Monday, 4 July 2022

कनक तिवारी / हिन्दू, हिन्दुत्व, सेक्युलरिज़्म और मुसलमान (7)

धर्मनिरपेक्षता में कितने पेंच ~

(1) संविधान के अनुच्छेद 25 में स्पष्ट है ‘लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।‘ संविधान में हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, पारसी, सिक्ख, जैन आदि धर्मों की कानूनी परिभाषा नहीं दी गई है। 

(2) राज्य धर्म को नष्ट करने या उसकी हेठी करने के लिए नहीं है की थीसिस का हरिविष्णु कामथ ने समर्थन किया। अंत में यही तय हुआ कि राज्य हर एक मजहब के लिए समान आदर रखेगा। यह नेहरू के विचारों के इर्द गिर्द कहा जा सकता है। ऐसी मनोवैज्ञानिक समझ सर्वधर्म समभाव और पंथनिरपेक्षता की व्याख्या के बीच संतुलन भी बिठाती है। नेहरू धर्म को शक्ति के रूप में देखते थे जिससे परिवर्तन तथा प्रगति बाधित भी हो सकते हैं। उन्होंने ऐसी मान्यताओं को सेक्युलर राज्य की अवधारणा पर हावी नहीं होने दिया। उनका कहना था, सेक्युलर राज्य अधार्मिक राज्य नहीं है। आशय यही है हम हर धर्म का न केवल सम्मान करें, बल्कि उसे आजादख्याली के साथ कार्यरत रहने दें। वे एक धर्म को दूसरे धर्म अथवा राज्य की स्वायत्तता में दखल देने के खिलाफ थे। उनकी राय में राज्य को प्रत्येक धर्म से सैद्धांतिक दूरी बनाकर रखनी चाहिए। यही संवैधानिक सेक्युलरवाद का सच्चा अर्थ हो सकता है। धर्मों का बहिष्कार अथवा उनके प्रति निश्चेष्ट तटस्थता का आशय नेहरू का नहीं था। संविधान सभा में नेहरू सिद्धांततः अल्पसंख्यकों को अनावश्यक रियायत देने के पक्ष में भी नहीं थे। उनका सोचना था इस तरह सुरक्षा देने से अल्पसंख्यक मुख्य धारा से अलग हो जाएंगे और उन्हें अपनी स्वायत्तता बचाए रखने की ज़्यादा चिंता होगी, बनिस्बत अपना सर्वांगीण विकास करने के। 

(3) राधाकृष्णन भी नेहरू के समर्थन में कहते रहे कि भारत की मंजिल एक सघन लोकतांत्रिक राज्य के रूप में विकसित होने में है। यह थ्योरी लेकिन गांधी के आदर्शों से समानांतर और अलग थी। संविधान सभा में नेहरूवादी तथा हिन्दू राष्ट्रीयतावादी वैचारिकों के बीच लगातार विवाद होता रहा है।  ऐतिहासिक तथा तात्विक अवधारणाओं की पृष्ठभूमि में भारतीय सेक्युलरवाद से कई संवैधानिक सवाल होते हैं। यह भी कि ऐसी अवधारणाओं को किस तरह सक्रिय और लागू किया जाए। एक वैचारिक-स्कूल सभी धर्मों से बराबर की सैद्धांतिक दूरी बनाए रखने के आग्रह को समस्यामूलक समझता है, क्योंकि ‘सैद्धांतिक दूरी‘ नामक शब्दांश का आचरण स्पष्ट नहीं होता। विख्यात संविधानविद राजीव धवन, संवैधानिक सेक्युलरवाद के तीन पक्ष धार्मिक स्वतंत्रता, कर्मकांडी तटस्थता तथा सुधारात्मक न्याय के रूप में देखते हैं। धार्मिक आजादी के तहत धार्मिक विश्वासों और सभी तरह के क्रियाकलाप शामिल हैं। आनुष्ठानिक तटस्थता से आशय राज्य द्वारा आर्थिक और अन्य सहायता दिया जाना भी शामिल है। सुधारात्मक न्याय के लिहाफ में धार्मिक संस्थाओं और व्यवस्थाओं को नियंत्रित करना तथा उनमें सुधार करना आदि शामिल हैं। 


(4) सविधान-सभा में 26 मई 1949 को अल्पसंख्यकों पर रिपोर्ट पर बहस करते सदन बहुमत अर्थात् कांग्रेस सदस्यों से क्षुब्ध होकर एंग्लो-इण्डियन सदस्य फ्रैंक एन्थोनी ने कटाक्ष किय, ‘‘हम देख रहे हैं, बिना किसी दुर्भाव के मैं यह कह रहा हूं-कि इस महती संस्था के बहुत से सदस्य नियम से तो कांग्रेस सदस्य हैं पर भावना से वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा के सदस्य हैं। मुझे दुर्भाग्यवश रोज़ ही कांग्रेस दल के प्रभावशाली और सम्मानित नेताओं के ऐसे भाषण अखबारों में देखने मिलते हैं, जिनमें कहा गया होता है कि भारतीय आजादी और भारतीय संस्कृति का, हिन्दू राज और हिन्दू संस्कृति के अतिरिक्त और अर्थ ही क्या हो सकता है? इन बातों को लेकर ही शक पैदा होता है। किस महान राष्ट्र को अपनी महानता के रास्ते पर चलते उठना और गिरना नहीं पड़ा है? हमने अपना लक्ष्य तय किया है और उसे हासिल करने के लिये हम सही दिशा में चल पड़े हैं। एक सेक्युलर लोकतंत्रीय राज्य की स्थापना ही हमारा मकसद है।"
(जारी)

कनक तिवारी
©  Kanak Tiwari

हिन्दू, हिन्दुत्व, सेक्युलरिज़्म और मुसलमान (6)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/07/6.html
#vss 

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