सम्राट जहांगीर की पत्नी नूरजहां का मकबरा ~
जहांगीर के मकबरे से बाहर आकर हम नूरजहां की समाधि की तरफ चल दिए जो जहांगीर की समाधि के निकट ही है। नूरजहां का नाम मेहरून्निसां था तथा उसने अपने जीवन काल में ही अपनी कब्र तैयार करा ली थी। भवन की ड्राइंग / आर्किटेक्चर स्वयं नूरजहां द्वारा तैयार किया गया था। इससे पूर्व आगरा में स्थित एत्मादुद्दौला, जिसमें नूरजहां के पिता मिर्जा ग्यास बेग की कब्र है, का आर्किटेक्चर आदि भी नूरजहां के द्वारा तैयार किया गया था। मकबरे में जाने के लिए कोई अलग से दरवाजा नही था। एक मैदान था जिसके मध्य में मकबरा बना हुआ था। यहां भी मकबरे में जाने के लिए कोई टिकट नहीँ था।
नूरजहां के मकबरे पर जहांगीर के मकबरे से भी अधिक वीरानी नजर आई। पर्यटकों के नाम पर केवल हम ही थे। अंदर के भाग में जहां नूरजहां की कब्र है वहां बहुत कम रोशनी थी और दीवारौं का प्लास्टर भी उखड़ा हुआ था। मुख्य भवन की दीवारें भी जगह-जगह से टूटी हुई थीं। कोई सोच भी नहीं सकता कि महारानी नूरजहां, जो अपने समय में इतनी शक्तिशाली थी कि सम्राट जहांगीर के राजकीय कार्यों में भी उसका हस्तक्षेप रहता था, उसके मकबरे की यह हालत होगी। वहां मौजूद एक व्यक्ति ने यह जानकर कि हम इंडिया से आए हैं हमें भूमिगत रास्ते से नूरजहां की असली कब्र पर ले जाने की कोशिश की परंतु रास्ते में इतना अंधेरा और सीलन थी तथा चमगादड़ उड़ रही थी कि हम बीच रास्ते से ही वापस आ गए।
ऐसा प्रतीत होता है कि पाकिस्तान में ऐतिहासिक स्थलों के रखाव पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। एक जगह कुछ लाल पत्थर रखे हुए थे तथा कुछ कारीगर भी वहां दिखाई दिए। उन्होंने बताया कि यह लाल पत्थर इंडिया के शहर आगरा से मकबरे की मरम्मत के लिए मंगाए गए हैं ताकि मकबरे को मूल वास्तविक रूप दिया जा सके। अब शायद मकबरे की हालत में सुधार होगा। नूरजहां के मकबरे को देखकर उर्दू के प्रसिद्ध कवि और गीतकार साहिर लुधियानवी की नूरजहां के मकबरे के बारे में लिखी गई कविता की यह चार पंक्तियां याद आ गयीं। शायद उन्होंने जब इस मकबरे को देखा होगा उस समय भी मकबरे की यही दुर्दशा रही होगी। कविता का शीर्षक है, 'नूरजहां के मज़ार पर',
सहमी सहमी सी फिज़ाओं में यह वीरां मरक़द।
इतना ख़ामोश है, फरियाद कुनां हो जैसे।
सर्द शाखों में हवा चीख रही हो जैसे।
रूहे तकदीस-ए-वफ़ा मरसिया ख्वां हो जैसे।
इसका अर्थ है कि डरे डरे माहौल में यह उजड़ा हुआ मकबरा इतना शांत है जैसे शिकायत कर रहा हो। पेड़ों की ठंडी टहनियों में हवा ऐसे चीख रही हो जैसे जन्म की साथी पवित्र आत्मा कोई दुख भरी कविता पढ़ रही हो।
नूरजहां के मकबरे से बाहर आए तो शाम हो गई थी। दिन भर घूमते घूमते थक भी गए थे इसलिए चाय पीने के लिए भी किसी होटल में नहीं गए। यह तय हुआ कि घर चल कर ही चाय पी जाएगी। रास्ते से खलीफा की दुकान से लाहौर की मशहूर नानखटाई चाय के साथ खाने के लिए खरीदी गयीं ।
(जारी)
मंजर ज़ैदी
© Manjar Zaidi
भारत के वह ऐतिहासिक स्थल जो अब पाकिस्तान में हैं (5)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/07/5_7.html
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