Friday, 31 July 2020

मुंशी प्रेमचंद की कहानी - सवा सेर गेहूं / विजय शंकर सिंह.


आज 31 जुलाई, हिंदी के अग्रणी कथाकार और उपन्यास सम्राट  प्रेमचंद जी की जयंती का दिन है। आज ही के दिन, वर्ष 1880 में, वे वाराणसी शहर से थोड़ी दूर लमही नामक गांव में जन्मे थे। अपना शुरुआती लेखन, उर्दू में करने वाले प्रेमचंद, हिंदी के प्रगतिशील लेखन के एक स्तंभ हैं। प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक भी मुंशी प्रेमचंद रहे हैं। किसान, मज़दूर, शोषण और धर्म तथा समाज के पाखण्ड को प्रेमचंद ने अपनी कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से बेनकाब कर के रख दिया है। 

प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है।

आज प्रेमचंद जयंती के अवसर पर उनकी एक प्रसिद्ध कहानी पढिये, सवा सेर गेहूं। लोभ, शोषण और धर्म के पाखंड को खूबसूरती से बयान करती हुयी यह कहानी, पूंजीवादी और सामंतवादी शोषण की मानसिकता की एक सच्ची घटना है। यह कल्पना नहीं समाज की एक तल्ख हक़ीक़त पर आधारित कहानी है। 

सवा सेर गेहूँ
( प्रेमचंद )

किसी गाँव में शंकर नाम का एक कुरमी किसान रहता था। सीधा-सादा गरीब आदमी था, अपने काम-से-काम, न किसी के लेने में, न किसी के देने में। छक्का-पंजा न जानता था, छल-प्रपंच की उसे छूत भी न लगी थी, ठगे जाने की चिन्ता न थी, ठगविद्या न जानता था, भोजन मिला, खा लिया, न मिला, चबेने पर काट दी, चबैना भी न मिला, तो पानी पी लिया और राम का नाम लेकर सो रहा। किन्तु जब कोई अतिथि द्वार पर आ जाता था तो उसे इस निवृत्तिमार्ग का त्याग करना पड़ता था। विशेषकर जब साधु-महात्मा पदार्पण करते थे, तो उसे अनिवार्यत: सांसारिकता की शरण लेनी पड़ती थी। खुद भूखा सो सकता था, पर साधु को कैसे भूखा सुलाता, भगवान् के भक्त जो ठहरे !

एक दिन संध्या समय एक महात्मा ने आकर उसके द्वार पर डेरा जमाया। तेजस्वी मूर्ति थी, पीताम्बर गले में, जटा सिर पर, पीतल का कमंडल हाथ में, खड़ाऊँ पैर में, ऐनक आँखों पर, सम्पूर्ण वेष उन महात्माओं का-सा था जो रईसों के प्रासादों में तपस्या, हवागाड़ियों पर देवस्थानों की परिक्रमा और योग-सिध्दि प्राप्त करने के लिए रुचिकर भोजन करते हैं। घर में जौ का आटा था, वह उन्हें कैसे खिलाता। प्राचीनकाल में जौ का चाहे जो कुछ महत्त्व रहा हो, पर वर्तमान युग में जौ का भोजन सिद्ध पुरुषों के लिए दुष्पाच्य होता है। बड़ी चिन्ता हुई, महात्माजी को क्या खिलाऊँ। आखिर निश्चय किया कि कहीं से गेहूँ का आटा उधार लाऊँ, पर गाँव-भर में गेहूँ का आटा न मिला। गाँव में सब मनुष्य-ही-मनुष्य थे, देवता एक भी न था, अतएव देवताओं का खाद्य पदार्थ कैसे मिलता। सौभाग्य से गाँव के विप्र महाराज के यहाँ से थोड़ा-सा मिल गए। उनसे सवा सेर गेहूँ उधार लिया और स्त्री से कहा, कि पीस दे। महात्मा ने भोजन किया, लम्बी तानकर सोये। प्रात:काल आशीर्वाद देकर अपनी राह ली।

विप्र महाराज साल में दो बार खलिहानी लिया करते थे। शंकर ने दिल में कहा,सवा सेर गेहूँ इन्हें क्या लौटाऊँ, पंसेरी बदले कुछ ज्यादा खलिहानी दे दूँगा, यह भी समझ जायँगे, मैं भी समझ जाऊँगा। चैत में जब विप्रजी पहुँचे तो उन्हें डेढ़ पंसेरी के लगभग गेहूँ दे दिया और अपने को उऋण समझकर उसकी कोई चरचा न की। विप्रजी ने फिर कभी न माँगा। सरल शंकर को क्या मालूम था कि यह सवा सेर गेहूँ चुकाने के लिए मुझे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा।

सात साल गुजर गये। विप्रजी विप्र से महाजन हुए, शंकर किसान से मजूर हो गया। उसका छोटा भाई मंगल उससे अलग हो गया था। एक साथ रहकर दोनों किसान थे, अलग होकर मजूर हो गये थे। शंकर ने चाहा कि द्वेष की आग भड़कने न पाये, किन्तु परिस्थिति ने उसे विवश कर दिया। जिस दिन अलग-अलग चूल्हे जले, वह फूट-फूटकर रोया। आज से भाई-भाई शत्रु हो जायँगे, एक रोयेगा, दूसरा हँसेगा, एक के घर मातम होगा तो दूसरे के घर गुलगुले पकेंगे, प्रेम का बंधन, खून का बंधन, दूध का बंधन आज टूटा जाता है। उसने भगीरथ परिश्रम से कुल-मर्यादा का वृक्ष लगाया था, उसे अपने रक्त से सींचा था, उसको जड़ से उखड़ता देखकर उसके ह्रदय के टुकड़े हुए जाते थे। सात दिनों तक उसने दाने की सूरत तक न देखी। दिन-भर जेठ की धूप में काम करता और रात को मुँह लपेटकर सो रहता। इस भीषण वेदना और दुस्सह कष्ट ने रक्त को जला दिया, मांस और मज्जा को घुला दिया। बीमार पड़ा तो महीनों खाट से न उठा। अब गुजर-बसर कैसे हो ?

पाँच बीघे के आधे रह गये, एक बैल रह गया, खेती क्या खाक होती ! अन्त को यहाँ तक नौबत पहुँची कि खेती केवल मर्यादा-रक्षा का साधन-मात्र रह गयी, जीविका का भार मजूरी पर आ पड़ा। सात वर्ष बीत गये, एक दिन शंकर मजूरी करके लौटा, तो राह में विप्रजी ने टोककर कहा,  ' शंकर, कल आकर के अपने बीज-बेंग का हिसाब कर ले। तेरे यहाँ साढ़े पाँच मन गेहूँ कबके बाकी पड़े हुए हैं और तू देने का नाम नहीं लेता, हजम करने का मन है क्या ?  '

शंकर ने चकित होकर कहा, मैंने तुमसे कब गेहूँ लिए थे जो साढ़े पाँच मन हो गये ? तुम भूलते हो, मेरे यहाँ किसी का छटाँक-भर न अनाज है,न एक पैसा उधार।  '

विप्र –‘इसी नीयत का तो यह फल भोग रहे हो कि खाने को नहीं जुड़ता।  '

यह कहकर विप्रजी ने उस सवा सेर गेहूँ का जिक्र किया, जो आज के सात वर्ष पहले शंकर को दिये थे। शंकर सुनकर अवाक् रह गया। ईश्वर मैंने इन्हें कितनी बार खलिहानी दी, इन्होंने मेरा कौन-सा काम किया ? जब पोथी-पत्र देखने, साइत-सगुन विचारने द्वार पर आते थे, कुछ-न-कुछ 'दक्षिणा' ले ही जाते थे। इतना स्वार्थ ! सवा सेर अनाज को अंडे की भाँति सेकर आज यह पिशाच खड़ा कर दिया, जो मुझे निगल जायगा। इतने दिनों में एक बार भी कह देते तो मैं गेहूँ तौलकर दे देता, क्या इसी नीयत से चुप साध बैठे रहे ? बोला,  ' महाराज, नाम लेकर तो मैंने उतना अनाज नहीं दिया, पर कई बार खलिहानों में सेर-सेर, दो-दो सेर दिया है। अब आप आज साढ़े पाँच मन माँगते हैं, मैं कहाँ से दूँगा ?  '

विप्र –‘लेखा जौ-जौ, बखसीस सौ-सौ, तुमने जो कुछ दिया होगा, उसका कोई हिसाब नहीं, चाहे एक की जगह चार पसेरी दे दो। तुम्हारे नाम बही में साढ़े पाँच मन लिखा हुआ है; जिससे चाहे हिसाब लगवा लो। दे दो तो

तुम्हारा नाम छेक दूँ, नहीं तो और भी बढ़ता रहेगा।  '

शंकर –‘पाँडे, क्यों एक गरीब को सताते हो, मेरे खाने का ठिकाना नहीं, इतना गेहूँ किसके घर से लाऊँगा ?  '

विप्र –‘ज़िसके घर से चाहे लाओ, मैं छटाँक-भर भी न छोडूँगा, यहाँ न दोगे, भगवान् के घर तो दोगे।  '

शंकर काँप उठा। हम पढ़े-लिखे आदमी होते तो कह देते, ‘अच्छी बात है, ईश्वर के घर ही देंगे; वहाँ की तौल यहाँ से कुछ बड़ी तो न होगी। कम-से-कम इसका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं, फिर उसकी क्या चिन्ता। किन्तु शंकर इतना तार्किक, इतना व्यवहार-चतुर न था। एक तो ऋण वह भी ब्राह्मण का बही में नाम रह गया तो सीधे नरक में जाऊँगा, इस खयाल ही से उसे रोमांच हो गया। बोला,  ' महाराज, तुम्हारा जितना होगा यहीं दूँगा, ईश्वर के यहाँ क्यों दूँ, इस जनम में तो ठोकर खा ही रहा हूँ, उस जनम के लिए क्यों काँटे बोऊँ ? मगर यह कोई नियाव नहीं है। तुमने राई का पर्वत बना दिया, ब्राह्मण हो के तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसी घड़ी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे सिर पर इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ता। मैं तो दे
दूँगा, लेकिन तुम्हें भगवान् के यहाँ जवाब देना पड़ेगा।  '

विप्र –‘वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा। वहाँ तो सब अपने ही भाई-बन्धु हैं। ऋषि-मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं; देवता ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने-बिगड़ेगी, सँभाल लेंगे। तो कब देते हो ?  '

शंकर –‘मेरे पास रक्खा तो है नहीं, किसी से माँग-जॉचकर लाऊँगा तभी न दूँगा !  '

विप्र –‘मैं यह न मानूँगा। सात साल हो गये, अब एक दिन का भी मुलाहिजा न करूँगा। गेहूँ नहीं दे सकते, तो दस्तावेज लिख दो।  '

शंकर --  ' मुझे तो देना है, चाहे गेहूँ लो चाहे दस्तावेज लिखाओ; किस हिसाब से दाम रक्खोगे ?  '

विप्र –‘बाजार-भाव पाँच सेर का है, तुम्हें सवा पाँच सेर का काट दूँगा।‘

शंकर—‘ ज़ब दे ही रहा हूँ तो बाजार-भाव काटूँगा, पाव-भर छुड़ाकर क्यों दोषी बनूँ।  '

हिसाब लगाया तो गेहूँ के दाम 60 रुपये हुए। 60 रुपये का दस्तावेज लिखा गया, 3 रुपये 
सैकड़े सूद। साल-भर में न देने पर सूद की दर ढाई रुपये, सैकड़े। आठ आने, का स्टाम्प, चार आने,दस्तावेज की तहरीर शंकर को ऊपर से देनी पड़ी।

गाँव भर ने विप्रजी की निन्दा की, लेकिन मुँह पर नहीं। महाजन से सभी का काम पड़ता है, उसके मुँह कौन आये। शंकर ने साल भर तक कठिन तपस्या की। मीयाद के पहले रुपये अदा करने का उसने व्रत-सा कर लिया। दोपहर को पहले भी चूल्हा न जलता था, चबैने पर बसर होती थी, अब वह भी बंद हुआ। केवल लड़के के लिए रात को रोटियाँ रख दी जातीं ! पैसे रोज का तंबाकू पी जाता था, यही एक व्यसन था जिसका वह कभी न त्याग कर सका था। अब वह व्यसन भी इस कठिन व्रत की भेंट हो गया। उसने चिलम पटक दी, हुक्का तोड़ दिया और तमाखू की हाँड़ी चूर-चूर कर डाली। कपड़े पहले भी त्याग की चरम सीमा तक पहुँच चुके थे, अब वह प्रकृति की न्यूनतम रेखाओं में आबद्ध हो गये। शिशिर की अस्थिबेधक शीत को उसने आग तापकर काट दिया। इस संकल्प का फल आशा से बढ़कर निकला। साल के अन्त में उसके पास 60) रु.जमा हो गये। उसने समझा पंडितजी को इतने रुपये दे दूँगा और कहूँगा महाराज, बाकी रुपये भी जल्द ही आपके सामने हाजिर करूँगा। 15) रु. की तो और बात है, क्या पंडितजी इतना भी न मानेंगे ! उसने रुपये लिये और ले जाकर पंडितजी के चरण-कमलों पर अर्पण कर दिये। पंडितजी ने विस्मित होकर

पूछा,  ' क़िसी से उधार लिये क्या ?  '

शंकर –‘नहीं महाराज,  ' आपके असीस से अबकी मजूरी अच्छी मिली।  '

विप्र –‘लेकिन यह तो 60) रु. ही हैं !  '

शंकर --  ' हाँ महाराज, इतने अभी ले लीजिए, बाकी मैं दो-तीन महीने में दे दूँगा, मुझे उरिन कर दीजिए।  '

विप्र –‘उरिन तो जभी होगे जबकि मेरी कौड़ी-कौड़ी चुका दोगे। जाकर मेरे 15) रु. और लाओ।  '

शंकर –‘महाराज, इतनी दया करो; अब साँझ की रोटियों का भी ठिकाना नहीं है, गाँव में हूँ तो कभी-न-कभी दे ही दूँगा।  '

विप्र –‘मैं यह रोग नहीं पालता, न बहुत बातें करना जानता हूँ। अगर मेरे पूरे रुपये न मिलेंगे तो आज से 3) रु. सैकड़े का ब्याज लगेगा। अपने रुपये चाहे अपने घर में रक्खो, चाहे मेरे यहाँ छोड़ जाओ।

शंकर –‘अच्छा जितना लाया हूँ उतना रख लीजिए। मैं जाता हूँ, कहीं से 15) रु. और लाने की फिक्र करता हूँ।

शंकर ने सारा गाँव छान मारा, मगर किसी ने रुपये न दिये, इसलिए नहीं कि उसका विश्वास न था, या किसी के पास रुपये न थे, बल्कि इसलिए कि पंडितजी के शिकार को छेड़ने की किसी की हिम्मत न थी।

क्रिया के पश्चात् प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है। शंकर साल-भर तक तपस्या करने पर भी जब ऋण से मुक्त होने में सफल न हो सका तो उसका संयम निराशा के रूप में परिणत हो गया। उसने समझ लिया कि जब इतना कष्ट सहने पर भी साल-भर में 60) रु. से अधिक न जमा कर सका, तो अब और कौन सा उपाय है जिसके द्वारा इसके दूने रुपये जमा हों। जब सिर पर ऋण का बोझ ही लादना है तो क्या मन-भर का और क्या सवा मन का। उसका उत्साह क्षीण हो गया, मेहनत से घृणा हो गयी। आशा उत्साह की जननी है, आशा में तेज है, बल है, जीवन है। आशा ही संसार की संचालक शक्ति है। शंकर आशाहीन होकर उदासीन हो गया। वह जरूरतें जिनको उसने साल-भर तक टाल रखा था, अब द्वार पर खड़ी होनेवाली भिखारिणी न थीं, बल्कि छाती पर सवार होनेवाली पिशाचनियाँ थीं, जो अपनी भेंट लिये बिना जान नहीं छोड़तीं। कपड़ों में चकत्तियों के लगने की भी एक सीमा होती है। अब शंकर को चिट्ठा मिलता तो वह रुपये जमा न करता, कभी कपड़े लाता, कभी खाने की कोई वस्तु। जहाँ पहले तमाखू ही पिया करता था, वहाँ अब गाँजे और चरस का चस्का भी लगा। उसे अब रुपये अदा करने की कोई चिन्ता न थी मानो उसके ऊपर किसी का एक पैसा भी नहीं आता। पहले जूड़ी चढ़ी होती थी, पर वह काम करने अवश्य जाता था, अब काम पर न जाने के लिए बहाना खोजा करता।

इस भाँति तीन वर्ष निकल गये। विप्रजी महाराज ने एक बार भी तकाजा न किया। वह चतुर शिकारी की भाँति अचूक निशाना लगाना चाहते थे। पहले से शिकार को चौंकाना उनकी नीति के विरुद्ध था। एक दिन पंडितजी ने शंकर को बुलाकर हिसाब दिखाया। 60) रु. जो जमा थे वह मिनहा करने पर अब भी शंकर के जिम्मे 120) रु. निकले। शंकर –‘इतने रुपये तो उसी जन्म में दूँगा, इस जन्म में नहीं हो सकते।  '

विप्र –‘मैं इसी जन्म में लूँगा। मूल न सही, सूद तो देना ही पड़ेगा।  '

शंकर --  ' एक बैल है, वह ले लीजिए और मेरे पास रक्खा क्या है।  '

विप्र –‘मुझे बैल-बधिया लेकर क्या करना है। मुझे देने को तुम्हारे पास बहुत कुछ है।  '

शंकर –‘और क्या है महाराज ?  '

विप्र –‘क़ुछ है, तुम तो हो। आखिर तुम भी कहीं मजूरी करने जाते ही हो, मुझे भी खेती के लिए मजूर रखना ही पड़ता है। सूद में तुम हमारे यहाँ काम किया करो, जब सुभीता हो मूल को दे देना। सच तो यों है कि अब

तुम किसी दूसरी जगह काम करने नहीं जा सकते जब तक मेरे रुपये नहीं चुका दो। तुम्हारे पास कोई जायदाद नहीं है, इतनी बड़ी गठरी मैं किस एतबार पर छोड़ दूँ। कौन इसका जिम्मा लेगा कि तुम मुझे महीने-महीने सूद देते जाओगे। और कहीं कमाकर जब तुम मुझे सूद भी नहीं दे सकते, तो मूल की कौन कहे ?’

शंकर –‘महाराज, सूद में तो काम करूँगा और खाऊँगा क्या ?  '

विप्र –‘तुम्हारी घरवाली है, लड़के हैं, क्या वे हाथ-पाँव कटाके बैठेंगे। रहा मैं, तुम्हें आधा सेर जौ रोज कलेवा के लिए दे दिया करूँगा। ओढ़ने को साल में एक कम्बल पा जाओगे, एक मिरजई भी बनवा दिया करूँगा, और

क्या चाहिए। यह सच है कि और लोग तुम्हें छ: आने देते हैं लेकिन मुझे ऐसी गरज नहीं है, मैं तो तुम्हें रुपये भरने के लिए रखता हूँ।  '

शंकर ने कुछ देर तक गहरी चिन्ता में पड़े रहने के बाद कहा,  ' महाराज यह तो जन्म-भर की गुलामी हुई।  '

विप्र –‘ग़ुलामी समझो, चाहे मजूरी समझो। मैं अपने रुपये भराये बिना तुमको कभी न छोडूँगा। तुम भागोगे तो तुम्हारा लड़का भरेगा। हाँ, जब कोई न रहेगा तब की बात दूसरी है।  '

इस निर्णय की कहीं अपील न थी। मजूर की जमानत कौन करता, कहीं शरण न थी, भागकर कहाँ जाता, दूसरे दिन से उसने विप्रजी के यहाँ काम करना शुरू कर दिया। सवा सेर गेहूँ की बदौलत उम्र-भर के लिए गुलामी

की बेड़ी पैरों में डालनी पड़ी। उस अभागे को अब अगर किसी विचार से संतोष होता था तो यह था कि वह मेरे पूर्व-जन्म का संस्कार है। स्त्री को वे काम करने पड़ते थे, जो उसने कभी न किये थे, बच्चे दानों को तरसते

थे, लेकिन शंकर चुपचाप देखने के सिवा और कुछ न कर सकता था। वह गेहूँ के दाने किसी देवता के शाप की भाँति यावज्जीवन उसके सिर से न उतरे।

शंकर ने विप्रजी के यहाँ 20 वर्ष तक गुलामी करने के बाद इस दुस्सार संसार से प्रस्थान किया। 120) अभी तक उसके सिर पर सवार थे। पंडितजी ने उस गरीब को ईश्वर के दरबार में कष्ट देना उचित न समझा, इतने अन्यायी, इतने निर्दयी न थे। उसके जवान बेटे की गरदन पकड़ी। आज तक वह विप्रजी के यहाँ काम करता है। उसका उद्धार कब होगा; होगा भी या नहीं, ईश्वर ही जाने।

पाठक ! इस वृत्तांत को कपोल-कल्पित न समझिए। यह सत्य घटना है। ऐसे शंकरों और ऐसे विप्रों से दुनिया खाली नहीं है।
( साभार हिंदी समय )
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प्रेमचंद और उनकी लेखनी को विनम्र प्रणाम और उनका स्मरण। 

( विजय शंकर सिंह )

Thursday, 30 July 2020

डॉ मार्गरेट वाकर और उनकी कविता फ़ॉर माय पीपुल / विजय शंकर सिंह


अफ्रीकी-अमेरिकी महिला कवि मार्गरेट वाकर (1915-1998) की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कविता फ़ॉर माय पीपुल का हिंदी अनुवाद, अपने लोगो के लिये। 


अपने लोगों के लिये

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अपने उन लोगों के लिये

जो गाते हैं हर कहीं अपनी दासता के गीत

निरन्तर : अपने शोकगीत और पारंपरिक गीत

अपने विषाद गीत और उत्सव-गीत,

जो दोहराते आ रहे हैं प्रार्थना के गीत हर रात

किसी अज्ञात ईश्वर के प्रति,

घुटनों पर बैठ कर आर्त्त भाव से

किसी अदृश्य शक्ति के सामने;


अपने उन लोगों के लिये

जो देते आ रहे हैं उधार अपनी सामर्थ्य वर्षों से,

बीते वर्षों और हाल के वर्षों और संभावित वर्षों को भी,

धोते इस्तरी करते खाना पकाते झाड़ू-पोंछा करते

सिलाई मरम्मत करते फावड़ा चलाते 

जुताई खुदाई रोपनी छंटाई करते पैबन्द लगाते

बोझा खींचते हुए भी जो न कमा पाते न चैन पाते हैं

न जानते और न ही कुछ समझ पाते हैं;


बचपन में अलबामा की 

मिट्टी और धूल और रेत के अपने जोड़ीदारों के लिये 

आंगन के खेल-कूद बपतिस्मा और धर्मोपदेश और चिकित्सक

और जेल और सैनिक और स्कूल और ममा और खाना

और नाट्यशाला और संगीत समारोह और दूकान और बाल

और मिस चूम्बी एंड कंपनी के लिये;


तनाव और कौतूहल से भरे उन वर्षों के लिये 

जब हम दाखि़ल हुए स्कूल में पढ़ाई के लिये

क्यों के कारणों और उत्तरों और कौन से लोग

और कौन सी जगह और कौन से दिन को 

जानने के लिये, उन कड़वे दिनों को याद करते हुए

जब हमें पहली बार मालूम हुआ कि हम 

अश्वेत और गरीब और तुच्छ और भिन्न हैं 

और कोई भी हमारी परवाह नहीं करता

और किसी को हम पर अचंभा नहीं होता

और कोई भी समझता ही नहीं हमें;


उन लड़कों और लड़कियों के लिये

जो इन सबके बावज़ूद भी पलते रहे बढ़ते रहे

आदमी और औरत बनने के लिये

ताकि हंसें और नाचें और गायें और खेलें और

कर सकें सेवन शराब और धर्म और सफलता का,

कर सकें शादी अपने जोड़ीदारों से और 

पैदा करें बच्चे और मर जायें एक दिन

उपभोग और एनीमिया और लिंचिंग से;


अपने उन लोगों के लिये जो कसमसाते हैं 

भीड़भाड़ में शिकागों की सड़कों पर और 

लेनॉक्स एवेन्यू में और न्यू ओरलीन्स की

परकोटेदार गलियों में, उन गुमशुदा

वंचित बेदख़ल और मगन लोगों के लिये

जिनसे भरे हैं शराबख़ाने और चायख़ाने और

अन्य लोग जो मोहताज़ हैं रोटी और जूतों

और दूध और ज़मीन के टुकड़े और पैसे और 

हर उस चीज़ के लिये जिसे कहा जा सके अपना;


अपने उन लोगों के लिये,

जो बांटते फिरते हैं ख़ुशियां बेपरवाह होकर,

नष्ट कर देते हैं अपना समय क़ाहिली में,

सोते हैं भूखे-प्यासे, बोझा ढोते चिल्लाते हैं,

पीते हैं शराब नाउम्मीदी में,

जो बंधे हुए, जकड़े और उलझे हैं हमारे ही बीच के

उन अदृश्य मनुष्यों की बेड़ियों में

हमारे ही कंधों पर होकर सवार जो

बनते हैं सर्वज्ञानी और हंसते हैं;


अपने उन लोगों के लिये जो

करते हैं गलतियां और टटोलते 

और तड़फड़ाते हैं अंधेरों में

गिरजाघरों और स्कूलों और क्लबों

और समितियों, संस्थाओं और परिषदों

और सभाओं और सम्मेलनों के,

जो हैं दुखी और क्षुब्ध और ठगी के शिकार

और जिन्हें निगल लिया है धनपशुओं

और प्रभुता के भुक्खड़ जोंकों ने,

जिन्हें लूटा जा रहा है

राज्य के हाथों प्रत्यक्ष बल-प्रयोग से

और छला जा रहा है झूठे 

भविष्यवक्ताओं और धार्मिक मतवादियों द्वारा;


अपने उन लोगों के लिये

जो जुटे हैं इकट्ठा हैं प्रयासरत हैं

एक ऐसे बेहतर मार्ग के निर्माण के लिये

जो कि बाहर निकाल सके उन्हें

भ्रमजाल से, पाखंड और ग़लतफ़हमी से,

जो प्रयासरत हैं एक ऐसी दुनिया बनाने के लिये

जो जगह दे सके तमाम लोगों, तमाम शक्लों

तमाम आदमों और ईवों

और उनकी बेहिसाब पीढ़ियों को भी;


एक नयी पृथ्वी का उदय होने दो।

पैदा होने दो एक और दुनिया को।

एक रक्तिम शान्ति को 

अंकित हो जाने दो आसमान पर।

साहस से भरी अगली पीढ़ी को आने दो आगे,

होने दो संवर्द्धन एक ऐसी आज़ादी का 

भरा हो अनुराग जिसमें जन-जन के लिये।

राहत से भरी हुई सुन्दरता को 

और उस शक्ति को जो निर्णयकारी हो

हो जाने दो स्पंदित हमारी आत्माओं में

और ख़ून में हमारे।

आओ कि अब लिखे जायें गीत प्रयाण के,

जिनमें तिरोहित हो जायें शोक के गीत।

अब हो जाना चाहिये उद्भव तत्क्षण

इन्सानों की एक प्रजाति का 

और सम्भाल लेना चाहिये जिम्मा शासन का उसे। 


(अंग्रेज़ी से अनुवाद– राजेश चंद्रा )

डॉ मार्गरेट वाकर अलेक्जेंडर. 


1968 में जैक्सन स्टेट यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफेसर के रूप में, डॉ मार्गरेट वाकर ने इतिहास के अध्ययन के लिये इंस्टीट्यूट ऑफ द स्टडी ऑफ हिस्ट्री, लाइफ एंड कल्चर ऑफ द ब्लैक पीपुलकी स्थापना की थी। एक ख्यातिलब्ध लेखिका होने के कारण वे स्वाभाविक रूप से, नव ब्लैक स्टडीज मूवमेंट की अग्रिम पंक्ति में थीं। इसी काऱण इस संस्थान ने, बीसवीं सदी के अफ्रीकन अनेरिकन इतिहास और संस्कृति के अध्येताओं में उनका नाम अमर कर दिया है । अपने जीवनकाल में ही उन्होंने न केवल डब्ल्यू ई.बी.डू. बोरिस, लैंग्स्टन हग्स, और रिचर्ड राइट जैसे लेखकों से प्रेरनहुयी बल्कि, उन्होंने जेम्स बाल्डविन, टोनी मॉरिसन और माया अंगलेउ जैसे लेखकों को प्रेरित भी किया। 


7 जुलाई 1915 को अलबामा के बर्मिंगटम में जन्मी वाकर ने पांच वर्ष से कुछ न कुछ लिखना शुरू कर दिया था। 1925 में जब उनका परिवार न्यू ओर्लिन्स में आ गया तो, लैंग्स्टन हग्स से मिलने के बाद उनके लेखन में नियमितता और समृद्धि आयी और उन्होंने, वाकर को आगे और पढ़ने के दक्षिण को छोड़ कर जाने के लिये प्रेरित किया। 1935 में नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी, जहां से वाकर के पिता ने भी पढ़ाई की थी,  से स्नातक की डिग्री लेने के बाद वे, फेडरल राइटर्स प्रोजेक्ट में काम करने के लिये शिकागों आ गयीं। यहीं पर इनका संबंध, साहित्यकार रिचर्ड राइट से हो गया और वे, साउथसाइड राइटर्स ग्रुप से जुड़ गयी। 


1937 में वाकर ने अपनी प्रसिद्ध कविता, फ़ॉर माय पीपुल लिखी और उस कविता के लिये उन्हें येल विश्वविद्यालय का यंगर पोएट्स अवार्ड मिला, और यह पुरस्कार प्राप्त करने वाली वह पहली ब्लैक महिला थीं। 1949 में वाकर, अपने पति फरनिस्ट अलेक्जेंडर और तीन बच्चों के साथ मिसिसिपी आ गयीं। यहां उन्होंने जैक्सन स्टेट यूनिवर्सिटी के अंग्रेजी विभाग में पढ़ाना शुरू किया। जैक्सन स्टेट यूनिवर्सिटी में ही इन्होंने अपने डॉक्टरेट का शोध प्रबंध जो नव दासता यानी नियो स्लेव नैरेटिव पर था, को पूरा किया। यह शोध उनकी नानी एलविरा वेयर के संस्मरणों और ब्लैक दासता पर आधारित था। 1966 में यह शोध प्रबंध पहली बार प्रकाशित हुआ और बेहद लोकप्रिय हुआ। 


जैक्सन स्टेट यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ द हिस्ट्री, लाइफ एंड कल्चर के निदेशक के रूप में उन्होंने, कई आयोजन किये उसमे से कुछ सेमिनार अपनी तरह से अनोखे और अलग थे। जैसे 1971 में उन्होंने नेशनल इवैल्युएटिव कॉन्फ्रेंस ऑन ब्लैक स्टडीज और 1973 में फिलीस व्हीटली पोएट्री फेस्टिवल के नाम लिए जा सकते हैं। 


तीस साल के अध्यापन के बाद डॉ वाकर प्रोफेसर एमेरिटस बन गयी और उन्होंने अपना समस्त साहित्यिक और प्रशासनिक लेखन इस संस्थान को दान दे दिया, जो बाद में डॉ वाकर के ही नाम से विख्यात हुआ। जैक्सन स्टेट यूनिवर्सिटी में संग्रहित, द मार्गरेट वाकर पेपर्स, दुनियाभर में अकेले एक ऐसा संस्थान हैं जहां किसी एक ब्लैक लेखिका द्वारा लिखा गया समस्त साहित्य, एक ही स्थान पर संग्रहित है। द वाकर सेंटर में चालीस महत्वपूर्ण पांडुलिपियां, जैसे अमेरिकी शिक्षा मंत्रालय के दस्तावेज, मौखिक इतिहास से जुड़े दस्तावेज और विभिन्न महत्वपूर्ण लोगो के 2000 इंटरव्यू संग्रहित हैं। 


( विजय शंकर सिंह )


Wednesday, 29 July 2020

आर्थिक बदहाली पर चुप्पी और राफेल पर डिबेट, क्या यह मीडिया द्वारा मुद्दा भटकाना नहीं है ? / विजय शंकर सिंह


सरकार की पीआर एजेंसी के रूप में कुछ टीवी चैनलों का बदलना अब हैरान नहीं करता है, बल्कि हैरान करता है उन्मादित डिबेट के शोर में सरकार से किसी संजीदा मामले पर अचानक टीवी चैनलों का कुछ सवाल उछाल देना। आज अगर सोशल मीडिया और विभिन्न मीडिया वेबसाइट्स होतीं तो, ऐसे बहुत से समाचार जो जनहित और जनसरोकार से जुड़े हैं, समाज तक पहुंचते ही नहीं और अगर किसी भी प्रकार से वे पहुंच भी पाते तो खबरों का वह स्वरूप न होता जो होना चाहिए बल्कि खबरे भी जानबूझकर कर,  संशोधित, संक्षिप्त और प्रक्षिप्त होतीं। 

आज सुबह सुबह अखबार आंखों से गुजरे तो देश की आर्थिक स्थिति के बारे में एक बेहद चिंतित करने वाली खबर पढ़ने को मिली, पर इस खबर पर न तो किसी टीवी चैनल में डिबेट होगी और न ही प्रधानमंत्री या वित्तमंत्री या सरकार का कोई जिम्मेदार व्यक्ति ट्वीट करेगा। खबर से यह संदेह उठ रहा है कि क्या सरकार वित्तीय रूप से दिवालियेपन की ओर जा रही है।

खबर यह है कि, वित्तीय मामलों की संसदीय स्टैंडिंग कमेटी जिसके अध्यक्ष भाजपा के सांसद जयंत सिन्हा हैं के सामने वित्त सचिव अजय भूषण पांडेय ने कहा है कि, सरकार इस स्थिति में नहीं है कि वह राज्यो को जीएसटी का उनका हिस्सा दे सके। मतलब सरकार ने अपनी जेबें उलट दीं हैं। सरकार का कर संग्रह गिर गया है। जब सरकार से पूछा गया कि
" सरकार राज्यो को दिए गए उनके वादे कैसे पूरा करेगी ल
तो वित्त सचिव ने कहा कि, 
" जीएसटी एक्ट में यह प्रविधान है कि कैसे राज्यो को उनका अंशदान दिया जाएगा। इसी प्रविधान के अनुसार राज्य और केंद्र मिलकर घटते राजस्व की स्थिति में कोई रास्ता निकालेंगे। " 

इस पर संसदीय समिति में सम्मिलित विपक्ष के नेताओ, मनीष तिवारी, अंबिका सोनी, गौरव गोगोई, प्रफुल्ल पटेल ने कहा कि समिति को देश के आर्थिक विकास की गति में तेजी लाने के उपायों पर विचार करना चाहिए। समिति ने यह भी कहा कि महामारी के कारण आर्थिकी में जो कठिनाइयां आयी हैं उनपर भी बहस होनी चाहिए। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। 

समिति में कांग्रेस के एमपी मनीष तिवारी ने कहा कि, 23 मार्च को जो वार्षिक बजट संसद ने पारित किया था अब वह भी अप्रासंगिक हो गया है क्योंकि जिन कराधान और कर संग्रह के आंकड़ों पर वह आधारित है वे अब बिल्कुल बदल गए हैं। अब तक सरकार को ही यह साफ तौर पर पता नहीं है कि,  भविष्य में  कितना कर संग्रह गिर सकता है। सरकार ऐसी स्थिति से उबरने के लिये क्या सोच रही है। 

कुछ अखबारों के अनुसार, संसदीय समिति के अध्यक्ष जयंत सिन्हा ने कहा कि सदस्यों द्वारा उठाए गए अनेक विंदु राजनीतिक स्वरुप के हैं अतः उनका उत्तर वित्त मंत्रालय के अधिकारियों द्वारा नहीं बल्कि वित्तमंत्री द्वारा संसद के ही किसी सदन में जब, इस विषय पर चर्चा हो तो, ही दिया जाना उचित होगा। इस पर एनसीपी के सांसद प्रफुल्ल पटेल ने कहा कि जब अर्थव्यवस्था के मौलिक सवालों पर संसदीय समिति में चर्चा नहीं हो सकती है तो फिर ऐसी संसदीय समिति को भंग कर दिया जाना चाहिए। 

2014 के बाद सरकार की सबसे बड़ी आर्थिक भूल है, 8 नवम्बर 2016 को रात 8 बजे नोटबन्दी की घोषणा। जब जब देश की आर्थिक विपन्नता पर बहस उठेगी, यह अहमकाना फैसला याद किया जाएगा। इस बेवकूफ़ी भरे कदम से न केवल देश मे औद्योगिक उत्पादन गिरा, जीडीपी गिरी, नौकरियां गयीं, बैंकों का एनपीए हुआ और इस कदम से मिला कुछ नहीं। न तो काला धन का पता लगा, न काले धन का सृजन रुका, न तो डिजिटल लेनदेन बढ़े और जितना बढ़ा भी उतना ही डिजिटल फ्रॉड भी बढ़ा। सरकार आज तक यह पता नहीं लगा सकी कि नोटबन्दी से देश को लाभ क्या हुआ। 

एक साल के भीतर दूसरा आघात जीएसटी की जटिल नीतियों से हुआ। इसने व्यापार की कमर तोड़ कर रख दी।  अब जब महामारी आयी है तो अर्थव्यवस्था की रही सही कमर भी टूट गयी। आज स्थिति यह है कि इस दलदल से कैसे अर्थव्यवस्था निकले और कम से कम लोगों की मूलभूत समस्याओं का ही समाधान हो सके, ऐसा कोई उपाय न तो सरकार सोच पा रही है और न देश की हर आर्थिक समस्या का निदान निजीकरण है, मानने वाला नीति आयोग। 

देश मे बस दो ही ऐसे हैं जो इस आर्थिक बदहाली में भी तरक़्क़ी कर रहे हैं। एक तो मुकेश अम्बानी और अडानी जैसे सरकार के चहेते गिरोही पूंजीपति और दूसरे सत्तारूढ़ दल भाजपा । अम्बानी का आर्थिक विकास और उनकी संपन्नता दुनिया मे एक एक नम्बर उठता जा रहा है और भाजपा के कार्यालय दिन दूनी और रात चौगुनी गति से बढ़ते जा रहे है। इन दो आर्थिक सूचकांक को छोड़ कर शेष सब अधोमुखी हैं। 

दूसरी खबर, जिस पर कई दिन से टीवी  डिबेट में चर्चा चल रही है, वह है राफेल विमान के सौदे का।

यह विमान अब भारत आ गया है। राफेल आ तो रहा है. पर इस सौदे पर जो सवाल पहले उठे थे वेअब भी उठेंगे। वे सारे सवाल विमान की तकनीक और उसके आधुनिक होने के संबंध में नहीं हैं बल्कि वे सवाल है राफेल सौदे में हुयी अनेक अनियमितताओं पर। राफेल एक बेहद उन्नत विमान है। उसके एक एक कल पुर्जे के बारे में विस्तार से टीवी चैनल बता रहे है। इस विमान के आने से निश्चित ही वायुसेना की ताक़त बढ़ेगी। राफेल की सारी खूबियां सार्वजनिक हो रही हैं। और इन खूबियों के सार्वजनिक होने से हमारी सुरक्षा को कोई खतरा नहीं होगा। क्योंकि खतरा होता तो भला राष्ट्रवादी टीवी चैनल यह सब बताते !

लेकिन कृपा करके, सरकार से यह मत पूछ लीजिएगा कि,
● राफेल के पहले यूपीए सरकार के दौरान तय हुयी कीमतों में और बाद मोदी सरकार द्वारा तय हुयी कीमतों में अंतर क्यों है ?

● क्यो ऐन वक़्त पर एचएएल को हटा कर अनिल अम्बानी की कम्पनी को घुसाया गया ?

● कैसे 60 साल के विमान निर्माण क्षेत्र मे अनुभव रखने वाली एचएएल को 15 दिन पहले महज 5 लाख रुपये की पूंजी से गठित अनिल अम्बानी की कम्पनी की  तुलना में कमतर और अयोग्य पाया गया ?

● अम्बानियों का यह कौन सा एहसान था जो उतारा गया और फ्रेंच राष्ट्रपति की बात माने तो उनसे किस दबाव में कहा गया कि सौदा तभी होगा जब अनिल अंबानी की कम्पनी को ऑफसेट ठेका मिलेगा ?

● क्यों विमानों की संख्या 126 से कम कर के 36 कर दी गयी ?

● जब यह तय हो गया था कि एचएएल को दसॉल्ट कम्पनी टेक्नोलॉजी भी हस्तांतरित करेगी और ये विमान बाद में भारत मे ही बनेंगे, तो इस क्लॉज़ को क्यों और किसके दबाव में हटाया गया ?

● जब इस सौदे को लेकर इस सौदे के सम्बंध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा और एडवोकेट प्रशांत भूषण केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो सीबीआई के तत्कालीन निदेशक आलोक वर्मा से मिले तो, उसके तत्काल बाद ही सरकार ने कैसे उन्हें सीबीआई के निदेशक के पद से हटा कर डीजी सिविल डिफेंस में भेज दिया और यह भी बिना नियुक्ति और स्थानांतरण की तयशुदा प्रक्रिया अपनाए ?

आप जैसे ही यह सब सवाल पूछने लगियेगा देश की सुरक्षा पर खतरा मंडराने लगेगा। तकनीकी उन्नता की बात करने वाले टीवी चैनलों के मुंह पर ताला लग जायेगा। यह सवाल बस, इतने ही नही है और भी हैं। सवालो के घेरे में  सरकार भी है, सुप्रीम कोर्ट भी है और नए नए बने राज्यसभा रंजन गोगोई भी आएंगे। बात जब निकलेगी तो दूर तक जाएगी ही। बात तो निकलेगी ही । शब्द ब्रह्म होते हैं। उनका क्षय नहीं होता है। वे जीवित रहते हैं।

1965 में हमारे पास एक विमान होता था नेट। शाब्दिक अर्थ इसका होता था मच्छर, शायद। 1965 में पाकिस्तान के पास था तब का अधुनातन विमान सैबर जेट। अमेरिका को बड़ा नाज़ था इस पर। पर हमारे नेट से हमला करने वाले जाबांज वायु सेना के फाइटर पायलटों ने सैबर जेट की हवा खिसका दी थी। एक जनरल ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान कहा था कि युद्ध मे हथियार महत्वपूर्ण होते हैं, पर उससे भी अधिक ज़रूरी है कि हथियार के पीछे सैनिक कितना कुशल और दिलेर है ! हमारी सेना कुशल भी है और दिलेर भी है। पर राफेल की उन्नत तकनीक और सेना की दिलेरी की आड़ में किसी भी घोटाले को छुपाया नहीं जाना चाहिए। 

( विजय शंकर सिंह )

Tuesday, 28 July 2020

दिल्ली दंगा और अल्पसंख्यक आयोग की जांच रिपोर्ट / विजय शंकर सिंह

पुलिस सुधार पर इधर बहस फिर तेज हो गयी है और इसी क्रम में रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी, जेएफ रिबेरो ने पुलिस के अपने साथियों को एक लंबा और भावुक पत्र लिखा है। उन्होंने पुलिस के नेतृत्व से अपेक्षा की है कि, उनका अब यह दायित्व है कि, वे पुलिस बल को विधिपूर्वक विधि का शासन लागू करने के लिये आगे आये। उनकी चिंता पुलिस में बढ़ती अनावश्यक राजनीतिक दखलंदाजी को लेकर है। आज स्थिति यह हो गयी है कि, यह दखलंदाजी कानून व्यवस्था के प्रशासनिक कार्यो से हट कर पुलिस के जांच और मुकदमो की विवेचना तक पहुंच गयी है। पुलिस की तफतीशें, एक न्यायिक प्रक्रिया की तरह होती हैं जो सीआरपीसी के अनुसार की जाती हैं और कदम कदम पर न्यायालय को इसकी जानकारी दी जाती है। इसलिए साक्ष्य और सत्य का अन्वेषण ही इसका आधार होना चाहिए, न कि कोई राजनीतिक दिशा निर्देश। लेकिन कोई भी जांच एजेंसी राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त नहीं है, विशेषकर उन मामलों में जिनमे या तो कोई बड़ा राजनेता लिप्त होता है। थाना पुलिस द्वारा की जा रही विवेचनाओं की तो बात ही अलग है, सीबीआई, ईडी, और बेहद प्रोफेशनल समझी जाने वाली दिल्ली पुलिस के द्वारा की गयी विवेचनाओं पर न केवल पीड़ित और भुक्तभोगी अंगुली उठा रहे है बल्कि मीडिया, अदालत और अब तो संवैधानिक संस्थायें भी उठा रही है। सन्दर्भ है, फरवरी 2020 में हुए दिल्ली दंगो की जांच और उस पर सवाल खड़े करती हुई दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की फैक्ट फाइंडिंग कमेटी की रिपोर्ट, जो पिछले दिनों ही सरकार को सौंपी गयी है। 

फ़रवरी 24, 2020 को जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत की यात्रा पर थे तो दिल्ली के उत्तरी पूर्वी भाग में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। हालांकि इन दंगों से डोनाल्ड ट्रंप की भारत यात्रा का कोई संबंध नहीं था, पर किसी अति विशिष्ट विदेशी अतिथि के भारत आगमन पर इस प्रकार के दंगों का भड़क जाना और वह भी राजधानी में, सरकार और दिल्ली पुलिस के लिये एक बड़ी शर्मिंदगी की बात थी। इन दंगों में भारी मात्रा में जान माल का नुकसान हुआ। यह भारत का सम्भवतः पहला साम्प्रदायिक दंगा है जिसे नियंत्रित करने के लिये देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, को सड़क पर उतर कर दिल्ली की गलियों में पैदल घूमना पड़ा। इस अप्रत्याशित कदम से दंगे के स्वरूप, सरकार की चिंता और भयावहता का अनुमान लगाया जा सकता है। 

दंगो में जो जनधनहानि हुयी, उसका विवरण दिल्ली पुलिस ने एक हलफनामा देकर दिल्ली हाईकोर्ट को बताया है। उसके अनुसार, इन दंगों में, कुल मृतको की संख्या 52 हैं जिंसमे 40 मुस्लिम और 12 हिन्दू हैं। इसी प्रकार घायलों की कुल संख्या, 473 है जिंसमे, 257 मुस्लिम और 216 हिंदू हैं। संपत्ति के नुकसान का जो आंकड़ा दिल्ली पुलिस ने हलफनामा में दिया है, उसके अनुसार,  कुल 185 घर बर्बाद हुए हैं जिनमे से 50 घर, मुस्लिम समुदाय के और 14 घर हिंदुओं के हैं। लेकिन इस हलफनामा में खजूरी खास और करावल नगर में हुए नुकसान का साम्प्रदायिक आधार पर ब्रेक अप नहीं दिया गया। इसी प्रकार इन दंगों में उक्त हलफनामे के अनुसार, बर्बाद होने वाली 53.4 % दुकानें मुसलमानों की औऱ 14 % हिन्दूओं की है। शेष का उल्लेख नहीं है। साम्प्रदायिक दंगों का कारण धार्मिक कट्टरता होती है तो निश्चय ही उपासना स्थल निशाने पर आते हैं। दिल्ली दंगो में कुल 13 मस्जिदों और 6 मंदिरों को नुकसान पहुंचा है। आप को यह साम्प्रदायिक ब्रेक अप हैरान कर सकता है पर जब मृतकों, घायलों और संपत्ति के नुकसान का विवरण मांगा जाता है तो इसी प्रकार से विवरण पुलिस द्वारा तैयार किया जाता है और सरकार या अदालत या किसी जांच आयोग को भेजा जाता है।  

दिल्ली दंगे की पृष्ठभूमि का कारण, जो दिल्ली पुलिस ने बताए हैं वह बड़ा दिलचस्प है। दिल्ली पुलिस के अनुसार, नागरिकता संशोधन विधेयक और एनआरसी को लेकर मुस्लिम समुदाय में असंतोष था और यह दंगा उसी असंतोष का परिणाम था। दिल्ली पुलिस की इस थियरी में, फ़रवरी में हुए, उत्तर पूर्व दिल्ली के दंगों को, शाहीन बाद के सीएए और एनआरसी विरोधी शांतिपूर्ण आंदोलन से जोड़ने की कोशिश की गई है। जबकि दोनो ही स्थान एक दूसरे से पर्याप्त दूरी पर हैं। लेकिन दंगो के ठीक पहले उत्तर पूर्व दिल्ली के एक इलाके में सड़क पर सीएए विरोधी धरना देने की कोशिश ज़रूर की गई थी और उसे लेकर एक भाजपा नेता ने उत्तेजक बयान भी दिया था और अड़तालीस घँटे का अल्टीमेटम देते हुए अपने भाषण में कहा था कि, अगर प्रदर्शनकारी नही हटे तो,उन्हें वे खुद हटा देंगे। उक्त भाषण दिल्ली पुलिस के एक वरिष्ठ अफसर के सामने हुआ था और दिल्ली पुलिस के उक्त बड़े अफसर ने उस भड़काऊ बयान पर कोई भी वैधानिक कार्यवाही नही की और उसके बाद ही दंगे भड़क गए। उक्त भाजपा नेता के भड़काऊ बयान और उस पर पुलिस की चुप्पी पर सवाल भी खूब उठे और दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर रहे, आईपीएस अधिकारी अजय राज शर्मा सहित अनेक रिटायर्ड पुलिस अफसरों ने निंदा की। 

दिल्ली पुलिस की भूमिका पर सवाल केवल सोशल मीडिया और मुख्य धारा की मीडिया में ही नहीं उठा बल्कि दिल्ली हाईकोर्ट ने भी इसका संज्ञान लिया और दिल्ली पुलिस को असहज करने वाले अनेक कानूनी और प्रशासनिक सवाल उठाए तथा टिप्पणियां भी की। दिल्ली हिंसा मामले में सुनवाई के दौरान दिल्ली हाई कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि, 'दिल्ली में दूसरा '1984' को नहीं होने देंगे।'. इससे पहले दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगायी थी, और अदालत ने,  बीजेपी नेताओं का वह वीडियो भी देखा सुना था जिंसमे केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर को गोली मारो और, भाजपा नेता कपिल मिश्र का, पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में,  देख लेने वाला भाषण रिकॉर्ड किया गया था। दंगो में हुयी हिंसा पर सख्त टिप्पणी करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि, " हम अभी भी 1984 के पीड़ितों के मुआवजे के मामलों से निपट रहे हैं, ऐसा दोबारा नहीं होना चाहिए। नौकरशाही के मीनमेख में जाने के बजाय लोगों की मदद होनी चाहिए। इस माहौल में यह बहुत ही नाजुक काम है, लेकिन अब संवाद को विनम्रता के साथ बनाये रखा जाना चाहिए।" 

लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट के सक्रिय होते ही, जस्टिस मुरलीधर जिनकी बेंच में इस महत्वपूर्ण मामले की सुनवाई चल रही थी को, रातोंरात दिल्ली उच्च न्यायालय से पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया। सरकार ने जस्टिस एस मुरलीधर के तबादले की अधिसूचना तत्काल प्रभाव से जारी कर दी । हालांकि यह तबादला कॉलेजियम की सिफारिश पर 12 फरवरी को ही किया जा चुका था पर जिस दिन यानी 26 फरवरी को यह सारी तल्ख टिप्पणियां अदालत में हुयी और दूसरे ही दिन, पुलिस से अनुपालन आख्या दाखिल करने की बात न्यायालय ने कही तो, उसी रात जस्टिस मुरलीधर के तबादले का नोटिफिकेशन  जारी कर दिया गया। ऊपर से देखें तो यह तबादला एक रूटीन तबादला लगता है लेकिन अगर दिल्ली दंगो की सुनवाई के दौरान जस्टिस मुरलीधर के सॉलिसिटर जनरल से हुयी अदालती वार्तालाप को पढ़े तो यह तबादला न्यायपालिका को, सरकार द्वारा अर्दब में लेने की एक शर्मनाक कोशिश ही समझी जाएगी। 

दिल्ली के इस दंगे में अल्पसंख्यक समुदाय के नुकसान और उनके उत्पीड़न की अनेक खबरें अखबारों और अन्य माध्यमों से सामने आयी और दिल्ली पुलिस की भूमिका इन दंगों में एक कानून व्यवस्था बनाये रखने वाली विधिक एजेंसी के बजाय सरकार या सत्तारूढ़ दल के इशारे पर काम करने वाली पुलिस की तरह दिखी। दिल्ली दंगो की अलग से जांच कर के तथ्यों के पड़ताल करने के लिए दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने एक नौ सदस्यीय  कमेटी का गठन किया। इस कमेटी के चेयरमैन, सुप्रीम कोर्ट के वकील एमआर शमशाद, औऱ गुरमिंदर सिंह मथारू, तहमीना अरोड़ा, तनवीर क़ाज़ी, प्रोफ़ेसर हसीना हाशिया, अबु बकर सब्बाक़, सलीम बेग, देविका प्रसाद तथा अदिति दत्ता, सदस्य थे। इस तथ्यान्वेषी कमेटी का अपनी जांच के बारे में, कहना है कि 'उसने दंगों की जगह पर जाकर पीड़ितों के परिवारों से बात की, उन धार्मिक स्थलों का भी दौरा किया जिनकों दंगों में नुक़सान पहुँचाया गया था।' कमेटी ने दिल्ली पुलिस का भी पक्ष जानने की कोशिश की और उनसे भी लिखित रूप से अपना पक्ष रखने के लिये कहा, लेकिन दिल्ली पुलिस ने न तो अपना पक्ष रखा और न ही कोई उत्तर दिया। यह उदाहरण इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिये पर्याप्त है कि दिल्ली दंगो में पुलिस की भूमिका एक प्रोफेशनल पुलिस बल के अनुरुप नहीं थी। 

दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की इस रिपोर्ट के अनुसार, दिसंबर, 2019 में नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) बनने के बाद देशभर में इसके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन होने लगे। दिल्ली में भी कई जगहों पर सीएए के विरोध में प्रदर्शन होने लगे थे । दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी के कई नेताओं ने सीएए विरोधियों के ख़िलाफ़ हिंसा भड़काने के लिए भाषण दिए। यह उल्लेख, मंत्री अनुराग ठाकुर और भाजपा नेता कपिल मिश्र द्वारा दिये गए भड़काऊ भाषणों के संदर्भ से जुड़ा है। रिपोर्ट में ऐसे कई भाषणों का उल्लेख स्थान स्थान पर किया गया है। रिपोर्ट में, हिंदू दक्षिणपंथी गुटों के ज़रिए सीएए के विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों को डराने धमकाने के लिए उनपर हमले किए जाने का उल्लेख किया गया है। ऐसे हमले हुए भी थे। जैसे, 30 जनवरी को जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रदर्शनकारियों पर रामभक्त गोपाल नामक एक युवक ने और एक फ़रवरी को कपिल गुर्जर नामक एक युवक ने शाहीन बाग़ में प्रदर्शनकारियों पर गोली चला कर शांतिपूर्ण प्रदर्शन को भड़काने की कोशिश की।


इसी क्रम में, 23 फ़रवरी को बीजेपी नेता कपिल मिश्रा के मौजपुर में दिए गए भाषण के फ़ौरन बाद दंगे भड़कने का उल्लेख है । मौजपुर के दिए गए कपिल मिश्र के इस भाषण में, जाफ़राबाद में सीएए के विरोध में बैठे प्रदर्शनकारियों को, बलपूर्वक हटाने की बात उनके द्वारा की गयी थी और यह वही उत्तेजक भाषण था, जिस पर दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस मुरलीधर ने, इसका वीडियो देख कर, दिल्ली पुलिस को इसका संज्ञान लेने का निर्देश दिया था। कपिल मिश्र का यह भाषण, दिल्ली पुलिस के डीसीपी वेद प्रकाश सूर्या की मौजूदगी में हुआ था। 

दंगो के बारे में घटनाओं का रिपोर्ट में विस्तार से वर्णन किया गया है। उनमे से कुछ का उल्लेख करना समीचीन होगा। 
1. दंगाइयों की हथियारबंद भीड़ ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली के कई इलाक़ों में लोगों पर हमले किए, उनके घरों और दुकानों को आग लगा दी. इस दौरान भीड़ जय श्रीराम , हर-हर मोदी , ( सहित अनेक उत्तेजनात्मक नारे जिनका यहां उल्लेख करना उचित नही होगा ) और आज तुम्हें आज़ादी देंगे जैसे नारे लगा रही थी। 
2. मुसलमानों की दुकानों को चुन-चुन कर निशाना बनाया गया जिसमें स्थानीय युवक भी थे और कुछ लोग बाहर से लाए गए थे। अगर दुकान के मालिक हिंदू हैं और मुसलमान ने किराए पर दुकान ले रखी थी तो उस दुकान को आग नहीं लगाई गई थी, लेकिन दुकान के अंदर का सामान लूट लिया गया था।
3. पीड़ितों से बातचीत के बाद लगता है कि ये दंगे अपने आप नहीं भड़के बल्कि ये पूरी तरह सुनियोजित और संगठित थे और लोगों को चुन-चुन कर निशाना बनाया गया था। 
3. रिपोर्ट के अनुसार 11 मस्जिद, पाँच मदरसे, एक दरगाह और एक क़ब्रिस्तान को नुक़सान पहुँचाया गया।. मुस्लिम बहुल इलाक़ों में किसी भी ग़ैर-मुस्लिम धर्म-स्थल को नुक़सान नहीं पहुँचाया गया था। 
इस प्रकार के कई उदाहरण, साक्ष्यों और प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों के हवाले से उक्त रिपोर्ट में दिए गए हैं। 

इस फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट में दंगों में दिल्ली पुलिस की भूमिका को पक्षपातपूर्ण बताया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस कई जगहों पर जहां उसे, सक्रिय होकर सख्ती से दंगा और हिंसक घटनाओं को नियंत्रित करना चाहिए था, वहां पुलिस, तमाशाई बनी रही या फिर दंगाइयों को अंदर अंदर, शह देती रही। रिपोर्ट में लिए गए चश्मदीदों के कथनों के अनुसार अगर किसी एक स्थान पर, किसी एक पुलिसकर्मी ने दंगाइयों को रोकने की कोशिश भी की तो उसके साथी अन्य पुलिसकर्मियों ने उसे रोक दिया, और दंगे के दौरान घोर प्रशासनिक निष्क्रियता और आपराधिक सहयोग का कार्य किया जो, एक पुलिस बल के सदस्य के लिए, न केवल अनुचित है बल्कि विधिविरुद्ध भी है। दंगे की  पीड़ितों के अनुसार पुलिस ने, दंगे से जुड़ी अनेक आपराधिक मामलों में एफ़आईआर लिखने से भी इनकार कर दिया और कई बार संदिग्ध का नाम हटाने के लिए आवेदनकर्ता को बाध्य किया और तब पुलिस द्वारा एफ़आईआर लिखी गयी। रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि, कई जगहों पर पुलिसवालों ने दंगाइयों को हमले के बाद ख़ुद सुरक्षित निकाल कर ले गए और कई जगह तो कुछ पुलिस वाले हमले में खुद ही शामिल रहे। 

महिलाओं को निशाना बनाने के अनेक साक्ष्य, कमेटी को मिले हैं, जिनका उल्लेख किया गया है।  महिला दंगा पीड़ितों के अनुसार कई जगहों पर उनके नक़ाब और हिजाब उतारे गए और उन्हें इसके लिये शर्मिंदगी झेलनी पड़ी। पुलिस का निशाना, दरअसल सीएए और एनआरसी का विरोध करने वाली महिलाएं रही हैं। दंगाई और पुलिस, दोनो ने अपना निशाना, इस मुद्दे पर, शांतिपूर्ण धरने पर बैठी महिलाओं को बनाया और इस दौरान, महिलाओं ने अपने बयानों में कई पुरुष पुलिसकर्मी द्वारा महिलाओं के साथ बदतमीज़ी की खुल कर शिकायत की। यहां तक कि कुछ महिलाओं ने अपने बयानों में पुलिस के ऊपर बलात्कार करने और एसिड फेंक देने की धमकी के आरोप लगाए। अब इन आरोपों में कितनी सत्यता है यह तो तभी स्पष्ट होगा जब एक एक मामले की गंभीरता से जांच हो। 

अल्पसंख्यक आयोग की नौ सदस्यीय जांच कमेटी ने, दंगो में घोषित मुआवज़े के लिए लिखे गए 700 प्रार्थनापत्रों का अध्ययन किया। अपने अध्ययन के बाद, कमेटी ने पाया कि अधिकतर मामलों में क्षतिग्रस्त जगह का दौरा भी नहीं किया गया है, और जिन मामलों में जान माल के नुकसान को, सही पाया गया है, उनमें भी बहुत कम धनराशि, अंतरिम सहायता के रुप मे दी गई है। दंगों के तुरन्त बाद कई लोग घर छोड़ कर चले गए हैं, इसलिए बहुत से लोग, मुआवज़े के लिए आवेदन नहीं कर सके हैं।  मुआवज़े में भी सरकारी अधिकारी के मरने पर उनके परिवार वालों को एक करोड़ की रक़म दी गई जबकि आम नागरिकों की मौत पर केवल 10 लाख रुपए का मुआवज़ा दिया गया। मुआवजे का कोई तार्किक आधार तय नहीं किया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में क़ानून-व्यवस्था की ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार की है फिर भी दंगों में पीड़ितों को केंद्र सरकार की ओर से, दंगा पीड़ितों की कोई मदद नहीं की गई। 


जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है यह एक तथ्यान्वेषी जांच कमेटी थी, जिसका  उद्देश्य, दंगो के कारणों की पड़ताल और जनता तथा पुलिस की भूमिकाओं की जांच करना था। यह कोई अधिकार सम्पन्न न्यायिक जांच आयोग या दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत कोई विवेचना एजेंसी नहीं है जो अपराधों की विवेचना करे और गिरफ्तारी, तलाशी, और जब्ती के मूलभूत वैधानिक अधिकारों का उपयोग करते हुए, दोषी पाए गए लोगों के खिलाफ न्यायालय में वाद दायर करे। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कुछ सिफ़ारिशें भी की है । जैसे, 
● सरकार या अदालत से अनुरोध किया जाए कि हाईकोर्ट के किसी अवकाशप्राप्त जज की अध्यक्षता में एक पाँच सदस्यीय जांच कमेटी बनााई जाए। 
● जज की अध्यक्षता वाली कमेटी, दंगो के दौरान, एफ़आईआर नहीं लिखने, चार्जशीट की मॉनिटरिंग, गवाहों की सुरक्षा, दिल्ली पुलिस की भूमिका और उनके ख़िलाफ़ उचित कार्रवाई जैसे मामलों में जांच कर के अपना निर्णय दे।  
● अभियोजक की बहाली, मुआवज़ा, क्षतिग्रस्त धार्मिक स्थलों की मोरम्मत जैसे मामलों में भी कई सुझाव दिए हैं.

दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग एक संवैधानिक संस्था है। उसे अपने एक्ट के अनुसार दंगों में शामिल होने या अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभाने वाले दिल्ली पुलिस के अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी के लिये भी वैधानिक कदम उठाना चाहिए। हालांकि दिल्ली पुलिस ने दिल्ली हाईकोर्ट में पेश किए गए एक हलफ़नामे में कहा है कि
" अब तक उन्हें ऐसे कोई सबूत नहीं मिले हैं जिनके आधार पर ये कहा जा सके कि बीजेपी नेता कपिल मिश्रा, परवेश वर्मा और अनुराग ठाकुर ने किसी भी तरह लोगों को 'भड़काया हो या दिल्ली में दंगे करने के लिए उकसाया हो।" 
लेकिन, आयोग की फैक्ट फाइंडिंग कमेटी ने हलफनामे के तथ्यों के विपरीत साक्ष्य पाए है। गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में दिल्ली पुलिस की सराहना की और यह भी कहा कि यह दंगा सुनियोजित रूप से भड़काया गया है। उन्होंने सदन में यह भी कहा कि उत्तरप्रदेश से 300 दंगाई आये थे और उन्होने यह दंगा भड़काया है। लेकिन पुलिस ने उन 300 लोगो मे जिनका उल्लेख गृहमंत्री ने सदन में किया था में से कितनों की पहचान की ओर कितनों को उनमे से गिरफ्तार किया, यह आज तक ज्ञात नहीं हो सका। 

दिल्ली पुलिस ने यह हलफ़नामा एक याचिका के जवाब में हाईकोर्ट में पेश किया है। इस याचिका में उन नेताओं के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने की बात कही गई है, जिन्होंने जनवरी-फ़रवरी में विवादित भाषण दिया था। हलफ़नामे को पेश करते हुए डिप्टी कमिश्नर (क़ानून विभाग) राजेश देव ने यह भी कहा है, कि अगर इन कथित भड़ाकाऊ भाषणों और दंगों के बीच कोई लिंक आगे मिलेगा तो उचित एफ़आईआर दर्ज़ की जाएगी। दिल्ली पुलिस की तरफ़ से दंगों को लेकर दर्ज कुल 751 अपराधिक मामलों का ज़िक्र करते हुए कोर्ट में कहा गया कि शुरुआती जाँच में ये पता चला है कि ये दंगे 'त्वरित हिंसा' नहीं थे बल्कि बेहद सुनियोजित तरीक़े से सोच समझ कर 'समाजिक सामंजस्य बिगाड़ा' गया.

दिल्ली पुलिस ने इसी महीने के शुरू में अदालत में अपनी प्रारंभिक जांच रिपोर्ट में कहा है कि पूर्वी दिल्ली के दंगों के लिए सऊदी अरब और देश के अलग-अलग हिस्सों से मोटी रकम आई थी। पुलिस ने यह भी कहा ये दंगे अचानक नहीं भड़के थे, बल्कि दिल्ली में अधिक से अधिक जान-माल की हानि के लिए पहले से तैयारी की गई थी। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने अदालत से आग्रह किया कि उन्हें इन दंगों की जड़ों तक पहुंचने और आरोप पत्र दाखिल करने के लिए वक़्त दिया जाए। आरोपियों में, आम आदमी पार्टी से निलंबित निगम पार्षद ताहिर हुसैन, जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्र नेता मीरान हैदर और गुलिफ्सा खातून के नाम शामिल हैं। आम आदमी पार्टी के पूर्व पार्षद ताहिर हुसैन पर आईबी अधिकारी अंकित शर्मा की दंगों के दौरान हत्या मामले में अभियुक्त बनाया गया है। दिल्ली पुलिस ने ताहिर हुसैन के ख़िलाफ़ दाख़िल चार्जशीट में कहा है कि अंकित शर्मा के शव पर बरामदगी के समय 51 ज़ख़्म मिले थे, जैसे उनपर किसी धारदार हथियार से हमला किया गया हो, जिससे लगता है कि पूरा मामला किसी बड़ी साज़िश का नतीजा थी। 

दिल्ली पुलिस इन दंगों को एक सुनियोजित साज़िश तो बता रही है पर, जब अल्पसंख्यक आयोग की जांच कमेटी ने दिल्ली पुलिस से इस मामले में, उनका पक्ष जानने के लिये संपर्क किया और दिल्ली पुलिस ने उनके किसी भी सवाल या पत्र का उत्तर नहीं दिया। दिल्ली पुलिस पहले भी अपने ऊपर लगाए गए आरोपों से इनकार कर चुकी है और गृह मंत्री अमित शाह संसद में कह चुके हैं कि दिल्ली दंगों के दौरान दिल्ली पुलिस ने अच्छा काम किया।लेकिन अल्पसंख्यक आयोग द्वारा दंगों की जाँच के लिए गठित कमेटी का कहना है कि, 
" दिल्ली के उत्तर-पूर्वी ज़िले में फ़रवरी में हुए दंगे सुनियोजित, संगठित लगते हैं, यह दंगे, अल्पसंख्यक समुदाय को और निशाना बनाकर किए गए थे। "

यह रिपोर्ट अनेक सुबूतों से जो स्थान स्थान पर जाकर, पीड़ित और चक्षुदर्शी व्यक्तियों के बयान और उनके द्वारा बताए गए विवरणों पर आधारित है। दिल्ली दंगो की जांच कर रहे एसआइटी को इस रिपोर्ट में उल्लिखित साक्ष्यों की भी पड़ताल करनी चाहिए। लेकिन जांच कमेटी के किसी पत्र का उत्तर न देना और जांच में किसी सहयोग देने के बजाय दूर दूर रहना, कहीं न कहीं दिल्ली पुलिस के पक्ष को संदिग्ध ही करता है। सरकार ने दिल्ली पुलिस की दंगो में उनकी भूमिका की सराहना की है और क्लिन चिट दी है। पर यह रिपोर्ट दिल्ली पुलिस के प्रोफेशनलिज़्म पर एक अलग ही तस्वीर दिखा रही है। उचित यही होगा कि इस जांच रिपोर्ट में वर्णित दृष्टांतो और प्रस्तुत सुबूतों की अलग से विस्तृत जांच किसी अन्य एजेंसी से करा लिया जाय। पर क्या केंद्र सरकार ऐसा करेगी ? 

अंत मे दिल्ली के चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने इन दंगों की चार्जशीट पर जो कहा, उसे पढ़ लें। ।
" जाँच पड़ताल और गवाहों के बयान से मालूम होता है कि ....मुसलमानों से बदला लेने के लिए, इस तरह के प्रचार के बेइंतहाई अहमकपन को समझने में असफल, उस इलाक़े के कुछ नौजवानों ने अपने समुदाय की रक्षा करने के नाम पर एक वहाट्सऐप ग्रुप  बनाया। इन लोगों ने अपनी व्यक्तिमत्ता गँवा दी और एक भीड़ के दिमाग़ की तरह  काम करने लगे। ‘जय श्री राम’ और ‘हर हर महादेव’ ने, जो पवित्र नारे हैं और जय का उद्घोष माने जाते हैं, इनके दिमाग़ कुंद कर दिए और उनके  रचनात्मक स्वभाव को जैसे लकवा मार गया।….और तब भीड़ दंगाइयों में बदल गई….।’
चीफ़ मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट पुरुषोत्तम पाठक ने फ़रवरी में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा के दौरान मारे गए आमिर ख़ान की हत्या के 11 अभियुक्तों के ख़िलाफ़ दायर की गई चार्जशीट का संज्ञान लेते हुए यह टिप्पणी की।

( विजय शंकर सिंह ) 
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Sunday, 26 July 2020

कानपुर का संजीत यादव हत्याकांड / विजय शंकर सिंह

कानपुर में बिकरु में 8 पुलिसजन की जघन्य हत्या और फिर उस हत्या में शामिल विकास दुबे की पुलिस मुठभेड़ से नगर की बढ़ती अपराध स्थिति पर चर्चा चल ही रही थी कि कल एक और जघन्य हत्याकांड ने नगर को हिला कर रख दिया। यह हत्या जो पहले एक अपहरण के रूप में दर्ज थी, के मुल्ज़िम हत्या में मारे गए व्यक्ति संजीत जो एक लैब टेक्नीशियन था, के दोस्त ही निकले।

संजीत के नजदीकी दोस्त ने ही अपने साथियों के साथ मिलकर संजीत का पहले अपहरण किया था। कानपुर पुलिस के अनुसार,
" दोस्त ने ही अपहण किया और फिर हत्याकर युवक का शव पांडु नदी में फेंक दिया। अपहरण के 4 या 5 दिन बाद ही उसकी हत्याकर शव को फेंक दिया गया था। संजीत की हत्या करने के बाद, दोस्तों की तरफ से ही, फिरौती की मांग की गई थी। वहीं, शव की तलाश के लिए पुलिस की टीमें लगाई गई हैं। बर्रा अपहरण मामले में पकड़े गए अपहरणकर्ताओं ने पूरी घटना की जानकारी दी है। "

कुछ दिनों पहले, संजीत के अपहरण की सूचना पुलिस को मिली थी और अब जाकर उसके हत्या की खबर मिल रही है। यह सूचना, कल देर रात परिजनों को पुलिस द्वारा दी गयी। संजीत का अपहरण और फिर उसकी हत्या और हत्या के बाद फिरौती मांगने का काम भी उसके करीबी दोस्तों ने किया है। यह सब पहले साथ साथ काम कर चुके हैं। औऱ जो खबरे अखबार में छप रही हैं, उनके अनुसार, इन सबमे कोई विवाद भी नहीं था। दोस्त ने अपने साथियों के साथ मिलकर पहले अपहरण किया और अपहरण के 4 दिन बाद ही उसकी हत्याकर शव को पांडु नदी में फेंक दिया। फिलहाल अपहरण कर्ता पुलिस की गिरफ्त में है।

घटनाक्रम इस प्रकार है,
● 22 जून की रात हॉस्पिटल से घर आने के दौरान संजीत का अपहरण हुआ।
● 23 जून को परिजनों ने जनता नगर चौकी में उसकी गायब हो जाने की लिखित सूचना दी।
● 26 जून को एसएसपी के आदेश पर, संदिग्ध आरोपी, राहुल यादव के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हुई।
● 29 जून को अपहरणकर्ता ने संजीत के परिजनों को 30 लाख की फिरौती के लिए फोन किया।
● 5 जुलाई को परिजनों और जनता के कुछ लोगो ने शास्त्री चौक पर जाम लगाकर पुलिस पर अपहरणकर्ताओं के विरुद्ध, कार्रवाई न करने का आरोप लगाया।
● 12 जुलाई को एसपी साउथ कार्यालय में इस घटना के बारे में दुबारा संजीत के घर वालों ने पुनः प्रार्थना पत्र दिया। .
● 13 जुलाई को परिजनों ने फिरौती के 30 लाख रुपये से भरा बैग, अपहरणकर्ताओं की मांग के अनुसार, गुजैनी पुल से नीचे फेंक दिया। लेकिन फिरौती की धनराशि मिलने के बाद भी, संजीत नहीं छोड़ा गया।
● 14 जुलाई को परिजनों ने एसएसपी और आईजी रेंज से शिकायत की, जिसके बाद संजीत को 4 दिन में बरामद करने का भरोसा दिया गया।
● 16 जुलाई को थाना बर्रा इंस्पेक्टर रंजीत राय को इस मामले में लापरवाही पूर्ण कार्यवाही करने के कारण, निलंबित कर दिया गया और उनके स्थान पर, सर्विलांस सेल प्रभारी हरमीत सिंह को भेजा गया।

अब इस मामले में, जिसे स्थानीय अखबार, बर्रा अपहरण कांड कह कर लिख रहे हैं, में पांच अभियुक्तों को गिरफ्तार किया गया है। पुलिस ने प्रेस इस पूरी घटना का सूत्रधार ज्ञानेंद्र यादव था को बताया है। यह सभी पांचों अभियुक्त लैब टैक्नीशियन संजीत के दोस्त थे। इन्होंने 27 जून की सुबह उसकी हत्या कर दी थी और 29 जून को फिरौती की मांग की थी। यानी जब फिरौती की रकम के मांगने और देने का क्रम चल रहा था, तब तक संजीत की हत्या हो चुकी थी और इसका किसी को पता भी नहीं था।

अब अपहरणकर्ताओं ने, फिरौती के पैसों को लेकर यह कहा है कि, उन्होंने फिरौती के 30 लाख रुपये की धनराशि का बैग उठाया ही नहीं था। अपहरणकर्ताओं के अनुसार, वे पुलिस के डर से अपने अड्डे पर चले गए थे। हमने बैग उठाया ही नहीं। अब यह एक नया सवाल उठता है कि, अगर किडनैपर फिरौती वाला बैग को लेकर नहीं गए, तो फिर वो बैग कहां है? अभी पुलिस इस मामले पर भी जांच कर रही है। अपहरणकर्ताओं ने यह ज़रूर स्वीकार किया कि उन्होंने पहले संजीत को शराब पिलाई। शराब में दवा मिला दी थी, जिससे वह बेहोश हो गया। फिर उन्होंने उसे रतन लाल नगर नामक एक मुहल्ले में एक कमरे में ले जाकर बंद कर दिया था। उन्होंने बताया कि संजीत बराबर कहता था कि उसके पास बहुत पैसे हैं।

कानपुर का बिकरु कांड, लखनऊ सचिवालय के सामने महिला द्वारा आत्मदाह, ग़ाज़ियाबाद में पत्रकार उमेश जोशी की जघन्य हत्या पर उत्तर प्रदेश सरकार की आलोचना हो ही रही थी तो अब संजीत यादव हत्याकांड के मामले ने विपक्ष तरकश में एक और बड़ा मुद्दा डाल दिया। विपक्ष ने," यूपी में नया गुंडाराज आया है। कानून व्यवस्था दम तोड़ रही है।' 'घर हो, सड़क हो या ऑफिस हो, कोई भी खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करता' आदि आदि आरोप सरकार पर लगा रहे हैं। विपक्ष का यह आरोप है कि,
" पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या के बाद अब कानपुर में अपहृत संजीत यादव की हत्या कर दी गई। पुलिस ने किडनैपर्स को पैसे भी दिलवाए और उनकी हत्या भी हो गयी। "
राजनीतिक दृष्टिकोण से, आक्षेप और आरोप तो लगते ही रहते हैं और हर सरकार के कार्यकाल में होता रहता है। यह कोई नयी बात नहीं है।

लेकिन इस घटना में पुलिस पर संजीत यादव के परिजनों ने भी पुलिस पर आरोप लगाए हैं जिसे अधिक गम्भीरता से लेना चाहिए। परिजनों का आरोप है कि,
" पुलिस ने किसी तरह की मदद नहीं की। हमने अपना घर और जेवरात बेचकर और बेटी की शादी के लिए जमा की गई धनराशि को इकट्ठा कर 30 लाख रुपये जुटाए थे। 13 जुलाई को पुलिस के साथ अपहरणकर्ताओ को 30 लाख रुपये देने के लिए गए थे। अपहरणकर्ता पुलिस के सामने से 30 लाख रुपये लेकर चले गए थे। 30 लाख रुपये देने के बाद भी बेटा नहीं मिला। "
परिजनों के अनुसार,
" पुलिस ने कहा कि, फिरौती के लिये पैसे की व्यवस्था कर लो, और इसी समय जब फिरौती दी जाएगी तो युवक को छुड़ा लेंगे। घरवालों ने गहने और घर बेच कर, तीस लाख रुपये का इंतज़ाम किया। अब यह इल्ज़ाम पूरी तरह से पुलिस पर संजीत के घर वाले लगा रहे हैं कि, पुलिस ने अपहर्ताओं को फिरौती दिलाई और अपहरणकर्ता फिरौती लेकर भाग गए। परिजन पुलिस का चक्कर लगाते रहे और क़रीब महीने भर आज जाकर, संजीत के मरने की पुष्टि हुयी।

इसी आरोप पर एसएसपी ने, बर्रा इंस्पेक्टर रणजीतरॉय को निलंबित कर दिया है। निश्चित ही इन आरोपों की जांच की जा रही होगी। यह आरोप बेहद गम्भीर है। अगर यह फिरौती पुलिस के ही निर्देश पर दी गई है तो इससे यह साफ जाहिर है या तो पुलिस को घटना और अपहरणकर्ताओं के बारे में कुछ पता ही नहीं था और वह अंधेरे में तीर मार रही थी या पुलिस का कोई न कोई नज़दीकी इस घटना में सम्मिलित है जो पुलिस की जांच को भटका रहा था। जब इस पूरे घटनाक्रम की जांच हो तो कुछ पता चले।

उतर प्रदेश ने अपराध की घटनाएं बढ़ी हैं और यह घटनाएं आम जन, पत्रकारो और अन्य लोगो के उत्पीड़न की भी है। कुछ घटनाएं, पुलिस के कुछ उद्दंड कर्मियों द्वारा जनता के प्रति अभद्र और हिंसक व्यवहार से भी जुड़ी है। हालांकि पुलिस की जनशक्ति और कार्य की विविधता को देखते हुए अपराध के अन्वेषण और रोकथाम का काम कभी कभी नेपथ्य में चला जाता है। पर जनता तो सुख चैन से निरापद जीवन जीना चाहती है। उसकी यह अपेक्षा गलत भी नहीं है। सरकार और पुलिस के उच्चाधिकारियों का यह दायित्व है कि वह कैसे जनता में पुलिस की साख बढ़ाएं और समाज मे अपराध कम से कम हो, और जो हो भी तो उनका अन्वेषण हो और अपराधी सज़ा पाएं।

कानपुर की यह घटना, पुलिस के लिये चुनौती तो है ही और इसमे कितनी गलतिया पुलिस से, कहां कहां और, कब कब हुयी हैं, उनकी जांच हो रही है और निश्चित रूप से जो दोषी पाएं जाएंगे, दण्डित होंगे। लेकिन, पहले अपहरण और फिर हत्या के अपराध की यह घटना, जिसमे मुल्ज़िम, मृतक के गहरे दोस्त शामिल हैं, दरकते मानवीय रिश्तों के खोखलेपन पर भी सवाल उठाती है। हत्या जब बेहद करीबी दोस्तों द्वारा की जाती है, तो, अमूमन ऐसे अपराधों में शामिल अभियुक्तों पर, शुरू में, न तो पुलिस को शक होता है और न ही परिजनों को।

( विजय शंकर सिंह )

कारगिल युद्ध की खुफिया विफलता से हमने अब तक क्या सीखा है ? / विजय शंकर सिंह


अगर युद्ध की बात करें तो करगिल 1962, 65 और 71 की तरह का युद्ध नहीं था। यह युद्ध घोषित भी नहीं था। इसीलिए भारत ने एलओसी को पार नहीं किया और अपेक्षाकृत अधिक जनहानि झेलते हुए भी अपनी ही सीमा के अंदर से पाकिस्तान के घुसपैठियों को भगाया। यह एक बड़ी और सुनियोजित पाकिस्तानी घुसपैठ थी जिसे पाक सेना ने अपने आतंकी सहयोगियों के साथ अंजाम दिया था। पर इस बड़ी घुसपैठ का जवाब भारतीय सेना ने अपनी परंपरागत शौर्य और वीरता से दिया और न केवल घुसपैठ के पीछे छुपे पाक के मंसूबे को विफल कर दिया बल्कि दुनिया को पुनः एक बार यह आभास करा दिया कि, भारतीय सेना, दुनिया की श्रेष्ठतम प्रोफेशनल सेनाओं में अपना एक अहम स्थान रखती है आज के दिन को हम करगिल विजय के रूप में याद करते हैं। आज उन सब शहीदों को वीरोचित श्रद्धाजंलि देते हैं, जिन्होंने अपनी भूमि घुसपैठियों से आज़ाद कराने के लिये, अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था।

करीब दो महीने तक चला कारगिल युद्ध भारतीय सेना के साहस और शौर्य का ऐसा उदाहरण है, जिस पर हर देशवासी को गर्व है । लगभग, 18 हजार फीट की ऊंचाई पर कारगिल की ऊंची चोटियों और चुनौतीपूर्ण टाइगर हिल में लड़े गए इस कठिन युद्ध में लगभग साढ़े पांच सौ से अधिक हमारे योद्धाओं ने शहादत दी, और 1300 से ज्यादा सैनिक घायल हुए ।

इस युद्ध की शुरूआत 3 मई 1999 को ही पाकिस्तान की तरफ से हो गयी थी, जब उसने कारगिल की ऊंची पहाडि़यों पर 5,000 सैनिकों के साथ घुसपैठ कर कब्जा जमा लिया था। इस बात की जानकारी जब हमारी सरकार को मिली तो हमारी सेना ने पाक सैनिकों को खदेड़ने के लिए ऑपरेशन विजय चलाया। उस समय अखबारों में जो खबरे छपी उनके अनुसार, 'भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के खिलाफ मिग-27 और मिग-29 का भी इस्तेमाल किया। इसके बाद जहां भी पाकिस्तान ने कब्जा किया था वहां बम गिराए गए। इसके अलावा मिग-29 की सहायता से पाकिस्तान के कई ठिकानों पर आर-77 मिसाइलों से हमला किया गया। इस युद्ध में बड़ी संख्या में रॉकेट और बम का इस्तेमाल किया गया। इस दौरान करीब दो लाख पचास हजार गोले दागे गए। वहीं 5,000 बम फायर करने के लिए 300 से ज्यादा मोर्टार, तोपों और रॉकेट का इस्तेमाल किया गया। लड़ाई के 17 दिनों में हर रोज प्रति मिनट में एक राउंड फायर किया गया।

करगिल युद्ध पर कोई बात करने के पहले युद्ध की क्रोनोलॉजी यानी घटनाक्रम का जान लेना आवश्यक है। पहले यह घटनाक्रम देखें।
● 3 मई 1999 : एक चरवाहे ने भारतीय सेना को कारगिल में पाकिस्तान सेना के घुसपैठ कर कब्जा जमा लेने की सूचनी दी।
● 5 मई : भारतीय सेना की पेट्रोलिंग टीम जानकारी लेने कारगिल पहुंची तो पाकिस्तानी सेना ने उन्हें पकड़ लिया और उनमें से 5 की हत्या कर दी।
● 9 मई : पाकिस्तानियों की गोलाबारी से भारतीय सेना का कारगिल में मौजूद गोला बारूद का स्टोर नष्ट हो गया।
● 10 मई : पहली बार लदाख का प्रवेश द्वार यानी द्रास, काकसार और मुश्कोह सेक्टर में पाकिस्तानी घुसपैठियों को देखा गया।
● 26 मई : भारतीय वायुसेना को कार्यवाही के लिए आदेश दिया गया।
● 27 मई : कार्यवाही में भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के खिलाफ मिग-27 और मिग-29 का भी इस्तेमाल किया और फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता को बंदी बना लिया।
● 28 मई : एक मिग-17 हैलीकॉप्टर पाकिस्तान द्वारा मार गिराया गया और चार भारतीय फौजी मरे गए।
● 1 जून : एनएच- 1A पर पकिस्तान द्वारा भरी गोलाबारी की गई।
● 5 जून : पाकिस्तानी रेंजर्स से मिले कागजातों को भारतीय सेना ने अखबारों के लिए जारी किया, जिसमें पाकिस्तानी रेंजर्स के मौजूद होने का जिक्र था।
● 6 जून : भारतीय सेना ने पूरी ताकत से जवाबी कार्यवाही शुरू कर दी।
● 9 जून : बाल्टिक क्षेत्र की 2 अग्रिम चौकियों पर भारतीय सेना ने फिर से कब्जा जमा लिया।
● 11 जून : भारत ने जनरल परवेज मुशर्रफ और आर्मी चीफ लेफ्टीनेंट जनरल अजीज खान से बातचीत का रिकॉर्डिंग जारी किया, जिससे जिक्र है कि इस घुसपैंठ में पाक आर्मी का हाथ है।
● 13 जून : भारतीय सेना ने द्रास सेक्टर में तोलिंग पर कब्जा कर लिया।
● 15 जून : अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने परवेज मुशर्रफ से फोन पर कहा कि वह अपनी फौजों को कारगिल सेक्टर से बहार बुला लें।
● 29 जून : भारतीय सेना ने टाइगर हिल के नजदीक दो महत्त्वपूर्ण चौकियों, पोइंट 5060 और पोइंट 5100 को फिर से कब्जा लिया।
● 2 नुलाई : भारतीय सेना ने कारगिल पर तीन तरफ से हमला बोल दिया।
● 4 जुलाई : भारतीय सेना ने टाइगर हिल पर पुनः कब्जा पा लिया।
● 5 जुलाई : भारतीय सेना ने द्रास सेक्टर पर पुनः कब्ज़ा किया। इसके तुरंत बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने बिल किलिंटन को बताया कि वह कारगिल से अपनी सेना को हटा रहें है।
● 7 जुलाई : भारतीय सेना ने बटालिक में स्तिथ जुबर हिल पर कब्जा पा लिया।
● 11 जुलाई : पाकिस्तानी रेंजर्स ने बटालिक से भागना शुरू कर दिया।
● 14 जुलाई : प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने ऑपरेशन विजय की जीत की घोषणा कर दी।
● 26 जुलाई : पीएम ने इस दिन को विजय दिवस के रूप में मनाए जाने का किया।

आज 26 जुलाई को, कारगिल विजय के 21 साल हम पूरे कर रहे हैं पर करगिल किस विफलता का परिणाम था, यह जानना बेहद ज़रूरी है। हमने उस विफलता से कुछ सीखा भी है या हम बस अपने हुतात्मा सैनिको को भावुकता भरी श्रद्धाजंलि देकर आगे बढ़ गए हैं। इन 21 सालों में, करगिल युद्ध ने ऐसे बहुत से सबक हमें दिए जिससे हम भविष्य की योजनाओं के लिये उनका आधार बना सकते हैं। लेकिन 21 साल पहले भारत के खुफिया तंत्र द्वारा की गई भूल इसी साल गलवां घाटी और लद्दाख के लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल पर भारत द्वारा पुनः दोहराई गई जब, अक्टूबर 2019 से ही चीनी घुसपैठ हमारे क्षेत्र में होती रही और आज तक इतनी बातचीत और 20 सैनिकों की शहादत के बाद भी चीन हमारे क्षेत्र में अब भी घुसा बैठा है, और कुछ टीवी चैनल, गलवां घाटी के खोखले विजय का जश्न मना रहे हैं।

भारतीय खुफिया तँत्र की विफलता तो करगिल घुसपैठ 1999 में भी हुयी थी और इस साल लद्दाख में भी हुयी है। मतलब एक ही क्षेत्र में 21 साल पहले जो नाकामी खुफिया तंत्र की थी वह दुबारा दुहरायी गयी। अब कुछ बातें कारगिल युद्ध के बारे में जान लेनी चाहिए। ऊपर मैंने घटनाक्रम दे दिया है। उसी के अनुसार, 3 मई 1999 को एक चरवाहे ने भारतीय सेना को कारगिल में पाक सेना के घुसपैठ कर कब्जा जमा लेने की सूचना दी थी। कारगिल में हुए हमले के 21 साल बाद भी ऐसा बहुत कुछ है जिसे हम अपनी सेना में आज भी लागू नहीं कर पाए हैं।

लगभग तीन महीने के 'ऑपरेशन विजय' में भारत के 527 जवान शहीद और 1363 जवान घायल हुए थे। जो घायल हुए हैं उनमें कोई बाद में शहीद हुआ या नहीं, यह आंकड़ा मुझे नहीं मिल पाया। वहीं भारतीय सेना ने पाकिस्तान के 3 हजार सैनिकों को मार गिराया था। उस समय भारतीय सेना प्रमुख जनरल वेद प्रकाश मालिक थे, जिन्होंने कारगिल पर एक किताब भी लिखी है। उस किताब में इस युद्ध के कारण, परिणाम, सफलता और विफलता के बारे में जनरल मलिक ने अपने विचार रखे हैं।

कारगिल युद्ध के समाप्त होने के बाद, तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने कारगिल घुसपैठ के विभिन्न पहलुओं पर समीक्षा करने के लिए, के सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में, एक कमेटी, जिसे कारगिल रिव्यू कमेटी कहा जाता है, का गठन किया था। इस समिति के तीन अन्य सदस्य लेफ्टिनेंट जनरल केके हजारी, बीजी वर्गीज और सतीश चंद्र, सचिव, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय थे। कारगिल रिव्यू कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में मुख्य रूप से निम्न बातें कहीं।
● देश की सुरक्षा प्रबंधन प्रणाली में गंभीर कमियों के कारण कारगिल संकट पैदा हुआ.
● रिपोर्ट ने खुफिया तंत्र और संसाधनों और समन्वय की कमी को जिम्मेदार ठहराया गया।
● इसने पाकिस्तानी सेना के गतिविधियों का पता लगाने में विफल रहने के लिए रॉ ( RAW ) को दोषी ठहराया गया।
● रिपोर्ट ने “एक युवा और फिट सेना” की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला था।

क्या आज, 21 साल बीत जाने के बाद भी, भारतीय सेना को कारगिल युद्ध से सीख मिली है ? जिन विफलताओं का उल्लेख उस कमेटी की रिपोर्ट में किया गया है उन विफलताओं के कारणों को दूर करने की कोई योजनाबद्ध कोशिश की गयी है ? इसका उत्तर होगा हां।कुछ सिफारिशों को सरकार ने माना है और कुछ पर अभी कार्यवाही होनी शेष है। रिपोर्ट की सिफारिशें, पेश किए जाने के कुछ महीनों बाद राष्ट्रीय सुरक्षा पर मंत्रियों के एक समूह का, गठन किया गया जिसने खुफिया तंत्र को मजबूत करने की आवश्यकता पर सहमति जतायी गयी थी। सेना के पूर्व अधिकारियों ने कहा कि कारगिल सेक्टर में 1999 तक बहुत कम सेना के जवान थे, लेकिन युद्ध के बाद, बहुत कुछ बदल गया। ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) कुशकल ठाकुर, जो 18 ग्रेनेडियर्स के कमांडिंग ऑफिसर थे. साथ ही जो टॉलोलिंग और टाइगर हिल पर कब्जा करने में शामिल थे, ने भी कहा कि, 'कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ के पीछे खुफिया विफलता मुख्य कारण थी। लेकिन पिछले वर्षों में, बहुत कुछ बदल गया है। हमारे पास अब बेहतर हथियार, टेक्नोलॉजी, खुफिया तंत्र हैं जिससे भविष्य में कारगिल-2 संभव नहीं है। लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) अमर औल, जो ब्रिगेड कमांडर के रूप में टॉलोलिंग और टाइगर हिल पर फिर से कब्जा करने के अभियानों में शामिल थे, ने कहा कि, हमारे पास 1999 में कारगिल में एलओसी की रक्षा के लिए एक बटालियन थी। आज हमारे पास कारगिल एलओसी की रक्षा के लिए एक डिवीजन के कमांड के अंतर्गत तीन ब्रिगेड हैं।

रिपोर्ट ने एक युवा और फिट सेना रखे जाने का उल्लेख किया गया था। इस पर भी काम हुआ है । आज सेना में पहले की तुलना में कमांडिंग यूनिट जवान (30 वर्ष) के अधिकारी हैं। यह एक बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन है. 2002 में डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी और 2004 में राष्ट्रीय तकनीकी अनुसंधान संगठन (NTRO) का निर्माण, कवर रिपोर्ट के कुछ प्रमुख परिणाम थे। अब तो चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (CDS) का पद भी बना दिया गया है ।

रिपोर्ट ने काउंटर-इंसर्जेन्सी में सेना की भूमिका को कम करने की भी सिफारिश की गयी थी, लेकिन इसे अभी तक लागू नहीं किया गया है। 1999-2001 में सरकार द्वारा संशोधित फास्ट-ट्रैक अधिग्रहण को कभी भी दोहराया नहीं गया और भारतीय सैनिकों ने अभी तक उन्हीं राइफलों से लड़ाई लड़ी जिसके साथ उन्होंने 1999 में लड़ी थी। इसलिए कारगिल युद्ध की 21 वीं सालगिरह का जश्न मनाने का सबसे अच्छा तरीका होगा की कारगिल रिव्यू कमेटी और मंत्रिमंडल समूह की रिपोर्ट की समीक्षा करके लंबे समय से लंबित राष्ट्रीय सुरक्षा सुधारों को पूरा किया जाए। विशेष रूप से फास्ट-ट्रैक रक्षा सुधार को समय पर कार्यान्वयन किया जाएं।. हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि ,उत्तरी सीमा पर अकेले पाकिस्तान ही खतरा नहीं है बल्कि चीन एक बड़ा खतरा है।

करगिल और लद्दाख में अनेक असमानताओं के बाद भी एक समानता है कि, दोनो ही मौकों पर हमारी खुफिया एजेंसियां विफल रही हैं। राजनीतिक रूप से सबसे बड़ी विफलता यह है कि पाकिस्तान से हुई घुसपैठ को हम जहां जोर शोर से स्वीकार करते हैं और उसका मुंहतोड़ जवाब देते हैं वहीं चीन से हुयी घुसपैठ और चीनी सेना की हमारी सीमा में घुस कर तंबू, टीन शेड, बंकर आदि बनाने की घटना पर चुप्पी साध जाते हैं। क्यों। अगर यह एक कूटनीतिक रणनीति है तो अलग बात है, अन्यथा अगर यह एक सत्तारूढ़ दल का पोलिटिकल एजेंडा है तो इसका प्रभाव आगे चल कर आत्मघाती होगा। डोकलां से लेकर गलवां घाटी तक चीनी सैनिकों की घुसपैठ और उन्हें जवाब देने की शैली से यही संदेश गया कि चीन के प्रति हम नरम हैं। हद तो तब हो गयी जब प्रधानमंत्री ने कह दिया कि हमारी सीमा में न तो कोई घुसा था और न घुसा है। जबकि वास्तविकता यह है कि आज भी चीन हमारी सीमा में ऊंची पहाड़ियों पर जो रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं कब्ज़ा जमाये हुए है और जिस प्रकार की, उसकी गतिविधिया हैं, उससे नहीं लगता कि, चीन घुसपैठ पूर्व की स्थिति आसानी से बहाल करेगा।

गलवां घाटी में जो घुसपैठ हुयी है उस पर एक टीवी चैनल में बहस चल रही थी। उस बहस में जो सवाल उठ रहे थे को इंगित करते हुए, एक रिटायर्ड मेजर जनरल पीसी पंजिकर ने एक पत्र उक्त चैनल के सम्पादक को लिखा था। मेजर जनरल पंजिकर ने जो सवाल उठाये हैं, वे बेहद सारगर्भित और प्रोफेशनल हैं। उन्होंने अपने पत्र में लिखा है कि,
" इसमे कुछ भी अनुचित नहीं है कि, गलवां घाटी के मामले में, सरकार और सेना की भूमिका की समीक्षा हो। उनकी विफलताओं और कमियों पर भी बहस होनी चाहिए। लेकिन 2015 से 2020 तक की जो सैटेलाइट इमेजेस आ रही हैं, और जिनके अनुसार गलवां घाटी के उत्तर पूर्वी किनारे पर, चीन की सेना ने जो भारी निर्माण कर लिए हैं, उसके बारे में, आंतरिक और बाह्य खुफिया एजेंसियों के डायरेक्टर जनरल साहबान से क्यों नहीं पूछा जाता है ? क्या यह उनके एजेंसी की विफलता नहीं है कि उन्होंने समय रहते सरकार को इसकी सूचना क्यों नहीं दी ?'
आगे वे कहते हैं कि,
"उन्हें इस विफलता के लिये जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए और उनके खिलाफ अगर उनका दोष प्रमाणित होता है तो कार्यवाही भी की जानी चाहिए।"
गवर्नमेंट ऑफ इंडिया बिजनेस रूल्स 1961 का उल्लेख करते हुए जनरल पंजिकर कहते हैं कि, रक्षा सचिव और चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ को भी इस विफलता का दोषी ठहराया जाना चाहिए और उनसे विस्तार से इस मामले में, उनका स्पष्टीकरण लिया जाना चाहिए।

रक्षा मामलो की एक और खुफिया एजेंसी है डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी जिसके अलग डीजी हैं। यह एजेंसी करगिल रिव्यू कमेटी की अनुसंशा पर 2004 में गठित की गयी है। यह एजेंसी भी अपने कर्तव्य में विफल रही है। इस एजेंसी और सेना के बड़े जनरलों का भी यह दायित्व है कि, जब चीन सीमा पर लम्बे समय से घुसपैठ कर रहा था और भारी सैन्य बंकर, बैरक बना रहा था तो सरकार को उन्हें यह बताना चाहिए था और हमारे विदेश मंत्रालय को भी 1993, 1996, 2003 के भारत चीन संधियों के आलोक में चीन से कड़ा विरोध दर्ज कराना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह भी सवाल उठता है कि एनटीआरओ ने इन सब गतिविधियों पर अपनी नज़र क्यों नहीं रखी ?

एनटीआरओ जिसका पूरा नाम है नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गनाइजेशन जो एक तकनीकी खुफिया एजेंसी है और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के अंतर्गत कार्य करती है। इसके अधीन, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिप्टोलॉजी रिसर्च एंड डेवलपमेंट ( NICRD ) है, जो एशिया में अपने तरह की एक अनोखी रिसर्च इकाई है। एनटीआरओ भी आईबी, इंटेलिजेंस ब्यूरो और रिसर्च एंड एनालिसिस विंग, रॉ की ही तरह गम्भीर और संवेदनशील अभिसूचनाओ का संकलन करती है। पर लद्दाख के 2019 20 के चीनी घुसपैठ की अग्रिम अभिसूचनाओ के संकलन में यह एजेंसी भी दुर्भाग्य से विफल रही है।

ऐसा नहीं है भारत मे प्रशासनिक तंत्र का विकास नहीं हुआ है। बल्कि समय समय पर जैसी आवश्यकताए होती रहीं तत्समय की सरकारो, जिसमे पराधीन भारत की, ब्रिटिश कालीन औपनिवेशिक सरकार भी सम्मिलित है, ने, उसी तरह से आवश्यकतानुसार मैकेनिज़्म भी तैयार किये पर दुःखद और हैरान करने वाला पहलू यह है कि इतनी विशेषज्ञ और महत्वपूर्ण खुफिया एजेंसियों के होते हुए हम अपनी सीमा में हो रही घुसपैठ की घटनाओं पर समय रहते से नज़र नहीं रख पाते है। यह अलग बात है कि भारत, चीन के इस हाल की घुसपैठ की घटना जो लद्दाख के गलवां घाटी में हुई है को छोड़ कर अन्य घुसपैठ को बल एवं कुशल पूर्वक हटाने में सफल हुआ है, पर इससे खुफिया एजेंसियों की विफलता तो छुप नहीं जाती है ।

कारगिल युद्ध मे सेना की शौर्य परंपरा तो कायम रही, पर खुफिया एजेंसियों की विफलता और सरकार की कूटनीतिक नाकामी से इनकार नहीं किया जा सकता है। खुफिया एजेंसियों की विफलता, गलवां घाटी में भी दिख रही है और पठानकोट तथा पुलवामा हमलों में भी थी। सरकार को, अपने सभी खुफिया एजेंसियों को और अधिक विश्वसनीय तथा सक्षम बनाना पड़ेगा ताकि भविष्य में न तो, फिर से कोई कारगिल हो और न ही डोकलां और गलवां ही हो। गलवां का मामला अभी हल नहीं हुआ है। चीन की सेना को एलएसी की पूर्व की स्थिति में लाने के लिये सरकार का प्रयास जारी है। आशा है सरकार चीन को एलओसी की पूर्ववत स्थिति पर धकेलने में सफल होगी।

( विजय शंकर सिंह )

Tuesday, 21 July 2020

बैंकों और बीमा कंपनियों का निजीकरण एक प्रतिगामी कदम है / विजय शंकर सिंह

19 जुलाई 1969 को बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था औऱ उसके ठीक पचास साल बाद आज 21 जुलाई 2020 को यह खबर आयी कि सरकार छः पब्लिक सेक्टर बैंकों को पुनः निजी क्षेत्रों में सौंपने जा रही है। सरकार और बैंकिंग सूत्रों ने बताया कि बड़े सुधार के तहत पीएसयू बैंकों की संख्या आधी से कम किए जाने की योजना है। अभी देश में जो सरकारी बैंक हैं उन्हें, पांच तक सीमित करने की योजना है। कहा जा रहा है कि, बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पा रहे सरकारी बैंकों में हिस्सेदारी बेचने के लिए नए निजीकरण प्रस्ताव पर काम चल रहा है और कैबिनेट की मंजूरी के बाद यह प्रक्रिया आगे बढ़ाई जाएगी। अखबारों की एक खबर के अनुसार,  कोविड - 19 से देश की अर्थव्यवस्था पर काफी दबाव है और सरकार के पास धनाभाव है। कई सरकारी समितियों और रिजर्व बैंक ने भी सिफारिश की थी कि 5 से ज्यादा सार्वजनिक बैंक नहीं होने चाहिए।

खबर है कि पहले चरण में बैंक ऑफ इंडिया, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज बैंक, यूको बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र और पंजाब एवं सिंध बैंक का निजीकरण किया जाएगा। सरकार ने पहले ही बता दिया है कि अब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विलय नहीं किया जाएगा, सिर्फ उनके निजीकरण का ही विकल्प है। पिछले साल ही 10 सरकारी बैंकों का विलय कर 4 बड़े बैंक बनाए गए हैं। अगले चरण में, जिन बैंकों का विलय नहीं हुआ है, उनके निजीकरण की योजना है। 

अब जरा पचास साल पीछे चलें। जब 1969 में इंदिरा गांधी ने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था तो वह एक अभूतपूर्व घटना थी। वह सरकार के वैचारिक बदलाव का एक संकेत था और 1947 से चली आ रही मिश्रित अर्थव्यवस्था से थोड़ा अलग हट कर भी एक कदम था। कांग्रेस के अंदर इंदिरा गांधी के इस कदम का विरोध हुआ और कांग्रेस नयी तथा पुरानी कांग्रेस में बंट गयी, पर देश की प्रगतिशील पार्टियों और समाज ने इंदिरा गांधी के इस कदम का बेहद गर्मजोशी से स्वागत किया और हवा का रुख भांपते हुए इन्दिरा गांधी ने 1972 में निर्धारित आम चुनाव को एक साल पहले ही करा दिया। इसका परिणाम आशानुरूप ही हुआ और 1971 में तब तक का सबसे प्रबल जनादेश इंदिरा गांधी को मिला और स्पष्ट है कि यह जनादेश प्रगतिवादी नीतियों के पक्ष में था और तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी उनके साथ आ गयी थी और वह इंदिरा गांधी का वामपंथी झुकाव था। 

ऐसा नहीं था कि इंदिरा गांधी के इस कदम का विरोध नहीं हुआ। विरोध कांग्रेस में भी हुआ और कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गयी। एक का नाम संघटन कांग्रेस पड़ा जिसके अध्यक्ष थे निजलिंगप्पा और दूसरी कांग्रेस इन्दिरा कांग्रेस बनी जिसके अध्यक्ष थे बाबू जगजीवन राम। कम्युनिस्ट इंदिरा कांग्रेस के साथ थे। गैर कांग्रेसवाद के रणनीतिकार डॉ राममनोहर लोहिया दिवंगत हो गए थे। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी प्रतिभावान और युवा जुझारू नेताओ के बावजूद भी गैरकांग्रेसवाद के सिद्धान्तवाद से चिपकी रही। जनसंघ, जो आज की शक्तिशाली भाजपा का पूर्ववर्ती संस्करण था, एक शहरी और मध्यवर्गीय खाते पीते लोगों की पार्टी थी, जिसकी कोई स्पष्ट आर्थिक नीति नहीं थी। लेकिन उसका झुकाव पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की ओर था। पुराने राजाओं और ज़मीदारों की भी एक पार्टी थी, सितारा चुनाव चिह्न वाली स्वतंत्र पार्टी, जिसकी आर्थिक नीति जनविरोधी और सामंती पूंजीवादी थी। इन तीनो दलों, संगठन कांग्रेस, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी ने इंदिरा गांधी के दो बड़े प्रगतिशील कदमों, एक बैंकों का राष्ट्रीयकरण और दूसरा राजाओं के विशेषाधिकारों और प्रिवी पर्स के खात्मे का खुल कर विरोध किया। 

1971 के आम चुनाव में एक तरफ कांग्रेस और उसके साथ कम्युनिस्ट दल थे, तथा दूसरी तरफ, संगठन कांग्रेस, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी थी। इन तीनो दलों के साथ संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी भी शामिल हो गयी और इसका नाम पड़ा महागठबंधन, ग्रैंड एलायंस। 1971 के चुनाव में यह महागठबंधन बुरी तरह हारा। संगठन कांग्रेस, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी की आर्थिक नीतिया तो पूंजीवादी रुझान की थी हीं, पर समाजवादी उनके साथ कैसे चले गए यह गुत्थी आज भी हैरान करती है। लेकिन इसका कारण सोशलिस्ट पार्टी का गैरकांग्रेसवाद की थियरी थी। यही विंदु संसोपा को इन दक्षिणपंथी दलों की ओर ले गया। डॉ लोहिया अगर तब तक जीवित और सक्रिय रहते तो वे क्या स्टैंड लेते इसका अनुमान मैं नहीं लगा पाऊंगा। यह पृष्ठभूमि है बैंकों के राष्ट्रीयकरण की। 

भारतीय बैंकिग प्रणाली में वाणिज्यिक बैंकों की अपनी अलग पहचान है और वे बैंकिंग सेक्टर के मेरुदंड हैं। ये बैंक अपने पूर्ण अंशपत्रों के विक्रय, जनता से प्राप्त जमा सुरक्षित कोष, अन्य बैंकों तथा केन्द्रीय बैंक से ऋण लेकर प्राप्त करते हैं और सरकारी प्रतिभूतियों, विनिमय पत्रों, बांड्स, तैयार माल अथवा अन्य प्रकार की तरल या चल सम्पत्ति की जमानत पर ऋण प्रदान करते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक का इन पर नियंत्रण रहता है। राष्ट्रीयकरण से पूर्व इनका उद्देश्य तथा बैंकिग प्रणाली थोड़ी अलग थी। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ बैंकिंग सेक्टर में आमूल चूल परिवर्तन हुए हैं। यह परिवर्तन ही बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मूल उद्देश्य था। अत: भारतीय बैंकिंग सिस्टम में 14 प्रमुख वाणिज्यिक बैंको के राष्ट्रीयकरण की घटना एक युगप्रवर्तक घटना मानी जाती है। 

19 जुलाई 1969 को, देश के 50 करोड़ रुपये से अधिक जमा राशि वाले, चौदह अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ ही, एक नयी आर्थिकि नीति, जो प्रगतिशील अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर थी, की शुरुआत हुयी। इसी के साथ ही भारतीय बैंकिंग प्रणाली मात्र लेन-देन, जमा या ऋण के माध्यम से केवल लाभ अर्जित करने वाला ही उद्योग न रहकर भारतीय समाज के गरीब, दलित तबकों के सामाजिक एवं आर्थिक पुनरुत्थान और आर्थिक रूप में उन्हें ऊंचा उठाने का एक सशक्त माध्यम बन गया। बैंक राष्ट्रीयकरण के बाद इंदिरा गांधी को यह भरोसा था कि, बैंकिंग उद्योग राष्ट्र के लोककल्याणकारी राज्य और जनविकास की दिशा में तेजी से अग्रसर होगा। राष्ट्रीयकरण के बाद इंदिरा गांधी ने कहा था कि 
"बैंकिंग प्रणाली जैसी संस्था, जो हजारों -लाखों लोगों तक पहुंचती है और जिसे लाखों लोगों तक पहुंचाना चाहिए, के पीछे आवश्यक रूप से कोई बड़ा सामाजिक उद्देश्य होना चाहिए जिससे वह प्रेरित हो और इन क्षेत्रों को चाहिए कि वह राष्ट्रीय प्राथमिकताओं तथा उद्देश्यों को पूरा करने में अपना योगदान दें।"

राष्ट्रीयकरण से पूर्व सभी वाणिज्यिक बैंकों की अपनी अलग और स्वतंत्र नीतियां होती थीं और उनका उद्देश्य अधिकाधिक लाभ के मार्गों को प्रशस्त करने तक ही सीमित था जो स्वाभाविक ही माना जाना चाहिए क्योंकि इन बैंकों के अधिकतर शेयर-धारक कुछ इने-गिने पूंजीपति व्यक्ति थे जो अपने हितों की रक्षा के साथ निजी हितों को ही बैंकिंग सेवाओं एवं सुविधाओं का लाभ पहुंचाते थे। समाज के गरीब, कमजोर वर्ग, दलित तथा सामान्य ग्रामीण तबकों के लोगों को बैंक होता क्या है, इसका भी पता नहीं था। अत: वे दिन-प्रतिदिन सेठ-साहूकारों एवं महाजनों के सूद के नीचे इतने दब गए कि उनका जीवन एक त्रासदी की तरह बन गया था। 

भारत मूल रूप से एक कृषि आधारित आर्थिकी का देश है। आज भी तीन चौथाई आबादी ग्रामीण क्षेत्र में है। सड़को, बिजली, सिचाई की काफी कुछ सुविधाओं के बावजूद, गांव, कृषि और मानसून पर ही देश की अर्थव्यवस्था निर्भर रहती है। खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता के बावजूद, अगर एक दो साल भी मानसून गड़बड़ा गया तो उसका सीधा असर देश के बजट पर पड़ता है। बैंक राष्ट्रीयकरण के पूर्व किसानों की स्थिति अपेक्षाकृत खराब थी और एक कटु सत्य यह था कि किसान कर्ज में ही जन्म लेता था, कर्ज में ही पलता था, और अपने पीछे कर्ज छोड़कर ही मर जाता था। 1942 के भयंकर दुर्भिक्ष और किसान जीवन पर लिखा तत्कालीन विपुल साहित्य से इसका अंदाज़ा लग सकता है। फलत: मिश्रित और प्रगतिशील अर्थव्यवस्था, तथा जमींदारी उन्मूलन जैसे भूमि सुधार कार्यक्रमों के बावजूद, पूंजीपति अधिक धनवान होते गए तथा निर्धन और भी गरीब बनते गए। देश में सामाजिक असंतुलन का संकट पैदा हो गया और इसके साथ ही, आर्थिक विषमता बढ़ने लगीं। इससे सामाजिक तथा आर्थिक विकास की गति अवरुद्ध हो गयी और एक नई प्रगतिशील आर्थिक नीति की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी । तब बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसा कदम तत्कालीन सरकार ने उठाया।

बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मूल उद्देश्य बैंकिंग प्रणाली को देश के आर्थिक विकास में सक्रिय योगदान कराना था। मूल उद्देश्यों को संक्षेप में यहां आप पढ़ सकते हैं, 
● राष्ट्रीयकरण के पहले बैंकिग सेवाए कुछ पूजीपतियों एवं बड़े व्यापारी और राजघरानों तक ही सीमित थीं जिससे आर्थिक विषमता बढ़ने लगीं थी और, इस विषमता को दूर करने हेतु बैंकिग सेवाओं एवं सुविधाओं का लाभ समाज में सभी वर्गों विशेषत: ग्रामीण कस्बाई क्षेत्रों में बसे कमजोर वर्गों तक पहुंचाने का मूल उद्देश्य बैंकों के राष्ट्रीयकरण में निहित है।

● बैंक राष्ट्रीयकरण के पहले देश में आर्थिक संकट उत्पन्न होने के कारण आर्थिक विकास की गति अवरुद्ध हो गई थी। अत: देश के आर्थिक विकास में तेजी लाने के लिए बैंको का राष्ट्रीयकरण किया जाना बहुत ही आवश्यक हो गया था क्योंकि किसी भी देश की प्रगति एवं खुशहाली के लिए उसके आर्थिक विकास की ही महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।

● बैंक राष्ट्रीयकरण का तीसरा उद्देश्य था, देश में बेरोजगारी की समस्या और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के माध्यम से इस समस्या का समाधान खोजना। क्योंकि शिक्षित बेरोजगारों को आर्थिक सहायता के माध्यम से उनके अपने निजी उद्योग या स्वरोजगार के अनेक साधनों में वृद्धि करके बेरोजगारी पर काबू पाया जा सकता था। 

● जब तक देश में बेरोजगारी की समस्या का उचित हल नहीं होता तब तक उसके विकास कार्य में तेजी नहीं आ सकती। इस तथ्य को दृष्टिगत रखकर बेरोजगारी उन्मूलन की दिशा में ठोस कदम उठाया जाना जरूरी हो गया था ताकि बैंकिंग सेवाओं तथा सहायता का लाभ शिक्षित बेरोजगारों को मिले और वे अपनी उन्नति के नए मार्ग खोज सकें।

● बैंक राष्ट्रीयकरण का एक उद्देश्य यह भी था कि, देश के कमजोर वर्ग तथा प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों के लोग अर्थात् छोटे तथा मंझोले किसान, भूमिहीन मजदूर, शिक्षित बेरोजगार, छोटे कारीगर आदि की आर्थिक उन्नति हो। धन की अनुपलब्धता के कारण, समाज में यह वर्ग अलग थलग था। अतः इनमें आत्मविश्वास पैदा करके उन्हें उन्नति एवं खुशाहाली के मार्ग पर लाना देश की सर्वागीण प्रगति के लिए बहुत आवश्यक था। समाज के आर्थिक रूप से अपेक्षकृत कमज़ोर लोगों का विकास, बैंकिंग सुविधा के माध्यम से संभव था अतः राष्ट्रीयकरण पर विचार किया गया। 

● बैंकों के राष्ट्रीयकरण का एक और मूल उद्देश्य था ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति में सुधार तथा कृषि एवं लघु उद्योगों के क्षेत्रों की समुचित प्रगति किया जाना। भारतीय किसान, ज़मीदारी उन्मूलन जैसे प्रगतिशील भूमि सुधार कार्यक्रम के बावजूद, उपेक्षित था,  और वह गरीबी के पंक से उबर नहीं पाया था। 

● यही हालत कुटीर उद्योग एवं लघु उद्योगों की थी। ब्रिटिश उद्योग नीति ने स्वदेशी कुटीर और ग्रमीण अर्थ व्यवस्था की कमर तोड़ दी थी। यह सब कुटीर और ग्राम उद्योग,  अधिकतर कृषि पर ही निर्भर थे और कृषि और कृषि का क्षेत्र उपेक्षित तथा अविकसित होने के कारण इन उद्योगों की भी प्रगति नहीं हो पा रही थी। इस प्रकार, कृषि एवं लघु उद्योग जैसे उपेक्षित क्षेत्रों की ओर उचित ध्यान देकर उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार लाया जाना राष्ट्र की प्रगति के लिए बहुत आवश्यक तथा अनिवार्य हो गया था।

● देश के बीमार उद्योगों को पुनरूज्जीवित करके नए लघु-स्तरीय उद्योगों के नव निर्माण को बढ़ावा देना भी बैंकों के राष्ट्रीयकरण का एक उद्देश्य था। बीमार उद्योगों के कारण बेरोजगारी की समस्या में वृद्धि होकर आर्थिक मंदी फैलने का यह भी एक कारण था अत: ऐसे उद्योगों को आर्थिक सहायता देकर पुनरूज्जीवित करना आवश्यक था। 

● इसके साथ ही लघु-स्तरीय उद्योगों की संख्या पर्याप्त नहीं थी जिससे कस्बाई क्षेत्रों की प्रगति में तेजी नहीं आ पा रही थी। अत: देश की प्रगति के लिए लघु-स्तरीय उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना भी अत्यंत जरूरी था, जो कि आर्थिक सहायता के बगैर बेहद मुश्किल था। अत: बैंकों द्वारा आर्थिक नियोजन के लिए उनपर सरकार का स्वामित्य होना ज़रुरी था। अतः इन सामाजिक तथा आर्थिक उद्देश्यों के कारण बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया जिससे कि कमजोर एवं उपेक्षित वर्गों की उन्नति के साथ समाज और प्रकारांतर से राष्ट्र की प्रगति हो।

भारतीय बैंकिंग प्रणाली में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना भारत के कृषकों एवं पिछड़े वर्ग के लोगों के जीवन में क्रांतिकारी घटना मानी जा सकती है। क्योंकि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना के पीछे मूल उद्देश्य यही था कि, छोटे तथा मझोले स्तर के किसानों, भूमिहीन मजदूरों आदि को आसानी से बैंकिंग सेवाओं एवं सुविधाओं का लाभ पहुंचाया जाए तथा उन्हें लंबे समय से चले आ रहे, साहूकारों की जंजीरों से मुक्ति दिलाकर उनके अपने गौरब को, पुनरूज्जीवित करनें की सहायता प्रदान की जाए। 

इन बैंकों की स्थापना क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक अध्यादेश 1975 के अंतर्गत किया गया है। साथ ही स्थानीय जरूरतो को दृष्टिगत रखते हुए, अनुसूचित बैंकों को क्षेत्रीय ग्रामीण बैंको की स्थापना करने के लिए कहा गया। जिसके कारण,  सभी वाणिज्यिक बैंकों ने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना की और राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों और ग्रामीण बैंकों का नेटवर्क गांव गांव तक फैल गया। नरेंद्र मोदी सरकार ने बैंकों को और अधिक जनता तक पहुंचाने के लिये जनधन योजना चलाई जिसका लाभ आम जन तक पहुंचा। 

लेकिन निजीकरण की राह भी सरकार के अनुसार उतनी निरापद नहीं है।  निजीकरण की राह में सबसे बड़ी बाधा बैड लोन बन सकती हैं। कोरोना आपदा के कारण, चालू वित्तवर्ष में बैड लोन का दबाव दूना हो जाने का अनुमान है। अतः यह प्रक्रिया अगले वित्तवर्ष में की जाएगी। आरबीआई के अनुसार, सितंबर 2019 तक सरकारी बैंकों पर 9.35 लाख करोड़ का बैड लोन था, जो उनकी कुल संपत्ति का 9.1 फीसदी है। ऐसे में हो सकता है कि इस साल सरकार को ही इन बैंकों की वित्तीय हालत सुधारने के लिए 20 अरब डॉलर (करीब 1.5 लाख करोड़ रुपये) बैंकिग सेक्टर में डालना पड़े। 

निजीकरण सरकार की अघोषित आर्थिक नीति बन गयी है। एयरपोर्ट, रेलवे, एयर इंडिया, आयुध फैक्ट्रियां, यहां तक कि बड़े सरकारी अस्पताल तक निजी क्षेत्रों में सौंपने का इरादा नीति आयोग कर चुका है। पर सरकार इस पर धीरे धीरे चलना चाहती है। केंद्र सरकार एक के बाद एक निजीकरण के फैसले ले भी रही है। सरकार ने अब एलआईसी को छोड़ सभी सरकारी इंश्योरेंस कंपनियों को बेचने की तैयारी कर चुकी है। सरकार का इरादा तो एलआईसी को लेकर भी साफ नहीं था और उसके भी कुछ अंशो को बेचने की बात उठी थी लेकिन जब विरोध हुआ तो सरकार ने अपने कदम पीछे खींच लिये हैं लेकिन यह वक़्ती रणनीति है, न कि, सरकार का हृदय परिवर्तन। न्यूज़18 की एक खबर के अनुसार, एलआईसी और एक नॉन लाइफ इंश्योरेंस कंपनी को छोड़कर बाकी सभी इंश्योरेंस कंपनियों में सरकार अपनी पूरी हिस्सेदारी किस्तों में बेच सकती है। इस पर पीएमओ, वित्त मंत्रालय और नीति आयोग के बीच सहमति बन चुकी है साथ ही कैबिनेट ड्रॉफ्ट नोट भी तैयार हो चुका है।

अगर आप को लगता है यह निजीकरण कोरोनोत्तर अर्थव्यवस्था का परिणाम है तो यह बात बिल्कुल सही नही है। 2014 में जब सरकार सत्तारूढ़ हुयी तो उसकी आर्थिक नीतिया निजीकरण की थी और यह सब एजेंडा पहले से ही तय है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि डॉ मनमोहन सिंह की सरकार गैर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की थी और वर्तमान सरकार ने उस नीति को बदला है। कांग्रेस के पूंजीवादी आर्थिक सोच के बावजूद, कांग्रेस की मूल आर्थिक सोच समाजवादी झुकाव की ओर रही है । यह झुकाव जब नेताजी सुभाष बाबू ने आज़ादी के पहले, अपने अध्यक्ष के रूप में योजना आयोग की रूप रेखा रखी थी तब से था। कांग्रेस ने स्वाधीनता मिलने पर, तभी भुमि सुधार और अन्य समाजवादी कार्यक्रमों को लागू करने का मन बना लिया था। मिश्रित अर्थव्यवस्था, पंचवर्षीय योजना ज़मीदारी उन्मूलन और बड़े बड़े उद्योगों की स्थापना उसी वैचारिक पीठिका का परिणाम था। लेकिन 1991 में इस आर्थिकी जिसे कोटा परमिट राज भी कहा जाता है के कुछ दुष्परिणाम भी सामने आए तो खुली अर्थव्यवस्था को अपनाया गया। लेकिन इसके बावजूद भी सरकारी क्षेत्र मज़बूत बना रहा। 

2014 में सरकार की नीति बदली और सत्ता का जो रुप सामने आया वह पूंजीवाद की स्वस्थ प्रतियोगिता कहा जाने वाला न रह कर, कुछ चहेते पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने तक धीरे धीरे सिमटता चला गया। यह गिरोहबंद पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज़्म का रुप है।  केवल राजनीतिक सत्ता का ही केंद्रीकरण 2014 ई के बाद नहीं हुआ बल्कि इसी अवधि में पूजीपतियों का भी केंद्रीकरण होने लगा। जानबूझकर सरकारी क्षेत्रो की बड़ी बडी नवरत्न कंपनियों को भी चहेते पूंजीपतियों के हित लाभ और स्वार्थपूर्ति के लिये, कमज़ोर किया गया ताकि वे स्वस्थ प्रतियोगिता में न शामिल हो सकें और चहेते पूंजीपतियों को अधिक से अधिक विस्तार करने का खुला मैदान मिल सके। आज बीएसएनएल और ओएनजीसी जैसी लाभ कमाने वाली कम्पनियां, निजी क्षेत्र की, जिओ और रिलायंस के आगे नुकसान उठा रही है। इस प्रकार जब सरकारी उपक्रम कमज़ोर और संसाधन विहीन होने लगे तो उनको बोझ समझ कर उन्हें बेचने की बात की जाने लगीं। यह एक विस्तृत विषय है जिस पर अलग से लिखा जायेगा। फिलहाल तो पचास साल पहले उठाया गया एक प्रगतिशील कदम आज फिर पीछे लौटाया जा रहा है। यह एक प्रतिगामी कदम है और समाज तथा इतिहास की प्रगतिशील धारा के विपरीत है। 

( विजय शंकर सिंह )

Monday, 20 July 2020

पुलिस राजनीतिक एजेंडा पूर्ति का उपकरण नहीं है / विजय शंकर सिंह


गैंगस्टर विकास दुबे के मारे जाने के बाद, पुलिस के राजनीतिकरण और माफियाओं के खिलाफ पुलिस कार्यवाही पर लगातार सवाल उठ रहे हैं। । पुलिस जो लम्बे समय से एक सुधार की आवश्यकता से जूझ रही है, को लेकर पुलिस के बड़े अफसरों, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों और समाज के प्रबुद्ध वर्ग में फिर यह बहस शुरू हो गई है कि आखिर, पुलिस में राजनीतिक दखलंदाजी को दूर करने के उपाय क्या है और कैसे देश की पुलिस को एक प्रोफेशनल पुलिस बल बनाया जाय। सवाल पुलिस की प्रोफेशनल दक्षता, न्यायिक सुधारों, पुलिस में अपराधी तत्वो की पैठ पर भी उठ रहे हैं। पर इसका समाधान क्या हो, इस पर अभी पूरी तरह से चुप्पी है। 

एक गम्भीर सवाल उठाया जाता है कि,  कैसे एक सामान्य अपराधी छोटे मोटे अपराध करते हुए फिर एक दिन अंडरवर्ल्ड डॉन या माफिया बन जाता है ? सरकार की सारी लॉ इन्फोर्समेंट एजेंसियों को धता बताते और क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की ऐसी तैसी करते हुए एक दिन खूबसूरत गोल इमारत में उसी संविधान की शपथ लेकर विधिद्रोही से विधि निर्माता बन बैठता है, जिस संविधान की वह सरेआम धज्जियां उड़ाता रहता है। कभी उसी माफिया को,चाकू या कट्टा रखने के आरोप में बंद किये हुए पुलिसजन, उसी के आगमन पर शहर में भीड़ नियंत्रित करते नज़र आते हैं। फिर राजकीय ककून से सुरक्षित वह माफिया आदेशात्मक भाषा बोलता है और पुलिस पर ही आरोप लगता है कि वह तो राजनीति की चेरी है। यह सुनी सुनाई कथा नही बल्कि भोगा हुआ यथार्थ है। ऐसा ही एक और महत्वपूर्ण सवाल है कि,यातायात उल्लंघन या लॉक डाउन की अवहेलना या मास्क न लगाने पर एक सामान्य व्यक्ति पर पुलिस का अनावश्यक बल प्रयोग क्यों पुलिस के क्रोध की सारी सीमाएं तोड़ देता है ? 

एक लफंगे से माफिया बनने में समय लगता है और उस समय मे निश्चय ही जो नजरअंदाजी होती है उसकी जिम्मेदारी पुलिस पर ही आती है। चाहे वह नजरअंदाजी किसी लोभ या स्वार्थ के वशीभूत होकर की गयी हो या राजनीतिक सिफारिश से प्रेरित होकर। राजनीति के अपराधीकरण के बजाय बेहतर शब्द होगा इसे अपराध का राजनीतिकरण कहा जाय। राजनीतिक नेता जो किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित होते हैं, वे राजनीति में आने के बाद किसी प्रत्यक्ष अपराध कर्म की ओर उन्मुख नहीं होते हैं, लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ कर वे अपराधी पालते ज़रूर हैं। कुछ अपराधी भी, अपराध से धन कमाने और कुछ सुविधा भोगने के बाद राजनीति की शरण ले लेते हैं। राजनीतिक दल भी ऐसे आपराधिक  राजनेताओं को प्रश्रय देते है और ऐसे लोग,बदले में, नौकरशाही और पुलिस से कुछ न कुछ फेवर पाते रहते है। इस प्रकार अपराध, राजनीति और पुलिस का एक ऐसा गठजोड़ विकसित हो जाता है जिससे समाज की कानून व्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ना तय है। 

अब एक जिज्ञासा उठ सकती है कि आखिर पुलिस के पास अधिकार या  कानूनी शक्तियां कम है क्या कि, वह ऐसे उभरते माफिया के खिलाफ शुरू में ही कोई कार्यवाही नहीं कर पाती है ? पुलिस के पास न तो कानूनी शक्तियां कम हैं और न ही अधिकारों का अभाव,  पर व्यवहारतः ऐसा करना, अनेक कारणों से संभव होता भी नही है, विशेषकर उन मामलों में जिनमे राजनीतिक संरक्षण प्राप्त रहता है । पुलिस एक तंत्र है जो सरकार के अधीन कानून लागू करने के लिये गठित है। पुलिस को फिल्मी सिंघम टाइप पुलिस के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। वे अपराधी जो राजनीतिक प्रश्रय से खुद को सुरक्षित महसूस समझते हैं उनके खिलाफ अक्सर कार्यवाही करने में स्थानीय पुलिस को दिक्कतें आती हैं। लेकिन जब सरकार का इशारा मिलता है तो माफिया कितना भी बड़ा और असरदार क्यों न हो, वह कठघरे में ही नज़र आता है। फिर, यहीं यह सवाल भी उठता है कि क्या सरकार का इशारा कुछ चुने हुए माफियाओं के खिलाफ ही होता है या सबके खिलाफ ? तो इसका उत्तर होगा कि अक्सर यह पोलिटिकल एजेंडे के अनुरूप होता है। यह बात कड़वी लग सकती है पर यह एक सच्चाई है। 

पूर्व आईपीएस अफसर, जेएफ रिबेरो ने  अपने एक लेख में, पुलिस में राजनीतिक दखलंदाजी के बढ़ते प्रभाव का उल्लेख किया है। उन्होने लिखा है कि तबादलो और पोस्टिंग में राजनैतिक दखल से कहीं अधिक, पुलिस की जांचों और विवेचनाओं में, बढ़ती राजनीतिक दखलंदाजी घातक है। रिबेरो सर की बात कुछ हद तक सही है। अब इस दखलंदाजी को दो भागों में बांट कर देखते हैं। यह बात सही है कि पुलिस द्वारा मनचाही मांगे न माने जाने के कारण अक्सर राजनीतिक हित टकराते हैं और जहां तक चल सकता है यह खींचतान चलती भी रहती है, पर एक स्टेज ऐसी भी आती है कि नेता, अफसर पर भारी पड़ता है और वह अफसर को हटवा देने में सफल हो जाता है। सरकार की प्रशासनिक भूमिका की परख यहीं होती है कि वह राजनैतिक दबाव और प्रशासनिक ज़रूरतों में किसकी तरफ झुकती है। पर अनुभव यही बताता है कि अक्सर सरकार अपने दल के लोगों के राजनीतिक हित स्वार्थ के खिलाफ नहीं जा पाती है और तब जो तबादले होते हैं वे पुलिस के लिये एक संकेत होते हैं कि पोलिटिकल एजेंडे की तरफ ही झुकाव रखना श्रेयस्कर है। फिर जैसी सरकार होती है, वैसे ही पोलिटिकल एजेंडे बदलते हैं और वैसे ही पुलिस ढलती जाती है। कानून की व्याख्या भी तदनुसार बदलती रहती है। घोड़ा सवार को पहचानता है और उसके इशारे समझता है। 

बहुत पुराने उदाहरणों की खोज में न जाकर इधर हाल ही में पुलिस जांचों में प्रत्यक्ष राजनीतिक दखलंदाजी की चर्चा करते हैं। फरवरी 2020 में ही हुये दिल्ली दंगो की जांच पर राजनीतिक दखलंदाजी के आरोप शुरू से ही उठ रहे हैं। यह आक्षेप किसी मीडिया, या आरोपी ने ही नहीं बल्कि अदालतों ने भी लगाया है। यह भी शायद पहली बार ही है कि किसी दंगे की तफतीश पर राजनैतिक दखलंदाजी के खिलाफ राष्ट्रपति महोदय से गुहार लगायी गयी हो। राष्ट्रपति को चिट्ठी लिख कर, कई  पूर्व नौकरशाह, पुलिस अफसरों, और सिविल सोसाइटी के महत्वपूर्ण सदस्यों ने इन दंगों की जांच में, दिल्ली पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए हैं। पत्र में दिल्ली पुलिस की भूमिका को संदिग्ध और गैर पेशेवर बताया गया है। यह एक सामान्य आरोप नहीं है। राष्ट्रपति को भेजे गए पत्र मे साफ साफ कहा गया है कि 
" इन दंगों में पुलिस की मिलीभगत थी, कई जगहों पर पुलिस वालों ने ही पत्थर फेंके थे और हिंसा की थी, पुलिस ने भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया, पुलिस हिरासत में यंत्रणाएं दी गईं और यह सब करने वाले पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ सबूत होने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की गई।" 
राष्ट्रपति को लिखी गई चिट्ठी में यह आरोप भी लगाया गया है कि 
" उत्तर पूर्व दिल्ली में मौजपुर मेट्रो के पास ज़मीन पर पड़े युवकों को पुलिसकर्मी बेहरमी से पीटते हुए देखे गए। एक वीडियो सामने आया जिसमें पुलिस वाले इन युवकों से राष्ट्रगान गाने को कहते हैं और फिर बुरी तरह पीटते हैं।" 

इसी प्रकार के अनेक उदाहरणों से, उक्त पत्र में, यह साबित किया गया है कि दंगो के दौरान कानून व्यवस्था बनाये रखने के दायित्व का निर्वहन पक्षपातरहित भाव से नही किया गया है। एक और उदाहरण देखें। 
चिट्ठी में कहा गया है कि 
" इनमें से एक 23 वर्षीय फ़ैजान को ग़ैरक़ानूनी तरीके से 36 घंटे तक पुलिस हिरासत में रखा गया, यंत्रणाएं दी गईं, जिससे उसकी मौत हो गई। पुलिस ने उसके इलाज का कोई इंतजाम तक नहीं किया। इस मामले की प्राथमिकी यानी एफ़आईआर में फ़ैजान की पिटाई की कोई चर्चा नहीं है, न ही किसी पुलिसकर्मी का नाम है, न ही किसी को अभियुक्त बनाया गया है।"

राष्ट्रपति को लिखी गई चिट्ठी में पुलिस पर हिंसा का आरोप भी लगाया गया है और उनपर प्रत्यक्ष हिंसा में भाग लेने के भी दृष्टांत दिए गए हैं। कहा गया है कि, 
" पुलिस वाले हिंसा में शामिल हुए थे, उन्होंने पत्थर फेंके थे और मारपीट की थी। इसके वीडियो सबूत हैं। इसके भी सबूत हैं कि ऐसी ही एक वारदात के बाद पुलिस वालों ने ही खुरेजी में सीसीटीवी कैमरे को तोड़ दिया ताकि उनकी गतिविधियाँ कैमरे में क़ैद न हो सके।" 

अनेक सुबूतों और दृष्टांतो से भरा यह पत्र, अंग्रेजी पत्रिका 'द कैरेवन' में प्रकाशित है और सोशल मीडिया तथा अन्य अखबारों में भी उसका उल्लेख किया गया है। सबसे गम्भीर और चिंताजनक आरोप है, 
"'कम से कम एक डिप्टी पुलिस कमिश्नर, दो एडिशनल कमिश्नर और दो थाना प्रभारी दंगों के दौरान लोगों को डराने धमकाने, बेवजह गोली चलाने, आगजनी और लूटपाट करने में शामिल थे।' 
इस घटना के चार महीने से भी अधिक समय बीत जाने के बावजूद किसी पुलिसकर्मी के ख़िलाफ़ एफ़आईआर अब तक नहीं लिखी गयी है। सच तो यह है कि भाजपा का एक नेता लोगों को भड़काने वाली बातें कहता रहा और उसके बगल में दिल्ली पुलिस का एक अफ़सर खड़ा रहा। दिल्ली पुलिस की भूमिका शुरू से ही संदेहों के घेरे में रही है। आज तक उक्त नेता के खिलाफ न तो कोई पूछताछ हुयी और न ही उसे गिरफ्तार किया गया या रिमांड पर लिया गया। क्या यह पुलिस जांच में खुली राजनीतिक दखलंदाजी नहीं है ? चिट्ठी में प्रत्यक्षदर्शियों के हवाले से आरोप लगाया गया है कि 
" पुलिस ने लोगों को हिरासत में यंत्रणाएं दीं। पुलिस ने ख़ालिद सैफ़ी को खुरेजी में 26 फरवरी को गिरफ़्तार किया, दो दिन बाद जब उसे अदालत में पेश किया गया तो उसके दोनों पैर टूटे हुए थे। शाहरुख़ को दंगा करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया और हिरासत में उसे इस तरह पीटा गया कि उसकी आँखें ख़राब हो गईं, उसकी आँखों की 90 प्रतिशत दृष्टि चली गई। उसे क़बूलनामा पर दस्तख़त करवा लिया गया जो वह पढ़ ही नहीं सकता था क्योंकि उसकी आँख खराब हो चुकी थीं। वह 'पिंजड़ा तोड़ आन्दोलन' की देवांगना कलिता और नताशा नरवाल को जानता तक नहीं, लेकिन उससे उस कबूलनामे पर दस्तख़त करवाया गया जिसमें उन दोनों के नाम लिए गए। पुलिस जाँच और पूछताछ में भेदभाव किया गया और इसकी वजह उसकी ख़राब नीयत है। " 
इस पत्र पर पूर्व सचिव, पूर्व उपसचिव, सरकार के सलाहकार, पूर्व आयकर आयुक्त, उपायुक्त, पूर्व राजदूत, कई राज्यों के पूर्व पुलिस प्रमुख, प्रसार भारती के पूर्व प्रमुख जैसे लोगों ने हस्ताक्षर किए हैं। 

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में दिल्ली दंगो में कानून व्यवस्था की ड्यूटी और फिर दंगो के दौरान हुयी आपराधिक घटनाओं की जांच में पुलिस की पक्षपातपूर्ण कार्यवाहियों का विस्तार से उल्लेख किया गया है जिससे यह आभास होता है कि,  दिल्ली पुलिस की दंगा जांच एकतरफा, साम्प्रदायिक, राजनीतिक दखलंदाजी से भरपूर और कुछ लोगों को प्रताड़ित करने वाली सेलेक्टिव जांच है। हालांकि जब यह आरोप लगने शुरू हुए तो जांच में हो रही गड़बड़ियों को दुरुस्त करने के लिये, दिल्ली पुलिस के एक स्पेशल सीपी के आदेश में कहा गया है कि, 
" किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करते समय उचित देखभाल और सावधानी बरती जाय। प्रत्यक्ष और तकनीकी साक्ष्यों सहित सभी सबूतों का ठीक से विश्लेषण किया जाय और यह सुनिश्चित किया जाय कि सभी गिरफ्तारियां पर्याप्त सबूतों द्वारा समर्थित हैं। किसी भी मामले में कोई मनमानी गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए और सभी सबूतों पर विशेष पीपी (सरकारी अभियोजक) के साथ चर्चा होनी चाहिए। "
दिल्ली दंगा मामलों की जांच के लिए फिलहाल तीन एसआईटी या विशेष जांच दल काम कर रहे हैं। 

राष्ट्रपति महोदय को लिखे इस पत्र और विभिन्न अखबारों में वर्णित पुलिस की भूमिका के बारे में चर्चा करने के बाद, दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की रिपोर्ट की भी चर्चा ज़रूरी है। अल्पसंख्यक आयोग के पांच सदस्यों वाले पैनल ने कहा है कि 
" दंगों के दौरान पुलिस पूरी तरह निष्क्रिय थी और उसकी जांच पक्षपातपूर्ण है। दंगों के चार महीने बाद भी दंगा पीड़ितों का सही ढंग से पुनर्वास नहीं हो सका है। पैनल ने यह भी कहा है कि दंगों में पुलिस की सहभागिता थी। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगाग्रस्त 8 इलाक़ों में मुसलिम महिलाओं को चुन-चुनकर निशाना बनाया गया। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि उन्होंने नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों का नेतृत्व किया था। नुक़सान, लूट, आगजनी के कई मामलों में चार महीने के बाद भी वेरिफ़िकेशन प्रक्रिया तक पूरी नहीं हो पाई है और जिन मामलों में वेरिफ़िकेशन पूरा हो गया है, वहां या तो अंतरिम मुआवजा राशि नहीं दी गई या फिर थोड़ी सी ही दी गई। "
इस पैनल ने पीड़ितों की परेशानियों जैसे - उनकी एफ़आईआर दर्ज न होना और बाक़ी दिक्कतों के लिए पांच सदस्यों वाले एक स्वतंत्र पैनल का गठन किए जाने की बात कही है।
कुछ मामलों में पीड़ितों ने पैनल से कहा कि 
" उनसे अभियुक्तों से समझौता करने के लिए कहा गया। पैनल ने यह भी कहा है कि बिना जांच पूरी किए ही चार्जशीट दायर कर दी गई। शरणार्थी कैंपों में रह रहे मुसलमानों को दो बार विस्थापित किया गया और लॉकडाउन की वजह से बिना किसी तैयारी के उन्हें कैंपों से हटा दिया गया। कुछ मामलों में पीड़ितों से उनका कोई पहचान पत्र दिखाने के लिए कहा गया और फिर उनके मजहब के आधार पर उन्हें निशाना बनाया गया।" 

पिछले महीने दिल्ली दंगों के एक मामले में भी दिल्ली की एक अदालत ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई थी और कहा था कि मामले की जाँच एकतरफ़ा है। दिल्ली दंगों से जुड़े मामले में पुलिस 'पिंजरा तोड़' की सदस्यों देवांगना, नताशा के अलावा सफ़ूरा ज़रगर, मीरान हैदर और कुछ अन्य लोगों को भी गिरफ़्तार कर चुकी है। ये सभी लोग दिल्ली में अलग-अलग जगहों पर सीएए, एनआरसी और एनपीआर के ख़िलाफ़ हुए विरोध-प्रदर्शनों में शामिल रहे थे। दिल्ली पुलिस ने भी हलफनामा दायर कर के इन दंगों की जिम्मेदारी सीएए एनआरसी के खिलाफ आंदोलन कर रहे लोगो पर डाली है। अभी जांचे चल रही है। 

यह तो राजधानी की पुलिस की कहानी है अब राजधानी से बहुत दूर मणिपुर का  भी एक ताजा किस्सा पढ़ लीजिये। मणिपुर की एक युवा आईपीएस अधिकारी हैं, थॉनम ओजन बृंदा जो मणिपुर के नारकोटिक्स विभाग में नियुक्त थी। बृंदा ने एक ड्रग तस्कर को गिरफ्तार कर  करोड़ो की अफीम , और  अन्य ड्रग व नकद धन बरामद किया, और तस्कर को जेल भेज दिया। गिरफ्तार  ड्रग तस्कर भाजपा का नेता व मणिपुर के मुख्यमंत्री  की पत्नी का बहुत करीबी है । बृंदा पर यह दबाव बनाया गया कि गिरफ्तार तस्कर को  छोड़  दिया जाय ।  लेकिन बृंदा ने दबाव को नही माना और गिरफ्तार तस्कर को जेल भेज दिया । अदालत ने उक्त ड्रग तस्कर को जमानत दे दी। वृंदा ने इस जमानत पर अदालत के संदर्भ में सोशल मीडिया पर कोई टिप्पणी कर दी जिसपर अदालत ने मानहानि की नोटिस जारी की। बृंदा ने मणिपुर उच्च न्यायालय में एक हलफनामा दायर कर के यह सारा प्रकरण हाईकोर्ट के संज्ञान में ला दिया। इस हलफनामे में मुख्यमंत्री , उनकी, पत्नी, बिचौलिया , पुलिस प्रशासन सब का विस्तार से जिक्र है । मुख्यमंत्री ने पुलिस के उच्चाधिकारियों को, बृंदा को समझा बुझा कर अदालत से हलफनामा वापस लेने के लिये समझाने को कहा। लेकिन ऐसा न हो सका। 

लेकिन यह राजनीतिक दखलंदाजी आज की बात नहीं है और न ही किसी एक दल द्वारा किया जा रहा है। जहां जहां जो भी दल सत्तारूढ़ है वहां यह व्याधि मौजूद है। वृंदा जैसे कुछ अफसर इसके खिलाफ खड़े भी होते रहे हैं, और इसका अंजाम भी भुगतते रहे है। कभी कभी वे विजयी भी हुए हैं। यहां तक कि राजनीतिक दखलंदाजी पर देश की शीर्ष जांच एजेंसी सीबीआई को, सुप्रीम कोर्ट ने तोता तक कह दिया है। इन सब उदाहरणों के बीच, महत्वपूर्ण बात यह है कि पुलिस को कैसे एक प्रोफेशनल कानून लागू करने वाली संस्था बनाये रखा जाय। दखलंदाजी के तमाम आरोपों के बीच एक बात सदैव याद रखनी चाहिए कि पुलिस भी सरकार का एक विभाग है, और वह भी अन्य विभागों की ही तरह सरकार के कंट्रोल और कमांड में रहता है। पुलिस में केवल राजनीतिक दखलंदाजी पर सवाल उठा कर पुलिस सिस्टम को निरंकुश और एक सुपर सरकार नहीं बनाया जा सकता है। लेकिन जब दिन प्रतिदिन के सामान्य कार्यो में भी राजनीतिक दखलंदाजी बढ़ जाए तो इसे एक संक्रामक रोग की तरह लिया जाना चाहिए और राजनीतिक दलों और सरकार को एक सीमा रेखा खींचनी पड़ेगी कि प्रशासनिक और दायित्वपूर्ण दखलंदाजी तो हो, पर सामान्य कामकाज जो नियम और कायदे से होने चाहिए, उनमे बिल्कुल न हो। नहीं तो,  पुलिस राजनीतिक दलों के हांथो में उनके पोलिटिकल एजेंडा पूर्ति का एक उपकरण बन कर रह जाय। 

पुराने पुलिस अफसर बताते हैं कि 1980 से पहले राजनीतिक दखलंदाजी नहीं थी। थी भी तो बेहद वरिष्ठ स्तर पर थी पर थाने के दैनंदिन कामकाज में किसी नेता का दखल कम ही होता था। राजनीतिक दखलंदाजी के बारे में एक बात स्पष्ट है कि हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं। एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि का यह भी दायित्व है कि वह जनता की समस्याओं के लिये थाने से लेकर ऊपर तक उनकी बात रखे। एक बड़े नेता ने मुझसे एक अनौपचारिक और निजी बातचीत में एक बार कहा था कि
" नेता तो सिफारिश करेंगे ही, थाने जाएंगे आप लोगों से मिलेंगे और अपने काम के लिये कहेंगे। पर यह काम कितना विधिसम्मत है और कितना पुलिस के अधिकार क्षेत्र के अंदर या बाहर है, उस सिफारिश पर क्या करना है और क्या नहीं करना है यह तय करना आप का काम है। " 
बात बहुत साफ ढंग से कही गयी है। पर व्यवहारतः ऐसा होता नहीं है। कुछ अपवाद होंगे पर अधिकतर सत्तारूढ़ दल के नेता ( जब जो भी दल जहां सत्ता में हो ) पुलिस को अपने अधीन समझने लगते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि यह एक ऐसा विभाग है, जो संविधान द्वारा बनाये गए कानूनों के कानूनी रूप से पालन कराने के लिये प्रतिबद्ध और शपथबद्ध है।

यही दृष्टिकोण, केरल हाईकोर्ट ने सरकार बनाम शिवकुमार, जो केरल के जीडीपी थे, द्वारा दायर एक याचिका के फैसले में कहा है। पुलिस के प्रशासनिक नियंत्रण का दायित्व तो सरकार का है ही, पर इसके कानूनी दायित्व के ऊपर अदालतों का दखल होता है। सरकार यह तो तय करेगी ही कि कौन, कहां, किस पद पर, कब तक रहे और कब तक न रहे, पर किस मुक़दमे की विवेचना में क्या हो और कानून व्यवस्था की किस समस्या से कैसे निपटा जाय यह तो पुलिस का ही विधिक दायित्व है जो एक तयशुदा कानून के अनुसार ही तय होना है। अब यह सरकार का काम है कि वह पुलिस को कैसे सत्तारूढ़ दल की राजनीतिक दखलंदाजी से दूर रखें और जिस काम के लिये पुलिस का गठन हुआ है वह विधिवत हो।

राजनीतिक दखलंदाजी का आरोप भी दुधारी तलवार की तरह है। जब राजनीतिक दखलंदाजी हमारे हित मे होती है तब हम उसकी सराहना करते हैं, पर जब राजनीतिक दखलंदाजी हमारे हितों के विपरीत होने लगती है तो इसे हम आरोप और आक्षेप के रूप में  अपनी अकर्मण्यता और कमी को छुपाने के लिए भी गढ़ लेते हैं। पुलिस को राजनीतिक दखलंदाजी से दूर रखने के लिये, महत्वपूर्ण पदों पर, एक तयशुदा समय तक अधिकारी रहें और राजनीतिक हित और स्वार्थ से पुलिस अधिकारियों का स्थानांतरण न हो सके इसके लिये सुप्रीम कोर्ट ने स्थानांतरण नीति बनाने, एक तयशुदा कार्यकाल रखने का निर्दश सरकारो को दिए थे लेकिन किसी भी प्रदेश की सरकार ने इनपर कोई उल्लेखनीय कार्यवाही आज तक नहीं की। आज भी कहने के लिये सरकारों की स्थानांतरण नीति है, सिविल सेवा कार्मिक बोर्ड है पर वह राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त नहीं है। अधिकतर राजनीतिक दल इन सुधारों के पक्ष में नहीं है। एक कर्तव्यनिष्ठ, निष्ठावान और विधिसम्मत योग्य पुलिस और अफसर, अधिकतर राजनेताओं को रास नहीं आता है।

पुलिस सरकार की तरफ से भय उत्पन्न करने वाली एजेंसी नहीं है। लाल पगड़ी का रुतबा, और हुज़ूर का इकबाल एक सामंती मनोवृत्ति का द्योतक है और यह मनोवृत्ति अब अतीत हो गयी है। अब कानून का भय होना चाहिये। यह अलग बात है कि पुलिस के डंडे का भय कानून के भय के ऊपर है। एक सामान्य विश्वास हावी होता गया है कि अदालत में तो कुछ होना नहीं है, तो जो थाने में मारपीट हो जाय वही सज़ा मानिए। यह एक दुःखद स्थिति है। लेकिन इस स्थिति के लिये अकेले पुलिस तंत्र को ही दोषी ठहराना अनुचित होगा। पुलिस आपराधिक न्याय प्रणाली जिसमे पुलिस अभियोजन और न्यायालय तीनों ही आते हैं, को समान रूप से इस दोष की जिम्मेदारी लेनी होगी। अकेले पुलिस के बल पर कानून व्यवस्था और अपराध नियंत्रण की बात करना, रेत में सिर छुपाना होगा। अभियोजन विभाग और न्यायपालिका को मिल कर इस समस्या का हल निकालना होगा।

पुलिस एक भयपूर्ण समाज का निर्माण करे या समाज का, विधिपालक वर्ग  पुलिस से ही भय खाये, यह स्थिति, खुद पुलिस के लिये भी दुःखद और दर्दनाक होती है। इस स्थिति से उबरने के लिए पुलिस को अपनी साख बनानी होगो। साख सख्ती की नहीं, साख एक ट्रिगर हैप्पी सिंघम या दबंग के मिथकों से गढ़ी गयी पुलिस की नहीं, साख एक ऐसी पुलिस की जो कानून को कानून की तरह लागू करे और सख्त पर विनम्र, अनुशासित और संवेदनशील हो। यह कठिन तो है पर असंभव नहीं है। पर क्या हमारी सरकारें, राजनीतिक नेतृत्व और जनता के महत्वपूर्ण लोग पुलिस के इस साख और मानवीय चेहरे के लिये दलगत तथा व्यक्तिगत हित और स्वार्थ से ऊपर उठ कर इस दिशा में कदम उठाएंगे ?

( विजय शंकर सिंह )