Sunday, 24 July 2022

डॉ कैलाश कुमार मिश्र / नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी पार्ट (16)

सरकारी कार्य, प्रोटोकाल एवं अवसरवादिता ~

उत्तरपूर्व भारत में कार्य करना सहज नही था मेरे लिए। एक बार श्री बी पी सिंह, भूतपूर्व राज्यपाल, सिक्किम के साथ बहुधा नामक परियोजना में मैं उनके साथ डेपुटेशन में शोध अधिकारी के रूप में कार्य कर रहा था। उस परियोजना के कारण मैं केरल, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड और असम गया। वहां के लोगों से मिलकर लोक जीवन में सद्भाव के उदाहरण प्रस्तुत करने थे। सभी जगहों पर मैंने ईमानदारी से कार्य करने का उत्तम प्रयास किया। असम का उदाहरण सर्वोत्तम था। असम के हाज़ो में काम करना मेरे लिए आसान हो गया था। क्योंकि बी पी सिंह असम कैडर के आई ए एस अधिकारी थे। वहाँ मुझे पल - पल मदद मिला। हाजों सद्भाव का सर्वोत्तम स्थान है, जहां हिंदू, मुसलमान एवं बुद्धिस्ट तीनों धर्म के लोग जाते हैं। यहां भगवान विष्णु के हयग्रीव अवतार अर्थात अश्वावतार को पुष्ट करता हुआ विलक्षण मंदिर और मूर्ति हैं। इसी स्थान अर्थात हाजो को बज्रयानी बुद्धिज़्म से जोड़ कर भी देखते हैं। हाजो में अनेक मंदिर है जिस पर हिन्दू और बुध अपनी पूजा अर्चना करते हैं। दोनों समुदाय में कोई विवाद नहीं है । थोड़ा ऊपर चलिए तो एक मणिकूट पहाड़ी है जिसपर पोआ मक्का है। क्या है ये पोआ मक्का? 

कहते हैं कि एक सूफी संत गियासुद्दीन जो हजरत मुहम्मद साहब का दूर का सम्बन्धी था मक्का से एक पौआ अर्थात किलो का चौथा भाग मिटटी लेकर घूमते टहलते यहाँ पहुँच गया। यहाँ पर वह लोगों को प्रेम, भाईचारा का पाठ पढ़ाने लगा। लोग उसके संगत में आने लगे। गियासुद्दीन अपने साथ लाये एक पौआ मिटटी को एक आश्रम के नीव के अंदर रख दिया। वह सच्चे दिल से लोगों की सेवा करता। उसके मरने के बाद लोगों ने उसे वहीँ दफना दिया। आज भी उनका मज़ार वहाँ है । पोआ मक्का में मुसलमान से अधिक हिन्दू जाते हैं। वहाँ का खादिम अल्लाह से और गियासुद्दीन से हरेक आगंतुक के लिए दुआ मांगता है। उसके शब्द असामी भाषा के होते हैं। मान्यता है कि अगर कोई मुसलमान आर्थिक तंगी और किसी अन्य कारण से मक्के का हज नही कर पता है तो घबराने की जरुरत नहीं है। एकबार पोआ मक्का आने से एक चौथाई हज करने का फल मिलेगा उसको। अगर उसने चार बार पोआ मक्का का दर्शन कर लिया तो हो गया पूरा हाजी। 

खैर! जब मैंने अपना रिपोर्ट विस्तार से लिखाकर श्रीमान बाल्मीकि प्रसाद सिंह को दिया तो वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा: “कैलाश! मुझे तुमपर उतना ही गर्व हो रहा है जितना एक पिता को अपने पुत्र पर!” बाल्मीकि प्रसाद सिंह अनेक लोगों से मेरे द्वारा किये गए कार्य की सराहना करते रहे। 

मैं भारत सरकार के एक कला संस्थान के उस अपाहिज अथवा शापित विभाग का शोधार्थी था जो दुर्भाग्य से सबसे कनिष्ठ था। वहाँ दो को छोड़कर सभी शोधकर्मी परंपरागत सरकारी नौकरी करने वाले थे। एक महिला, डॉ टीना तो ऐसी थी जो हर बात को चिल्लाकर और अंग्रेजी के शब्दों के भार से सुनाकर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का कोई अवसर नही चुकती। आधुनिकता के अनेक गुण और दुर्गुण भड़े पड़े थे उनमे। हिमाचल के गद्दी समुदाय पर कार्य कर रही थी। शिव को शाश्वत मानती थी। गद्दी के बीच शायद ही कभी एक सप्ताह लगातार रही हों लेकिन अपने सभी सोच और विचार को गद्दी के मुख से निकालती थी। एक और गुण था उनमे, वो एक नंबर की दरबारी थी। कोई भी विभागाध्यक्ष, सदस्य सचिव आते उनको सम्मोहन में लेने के किसी भी तंत्र को नहीं छोडती। 

जब मेरा चयन हुआ था तब वह भी इंटरव्यू बोर्ड में थी। बाद में जब मैं ज्वाइन किया तो बोली: “तुम बहुत अच्छा बोले। खूब पढो।” मै तो उनके अंग्रेजी बोलने के अंदाज का कायल हो चूका था। उनके सामने कुछ बोलने का हिम्मत भी नहीं कर सकता था । एक दिन एक वरिष्ट और ख्यातिप्राप्त प्रोफेसर मुझे अपने चैम्बर में बुलाकर कहने लगे: “लगता है आजकल आप डॉ टीना के ज्ञान गंगा में डूबते जा रहे हो?” 
मैंने विनम्रता से सिर हिलाते हुए कहा: “ग़जब आभा है इनमे।”
प्रोफेसर साहब मेरा भ्रम को तोड़ते हुए बोले: “सब बकबास। कुछ नहीं आता है इसको। केवल चिल्लाकर लोगों का अटेंशन खींचना विद्वता नहीं है। इसको सुनो। उसका नोट बनाओ। फिर पढो तो लगेगा, इसे कुछ नहीं आता। अगर आता होता तो मैं क्यों नहीं अपने परियोजनाओं में इसको रखता हूँ। अपना समय बर्बाद मत करो। अपनी लगन और मेधा से शोध करो। सारा संसार तुम्हारा है।”

प्रोफेसर साहेब ज्ञान के भंडार थे। रोल मॉडल थे। उनके बात पर शंका करने का प्रश्न ही नहीं उठ सकता था। मैं अगले दिन से थोड़ी दूरी बनाने लगा। एक सेमिनार में जब वह अपना आलेख पढ़ रही थी तो मैं, गम्भीरता से उनके कहे शब्दों का नोट बनाने लगा। जब रात को उस नोट का अवलोकन करने लगा तो पता चला कि प्रोफेसर साहब बिलकुल सही कह रहे थे। 

एक थे डॉ चिरका। पढ़ने में मेधावी परन्तु बेजोड़ कामचोर। किसी काम को कैसे नहीं किया जा सकता है, अगर आपको इसका पुख्ता और प्रमाणिक नोट बनबाना हो तो इनके पास आ जाएँ, आपका काम तुरत कर देंगे। हाँ, इनसे सकारात्मक सोच की बात न करें। एक महिला ऐसी अवश्य थी जो अपने धुन में लगी रहती थी लेकिन जूनियर थी और डॉ टीना किसी भी अवस्था में इनको अपने से आगे बढ़ते हुए नहीं देखना चाहती थी। अंततः बेचारी संस्थान  छोड़कर कहीं और चली गयी। एक कश्मीरी बंधू थे। पढ़ने में सामान्य। अपनी बात को भी बहुत प्रभाव से नहीं रख पाते थे। पब्लिक स्पीकिंग का सेन्स नहीं था उनमे। लेकिन थे सतत संकल्पित। समय से आना। समय से जाना। अपने कार्य में लगा रहना उनके सकारात्मक गुण थे। वे आगे बढ़ रहे थे। एक थी डॉ त्रिवेणी। बहुत सुन्दर। छोटे कद की। बड़ी-बड़ी आँखे। दुधिया गोराई। टॉम बॉय छवि की मल्लिका। बड़े माता पिता की संतान थी इस बात का गौरव। किसी काम को परफेक्शन के नाम पर कितना अधिक टाला जाय इस कार्य में निपुण थी। 
इस परिवेश में मेरा होना और सभी से जूनियर होना आप कल्पना कर सकते हैं, कितना कठिन कार्य रहा होगा। खैर जीवन तो चल ही रहा था। सभी प्रसंग को दरकिनार करते हुए पूर्वोत्तर भारत में मेरा प्रवेश का वृतांत कहना जरुरी है। अभी उसी पर केन्द्रित करता हूँ। 

एक नए जॉइंट सेक्रेटरी आये थे। उनको बाल्मीकि प्रसाद सिंह ने मेरा रिपोर्ट दिया था पढ़ने के लिए। जॉइंट सेक्रेटरी महोदय रिपोर्ट पढ़कर बहुत खुश हुए। उनके ऑफिस से मुझे बुलाया गया। मैं डरते हुए गया। वे खुद मणिपुर और त्रिपुरा कैडर के आईएएस अधिकारी थे। बोले: “मैंने आपका रिपोर्ट पढ़ा है। बहुत अच्छा है। मैंने गर्दन हिलाकर और हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया। 
जॉइंट सेक्रेटरी महोदय बोले: “एक बात बताइए, अगर आपको कहे कि उत्तरपूर्व भारत में आपको पचहत्तर लाख रूपये 5 महीने में खर्च करने हैं तो क्या आप कर देंगे?”
मैं बोला: “सर, अगर यहाँ का प्रशासन, एकाउंट्स साथ दे तो मैं 2 करोड़ खर्च कर दूंगा। लेकिन विभाग के लोगों का सहयोग भी आवश्यक है।”
जॉइंट सेक्रेटरी: “आप इसकी चिंता मत करें। मैं कल ही एकाउंट्स, एडमिनिस्ट्रेशन, और आपके विभाग के सभी शोधार्थी का मीटिंग करता हूँ। आप बिना डर के अपनी बात को रखना।” इतना कहते हुए उन्होंने अपना व्यक्तिगत मोबाइल नंबर मुझे दे दिया। 

दुसरे दिन मीटिंग के लिए जाने से पहले सभी लोगों ने मुझे निर्देश दिया कि अपनी ओर से कुछ भी नही बोलना। प्रोटोकाल का पालन करना सीखो। सबसे जूनियर हो एकदम मत बोलना। अगर उच्च अधिकारी कुछ पूछते हैं तो सीमित शब्द में उत्तर देकर बैठ जाओ। यही परम्परा है। 
मुझे लग रहा था- आखिर सब मेरे लिए इतना क्यों सोच रहे हैं। बिस्मित हो रहा था मैं। मुझे भय यह था कि अगर मैं कुछ नही बोलूँगा तो जॉइंट सेक्रेटरी महोदय क्या सोचेंगे? 

मीटिंग स्थल का दृश्य कुछ अलग था। जॉइंट सेक्रेटरी महोदय बोले: “हमें अपने पुरे बजट का 10 प्रतिशत उत्तरपूर्व में खर्च करना ही करना है। दुर्भाग्य से यह राशि अभी तक नगण्य है। हमारे पास समय बहुत कम है। आप बताये कैसे हमलोग कम से कम 75 लाख रूपये का दिखने वाले सार्थक कार्यक्रम और स्पष्ट कार्यक्रम पांच महीने में कर सकते हैं?”
सभी लोग चुप थे। डॉ टीना अवश्य इशारे से मुझे अपना मुंह नहीं खोलने का निर्देश दे रही थी। 

कुछ देर के बाद जॉइंट सेक्रेटरी फिर बोले: “अरे, आप सभी चुप हैं? क्यों कुछ सुझाव नहीं मिल प् रहा है? अगर काम नहीं करेंगे तो उत्तर क्या देंगे मंत्रालय को हम लोग?”
अभी भी पूरा हॉल खामोश था। ख़ामोशी को तोड़ते हुए चीफ एकाउंट्स ऑफिसर महोदय बोले: “सर सभी स्कॉलर को एक-एक प्रोजेक्ट जमा करना चाहिए और यह भी उनको बताना है कि कैसे नियत समय में टारगेट पूरा करेंगे।”

जॉइंट सेक्रेटरी मेरी ओर इशारा करते हुए बोले: “मैंने आपका रिपोर्ट पढ़ा था हाजो पर अच्छा है। कल आपको बुलाया भी था। आपने हमसे यह वादा किया था कि आप काम करने के लिए तैयार हो। आप बजट भी पूरा कर देंगे ऐसा कह रहे थे। आपका कंसर्न केवल इतना था कि आपको एकाउंट्स और एडमिनिस्ट्रेशन बिना कारण परेशान न करे। आब आप चुप क्यों हो? आपके कारण ही मैंने एकाउंट्स एवं एडमिनिस्ट्रेशन के आला अधिकारीयों को बुलाया है।”

मुझे लगा, अब मैं बोलूं। बोलने के लिए उत्सुक हुआ कि आधुनिक महिला फिर हाथ के इशारे से और आँख दिखाकर मुझे चुपचाप बैठने का निर्देश देने लगी। संयोग अच्छा था। जॉइंट सेक्रेटरी महोदय इस बार उस महिला को आँख दिखाते हुए देख लिए। गुस्से में बोल पड़े: “यह क्या नॉनसेंस है? आप लोग खुद काम नहीं करते ऊपर से एक युवा शोधार्थी काम करने को उत्सुक है तो उसको नहीं करे ऐसा भय उत्पन्न कर रही हैं।” मेरी ओर देखते हुए वे बोले: “आप अपनी योजना बताइये। हमलोग कल ही उसपर मंथन करेंगे।”

डॉ टीना, गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए बोली: “सर, मैंने तो इसे पहले अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए निर्देश दिया था। हमलोग इसके साथ हैं। जैसे कहेगा उसपर मंथन करके कलेक्टिव प्रोजेक्ट बना देंगे।”
इस बीच डॉ त्रिवेणी  जो मेरी ही उम्र और श्रेणी की थी परन्तु मुझसे पहले से कार्य कर रही थी आगे आई और बोली कि वह भी मेरे साथ उत्तरपूर्व के परियोजनाओं पर कार्य करेगी। 
मैं बोला: “सर, निश्चित रूप से मैं अपने विभाग के शोध विद्वानों के साथ एवं एकाउंट्स के लोगों के साथ मिलकर ही परियोजना के सभी पक्ष पर गहन चिंतन कर उसका प्रारूप तैयार करूँगा। मेरा निवेदन केवल इतना है कि बेवजह एकाउंट्स अथवा एडमिनिस्ट्रेशन  मुझे किसी भी फाइल के साथ बार-बार  न बुलाये। इनको जो भी ऑब्जेक्शन, या सुझाव देना है तुरत लिखकर मेरे पास भेज दें। मैं उसका समाधान करूँगा।”

इस बात पर चीफ एकाउंट्स ऑफिसर एवं जॉइंट सेक्रेटरी राजी हो गये। मैंने अपने कुछ कार्यक्रम की रुपरेखा उन्हें मौखिक रूप से बता दिया। हम सभी वापस आने लगे। जॉइंट सेक्रेटरी मुझे बोले: “तुम मेरे पास आओ। कुछ बात करेंगे।“ 
जॉइंट सेक्रेटरी: “ये न तो खुद काम करेंगे ना ही तुझको काम करने देंगे। तुम मेरे पास अपनी परियोजना की कॉपी भेज दिया करो। मैं सभी को निर्देश दे दूंगा। कुछ और निर्देश देकर वे मुझे अगले दिन मिलने के लिए बोले। जब आया तो डॉ टीना अपने कक्ष में डॉ चिरकुट और डॉ त्रिवेणी को बैठाकर बाते कर रही थी। मेरे पहुँचते ही बोली: “मैंने तुमको कब मना किया था?” 
मैं चुप रहा, डॉ चिरकुट बोल पड़े: “कभी नहीं। सरकारी संस्थानों में तो प्रोटोकाल का पालन करना ही पड़ता है।”
मैं बोला: “मैंने किसको कहा कि आप मुझे मना कर रही थी?”
डॉ. टीना बोली: “जब जॉइंट सेक्रेटरी बोल रहे थे, मुझे तब तुम्हे बोलना चाहिए था कि, मैंने तुमको कोई निर्देश नहीं दिया था।”
मैं बोला: “आपने ही तो निर्देश दिया था कि सीनियर ऑफिसर के बीच नहीं बोलना चाहिए। फिर वे आपको कुछ बता रहे थे जिसमे मेरी भूमिका नहीं थी।”
संयोग से त्रिवेणी कुछ नहीं बोली। मै अपने रूम में आया तो देखा कि दो लोग असम से आये हुए हैं: श्री गौतम शर्मा, सचिव, श्रीमंत शंकरदेव कलाकेन्द्र; एवं उनके युवा सहयोगी श्री सत्यकाम गोगोई। दोनों ने अपना परिचय देते हुए कहा कि सदस्य सचिव ने आपसे मिलने के लिए कहा है।”
दोनों से मिलकर बहुत खुश हुआ। चार बजे सायंकाल से आठ बजे रात्रि तक अलग-अलग राज्यों के लिए परियोजनाए बनाते रहे। कुछ देर के लिए डॉ. त्रिवेणी को भी बुला लिया। 
सभी परियोजनाओं को उसी समय जॉइंट सेक्रेटरी को ईमेल कर घर के लिए चल पड़ा। रस्ते में उनका फोन आया कि उन्होंने मेरे ईमेल को पढ़ लिया है और सदस्य सचिव को भी फोर्वोर्ड कर दिया है। 

सुबह जाते ही मुझे जॉइंट सेक्रेटरी के यहाँ से बुलावा आया। इसबार मैंने डॉ. त्रिवेणी को साथ ले गया. जॉइंट सेक्रेटरी ने डॉ त्रिवेणी को निर्देश दिया कि सकारात्मक सोच के साथ वह काम करे। सदस्य सचिव के पास भी गए। उनके पास गौतम शर्मा पहले से पहुंचे हुए थे। डॉ चक्रवर्ती चीफ एकाउंट्स ऑफिसर, डायरेक्टर एडमिनिस्ट्रेशन और डॉ टीना को भी बुला लिए। सभी बजट को वही फाइनल स्वरुप दे दिया गया। डॉ. टीना मुझे खा जाना चाहती थी परन्तु थी लाचार। चुपचाप सभी फाइल्स पर अपना मुहर लगा दी। लेकिन मुझे बरबाद करने की कसम तो खा ही ली थी। उधर जॉइंट सेक्रेटरी ऑफिस से यह फरमान निकाल दिया गया कि डॉ. कैलाश और डॉ. त्रिवेणी उत्तरपूर्व भारत की सभी परियोजनाओं के लिए कोऑर्डिनेटर होंगे। 

चिट्ठी मिलते ही डॉ. त्रिवेणी कुछ अजीबोगरीब हरकत करते हुए डॉ चिरका के पास गयी। वे लोग वहाँ से डॉ टीना के पास गए। इन तीनो का यह सोचना था कि यह फरमान प्रोटोकाल एवं डॉ. त्रिवेणी के सेनिओरिटी का उलंघन है। डॉ चिरका के साथ डॉ त्रिवेणी पहुँच गयी जॉइंट सेक्रेटरी के ऑफिस। पी ए ने जाकर जॉइंट सेक्रेटरी को सभी बात बता दिया। दोनों भीतर गये। जॉइंट सेक्रेटरी डॉ चिरका से: “आप क्यों आये हैं? जाइए अपना काम कीजिये।” इस तरह से डॉ चिरका बेइज्जत होकर उनके कमरे से निकल पड़े। 
जॉइंट सेक्रेटरी: "डॉ त्रिवेणी आपकी क्या समस्या है?”
त्रिवेणी: “सर, प्रोटोकाल के हिसाब से मैं डॉ कैलाश से सीनियर हूँ।”
जॉइंट सेक्रेटरी बोले: “एक रैंक में सीनियर और जूनियर केबल प्रमोशन के समय देखा जाता है असाइनमेंट देने के समय नहीं। फिर भी अगर आपको समस्या है तो अभी आपका नाम इस प्रोजेक्ट से हटा देते हैं। नाम आगे नही आया, इसके लिए आप यहाँ तक डॉ चिरका को लेकर आ गयी हैं तो कल आप डॉ कैलाश को एक भी काम नहीं करने देंगीं।”
अब डॉ त्रिवेणी को अपनी गलती का एहसास हो चुका था। माफ़ी मांगते हुए बोली: “नहीं सर, हम दोनों अच्छे मित्र हैं।”

डॉ त्रिवेणी वापस आ गयी। मुझसे कहने लगी: “डॉ चिरका के कहने पर मै जॉइंट सेक्रेटरी के पास चली गयी थी। मैं भविष्य में तुम्हारे साथ मिलकर कार्य करुँगी।”
मैंने हंस के टाल दिया। अगले दिन 7 दिनों के लिए उत्तरपूर्व भारत की यात्रा करनी थी। पहली यात्रा में डॉ त्रिवेणी बीच-बीच में अपना सीनियर होने का रॉब दिखाती रही। एकबार नार्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी में मैं विद्वानों के समूह को समझा रहा था। डॉ. त्रिवेणी बीच-बीच में मुझे अकारण रोक देती। मैं लाचार हो जाता। हमारे संस्थान के एक डायरेक्टर भी साथ थे। वे बोल पड़े: “त्रिवेणी, आप चुप क्यों नहीं रहती? डॉ कैलाश को बोलने दो।”
अब डॉ त्रिवेणी चुप हो गयी। 
गौतम शर्मा मानो पुरे उत्तरपूर्व के लोगों को जानते हों। वे बहुत मृदुल, उद्यमी, और समय के अनुशासित थे। उन्होंने हमारा काम सहज कर दिया था। मणिपुर में जॉइंट सेक्रेटरी खुद हम लोगों से मिलने पहुँच गए। कार्य योजना देखकर खुश थे। 

जब हमलोग 10 दिन की यात्रा की समाप्ति के बाद दिल्ली आये तो मीटिंग में जॉइंट सेक्रेटरी ने सबके सामने यह बोला: “काम कैसे करना है, यह सीखना हो तो आप लोग डॉ कैलाश से सीखिए।”
यह वाक्य मेरे लिए काल बन गया। डॉ टीना और डॉ चिरका दोनों क्रुद्ध होते हुए उसी दिन से मेरे पीछे पड़ गए। काम तो मैं करता रहा लेकिन पांच साल के बाद मुझे इतना विवश किया गया कि मैंने अपना त्यागपत्र दे दिया। जानता हूँ कि उत्तरपूर्व भारत की ब्याख्या के लिए यह कोई जरुरी वाकिया नहीं है फिर भी सभी प्रकरण में यह भी एक महत्वपूर्ण कड़ी तो है है। इसपर फिर कभी लिखूंगा कि गलत लोगों ने मेरे साथ क्या-क्या प्रपंच रचे। अभी इतना ही। 
(क्रमशः) 

(नोट: अनेक नाम बदल कर लिखे गए हैं जिससे कोई वैधानिक समस्या न उत्पन्न हो।) 

© डॉ कैलाश कुमार मिश्र 

नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी पार्ट (15) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/07/15.html 
#vss

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