भेषजीय नमक और चिकित्सा - "अ" ~
काम करने और समझने का अनुभव बहुत हैं । मन अकुलाहट में है कि मन का भड़ास लिख दूँ । जानता हूँ कभी-कभी बातों और घटनाक्रम को ऐतिहासिक कसौटी पर क्रमवार नहीं लिख पाता। मन का सुनना और फिर लिखना वह भी ईमानदारी से लिखना एक सुखद अनिभूति अवश्य देता है। जब मित्र और पाठक पढ़ते हैं, अनुभव के लेखन को पसंद करते हैं तो मन और आनंदित हो जाता है । हार्नबिल उत्सव का हैंगओवर से अभी मुक्त नहीं हुआ हूँ। एक-एक प्रसंग पर ठहर जाता हूँ । लगता है एक-एक विवरण लिखूं। फिर एक भय यह भी है कि पाठक कहीं पढ़ने में लय न खो दें। चेतन और गंभीर मन कहता है कि ईमानदारी से और संक्षिप्त होकर लिखना ही श्रेयस्कर होगा।
पुनः हार्नबिल उत्सव पर आता हूँ। इस उत्सव में हम सभी रम गए थे। वादे के अनुसार डॉ कल्याण कुमार चक्रवर्ती भी प्रारंभ में ही कोहिमा पधार चुके थे। उन्हें तीसरे दिन वापस दिल्ली जाना था। वे अपना एक-एक मिनट हमलोगों के साथ बिताने लगे। एक-एक नागा समाज के बुजुर्गों से, कलाकारों से, जन प्रतिनिधियों से मिलकर वे उनकी परम्परा के हृदय में प्रवेश करना चाहते थे। अनुभव को अपनी डायरी में विस्तार से लिखते जा रहे थे। उनसे बहुत कुछ हम सीख रहे थे। शायद बिना कुछ कहे वे गुरु की भूमिका, मेरे लिए ईमानदारी से निभा रहे थे। नागा युवक और युवतियां जिनका चयन हमने उनकी परम्परा को लिखने और समझने के लिए किया था, सभी डॉ चक्रवर्ती से प्रभावित थे। डॉ चक्रवर्ती कम समय में कितना अधिक प्रमाणिक डाटाबेस तैयार किया जा सकता है, इस ज्ञान के स्टोर हाउस थे।
जड़ी बूटी वाले नागाओं के दल मुझे बहुत आकर्षित कर रहे थे । उनमे बहुत कुछ खास था, हमलोगों को सीखने और समझने के लिए। वे तरह-तरह की जड़ी बूटियों से, कंद मूल से, एवं अन्य पदार्थों से अनेक भेषज का निर्माण कर अनेक तरह की रोगों का इलाज करने का दावा कर रहे थे। स्थानीय लोगों को उनके दावे में कहीं भी कोई शंका नही था। जो जड़ी बूटियों के विशेषज्ञ थे। वे मनोविज्ञानिक बातों को भी जानते थे । उनके लिए चिकित्सा केवल भेषजीय मिश्रण का देना ही नहीं है। चिकित्सा एक समाजिक व्यवस्था है जिसमे चिकित्सक एक रोगी की मनोस्थिति को समझने का प्रयास करता है। चिकित्सा में भूत प्रेत, जादू टोना, मन्त्र, यंत्र, पूर्वजों का आशीर्वाद, देवी और देवताओं की कृपा, गान, नृत्य, बलिप्रदान और न जाने क्या-क्या सम्मिलित है। दवाई को कब देना है, कैसे देना है, किस दिशा में देना हैं, किस दिशा में नहीं देना हैं, किसके सामने देना है, किसके सामने नहीं देना है, उसका पथ्य और परहेज क्या है, इन सभी चीजों और निर्देशों को स्पष्ट किया जा रहा था। आस्था, चिकित्सा और इलाज के साथ ताल में ताल मिलाकर चल रही थी। मरीज और चिकित्सक के मध्य विश्वास और आस्था प्रबल था। कोई किसी पर शंका करने की सोच भी नही सकता था।
हमलोगों के साथ प्रोफेसर आनंद चरण भगवती भी थे। प्रोफेसर भगवती मानवविज्ञान के पंडित थे। गुवाहाटी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे। राजीव गाँधी केन्द्रीय यूनिवर्सिटी, ईटानगर के वाईस चांसलर भी रह चुके थे। निर्मल कुमार बोस के सानिध्य में रहकर उन्होंने बहुत कुछ सिखा था। किस्सागोई कला के बहुत बड़े महारथी थे प्रोफेसर भगवती। लिखते बहुत कम थे और बातें बहुत करते थे। अनुभव का पिटारा था उनके पास। उत्तरपूर्व के आदिवासियों पर गहन कार्य किया था उन्होंने। हमने उन्हें भी बुला लिया था अपने पास। उनका साथ होना हमारे लिए संजीवनी बूटी के होने जैसा था। हरेक प्रकरण को वे समझ रहे थे। हमें जहाँ भी शंका हो हम उनके पास चले जाते। वे संकटमोचक बनकर हमारे लिए आ जाते। अपने अनुभव से और नागा से बात करके एक-एक गुत्थी को स्पष्ट करते। कहीं भी उन्होंने हमें भ्रम में नहीं रहने दिया। हमने अनुभव किया कि नमक को भी वहाँ के आदिवासी वैद्य, जड़ी बूटी ही मान रहे थे। नमक था भी कुछ अलग तरह का। गोलाकार या यों कह लीजिये कि गोल-गोल रोटी (चपाती) के जैसा। प्रोफेसर भगवती ने बताया कि यह समुद्री नमक नहीं है ।
“फिर क्या है यह, सैंधा नमक?”, मैंने पूछा।
प्रोफेसर भगवती: “नहीं यह भेषजीय नमक है। यह सभी अर्थ में अपने अंदर अनेक जड़ी बूटियों को समेटे हुए है। यह स्थानीय नमक है। इसे इसके विशेष जल को विशेष स्थान में कुँए में डालकर फिर उस जल से बनाया जाता है।”
अब मैं उस युक्ति में लग गया कि इस भेषजीय नमक के बारे में जानू कि आखिर यह है क्या और कैसे बनता है। यह प्रश्न मैंने एक नागा चिकित्सक या वैद्य से किया। वह बोला:
“पहले तो यह नमक नागालैंड में भी बनता था लेकिन अब समुद्री नमक के आने के बाद यहाँ बनना बंद हो गया है। अभी भी यह नमक मणिपुर और असम के कुछ जगहों में बनता है। यह नमक हमलोग औषधि बनाने में प्रयोग करते हैं। यह पवित्र नमक है और औषधि युक्त भी।”
मेरा मन इतने से खुश नहीं था। मुझे इतना विश्वास तो अवश्य हो गया था कि नमक का इतिहास जरुर ही महत्वपूर्ण होगा। इसको किसी न किसी तरह से खोज निकालना है। हम इसके लिए लग गए।
भेषजीय ज्ञान के विस्तार और आयुर्विज्ञान में भी नमक का प्रयोग एक प्रमुख अवयव के रूप में होता रहा है। 2700 ई. पू. चीन में चिकित्सा पद्धति और भेषजीय ज्ञान की पाण्डुलिपि में 40 प्रकार के नमक का वर्णन मिलता है जिसका उपयोग अनेक औषधियों के निर्माण में वहां के वैद्य या औषधि वैज्ञानिक किया करते थे। कुछ घुमक्कड़ प्रजाति के लोग नमक को ढोने और एक जगह से दूसरी जगह ले जाने एवं नमक के बदले अन्य भोज्य एवम उपयोगी वस्तु के आदान-प्रदान की क्रिया में दक्ष थे।
हम सूत्र ढूंढने लगे। फिर पता चला कि मणिपुर यूनिवर्सिटी के म्यूजियम में मेरी एक मित्र रहती हैं डॉ बिलासिनी देबी। उन्होंने भेषजीय नमक पर कार्य किया है। मेरे पास उनका नंबर था। मैंने उन्हें फोन किया। वे बहुत हर्षित हुई और कहने लगी
“मणिपुर में अभी भी निंगेल नामक जगह है जहाँ नमक बनाया जाता है । आप मणिपुर आयें मैं आपको विस्तार से पूरी प्रक्रिया बताउंगी और इसके बारे में समझाउंगी।”
अब मेरा काम आसान हो गया था। इतना अवश्य था कि नागालैंड से मणिपुर जाना और डॉ बिलासिनी देबी के साथ रहकर इस प्रक्रिया को अच्छी तरह समझना मेरे लिए अत्यावश्यक था। मैंने ठान लिया था कि इसको समझना ही है।
नागालैंड से वापस आते ही मैंने मणिपुर का टूर प्लान तैयार किया। डॉ चक्रवर्ती उसके लिए तैयार हो गए। मैं मणिपुर चला गया। डॉ बिलासिनी देबी से मिला। वह बहुत ही उदार और विनम्र महिला थी। मणिपुर के टेक्सटाइल परम्परा और नमक पर अच्छा कार्य कर रही थी। नमक का जिक्र आते ही कहने लगी:
“नमक दुनिया का पहला विनिमय का प्रतिमान है। लोग पहले वेतन के बदले नमक दिया करते थे क्योंकि अनाज, एवं अन्य सामग्रियों की तुलना में नमक कम देकर काम चलाया जा सकता था । यह तब की स्थिति है जब समुद्री नमक का इजाद नहीं हुआ था। अतः सैलरी शब्द साल्ट अर्थात नमक ने बना है। साल्ट से सलाद शब्द का विन्यास हुआ है। प्राचीन रोमन सभ्यता के लोग हरी और पत्तीदार सब्जियों (leafy vegetables) नमक के पानी में डुबोकर उसको जायकेदार बनाते थे। इस तरह से नमक के जल से भीगे पत्तीदार शब्जी को सलाद कहा गया। महात्मा गाँधी ने नमक आन्दोलन के बदौलत ही भारतीय राजनीती में आगे आये।”
अब मुझे नमक का महत्त्व समझ में आने लगा था। मैंने झारखंड के आदिवासियों को नमक के बदले महुआ के फुल, चिरौंजी, लकड़ी आदि का विनिमय करते देखा था। मुझे लगने लगा की निश्चित ही नमक आदिवासी समाज को बाहरी समाज से जोड़ने में अहम् भूमिका निभाया होगा। हम बात को आगे बढ़ाते गए।
पूर्वोत्तर भारत के लोग करीब 1300 वर्ष से लगातार एक विशेष जगह के पानी को इकट्ठा करके उससे भेषजीय नमक का निर्माण करते आ रहे हैं। इस नमक को स्थानीय भाषा में मैतेई थुम्बा कहा जाता है। यह प्राकृतिक रूप से आयोडाइज्ड, भेषजीय गुणों से पूर्ण, शाकाहारी, शुद्ध एवं स्वादिष्ट है। पूजन, भोज्य सामग्री, कर्मकाण्ड आदि में अभी भी इसी नमक का प्रयोग किया जाता है।
इसलिए प्राचीन समय में यहां समुद्री नमक मिलना सपने जैसा था। मृत पहाड़ नहीं होने के कारण प्रस्तर नमक जैसे सेंधा नमक की भी उपलब्धता नहीं थी। यहां के लोग प्रकृति में कुछ विशेष स्थान का खोज कर लिए थे जहां पर लवणयुक्त पानी की उपलब्धता है और उस पानी से कुछ प्रक्रिया के बाद उत्तम क़िस्म के भेषजीय नमक का निर्माण किया जाता है। कुछ जाति विशेष के लोगों ने परंपरागत विधि से उस लवणयुक्त जल को संग्रह करना, उसे साफ करना, फिर अग्नि पर चढ़ाकर नमक बनाने की क्रिया में अपने को पारंगत किया है। ये न केवल नमक का निर्माण करते हैं बल्कि उस नमक में भेषज, जड़ी-बूटी का प्रयोग करते हैं, नमक को एक निश्चित केक या प्लेट की आकृति का रूप भी देते हैं। सहजता से उपलब्ध कुछ चीजों का प्रयोग करते हैं जिससे नमक रवादार किंतु महीन और दूध की तरह सफेद और उज्जवल हो जाता है। यह नमक स्वाद में मीठा होता है और उच्च रक्तचाप से पीड़ित लोगों के लिए बहुत ही अच्छा है। अब यातायात की सुविधा हो जाने के कारण, वैश्वीकरण के कारण और आधुनिकता के कारण यहां के लोग भी धीरे धीरे इस नमक के व्यवहार को ख़त्म करते जा रहे हैं। यहां भी अब धड़ल्ले से विभिन्न ब्रांड के नमक का प्रयोग होने लगा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि जो लोग इस प्रक्रिया में लगे थे उन्होंने इस काम को छोड़ दिया है। ऐसे में मात्र निंगेल गांव के 6-8 परिवार इस कला को संभाले हुए हैं।
निंगेल गांव चारो दिशाओं से पहाड़ियों से घिरा एक घाटीनुमा का गांव है। इसे देखते ही लगता है जैसे प्रकृति के गोद मैं कोई बच्चा निराकार भाव से बैठा है। निश्छल, सुन्दर, रम्य, छोटा गांव है निंगेल। हंसते लोग, प्रकृति के अवयव - पेड़, पौधे, झील, कुआं, तालाब, खेत खलिहान, पक्षी, फूल, फल। निंगेल मणिपुर के थौबाल जनपद में है और राज्य की राजधानी इम्फाल से करीब 31 किलोमीटर की दुरी में पूर्व दिशा की और अवस्थित है।
यह नमक की कहानी का पूर्ण विराम नही है। अभी मैं अर्धविराम में ही अटका हुआ हूं। अगले अंक में इसको पूर्ण करूंगा। अभी के लिए इतना ही।
(क्रमशः)
© डॉ कैलाश कुमार मिश्र
नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता : आंखन देखी पार्ट (8)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/07/8_11.html
#vss
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