिका पर दिए गए फैसलों को, अलग करने की मांग की है। उनका तर्क यह है कि,
(1) 1978 में, विमुद्रीकृत नोट, प्रचलन में मुद्रा के एक नगण्य हिस्से का प्रतिनिधित्व करते थे, जो 1% से कम था, जबकि, 2016 के निर्णय के कारण लगभग 86% मुद्रा चलन से बाहर हो गई और उसका प्रभाव बहुत व्यापक तौर से पड़ा। 
(2) 2016 के फैसले का प्रभाव, आम जनता द्वारा झेला गया था, जबकि 1978 के फैसले ने अत्यंत समृद्ध अभिजात वर्ग के भी, केवल एक छोटे से अंश को प्रभावित किया था। 
(3) 2016 का निर्णय एक कार्यकारी परिपत्र के आधार पर था  जबकि 1978 का निर्णय एक संसदीय विधान के माध्यम से था।

इस प्रकार अदालत में, 1946, 1978 और अब 2016 में की गई नोटबंदियों को अलग अलग तरह से दिखाया गया। 1946 की नोटबंदी, वायसरॉय द्वारा जारी अध्यादेश के द्वारा, 1978 की नोटबंदी, संसद से पारित एक अधिनियम के द्वारा और 2016 की नोटबंदी, एक सर्कुलर द्वारा लागू की गई। 1978 के नोटबंदी अधिनियम को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई जिसने, अदालत ने, याचिकाकर्ता की दलील नहीं मानी। 2016 की नोटबंदी के बारे में दायर 58 याचिकाओं पर, अभी सुनवाई जारी है। 

(विजय शंकर सिंह)

कॉलेजियम प्रणाली को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कानून मंत्री के बयान पर आपत्ति जताई / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने कानून मंत्री के टेलीविजन साक्षात्कार के बारे में चिंता व्यक्त की, जिसने, कानून मंत्री ने, न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना की है। जजों की नियुक्ति से जुड़ी, एक याचिका की सुनवाई के दौरान, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष, वरिष्ठ अधिवक्ता विकास सिंह ने पीठ का ध्यान कानून मंत्री द्वारा, की गई तीखी टिप्पणी की ओर आकर्षित किया कि "यह मत कभी मत कहिये कि, सरकार फाइलों, (जजों के नियुक्ति की सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम की संस्तुति) पर बैठी है। यदि ऐसा है तो मत संस्तुति भेजिए।"

कानून मंत्री की टिप्पणी पर असहमति व्यक्त करते हुए, जस्टिस कौल ने भारत के अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमनी से कहा, "कई लोगों को कानून के बारे में संदेह हो सकता है। लेकिन जब तक यह कानून (कोलेजियम सिस्टम) है, यह देश का कानून है ... मैंने सभी प्रेस रिपोर्टों को नजरअंदाज कर दिया है, लेकिन  यह किसी बड़े पद पर आसीन, व्यक्ति की तरफ से आया है ... ऐसा नहीं होना चाहिए था।"

जस्टिस कौल, टाइम्स नाउ समिट में कानून मंत्री किरन रिजिजू के बयानों का जिक्र कर रहे थे।  रिजिजू ने कहा कि, कॉलेजियम सिस्टम को सुप्रीम कोर्ट ने ही मंजूरी दी थी और सवाल किया था कि "जो कुछ भी संविधान से अलग है, केवल अदालतों या कुछ न्यायाधीशों द्वारा लिए गए फैसले के कारण, उसे देश का समर्थन कैसे मिल सकता है?"
न्यायमूर्ति कौल ने कहा कि सरकार एनजेएसी प्रणाली को लागू नहीं करने से नाराज नजर आ रही है।  न्यायाधीश ने पूछा कि क्या कॉलेजियम की सिफारिशों को लंबित रखने का यह एक कारण हो सकता है ?

यह पीठ, जिसमें जस्टिस एएस ओका भी शामिल हैं, सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा भेजे गए 11 नामों को केंद्र द्वारा अनुमोदित नहीं करने के खिलाफ, 2021 में एडवोकेट्स एसोसिएशन बेंगलुरु द्वारा दायर, एक अवमानना ​​​​याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

जस्टिस कौल ने कहा, "आम तौर पर, हम प्रेस में दिए गए बयानों पर ध्यान नहीं देते हैं। लेकिन मुद्दा यह है कि नामों को मंजूरी नहीं दी जा रही है। सिस्टम कैसे काम करता है? हमने अपनी पीड़ा व्यक्त की है।"
न्यायाधीश ने कहा कि "जब तक कॉलेजियम प्रणाली देश का कानून है, तब तक इसका पालन किया जाना चाहिए।"  
इस प्रकार उन्होंने एजी को सरकार को "पीठ की भावनाओं" को व्यक्त करने और यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि केंद्र सिफारिशों पर न बैठे।

"ये वे नाम हैं जो डेढ़ साल से लंबित हैं। आप नामों को क्यों नहीं अनुमोदित करते हैं। नामों को इस तरह लंबित रखकर आप क्या कहना चाह रहे हैं। आप प्रभावी रूप से मिस्टर अटॉर्नी की नियुक्ति के तरीके को विफल कर रहे हैं।  का पालन किया जाना चाहिए। कई सिफारिशें 4 महीने की सीमा पार कर चुकी हैं। हमें कोई जानकारी नहीं है। हमने अवमानना ​​​​नोटिस जारी नहीं करके संयम बरता है।"

पीठ ने भारत के अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से यह सुनिश्चित करने के लिए कहा कि देश के कानून का पालन किया जाए।  अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने पीठ को आश्वासन दिया कि वह इस मामले को सुलझाने का प्रयास करेंगे।  मामले की अगली सुनवाई 8 दिसंबर को होगी। 
लाइव लॉ की रिपोर्टिंग पर आधारित। 

(विजय शंकर सिंह)

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - तीन (7)

“आपने हिंदुस्तान के सभी अपराधों और हत्याओं को माफ़ कर दिया…मैंने तो किसी की हत्या भी नहीं की…मैंने विवशता के कारण विद्रोहियों का साथ दिया, फिर भी मुझे माफ़ी नहीं दी जा रही…उन महिलाओं और बच्चों को मारना सिपाहियों और बदमाशों की करतूत थी। मेरे भाई के घायल होने के बाद मेरे सैनिक तो कानपुर छोड़ चुके थे।”

- नाना साहेब पेशवा की ब्रिटिश सरकार को लिखी चिट्ठी जिसमें उन्होंने बीबीघर नरसंहार से स्वयं को अलग किया (20 अप्रिल, 1859/ आर सी मजूमदार की 1857 पर पुस्तक में उद्धृत) 

मैं यह मान कर चल रहा हूँ कि 1857 के डेढ़ सौ वर्ष से अधिक के बाद, अब एक परिपक्वता से लोग पढ़ेंगे। इसमें नायक ढूँढने के बजाय सार्वजनिक पत्रों को पलटेंगे, और एक सम्यक सोच बनाएँगे। नाना साहेब का स्वयं को सिपाही विद्रोह से अलग करना एक ऐसा दस्तावेज बना कि, आर सी मजूमदार को अपनी किताब संशोधित करनी पड़ी, और उनके ही शब्दों में ‘so called heroes’ के खाँचे में रख दिया। इसका अर्थ यह नहीं कि वही अंतिम सत्य है, किंतु वह एक लिखित तथ्य है। 

बीबीघर के विषय में जॉन फिचेट ने गवाही दी, जिसके अनुसार भारतीय सिपाही महिलाओं की हत्या के विरोध में थे। वह सिर्फ़ पुरुषों को मारने के लिए तैयार थे। उस मध्य तात्या टोपे का आदेश आया कि सभी को मारना आवश्यक है। सावरकर ने अपनी पुस्तक में इसको उचित बताया है क्योंकि अंग्रेज़ इलाहाबाद से कानपुर तक भारतीयों की हत्या करते आ रहे थे, जिसका बदला लेना आवश्यक था। उन्होंने यह भी लिखा कि इन कुटिल गोरी महिलाओं ने जासूसी पत्र इलाहाबाद भेजे थे।

पहले सिपाहियों ने महिलाओं और बच्चों को खींच कर आंगन में लाने का प्रयास किया, लेकिन चीख-पुकार में यह मुश्किल हो रहा था। आखिर बीबीघर की खिड़कियों में बंदूकें तान कर अंधा-धुंध गोलियाँ चलायी गयी। मगर सिपाहियों ने खुद ही खीज कर यह प्रक्रिया बंद कर दी।

गवाही के अनुसार उसके बाद बेगम हुसैनी ख़ानुम के आशिक सरवर ख़ान दो मुसलमान कसाइयों और दो अन्य हिंदुओं (सौराचंद और एक अनामित) को लेकर आये, जिन्होंने तलवार लेकर काटना शुरू किया। आधे घंटे से अधिक तक नरसंहार चलता रहा, जिसमें एक बार सरवर ख़ान की तलवार भी टूट गयी। कुल 73 महिलाओं और अलग-अलग उम्र के 125 बच्चों की कथित हत्या का विवरण है (जिसमें कुछ अधमरे रह गए थे, और बाद में मारे गए)। लाशों के ढेर को वहीं कुएँ में फेंका जाने लगा। 

सावरकर ने अपनी पुस्तक में इसका वर्णन करते हुए लिखा है, “आज तक आदमी कुएँ का पानी पीता था, अब कुआँ आदमी का रक्त पी रहा था। फ़तेहगढ़ में जलते हुए लोगों का आर्तनाद जब अंग्रेज़ आकाश में फेंक रहे थे, तब बीबीगढ़ में रक्त से सने गोरी चीखें पांडे पाताल में फेंक रहे थे। मनुष्य की इन दो भिन्न जातियों में सौ वर्षों से जमा रकम का हिसाब इस तरह चुकता होने लगा।”

यह मुमकिन है और ब्रिटिश काग़जों से भी यही दिखता है कि, उस वक्त नाना साहेब अहीरवा में लड़ रहे थे। इसलिए नाना साहेब की चिट्ठी सच हो सकती है, कि उनके परोक्ष में तात्या टोपे और अज़ीमुल्ला ख़ान ने यह निर्णय लिया हो। वहीं, इतनी बड़ी घटना नाना साहेब के सहमति के बिना ही हो गयी, इस पर प्रश्नचिह्न है।

जब अहीरवा से हार की खबर आने लगी, कानपुर से सिपाही और आम नागरिक भागने लगे। कुछ दिल्ली की ओर निकले, और कुछ बिठूर घाट से नदी पार कर लखनऊ की तरफ़। नाना साहेब कानपुर का बारूदखाना उड़ाने का आदेश देकर बिठूर की ओर निकल गए। यह भीषण विस्फोट भी ब्रिटिश संस्मरणों में वर्णित है।

हैवलॉक की सेना जब कानपुर पहुँची, यह एक वीरान मरघट सा दिख रहा था। मेजर बिंघैम ने बीबीघर के विषय में लिखा,

“फर्श पर टखनों तक खून जमा था, और लाशें बिखरी पड़ी थी…बच्चों के जूते बिखरे थे…कुआँ लाशों से भरा पड़ा था”

17 जुलाई को हैवलॉक ने एक टुकड़ी नाना साहेब के पीछे बिठूर भेजी, मगर वहाँ भी वीराना था। उन्होंने कयास लगाया कि नाना साहेब गंगा पार कर कहीं आगे निकल गए। अंग्रेज़ों ने उनका महल लूट कर उसे जला दिया। नाना साहेब के एक सहयोगी (पेशवा कलक्टर वर्णित) को पकड़ लिया गया, और मेजर बिंघैम ने लिखा,

“हमने उसके हाथ-पाँव बाँध दिए, और उसके मुँह में जबरन गोमाँस और सूअर का माँस ठूँस कर उसका धर्म भ्रष्ट कर दिया…मुझे याद नहीं कि उसके बाद वह जिंदा बचा या नहीं, अन्यथा उसे फांसी पर लटकाने में बहुत आनंद आता।”

हैवलॉक, जॉन नील को ज़िम्मेदारी सौंप कर लखनऊ निकल रहे थे। जॉन नील ने अपनी क्रूरता का वर्णन स्वयं किया है कि, वह ब्राह्मणों को पकड़ कर उन्हें पहले फर्श पर गिरा खून साफ़ करवाते, और फिर उन्हें वहीं फाँसी पर लटका देते।

किसी भी मंजे हुए इतिहासकार के लिए इनमें से एक पक्ष को नायक बनाना बायें हाथ का खेल है। भारतीय राष्ट्रवादी इतिहासकार बीबीघर और सतीचौरा अंश को छोटा कर अंग्रेज़ों की हिंसा पर पन्ने भर सकते हैं, वहीं ब्रिटिश इतिहासकार ‘Never forget Cawnpore!’ के नारे पर भारतीयों का वीभत्स पक्ष दिखा सकते हैं। भारतीयों के अंदर जाति और धर्म के नायकों पर रस्सा-कशी हो सकती है। लेकिन, यह स्याह-सफ़ेद क़िस्सा नहीं, यह इतिहास है जिसके कई पन्ने अभी खुलने बाकी है और कुछ शायद कभी न खुलें। 

खैर, कानपुर से अब लखनऊ का रुख किया जाए। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - तीन (6) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-6_27.html 


Sunday, 27 November 2022

मनीष आज़ाद / Mephisto: एक कलाकार जिसने अपनी आत्मा फासीवादियों को बेच दी….

जर्मन फासीवाद पर वैसे तो कई बेहतरीन फिल्में हैं, लेकिन 1981 में आयी यह फिल्म एकदम अलग तरह की है।

‘हेन्डरिक’ एक स्टेज कलाकार है। वह आम तौर से वाम की ओर झुका हुआ हैै। और उसी तरह के नाटक करता है। उसके ग्रुप में ज्यादातर कलाकार वाम की ओर झुके हुए हैं। यह वह समय है जब जर्मनी में नाजीवाद तेजी से अपने पैर पसार रहा है। फिर एक दिन अचानक से खबर आती है कि हिटलर ने सत्ता पर कब्जा कर लिया है।

परिस्थिति पूरी तरह बदल जाती है। हेन्डरिक के बहुत से दोस्त ‘प्रतिरोध दस्तों’ में शामिल हो जाते है और बहुत से देश छोड़ के चले जाते हैं। हेन्डरिक की पत्नी भी देश छोड़ कर फ्रान्स चली जाती है। जाने से पहले वह हेन्डरिक को भी देश छोड़ने के लिए मनाती है। लेकिन वह नहीं मानता और तर्क देता है कि ये नाजी लोकतान्त्रिक तरीके से ही तो सत्ता में आये है, और मेरा काम थियेटर करना है और मुझे कुछ नहीं पता। जब उसके दोस्त उसे प्रतिरोध दस्ते में शामिल होने के लिए कहते हैं तो वह कहता है कि मुझे रिजर्व में रख लो। अभी तत्काल मैं शामिल नहीं हो सकता। 

यहीं से उसका व्यक्तित्व बदलने लगता है। और वह अपने आपको नयी परिस्थिति में ढालने में लग जाता है और उसके अनुसार ही तर्क भी गढ़ने लगता है।

आगे बढ़ने से पहले यह जान लेते हैं कि फिल्म का नाम ‘मेफिस्टो’ का मतलब क्या है। जर्मन लोक कथा में ‘फास्ट’ और ‘मेफिस्टो’ को लेकर अनेक कहानियां हैं। फास्ट एक कलाकार-बुद्धिजीवी है। मेफिस्टों एक 'दानव' है। मेफिस्टों हमेशा लोगो की आत्मा का सौदा करने के लिए घूमता रहता है। जो उसे अपनी आत्मा बेच देता है उसे वह खूब सारा धन व शोहरत देता है। एक दिन फास्ट भी मेफिस्टो को अपनी आत्मा बेच देता है और इस ऐवज में उसे बहुत सा धन व शोहरत मिलती है।

इसी दौरान एक बार स्टेज पर ‘मेफिस्टो’ का रोल करते हुए वीआइपी दर्शक दीर्घा में बैठा हुआ नाजी जनरल हेन्डरिक के अभिनय से प्रभावित हो जाता है और उसे अपने पास बुलाता है। दोनो के मिलन को दर्शक सांस बांधे देख रहे हैं। यह पूरी फिल्म का बहुत ही पावरफुल दृश्य है और बेहद प्रतीकात्मक है। मानो यहीं पर फास्ट यानी हेन्डरिक अपनी आत्मा का सौदा मेफिस्टो यानी नाजी जनरल के साथ करता है। और उसके बाद शुरु होती है आत्मा विहीन खोखले हेन्डरिक की शोहरत की यात्रा और जल्द ही उसे संस्कृति का पूरा जिम्मा दे दिया जाता है।

इसी समय सांस्कृतिक मंत्रालय की तरफ से उसे फ्रांस जाना होता है वहां वह अपनी पूर्व पत्नी से मिलता है। वह आश्चर्य करती है कि वह ऐसे माहौल में बर्लिन में कैसे रह पा रहा है। वह कहता है कि मैं थियेटर में रहता हूं। तो उसकी पूर्व पत्नी बोलती है कि आखिर थियेटर बर्लिन में ही तो है। यह बहस इस सर्वकालिक बहस की ओर संकेत करती है कि कला निरपेक्ष होती है या समाज सापेक्ष। इससे पहले भी जब उसकी पत्नी उससे स्टैण्ड लेने को कहती है तो वह बोलता है कि मेरा स्टैण्ड शेक्सपियर है (उस समय वह शेक्सपियर का नाटक ‘हैमलेट’ करने जाने वाला था)। उसकी पत्नी गुस्से से बोलती है कि तुम शेक्सपियर के पीछे छिप नहीं सकते। नाजी लोग अपनी गन्दगी पर पर्दा डालने के लिए शेक्सपियर जैसा क्लासिक नाटक करते हैं। तुम्हे इसे समझना चाहिए।

आज भारत की परिस्थिति में भी हम इसे देख सकते हैं। जब नाटककार या कलाकार आज के तीखे सवालों से आंख चुराते हुए अपनी कायरता पर पर्दा डालने के लिए पुराने ‘क्लासिक’ नाटक के पीछे अपने को छुपा लेते हैं।
फ्रांस में जब हेन्डरिक की अपनी पूर्व पत्नी से बहस हो रही होती है तो वही पास में बैठा उसका एक पुराना दोस्त इसे सुन रहा होता है। कुछ समय बाद वह आता है और हेन्डरिक को एक थप्पड़ जड़ देता है। यह दृश्य बहुत ही पावरफुल है। हेन्डरिक इस थप्पड़ का जरा भी विरोध नहीं करता। ‘क्लोज अप’ में चेहरे का भाव यह बताता है कि उसे पता है कि वह इसी लायक है।

जब उसकी दूसरी काली पार्टनर (जिसके साथ वह कभी पब्लिक में नहीं होता क्योकि उस दौरान जर्मनी में प्रचलित नस्लीय शुद्धता के सिद्वान्त से यह मेल नहीं खाता, इसलिए वह अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके अपनी काली पार्टनर को देश से निकल जाने के लिए बाध्य करता है और उस पर यह अहसान भी जताता है कि उसने उसे सम्भावित नाजी हमले से बचा लिया) अकेले में उसे उसके समझौते या कहे कि उसकी मक्कारी के लिए धिक्कारती है तो वह कोई प्रतिरोध नहीं करता बल्कि तुरन्त आइने में देखता है कि क्या वह सचमुच कमीना है।

नाजी जनरल की चापलूसी करते हुए वह यहां तक चला जाता है कि एक प्रोग्राम में वह कहता है-‘‘बिना संरक्षण के कला टूटे पंखों वाली चिड़िया की तरह होती है।’’

दरअसल जब जब कैमरा हेन्डरिक का क्लोज अप लेता है तो उसके व्यक्तित्व का खोखलापन बहुत पावरफुल तरीके से सामने आ जाता है। और यही लगता है कि जब वो आरम्भ में वाम की ओर झुका था तब भी उसे वाम से कुछ लेना देना नहीं था बस उस समय वाम ही उसके आगे बढ़ने के लिए एक सीढ़ी की तरह था जैसे इस समय नाजी हंै।
फिल्म में एक और दृश्य बहुत ही प्रतीकात्मक और शक्तिशाली है। एक बार जब वह अपने आफिस आता है तो देखता है कि किसी ने आफिस के अन्दर नाजी-विरोधी पर्चे फेंके हुए है। वह जल्दी से जल्दी दूसरे लोगों के आने से पहले सभी पर्चे इकट्ठा करता है, बाथरुम में जाकर उन्हें जलाता है और फिर करीने से राख को इकट्ठा करके उसे अपनी जेब में रख लेता है। दरअसल ऐसे कलाकारो का यही मुख्य काम होता है- प्रतिरोध की आंच से व्यवस्था को बचाना। भारत में भी ऐसे कितने कलाकार हैं जो इस काम में जी जान से लगे हुए हैं।

फिल्म का अन्त बहुत शक्तिशाली है। नाजी जनरल हेन्डरिक को विशाल नवनिर्मित नाटक हाल में ले जाता है और कहता है कि यहां तुम्हारे प्रदर्शन पर तुम्हें बहुत शोहरत मिलेगी। उसे जबर्दस्ती हाल के बीच में जाने को कहा जाता है और उस पर चारों तरफ से लाइट डाली जाती है। इस तेज लाइट से बचने के लिए वह अपना चेहरा छुपाने का असफल प्रयास करता है और अपने से कहता है कि ये लोग मुझसे चाहते क्या हैं, आखिर मैं एक कलाकार ही तो हूं। यहीं पर ‘फ्रीज फ्रेम’ के साथ फिल्म समाप्त हो जाती है।

इस पूरी फिल्म को यदि हम आज के अपने देश के हालात में और उसमें कलाकारों की भूमिका के सन्दर्भ में अनुदित करें तो हमें गजब का साम्य नजर आयेगा। आपको भारत के फास्ट (हेन्डरिक जैसे कलाकार) और मेफिस्टो (फासीवादी यानी सरकारी तंत्र) के बीच की जुगलबन्दी को पहचानने में ज्यादा वर्जिश नहीं करनी पड़ेगी। लेकिन यह काम मैं आप पर ही छोड़ता हूं।

वे नहीं कहेंगे कि वह समय अंधकार का था
वे पूछेंगे कि
उस समय के कवि
चुप क्यो थे?
- ब्रेख्त

[इस फिल्म को 1981 में विदेशी भाषा की कैटेगरी में बेस्ट फिल्म का आस्कर अवार्ड भी मिला। इस फिल्म को हंगरी के डायरेक्टर ‘Istvan Szabo’ ने निर्देशित किया।]

© मनीषआज़ाद 

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - तीन (6)

जिस कारतूस को लेकर विवाद हुआ, वही एनफ़िल्ड हार की वजह बन रही थी। इस राइफ़ल का निशाना 800 गज तक पक्का था, और भारतीय सिपाहियों के ‘ब्राउन बेस’ बंदूक से चौगुना प्रभावी था। इतिहासकार यह भी मानते हैं कि अंग्रेज़ जान-बूझ कर यही राइफ़ल अधिक प्रयोग कर रहे थे, ताकि बाग़ी सिपाहियों के सीने में वही कारतूस उतरे। यह एक तरह का मानसिक खेल था, जिसका असर 1857 के बाद दिखा।

इलाहाबाद से मेजर रेनॉड की टुकड़ी जुलाई की शुरुआत में कानपुर के लिए निकली। 7 जुलाई को स्वयं जनरल हैवलॉक इलाहाबाद से निकले। दूसरी तरफ़ कानपुर से लगभग 3500 भारतीय सिपाही उनसे लड़ने के लिए निकले। भारतीयों का सेनापति ज्वाला प्रसाद को बनाया गया, जिनके साथ दो कमांडर थे। एक घोड़े पर बैठे टीका सिंह, और दूसरे हाथी पर सवार तात्या टोपे।

नानकचंद और शेरर की डायरी के अनुसार 9 जुलाई तक एक यूरोपीय टुकड़ी मूरतगंज पहुँच चुकी थी, और 12 जुलाई को फ़तेहपुर। फ़तेहपुर में ही रेनॉड और हैवलॉक की सेना एक हो गयी। अंग्रेज़ों की टुकड़ी में जो भारतीय सिपाही थे, वे मुख्यतः मद्रास फ्यूजिलियर्स के दक्षिण भारतीय और फ़िरोज़पुर से आए सिख थे। शेष यूरोपीय सैनिक थे। शेरर अपने संस्मरण में यह भी लिखते हैं कि जब वे मार्च कर रहे थे, तो कुछ स्थानों को छोड़ कर अधिकांश स्थान वीरान थे। गाँवों के लोग फाँसी के डर से कहीं छुप गये थे।

फ़तेहपुर के पुल पर रेनॉड की छोटी टुकड़ी का मुक़ाबला विशाल भारतीय सेना से हुआ। हैवलॉक ने अपनी बड़ी टुकड़ी ठीक पीछे छुपा कर रखी थी, जो भारतीयों को नज़र नहीं आ रही थी (सावरकर के वर्णन में लिखा है कि अंग्रेजों ने तोप की बत्ती बुझा रखी थी)।

युद्ध पूरे जोश में धार्मिक जयकारों के साथ शुरू हुआ, किंतु ब्रिटिश हमलों के सामने टिक नहीं सका। विवरणों के अनुसार अंग्रेजों ने अगली पंक्ति में आठ तोप और सौ राइफ़लधारी रखे थे। उन्होंने ही अधिकांश को मार गिराया, और एक समय जब गोली एक हाथी को लगी तो भगदड़ मच गया। कैप्टन मॉड ने लिखा है,

“मुझे लगता है कि हाथी पर बैठे व्यक्ति तात्या टोपे थे, जिनके गिरने के बाद बाग़ियों का मनोबल गिर गया, और वह पीछे लौटने लगे। बाद में इस व्यक्ति (तात्या) ने हमें कई परेशानियाँ दी…हम कुछ समय बाद जब उस हाथी को देखने आगे बढ़े, एक अधमरा बाग़ी घुड़सवार नीचे गिरा था। वह हाथ जोड़ कर कह रहा था- अमन, अमन! हमें सख़्त हिदायत थी कि अब ऐसी कोई अपील नहीं सुनी जाएगी। हमने उसके सर में गोली मार दी।”

15 जुलाई को पांडु नदी के निकट एक बार और भिड़ंत हुई। वहीं, औंग गाँव में कैप्टन रेनॉड को जाँघ में गोली लगी और मारे गए। 16 जुलाई को महाराजपुर पहुँच कर ब्रिटिश सेना कानपुर की सीमा पर दस्तक दे चुकी थी। मगर, उन्हें मालूम पड़ा कि भारतीय पुनः संगठित होकर अहिरवा (वर्तमान कानपुर हवाई अड्डे के निकट) में उनका रास्ता रोकने के लिए खड़े हैं। 

वहाँ बाक़ायदा खंदक खोद कर, उसमें तोप बिठा कर क़िलाबंदी की गयी थी। अगर ब्रिटिश जोश में आगे बढ़ते, तो बुरी तरह मारे जा सकते थे। लेकिन, एक बार फिर हैवलॉक ने यह सूझ-बूझ दिखायी कि आगे बढ़े ही नहीं। महाराजपुर में रुक कर योजना बनाने लगे।

अगली सुबह जब ब्रिटिश निकले, तो उन्होंने देखा कि भारतीय पूरे जोश से लड़ रहे हैं, लेकिन रणनीतिक ग़लतियों से मारे जा रहे हैं। उस दिन हाथी पर सवार एक व्यक्ति ‘उठो! लड़ो! आखिरी बार’ कहते हुए भारतीयों को जागृत कर रहे थे। ब्रिटिशों का अनुमान था कि वह स्वयं नाना साहेब पेशवा थे, जिन्होंने बमुश्किल दो हफ्ते राज किया था। जो भी रहे हों, इस युद्ध में अंग्रेजों के दर्जनों सिपाही मारे गए।

अंततः अंग्रेज़ कानपुर नगर में घुस गए। अब उनकी अगली कोशिश थी कि नाना साहेब के शरण में रह रहे अंग्रेजों को मुक्त कराया जाए। लेकिन, उन्हें देर हो चुकी थी। 

शरणार्थियों को सर जॉर्ज पार्कर की बीवी के बंगले ‘बीबीघर’ में रखा गया था। वह जनाना घरों की तरह बाहर से बंद घर था, जिसके मध्य एक खुला आँगन और बाहर एक कुआँ था। वहाँ नाना साहेब की प्रिय तवायफ़ अदला की एक सेविका हुसैनी ख़ानुम ने उनकी ज़िम्मेदारी ले रखी थी। वह उनसे किसी क़ैदखाने की तरह चक्की पिसवाती, और स्वयं मसनद पर पान खाते बैठी रहती।

कानपुर हार के बाद उनका भविष्य तय किया जा चुका था। 15 जुलाई के 4.30 बजे दो रसूखदार अंग्रेज़ और एक चौदह साल के किशोर बीबीघर से बाहर लाये गये, और उनको गोली मार दी गयी। आधे घंटे बाद हुसैनी ख़ानुम ने अंदर अंग्रेज़ औरतों को बताया, “तुम सबको मारने का फ़ैसला लिया गया है।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - तीन (5) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-5_27.html 

नोटबंदी पर, प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए सार्वजनिक आश्वासन और उनकी अवहेलना / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट में नोटबंदी से जुड़ी 58 जनहित और अन्य याचिकाओं पर, सुनवाई चल रही है। इन्ही याचिकाओं में एक याचिका है जिसमे, प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए, इस आश्वासन पर, एक कानूनी विंदु उठाया गया है कि, क्या प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए किसी आश्वासन को, सरकार, मानने से इंकार कर सकती है ? क्या प्रधानमंत्री के नीतिगत आश्वासनों की अवहेलना, उन्हीं के प्रशासनिक तंत्र द्वारा, किया जा सकता है ?

इस याचिका पर, याचिकाकर्ता की ओर से, अपना पक्ष प्रस्तुत करते समय, याचिकाकर्ता के वकील, श्याम दीवान ने, अदालत में कहा कि, "केंद्र सरकार या भारतीय रिजर्व बैंक को विमुद्रीकरण की पूर्व संध्या पर, प्रधान मंत्री द्वारा राष्ट्र को दिए गए इन आश्वासनों की उपेक्षा करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है, जिसमे, पुराने नोटों को बदलने की सुविधा, मार्च 2017 तक जारी रहने का स्पष्ट आश्वासन दिया गया था, और इसकी अवहेलना,  एक व्यक्ति को, दिए गए, उसके  मौलिक और संवैधानिक अधिकारों का, उल्लंघन होगा।"
वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को अवगत कराया कि, "भारतीय प्रधान मंत्री, ने, जब इस, बेहद महत्वपूर्ण नीति की घोषणा की थी, तो उन्होंने इन आश्वासनों के बारे के, कुछ सोच समझ कर ही कहा होगा। यह आश्वासन, उचित आचरण के रूप में, एक उपयुक्त बेंचमार्क प्रदान करता है। अब, इस आश्वासन से हटना (या इसे पूरा नहीं किया जाना) बेहद अनुचित है।" 

संविधान पीठ के समक्ष, श्याम दीवान कहते हैं, "भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार के नवंबर 2016 में 500 रुपये और 1,000 रुपये के उच्च मूल्य के करेंसी नोटों को विमुद्रीकृत करने के फैसले को चुनौती देने वाली 58 याचिकाओं के एक बैच की सुनवाई, पांच-न्यायाधीशों की खंडपीठ, जिसमें जस्टिस एस. अब्दुल नज़ीर, बी.आर.  गवई, ए.एस.  बोपन्ना, वी. रामासुब्रमण्यन, और बी.वी. नागरत्ना, हैं द्वारा की जा रही है। अन्य बातों के साथ-साथ, 8 नवंबर के सर्कुलर की वैधता पर भी संविधान पीठ, विचार कर रहे हैं, जिसके कारण, नोटबंदी नीति को आकार मिला।"

वित्त मंत्रालय, रिज़र्व बैंक और पत्र सूचना कार्यालय द्वारा जारी अधिसूचनाओं, नोटिसों, परिपत्रों और प्रेस विज्ञप्तियों के संकलन के माध्यम से अदालत में अपनी बात रखते हुए वरिष्ठ वकील, श्याम दीवान ने कहा, "यह सब, पूरी तरह से उस आश्वासन के अनुरूप था, जो प्रधान मंत्री द्वारा, अपने संबोधन में कहा गया था। हर कोई - प्रधान मंत्री, सरकारी ब्यूरो, वित्त मंत्रालय, प्रेस ब्यूरो, रिज़र्व बैंक - एक स्वर में बोल रहा था। मोटे तौर पर, यह बात तय हो गई थी कि, माह दिसंबर का अंत, नोट बदलने की, अंतिम तिथि नहीं थी।" 
श्याम दीवान, एक पीड़ित याचिकाकर्ता की ओर से पेश हो रहे थे, जो अप्रैल 2016 में विदेश यात्रा के दौरान 1.62 लाख रुपये नकद छोड़ गया था, लेकिन जब वह फरवरी 2017 में देश लौटा तो अपने, रद्द हो चुके, करेंसी नोटों की अदला बदली नहीं कर सका था। 

30 दिसंबर, 2016 को, निर्दिष्ट बैंक नोट (दायित्वों की समाप्ति) अध्यादेश द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग करते हुए, जिसे उसी दिन भारतीय रिज़र्व बैंक की धारा 34 के तहत रिज़र्व बैंक की देनदारियों को वैधानिक रूप से समाप्त करने के लिए तय किया गया था। यह नोट बदलने की आखिरी तारीख थी। यह गारंटी, आरबीआई अधिनियम, 1934, धारा 26(1) के तहत विमुद्रीकृत बैंक नोटों के, बदलने के संबंध में केंद्र सरकार की गारंटी थी। लेकिन, केंद्र सरकार ने, यह भी अधिसूचित किया था कि, पुराने नोटों को बदलने के लिए "अनुग्रह अवधि" भारत के निवासियों के लिए 31 मार्च, 2017 तक और अनिवासियों एनआरआई के लिए 30 जून, 2017 तक बढ़ाई जाएगी। यानी इस संबंध में दो नोटिफिकेशन थे। आरबीआई एक्ट के अनुसार, नोट, 31 दिसंबर 2016 तक बदले जाएंगे, और इससे अलग, सरकार के ही, एक नोटिफिकेशन अनुसार, करेंसी नोट 31 मार्च और 30 जून 2017 तक बदले जा सकते हैं। आरबीआई और सरकार के यह दोनों नोटिफिकेशन, परस्पर विरोधाभासी निर्णय को अभिव्यक्त कर रहे थे। 

इसी को स्पष्ट करते हुए श्याम दीवान ने आगे बताया कि, "उस प्रावधान के आधार पर जो यह, अनिवार्य करता है कि, प्रस्तुत किए गए निर्दिष्ट बैंक नोट की राशि, विदेशी मुद्रा प्रबंधन (मुद्रा का निर्यात और आयात) विनियम, 2015 के तहत निर्दिष्ट राशि से अधिक नहीं होनी चाहिए। अनुग्रह अवधि, केवल उन लोगों के लिए बढ़ाई गई थी जो  "देश से, बाहर अपना पैसा ले गये थे और इसे वापस लाये थे। परंतु, सरकार द्वारा लगाई गई शर्त, याचिकाकर्ता जैसे व्यक्ति के लिए, अधिसूचना के कार्यान्वयन को, पूरी तरह से बाहर कर देती है। एक भारतीय जो विदेश यात्रा करता है, अपना पैसा भारत में छोड़ देता है, और 31 दिसंबर, 2016 के बाद वापस आ जाता है, उसे लाभ के दायरे से बाहर रखा जाता है। इस तरह से अधिसूचना का कार्यान्वयन होता है। यही कारण है कि, उनका आवेदन खारिज कर दिया गया था।"

श्याम दीवान की इस शिकायत के जवाब में कि, "किसी भी अधिसूचना में याचिकाकर्ता जैसी स्थिति पर विचार नहीं किया गया है।"
पीठ ने एडवोकेट, श्याम दीवान को आश्वासन दिया कि, दावों की वास्तविकता के सत्यापन के बाद स्वतंत्र मामलों पर रिज़र्व बैंक द्वारा उप-धारा (2) के तहत विचार किया जा सकता है।  2017 अधिनियम की धारा 4 या केंद्रीय बोर्ड द्वारा धारा 4 की उप-धारा (3) के तहत, "यदि रिज़र्व बैंक या केंद्रीय बोर्ड द्वारा उचित तरीके से इस शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाता है और प्रासंगिक  कारकों, व्यक्तिगत मामलों में, हम यह मान सकते हैं कि उनके पास होना चाहिए।" यह बात पीठ की तरफ से, न्यायमूर्ति गवई ने कहा।  
हालांकि, दीवान ने कहा, "यह अदालत व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप कर सकती है, लेकिन हमारे देश की विशालता और परिस्थितियों को देखते हुए, रिजर्व बैंक को व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। इस तरह की परिस्थितियों के लिए उनके पास एक सामान्य प्राविधान होना चाहिए।"

श्याम दीवान ने बैंक नोट विमुद्रीकरण को इस आधार पर भी चुनौती दी कि, "यह कानून के अधिकार के बिना, संपत्ति से वंचित करने के समान है और यह अनुच्छेद 14 के संवैधानिक कारकों  को पारित नहीं करता है।"
न्यायमूर्ति गवई ने आश्चर्य व्यक्त किया कि, "क्या अदालत द्वारा आरबीआई को निर्देशित करने के बाद, यह प्रश्न जीवित रहेंगे कि, बैंक सुझाए गए तरीके से अपनी शक्ति का प्रयोग करेगा, ऐसे लोगों के आवेदनों पर विचार करेगा, जो वैध कारणों से निर्धारित समय के भीतर पुराने करेंसी नोटों को बदलने में असमर्थ थे ?
दीवान ने स्वीकार किया, "अगर मुझे पर्याप्त राहत मिलती, तो एक तरह से यह मुद्दा नहीं उठता ।"  
हालांकि, उन्होंने जल्दी से कहा कि "संवैधानिक मुद्दे को पहचानना" महत्वपूर्ण था क्योंकि यह रिजर्व बैंक और केंद्र सरकार के "बाध्य कर्तव्यों को बढ़ाता है।"
वरिष्ठ वकील ने यह भी कहा, "यह नीति की आलोचना नहीं है। यह केवल यह इंगित करने के लिए है कि "अगर इस तरह की शक्ति को अनियंत्रित और अनियंत्रित छोड़ दिया जाता है, तो यह नागरिकों के जीवन के लिए बड़े पैमाने पर और निरंतर परिणाम पैदा कर सकता है।"

श्याम दीवान द्वारा व्यक्त की गई भावनाओं को, अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने भी, प्रतिध्वनित किया गया। एडवोकेट, प्रशांत भूषण, एक शोक संतप्त पत्नी की ओर से, अदालत में, उपस्थित हो रहे थे, जिसने अपने पति की बचत राशि के करेंसी नोटों की अदला बदली करने की मांग की थी, जिसे, पुराने नोटों की अदला बदली का नियम ही, आदान-प्रदान के लिए तयशुदा अवधि के समाप्ति हो जाने के बाद ही पता चला। प्रशांत भूषण ने कहा, "ऐसे कई लोग होंगे जो इस अदालत में नहीं आ सकते हैं।" प्रधान मंत्री ने कहा था कि, "मार्च के अंत तक, अदला बदली की सुविधा, मिलेगी और यह बात उन्होंने, राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कही थी। अचानक इस सुविधा का बंद हो जाना अनुचित है, और यहां तक ​​कि, एक तरह की यह, फिक्सिंग भी है।  मनमानी समय सीमा जो वास्तविक लोगों को अपनी गाढ़ी कमाई का उपयोग करने या बदलने से रोकती है, पूरी तरह से गलत है।"
यह कहना है एडवोकेट, प्रशांत भूषण का, जो उन्होंने अपना पक्ष प्रस्तुत करते समय, संविधान पीठ को बताया। 

नोटबंदी की याचिकाओं की सुनवाई करते समय जिस तरह से नए नए तथ्य और विसंगतियां, संविधान पीठ के समक्ष सामने आ रही हैं वह सरकार और  गवर्नेंस की हैरान कर देने वाली अक्षमता को ही उजागर कर रही है। यह अक्षमता, नोटबंदी का निर्णय करने से लेकर, उसे लागू करने तक में कदम कदम पर दिख रही है। इस याचिका में एक महत्वपूर्ण रोचक विंदु कि, प्रधानमंत्री के संबोधनों में, जो आश्वासन और नीतिगत वायदे दिए जाते हैं तो, उनकी कानूनी स्थिति क्या है ? क्या उनकी अवहेलना या उल्लंघन, सरकार के प्रशासनिक तंत्र द्वारा की जानी चाहिए या नहीं ? या, प्रधानमंत्री के, यह सब संबोधन, उद्बोधन, केवल एक वाक विलास हैं और उनकी कोई वैधानिक स्थिति नहीं है ? सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का इस बारे में क्या दृष्टिकोण रहता है, यह देखना दिलचस्प होगा। अभी सुनवाई जारी है। 

(विजय शंकर सिंह)

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - तीन (5)

बीस-तीस हज़ार भारतीय सिपाही बनाम पाँच-छह हज़ार ब्रिटिश और गुरखा। फिर भी ब्रिटिश को अगर कम नुकसान पहुँच रहा था, इसकी वजह उनकी अनुशासित योजना थी। आखिर इन भारतीय सिपाहियों को भी उन्होंने ही प्रशिक्षित किया था, लेकिन उनमें ऐसे सिपाही कम थे जो ब्रिगेडियर रैंक तक पहुँचे हों। जहाँ ब्रिटिश दिल्ली टीले पर एक छावनी में केंद्रित थे, भारतीय पूरी दिल्ली में बिखरे हुए थे। वे हर सुबह बिना किसी कमान के बंदूक उठा कर लड़ने चल पड़ते। 

जिहादियों का तो अलग ही हिसाब-किताब था। उन्हें बंदूक चलाना आता नहीं था, और यह लड़ाई तलवार-बाज़ी की थी नहीं। हाथापाई की लड़ाई में गुरखा कहीं अधिक फुर्तीले थे, जिनकी खुखरी के सामने जंग लगी तलवारें टिक नहीं पाती। टाइम्ज़ अखबार के विलियम रसेल ने लिखा (‘द लास्ट मुगल’ में संदर्भित),

“गाज़ी दिखने में अच्छे थे। कुछ लंबी दाढ़ी वाले बुजुर्ग जो हरी पगड़ी, कमरबंद और कुरान के निशान वाली अंगूठी पहने रहते। वे एक हाथ में ढाल, दूजे में तलवार लिए ‘दीन दीन’ चिल्लाते दौड़े हुए आते, कुछ अजीबोग़रीब करतब करते हुए हमला करते। इतने में ब्रिटिश रेजिमेंट का एक युवा सिपाही आगे आता, अपनी एनफिल्ड से निशाना लगा कर उन्हें मार गिराता।”

जून के अंत तक सिपाहियों का जोश गिरने लगा था। कई सिपाही युद्ध लड़ने जाते ही नहीं, और बाज़ार में घूमते रहते। जो नए सिपाही दूसरे इलाकों से रोज आ रहे थे, उनमें जोश अधिक होता। मगर पहली खेप के सिपाही अब घर लौटने की तैयारी और कुछ अपने भविष्य की फ़िक्र करने लगे।

ऐसा नहीं कि भारतीय आक्रमण से ब्रिटिश हानि नहीं हो रही थी। मेटकाफ़ हाउस ध्वस्त हो चुका था, बाड़ा हिंदू राव गोलियों से छलनी था। कम से कम एक मौके पर भारतीय सिपाही दिल्ली टीले पर चढ़ कर हाथापाई करने और छावनी जलाने के मुकाम तक पहुँचे। हताश जनरल विल्सन ने अपनी पत्नी को चिट्ठी लिखी थी, 

“पता नहीं हम कभी दिल्ली हासिल कर पायेंगे या नहीं...ये पांडे (pandies)* जितने मरते हैं, उतने फिर से खड़े हो जाते हैं”

दिल्ली में खाने की रसद खत्म हो रही थी, क्योंकि ग्रैंड ट्रंक रोड पर अंग्रेजों ने नाकाबंदी कर दी थी। पानी के नाम पर यमुना का पानी ही था, वहीं नहाना, वहीं पकाना, वहीं नित्य कर्म करना। मक्खियों, प्रदूषण और लाशों की दुर्गंध से बीमारियाँ भी पसरने लगी। ब्रिटिश जितने गोली से नहीं मरे, उतने इस बीमारी से मरने लगे। पहले करनाल में जनरल एंसन मरे थे, 5 जुलाई को ब्रिटिश सेनापति जनरल बर्नार्ड भी हैजा से मर गए। उसके बाद एक बूढ़े और बीमार जनरल रीड को कमान सौंपी गयी। इसके साथ ही ब्रिटिशों का भी जोश गिरने लगा। दो हफ़्ते बाद जनरल रीड खुद ही बीमारी का बहाना बना कर शिमला में आराम करने निकल गये। अब कमान मिली जनरल विल्सन को।

जनरल विल्सन ने लखनऊ चिट्ठी लिखी,

“हमारे सिपाहियों की संख्या दिन-ब-दिन घट रही है। हम दिल्ली पर क़ब्ज़ा करने की हालत में फ़िलहाल नहीं है। हम सिर्फ़ एक काम कर सकते हैं कि बाग़ियों को दिल्ली में उलझा कर रखें, ताकि वह बाकी देश में न पसरें। आप मुझे यथासंभव सिख रेजिमेंट भिजवाने का इंतज़ाम करें। उनके आने के बाद ही हम आक्रमण कर पायेंगे”

मिला-जुला कर दिल्ली ‘डेडलॉक’ स्थिति में थी, जहाँ न किसी की जीत हो पा रही थी, न हार। मगर इलाहाबाद से जो ब्रिटिश टुकड़ियाँ निकल रही थी, वह आक्रामक और ख़ूँख़ार रूप में थी। पेड़ों पर लाशें लटकाते हुए कानपुर की ओर कूच कर रही थी।

जब कानपुर में यह खबर पहुँची कि अंग्रेज़ों ने पूरा फ़तेहपुर जला दिया है तो एक और भीषण नरसंहार से बदला लिया गया। यह सतीचौरा, झाँसी, बरेली या शाहजहाँपुर से अधिक विकराल था। इस हद तक कि वर्णनों के अनुसार कुछ भारतीय सिपाहियों ने निहत्थी अंग्रेज़ महिलाओं पर गोली चलाने से इंकार कर दिया।

वह स्थान था- बीबीघर।

सावरकर ने संदर्भ सहित लिखा है कि टीका सिंह ने कहा, 

“ये महिलाएँ बीबीगढ़ में बच गयी तो इनके बयान लिए जाएँगे और उस आधार पर कानपुर के हर आदमी को ये अंग्रेज़ मार डालेंगे। इससे पहले कि अंग्रेज़ इनके बयान लें, कानपुर में एक भी गोरी चमड़ी शेष न बचे”

लगभग ऐसा ही हुआ।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - तीन (5) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-4_23.html 
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*मंगल पांडे के बाद ब्रिटिश लेखन में बाग़ियों के लिए यह नामकरण अनेक चिट्ठियों में मिलता है।

Friday, 25 November 2022

सुप्रीम कोर्ट ने भीमा कोरेगांव मामले में, प्रोफेसर आनंद तेलतुंबडे की जमानत बरकरार रखी / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने भीमा कोरेगांव मामले में, प्रोफेसर आनंद तेलतुंबडे को, जमानत देने के बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली, राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआईए, द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका को शुक्रवार 25/11/22, को खारिज कर दिया।
सीजेआई, डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने हालांकि कहा कि, "उच्च न्यायालय की टिप्पणियों को परीक्षणों में निर्णायक अंतिम निष्कर्ष नहीं माना जाएगा।"
हाई कोर्ट के जस्टिस एएस गडकरी और मिलिंद जाधव की खंडपीठ ने तेलतुंबडे को जमानत देते हुए प्रथम दृष्टया टिप्पणी की कि, "तेलतुंबडे के खिलाफ आतंकवादी गतिविधि के अपराध का कोई सबूत नहीं था।"

सुनवाई के दौरान, सीजेआई ने यह भी पूछा कि, तेलतुंबडे की क्या भूमिका है?
"यूएपीए की धाराओं को कार्रवाई के अंतर्गत, उन्हे गिरफ्तार करने लिए, क्या सुबूत हैं और उनकी क्या विशिष्ट भूमिका  है? 
जिस आईआईटी मद्रास कार्यक्रम का आपने आरोप लगाया है वह दलित लामबंदी के लिए है। क्या दलित लामबन्दी प्रतिबंधित गतिविधि का प्रारंभिक आधार ?"  
सीजेआई ने एनआईए की ओर से पेश एएसजी ऐश्वर्या भाटी से पूछा

तेलतुंबडे के खिलाफ दायर चार्जशीट में आरोप लगाया गया है कि "उन्होंने प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) की विचारधारा को आगे बढ़ाने और सरकार को उखाड़ फेंकने की साजिश रची।"
एएसजी भाटी ने कहा, "इस मामले में यूएपीए की 8 धाराओं के तहत आरोप लगाए गए हैं... उच्च न्यायालय ने इसमें गलती की है कि वह कहता है कि अभियोजन पक्ष ने जो सामग्री दिखाई है वह धारा 15, 18 और 20 के तहत विश्वसनीय नहीं है।" 
उन्होंने सीपीआई (एम) के साथ तेलतुंबडे की 'गहरी भागीदारी' का खुलासा करने वाले कई दस्तावेजों का हवाला दिया।

हालांकि, तेलतुंबडे की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने अदालत को सूचित किया कि इनमें से कोई भी दस्तावेज तेलतुंबडे के पास से बरामद नहीं हुआ है।  कथित तौर पर तेलतुंबडे
द्वारा भेजे गए ईमेल, कथित तौर पर सह-आरोपी रोना विल्सन के कंप्यूटर से बरामद किए गए थे।" 
सिब्बल ने यह भी कहा कि "तेलतुंबडे अपने भाई मिलिंद तेलतुंबडे से अलग हो गए थे, जो पिछले साल सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मारे गए माओवादी नेता थे।"
सिब्बल ने कहा,"मैं पिछले 30 सालों से उनसे नहीं मिला हूं।"  
सिब्बल ने कहा कि, मिलिंद को आनंद से जोड़ने वाला एनआईए का मामला एक सुनी-सुनाई साक्ष्य पर आधारित है, जो सीआरपीसी की धारा 161 के तहत दर्ज एक बयान में दिया गया है, जो साक्ष्य में अस्वीकार्य है।"
"उच्च न्यायालय का कहना है कि मुझे आतंकवादी गतिविधि से जोड़ने के लिए कोई दस्तावेज नहीं है। वह एल्गर परिषद के कार्यक्रम में भी नहीं था। उन्होंने यह दिखाने के लिए कुछ भी नहीं दिखाया कि वह वहां था।" कपिल सिब्बल ने कहा। 

एएसजे, भाटी ने यूएपीए के तहत प्रतिबंधित संगठन, सीपीआईएम की केंद्रीय समिति के एक अदिनांकित पत्र का उल्लेख किया, जिसमें कथित तौर पर तेलतुंबडे को 'प्रिय कॉमरेड आनंद' के रूप में संदर्भित किया गया था।  उसने अदालत में कथित रूप से CPI(M) के एक सक्रिय सदस्य द्वारा लिखा गया एक पत्र भी पढ़ा, जिसमें कहा गया था कि 'कॉमरेड तेलतुम्बडे' ने नक्सलबाड़ी आंदोलन के 50 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम में छात्रों की भागीदारी बढ़ाने के लिए उचित सुझाव दिए थे।"
एएसजी ने, कथित तौर पर तेलतुंबडे को लिखे गए एक पत्र का भी हवाला दिया, जो सह-आरोपी रोना विल्सन के लैपटॉप से ​​बरामद हुआ था।  पत्र में कथित तौर पर 9 और 10 अप्रैल, 2018 को होने वाले मानवाधिकार सम्मेलन के लिए तेलतुम्बडे की पेरिस यात्रा और घरेलू अराजकता को बढ़ावा देने के लिए दलित मुद्दों पर व्याख्यान का उल्लेख है।  
एएसजे भाटी ने, अदालत को सूचित किया कि, "इनमें से अधिकतर दस्तावेज़ एन्क्रिप्टेड थे और उनमें पीजीपी कुंजियाँ थीं।"
हालांकि, सिब्बल ने तर्क दिया कि पेरिस में संस्थान पहले ही एनआईए को लिख चुका है, यह स्पष्ट करते हुए कि संस्थान ने खर्च वहन किया था।  "वह शैक्षणिक कार्य के लिए था।"

एएसजे ने आरोप लगाया कि, तेलतुम्बडे ने व्याख्यान के माध्यम से प्रतिबंधित साहित्य साझा करने के लिए विदेश यात्रा की।  "गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट ने हमें आरोपी की यात्रा का विवरण दिया ... ये आधिकारिक यात्राएं नहीं हैं।"  भाटी ने कहा कि तेलतुंबडे का छोटा भाई मिलिंद, जो नवंबर 2021 में एक मुठभेड़ में मारा गया था, उससे प्रेरित था।
हालाँकि सिब्बल ने प्रस्तुत किया कि आनंद तेलतुम्बडे को उनके छोटे भाई से 30 वर्षों तक अलग रखा गया था।

एएसजे भाटी ने तर्क दिया कि, "तेलतुंबडे ने एक सक्रिय भूमिका निभाई और प्रतिबंधित संगठन की गतिविधियों को चलाने के लिए धन प्राप्त किया।  "यूएपीए के तहत, यह आवश्यक नहीं है कि आतंकवादी कार्य किया जाए। निषिद्ध संगठन के लिए तैयारी की जाती है।" 

इधर, सीजेआई चंद्रचूड़ ने, एनआईए से पूछा कि तेलतुंबडे की भूमिका क्या है।  "यूएपीए की धाराओं को कार्रवाई में लाने के लिए विशिष्ट भूमिका क्या है? आईआईटी मद्रास के कार्यक्रम में आपने आरोप लगाया कि वह दलित लामबंदी को लामबंद कर रहा है। क्या दलित लामबंदी गतिविधि को निषिद्ध करने के लिए प्रारंभिक कार्य है?"

एएसजे भाटी ने जवाब दिया कि, "वह एक प्रोफेसर हैं और व्याख्यान देने के लिए स्वतंत्र हैं।  हालांकि, उन्होंने कहा कि चूंकि उनके एक, प्रतिबंधित संगठन से संबंध हैं और उन्हें फंड भी मिला है, इसलिए वे केवल 'सामने वाले' पर भरोसा नहीं कर सकते।"
एएसजी ने कुछ दस्तावेजों का हवाला देते हुए कहा कि, "तेलतुम्बडे चाहते थे कि सभी दलित सीपीआई (एम) में शामिल हों।"
सिब्बल ने जोर देकर कहा कि तेलतुंबडे के पास से कोई भी दस्तावेज बरामद नहीं हुआ है।  "इनका यूएपीए के किसी भी प्रावधान से कोई संबंध नहीं है।

भीमा कोरेगांव मामले में कथित माओवादी कनेक्शन के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बाद एनआईए के सामने, आत्मसमर्पण करने के बाद, 73 वर्षीय पूर्व आईआईटी प्रोफेसर और दलित विद्वान को 14 अप्रैल, 2020 को एनआईए ने गिरफ्तार कर लिया था। हाई कोर्ट के जस्टिस एएस गडकरी और मिलिंद जाधव की खंडपीठ ने तेलतुंबडे को जमानत देते हुए प्रथम दृष्टया टिप्पणी की कि तेलतुंबडे के खिलाफ आतंकवादी गतिविधि के अपराध का कोई सबूत नहीं था।

अदालत ने कहा कि तेलतुंबडे ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, एमआईटी, मिशिगन यूनिवर्सिटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में व्याख्यान देने के लिए बड़े पैमाने पर यात्रा की थी और केवल इसलिए कि उनके भाई भाकपा (माओवादी) के वांछित आरोपी थे, उन्हें उनके कथित संबंधों में नहीं फंसाता है।  प्रतिबंधित संगठन को।

"यह देखा गया है कि अपीलकर्ता दलित विचारधारा/आंदोलन के क्षेत्र में बौद्धिक प्रमुखता का व्यक्ति है और केवल इसलिए कि वह वांछित अभियुक्त मिलिंद तेलतुंबडे का बड़ा भाई है, जो 30 साल पहले सीपीआई (एम) के कारण की वकालत करने के लिए भूमिगत हो गया था।  अपीलकर्ता को अभियोग लगाने और उसे सीपीआई (एम) की गतिविधियों से जोड़ने का एकमात्र आधार बनें।"

आनंद तेलतुंबडे (जन्म 15 जुलाई 1950) एक भारतीय विद्वान, लेखक और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता हैं, जो गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में प्रबंधन के प्रोफेसर हैं। उन्होंने भारत में जाति व्यवस्था के बारे में विस्तार से लिखा है और दलितों के अधिकारों की वकालत की है।  वह प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के लंबे समय से आलोचक भी हैं, और 2020 में अन्य कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के साथ जेल गए थे, जो सरकार के आलोचक थे। 

उनका विवाह रमा तेलतुम्बडे से हुआ है जो बीआर अम्बेडकर की पोती हैं।  उन्होंने भारत पेट्रोलियम में एक एक्जीक्यूटिव के रूप में काम करते हुए 1973 में विश्वेश्वरैया राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान से, मैकेनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री, 1982 में भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद से एमबीए और 1993 में साइबरनेटिक मॉडलिंग में मुंबई विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।  उन्हें कर्नाटक स्टेट ओपन विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की मानद उपाधि (डी.लिट.) से भी सम्मानित किया गया था।

अकादमिक बनने से पहले तेलतुम्बडे भारत पेट्रोलियम में एक कार्यकारी और पेट्रोनेट इंडिया लिमिटेड के प्रबंध निदेशक थे।  वह भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खड़गपुर में प्रोफेसर थे और बाद में गोवा प्रबंधन संस्थान में वरिष्ठ प्रोफेसर बने।  उन्होंने इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में "मार्जिन स्पीक" नामक एक कॉलम लिखते थे और उन्होंने आउटलुक, तहलका और सेमिनार में नियमित लेखन करते थे। उनकी 2018 की पुस्तक, रिपब्लिक ऑफ कास्ट, निबंधों का एक संग्रह है जो जाति और वर्ग के बीच संबंधों सहित दलितों की स्थिति का आकलन करती है।  तेलतुम्बडे दलित मुक्ति की लड़ाई में मार्क्सवाद और अम्बेडकरवादी आंदोलनों के साथ-साथ आरक्षण प्रणाली में सुधार के बीच घनिष्ठ संबंध की वकालत करते हैं।

29 अगस्त 2018 को, पुलिस ने तेलतुम्बडे के घर पर छापा मारा था, जिसमें उन पर 2018 भीमा कोरेगांव हिंसा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की कथित माओवादी साजिश से संबंध होने का आरोप लगाया गया था।  तेलतुंबडे ने आरोपों से इनकार किया और उन्हें गिरफ्तारी से, अस्थायी स्टे, न्यायालय द्वारा मिला, लेकिन फिर भी उन्हें 3 फरवरी 2019 को पुणे पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया और उसी दिन, बाद में, रिहा कर दिया गया। अपनी रिहाई के बाद, तेलतुम्बडे ने सरकार पर उत्पीड़न और असहमति को आपराध बनाने का प्रयास करने का आरोप लगाया। 

कानूनी विशेषज्ञों ने कहा कि, तेलतुंबडे के खिलाफ लगाए गए आरोप मनगढ़ंत प्रतीत हैं। 600 से अधिक विद्वानों और शिक्षाविदों ने तेलतुंबडे के समर्थन में एक संयुक्त बयान जारी किया, सरकार के कार्यों को "दुर्भावना से की जा रही कार्यवाही" के रूप में निंदा की और तेलतुंबडे के खिलाफ कार्रवाई को तत्काल रोकने की मांग की।  इसके अलावा, नोम चॉम्स्की और कॉर्नेल वेस्ट सहित 150 से अधिक संगठनों और बुद्धिजीवियों ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस को एक पत्र पर हस्ताक्षर किए, जिसमें आरोपों को "मनगढ़ंत" बताया और संयुक्त राष्ट्र को हस्तक्षेप करने के लिए कहा। भारत में एक दर्जन से अधिक अन्य कार्यकर्ताओं, वकीलों और पत्रकारों के साथ व्हाट्सएप के माध्यम से इजरायली स्पाइवेयर पेगासस द्वारा तेलतुंबडे के मोबाइल फोन को हैक कर लिया गया था। 

16 मार्च 2020 को, सुप्रीम कोर्ट ने गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, यूएपीए के तहत अग्रिम जमानत के लिए तेलतुंबडे की याचिका को खारिज कर दिया। कोर्ट ने तेलतुंबडे और नवलखा को सरेंडर करने के लिए तीन हफ्ते का समय दिया था। 8 अप्रैल को न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने तेलतुंबडे को 14 अप्रैल को राष्ट्रीय जांच एजेंसी, एनआईए के समक्ष, आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया। ह्यूमन राइट्स वॉच सहित अन्य संगठनों ने गिरफ्तारी की निंदा की, जबकि एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने भारत में COVID-19 महामारी के कारण सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने के लिए UNHCHR दिशानिर्देशों के, संदर्भ का हवाला दिया। जुलाई 2021 में उन्हें फिर से ज़मानत से वंचित कर दिया गया। अब जाकर, उन्हे जमानत मिली है। 

(विजय शंकर सिंह)

विमुद्रीकरण की प्रक्रिया "गंभीर त्रुटिपूर्ण" ~ संविधान पीठ के समक्ष नोटबंदी पर पी चिदंबरम / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने, 24/11/22, गुरुवार को 500 रुपये और 1000 रुपये के करेंसी नोटों को विमुद्रीकृत करने के केंद्र सरकार के विवादास्पद फैसले को चुनौती देने वाली, 58 याचिकाओं के एक बैच की सुनवाई जारी रखी। नोटबंदी के इस आदेश से, मुख्य रूप से, 86% मुद्रा अर्थव्यवस्था से बाहर हो गई थी। पांच जजों की इस संविधान पीठ की बेंच में जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर, बीआर  गवई, एएस बोपन्ना, वी रामासुब्रमण्यम, और बीवी नागरत्ना हैं। संविधान पीठ ने, अन्य बातों के साथ-साथ, 8 नवंबर के सर्कुलर की वैधता पर भी विचार कर रही है, जिसके आधार पर यह नोटबंदी लागू की गई थी, जिसके कारण, पूरे देश में, उस समय अफरातफरी मच गई थी। 

कुछ याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता पी. चिदंबरम ने अर्थव्यवस्था में मुद्रा के महत्व का संक्षिप्त विवरण देते हुए अपनी दलील पेश की।  उन्होंने समझाया, "चूंकि मुद्रा मूल्य का भंडार है और विनिमय का एक माध्यम है, यह किसी भी अन्य प्रणाली के लिए व्यापक रूप से पसंद किया जाता है। डेटा से पता चला है कि 2016 में उन्नत देशों में भी, मुद्रा ने भुगतान के विभिन्न साधनों के भारी अनुपात का प्रतिनिधित्व किया। संकट के समय भी, लोग मुद्रा पर निर्भर हो जाते हैं और अधिक मुद्रा धारण करते हैं।"  
यह बताने के लिए कि सरकार के इस दावे के बावजूद कि 2016 में उच्च-मूल्य वाले नोट विमुद्रीकरण ने "कैश-लेस" अर्थव्यवस्था के लिए रास्ता बनाया, नकदी का उपयोग और अधिक मजबूत हो गया है, चिदंबरम ने पीठ को सूचित किया कि प्रचलन में मुद्रा का कुल मूल्य 17.97 रुपये से बढ़ गया है।  2016 में लाख करोड़, विमुद्रीकरण के समय, आज 32.18 लाख करोड़ रुपये।  "अब अधिक नकदी है। और यह संख्या बढ़ती रहेगी। यह आर्थिक तर्क है। जैसे-जैसे सकल घरेलू उत्पाद बढ़ता है, अधिक लोगों की आय अधिक होती है, अधिक आय की आवश्यकता होगी," उन्होंने कहा, "पर, विमुद्रीकरण के आदेश से सरकार ने 86.4% मुद्रा वापस ले ली। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि, लोगों को उस मुद्रा की आवश्यकता नहीं थी।"

वरिष्ठ वकील पी चिदंबरम ने कहा कि, 
"मुद्रा जारी करने का अधिकार, कार्यकारी सरकार को नहीं दिया गया है, बल्कि एक स्वतंत्र प्राधिकरण को दिया गया है, जो अकेले प्रचलन रहने वाली, मुद्रा के मूल्य और मात्रा को तय कर सकता है।"
उन्होंने समझाया, "ऐसा इसलिए है क्योंकि एक कार्यकारी सरकार नकदी के लिए लोगों को भूखा रख सकती है और प्रचलन में पर्याप्त नकदी डालकर उनकी दैनिक गतिविधियों को पंगु बना सकती है। इसलिए, यह महत्वपूर्ण निर्धारण केवल भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा ही किया जाना चाहिए।"  

चिदंबरम ने कहा, "इसीलिए, मुद्रा से संबंधित जो कुछ भी निर्णय हो, भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा ही जारी होना चाहिए। विमुद्रीकरण की शक्ति का प्रयोग, केवल आरबीआई की सिफारिश पर किया जाना चाहिए।"  तथ्य यह है कि यह केंद्र सरकार, जिसने, नोटबंदी के बारे एक "वर्चुअल कमांड" जारी किया था, जिसे तब रिजर्व बैंक द्वारा "केवल और नम्रतापूर्वक" स्वीकार किया गया था, जो, "प्रक्रिया के विकृत उलट" का एक प्रदर्शन है।" 

चिदंबरम ने दृढ़ता से तर्क दिया कि,"पालन की गई प्रक्रिया "गहरी त्रुटिपूर्ण" थी और रिकॉर्ड पर साक्ष्य ने सुझाव दिया कि धारा के उप-खंड (2) में निहित आवश्यकताओं के उल्लंघन में, आर्थिक नीति को दूर करने के लिए पर्याप्त "समय और समर्पण" नहीं दिया गया था।  भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 की धारा 26 का संदर्भ लें।"

चिदंबरम ने सिद्धांत दिया, "मेरी गणना से पता चलता है कि यह पूरी कवायद लगभग 26 घंटों में की गई थी। यह पत्र 7 नवंबर को दोपहर बाद आरबीआई के पास पहुंचा, जिसके बाद केंद्रीय बोर्ड को, संभवतः 8 नवंबर को दिल्ली में बैठक के लिए, टेलीफोन द्वारा बुलाया गया था। वे  शाम 5:30 बजे मिलते हैं, एक घंटे या डेढ़ घंटे के भीतर, सिफारिश को कैबिनेट के पास ले जाया जाता है, जो, इसका इंतजार कर रहा है। फिर, प्रधान मंत्री रात 8 बजे टेलीविजन पर आ जाते हैं।" अपनी गहन अस्वीकृति व्यक्त करते हुए, वरिष्ठ वकील पी चिदंबरम ने कहा, "यह सबसे अपमानजनक निर्णय लेने की प्रक्रिया है जो कानून के शासन का मखौल उड़ाती है।"

चिदंबरम, आगे आरोप लगाते हुए कहते हैं कि, "इस तरह की एक बड़े आर्थिक नीति और कदम के संभावित परिणामों पर, न तो शोध किया गया और न ही, इसका दस्तावेजीकरण किया गया। सामाजिक आर्थिक गिरावट की सीमा भी रिजर्व बैंक के, केंद्रीय बोर्ड के निदेशकों या नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल के मंत्रियों को, नहीं पता थी। किसी को नहीं बताया गया था कि, कुल मुद्रा का 86 फीसदी वापस ले लिया जाएगा। यह अनुमान नहीं है, बल्कि एक सूचित अनुमान है।"

चिदंबरम द्वारा निर्णय लेने की प्रक्रिया से संबंधित सामग्री विवरण प्रस्तुत करने में केंद्र सरकार की अनिच्छा को भी उजागर किया गया था। "हमारे पास अभी भी, केंद्र सरकार से भारतीय रिज़र्व बैंक को 7 नवंबर का पत्र, रिज़र्व बैंक के केंद्रीय बोर्ड के समक्ष रखा गया एजेंडा नोट, केंद्रीय बोर्ड की बैठक के कार्यवृत्त और उनकी सिफारिशें, और वास्तविक कैबिनेट का निर्णय नहीं आया है। इन दस्तावेजों को छह साल बीत जाने के बावजूद अभी तक सार्वजनिक डोमेन में नहीं रखा गया है।" उन्होंने बेंच को सूचित किया।

धारा 26(2) को असंवैधानिक के रूप में या तो पढ़ा जाना चाहिए या हटा दिया जाना चाहिए। पूर्व वित्त मंत्री द्वारा रखी गई मुख्य प्रस्तुतियाँ आरबीआई अधिनियम की धारा 26 की उप-धारा (2) की व्याख्या के संबंध में थीं, जो केंद्र सरकार को रिज़र्व बैंक की सिफारिश पर घोषित करने का अधिकार देती हैं कि,
"किसी भी मूल्यवर्ग के बैंक नोटों की कोई भी श्रृंखला" कानूनी मुद्रा नहीं रहेगी।"

सबसे पहले, चिदंबरम ने तर्क दिया कि, "धारा 26 (2) को पढ़ा जाना चाहिए।  इसे आधिकारिक राजपत्र में एक अधिसूचना जारी करके केंद्र सरकार को किसी भी मूल्यवर्ग के बैंकनोटों की सभी श्रृंखलाओं को विमुद्रीकृत करने की शक्ति प्रदान करने के रूप में नहीं माना जा सकता है। इस तरह की शक्ति उपलब्ध थी या नहीं, यह सवाल खंड में 'कोई' शब्द की व्याख्या को चालू कर देगा।  चिदंबरम ने कहा कि इस शब्द की व्याख्या 'सब' के अर्थ में नहीं की जानी चाहिए।  दूसरे शब्दों में, सरकार किसी भी मूल्यवर्ग के बैंक नोटों की किसी विशेष श्रृंखला का ही विमुद्रीकरण कर सकती थी। इससे अधिक कुछ भी करने के लिए, संसदीय मंजूरी की आवश्यकता होगी।  इस बिंदु को स्पष्ट करने के लिए, उन्होंने 1946 और 1978 में विमुद्रीकरण की घटनाओं से पहले के कानूनों के माध्यम से अदालत का सहारा लिया।

चिदंबरम ने पूछा, "1946 में, भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत पूर्ण कानून की शक्ति के बजाय, सरकार ने भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 पर भरोसा क्यों नहीं किया, जबकि यह उपलब्ध था? 1976 में, उन्होंने ऐसा क्यों किया? आरबीआई अधिनियम की धारा 26 में निहित कुछ भी होने के बावजूद, क्या इस धारा ने शक्ति प्रदान की है?"  "इसलिए, धारा 26 ने किसी मूल्यवर्ग की किसी भी श्रृंखला को विमुद्रीकृत करने की सीमित शक्तियाँ प्रदान कीं। किसी मूल्यवर्ग की सभी श्रृंखलाओं को विमुद्रीकृत करने के लिए, सरकार को एक विशेष कानून पारित करना पड़ा," उन्होंने समझाया।

उन्होंने आगे प्रस्तुत किया, "मान लीजिए,  कोई नई श्रृंखला मुद्रित की जाती है और 7 नवंबर को जारी की जाती है। तो क्या सरकार अगले ही दिन इसका विमुद्रीकरण कर सकती है? या क्या सरकार 99.9% मुद्रा को संचलन से वापस ले सकती है? यह बेतुका और अनुचित निर्णय होगा। यह  शक्ति का मनमाना प्रयोग होगा। इसीलिए, 'कोई भी' और 'सभी' नहीं। यह इंगित करता है कि रिज़र्व बैंक को सिफारिश करने से पहले अपने दिमाग का इस्तेमाल करना चाहिए।"  

"जो कुछ भी 2016 में हुआ था,"उन्होंने जोर देकर कहा, "लेकिन इस अदालत को यह स्पष्ट रूप से स्पष्ट करना चाहिए कि सरकार के पास वह शक्ति नहीं है।"  
वरिष्ठ वकील ने तर्क दिया कि देश को एक बार फिर पूरी तरह से अराजकता में फेंकने से रोकने के लिए, शीर्ष अदालत को स्पष्ट रूप से यह कहना चाहिए कि इस तरह की "अनिर्देशित और अनियंत्रित" शक्ति का प्रयोग कार्यकारी सरकार द्वारा नहीं किया जा सकता है।

वैकल्पिक रूप से, उन्होंने प्रस्तुत किया कि, यदि किसी भी मूल्यवर्ग के बैंक नोटों की सभी श्रृंखलाओं को विमुद्रीकृत करने की केंद्र सरकार की शक्ति को मान्यता दी जाती है, तो यह अनुच्छेद 14, 19 और 21 के उल्लंघन के लिए संविधान के भाग III के निर्देशों के अधीन होगा और इस आधार पर  यह शक्ति के, एक अभेद्य प्रतिनिधिमंडल की राशि थी।  चिदंबरम ने तर्क दिया, "यदि एक निश्चित मूल्यवर्ग की सभी श्रृंखलाओं के करेंसी नोटों को विमुद्रीकृत करने की असीमित शक्ति, कार्यपालिका को प्रदान करने का इरादा था, तो संसद को प्रासंगिक कारकों को ध्यान में रखना चाहिए,"  ऐसी नीति या दिशानिर्देश, प्रावधान, यदि सुझाए गए तरीके से नहीं पढ़ा जाता है, तो असंवैधानिक के रूप में रद्द करने के लिए उत्तरदायी होगा।"

चिदंबरम ने यह भी तर्क दिया कि, "सरकार ने 500 रुपये और 1000 रुपये के नोटों के विमुद्रीकरण को सही ठहराने के लिए "झूठे और भ्रामक उद्देश्य" तैयार किए थे।" वरिष्ठ वकील ने कहा, "तीन मुख्य उद्देश्य थे - नकली मुद्रा को खत्म करना, बेहिसाब संपत्ति या काले धन पर नकेल कसना और नकली मुद्रा को मादक पदार्थों की तस्करी और आतंकवाद जैसी विध्वंसक गतिविधियों के लिए इस्तेमाल होने से रोकना।"
उन्होंने तर्क दिया कि ये उद्देश्य, "प्राप्त नहीं किए जा सकते थे, और वास्तव में, प्राप्त नहीं किए गए।"  
उन्होंने कहा, "निष्कर्ष केवल इतना है कि सरकार ने इस मनमानी और अनुचित नीति को सही ठहराने के लिए झूठे उद्देश्य निर्धारित किए थे।"

जब नोटबंदी के "भयानक परिणामों" का आकलन किया गया, तो चिदंबरम ने तर्क दिया, "नीति आनुपातिकता के परीक्षण में भी, सरकार विफल रही।" 
इस बिंदु को समझाने के लिए, उन्होंने अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों, विशेष रूप से कृषि पर नोटबंदी के प्रभाव पर प्रकाश डाला। उन्होंने अदालत का ध्यान इस बात की ओर भी आकर्षित किया कि, कैसे ग्रामीण गरीबों और उत्तर-पूर्वी राज्यों के लोगों की तरह जनसंख्या के कुछ वर्ग कार्यान्वयन में दोषों के कारण व्यापक रूप से प्रभावित हुए थे।

न्यायमूर्ति नज़ीर ने हालांकि पूछा, "अब क्या किया जा सकता है? यह अब खत्म हो गया है।"  "हम धारा 26 की रूपरेखा को परिभाषित करने के संबंध में पहले बिंदु की सराहना करते हैं। हम उस पर विचार करेंगे," 
उन्होंने समझाया, "लेकिन अन्य सभी बिंदु पिछली घटनाओं से संबंधित हैं जिन्हें हम बदल नहीं सकते हैं। यही कारण है कि इस समय, हम  पूछ रहे हैं कि, क्या रिट याचिका बच गई है।"  
जवाब में, चिदंबरम ने समझाया कि, सर्वोच्च न्यायालय के पास अनुच्छेद 32, 141, और 142 के तहत "घोषणात्मक राहत प्रदान करने, कानून बनाने और राहत देने" की व्यापक शक्तियाँ हैं, जिसने देश के सर्वोच्च न्यायालय को पूर्ण न्याय करने में सक्षम बनाया।"

"नोटबंदी एक चरम कदम था। अगर पिछले एक या दो दशकों में कोई एक बड़ा आर्थिक निर्णय लिया गया है जिसने देश के सभी नागरिकों के जीवन को प्रभावित किया है, तो यह 2016 की नोटबंदी है। यदि यह अदालत मानती है कि निर्णय और  निर्णय लेने की प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण थी, यह अपने आप में काफी अच्छा है। यह सरकार को भविष्य में इस तरह के दुस्साहस को रोकने से रोकेगा। चिदंबरम ने, अदालत के समक्ष अपनी बात रखी। अदालती कार्यवाही का विवरण, विभिन्न मीडिया वेबसाइट की रिपोर्टिंग पर आधारित है।

(विजय शंकर सिंह)

Thursday, 24 November 2022

सुप्रीम कोर्ट ने, निर्वाचन आयोग मुकदमे के सम्बंध में संविधान पीठ का निर्णय सुरक्षित रखा / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने आज, 24/11/22 को चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक स्वतंत्र तंत्र की मांग करने वाली याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रख लिया है। शीर्ष कोर्ट ने, उभय पक्ष को 5 दिनों के भीतर एक संक्षिप्त नोट, जो छः पृष्ठों से अधिक न हो, का दाखिल करने के लिए कहा है।

याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन ने, कहा कि आज तक, केंद्र सरकार ने किसी को भी नियुक्त नहीं किया है, जिसे चुनाव आयुक्त के रूप में निर्धारित 6 वर्ष का कार्यकाल (कार्यालय संभालने के लिए 65 वर्ष की ऊपरी आयु सीमा) मिला हो। यह, याचिकाकर्ताओं के अनुसार, चुनाव आयोग की स्वतंत्रता को प्रभावित करता है।

"जब संविधान का यह प्राविधान है तो, आप किसी को 6 साल से कम समय के लिए कैसे नियुक्त कर सकते हैं? चुनाव आयोग अब नौकरशाह से कैडर बन गया है। यहां वरिष्ठता के आधार पर लोगों को नियुक्त किया जाता है। जबकि, कानून पूरी तरह से अलग है। संसद ने कहा है कि, आपको यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है, 6 साल। यह कार्यकाल, आयोग की निष्पक्षता के लिए है। आपने 6 महीने के लिए एक आदमी को किसी को नियुक्त किया। हमें नहीं लगता कि, यह संस्था स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकती है या सुरक्षित रह सकती है।" याचिकाकर्ता के वकील, शंकरनारायणन ने यह दलील दी। 

उन्होंने आग्रह किया कि, "चुनाव आयोग की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति एक पारदर्शी और स्पष्ट प्रक्रिया के माध्यम से होनी चाहिए जिसमें कोई मनमानापन न हो।" 
उन्होंने कहा कि "बेंच इस अभाव को भर सकती है। क्योंकि यहां अत्यधिक निर्वात है। नियुक्ति का कोई स्पष्ट कानून नहीं है। यदि चुनाव आयोग की स्वतंत्रता लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण है, तो, उसकी प्रोफेशनल निष्पक्षता के बारे में, एक भी, विपरीत धारणा, उत्पन्न नहीं होनी चाहिए। नियुक्ति प्रणाली को यथोचित रूप से स्वतंत्र होना चाहिए ... मुझे न्यायपालिका के साथ इसकी तुलना करने दें। अदालत ने एक खालीपन ढूंढा और उसे भर दिया। अब अगर चुनाव आयोग में है तो उसे भी भर देना चाहिए।"

भारत के महान्यायवादी एजी, आर वेंकटरमणी ने हालांकि कहा कि, "इस तरह की राह तब तक नहीं अपनाई जा सकती जब तक कोई ट्रिगर प्वाइंट (स्पष्ट आरोप) न हो।  "यहां कोई ट्रिगर बिंदु नहीं है। अंतर को अमूर्त तरीके से नहीं देखा जा सकता है। एक प्रक्रिया है, नियुक्ति के लिए। एक परंपरा है। एक तरीका है।"

हालांकि, शंकरनारायणन ने कहा कि,  "ऐसे कई फैसले हैं जहां कोर्ट ने विश्लेषण में खुद को शामिल किया है और आवश्यक रूप से ट्रिगर बिंदु के बिना दिशानिर्देशों को रोलआउट किया है।"
सुनवाई के दौरान, न्यायमूर्ति रॉय ने शंकरनारायणन से पूछा कि, "क्या कोई व्यक्ति 65 वर्ष (ऊपरी सीमा) प्राप्त करने के बाद भी 6 वर्ष की अवधि की आवश्यकता को पूरा करने के लिए जारी रख सकता है।"
उन्होंने जवाब दिया कि डीओपीटी द्वारा बनाए गए डेटाबेस के अनुसार, युवा बैच के लोग हैं जिन्हें नियुक्त किया जा सकता था। "क्या चार नामों को चुनने के लिए कानून मंत्री के लिए कोई मानदंड था?'  सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर सवाल उठाए

कोर्ट ने कल 19 नवंबर को चुनाव आयुक्त के रूप में पूर्व नौकरशाह अरुण गोयल की हालिया नियुक्ति से संबंधित फाइलें मांगी थीं।
जस्टिस जोसेफ ने तब इशारा किया कि जिन 4 नामों को शॉर्टलिस्ट किया गया था, उनमें से भी सरकार ने ऐसे लोगों के नाम चुने जिन्हें चुनाव आयुक्त के रूप में 6 साल भी नहीं मिलेंगे।  "आपको उन लोगों को चुनने की आवश्यकता है जिन्हें ईसी के रूप में 6 साल मिलना चाहिए। अब आपने ऐसे लोगों को नहीं चुना है जिन्हें ईसी के रूप में 6 साल की सामान्य अवधि मिलेगी।"  उन्होंने आज कहा कि यह मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1991 की धारा 6 का उल्लंघन है।
अभी सुनवाई जारी है।

(विजय शंकर सिंह)

मुख्य और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी हो - सुप्रीम कोर्ट / विजय शंकर सिंह

निर्वाचन आयोग में मुख्य और अन्य निर्वाचन आयुक्तों को लेकर दायर एक याचिका पर, सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ सुनवाई कर रही है। सुनवाई के ही दौरान, सरकार ने, चुनाव आयुक्त के रिक्त पद पर, अरुण गोयल जो एक आईएएस अधिकारी रहे हैं, को ऐच्छिक सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद, निर्वाचन आयुक्त के पद पर नियुक्त कर दिया। यह मामला अदालत के सामने, याचिकाकर्ता के वकील, प्रशांत भूषण ने, याचिका की सुनवाई के समय रखा । 

उसी याचिका की, सुनवाई जारी रखते हुए, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने, बुधवार 23/11/22  को कहा कि, 
"वह 19 नवंबर को, चुनाव आयुक्त के रूप में पूर्व आईएएस अधिकारी, अरुण गोयल की, हालिया नियुक्ति से संबंधित फाइलों को देखना चाहती है।"
सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए, एक स्वतंत्र तंत्र की मांग करने वाली याचिकाओं पर, सुनवाई कर रही है, ने कहा कि,
"यह उचित होता, अगर मामले की सुनवाई के दौरान, नियुक्ति आदेश जारी नहीं किए जाते।"
पीठ ने अटॉर्नी जनरल से, अरुण गोयल की नियुक्ति से संबंधित, फाइलें, कल यानी 24/11/22 को, पेश करने को कहा है।

याचिकाकर्ता की ओर से पेश अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा कि, 
"अरुण गोयल को गुरुवार को सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति दी गई थी और उनकी नियुक्ति 21 नवंबर को अधिसूचित कर दी गई। श्री अरुण गोयल की नवीनतम नियुक्ति, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति देकर की गई है। चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त किए गए सभी लोग सेवानिवृत्त लोग हैं। लेकिन वह (अरुण गोयल) सरकार में वर्तमान सचिव थे। गुरुवार को इस अदालत ने दलीलें सुनीं और शुक्रवार को उन्हें स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति दे दी गई। उनका नियुक्ति आदेश, शनिवार या रविवार को जारी किया गया। और सोमवार को उन्होंने काम करना शुरू कर दिया।", 

प्रशांत भूषण ने कहा कि,  एक चुनाव आयुक्त का पद, मई से खाली पड़ा हुआ था। उन्होंने नियुक्ति के खिलाफ अंतरिम आदेश की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया था। तो क्या प्रक्रिया, एक दिन में, आप उनके वीआरएस के बाद ही, तुरंत पूरी कर लेते हैं ?

संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे जस्टिस केएम जोसेफ ने कहा कि, "आम तौर पर वीआरएस के लिए कर्मचारी को 3 महीने का नोटिस देना होता है।"  
प्रशांत भूषण ने जवाब दिया कि, "उन्हें संदेह है कि नोटिस दिया गया है या नहीं। इसीलिए अदालत को रिकॉर्ड मांगना चाहिए।"

भारत के एटॉर्नी जनरल, आर वेंकटरमणी ने इस मामले में, अरुण गोयल की नियुक्ति के "जुड़े हुए" होने के मुद्दे पर आपत्ति जताई और कहा कि, "न्यायालय एक बड़े मुद्दे पर विचार कर रहा है। मैं दृढ़ता से विरोध करता हूं। भूषण द्वारा अनुमानित नियुक्ति के पीछे "कोई डिजाइन नहीं" है।" 
एजी, अरुण गोयल की नियुक्ति मामले को, सुनवाई की जा रही याचिकाओं से अलग कर के देखना चाहते थे। वे इस विंदु की पोषणीयता (मेंटेनेबिलिटी) का सवाल उठा रहे थे। 

इसके जवाब में, जस्टिस जोसेफ ने कहा, "हमने मामले की सुनवाई पिछले गुरुवार को की थी। उस स्तर पर, श्री भूषण ने कहा था कि, एक अंतरिम आवेदन है। फिर अगली सुनवाई कल होगी। इसलिए, हम चाहते हैं कि आप इससे (इस अधिकारी की नियुक्ति से) संबंधित फाइलें पेश करें। यदि आप सही हैं, जैसा कि आप दावा करते हैं, कि तो कोई, डरने की कोई बात नहीं है।"

न्यायमूर्ति जोसेफ ने कहा कि "न्यायालय जानना चाहेगा कि, किस तंत्र का पालन किया जाता है। क्या सिस्टम है, जिसके द्वारा इस अधिकारी की नियुक्ति के लिए अटॉर्नी जनरल को, अदालत में, लाया गया ? क्या यह उस समय, किया जा सकता है, जब इस मामले पर, इस न्यायालय द्वारा, विचार किया जा रहा हो? नियुक्ति तब की गई थी, जब इस मामले पर इस न्यायालय द्वारा विचार किया जा रहा है। जब किसी याचिका  पर, नियुक्ति के संदर्भ में, संविधान पीठ द्वारा सुनवाई की जा रही हो, तो क्या, वैसी नियुक्ति करना उचित है?"

अटॉर्नी जनरल ने कहा कि, "अदालत ने, निर्वाचन आयोग में,  नियुक्तियों के खिलाफ कोई निषेधाज्ञा नहीं थी।"

इस पर जस्टिस जोसेफ ने कहा, "ऐसा कोई आदेश नहीं था। लेकिन, सुनवाई चल रही थी। वैसे भी, इसे छोड़िए। हम, उनकी नियुक्ति पर कोई फैसला नहीं कर रहे हैं। लेकिन नियुक्ति प्रक्रिया क्या है, यह हम जानना चाहेंगे। यह हमें कुछ जानकारी ही देगा। यदि, सब कुछ  सुचारू रूप से चल रहा है, जैसा कि आप दावा करते हैं, तो, आपको डरने की कोई जरूरत नहीं है। हम आपसे केवल फाइलें पेश करने के लिए कह रहे हैं। जब तक कि आपको कोई वैध आपत्ति न हो, इसे देखना, आपके ही हित में होगा, यदि, यह उचित प्रक्रिया के अनुसार किया गया है तो। हम चाहते हैं कि वह (फाइलें) हम देखें। यह एक ऐसा मामला है जहां सुनवाई शुरू होने के बाद नियुक्ति का आदेश दिया गया है, और एक प्रार्थना, याचिका में है कि, नियुक्ति न करें। इसलिए हम इस मामले का संज्ञान ले रहे हैं।"

जब अटॉर्नी जनरल ने आपत्तियां व्यक्त करना जारी रखा, तो न्यायमूर्ति जोसेफ ने उनसे कहा, "यह विरोधात्मक नहीं है। यह हमारी जिज्ञासा से बाहर नहीं है। हम केवल परिस्थितियों को देखना चाहते हैं।"
पांच न्यायाधीशों की पीठ के एक अन्य सदस्य न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय ने एजी को बताया कि वह "अदालत के दिमाग को आप पढ़ सकते हैं।" यानी अदालत क्या कह रही है, उसे समझ सकते हैं।
जस्टिस जोसेफ ने एजी को बताया, "हमें नहीं लगता कि यह ऐसा मामला है जहां आपको, यह जानकारी रोकनी चाहिए। हम एक खुले लोकतंत्र में रह रहे हैं।"

इसी मामले की सुनवाई, सुप्रीम कोर्ट ने, 22/11/22, मंगलवार को करते हुए कहा था कि, "कम से कम दखलअंदाजी हो, और सबसे अच्छी व्यवस्था यह होगी कि, नियुक्ति समिति में मुख्य न्यायाधीश को भी शामिल किया जाय। हमें लगता है कि उनकी उपस्थिति यह संदेश भी देगी कि कोई गड़बड़ नहीं हो सकती है।" 
जस्टिस केएम जोसेफ की अध्यक्षता वाली इन पांच जजों की संवैधानिक बेंच, में, और जस्टिस अजय रस्तोगी, अनिरुद्ध बोस, हृषिकेश रॉय और सीटी रवि कुमार शामिल हैं। निर्वाचन आयोग के सदस्यों की नियुक्ति की प्रक्रिया में सुधार की सिफारिश करने वाली याचिकाओं के एक बैच की सुनवाई यह संविधान पीठ कर रही है।

 भारत के एटॉर्नी जनरल और वरिष्ठ अधिवक्ता आर वेंकटरमणी ने 22/11/22 को, दुनिया भर में संवैधानिक न्यायालयों की भूमिका पर पहली बार विचार करते हुए अपनी बात रखी। उसके बाद वह संवैधानिक न्यायालयों की शक्तियों और शक्तियों के पृथक्करण के मोंटेस्कियन सिद्धांत के आधार पर उनकी अंतर्निहित सीमाओं की चर्चा की, जो भारतीय संवैधानिक योजना का भी एक हिस्सा है।

इस बिंदु पर, न्यायमूर्ति जोसेफ ने एजी को रोका और कहा कि, "पीठ उनकी दलीलों पर आगे बढ़ने से पहले दो पहलुओं की ओर इशारा करना चाहती है।"
पहले पहलू की ओर इशारा करते हुए जस्टिस जोसेफ ने कहा, "घटना यह है कि 2007 से अब तक सीईसी का कार्यकाल बहुत छोटा रहा है। लगभग 2 साल और उससे भी कभी कभी कम। सवाल यह है, 1991 के अधिनियम के तहत सीईसी की अवधि 6 वर्ष और आयु 65 वर्ष तक निर्धारित की गई है। इसलिए, सरकार जो कर रही है, वह यह है कि, वह जन्म तिथि को जानती है, और वह यह सुनिश्चित करती है कि, जो भी नियुक्त होगा, उसे अपने कार्यकाल का पूरा 6 वर्ष नहीं मिलने वाला हैं। तो यहां, उसकी निष्पक्षता बाधित हो जाती है। हम आपसे इस पर जवाब चाहते हैं। अब, सीईसी को अपनी, पूरी सेवा शर्तें नहीं मिल रही हैं। फिर वे अपने कार्यों को कैसे पूरा करेंगे? यह प्रवृत्ति लगातार जारी है। यह दोनों ही सरकारों में रहा है, चाहे वह, यूपीए सरकार हो या यह सरकार।"

दूसरे पहलू का उल्लेख करते हुए, जस्टिस जोसेफ ने कहा, "हम दुनिया भर में कई अदालतों में जा रहे हैं। लेकिन आइए आस-पास के देशों पर भी नज़र डालें। श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे आस-पास के देशों में।"
न्यायमूर्ति जोसेफ ने तब कहा, "हम आपके सामने यह बात रखना चाहते थे क्योंकि, यहां कानून है। संविधान की चुप्पी का, सभी के द्वारा शोषण किया जा रहा है। उन्होंने (कार्यपालिका) इसे अपने हित में इस्तेमाल किया है।"

एजी ने उपरोक्त का जवाब देते हुए कहा कि,  "अदालत को अपने कर्तव्य को समझने के तरीके को समझना होगा।" 
उन्होंने आगे कहा, "एक निर्धारित सिद्धांत यह है कि, संविधान की मूल विशेषता को चुनौती नहीं दी जा सकती है। इस अदालत द्वारा जांच के लिए खुले मामले वे हैं जो, मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। अदालत प्रावधान को बढ़ा सकती है लेकिन जब मूल पर प्रहार करने की बात आती है, संविधान के प्रावधान पर, तो उस पर, बहस करने के लिए संसद है न कि, अदालत। इस अंतर को अच्छी तरह से समझने की जरूरत है।"

संविधान सभा की बहसों की ओर इशारा करते हुए, एजी आर वेंकटरमनी ने अदालत को आगे बताया कि, "संविधान सभा ने कई प्रस्तावों पर विचार किया था। यह महत्वपूर्ण है, कि अगर संविधान सभा के पास, प्रस्ताव थे और उस पर, उस समय, विचार नहीं किया गया होता तो, इस अदालत द्वारा उस पर विचार किया जाना चाहिए। इसलिए यदि संविधान, मूल संविधान सभा के समक्ष कई प्रस्तावों के बावजूद एक निश्चित दृष्टिकोण रखता है तो, उसे चुनौती नहीं दी जा सकती है।"

एजी ने अदालत के समक्ष यह भी कहा कि, "संविधान में ऐसे कई प्रावधान हैं जहां संसद को कानून बनाने पर विचार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है।  हालाँकि, उन्होंने कहा कि इस तरह का कार्य संसद को, अपने विवेक से करना है न कि संसद की ओर से, निर्णय लेने के लिए अदालतों को।"
उन्होंने कहा, "जब कानून का कोई प्रावधान किसी कारण से अपने उद्देश्य को पूरा करने में असमर्थ हो जाता है, तो यह कहा जा सकता है कि कानून में एक शून्य है। यदि यह माननीय न्यायालय जुड़ा हुआ है और पाता है कि कानून का एक उद्देश्य है,  एहसास नहीं है, तब अदालत इसे देखने के लिए, आगे बढ़ती है। हालांकि, आकांक्षात्मक और आदर्शवादी पहलू संविधान के एक प्रावधान पर प्रहार नहीं कर सकते हैं। यह इंगित करना महत्वपूर्ण है कि, एक शून्य की कल्पना केवल इसलिए नहीं की जा सकती है क्योंकि, एक कानून, अपनी जगह नहीं है। संसद कई बार अपने दृष्टिकोण में धीमी भी हो सकती है।"

इस बिंदु पर जस्टिस रॉय ने टिप्पणी की,  "आपने कहा था कि हमें धीरे-धीरे बढ़ना  चाहिए। हम जानते हैं कि आपके पास साहित्य का एक स्वभाव है। वे कहते हैं, धीरे-धीरे, जल्दी करो। 72 साल हो गए हैं।"

चुनाव सुधारों की सिफारिश करने वाली कई रिपोर्टों के पहलू पर, एजी ने कहा कि, "ये सभी रिपोर्ट अस्पष्ट हैं और इनमें से कोई भी सुधारों के लिए, स्पष्ट निर्देश नहीं देती है। सिफारिशों की सामान्यता एक ट्रिगर बिंदु नहीं हो सकती है।"
उन्होंने आगे प्रस्तुत किया कि, "रिपोर्ट जो वास्तव में एक सिफारिश होती हैं, उसमें यह देखा जाना चाहिए कि, क्या उन्होंने किसी, मूल्यांकन मानदंड का पालन किया है या, उस निष्कर्ष पर आने के लिए कोई सर्वेक्षण या कोई विश्लेषण किया है? 

एजी ने, अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया कि, "यह सब संसद और कार्यपालिका पर विचार करने और यदि आवश्यक हो तो बहस करने और एक कानून बनाने के लिए है।" 
एजी आगे कहते हैं, "संविधान ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं करता है कि, एक कानून को आवश्यक रूप से बनाने की आवश्यकता है। ऐसे मुद्दे जो संसद को विचार करने के लिए हैं, उन्हें परमादेश के लिए एक विषय वस्तु नहीं बनाया जा सकता है। इन रिपोर्टों को इंगित करना महत्वपूर्ण है। यदि  न्यायालय को विधि आयोग की रिपोर्ट या अन्य रिपोर्ट में ज्ञान मिलता है और परमादेश का रिट जारी करता है, तो वह बार-बार न्यायिक हस्तक्षेप ही होगा।"

जस्टिस जोसेफ ने इस बिंदु पर एजी को कहा कि, "डॉ. अम्बेडकर ने यह भी बताया कि, यह प्रावधान भविष्य की पीढ़ियों के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बनने जा रहा है। उन्होंने इसे पहले ही देख लिया था। हम इसे सरलता से नहीं देख सकते हैं, इसलिए जैसा कि आप, इशारा कर रहे हैं। क्योंकि इसमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू शामिल है - लोकतंत्र। हमें यह देखने की आवश्यकता है कि, क्या प्रावधान को बढ़ाने की आवश्यकता है? हमने शुरुआत में आपको जो बताया है वह महत्वपूर्ण है। आप सीईसी को ऐसा छोटा कार्याकाल दे रहे हैं कि, वह आपके लिए बोली लगाने जैसा है। यह व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की जद में आता है।"

पीठ ने बार-बार एजी को बताया कि, "याचिका अदालत का ध्यान आकर्षित करने की मांग करती है, क्योंकि इसमें स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का गंभीर मुद्दा शामिल है। अदालत नियुक्तियों की शक्ति का विश्लेषण नहीं कर रही थी, बल्कि केवल शक्ति के प्रयोग के तरीके का विश्लेषण कर रही थी और जो अनुच्छेद 32 के तहत न्यायिक समीक्षा की शक्तियों के भीतर है।"

दोपहर के भोजन के बाद,जारी सुनवाई में, अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने पीठ को बताया कि, "वर्तमान मामले में याचिकाकर्ताओं की प्रार्थना प्रकाश सिंह और विनीत नारायण मामले में की गई प्रार्थनाओं की तर्ज पर थी। उन्होंने कहा कि उन दोनों मामलों में इस अदालत ने हस्तक्षेप किया और न्यायिक समीक्षा की।  इसलिए याचिका के पोषणीय नहीं होने का कोई अर्थ नहीं है।"

 इस बिंदु पर पीठ ने इस बात पर विचार करना शुरू किया कि चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त होने के लिए सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति की नियुक्ति वास्तव में कैसे होनी चाहिए। न्यायमूर्ति जोसेफ ने टिप्पणी की, "आप सक्षमता के अलावा देखते हैं, जो महत्वपूर्ण है, वह यह है कि, आपको चरित्र वाले किसी व्यक्ति की आवश्यकता है। जो खुद को बुलडोजर (सरकार के दबाव में आकर) से चलने की अनुमति नहीं देता है। तो मुद्दा यह है कि इस व्यक्ति को कौन नियुक्त करेगा। नियुक्ति प्रक्रिया में, सबसे कम दखलंदाजी तब हो सकती है, जब नियुक्ति समिति में मुख्य न्यायाधीश की उपस्थिति भी रहे। हमें लगता है कि, उनकी उपस्थिति से, यह संदेश जाएगा कि कोई गड़बड़ नहीं हो पाएगी। हमें सबसे अच्छे व्यक्ति की आवश्यकता है। और इस पर कोई असहमति नहीं होनी चाहिए। न्यायाधीशों में भी  पूर्वाग्रह हो सकता है, लेकिन, कम से कम आप, यह  उम्मीद कर सकते हैं कि, उनके (सीजेआई के) रहने से तटस्थता होगी।"

पिछली सुनवाई में, पीठ ने याचिकाओं के बैच पर सुनवाई शुरू की थी और इस बात पर विचार किया था कि, किसी ऐसे व्यक्ति को कैसे ढूंढा जाए जो राजनीति से ऊपर हो। सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ द्वारा इस विचार कि, 'भारत के संविधान के अनुच्छेद 324 के प्रावधानों पर, एक करीबी नज़र और व्याख्या' जरूरी है, के बाद यह मामला संवैधानिक पीठ को भेजा गया है, जो चुनावों के अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण के संदर्भ में है। इस मामले की सुनवाई अभी जारी रहेगी। अदालती कार्यवाही का विवरण, लाइव लॉ और बार एंड बेंच वेबसाइट पर साभार आधारित है। 

(विजय शंकर सिंह)

Wednesday, 23 November 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - तीन (4)

चित्रः क्षतिग्रस्त बाड़ा हिंदू राव जहाँ अंग्रेज़ों की छावनी थी

“उन्हें यह भी ख़बर थी कि बाग़ियों ने खाने में आज क्या खाया है”
- कैप्टन हडसन के संबंध में एक ब्रिटिश अधिकारी

ख़ुफ़िया 1857 की नींव थे, जिनका दोनों पक्षों ने खूब प्रयोग किया। ‘चपाती आंदोलन’ के समय फ़क़ीर-संन्यासियों के भेष में ख़ुफ़िया घूमते रहे। वहीं, अंग्रेज़ों की नज़रबंद कानपुर छावनी से लखनऊ तक सूचनाएँ जाती रही। लाठियों, टोपियों, जूतियों में छुपा कर। यह अंदाज़ा लगाना कठिन है कि कौन किसके साथ था। स्वयं बहादुर शाह ज़फ़र किसके साथ थे। 

अभिजात्य और व्यवसायी वर्ग के एंग्लोफिल (अंग्रेज़-प्रेमी) होने के कई वाज़िब कारण थे। उनकी नज़र में अंग्रेज़ बेहतर प्रशासक थे, आधुनिक शिक्षा और तकनीकों को ला रहे थे। उनकी सोच में सिपाहियों का विद्रोह भारत को आगे ले जाने के बजाय पीछे ले जा रहा था। नतीजतन दिल्ली में जासूसी एकतरफ़ा हो गयी। वहाँ क्रांतिकारी सिपाहियों और इंक़लाबियों का हुजूम था, खूब नारेबाज़ी होती, मगर अच्छे रणनीतिकार कम थे। दूसरी तरफ़, अंग्रेज़ फूँक-फूँक कर कदम रख रहे थे, शतरंज के खेल के धैर्य के साथ।

ब्रिटिशों के प्रखर और काबिल जासूसों में तीन नाम ऊपर उभरते हैं- एक थे काने मौलवी रज़ब अली जिन्होंने अंग्रेजों के लिए एक बहुत बड़ा ख़ुफ़िया तंत्र स्थापित किया; दूसरे थे मुंशी जीवन लाल, जिनका रोज़नामचा आज एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है; तीसरे थे बहादुर शाह ज़फ़र के समधी मिर्ज़ा इलाही बख़्श।

रज़ब अली रसूखदार व्यक्ति थे, जो ब्रिटिश प्रशासन में ऊँचे पदों पर रहे थे, और दिल्ली पर अच्छी पकड़ थी। आज भी उनके परिवार की शाखाएँ मौजूद हैं। उन्होंने लाल किले के अंदर और बाहर, हर जगह अपने जासूस तैयार किए। बहादुरशाह ज़फ़र की बेगम ज़ीनत महल और हकीम एहसान-उल्ला ख़ान तक को अंग्रेज़ों की तरफ़ मोड़ना शुरू किया।

मुंशी जीवन लाल तो लाल किले के एक तहख़ाने से ख़ुफ़िया गतिविधियों को अंजाम दे रहे थे। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है,

“मैंने बाग़ियों की जानकारी के लिए दो ब्राह्मण गिरधारी मिश्र और हीरा सिंह मिश्र, और दो जाट रखे थे, जो मुझे किले से बाहर की जानकारी लाकर देते, जिसे मैं बड़े साहबों को पहुँचाने का इंतज़ाम करता।”

आगे 1 जून को उन्होंने अपनी डायरी में खुलासा किया है,

“बादशाह ने मिर्ज़ा अबू बकर, मिर्ज़ा अब्दुल्ला और मिर्ज़ा मुगल बेग को बुला कर डाँटा कि वे बाग़ियों का साथ न दें, वरना एक दिन फाँसी पर लटकाए जाएँगे। बादशाह ने अपने भविष्य पर कहा-

कफ़न पहन कर ज़िंदगी की अय्याम
किसी बाग में गुजार दूँगा।”

ख़ुफ़िया काग़ज़ों में एक-एक चीज़ बारीकी से और मानचित्र बना कर लिखी जाती। कहाँ बंदूकें लगायी गयी हैं, कहाँ बारूद जमा है, कहाँ से पानी आ रहा है। टीले पर बैठे ब्रिटिश चाय पीते हुए इन्हें पलटते और अपनी रणनीति बनाते। इन खबरों के बदौलत जून के दूसरे हफ़्ते में ही अंग्रेज़ों ने कश्मीरी गेट तक अपनी पहुँच बनायी, और कई बाग़ी मारे गए, लेकिन जनरल बर्नार्ड उस वक्त वापस टीले पर लौट गए। जीवन लाल ने अपनी डायरी में संभावना लिखी है कि अंग्रेज उसी वक्त आगे बढ़ जाते तो दिल्ली जीत जाते।

10 जून से दिल्ली पर नियमित गोला-बारी शुरू हो गयी। दिल्ली वाले और स्वयं बादशाह अपनी-अपनी छतों पर बैठ कर यह युद्ध देखने जमा हो जाते। उनमें कई वहीं मारे जाते। कभी शाह बुर्ज़ गिरता, कभी कोई शाही दरवाज़ा। कोतवाल मोइन-उद-दीन ने लिखा है,

“हौज़ के इर्द-गिर्द तीस-चालीस दरबारी बैठे बादशाह का इंतज़ार कर रहे थे। जैसे ही बादशाह हज़ूर अपने कमरे से निकल कर हौज़ की ओर बढ़े, आसमान से तीन गोले आकर फट पड़े, और वह बाल-बाल बचे…बादशाह ने कहा- हम फिरंगियों को रोकने की बात कर रहे हैं, मगर इन गोलों की बारिश को अब कौन रोकेगा?”

19 जून को भारतीय सिपाहियों ने दिल्ली टीले पर जवाबी हमला किया। हमला प्रभावी रहा और कुछ इमारत बुरी तरह ध्वस्त हुए। मगर वहाँ कंपनी के गुरखा रेजिमेंट ने उन्हें टीले तक पहुँचने नहीं दिया। यह युद्ध अब रोज की बात थी। जून के अंत तक दिल्ली काले धुएँ के साये में रहने लगी। शायर मिर्ज़ा ग़ालिब ने लिखा,

“बिस्तर और कपड़े बेच-बेचकर जिंदगी गुजार रहा हूँ; गोया दूसरे लोग रोटी खाते हैं, मैं कपड़े खाता हूँ; डरता हूँ कि कपड़े सब खा लूँगा, तब आलमे बरहंगी, नंगे हालत में, भूख से मर जाऊँगा।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

1857 की कहानी - तीन (3) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-3_22.html