बांस, बेंत और काष्ठ कला- “अ” ~
आदिवासी और लोक जीवन की जब भी हम बात करते हैं तो एक चीज समझ लेने की जरुरत है । लोक में यूटिलिटी और ब्यूटी अर्थात जीवन की उपयोगी वस्तु, परम्परा और व्यव्हार एवं सौन्दर्य दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। लोक कलाओं का सच भी यही है। इसीलिए नागा कला, उनके बिम्ब, रंग, कैनवास, और परिवेश के साथ उनके सौन्दर्य एवं प्रकृति के साथ तारतम्यता को समझने की आवश्यकता है। उनकी कला और जीवन को ऐतिहासिक और लोक सन्दर्भ में देखना होगा ।
आप नागा की कलात्मक अभिव्यक्ति उनके कृषि उपकरणों में, गृह निर्माण में, रसोईघर में भोजन बनाने और परोसने वाले वर्तनो में, आखेट के उपकरणों, औजार और अस्त्रों में, सगीत के वाद्ययंत्र में, केश विन्यास करने के लिए प्रयुक्त कंघी में, युवा गृह अथवा मोरुंग के निर्माण से सञ्चालन में, नृत्य में, पितरों एवं देवी देवताओं की अर्चना पूजा और अनुष्ठान में, खेतों से अन्न घर लाने में और पुनः अन्न के भण्डारण में, पानी पीने के वर्तनो में, घड़े में, कप में, बोतल में, वस्त्र में, आभूषण में, जन्म, विवाह और मृत्यु संस्कार में, कंद मूल के संचयन में, मछली पकड़ने में, भोजन में, प्रेम में, अतिथियों के स्वागत में, प्रीत भोज में, उत्सव और व्यापार में और न जाने कहाँ-कहाँ देख सकते हैं।
किसी भी कला का निर्माण अकारण नही किया जाता है। लोककला या आदिवासी कला के निर्माण में कलाकार केवल शो पीस नहीं बनाता। नागा महिला और पुरुष अपने शरीर में बहुत ही कलात्मक गुदना गुदवाते है। उनका शरीर ही कैनवास हो जाता है। गुदना गुदवाने का भी निश्चित प्रयोजन होता है। इसके लिए कहीं से न तो कोई कलाकार आता है, ना ही किसी सामग्री को बाजार जाकर ख़रीदा जाता है। हरेक नागा अपने आपमें कलाकार है। उसके बनाने में उत्साह और समर्पण होता है।
यहाँ मैं नागा जीवन में केवल बांस, बेंत और लकड़ी कला का महत्त्व, प्रयोजन, बदलते समय में नूतन प्रयोग, बाजार, व्यापार, कला के साथ लिंग का सम्बन्ध, कला की विशेषता, कला के लिए कच्चे माल की प्राप्ति, कला सिखने के पारंपरिक ज्ञान आदि पर संक्षिप्त चर्चा करने जा रहा हूँ। आप भी हमारे साथ चलिए, आपको अच्छा लगेगा।
बांस और बेंत कला ~
कहता चलूँ कि बांस और नागा एक दुसरे के बिना अपना अस्तित्व नहीं रखते ठीक वैसे जैसे मुरिया आदिवासी और बाघ दोनों एक दूसरे के अभिन्न अंग हैं। नागा के बारे में एक कहावत प्रचलित है: “नागा का जीवन बांस से शुरू होता है और बांस के साथ ही ख़त्म हो जाता है।” इस कहावत से आप अंदाज लगा सकते हैं कि बांस का उनके जीवन में क्या महत्त्व है। एथनोग्राफी की यह परंपरा है कि अगर आप किसी बाहरी समुदाय में काम करना चाहते हैं और उनको समग्रता से जानना चाहते हैं तो लम्बी अवधि तक उनके साथ जुड़े रहिये। उनके यहाँ आते जाते रहिये। मैं इस मामले में अपने आपको किस्मत का धनी मानता हूँ कि, मुझे न केवल नागा जनजाति अपितु उत्तरपूर्व भारत और सिक्किम के सभी समुदाय पर लम्बी अवधि तक कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त रहा है। हालांकि इसका बहुत बड़ा बलिदान मुझे देना पड़ा है। उसपर भी किसी किश्त में अवश्य लिखूंगा। अभी नागा तक ही सिमित रखना श्रेयस्कर है।
जब नागालैंड और असम राज्य के नार्थ कछार हिल्स (अब दिमा हसाओ जिला) में कार्य कर रहा था तो पता चला कि नागा अपने परिवेश में 175 से भी अधिक किस्म के बांस रखते हैं। आप चाहें तो इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि 175 से अधिक किश्म के बांस नागा के जीवन का वह प्राकृतिक उपहार है जिससे उनका जीवन और संस्कृति संचालित होता है। नागा बांस खाते हैं। घर बनाते हैं। औजार बनाते है। और भी अनेक कार्य हैं जिसपर लघु विवेचना करने का प्रयास कर रहा हूँ। बांस को जब बेंत का साथ मिल जाये तो क्या कहने, इनकी कला में क़दम-क़दम पर आप निखार देख सकते हैं।
एक बात और स्पष्ट करता चलूँ। हमारे शोधकर्मी लकीर के फ़क़ीर होते हैं। किसी ने सुविधा के लिए लिख दिया कि नागा के खाश समुदाय में ही बांस, बेंत और लकड़ी कला का उन्नत उदाहरण हैं तो वे इसको ब्रम्ह वाक्य मान लेते हैं। सच यह है कि सभी नागा उपरोक्त कलाओं में पारंगत हैं। हाँ कभी-कभी किसी खास समुदाय को विशेष सुविधा मिल जाती है, और वे चमक उठते हैं। शोध में तो उनपर अधिक गम्भीरता से कार्य करने की आवश्यकता है जिनपर पहले के शोधार्थी मौन हैं।
नागा को जानना चाहते हैं तो इनको उस कला से सम्बंधित लोक कथा अथवा दंतकथा कहने के लिए उकसाइए। आपको लगेगा कि किस खूबसूरती के साथ इन्होने प्रकृति के अवयवों से जोड़ा है।
हार्नबिल महोत्सव के दौरान एक बुजुर्ग पुरुष आओ नागा कहने लगे: “किसी समय, मतलब हजारों साल पहले एक आओ नागा गुनिया था। वह चमत्कारी पुरुष था। उसका नाम चंग्किचंग्लान्ग्बा (Changkichanglangba) था । वह अनेक तरह का जादू और तलिस्म जानता था। लोग उसके कलाओ और ज्ञान का रहस्य जानना चाहते थे। साधारण बांस से अनूठे कला बनाकर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता था। वह सचमुच में कलापुरुष था। चंग्किचंग्लान्ग्बा लोगों को अक्सर कहा करता था: “सुनो! अगर मेरी कला की जादूगिरी देखना चाहते हो तो मेरी मृत्यु के छठे दिन जाकर मेरा कब्र खोदना उसमे बहुत ज्ञान मिल जायेंगे।” मृत्यु जीवन का यथार्थ है। चंग्किचंग्लान्ग्बा एक दिन मर गया। लोगों ने उसको नागा रीतियों से कब्र में दफ़न कर दिया। उसके कहे अनुसार मृत्यु के छठे दिन कुछ बुजुर्ग नागा उसके कब्र को खोदकर देखने लगे। सभी के सभी देखते ही दंग रह गए। लोगों ने देखा के बांस के अनेक उपकरण, टोकरी, एवं कलात्मक वस्तुओ के डिजाईन, बिम्ब, प्रतिमान, और नमूने बने हुए थे जिसको सभी नगा पुरुष सहजता से बना सकते थे। फिर क्या था सभी नागाओं ने उनको अपने जीवन में लाना शुरू किया। चंग्किचंग्लान्ग्बा उनका आदि कलागुरु बन गया। सभी नागा उसको ही अपना आधार मानने लगे। इस तरह के अनेक दंतकथा अनेक नागा समुदाय में व्याप्त है जिसपर गहन कार्य करने कि आवश्यकता है।
आप जब कभी नागालैंड जाएँ नागाओ के द्वारा बांस से निर्मित बांसुरी अवश्य देखें। उसका वैविध्य स्वरुप, कला, आकार, स्वर का वैज्ञानिक सम्बन्ध आपको मन्त्र मुग्ध कर देंगे। अलग अलग समुदाय के अलग-अलग बांसुरी मिलेंगे इसके अलावे एक ही नागा समुदाय के अलग-अलग गाँव में नूतन और अद्भुत प्रयोग देखकर आप दंग रह जायेंगे। इतना ही नहीं वाद्ययंत्र अर्थात बांसुरी अधिक मनोरम लगे जिससे उसके बजने से पूर्व ही लोगों का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट हो जाए इसके लिए बेंत से स्कीन से एवं अन्य वस्तुओं से इनको सजाया भी जाता है। नागा बांस के ओरगन और ट्रम्पेट भी कलात्मक अभिव्यक्ति और सौन्दर्य प्रेमी के रूप में बनाते हैं। ये शिकारी तो उत्तम दर्जे के होते ही हैं, मछली पकड़ने की कला में निष्णात होते हैं। और मछली पकड़ने के अधिकांश उपकरण बांस से बनते है । बांस को चीरकर फिर उसका फट्टी बनाते हैं और उनसे जालीदार मछली पकड़ने के उपरान का निर्माण होता हैं। फट्टियों के तितियों को जोड़ने के लिए प्रायः बेंत के छिलके का उपयोग रस्सी की तरह करने की परम्परा है। इससे पानी में वह धागा अर्थात बेंत का छिलका न तो गलता है ना ही धुप में सुखकर टूटता है। इतना ही नहीं पकडे हुए मछली को इकत्रित करने के लिए और उसे घर तक लाने के लिए भी टोकरी बांस का ही बना होता है। उत्तरपूर्व के अधिकांश आदिवासी बांस और बेंत से हैट, टोप या टोपी बनाते हैं। मैंने लोअर दिबांग वैली अर्थात अरुणांचल प्रदेश के इदु इश्मी जनजाति का ऐसा टोप देखा है जो उन्हें बंदूक के बुलेट से भी बचा सकता है। नागा, यद्यपि मूलतः बांस से टोप बनाते हैं, और उसको कलात्मक और मजबूत बनाने के लिए उसमे बेंत और बेंत के छिलकों का भी प्रयोग करते हैं। कहने की जरुरत नहीं है कि प्रत्येक नागा समूह टोप बनाने में भी अपना सौंदर्य और कलात्मक वैविध्य का परिचय देना नही भूलते। आप बांस और बेंत से बने इनके अलग अलग आकार और प्रकार के युद्ध सामग्री का ढेर इनके मोरुंग में आज भी देख सकते हैं। एक बार जाइए ना नागालैंड! इनके तीर, धनुष, भाला, दाओ सभी कुछ में बांस या बेंत या फिर दोनों का संमिश्रण होता है। बांस के लट्ठ का भी प्रयोग करते हैं। बांस का मग, बोतल, और उस मग और बोतल में भी भी अनेक बिम्ब उकेरे मिलेंगे आपको। आप हर काम के वस्तु में कला और संस्कृति का संचार देखेंगे। और तो और बांस के चमच, कलछुल, छोलनी, ट्रे, सभी वे बनाते हैं। बनाते ही नहीं उनका उपयोग भी करते हैं। नागा कला और बांस एवं बेंत का अद्भुत संगम देखना चाहते हैं तो इनके बने कंघी देखें। एक नागा प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए कंघी का कैसा कलात्मक स्वरुप गढ़ता है इसको देखकर विस्मित हो जायेंगे आप।
सूअर, मिथुन अथवा अन्य मांस को ये बांस के अन्दर केले के पत्ते अथवा अन्य भेषजीय पत्ते में मसाला आदि के साथ लपेटकर रख देते हैं उन्हें चारो तरफ से बांध देते हैं। फिर उसको जलते लकड़ी या कोयले के आग में ढंग से पकाते हैं। उधर चावल भी इसी विधि से पकाया जाता है। जब दोनों भोज्य पदार्थ पककर तैयार हो जाते हैं तो उनका जो स्वाद है वह आपको कहीं नहीं मिलेगा। केला का पत्ता, जंगली जड़ी बूटी, अन्य पत्ते, देसी मसाले सभी पके चावल और मांस को अलग ही तरह का भोज्य पदार्थ बना देता हैं।
मैंने नागाओं को अपने मिटटी, कद्दू एवं अन्य वर्तन पर बेंत के छिलके से सजाते देखा है। उसे बुनकर कलात्मक बनाते देखा है। गाँव का रक्षा पोस्ट में भी बांस की अभेद्य भूमिका है।
नागाओं एवं उत्तरपूर्व भारत की अनेक जनजातियों पर कार्य करने के क्रम में एक जानकारी मिली की बांस का अत्यधिक खपत जरुरी है अन्यथा इसके फूलने की सम्भावना है । बांस के फूलने की सम्भावना अर्थात बांस में फुल खिलने लगते हैं। हां जी, सही सुना आपने। बांस खिलने लगते हैं। लेकिन बांस का खिलना अशुभ का लक्षण है। बांस खिलने से चूहे अनंत संख्या में उत्पन्न हो जाते हैं और खेतों के धान का सर्वनाश कर देते हैं। लोगों में भूखे मरने का नौवत आ जाता है । हालाँकि बहुत दिन से ऐसा नहीं हुआ है। पहले किसी निश्चित भू-भाग में इस तरह की घटना घटित होती थी।
नागा बांस से फर्नीचर भी बनाते हैं। आज के समय में नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ डिजाईन, नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ फैशन टेक्नोलॉजी एवं अन्य संस्था भी नागाओं को आधुनिक सामान बनाकार उसमे नागा बिम्ब, परिकल्पना, तकनीकी, आदि का प्रयोग कर बाजार और व्यापार के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
अभी इतना ही। शेष अगले अंक में
(क्रमशः)
© डॉ कैलाश कुमार मिश्र
नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (12)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/07/12_18.html
#vss
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