लाहौर क़िला-- बादशाही मस्जिद से बाहर आने के बाद हम क़िले के आलमगीर गेट की ओर बढ़े। यह गेट बादशाही मस्जिद के सामने है। क़िले के अंदर जाकर क़िले की हालत देख कर दुख हुआ क्योंकि इसका रखरखाव पुरातत्व विभाग द्वारा भली-भांति नहीं किया जा रहा था। दीवारों पर काई जमी हुई थी और जगह-जगह सीमेंट प्लास्टर उखड़ा हुआ था। वहां कार्यरत एक कर्मचारी से इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि रखरखाव के लिए जो रूपया मिलता है उसमें से बहुत कम इसकी मरम्मत पर खर्च होता है। यह किला लगभग 20 हेक्टेयर में फैला हुआ है। इसका निर्माण किसके द्वारा कब कराया गया यह ठीक से ज्ञात नहीं है परंतु पुरातत्व विभाग के अनुमान के अनुसार यह क़िला 11वीं शताब्दी में बनाया गया था। समय-समय पर विभिन्न राजाओं के आक्रमणों से यह नष्ट होता रहा तथा विभिन्न राजाओं द्वारा इसकी मरम्मत कराई जाती रही। मुगल सम्राट अकबर के द्वारा 1556 ईस्वी में इसका पुनर्निर्माण कराया गया तथा रावी नदी की ओर इसका विस्तार करके 'दौलतखाना ए खास व आम' 'झरोखा ए दर्शन' तथा 'मोती मस्जिद' का निर्माण कराया गया। इसके पश्चात सम्राट जहांगीर ने 1618 ईस्वी में 'दौलत खाने जाहांगीरी' सम्राट शाहजहां ने 1631 ईस्वी में 'शीश महल' तथा 'दीवान-ए- खास' तथा औरंगजेब ने 1674 ईस्वी में 'आलमगीरी गेट' का निर्माण कराया। वर्ष 1799 से 1845 तक यह किला महाराजा रंजीत सिंह के शासन में रहा जिनके द्वारा इसमें 'बारादरी राजा ध्यान सिंह' का निर्माण कराया गया। वर्ष 1846 में इसे ब्रिटिश सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया तथा 1927 में ब्रिटिश सरकार द्वारा इसे पुरातत्व विभाग को सौंप दिया गया। 1981 में यह यूनेस्को के वैश्विक धरोहर में सम्मिलित हो गया। क़िले के बारे में यह सारा विवरण क़िले में लगे एक बोर्ड पर लिखा हुआ था।
क़िले के अंदर मौजूद कई इमारतों में हम घूमने गए मगर वह सारी इमारतें हमें नहीं दिखाई दी जिनका विवरण ऊपर दिया गया है। या तो उनमे से कुछ इमारतें अब शेष नहीं है या फिर क़िले के कुछ हिस्से को पर्यटकों के लिए बंद कर दिया गया होगा जैसा कि दिल्ली और आगरा के क़िलों में है। क़िले के अंदर कई इमारतों का आर्किटेक्चर भी दिल्ली और आगरा के क़िलों से मिलता जुलता है। क़िले मैं पर्यटकों की संख्या भी बहुत कम दिखाई दी जब कि दिल्ली और आगरा के क़िलों में पर्यटकों की संख्या बहुत अधिक होती है। संभवतः क़िले का उचित रखरखाव न होने के कारण पर्यटक उसकी ओर आकर्षित नहीं हो रहे हैं। क़िले से बाहर आए जहां निकट ही महाराजा रंजीत सिंह की समाधि है जो उनके देहांत के पश्चात उनके पुत्र महाराजा खड़क सिंह के द्वारा बनवाई गई थी। इसी परिसर में पश्चिम की ओर महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र राजा खड़क सिंह और महाराजा रंजीत सिंह के पौत्र श्री निहाल सिंह व उनकी पत्नियों की समाधियाँ भी हैं।
(जारी)
मंजर ज़ैदी
© Manjar Zaidi
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