इंसाफ मांगने वालों पर अब सुप्रीम कोर्ट ने जुर्माना लगाने की एक नई परम्परा शुरू की है। याचिका तो खारिज होती ही है, याचिकाकर्ता पर जुर्माना भी, अलग से लगाया जाने लगा । यह एक निंदनीय और दुर्भग्यपूर्ण प्रथा है माननीय सुप्रीम कोर्ट। माननीय जज साहबान, अपना अंतरावलोकन कीजिए, अगर आप इंसाफ नहीं कर पाए तो, इसके क्या दुष्परिणाम होंगे, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
जज साहबान और अदालतों को माननीय कहे जाने की परंपरा है और यह परंपरा ब्रिटिश जुडिशियल सिस्टम से आई है। यह मान कर चला जाता है कि हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को माननीय कहा जाना चाहिए और न्यायमूर्ति महानुभावों को माननीय और विद्वान। सिस्टम यह अपेक्षा भी करता है कि, अदालतें और जस्टिस, माननीयता और विद्वता के मार्ग से विचलित भी न हों। इन दो विशेषणों के साथ ही उन्हे अपनी अवमानना करने वालों से निपटने का भी अधिकार प्राप्त है। भारत में तो अनुच्छेद 142 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट को असाधारण शक्तियां और अधिकार भी प्राप्त है।
पर यह सारी शक्तियां और अधिकार, माननीयता और विद्वता का लकब, केवल न्याय, संविधान की रक्षा और नागरिकों के मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिए ही संविधान ने आप को नवाजा है, न कि आप की दहलीज पर इंसाफ और किसी घटना की जांच के लिए गए किसी फरियादी को दंडित करने के लिए। आप तक पहुंचने वाला हर फरियादी यह सोच कर आता है कि, असाधारण अधिकार और शक्ति संपन्न न्यायपालिका, बिना किसी पक्षपात के, विधिसम्मत रूप से, उसके अधिकारों की रक्षा करेगी।
एक व्यक्ति के नाते, हर जज की भी एक विचारधारा हो सकती है, राजनीतिक सोच और लगाव भी हो सकता है पर जब वह पीठ पर आसीन होता है, तो उससे वही अपेक्षा रहती है, कि जो भी निर्णय होगा, वह न केवल न्यायपूर्ण होगा, बल्कि न्यायपूर्ण दिखेगा भी। जकिया जाफरी केस के बाद अब, हिमांशु कुमार का मामला भी ऐसा ही है, जिसमे अदालत ने कुछ ऐसी बातें अपने फैसले के कही हैं जिनपर लंबे समय तक कानून के जानकर हैरान होते रहेंगे और बहस करते रहेंगे।
हिमांशु कुमार का मामला इस प्रकार है ~
साल 2009 में गोमपाड़ में पुलिस ने 16 माओवादियों के मारे जाने का दावा किया था. लेकिन इस मामले में घायल एक आदिवासी महिला ने दावा किया था कि सुरक्षाबलों ने गांव के निर्दोष लोगों की फर्जी मुठभेड़ में हत्या की है। इसके बाद इस मामले में दंतेवाड़ा में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार और अन्य 12 लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी।
लगभग 13 सालों तक चली सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की जांच के लिए एसआईटी गठित करने की भी बात कही थी. लेकिन स्वतंत्र जांच की बात टल गई। इसी साल अप्रैल में केंद्र सरकार की ओर से हिमांशु कुमार और अन्य याचिकाकर्ताओं के ख़िलाफ़ अदालत में आवेदन दिया गया और याचिकाकर्ताओं के ख़िलाफ़ ही सीबीआई या एनआईए से जांच की मांग की गई थी।
सुप्रीम कोर्ट ने 2009 में छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले के गोमपाड़ में 16 आदिवासियों के मारे जाने के मामले की जांच की मांग को ख़ारिज कर दी है।जस्टिस एएम खानविलकर और जे बी पारदीवाला की पीठ ने इस मामले में याचिकाकर्ता हिमांशु कुमार पर पांच लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है.
फ़ैसले के बाद हिमांशु कुमार ने बीबीसी से कहा,
"यह आदिवासियों के न्याय मांगने के अधिकार पर बड़ा हमला है. अब आदिवासी न्याय मांगने में डरेगा. इससे तो यही साबित होता है कि पहले से ही अन्याय से जूझ रहा आदिवासी अगर अदालत में आएगा तो उसे सजा
दी जाएगी. इसके साथ-साथ जो भी आदिवासियों की मदद की कोशिश कर रहे हैं, उन लोगों के भीतर डर पैदा करेगा."
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद हिमांशु कुमार ने अपना बयान भी जारी किया है:
" चंपारण में गांधी जी से जज ने कहा तुम्हें सौ रुपयी के जुर्माने पर छोड़ा जाता है
गांधीजी ने कहा मैं जुर्माना नहीं दूंगा
" कोर्ट ने मुझसे कहा पांच लाख जुर्माना दो तुम्हारा जुर्म यह है तुमने आदिवासियों के लिए इंसाफ मांगा।"
मेरा जवाब है,
"मैं जुर्माना नहीं दूंगा
जुर्माना देने का अर्थ होगा मैं अपनी गलती कबूल कर रहा हूं। मैं दिल की गहराई से मानता हूं कि इंसाफ के लिए आवाज उठाना कोई जुर्म नहीं है। यह जुर्म हम बार-बार करेंगे।"
इस दुखद घटना में, मारे गए 16 आदिवासियों, जिसमें एक डेढ़ साल के बच्चे का हाथ काट दिया गया था, के लिए इंसाफ मांगने की वजह से आज सुप्रीम कोर्ट ने, हिमांशु कुमार के ऊपर ₹5 लाख का जुर्माना लगाया है। और छत्तीसगढ़ सरकार से कहा है कि वह उनके खिलाफ धारा 211 के अधीन मुकदमा दायर करे।
तेरह साल की सुनवाई के बाद अदालत इस नतीजे पर पहुंची है कि फरियादी ही मुल्जिम है, उसने अदालत का वक्त जाया किया है और उसे जुर्माने या जेल की सजा दे दी जाय। हर फैसला एक संदेश देता है। यह फैसला क्या यह संदेश नहीं देता है कि गरीबों, आदिवासियों, बेआवाज लोगों के लिए किसी अदालत में बहैसियत फरियादी के रूप में खड़े होना, घातक हो सकता है ?
अब यह कुछ मामले हैं, जिनमे सुप्रीम कोर्ट ने, किसी जांच की जरूरत ही नहीं समझी, लेकिन क्यों, यह मैं नहीं बता पाऊंगा।
राफेल घोटाला मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बंद लिफाफे में न जाने क्या सूंघा कि उसने जांच की जरूरत ही नहीं समझी और जांच का कोई आदेश नहीं दिया। आखिर, बंद लिफाफे में ऐसे कौन से दस्तावेज थे, जिनसे अदालत मुतमइन हो गई कि जांच की जरूरत ही नहीं समझी गई ?
जब तत्कालीन सीबीआई प्रमुख, आलोक वर्मा से राफेल जांच के संबंध में, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण मिले तो रातोंरात उनका तबादला कर दिया गया, जो सुप्रीम कोर्ट के निर्देशो के विपरीत भी था और रात में ही उनके घर की तलाशी ले ली गई थी। सुप्रीम कोर्ट कुछ नहीं कर सका। कौन डर रहा था राफेल की जांच से?
यह दोनो फैसले सीजेआई जस्टिस रंजन गोगोई की अदालत से हुए हैं जो आजकल राज्यसभा में जलवा अफरोज हैं।
सीबीआई जज लोया, की मौत का मामला भी जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट को उपयुक्त नहीं लगा। कोर्ट ने कहा, साथी जज के बयान से वे संतुष्ट हैं और जज झूठ नहीं बोलते हैं। माना जज साहबान सभी दुर्गुणों से मुक्त होते हैं, पर लोया की मौत की जांच का महाराष्ट्र सरकार ने विरोध क्यों किया? सरकार को तो जांच करा लेनी चाहिए थी। पर वे तो विरोध में थे।
ज़किया जाफरी ने गुजरात दंगो पर गठित SIT जांच पर सवाल उठाए और पुनः जांच कराने की मांग की। ज़किया जाफरी की याचिका अदालत ने खारिज कर दी और तीस्ता सीतलवाड़ तथा डीजी आरबी श्रीकुमार को इस लिए दोषी पाया कि वे SIT और तत्कालीन सरकार की मंशा पर लगातार, सवाल उठा रहे थे। फैसला हुआ और अगले ही दिन तीस्ता और श्रीकुमार को गिरफ्तार कर लिया गया। यह शायद किसी भी लोकतांत्रिक देश के न्यायिक इतिहास का अकेला मामला हो जिसमे याचिकाकर्ता का साथ देने वाला जेल भेज दिया जाय।
इसी तरह हिमांशु कुमार के मामले में, उनके द्वारा आदिवासियों की हत्या की जांच कराने की मांग वाली दायर याचिका अदालत ने खारिज कर दी और, हिमांशु पर ही ₹5 लाख का जुर्माना लगा दिया। क्या अदालत यह संदेश नहीं दे रही हैं कि , बेहद महत्वपूर्ण मामलों में, जांच की मांग उनसे न किया जाय और न ही मानवाधिकारों और नागरिक अधिकारों की ही बात की जाय ?
(विजय शंकर सिंह)
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