Friday, 31 July 2020
मुंशी प्रेमचंद की कहानी - सवा सेर गेहूं / विजय शंकर सिंह.
Thursday, 30 July 2020
डॉ मार्गरेट वाकर और उनकी कविता फ़ॉर माय पीपुल / विजय शंकर सिंह
अफ्रीकी-अमेरिकी महिला कवि मार्गरेट वाकर (1915-1998) की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कविता फ़ॉर माय पीपुल का हिंदी अनुवाद, अपने लोगो के लिये।
अपने लोगों के लिये
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अपने उन लोगों के लिये
जो गाते हैं हर कहीं अपनी दासता के गीत
निरन्तर : अपने शोकगीत और पारंपरिक गीत
अपने विषाद गीत और उत्सव-गीत,
जो दोहराते आ रहे हैं प्रार्थना के गीत हर रात
किसी अज्ञात ईश्वर के प्रति,
घुटनों पर बैठ कर आर्त्त भाव से
किसी अदृश्य शक्ति के सामने;
अपने उन लोगों के लिये
जो देते आ रहे हैं उधार अपनी सामर्थ्य वर्षों से,
बीते वर्षों और हाल के वर्षों और संभावित वर्षों को भी,
धोते इस्तरी करते खाना पकाते झाड़ू-पोंछा करते
सिलाई मरम्मत करते फावड़ा चलाते
जुताई खुदाई रोपनी छंटाई करते पैबन्द लगाते
बोझा खींचते हुए भी जो न कमा पाते न चैन पाते हैं
न जानते और न ही कुछ समझ पाते हैं;
बचपन में अलबामा की
मिट्टी और धूल और रेत के अपने जोड़ीदारों के लिये
आंगन के खेल-कूद बपतिस्मा और धर्मोपदेश और चिकित्सक
और जेल और सैनिक और स्कूल और ममा और खाना
और नाट्यशाला और संगीत समारोह और दूकान और बाल
और मिस चूम्बी एंड कंपनी के लिये;
तनाव और कौतूहल से भरे उन वर्षों के लिये
जब हम दाखि़ल हुए स्कूल में पढ़ाई के लिये
क्यों के कारणों और उत्तरों और कौन से लोग
और कौन सी जगह और कौन से दिन को
जानने के लिये, उन कड़वे दिनों को याद करते हुए
जब हमें पहली बार मालूम हुआ कि हम
अश्वेत और गरीब और तुच्छ और भिन्न हैं
और कोई भी हमारी परवाह नहीं करता
और किसी को हम पर अचंभा नहीं होता
और कोई भी समझता ही नहीं हमें;
उन लड़कों और लड़कियों के लिये
जो इन सबके बावज़ूद भी पलते रहे बढ़ते रहे
आदमी और औरत बनने के लिये
ताकि हंसें और नाचें और गायें और खेलें और
कर सकें सेवन शराब और धर्म और सफलता का,
कर सकें शादी अपने जोड़ीदारों से और
पैदा करें बच्चे और मर जायें एक दिन
उपभोग और एनीमिया और लिंचिंग से;
अपने उन लोगों के लिये जो कसमसाते हैं
भीड़भाड़ में शिकागों की सड़कों पर और
लेनॉक्स एवेन्यू में और न्यू ओरलीन्स की
परकोटेदार गलियों में, उन गुमशुदा
वंचित बेदख़ल और मगन लोगों के लिये
जिनसे भरे हैं शराबख़ाने और चायख़ाने और
अन्य लोग जो मोहताज़ हैं रोटी और जूतों
और दूध और ज़मीन के टुकड़े और पैसे और
हर उस चीज़ के लिये जिसे कहा जा सके अपना;
अपने उन लोगों के लिये,
जो बांटते फिरते हैं ख़ुशियां बेपरवाह होकर,
नष्ट कर देते हैं अपना समय क़ाहिली में,
सोते हैं भूखे-प्यासे, बोझा ढोते चिल्लाते हैं,
पीते हैं शराब नाउम्मीदी में,
जो बंधे हुए, जकड़े और उलझे हैं हमारे ही बीच के
उन अदृश्य मनुष्यों की बेड़ियों में
हमारे ही कंधों पर होकर सवार जो
बनते हैं सर्वज्ञानी और हंसते हैं;
अपने उन लोगों के लिये जो
करते हैं गलतियां और टटोलते
और तड़फड़ाते हैं अंधेरों में
गिरजाघरों और स्कूलों और क्लबों
और समितियों, संस्थाओं और परिषदों
और सभाओं और सम्मेलनों के,
जो हैं दुखी और क्षुब्ध और ठगी के शिकार
और जिन्हें निगल लिया है धनपशुओं
और प्रभुता के भुक्खड़ जोंकों ने,
जिन्हें लूटा जा रहा है
राज्य के हाथों प्रत्यक्ष बल-प्रयोग से
और छला जा रहा है झूठे
भविष्यवक्ताओं और धार्मिक मतवादियों द्वारा;
अपने उन लोगों के लिये
जो जुटे हैं इकट्ठा हैं प्रयासरत हैं
एक ऐसे बेहतर मार्ग के निर्माण के लिये
जो कि बाहर निकाल सके उन्हें
भ्रमजाल से, पाखंड और ग़लतफ़हमी से,
जो प्रयासरत हैं एक ऐसी दुनिया बनाने के लिये
जो जगह दे सके तमाम लोगों, तमाम शक्लों
तमाम आदमों और ईवों
और उनकी बेहिसाब पीढ़ियों को भी;
एक नयी पृथ्वी का उदय होने दो।
पैदा होने दो एक और दुनिया को।
एक रक्तिम शान्ति को
अंकित हो जाने दो आसमान पर।
साहस से भरी अगली पीढ़ी को आने दो आगे,
होने दो संवर्द्धन एक ऐसी आज़ादी का
भरा हो अनुराग जिसमें जन-जन के लिये।
राहत से भरी हुई सुन्दरता को
और उस शक्ति को जो निर्णयकारी हो
हो जाने दो स्पंदित हमारी आत्माओं में
और ख़ून में हमारे।
आओ कि अब लिखे जायें गीत प्रयाण के,
जिनमें तिरोहित हो जायें शोक के गीत।
अब हो जाना चाहिये उद्भव तत्क्षण
इन्सानों की एक प्रजाति का
और सम्भाल लेना चाहिये जिम्मा शासन का उसे।
(अंग्रेज़ी से अनुवाद– राजेश चंद्रा )
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डॉ मार्गरेट वाकर अलेक्जेंडर.
1968 में जैक्सन स्टेट यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफेसर के रूप में, डॉ मार्गरेट वाकर ने इतिहास के अध्ययन के लिये इंस्टीट्यूट ऑफ द स्टडी ऑफ हिस्ट्री, लाइफ एंड कल्चर ऑफ द ब्लैक पीपुलकी स्थापना की थी। एक ख्यातिलब्ध लेखिका होने के कारण वे स्वाभाविक रूप से, नव ब्लैक स्टडीज मूवमेंट की अग्रिम पंक्ति में थीं। इसी काऱण इस संस्थान ने, बीसवीं सदी के अफ्रीकन अनेरिकन इतिहास और संस्कृति के अध्येताओं में उनका नाम अमर कर दिया है । अपने जीवनकाल में ही उन्होंने न केवल डब्ल्यू ई.बी.डू. बोरिस, लैंग्स्टन हग्स, और रिचर्ड राइट जैसे लेखकों से प्रेरनहुयी बल्कि, उन्होंने जेम्स बाल्डविन, टोनी मॉरिसन और माया अंगलेउ जैसे लेखकों को प्रेरित भी किया।
7 जुलाई 1915 को अलबामा के बर्मिंगटम में जन्मी वाकर ने पांच वर्ष से कुछ न कुछ लिखना शुरू कर दिया था। 1925 में जब उनका परिवार न्यू ओर्लिन्स में आ गया तो, लैंग्स्टन हग्स से मिलने के बाद उनके लेखन में नियमितता और समृद्धि आयी और उन्होंने, वाकर को आगे और पढ़ने के दक्षिण को छोड़ कर जाने के लिये प्रेरित किया। 1935 में नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी, जहां से वाकर के पिता ने भी पढ़ाई की थी, से स्नातक की डिग्री लेने के बाद वे, फेडरल राइटर्स प्रोजेक्ट में काम करने के लिये शिकागों आ गयीं। यहीं पर इनका संबंध, साहित्यकार रिचर्ड राइट से हो गया और वे, साउथसाइड राइटर्स ग्रुप से जुड़ गयी।
1937 में वाकर ने अपनी प्रसिद्ध कविता, फ़ॉर माय पीपुल लिखी और उस कविता के लिये उन्हें येल विश्वविद्यालय का यंगर पोएट्स अवार्ड मिला, और यह पुरस्कार प्राप्त करने वाली वह पहली ब्लैक महिला थीं। 1949 में वाकर, अपने पति फरनिस्ट अलेक्जेंडर और तीन बच्चों के साथ मिसिसिपी आ गयीं। यहां उन्होंने जैक्सन स्टेट यूनिवर्सिटी के अंग्रेजी विभाग में पढ़ाना शुरू किया। जैक्सन स्टेट यूनिवर्सिटी में ही इन्होंने अपने डॉक्टरेट का शोध प्रबंध जो नव दासता यानी नियो स्लेव नैरेटिव पर था, को पूरा किया। यह शोध उनकी नानी एलविरा वेयर के संस्मरणों और ब्लैक दासता पर आधारित था। 1966 में यह शोध प्रबंध पहली बार प्रकाशित हुआ और बेहद लोकप्रिय हुआ।
जैक्सन स्टेट यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ द हिस्ट्री, लाइफ एंड कल्चर के निदेशक के रूप में उन्होंने, कई आयोजन किये उसमे से कुछ सेमिनार अपनी तरह से अनोखे और अलग थे। जैसे 1971 में उन्होंने नेशनल इवैल्युएटिव कॉन्फ्रेंस ऑन ब्लैक स्टडीज और 1973 में फिलीस व्हीटली पोएट्री फेस्टिवल के नाम लिए जा सकते हैं।
तीस साल के अध्यापन के बाद डॉ वाकर प्रोफेसर एमेरिटस बन गयी और उन्होंने अपना समस्त साहित्यिक और प्रशासनिक लेखन इस संस्थान को दान दे दिया, जो बाद में डॉ वाकर के ही नाम से विख्यात हुआ। जैक्सन स्टेट यूनिवर्सिटी में संग्रहित, द मार्गरेट वाकर पेपर्स, दुनियाभर में अकेले एक ऐसा संस्थान हैं जहां किसी एक ब्लैक लेखिका द्वारा लिखा गया समस्त साहित्य, एक ही स्थान पर संग्रहित है। द वाकर सेंटर में चालीस महत्वपूर्ण पांडुलिपियां, जैसे अमेरिकी शिक्षा मंत्रालय के दस्तावेज, मौखिक इतिहास से जुड़े दस्तावेज और विभिन्न महत्वपूर्ण लोगो के 2000 इंटरव्यू संग्रहित हैं।
( विजय शंकर सिंह )
Wednesday, 29 July 2020
आर्थिक बदहाली पर चुप्पी और राफेल पर डिबेट, क्या यह मीडिया द्वारा मुद्दा भटकाना नहीं है ? / विजय शंकर सिंह
Tuesday, 28 July 2020
दिल्ली दंगा और अल्पसंख्यक आयोग की जांच रिपोर्ट / विजय शंकर सिंह
Sunday, 26 July 2020
कानपुर का संजीत यादव हत्याकांड / विजय शंकर सिंह
" दोस्त ने ही अपहण किया और फिर हत्याकर युवक का शव पांडु नदी में फेंक दिया। अपहरण के 4 या 5 दिन बाद ही उसकी हत्याकर शव को फेंक दिया गया था। संजीत की हत्या करने के बाद, दोस्तों की तरफ से ही, फिरौती की मांग की गई थी। वहीं, शव की तलाश के लिए पुलिस की टीमें लगाई गई हैं। बर्रा अपहरण मामले में पकड़े गए अपहरणकर्ताओं ने पूरी घटना की जानकारी दी है। "
● 22 जून की रात हॉस्पिटल से घर आने के दौरान संजीत का अपहरण हुआ।
● 23 जून को परिजनों ने जनता नगर चौकी में उसकी गायब हो जाने की लिखित सूचना दी।
● 26 जून को एसएसपी के आदेश पर, संदिग्ध आरोपी, राहुल यादव के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हुई।
● 29 जून को अपहरणकर्ता ने संजीत के परिजनों को 30 लाख की फिरौती के लिए फोन किया।
● 5 जुलाई को परिजनों और जनता के कुछ लोगो ने शास्त्री चौक पर जाम लगाकर पुलिस पर अपहरणकर्ताओं के विरुद्ध, कार्रवाई न करने का आरोप लगाया।
● 12 जुलाई को एसपी साउथ कार्यालय में इस घटना के बारे में दुबारा संजीत के घर वालों ने पुनः प्रार्थना पत्र दिया। .
● 13 जुलाई को परिजनों ने फिरौती के 30 लाख रुपये से भरा बैग, अपहरणकर्ताओं की मांग के अनुसार, गुजैनी पुल से नीचे फेंक दिया। लेकिन फिरौती की धनराशि मिलने के बाद भी, संजीत नहीं छोड़ा गया।
● 14 जुलाई को परिजनों ने एसएसपी और आईजी रेंज से शिकायत की, जिसके बाद संजीत को 4 दिन में बरामद करने का भरोसा दिया गया।
● 16 जुलाई को थाना बर्रा इंस्पेक्टर रंजीत राय को इस मामले में लापरवाही पूर्ण कार्यवाही करने के कारण, निलंबित कर दिया गया और उनके स्थान पर, सर्विलांस सेल प्रभारी हरमीत सिंह को भेजा गया।
" पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या के बाद अब कानपुर में अपहृत संजीत यादव की हत्या कर दी गई। पुलिस ने किडनैपर्स को पैसे भी दिलवाए और उनकी हत्या भी हो गयी। "
राजनीतिक दृष्टिकोण से, आक्षेप और आरोप तो लगते ही रहते हैं और हर सरकार के कार्यकाल में होता रहता है। यह कोई नयी बात नहीं है।
" पुलिस ने किसी तरह की मदद नहीं की। हमने अपना घर और जेवरात बेचकर और बेटी की शादी के लिए जमा की गई धनराशि को इकट्ठा कर 30 लाख रुपये जुटाए थे। 13 जुलाई को पुलिस के साथ अपहरणकर्ताओ को 30 लाख रुपये देने के लिए गए थे। अपहरणकर्ता पुलिस के सामने से 30 लाख रुपये लेकर चले गए थे। 30 लाख रुपये देने के बाद भी बेटा नहीं मिला। "
परिजनों के अनुसार,
" पुलिस ने कहा कि, फिरौती के लिये पैसे की व्यवस्था कर लो, और इसी समय जब फिरौती दी जाएगी तो युवक को छुड़ा लेंगे। घरवालों ने गहने और घर बेच कर, तीस लाख रुपये का इंतज़ाम किया। अब यह इल्ज़ाम पूरी तरह से पुलिस पर संजीत के घर वाले लगा रहे हैं कि, पुलिस ने अपहर्ताओं को फिरौती दिलाई और अपहरणकर्ता फिरौती लेकर भाग गए। परिजन पुलिस का चक्कर लगाते रहे और क़रीब महीने भर आज जाकर, संजीत के मरने की पुष्टि हुयी।
कारगिल युद्ध की खुफिया विफलता से हमने अब तक क्या सीखा है ? / विजय शंकर सिंह
अगर युद्ध की बात करें तो करगिल 1962, 65 और 71 की तरह का युद्ध नहीं था। यह युद्ध घोषित भी नहीं था। इसीलिए भारत ने एलओसी को पार नहीं किया और अपेक्षाकृत अधिक जनहानि झेलते हुए भी अपनी ही सीमा के अंदर से पाकिस्तान के घुसपैठियों को भगाया। यह एक बड़ी और सुनियोजित पाकिस्तानी घुसपैठ थी जिसे पाक सेना ने अपने आतंकी सहयोगियों के साथ अंजाम दिया था। पर इस बड़ी घुसपैठ का जवाब भारतीय सेना ने अपनी परंपरागत शौर्य और वीरता से दिया और न केवल घुसपैठ के पीछे छुपे पाक के मंसूबे को विफल कर दिया बल्कि दुनिया को पुनः एक बार यह आभास करा दिया कि, भारतीय सेना, दुनिया की श्रेष्ठतम प्रोफेशनल सेनाओं में अपना एक अहम स्थान रखती है आज के दिन को हम करगिल विजय के रूप में याद करते हैं। आज उन सब शहीदों को वीरोचित श्रद्धाजंलि देते हैं, जिन्होंने अपनी भूमि घुसपैठियों से आज़ाद कराने के लिये, अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था।
करीब दो महीने तक चला कारगिल युद्ध भारतीय सेना के साहस और शौर्य का ऐसा उदाहरण है, जिस पर हर देशवासी को गर्व है । लगभग, 18 हजार फीट की ऊंचाई पर कारगिल की ऊंची चोटियों और चुनौतीपूर्ण टाइगर हिल में लड़े गए इस कठिन युद्ध में लगभग साढ़े पांच सौ से अधिक हमारे योद्धाओं ने शहादत दी, और 1300 से ज्यादा सैनिक घायल हुए ।
इस युद्ध की शुरूआत 3 मई 1999 को ही पाकिस्तान की तरफ से हो गयी थी, जब उसने कारगिल की ऊंची पहाडि़यों पर 5,000 सैनिकों के साथ घुसपैठ कर कब्जा जमा लिया था। इस बात की जानकारी जब हमारी सरकार को मिली तो हमारी सेना ने पाक सैनिकों को खदेड़ने के लिए ऑपरेशन विजय चलाया। उस समय अखबारों में जो खबरे छपी उनके अनुसार, 'भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के खिलाफ मिग-27 और मिग-29 का भी इस्तेमाल किया। इसके बाद जहां भी पाकिस्तान ने कब्जा किया था वहां बम गिराए गए। इसके अलावा मिग-29 की सहायता से पाकिस्तान के कई ठिकानों पर आर-77 मिसाइलों से हमला किया गया। इस युद्ध में बड़ी संख्या में रॉकेट और बम का इस्तेमाल किया गया। इस दौरान करीब दो लाख पचास हजार गोले दागे गए। वहीं 5,000 बम फायर करने के लिए 300 से ज्यादा मोर्टार, तोपों और रॉकेट का इस्तेमाल किया गया। लड़ाई के 17 दिनों में हर रोज प्रति मिनट में एक राउंड फायर किया गया।
करगिल युद्ध पर कोई बात करने के पहले युद्ध की क्रोनोलॉजी यानी घटनाक्रम का जान लेना आवश्यक है। पहले यह घटनाक्रम देखें।
● 3 मई 1999 : एक चरवाहे ने भारतीय सेना को कारगिल में पाकिस्तान सेना के घुसपैठ कर कब्जा जमा लेने की सूचनी दी।
● 5 मई : भारतीय सेना की पेट्रोलिंग टीम जानकारी लेने कारगिल पहुंची तो पाकिस्तानी सेना ने उन्हें पकड़ लिया और उनमें से 5 की हत्या कर दी।
● 9 मई : पाकिस्तानियों की गोलाबारी से भारतीय सेना का कारगिल में मौजूद गोला बारूद का स्टोर नष्ट हो गया।
● 10 मई : पहली बार लदाख का प्रवेश द्वार यानी द्रास, काकसार और मुश्कोह सेक्टर में पाकिस्तानी घुसपैठियों को देखा गया।
● 26 मई : भारतीय वायुसेना को कार्यवाही के लिए आदेश दिया गया।
● 27 मई : कार्यवाही में भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के खिलाफ मिग-27 और मिग-29 का भी इस्तेमाल किया और फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता को बंदी बना लिया।
● 28 मई : एक मिग-17 हैलीकॉप्टर पाकिस्तान द्वारा मार गिराया गया और चार भारतीय फौजी मरे गए।
● 1 जून : एनएच- 1A पर पकिस्तान द्वारा भरी गोलाबारी की गई।
● 5 जून : पाकिस्तानी रेंजर्स से मिले कागजातों को भारतीय सेना ने अखबारों के लिए जारी किया, जिसमें पाकिस्तानी रेंजर्स के मौजूद होने का जिक्र था।
● 6 जून : भारतीय सेना ने पूरी ताकत से जवाबी कार्यवाही शुरू कर दी।
● 9 जून : बाल्टिक क्षेत्र की 2 अग्रिम चौकियों पर भारतीय सेना ने फिर से कब्जा जमा लिया।
● 11 जून : भारत ने जनरल परवेज मुशर्रफ और आर्मी चीफ लेफ्टीनेंट जनरल अजीज खान से बातचीत का रिकॉर्डिंग जारी किया, जिससे जिक्र है कि इस घुसपैंठ में पाक आर्मी का हाथ है।
● 13 जून : भारतीय सेना ने द्रास सेक्टर में तोलिंग पर कब्जा कर लिया।
● 15 जून : अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने परवेज मुशर्रफ से फोन पर कहा कि वह अपनी फौजों को कारगिल सेक्टर से बहार बुला लें।
● 29 जून : भारतीय सेना ने टाइगर हिल के नजदीक दो महत्त्वपूर्ण चौकियों, पोइंट 5060 और पोइंट 5100 को फिर से कब्जा लिया।
● 2 नुलाई : भारतीय सेना ने कारगिल पर तीन तरफ से हमला बोल दिया।
● 4 जुलाई : भारतीय सेना ने टाइगर हिल पर पुनः कब्जा पा लिया।
● 5 जुलाई : भारतीय सेना ने द्रास सेक्टर पर पुनः कब्ज़ा किया। इसके तुरंत बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने बिल किलिंटन को बताया कि वह कारगिल से अपनी सेना को हटा रहें है।
● 7 जुलाई : भारतीय सेना ने बटालिक में स्तिथ जुबर हिल पर कब्जा पा लिया।
● 11 जुलाई : पाकिस्तानी रेंजर्स ने बटालिक से भागना शुरू कर दिया।
● 14 जुलाई : प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने ऑपरेशन विजय की जीत की घोषणा कर दी।
● 26 जुलाई : पीएम ने इस दिन को विजय दिवस के रूप में मनाए जाने का किया।
आज 26 जुलाई को, कारगिल विजय के 21 साल हम पूरे कर रहे हैं पर करगिल किस विफलता का परिणाम था, यह जानना बेहद ज़रूरी है। हमने उस विफलता से कुछ सीखा भी है या हम बस अपने हुतात्मा सैनिको को भावुकता भरी श्रद्धाजंलि देकर आगे बढ़ गए हैं। इन 21 सालों में, करगिल युद्ध ने ऐसे बहुत से सबक हमें दिए जिससे हम भविष्य की योजनाओं के लिये उनका आधार बना सकते हैं। लेकिन 21 साल पहले भारत के खुफिया तंत्र द्वारा की गई भूल इसी साल गलवां घाटी और लद्दाख के लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल पर भारत द्वारा पुनः दोहराई गई जब, अक्टूबर 2019 से ही चीनी घुसपैठ हमारे क्षेत्र में होती रही और आज तक इतनी बातचीत और 20 सैनिकों की शहादत के बाद भी चीन हमारे क्षेत्र में अब भी घुसा बैठा है, और कुछ टीवी चैनल, गलवां घाटी के खोखले विजय का जश्न मना रहे हैं।
भारतीय खुफिया तँत्र की विफलता तो करगिल घुसपैठ 1999 में भी हुयी थी और इस साल लद्दाख में भी हुयी है। मतलब एक ही क्षेत्र में 21 साल पहले जो नाकामी खुफिया तंत्र की थी वह दुबारा दुहरायी गयी। अब कुछ बातें कारगिल युद्ध के बारे में जान लेनी चाहिए। ऊपर मैंने घटनाक्रम दे दिया है। उसी के अनुसार, 3 मई 1999 को एक चरवाहे ने भारतीय सेना को कारगिल में पाक सेना के घुसपैठ कर कब्जा जमा लेने की सूचना दी थी। कारगिल में हुए हमले के 21 साल बाद भी ऐसा बहुत कुछ है जिसे हम अपनी सेना में आज भी लागू नहीं कर पाए हैं।
लगभग तीन महीने के 'ऑपरेशन विजय' में भारत के 527 जवान शहीद और 1363 जवान घायल हुए थे। जो घायल हुए हैं उनमें कोई बाद में शहीद हुआ या नहीं, यह आंकड़ा मुझे नहीं मिल पाया। वहीं भारतीय सेना ने पाकिस्तान के 3 हजार सैनिकों को मार गिराया था। उस समय भारतीय सेना प्रमुख जनरल वेद प्रकाश मालिक थे, जिन्होंने कारगिल पर एक किताब भी लिखी है। उस किताब में इस युद्ध के कारण, परिणाम, सफलता और विफलता के बारे में जनरल मलिक ने अपने विचार रखे हैं।
कारगिल युद्ध के समाप्त होने के बाद, तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने कारगिल घुसपैठ के विभिन्न पहलुओं पर समीक्षा करने के लिए, के सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में, एक कमेटी, जिसे कारगिल रिव्यू कमेटी कहा जाता है, का गठन किया था। इस समिति के तीन अन्य सदस्य लेफ्टिनेंट जनरल केके हजारी, बीजी वर्गीज और सतीश चंद्र, सचिव, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय थे। कारगिल रिव्यू कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में मुख्य रूप से निम्न बातें कहीं।
● देश की सुरक्षा प्रबंधन प्रणाली में गंभीर कमियों के कारण कारगिल संकट पैदा हुआ.
● रिपोर्ट ने खुफिया तंत्र और संसाधनों और समन्वय की कमी को जिम्मेदार ठहराया गया।
● इसने पाकिस्तानी सेना के गतिविधियों का पता लगाने में विफल रहने के लिए रॉ ( RAW ) को दोषी ठहराया गया।
● रिपोर्ट ने “एक युवा और फिट सेना” की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला था।
क्या आज, 21 साल बीत जाने के बाद भी, भारतीय सेना को कारगिल युद्ध से सीख मिली है ? जिन विफलताओं का उल्लेख उस कमेटी की रिपोर्ट में किया गया है उन विफलताओं के कारणों को दूर करने की कोई योजनाबद्ध कोशिश की गयी है ? इसका उत्तर होगा हां।कुछ सिफारिशों को सरकार ने माना है और कुछ पर अभी कार्यवाही होनी शेष है। रिपोर्ट की सिफारिशें, पेश किए जाने के कुछ महीनों बाद राष्ट्रीय सुरक्षा पर मंत्रियों के एक समूह का, गठन किया गया जिसने खुफिया तंत्र को मजबूत करने की आवश्यकता पर सहमति जतायी गयी थी। सेना के पूर्व अधिकारियों ने कहा कि कारगिल सेक्टर में 1999 तक बहुत कम सेना के जवान थे, लेकिन युद्ध के बाद, बहुत कुछ बदल गया। ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) कुशकल ठाकुर, जो 18 ग्रेनेडियर्स के कमांडिंग ऑफिसर थे. साथ ही जो टॉलोलिंग और टाइगर हिल पर कब्जा करने में शामिल थे, ने भी कहा कि, 'कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ के पीछे खुफिया विफलता मुख्य कारण थी। लेकिन पिछले वर्षों में, बहुत कुछ बदल गया है। हमारे पास अब बेहतर हथियार, टेक्नोलॉजी, खुफिया तंत्र हैं जिससे भविष्य में कारगिल-2 संभव नहीं है। लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) अमर औल, जो ब्रिगेड कमांडर के रूप में टॉलोलिंग और टाइगर हिल पर फिर से कब्जा करने के अभियानों में शामिल थे, ने कहा कि, हमारे पास 1999 में कारगिल में एलओसी की रक्षा के लिए एक बटालियन थी। आज हमारे पास कारगिल एलओसी की रक्षा के लिए एक डिवीजन के कमांड के अंतर्गत तीन ब्रिगेड हैं।
रिपोर्ट ने एक युवा और फिट सेना रखे जाने का उल्लेख किया गया था। इस पर भी काम हुआ है । आज सेना में पहले की तुलना में कमांडिंग यूनिट जवान (30 वर्ष) के अधिकारी हैं। यह एक बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन है. 2002 में डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी और 2004 में राष्ट्रीय तकनीकी अनुसंधान संगठन (NTRO) का निर्माण, कवर रिपोर्ट के कुछ प्रमुख परिणाम थे। अब तो चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (CDS) का पद भी बना दिया गया है ।
रिपोर्ट ने काउंटर-इंसर्जेन्सी में सेना की भूमिका को कम करने की भी सिफारिश की गयी थी, लेकिन इसे अभी तक लागू नहीं किया गया है। 1999-2001 में सरकार द्वारा संशोधित फास्ट-ट्रैक अधिग्रहण को कभी भी दोहराया नहीं गया और भारतीय सैनिकों ने अभी तक उन्हीं राइफलों से लड़ाई लड़ी जिसके साथ उन्होंने 1999 में लड़ी थी। इसलिए कारगिल युद्ध की 21 वीं सालगिरह का जश्न मनाने का सबसे अच्छा तरीका होगा की कारगिल रिव्यू कमेटी और मंत्रिमंडल समूह की रिपोर्ट की समीक्षा करके लंबे समय से लंबित राष्ट्रीय सुरक्षा सुधारों को पूरा किया जाए। विशेष रूप से फास्ट-ट्रैक रक्षा सुधार को समय पर कार्यान्वयन किया जाएं।. हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि ,उत्तरी सीमा पर अकेले पाकिस्तान ही खतरा नहीं है बल्कि चीन एक बड़ा खतरा है।
करगिल और लद्दाख में अनेक असमानताओं के बाद भी एक समानता है कि, दोनो ही मौकों पर हमारी खुफिया एजेंसियां विफल रही हैं। राजनीतिक रूप से सबसे बड़ी विफलता यह है कि पाकिस्तान से हुई घुसपैठ को हम जहां जोर शोर से स्वीकार करते हैं और उसका मुंहतोड़ जवाब देते हैं वहीं चीन से हुयी घुसपैठ और चीनी सेना की हमारी सीमा में घुस कर तंबू, टीन शेड, बंकर आदि बनाने की घटना पर चुप्पी साध जाते हैं। क्यों। अगर यह एक कूटनीतिक रणनीति है तो अलग बात है, अन्यथा अगर यह एक सत्तारूढ़ दल का पोलिटिकल एजेंडा है तो इसका प्रभाव आगे चल कर आत्मघाती होगा। डोकलां से लेकर गलवां घाटी तक चीनी सैनिकों की घुसपैठ और उन्हें जवाब देने की शैली से यही संदेश गया कि चीन के प्रति हम नरम हैं। हद तो तब हो गयी जब प्रधानमंत्री ने कह दिया कि हमारी सीमा में न तो कोई घुसा था और न घुसा है। जबकि वास्तविकता यह है कि आज भी चीन हमारी सीमा में ऊंची पहाड़ियों पर जो रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं कब्ज़ा जमाये हुए है और जिस प्रकार की, उसकी गतिविधिया हैं, उससे नहीं लगता कि, चीन घुसपैठ पूर्व की स्थिति आसानी से बहाल करेगा।
गलवां घाटी में जो घुसपैठ हुयी है उस पर एक टीवी चैनल में बहस चल रही थी। उस बहस में जो सवाल उठ रहे थे को इंगित करते हुए, एक रिटायर्ड मेजर जनरल पीसी पंजिकर ने एक पत्र उक्त चैनल के सम्पादक को लिखा था। मेजर जनरल पंजिकर ने जो सवाल उठाये हैं, वे बेहद सारगर्भित और प्रोफेशनल हैं। उन्होंने अपने पत्र में लिखा है कि,
" इसमे कुछ भी अनुचित नहीं है कि, गलवां घाटी के मामले में, सरकार और सेना की भूमिका की समीक्षा हो। उनकी विफलताओं और कमियों पर भी बहस होनी चाहिए। लेकिन 2015 से 2020 तक की जो सैटेलाइट इमेजेस आ रही हैं, और जिनके अनुसार गलवां घाटी के उत्तर पूर्वी किनारे पर, चीन की सेना ने जो भारी निर्माण कर लिए हैं, उसके बारे में, आंतरिक और बाह्य खुफिया एजेंसियों के डायरेक्टर जनरल साहबान से क्यों नहीं पूछा जाता है ? क्या यह उनके एजेंसी की विफलता नहीं है कि उन्होंने समय रहते सरकार को इसकी सूचना क्यों नहीं दी ?'
आगे वे कहते हैं कि,
"उन्हें इस विफलता के लिये जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए और उनके खिलाफ अगर उनका दोष प्रमाणित होता है तो कार्यवाही भी की जानी चाहिए।"
गवर्नमेंट ऑफ इंडिया बिजनेस रूल्स 1961 का उल्लेख करते हुए जनरल पंजिकर कहते हैं कि, रक्षा सचिव और चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ को भी इस विफलता का दोषी ठहराया जाना चाहिए और उनसे विस्तार से इस मामले में, उनका स्पष्टीकरण लिया जाना चाहिए।
रक्षा मामलो की एक और खुफिया एजेंसी है डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी जिसके अलग डीजी हैं। यह एजेंसी करगिल रिव्यू कमेटी की अनुसंशा पर 2004 में गठित की गयी है। यह एजेंसी भी अपने कर्तव्य में विफल रही है। इस एजेंसी और सेना के बड़े जनरलों का भी यह दायित्व है कि, जब चीन सीमा पर लम्बे समय से घुसपैठ कर रहा था और भारी सैन्य बंकर, बैरक बना रहा था तो सरकार को उन्हें यह बताना चाहिए था और हमारे विदेश मंत्रालय को भी 1993, 1996, 2003 के भारत चीन संधियों के आलोक में चीन से कड़ा विरोध दर्ज कराना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह भी सवाल उठता है कि एनटीआरओ ने इन सब गतिविधियों पर अपनी नज़र क्यों नहीं रखी ?
एनटीआरओ जिसका पूरा नाम है नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गनाइजेशन जो एक तकनीकी खुफिया एजेंसी है और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के अंतर्गत कार्य करती है। इसके अधीन, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिप्टोलॉजी रिसर्च एंड डेवलपमेंट ( NICRD ) है, जो एशिया में अपने तरह की एक अनोखी रिसर्च इकाई है। एनटीआरओ भी आईबी, इंटेलिजेंस ब्यूरो और रिसर्च एंड एनालिसिस विंग, रॉ की ही तरह गम्भीर और संवेदनशील अभिसूचनाओ का संकलन करती है। पर लद्दाख के 2019 20 के चीनी घुसपैठ की अग्रिम अभिसूचनाओ के संकलन में यह एजेंसी भी दुर्भाग्य से विफल रही है।
ऐसा नहीं है भारत मे प्रशासनिक तंत्र का विकास नहीं हुआ है। बल्कि समय समय पर जैसी आवश्यकताए होती रहीं तत्समय की सरकारो, जिसमे पराधीन भारत की, ब्रिटिश कालीन औपनिवेशिक सरकार भी सम्मिलित है, ने, उसी तरह से आवश्यकतानुसार मैकेनिज़्म भी तैयार किये पर दुःखद और हैरान करने वाला पहलू यह है कि इतनी विशेषज्ञ और महत्वपूर्ण खुफिया एजेंसियों के होते हुए हम अपनी सीमा में हो रही घुसपैठ की घटनाओं पर समय रहते से नज़र नहीं रख पाते है। यह अलग बात है कि भारत, चीन के इस हाल की घुसपैठ की घटना जो लद्दाख के गलवां घाटी में हुई है को छोड़ कर अन्य घुसपैठ को बल एवं कुशल पूर्वक हटाने में सफल हुआ है, पर इससे खुफिया एजेंसियों की विफलता तो छुप नहीं जाती है ।
कारगिल युद्ध मे सेना की शौर्य परंपरा तो कायम रही, पर खुफिया एजेंसियों की विफलता और सरकार की कूटनीतिक नाकामी से इनकार नहीं किया जा सकता है। खुफिया एजेंसियों की विफलता, गलवां घाटी में भी दिख रही है और पठानकोट तथा पुलवामा हमलों में भी थी। सरकार को, अपने सभी खुफिया एजेंसियों को और अधिक विश्वसनीय तथा सक्षम बनाना पड़ेगा ताकि भविष्य में न तो, फिर से कोई कारगिल हो और न ही डोकलां और गलवां ही हो। गलवां का मामला अभी हल नहीं हुआ है। चीन की सेना को एलएसी की पूर्व की स्थिति में लाने के लिये सरकार का प्रयास जारी है। आशा है सरकार चीन को एलओसी की पूर्ववत स्थिति पर धकेलने में सफल होगी।
( विजय शंकर सिंह )
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