एक--नायक (विख्यात प्रोफ़ेसर निकोलाई) तत्कालीन (1898) रूसी साहित्यिक परिदृश्य पर:
“दोपहर को मैं उठता हूँ और आदतन अपनी मेज़ पर आ बैठता हूँ, हालाँकि काम नहीं करता और कात्या द्वारा भेजी गई फ़्रांसीसी किताबों से जी बहलाता हूँ. रूसी लेखकों को पढ़ना ज़्यादा बड़ी देशभक्ति होगी, पर मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझे वे विशेष पसंद नहीं हैं. दो-चार जाने-माने बड़े लेखकों को छोड़कर बाक़ी सारा आधुनिक साहित्य मुझे साहित्य नहीं, एक घरेलू धंधा मालूम पड़ता है, जो सिर्फ़ जनता की सहिष्णुता पर टिका हुआ है और जिसकी कोई माँग नहीं है. घरेलू धंधों की अच्छी से अच्छी चीज़ भी बहुत बढ़िया नहीं कही जा सकती और कभी भी ईमानदारी के साथ उसकी प्रशंसा ‘किंतु’ लगाए बिना नहीं की जा सकती. यही बात उस पूरे साहित्य पर लागू होती है जो मैं पिछले दस-पंद्रह वर्षों से पढ़ चुका हूँ. उसमें कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है, ऐसा कुछ भी नहीं जिसमें ‘किंतु’ जोड़ने की ज़रूरत न पड़े. चतुरतापूर्ण, उदात्त किन्तु प्रतिभाशून्य; प्रतिभासम्पन्न, उदात्त किंतु चातुर्यविहीन, चतुर, प्रतिभासम्पन्न किंतु ओछा.
++++
“इधर लिखी गई किताबों में मुझे कोई ऐसी किताब याद नहीं पड़ती जिसमें लेखक ने पहले पृष्ठ से ही अपने ऊपर प्रतिबंध लगाने और अपनी अंतरात्मा से सौदा करने की कोशिश जानबूझकर न की हो. कोई लेखक खुलकर दैहिक सौंदर्य का वर्णन करने में झिझकता है, तो कोई बुरी तरह मनोवैज्ञानिक विश्लेषण में ही फँसा हुआ है. कोई ‘मनुष्य के प्रति सहिष्णु दृष्टिकोण’ रखने को आतुर है, तो कोई जान-बूझकर प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन में पन्ने पर पन्ने रँगे जा रहा है, कि किसी को प्रकृति में उसके विशेष रुझान का संदेह न रहे. कोई लेखक अपनी रचनाओं से अपने को हर हालत में मध्यमवर्गीय साबित करने पर तुला हुआ है, तो कोई उच्च कुल का होने का ढोंग करता है. इन लेखकों में हमें सावधानी मिलती है, अतिसतर्कता मिलती है, ढंग मिलता है, पर आज़ादी नहीं मिलती. जैसी तबीयत हो वैसा लिखने का साहस नहीं दिखाई पड़ता. इसीलिए इनमें मौलिकता नाम की चीज़ नहीं होती.
+++
“जहाँ समाजशास्त्र या कला आदि विषयों पर रूसी गम्भीर निबन्धों का नम्बर आता है, मैं उन्हें डर के मारे बचा जाता हूँ. बचपन व जवानी में मुझे दरबानों व थियेटरों के ड्योढ़ीदारों से डर लगता था और यह डर आज तक क़ायम है. मैं अब भी उनसे डरता हूँ. लोग कहते हैं कि डर अनजान चीज़ों से ही लगता है. और सचमुच यह समझना मुश्किल है कि दरबान व थियेटरों के द्योढ़ीदार इतने टीमटामवाले, घमंडी और अशिष्ट क्यों होते हैं. वही अबूझ डर मुझे उन गम्भीर लेखों को पढ़ने से लगता है. उनकी असाधारण तड़क-भड़क, उनकी विराट कृत्रिमता, वेदेशी लेखकों के सम्बंध में बड़े परिचित ढंग से बात करना, बिना कोई ख़ास बात कहे लम्बी-चौड़ी हाँकने की उल्लेखनीय प्रतिभा—ये सब बातें मेरी समझ में नहीं आतीं और मुझे आतंकित कर देती हैं. ये बातें उस विनयपूर्ण शिष्ट ढंग के बिल्कुल विपरीत हैं जिसका मैं आदी हूँ और जिसे डॉक्टरी या प्रकृति-विज्ञान के विषयों पर लिखनेवाले लोगों ने अपनाया है.
+++
“जिला अदालत में मुझे एक बार एक मामले में विशेषज्ञ की हैसियत से राय देने जाना पड़ा. मध्यांतर में मेरे एक सहयोगी विशेषज्ञ ने मेरा ध्यान इस ओर आकृष्ट किया कि प्रोक्यूरेटर किस धृष्टता से अभियुक्तों को सम्बोधित कर रहा था, जिनमें दो शिक्षित महिलाएँ भी थीं. मैंने अतिशयोक्ति से काम नहीं लिया, जब मैंने जवाब में अपने सहयोगी से कहा कि यह धृष्टता उस बरताव से ज़्यादा बुरी नहीं है, जो गम्भीर विषयों के लेखक एक-दूसरे के प्रति करते हैं. वास्तव में इन लेखकों का धृष्ट व्यवहार इतना स्पष्ट है कि इसके सम्बंध में चुप नहीं रहा जा सकता. या तो वे एक-दूसरे के प्रति तथा आलोच्य लेखकों के प्रति ऐसे अत्युक्तिपूर्ण आदर से काम लेते हैं, जो बिल्कुल दासता-सी लगती है, या, इसके विपरीत, उनकी इतनी उपेक्षा करते हैं जितनी कि मैं अपनी इस डायरी और अपने मन में अपने भावी दामाद ग्नेकेर [जिसका आडंबरपूर्ण, सतही व्यक्तित्व नायक को पसंद नहीं] की भी नहीं करता. पागलपन, नापाक इरादों, यहाँ तक कि हर तरह के अपराधों के आरोप इन गंभीर लेखों के साधारण अलंकार हैं. और इन सबका प्रयोग होता है, जैसा कि तरुण डॉक्टर अपने लेखों में लैटिन भाषा में कहा करते हैं ‘अंतिम तर्क’ के रूप में. ऐसा रवैया तरुण पीढ़ी के लेखकों की नैतिकता को प्रभावित किए बिना नहीं रह सकता और यही कारण है कि हमारे ललित साहित्य को पिछले दस-पंद्रह वर्षों में विभूषित करनेवाली नई पुस्तकों में ऐसे नायकों को, जो ज़्यादा वोद्का पिया करते हैं और ऐसी नायिकाओं को, जो सच्चरित्र नहीं होतीं, पाकर मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं होता.”
******
दो—प्रोफ़ेसर निकोलाई की पत्नी और उसकी चिंताएँ:
“रात में जागते रहने का अर्थ होता है अपनी असामान्यता के प्रति सचेत रहना, इसी से मैं अरुणोदय का बेचैनी से इंतज़ार करता हूँ, जब जागते रहना स्वाभाविक है. बहुतेरे कठिन घंटे गुज़ारने के बाद आँगन में मुर्गा बाँग देता है. मुझे मुक्ति मिल जाती है. मैं जानता हूँ कि अब एक घंटे में दरबान जग जाएगा और चिड़चिड़ाहट भरी खाँसी ख़ाँसते अकारण ही ऊपर पहुँचेगा और तब खिड़कियों के शीशे धीरे-धीरे रुपहले होने लगेंगे और सड़क से धीरे-धीरे शोर-ग़ुल उठने लगेगा....
“मेरा दिन शुरु होता है मेरे कमरे में मेरी पत्नी के पदार्पण से. वह स्कर्ट पहने, नहाई-धोई, इत्र से महकती, बाल खोले आती है. अपने व्यवहार से वह दिखाती है कि महज़ इत्तफ़ाक़ से आई है और सदैव एक ही बात दुहराती है:
‘क्षमा करना, मैं यूँ ही चली आई....क्या रात फिर बुरी कटी?’
“तब वह बत्ती बुझा देती है, मेज़ के सामने बैठ जाती है और बातचीत शुरू कर देती है. मैं भविष्यद्रष्टा नहीं हूँ पर उसकी बात पहले ही से जानता हूँ. हर सबेरे वही बात, साधारणतया मेरे स्वास्थ्य के सम्बंध में चिंतापूर्ण पूछ-ताछकर उसे एकदम हमारे बेटे की याद आ जाती है जो वार्सा में फ़ौजी अफ़सर है. महीने की हर बीस तारीख़ बीतने पर हम उसे पचास रूबल भेजते हैं. और यही हमारी बातचीत का मुख्य विषय रहता है.
“ ‘हाँ, यह हम पर बोझ तो है ही’, मेरी पत्नी उसाँस लेती है, ‘पर जब तक वह ठीक तरह से जम न जाए, उसकी मदद करना हमारा कर्तव्य है. लड़का अजनबियों के साथ रहता है, उसकी तनख़्वाह कम है....पर यदि तुम चाहो तो अगले महीने पचास की जगह चालीस रूबल ही भेज देना, क्या कहते हो ?’
“दैनिक अनुभव से तो मेरी बीवी को यह मालूम हो जाना चाहिए था कि लगातार बहस से ख़र्च कम नहीं हो जाता, पर उसके लिए तजुर्बा बेकार-सी चीज़ है. वह हर दिन हमारे अफ़सर बेटे की, रोटी की क़ीमत की, जो ईश्वर का धन्यवाद है कि कम हो गई है जबकि शक्कर की क़ीमत दो कोपेक बढ़ गई है, बात करती है, और ऐसे ढंग से जैसे मुझे वह कोई नई चीज़ बता रही हो.
“मैं सब सुनता हूँ, यंत्रवत हाँ-हूँ करता हूँ और, चूँकि रात जागते बीतती है, मेरे दिमाग़ में अजीब-से बेमतलब के विचार घुमड़ते हैं. मैं अपनी बीवी की ओर बच्चे की तरह अचम्भे से ताक़ता रहता हूँ. मैं तो ताज्जुब से अपने-आप से सवाल करता हूँ कि क्या यह सम्भव है कि यह मोटी, भोंड़ी, बूढ़ी औरत, जिसके चेहरे से रोटी के टुकड़े की या ऐसी ही ज़रा-ज़रा-सी बातों की परेशानियाँ और चिंताएँ झलकती हैं, जिसकी आँखें क़र्ज़और ग़रीबी की शाश्वत मार से धुँधला गई हैं, जो सिवा ख़र्च के दूसरी बात करना नहीं जानती, जिसके चेहरे पर तभी मुस्कराहट खेलती है जब बाज़ार में मंदी आए, यह वही सुकुमार युवती है जिसको मैंने उसकी प्रखर, स्पष्ट, पवित्र, निश्छल आत्मा के लिए प्रेम किया था, जैसे ओथेलो ने डेस्डेमोना को विज्ञान के प्रति सहानुभूति रखने के लिए किया था. क्या यह संभव है कि यह वही मेरी पत्नी वार्या है, जिसने मेरे पुत्र को जन्म दिया ?
“मैं इस थुलथुल बुढ़िया के फूले चेहरे को एकटक देखता हूँ, उसमें अपनी वार्या को खोजने का प्रयत्न करता हूँपर अतीत का कोई अवशेष नहीं मिलता, सिवा मेरे स्वास्थ्य के प्रति उसकी चिंता और मेरी तनख़्वाह को हमारी तनख़्वाह और मेरी टोपी को हमारी टोपी कहने के उसके उस पुराने ढंग के. उसे देखकर मुझे दुख़ होता है और उसे ज़रा प्रसन्न करने के लिए मैं बातचीत के प्रवाह को रोकता नहीं. मैं तब भी चुप रहता हूँ जब वह लोगों की व्यर्थ आलोचना करती है या मुझे खरोंचती है कि मैं प्राइवेट रूप से प्रैक्टिस क्यों नहीं करता, कोई पाठ्यपुस्तक क्यों नहीं छपाता.
“हमारी बातचीत हमेशा एक ही ढंग से समाप्त होती है. मेरी पत्नी को यकायक याद आती है कि मैंने अब तक चाय नहीं पी है और वह चौंक पड़ती है.
“मुझे हो क्या गया है ?” कुर्सी से उठकर वह कहती है. समोवर न जाने कब से मेज़ पर रखा है और मैं यहाँ बैठी बक-बक लगाए हूँ. न जाने मेरी याददास्त को क्या हो गया है !”
“वह तेज़ी से दरवाज़े की ओर बढ़ती है और दरवाज़े पर रुककर कहती है:
“ ‘येगोर की पाँच महीने की पगार चढ़ गई है. तुम्हें मालूम है ? कितनी बार मैंने कहा कि नौकरों की तनख़्वाह चढ़ाना ठीक नहीं ! हर महीने दस रूबल देना, पाँच महीनों में पचास रूबल देने से कहीं आसान है !’
“दरवाज़े से बाहर निकल, वह वह फिर एक बार रुककर कहती है:
‘मुझे लीज़ा बेचारी पर बहुत दया आती है ;बेचारी संगीत विद्यालय जाती है ; अच्छे सभा-समाज में उठती-बैठती है, पर देखो कपड़े कैसे पहनती है ! ऐसे कोट पहनकर सड़क पर निकलना शर्म की बात है. वह किसी और की बेटी होती तो कोई बात नहीं थी, लेकिन हर कोई जानता है कि उसका पिता विख्यात प्रोफ़ेसर है, प्रिवी कौंसिल का मेम्बर है !
“और वह मेरे पद और प्रतिष्ठा पर चोटकर चली जाती है. इस ढंग से हर दिन शुरू होता है और इसी ढंग से बीतता है.”
........
[अंतोन चेख़ोव: लघु उपन्यास और कहानियाँ, प्रगति प्रकाशन, मास्को,1974 से साभार]
कमलाकांत त्रिपाठी
© Kamalakant Tripathi
No comments:
Post a Comment