सुप्रीम कोर्ट के एससी एसटी एक्ट के फैसले पर पक्ष और विपक्ष अपने अपने मन से राजनीतिक दांव खेल रहा है।
गिरफ्तारी विवेचना का एक अंग है। गिरफ्तारी, तलाशी और जब्ती यह पुलिस का विधि प्रदत्त अधिकार है जो उसे दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत प्राप्त है। जन मानस में यह धारणा बैठ गयी है कि उधर उन्होंने थाने में मुक़दमा लिखवाया नहीं कि दरोगा जी ने मुल्ज़िम को हवालात की राह दिखाई । लेकिन कानून ऐसा नहीं कहता है। मुक़दमा लिखाने या एफआईआर दर्ज कराने के बाद उस मामले की विवेचना शुरू होती है और सुबूत आदि एकत्र किये जाते हैं। गिरफ्तारी भी उसी विवेचना का एक अंग है। तत्काल गिरफ्तारी हो, पहले गिरफ्तारी हो, आदि आदि बातें प्रशासनिक आवश्यकता के कारण भले होती हैं पर कानून में यह कहीं नहीं लिखा है कि मुक़दमा लिखाते ही मुल्ज़िम जो धर पकड़ लिया जाय ।
गिरफ्तारी के बारे में सुप्रीम कोर्ट का ही यह मंतव्य भी पढ़ लिया जाय जो इसी फैसले में दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार,
" While registration of FIR is mandatory, arrest of the accused immediately on registration of FIR is not at all mandatory. In fact, registration of FIR and arrest of an accused person are two entirely different concepts under the law, and there are several safeguards available against arrest.Moreover, it is also pertinent to mention that an accused person also has a right to apply for “anticipatory bail” under the provisions of Section 438 of the Code if the conditions mentioned therein are satisfied. Thus, in appropriate cases, he can avoid the arrest under that. "
अब अदालत के फैसले के इस अंश को पढिये।
" We are of the view that cases under the Atrocities Act also fall in exceptional category where preliminary inquiry must be held. Such inquiry must be time-bound and should not exceed seven days in view of directions in Lalita Kumari (supra)."
इसके बारे में कहना है कि,
पहके प्राथमिक जांच की जाय फिर के बाद ही एफआईआर दर्ज होने के निर्णय का तो बहुत ही दुरुपयोग होगा। असरदार लोगों के खिलाफ तो एफआईआर ही दर्ज नहीं हो पाएगी। फिर प्राथमिक जांच जिस प्रार्थना पत्र पर शुरू होगी कानून के अनुसार वही प्रथम सूचना हो जाएगी । फिर प्राथमिक जांच का एक प्रावधान इस एक्ट के और दुरुपयोग को भी बढ़ाएगा, और साथ ही साथ इस एक्ट के जो सच मे भुक्तभोगी होंगे वे और पीड़ित होंगे। हालांकि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश धारा 4 अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत दर्ज हुए मुक़दमे के बारे में है न कि सभी मामलों के लिये । लेकिन उचित स्पष्टीकरण के अभाव में यह भ्रम फैला और जानबूझकर फैलाया भी गया कि सरकार इस अधिनियम को कमज़ोर करना चाहती है।
दो कानूनों का दुरूपयोग बहुत हुआ है। एक तो दहेज निषेध अधिनियम और 498 A आईपीसी का और दूसरा एससीएसटी एक्ट का। एससीएसटी एक्ट का दुरूपयोग सवर्ण जाति के लोगों ने दलितों को सामने कर के अपनी दुश्मनी साधने के लिये भी कम नहीं किया है। यह एक्ट जब बना था तभी यह प्राविधान रखा गया था कि इस अभियोग की विवेचना डीएसपी स्तर का अधिकारी करेगा। डीएसपी स्तर के अधिकारी को विवेचक बनाने के पीछे दो तर्क थे, एक तो विवेचना गंभीरता से होगी क्यों कि थाने के विवेचक के पास काम बहुत होता था, और डीएसपी स्तर का अधिकारी मामले की वास्तविकता को तह में जा कर बिना किसी दबाव के इसे निपटाएंगे। हमने खुद कई विवेचनायें की हैं और दुरूपयोग की बात भी कुछ विवेचनाओं में मिली है।मैंने अपने सेवाकाल के दौरान ऐसे भी उदाहरण पाये हैं जब विपक्षी को केवल फंसाने की नीयत से उसके परिवार के किसी प्रतिभावान छात्र को या ज़िसे कोई नौकरी मिली हो उसे संकट में डालने के लिये मुल्ज़िम के रूप में उनके नाम लिखा दिये गये हों। दुरूपयोग रोकने के लिये ही ऐसी विवेचनाओं में सभी तथ्यों की पड़ताल की जाती है और यह भी देखा जाता है कि एक्ट की मंशा कि जातिगत आधार पर उत्पीड़न हुआ है या नहीं अथवा जाति के आड़ में यह दुश्मनी साधने का खेल है। जब सुबूत मिल जाते हैं तभी गिरफ्तारी होती है। कभी कभी सुबूत घटनास्थल पर जाते ही मिल जाते हैं तो तुरंत गिरफ्तारी भी हो जाती थी।
सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी के बारे में एक और अहम फैसला पहले दिया था। उसके अनुसार सात साल से कम सज़ा के मामले में गिरफ्तारी न हो। यह फैसला सुनने में तो बहुत ठीक लगेगा पर व्यवहारिक रूप से इस से अपराध नियंत्रण में इस से दिक्कतें आएंगी। एससीएसटी एक्ट में भी सुप्रीम कोर्ट को गिरफ्तारी पर किसी भी नए निर्देश की ज़रूरत नहीं थी। यह फैसला भी मेरी समझ मे बिना किसी ज़रूरत के ही दे दिया गया है। गिरफ्तारी कब हो, किसकी हो, क्यों हो, क्यो न हो, यह काम पुलिस के विवेचक का है । अगर विवेचक गलती करता है तो उसके खिलाफ कार्यवाही करने के लिये वरिष्ठ अधिकारियों का तंत्र है। खुद एक्ट में ही यह प्राविधान है कि विवेचक के खिलाफ भी इसी एक्ट की धाराएं लगायी जा सकती हैं। सरकार ने राज्य स्तर पर विशेष जांच विभाग, ज़िले स्तर पर विशेष जांच, राज्य और केंद्र के अनुसूचित जाति जनजाति आयोग के गठन कर रखे हैं। यह सब विभाग इस एक्ट के दुरुपयोग होने और एक्ट को नज़रअंदाज़ करने पर कार्यवाही कर सकते हैं और करते भी हैं। लेकिन महज़ दुरुपयोग के आरोपों के आधार पर कोई कानून न तो रद्द हो सकता है और न ही उसे शिथिल किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय में कि तत्काल गिरफ्तारी न हो, ऐसा कुछ भी नहीं है कि शोर मचाया जाय। कोई भी सरकार या अदालत यह कैसे कह सकती है कि तुरन्त गिरफ्तारी की जाय। तुरन्त गिरफ्तारी जैसा शब्द केवल धारा 151 सीआरपीसी जो शान्ति भंग की आशंका में होती है , की जाती है। मुकदमों में गिरफ्तारी जब भी होगी विवेचना के दौरान जो सुबूत मिलेंगे उसी के आधार पर होगी और होनी चाहिये। बिना सुबूतों की गिरफ्तारी पर अदालतें नाराज़गी भी ज़ाहिर करती हैं और विवेचक बहुधा दण्डित भी होते हैं। कानून का पालन कानून के अनुसार ही होना चाहिये। चाहे एससीएसटी एक्ट हो या कोई भी अधिनियम, यह पुलिस के विवेचक को ही तय करना है कि वह कब, किसे, कहाँ और क्यों गिरफ्तार करे पर गिरफ्तारी का यह फैसला भी उसे सुबूतों के ही आधार पर करना है न कि स्वेच्छाचारी तरीके से ।
( विजय शंकर सिंह )
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