Sunday, 31 July 2022

आए भी वो, गए भी वो, खत्म हुआ फ़साना सारा / विजय शंकर सिंह

राकेश अस्थाना, गुजरात कैडर के आईपीएस अफसर हैं और अभी अभी रिटायर हुए हैं। वैसे तो उन्हे एक साल पहले रिटायर हो जाना चाहिए था, पर उनके रिटायरमेंट के ठीक पहले केंद्र सरकार ने, उन्हे एक साल का सेवा विस्तार दे दिया था और उन्हें दिल्ली का पुलिस कमिश्नर नियुक्त कर दिया था। सरकार के इस फैसले पर पुलिस सहित अन्य नौकरशाही में भी फुसफुसाहट हुई, और आंखों आंखों और इशारों में लोगों ने तबादला ए खयालात किया। नौकरशाही की एक मजबूरी यह भी है कि, वह ऐसे, शो मी योर फेस, आई विल शो यू द रूल, (Show me your face, I will show you the rule) जैसे उदाहरणों पर फुसफुसा ही सकती है। और ऐसी फुसफुसाहटों को व्हिस्पर्स इन कॉरिडोर यानी गलियारों की फुसफुसाहट कहा जाता है। यह गलचौर, अक्सर तनाव कम भी करता है जो नौकरशाही का एक समय के बाद, स्थाई भाव बन जाता है। 

दिल्ली यूटी कैडर के अंतर्गत आती है तो, यूटी कैडर के पुलिस अफसरों की स्वाभाविक इच्छा होती है कि वे राजधानी के पुलिस कमिश्नर पद को सुशोभित करें। पर नियमों के अनुसार, यह कोई बाध्यता नहीं है कि, यहां यूटी कैडर के ही आईपीएस नियुक्त हों। पहले भी अन्य प्रदेशों के आईपीएस दिल्ली के पुलिस कमिश्नर रह चुके हैं। बल्कि दिल्ली के पहले पुलिस कमिश्नर, जे एन चतुर्वेदी, यूपी कैडर के आईपीएस थे जो बाद में यूपी के डीजीपी भी बने। वे बहुत काबिल और तेज तर्रार अफसर थे। राकेश अस्थाना के बाद जो सज्जन दिल्ली पुलिस कमिश्नर के पद पर नियुक्त हुए हैं, वे भी यूटी कैडर के नहीं हैं, बल्कि वे तमिलनाडु कैडर के हैं। 

राकेश अस्थाना की सेवा विस्तार के बाद हुई उनकी नियुक्ति पर काफी विवाद हुआ था, जिसका कारण, अचानक एक साल का सेवा विस्तार, जो आज तक किसी भी आईपीएस को नहीं मिला था, और सीबीआई में डायरेक्टर सीबीआई से उनके विवाद, जब वे स्पेशल डायरेक्टर थे, था, है। राकेश अस्थाना के इस सेवा विस्तार और दिल्ली पुलिस कमिश्नर के पद पर उनकी नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट के वकील, प्रशांत भूषण ने एक पीआईएल दायर कर के, सुप्रीम कोर्ट में उनके सेवा विस्तार और नियुक्ति को चुनौती भी दी थी। मैं उन दलीलों के विस्तार पर नहीं जाना चाहता, जिनके आधार पर यह पीआईएल दायर की गई थी। उस पीआईएल पर अदालत में एक या दो तारीखें पड़ी, पर कोई नतीजा नहीं निकला और अब उस पीआईएल का कोई मतलब भी नहीं रहा, क्योंकि अब राकेश अस्थाना रिटायर हो गए हैं। 

यहां एक महत्वपूर्ण सवाल, यह उठता है कि, जब सुप्रीम कोर्ट ने, इस पीआईएल को सुनवाई के लिए स्वीकार किया तो, इस पर प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई क्यों नहीं की। क्योंकि यदि उस पर फैसला जल्दी नहीं आता है तो फिर ऐसे पीआईएल का औचित्य ही नहीं रहता है। साल भर बाद तो वैसे भी राकेश अस्थाना को रिटायर हो जाना था, जो वह हो भी गए। वैसे भी सरकार, किसी भी अफसर की नियुक्ति, तबादले और सेवा विस्तार देने के लिए नियम बनाती है और खुद ही, 'जनहित' शब्द की आड़ में ऐसे नियमों को, शिथिल करके, अपनी इच्छानुसार नियुक्तियां करती रहती है। उन पर विवाद भी मचता है, फुसफुसाहटें भी उभरती हैं, पर होता वही है, जो सरकार चाहती है। यह वर्तमान सरकार के संदर्भ में नहीं हर सरकार के संदर्भ में लागू है। 

सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस पीआईएल को या तो सुनवाई के लिए स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए था, और यदि स्वीकार कर लिया गया तो इसकी सुनवाई प्राथमिकता के आधार पर, यह ध्यान में रखते हुए करनी चाहिए थी कि, एक साल बाद, इस पीआईएल का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। इस प्रकार, सुनवाई में प्राथमिकता न देने के कारण, ऐसी पीआईएल से, एक संदेश यह भी जाता है कि अदालत, किन्ही विशेष कारणों से इसे सुनना नहीं चाहती है, बल्कि इसे लटकाए रखना चाहती है। पिछले आठ सालों में सुप्रीम कोर्ट में, इलेक्टोरल बांड, अनुच्छेद 370 में संशोधन, सीएए नागरिकता अधिनियम, यूएपीए सहित कई मामले लंबित हैं जो बेहद महत्वपूर्ण हैं, और इन मामलो के आगे राकेश अस्थाना का यह मामला कहीं नहीं ठहरता है। 

अभी दो और महत्वपूर्ण मामले हैं, एक पेगासस से जुड़ा और दूसरा महाराष्ट्र के एकनाथ शिंदे गुट के दलबदल का मामला। दोनो की सुनवाई अगस्त में ही होने की उम्मीद है। पीआईएल, जनहित याचिकाएं होती हैं और जिन याचिकाओ में व्यापक जनहित निहित हो या महत्वपूर्ण संवैधानिक विंदु हो, उन्हे अदालत द्वारा पहले निपटाया जाना चाहिए। जब एक्जीक्यूटिव यानी कार्यपालिका के प्रति, निराशा छाने लगे और विधायिका लगभग अप्रासंगिक होने  लग जाय, तो उम्मीद, न्यायपालिका से स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है। आज लगभग ऐसी ही स्थिति है। अब यह जिम्मेदारी, न्यायपालिका की है कि वह उस उम्मीद के प्रति कैसे अपने आपको ढालती है। 

(विजय शंकर सिंह)

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