Wednesday, 20 July 2022

डॉ कैलाश कुमार मिश्र / नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (14)

बांस, बेंत और काष्ठ कला "ब" ~
 

सत्य तो यह है कि नागा समाज और उनकी बांस बेंत और काष्ठ कला पर आप जितना चाहें लिखते जाएं - हरि अनंत हरि कथा अनंता। लेकिन मूल भूत कथ्य को कहते हुए आगे की लेखन यात्रा करनी है इसीलिए न चाहते हुए भी यहां बांस और बेंत कला को विश्राम दे रहा हूं। एक बात स्पष्ट करने का मन अवश्य है। नागा बांस से जो मुखौटा बनाते हैं और उसमे सहजता से प्राप्त प्राकृतिक रंग से चमत्कार उत्पन्न करते हैं यह काबिले तारीफ़ है। उन मुखौटों को देखकर आप इतना तो अंदाज लगा ही सकते हैं कि नागा कलाकार अपने अव्यक्त अर्थात देवता देवी, प्रकृति, पूर्वजों से बात करते हैं। 

एकबार प्रोफ़ेसर बैद्यनाथ सरस्वती कहने लगे: "देखो कैलाश! यह आर्ट और क्राफ्ट भारत में अलग-अलग केटेगरी नही है। दोनो एक ही हैं। कुंभकार मिट्टी के लबादे से क्या-क्या नही निर्माण करता है फिर भी उसको कलाकार न कहकर शिल्पी कह दिया जाता है। कबीरदास तो जीवन और दर्शन के सभी प्रतिमान, बिम्ब दो कलाओं: मिटटी और बुनकारी से गढ़ते हैं। गढ़ते चले जाते हैं और लोग आज भी उनके कथ्य से अपने आपको जोड़ते हैं। निर्गुण हो या सगुण सभी कुछ मिल जाता है। ऋगवेद तो धातु, मिट्टी, लकड़ी पर कार्य करने वाले को कलाकार की श्रेणी में रखता है। एक बुनकर की तुलना उस प्रजापति से किया गया है जो इस अनंत आकाश को  बुनता है। रांची अर्थात झारखण्ड प्रदेश की राजधानी का नामकरण मुण्डा आदिवासियों के द्वारा व्यवहारित शब्द “अरची” शब्द से हुआ है। मुंडारी भाषा में अरची का अर्थ है वह क्षेत्र जहाँ लौह अयस्क का प्राकृतिक भण्डारण हो। इसीलिए रांची और आस पास के भू-भाग में लौह अयस्क उत्खनन के लिए अनेक कार्य किये गए। हटिया फैक्ट्री स्थापित किया गया। आर्ट और क्राफ्ट शब्द का प्रचलन अंग्रेजो के आने के बाद हुआ है। आज जरुरत इस बात की है कि हमलोग इस विभेद को ख़त्म करे।” 

जब मैं वाराणसी के बुनकर, लकड़ी के खिलौने बनानेवाले कलाकार आदि पर कार्य करना शुरू किया तो इस बात को समझ पाया। नागा पर कार्य करते-करते इस बात को अच्छी तरह से धीरे-धीरे  आत्मसात कर लिया था । कहने की आवश्यकता नही है कि जब एक नागा कलाकार मुखौटा बनाता है – चाहे वह बांस का हो या लकड़ी का – उसमे उसकी संलग्नता एक सौ फीसदी होती है। क्योंकि यह कला पवित्र है, इस कला के माध्यम से देवता अथवा पितर का आह्वान किया जायेगा, इस कलाकृति में वे प्रविष्ट होंगे, और प्रविष्ट होते ही लोगों से उनका कम्युनिकेशन प्रारम्भ हो जाता है । इसीलिए एक कलाकार अपने आपमे एक पंडित, ज्ञानी और भगवान का प्रतिनिधि बन जाता है । वह लोगों का प्रतिनिधि भी बनता है क्योंकि उसके माध्यम से और उसकी कृति के माध्यम से लोग भगवान से वार्तालाप कर सकते हैं। भू-देवी (अथवा देवता), ग्राम देवता, कुलदेवता, पितरों से वार्तालाप करते हैं। अगर इन बातो को ध्यान में रख लें तो किसी भी आदिवासी कला के मुरीद आप हो जायेंगे। नागा कला भी ऐसा ही उदाहरण प्रस्तुत करता है। 

चलिए अब बात काष्ठ कला पर नागा समुदाय की विशिष्टता की चर्चा करते हैं। इस कला का भी सर्वप्रथम दर्शन मुझे हार्नबिल महोत्सव में हुआ। एक फ़ोम नागा युवक जो मेरे लिए शोधकर्मी का कार्य कर रहा था, वह मुझे उस विशाल मैदान के उस ओर ले गया जहाँ नागा के जीवन से सम्बंधित सभी सामग्री उपलब्ध थे। वहाँ सभी सामग्री सजे हुए थे। आप उसे किसी संग्रहालय की वीथिका में सजे हुए वस्तु के रूप में देख सकते थे। प्रत्येक कलाकृति पर लघु किन्तु सारगर्भित जानकारी के कैप्शन लगे हुए थे। वहाँ प्रदर्शनी के साथ-साथ खरीदने का प्रावधान भी था। अगर आपको कोई कला अथवा सामग्री पसंद है तो आप खरीद सकते हैं। मैं एक कलात्माक बेल्ट और टाई दोनों चीज मूलतः लकड़ी के बने थे, को देखकर दंग रह गया। उस टाई का तो क्या कहने? 

मैंने प्रश्न किया: “बहुत कलात्मक है, इसके कलाकार से मिल सकते हैं क्या?”
नागा युवक बोला: “सर! कोशिश करता हूँ।” 

कुछ ही देर में एक पैतालिस वर्षीय नागा कलाकार के साथ वह मेरे पास आ गया। वह कलाकार पढ़ा लिखा था। मेरे साथ अंग्रेजी में सहजता से बात करने लगा। मैंने पूछा: “आपने यह बेल्ट या टाई क्या सोचकर बनाया है?”
कलाकार बोला: “आजकल लोग पेंट और कोट पहनते हैं। दोनों में बेल्ट और टाई की जरुरत है। मुझे लगा कि कला को बदलते परिवेश के साथ नये एवं आधुनिक वस्तुओं के निर्माण के लिए प्रयोग करते हैं। हमने टाई और बेल्ट बना दिया। लोगों ने इसको बहुत पसंद किया। आज नागा युवक तो ले ही रहे हैं, दुसरे लोग भी, बाहर के लोग भी इन चीजों की मांग कर रहे हैं। हमने परम्परा का त्याग नहीं किया है, यद्यपि परंपरा के साथ-साथ अनेक नयी और प्रयोगधर्मी चीजों का भी निर्माण करने लगे हैं जो आधुनिक समाज के अभिन्न हिस्से हैं। हम लोग अब पलंग, सोफासेट, डाइनिंग टेबल, सभी कुछ बनाने लगे हैं। पहले हमलोग गंभार एवं अन्य स्थानीय लकड़ी का प्रयोग करते थे। गंभार अभी भी हमारा पहला पसंद है, लेकिन अब कभी-कभी ग्राहकों के डिमांड पर टीक एवं अन्य लकड़ी का भी प्रयोग करने लगे हैं।"

मैंने पूछा: “परंपरागत क्या चीज बनाते हैं?”
नागा कलाकार बोला: “हमलोग इसाई हो चुके हैं। पूर्वजों की पूजा भूलने लगे हैं। लेकिन अभी भी हमारे जेहन में वे हैं। हम उनको याद करते हैं। बेशक अनुष्ठान के लिए हम सभी वस्तुओं का निर्माण कर लेते हैं। हम जानवर, पक्षी, सभी बनाते हैं। अपनी लोककथा को भी चित्रित करते हैं। लकड़ी पर लोककथाओं का पैनल तैयार करते हैं। हार्नबिल महोत्सव हमारे लिए खुद को खोजने का माध्यम बन चूका है । हम अपने अतीत को ढूंढने लगे हैं। खास बात यह है कि यह पुनर्जागरण किसी एक नागा समुदाय में नहीं होकर सभी नागाओ में हुआ है।”

नागा कलाकार के इस कथन से मैंने उस सत्य का आत्मसात किया जिसमे अंग्रेजो ने इनके गाँव के गाँव और उनकी कलाकृतियों को जलाकर राख कर दिया। लोगों ने इनके सभी गुणों को दरकिनार कर इन्हें मानव सिर काटने वाले नागा अथवा Naga – The Head Hunter बना दिया। आज भी एक-एक नागा गाँव जाकर उनके अवशेष का संकलन कर नागा समुदाय के कलात्मक पक्ष का मेरा बालसुलभ खोजी मन यह जानना चाह रहा था कि आखिर इन कलात्मक कलाकृतियों को बनाने के लिए ये कौन-कौन से औजार प्रयुक्त करते हैं! यह सोचते हुए मैंने फिर प्रश्न किया: “इन वस्तुओं को बनाने के लिए आपलोग किन-किन औजारों का प्रयोग करते हैं?”

नागा कलाकार मेरा यह प्रश्न सुनकर कुछ क्षण के लिए भीतर गया और अपने साथ तीन औजार ले आया। ये औजार थे – 
दाओ (Dao),
हथौरा
छेनी  
उनको दिखाते हुए वह बोला: “सर, हमारे पूर्वज इन औजारों का प्रयोग करते थे। हम आज भी इन्ही औजारों से सारे काम करते हैं। काष्ठ निर्माण का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं है जो हमलोग इन तीन उपकरणों से न कर पायें।”
उसके कहने के आत्मविश्वास से मैं अस्वस्त हो गया कि यह सत्य बोल रहा है। मैं सोचने लगा: “कैसे मात्र तीन लघु औजार से यह एक से एक वस्तुओं का निर्माण करता है?”

मैंने पूछा: “आप उन वस्तुओं का नाम बताइए जिसका निर्माण आप लकड़ी से करते हैं?”
नागा कलाकार बोला: “सर, अभी भी बांस, बेंत और लकड़ी की कला पुरुषों की कला है। ये कलाएं केवल और केवल पुरुष करते हैं। हाँ कभी-कभी महिलाएं इन्हें अर्थात पुरुषों को सहयोग दे देती हैं।  मिथुन, हार्नबिल, सिंह, जानवर आदि के मोटिफ्स, बेल्ट, टाई, वाल हैंगिंग, भूत-प्रेत, कल्पित देवता, राक्षस, दुष्ट, ऐतिहासिक चरित्र, मोरुंग, गाँव का द्वार, फर्नीचर, मग, टोकरी, कलछुल, चमच, परंपरागत रसोई के उपकरण एवं भोजन बनाने, पड़ोसने, और खाने के बर्तन, बोतल, चमच, कलछुल, प्लेट, बड़ा थाल, देशी मदिरा के वर्तन, स्टूल, कुर्सी, एवं अन्य अनेक चीज बनाते हैं। नागा अपने-अपने पूर्वजों की वीरगाथा और जीवन का युद्ध कौशल, उनके साहस, करतव आदि का मिथकिय भाव, जादू-टोना, उत्सव और भोज आदि को काष्ठ कला में नक्काशी करते हैं। वे अपना सम्बन्ध जंगल से, जंगल के जीव जंतु, पेड़ पौधे, झरने, आदि का चित्रण करना नहीं भूलते। मानव, प्रकृति और संस्कृति का सर्वोत्तम संतुलन आपको इनकी कलाकृतियों में मिलेंगे। इनको अपनी संस्कृति और सभ्यता पर गर्व है। आप अगर ईमानदारी से इनके पास रहें तो आपको इनके ऊपर और इनकी संस्कृतियों के ऊपर गर्व होने लगेगा। अगर भारत की अनेकता में एकता को समझना चाहते हैं। भारतीय जीवन और संस्कृति के वैविध्य का स्वाद चखना चाहते हैं तो घर से बाहर निकलिये और अन्य स्थानों के साथ-साथ उत्तरपूर्व भारत की धरती, वहाँ के लोग, उनकी संस्कृति का अवलोकन कीजिये फिर आपको “एक भारत और श्रेष्ट भारत” का महत्त्व पता चलेगा। कुछ दिन गुजारिये तो उत्तरपूर्व भारत में!

भटकना नहीं चाहता हूँ मैं। विवरण देना है काष्ठ कला का। उनके एक-एक अवयव का। यह इतना भी सहज नही है। फिर भी मोटी-मोटी जानकारी तो दिया जा सकता है जिससे एक बाहर का व्यक्ति नागा संसार की काष्ठ, बांस और बेंत कला को समझ ले। उसके और भीतर प्रवेश करने के लिए उत्सुक हो जाए। यही कर रहा हूँ । 

नागा कलाओं की आकृतियों में ज्यामितिक आकृतियों का भरमार है। इसके क्या कारण हैं इसको नहीं समझ पाया हूँ। क्या पता कभी इस बात के तह तक किसी ज्ञानी नागा के सहारे पहुँच जाऊं! परम्परागत रूप से नागा अपने खेतों को पानी देने के लिए आयताकार स्वरुप में 8 से 10 फुट के लकड़ी को चारो तरफ से खुरदकर उसका एक कलात्मक स्वरुप देते हैं। फिर उसे पानी के समीप दो लकड़ी के पोल के बीचो बीच बीच में छेद बनाकर उसको स्थापित करते हैं और पैर से भीतर बल देते ही उसमे पानी भर जाता है। फिर पानी को खेत में सहजता से उड़ेलते जाते हैं। 

धान से चावल निकालने के लिए भी भी आयताकार अथवा सिलंडर के आकृति का लगभग सात से आठ फुट के लकड़ी से एक ढेकी बनाते है जिसे औरते धान से चावल निकालती हैं।

नागा को मिथुन से बहुत लगाव है। किसी नागा का सामाजिक ओहदे और सम्मान को देखना है तो इसका आकलन इस बात से भी किया जाता है कि उसके पास कितना मिथुन हैं। नागा, मिथुन पालता है। उनकी बलि देता है। देवताओं और पितरों को समर्पित करता है। मिथुन की हड्डी से नागा महिलाओं के आभूषण बनते हैं, हेयर पिन बनते हैं, कंघी बनते हैं। मिथुन के खोपड़ी और सिंग से नागा अपने घर, ड्राइंग रूम, मोरुंग (अर्थात युवागृह) को सजाते हैं। मिथुन का बलि यह बताता है कि नागा कितने बलबान होते हैं। इसतरह से मिथुन नागा के चेतन, अर्धचेतन और अचेतन तीनों ही अवस्थाओं में व्याप्त रहता है। यही कारण है कि नागा सभी कलाओं में सर्वाधिक चित्राकन मिथुन का ही करते हैं। मिथुन के चित्रांकन में इनकी सोच, कलाकृति, इनके नूतन प्रयोग, प्रयोग में अनेक प्रकार, और तो और रंग संयोजन आपके सौन्दर्य बोध को कुछ क्षणों के लिए कैद कर लेता है।

परंपरागत रूप से नागा मानव प्रतिमान, या बिम्ब के साथ-साथ अनेक जानवर और पशु पक्षी का भी आकृति बनाते हैं। कहने की जरुरत नहीं है कि सभी बिम्ब और आकृति से उनको कुछ न कुछ मिलता है। उदाहरण के लिए जब नागा युद्ध में प्रतिपक्ष समूह के लोगों का सिर काट लेते थे तो उनका सम्मान किया जाता था। सिर को घर लाकर एक वीर नागा के रूप में उसकी पूजा करते थे। फिर उस सिर को अपनी कलाओं में खाशकर काष्ठ कला की नक्काशी में उसको गंभीरतापूर्वक उकेरते थे। अब अस्सी साल से ऊपर से नरबलि या हेड हंटिंग का अंत हो चूका है। फिर भी उसको चित्रित करते ही रहते हैं।

मानवीय आकृतियों के बनाने के पीछे इनकी मान्यता है कि उनको शौर्य और संतान प्राप्ति में मदत मिलेगी। इसके अलावा नागा जंगली भैंसे के सिर, हाथी, बाघ, सांप, हार्नबिल और बारबेट पक्षी, छिपकली, बंदर, गिरगिट, कभी-कभी मछली आदि की आकृति या मोटिफ का निर्माण करते हैं। इनसे इनको कुछ न कुछ तो मिलता ही है। सन्दर्भ के लिए कह दूँ कि हाथी की आकृति से ये बल प्राप्त करते हैं तो बाघ से धैर्य, बल और रक्षा। भालू के मोटिफ से इनको यश की प्राप्ति एक रणबाँकुरे योद्धा और शिकारी के रूप होती है।  बारबेट चिरई से भाग्य खुलता है और यश की प्राप्ति होती है। बंदर का मोटिफ इनके चातुर्य और तीक्ष्ण दिमाग को संचालित करते हैं। 

अगर नागा इतिहास की ओर जाएँ तो लकड़ी के नक्काशी को काले, टेराकोटा एवं उजले पिगमेंट से रंगीन बनाया जाता था। उपरोक्त सामग्री बिना पैसे खर्च किये प्रकृति से लिए जाते थे (आज भी अनेक जगह यह परंपरा कायम है)। अगर नागा आर्किटेक्चर का सबसे सुन्दर रूप देखना चाहते हैं तो उनके मोरुंग को देख ले। वहाँ मोटिफ, पैटर्न, कला, नक्काशी, आर्किटेक्चर, और सौन्दर्य के सभी प्रतिमान एक साथ मिल जायेंगे। दुर्भाग्य से मोरुंग की परम्परा सभी नागाओं में समाप्त हो चूकी है। एक सुखद परम्परा नागा समुदाय यह स्थापित कर रहे हैं कि कल्चरल हेरिटेज के रूप में गाँव-गाँव में मोरुंग का मॉडल बनाकर बाहर के लोगों के लिए और अपने आनेवाली पीढ़ी के लिए छोड़ रहे हैं जिससे उनको यह पता चले कि उनके पूर्वज कभी इतने कलात्मक मोरुंग भी बनाते थे। 
(क्रमशः) 

© डॉ कैलाश कुमार मिश्र

नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (13) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/07/13.html 
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