Saturday, 30 July 2022

डॉ कैलाश कुमार मिश्र / नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (17)



एसटीडी से जूझती मणिपुर की  महिलाएं:  मरने से पहले जीने की तमन्ना ~ 
 

निश्चित ही उत्तरपूर्व भारत से मेरा पूर्व जन्म का रिश्ता रहा है। कभी-कभी अवसर मिल ही जाते हैं वहां के किसी क्षेत्र में जाने के लिए। लोगों से मिलने और उनके जीवन के एक या अनेक पक्ष को समझने के लिए। सभी अनुभव अनूठे हैं।  एक-एक अनुभव को इन नैनों ने बंद कर रखें हैं अपने इंटरनल मेमोरी में। यह मेमोरी खास है साहब। इसमें वायरस आ ही नही सकता। इसका इनबिल्ट एंटी वायरस कमाल का है। यह मेमोरी मेरे साथ है, मेरे साथ रहेगा। यह मेरे सांसों के साथ लयबद्ध होकर मधुर झंकार करते हुए चलता है – तेरे बिना जिया जाये ना”! इसबार जो अनुभव बांट रहा हूं उसको धैर्य और मानवीय संवेदना को जागृत करके पढ़ें। समझें कि मृत्यु के पूर्व जो जीवन जीने का जज्बा है उसका आनन्द क्या है। अगर आप इस भाव से पढ़ेंगे तो मानवीय पक्ष के परतों को कतरा-कतरा समझते जायेंगे।

हुआ यह कि मैं एक अंतरराष्ट्रीय गैरसरकारी संस्था के लिए मणिपुर के दो केंद्र का विस्तृत बेसलाइन सर्वे कर रहा था। उद्देश्य यह भी था कि वहां का संपूर्ण एथनोग्राफीक दस्तावेज बना दूं। मैने वहां की एक नागा लड़की जो असम सेंट्रल यूनिवर्सिटी, सिलचर से सोशल वर्क में पीएचडी कर रही थी को रिसर्च स्कॉलर के रूप में रखा था। वह लड़की ईमानदारी से कार्य कर रही थी। आज वह मणिपुर ट्राइबल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर है। 

जब वह एक महीना तक कार्य कर ली तो मुझे लगा कि मैं जाकर देखूं कि बेसलाइन आख़िर किस दिशा में बढ़ रहा है। मैं वहां एक सप्ताह के लिए चला गया। उस केंद्र का संचालन एक मेतई महिला सामाजिक कार्यकर्ता कर रही थी। वे संजय गांधी के समय से ही युवा कांग्रेस से जुड़ी हुई थी। लगातार तीन बार से विधानसभा का चुनाव लड़ रही थी और हर बार चंद वोट से पराजित हो जाती थीं। लेकिन थी वह जीवट की। हार नही मानना मानो उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य था। अंततः एक ऐसा दिन भी आया जब वह चुनाव जीत गई। विधानसभा की सदस्य बनी और महिला विभाग की मंत्री भी बनी। दो बार लगातार जीती भी और मंत्री भी बनी रही। उनका रुतबा देखने लायक था। समाज सेवा में इतना निपुण थी कि पक्ष को छोड़िए विपक्षी भी उनका सम्मान करते थे। समाज सेवा के व्रत को पूरा करने के चक्कर मे उन्होंने आजन्म कुंवारी रहने का व्रत लिया था। 

तो हम उनके साथ कार्य कर रहे थे। उनके केंद्र पर उस गांव और अगल - बगल के 15 गांव से महिलाएं आती थी। जिस गांव में केंद्र था उसका नाम तुबैलुमा था। अनेक कार्यक्रम चल रहे थे। महिलाएं  शॉल, फनेक आदि बुन रहीं थीं। जीवन का क्रम चल रहा था। एक महिला चप्पल तो दूसरी जूते बनाने का कार्य कर रही थी। कुछ महिलाऐं स्वयं सहायता समूहों का संचालन कर मेंबर महिलाओं को लघु व्यापार जैसे चूड़ी, सब्जी, फल, आदि के लिए ऋण भी दे रही थीं। महिलाओं को नेतृत्व क्षमता विकसित करने के लिए, स्वरोजगार उन्मुख होने के लिए प्रशिक्षण भी दिया जा रहा था। कुछ महिलाऐं मधुमक्खी पालन का कार्य तो कुछ कुकुरमुत्ता की खेती भी कर रही थीं। जेंडर के प्रति जागरूक भी उन्हें किया जा रहा था। कुल मिलाकर यहाँ का माहौल अच्छा था। 

यह केंद्र विशिष्ट था क्योंकि इसमें मेतै, आदिवासी सभी महिलाएं आती थी। सबकी  सहभागिता निश्चित थी। लगभग 20 नागा महिलाएं भी जो इम्फाल शहर के अगल बगल की थी वे भी यहाँ आती थीं। 

मुझे लगा कि यह तो सबसे अच्छा केंद्र है। यहाँ पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है। सबसे बड़ी बात यह थी कि महिलाएं बहुत निश्चिन्त होकर अपने बेटी  और बहु को यहाँ भेजती थीं। उनको लगता था कि उनकी लड़कियां यहाँ सर्वाधिक सुरक्षित है। संचालक महिला का समर्पण भाव और निर्लोभ होकर कुछ कर गुजरने की भावना इस केंद्र के प्रति लोगों में बढ़ते विश्वास के कारण थे। 

मैंने सभी महिलाओं के अनेक समूह बनाकर उनसे वार्ता किया। उनकी समस्याएँ सुनी। अपनी समस्याओं का वे कैसा समाधान चाहते हैं, इसपर उनके विचार सुने। सभी योजनाओं के लागत मूल्य का अनुमान लगाया। बहुत कुछ सिखने के लिए मिल रहा था। सात दिन कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। सभी महिलाये मुझसे अपनी बात खुलकर कहने लगी। उनको एकाएक ऐसा लगने लगा कि कोई है जो उनकी बात को गम्भीरता से सुनता है। उसपर कुछ करना भी चाहता है। 

मेरे दिल्ली वापस आने से दो दिन पहले सायंकाल तीन लड़कियां मेरे पास आई। मैंने उन्हें बैठने के लिए कहा। वे बैठ गयीं। लगभग दस मिनट तक कुछ नहीं बोली। कभी मेरी तरफ देखती कभी सिर नीचे झुका कर धरती माता के मिटटी कण को निहारने लगती। उनके जीवन में उल्लास और दर्द के मिश्रित तरंग उत्पन्न हो रहे थे। कभी दर्द अपना उफान दिखाना चाहे तो कभी उल्लास। वे सही अर्थ में दोनों की उभयवृत्तता में झूल रही थी। कुछ तो इनकी समस्या अलग है, इतना तो मैं समझ गया था। मैंने सोचा ये समय ले लें अपनी बात को सहजता के साथ मुझे समझने के लिए। यह भी सच है कि मौन होकर किसी के साथ कुछ पल रहने से आपको अधिक गंभीर बना देता है। आप उस मौन से उर्जा प्राप्त कर अधिक गंभीर बात आत्मविश्वास से कर सकते हैं। मैं चुपचाप उनके विचारो के तूफान का अवलोकन करता रहा। 

15 मिनट के बाद उनमे से एक लड़की बोली: “मिश्र सर, हमलोग आपसे बात करना चाहते हैं। हमलोगों का एक समूह है जिसमे 42 महिलाएं हैं। सभी की एक खास समस्या है। वे सभी आपसे बात करना चाहती हैं। लेकिन वहाँ केवल आप होगे और वे महिलाएं होंगी। केंद्र के बड़े हाल में हमलोग अगर आप अपनी सहमति प्रदान करेंगे तो इस मीटिंग का आयोजन कल पांच बजे सायंकाल करेंगे।”

मुझे लग गया कि कुछ तो विवशता है इनकी। मैं भी कुछ मिनट के लिए मौन हो गया। सोचने लगा: “महिलाओं के विशाल दल के साथ अकेले में बात करना उचित रहेगा क्या?” फिर सोचा: “चलो कर लेते हैं।”
इधर दोनों लड़कियां मेरी स्वीकृति का इन्तजार करती रही। मौन भंग करते हुए मैं बोला: “ठीक है, कल ठीक पांच बजे सायंकाल हमलोग एक घंटा के लिए मिलते हैं।” वे लोग मुस्कान बिखेरते हुए धन्यवाद देकर चली गयी। जाते समय उनके पदचापों की गति उनके उत्साह के साक्षी बन रहे थे। 

खैर! रात भर मैं नही सो पाया। सदैव सोचता रहा: “आखिर ये महिलाएं कौन हैं? एक दो तो हैं नहीं इनकी संख्या 42 हैं और ये सभी मुझसे अकेले में क्यों मिलना चाहती हैं? मैं इतना भी सामर्थ्यवान तो नहीं कि इनके लिए कुछ कर पाऊं। आखिर इनकी समस्या क्या है?”

खैर, दुसरे दिन निर्धारित समय से पांच मिनट पहले ही मैं उनसे मिलने के लिए तैयार था। ठीक पांच बजे वही दो लड़कियां मेरे पास आई और बोली: “चले उस हॉल में सर हमारे समूह की महिलाओं से मिलने के लिए?”
मैं बोला: “जी चलते हैं। मैं तो पांच मिनट से आपलोगों का इन्तजार कर रहा था।” यह कहते हुए मैं उनके साथ प्रथम तल पर बने उस विशाल कक्ष की ओर चल पड़ा। कक्ष में कोई भी नहीं था। करीब पचास कुर्सी लगे हुए थे। मुझे बीच के कुर्सी पर बैठने के लिए निर्देश दी। मै बैठ गया। अब रूम को बंद कर दिया गया। सभी लाइट बंद कर दिए गए। रूम में पूरा अंधकार था। मैं कौतुहल की दृष्टि से सभी कुछ देखता रहा। कुछ ही क्षणों में मुझे अनेक पदचापों का अनुभव हुआ। अँधेरा अभी भी छाया हुआ था। इतना तो स्पष्ट था कि सभी कुर्सियों पर महिलाएं आकर बैठ रही थी। शायद उनको निर्देश था कि वे किसी तरह की आवाज न निकालें। पांच मिनट के अन्दर फिर से सभी बल्व को जला दिया गया। अब मैने देखा कि 42 महिलाएं कुर्सियों पर बैठी हुई हैं। सभी अपने अपने मुंह को एक ओढ़नी से ढकी हुई थीं। 
सबने एक साथ खड़े होकर मेरा अभिवादन किया। उनमे अनेक महिलाये ऐसी थी जो मेरे से ना तो हिंदी में न ही अंग्रेजी भाषा में वार्तालाप कर सकती थी। हाँ अन्य लड़कियां उनके और मेरे बीच दो भाषिये का कार्य कुशलतापूर्वक निभाने लगीं। अब एक महिला उठी और अपने बुर्के को उठाते हुए सभी महिलाओं को पर्दा उठाने का निर्देश दी। उसके निर्देश मिलते ही सभी महिलाओं ने अपने-अपने मुंह पर से पर्दा उठा लिया। वह महिला तब तक खड़ी रही। फिर बोली: “सर, हमलोग आपका पुनः स्वागत करते हैं। आपको बताना याह चाहती हूँ कि हम सभी महिलाये HIV पॉजिटिव हैं अर्थात सेक्सुअली ट्रांसमिटेड डिजीज के मरीज हैं। अधिकांश केस में गलती महिलाओं की नहीं है। हमारे पति इस वीमारी को बाहर से लाकर हमे संक्रमित करते हैं। जो भी हो अब तो हम सभी इसके कुचक्र में फंस चुके हैं। हमलोग अभी भी अपना जीवन जी रहे हैं। हमें अपने से अधिक बच्चो की चिंता है। हम मरने से पहले जीना चाहते हैं। अपने बच्चो के बेहतर जीवन जीने के लिए जीना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे हमारे इस दुनिया से चले जाने के बाद सड़कों पर भीख न मांगे। बाज़ार में पॉकेटमारी न करें। वे सभ्य नागरिक बने। पढ़े। उन्हें आर्थिक विपन्नता का भार न झेलना पड़े।” इतना कहकर वो महिला बैठ गयी। 

अब दूसरी महिला खड़ी हुई। वह बोली: “सर, हमने सभी को आपके बारे में बता दिया है। फिर भी मैं चाहती हूँ कि अब एक-एक महिला अपना अति संक्षिप्त परिचय आपको दे। अंत में आप स्वयं इनको अपने बारे में बता दें।”
मैंने सिर हिलाकर स्वीकृति दे दी।
अब सभी महिला अपना परिचय देने लगी। लगभग एक घंटा परिचय में चला गया। सभी को उनके बारे में उनके मुंह से जानना अच्छा लग रहा था। बहुत कुछ समझ पा रहा था। नारी उत्थान के लिए लोग क्या कर रहे हैं, इसको समझ पा रहा था। कथनी और करनी के अंतर को देख पा रहा था। अंत में अपना परिचय देते हुए मैंने उनसे कहा: “मेरा नाम कैलाश कुमार मिश्र है। मैं कुछ संस्थाओं के लिए कंसल्टेंसी करता हूँ। आपकी बात उनतक रखता हूँ। योजनाओं का प्रतिवेदन तैयार करता हूँ । उसको कैसे और कितना वे स्वीकार करते हैं यह उनपर, उनकी आर्थिक स्थिति, उदेश्य आदि पर निर्भर करता है।”

एक महिला उठी और बोलने लगी: “सर, हमलोगों को दवाई एवं अन्य सुविधाए किसी न किसी तरह से सरकारी संस्थाओं से मिल जाती हैं। हमलोग चाहते हैं कि हम सभी 42 महिलाये मिलकर लगभग 9 तरह के लघु एवं कुटीर उद्योग का सञ्चालन अलग-अलग गांवो में करे। हमने डिटर्जेंट, चप्पल, बिस्कुट्स, स्थानीय खिलौने, बेकरी, जनरल स्टोर आदि के लिए परियोजना का निर्माण भी कर लिया है। हमलोगों का अपना स्वयं सहायता समूह भी है। हमारी समस्या अर्थ की है। हम आपसे निवेदन करते हैं कि आप संस्थाओं के बात करें एवं हमारी परियोजनाओं के लिए हमें बैंक के इंटरेस्ट पर मूलधन उपलब्ध करा दें। हमलोग धीरे-धीरे सभी कर्ज सूद के साथ वापस कर देंगे। अगर यह हो जायेगा तो हम सभी चैन की जिन्दगी जीते हुए चैन से मर सकेंगे।” इतना कहकर वह भद्र महिला बैठ गयी। 
मुझे समझ में नही आ रहा था कि मैं क्या बोलूं? हिम्मत बटोरते हुए मै बोलने लगा: “मुझपर विश्वास करने के लिए आप सभी का धन्यवाद। जैसा कि मैंने अपने इंट्रोडक्शन में बता दिया है, मैं निर्णय लेने वाला अधिकारी नहीं हूँ। आप सबों की परियोजनाए मुझे बेहद प्रमाणिक लग रहे हैं। मै एक काम कर सकता हूँ कि इन डाक्यूमेंट्स को अपने साथ रख लूँ। इस संस्था एवं अन्य संस्थाओं के निर्णय लेनेवाले अधिकारी से बात करूँगा। अगर उनलोगों ने किसी तरह का इंटरेस्ट दिखाया तो उन्हें लेकर आपके पास आऊंगा।”

मेरे इतना कहने पर सभी महिलाओं ने अपनी छवि, पता और मोबाइल नंबर मुझे दे दीं। मैंने उन्हें फिर आश्वासन दिया: “आप लोगों की छवि, मोबाइल नंबर और पता मैं किसी को तबतक नहीं दूंगा जबतक वे आपके प्रोजेक्ट को स्वीकार न कर लें।”
इसके बाद हम लोग अनेक तरह की बाते करते रहे। उस समूह में मेतै, अनेक आदिवासी समूह की महिलाएं भी थीं। किसी का उम्र 35 से अधिक नहीं था। सभी सुंदर थी। आशावान थीं। एक आध को छोड़कर सभी के बाल बच्चे थे। कितनी महिलाये ऐसी भी थीं जिनके पति को यह है। उन्ही से इनको हो गया है । पति अभी भी उनके साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करते हैं। एक तो इस अवस्था में भी गर्भवती थी। राम ही जाने, क्या होगा उनका!

अंत में मैंने उन सभी को अगले दिन के भोजन के लिए इसी स्थान पर निमंत्रित किया। वे सभी तैयार हो गयी।
मणिपुर से दिल्ली आने पर मैंने अपने इंटरनेशनल NGO एवं अनेक संगठनों से बात किया। सभी बात बनाते रहे। किसी ने इनकी समस्या को सुलझाने का जिम्मा नहीं लिया। NGOs ऐसे ही रिपोर्ट में चमकते रहते हैं। आजकल रंगीन, आंकड़ों से भरे, सिंगल स्टोरी से भरे रिपोर्ट पढ़ने को मिलते रहते हैं। लोग फोटोबाज बनते जा रहे हैं। ग्रास रूट की कौन सुनता है! इट हप्पेंस ओनली इन इंडिया!
(क्रमशः) 

© डॉ कैलाश कुमार मिश्र

नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (16) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/07/16.html 
#vss

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