Wednesday, 6 July 2022

डॉ कैलाश कुमार मिश्र / नागा , नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (4)


बात नागा जनजाति की कर रहे हैं तो एक बात स्पष्ट करना आवश्यक है । भोजन, वस्त्र, आभूषण पर हरेक समुदाय का अपना अधिकार और स्वतंत्रता है । जरुरी नहीं जो आपको पसंद है वह सभी को पसंद आये। फिर किसको क्या खाना है, क्या नहीं खाना है, यह उस व्यक्ति और समुदाय के लिए छोड़ दीजिये । मेरे एक मैथिल मित्र कह रहे थे: 
“अरे कैलाश जी, नागा जनजाति के लोग तो कुत्ते बिल्ली आदि खाते हैं, फिर आप उनके साथ कैसे काम करते होंगे?”
मैंने सहजता से उत्तर दिया: 
“यह संस्कृति, मान्यता, पारिस्थितिकी पर निर्भर करता है कि कौन क्या खा रहा है । मिथिला के अधिकांश ब्राह्मण कर्मकाण्डी तो होते हैं लेकिन मांस, मछली, केकरा, डोका, आदि खाते हैं । जहाँ पर वैष्णव शाकाहारी ब्राह्मण हैं वे इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते । जैन समुदाय के लोग और तो और, रात को भोजन तक नहीं करते जिससे किसी भी प्राणी (कीड़े, फ़तिंगे, चींटी) का जाने अनजाने वध न हो जाए। कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बंगाल, ओढ़िसा, असम, नेपाल के अधिकांश ब्राह्मण भी शक्ति पूजक होते हैं और मांसाहारी होते हैं। मिथिला, नेपाल में ब्राह्मण मांसाहारी भोजन तो करते हैं लेकिन प्याज, लहसुन आदि को अखाद्य समझते हैं। मिथिला के ब्राह्मण बहुत दिनो तक ब्राह्मण भोजन में टमाटर का प्रयोग इसीलिए नही करते थे कि यह बिलायत अर्थात इंग्लैंड से भारत आया था। यही कारण है कि टमाटर को मिथिला में बिलायती अथवा बिलौती (अपभ्रम्स) भी कहा जाता है।  मतलब भोजन में क्या सम्मिलित करें, क्या नही करें इसपर हरेक समुदाय की अपनी अपनी मान्यता है।  इसको क्या कहेंगे आप? भारत विविधताओं का देश है । इसकी अनेकता को मत टूटने दीजिये । सभी को अपने तरह से जीने, रहने, खाने पहनने का अधिकार दीजिये ।  नागा के अनेक गुण हैं । वे लोग मित्र होते हैं । अगर आप पर भरोसा कर लिया तो आपके लिए जान भी दे देंगे । सदैव मुस्कुराते रहेंगे। नागा बहुत साफ़ सुथरे लोग होते हैं । आप उनसे मिल के तो देखिये । पूर्वाग्रह छोड़ दीजिये । आपको उनमे बेहतरीन इन्सान मिल जायेंगे ।” मेरे मित्र चुप हो गये । 

अभी हालमे अर्थात 2019 के दिसम्बर में मणिपुर के नागा बहुल क्षेत्र उखरूल में संगीत नाटक अकादमी के एक सेमिनार में गया था । यह कहना अनिवार्य हो जाता है कि मणिपुर  की आबादी का लगभग 22 प्रतिशत जनसँख्या नागा जनजाति का हैं। यहाँ प्रमुखता से तांगखुल, माओ, जेलियांग्रोंग, एनल और मारिंग हैं। स्मरण रहे, ये सभी नागा जनजाति की।उपजातियाँ हैं । हालाकि उपजातियां कहना भी एथनोग्राफी विज्ञान और मानवशास्त्र के अनुसार उचित नहीं है। ये सभी स्वतंत्र अस्तित्व की जनजातियां हैं। लेकिन कुछ सामान्य गुणों और एक निश्चित भूभाग  में रहने के कारण इनको एक बृहत जनजातीय समुदाय नागा में रखा जा सकता है। उदाहरण के लिए कबुई, जेमी और रियांग को एक बनाकर उनको जेलियांग्रोंग कहा जाता है।

मणिपुर राज्य के वे क्षेत्र जो म्यांमार, नागालैंड और मिजोरम की सीमा से सटे हुए हैं,  मूलतः नागा बहुल क्षेत्र हैं। इसमें मणिपुर का उखरूल, तामेंगलोंग, सेनापति और चंदेल प्रमुख नागा बहुल जिले हैं । 

उखरूल धरती का श्रृंगार है, प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है, हिल स्टेशन तो है ही। आप चाहें तो इसे  नागा का गढ़ कह सकते हैं नागा इस स्थान से आत्मिक लगाव रखते हैं। मैं  उखरूल शहर में वैसे ही बाज़ार में रविवार के दिन घुमने लगा । कुछ दैनिक जीवन से संबंधित समान खरीदना था। लेकिन एक भी दुकान खुला नही था।  पता चला कि रविवार के दिन पूरा बाज़ार बंद रहता है । ऐसा क्यों? इसीलिए के लगभग 98 प्रतिशत नागा वहाँ इसाई हो चुके हैं । वे लोग रविवार को बहुत देर तक अपना समय चर्च में प्रार्थना और सेवा कार्य में लगाते हैं । वहाँ के सभी दुकानदार, एवं अन्य लोग जिसमे राजस्थानी, बंगाली, असमिया, बिहारी एवं मेईते लोग हैं  जो नागा नहीं हैं, सभी उनके साथ ताल में ताल मिलाकर जीवन जीते हैं । वे लोग भी रविवार को बाज़ार बंद रखते हैं । यद्यपि कभी भी कोई नागा समूह का नेता, या व्यक्ति या चर्च उनको दुकान एवं अन्य प्रतिष्ठान बंद करने के लिए नहीं कहता । 

समस्या हमारी अर्थात भारत के मुख्यधारा के लोगों के साथ भी है । हमलोग पता नहीं क्यों आज भी नागालैंड की तो बात ही छोड़ दीजिये पुरे उत्तरपूर्व भारत के बारे में कुछ भी नहीं जानना चाहते हैं । उत्तरपूर्व का ताई अहम् मुग़ल से पहले भारत आये और मुग़ल के बाद गए । फिर भी भारत में हम लोग यही कहते रहते हैं कि बाहरी शासको में सबसे अधिक काल तक मुगलों ने राज किया । हम नहीं जानते कि पोलो खेल का जन्मदाता मणिपुर है । हम यह भी नही जानते कि लोकतक झील में पानी में तैरता हुआ गाँव बसा हुआ है । हम नही जानते कि लिखित इतिहास का प्रारम्भ मणिपुर में हुआ था । जब कभी भी नागा जनजाति की चर्चा करते हैं, हम यह मान लेते हैं कि नागा अर्थात जो नागालैंड में रहते हैं । जबकि नागा जनजाति नागालैंड के अतिरिक्त मणिपुर, असम, अरुणाचल, मिज़ोरम में भी हैं । और तो और ये नागा लोग मयन्मार में भी हैं । नागा जनजाति एकता के लिए लड़ने और संगठित होने के लिए जाने जाते हैं । मुझे एक ऐसा नागा प्रधान मिला जो नागालैंड, मणिपुर, अरुणाचल और मयन्मार को मिलाकर लगभग 325 नागा गाँव का मुखिया था । वे लोग नगालिम (Nagalim) अर्थात ग्रेटर नागा क्षेत्र की मांग बहुत दिनों से कर रहे हैं । स्थानीय और केंद्र सरकार नागा नेताओं के साथ वार्तालाप करते रहते हैं । अभी इस विषय पर नहीँ लिखना ही उचित लगता है । 

2007 में जब मै पूरे उत्तरपूर्व भारत की सांस्कृतिक विरासत के मूर्त और अमूर्त स्वरुप के संरक्षण, संवर्धन, एवं प्रलेखीकरण के लिए भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के लिए कार्य कर रहा था तो एक दिन मणिपुर में कुछ नागा प्रतिनिधि मुझसे मिलने आये । उन्होंने कहा: 
“हमलोगों के नेता (अंडरग्राउंड कह लीजिये) आपसे मिलना चाहते हैं। क्या आप मिलना पसंद करेंगे ?”
मैंने हाँ कह दिया । 
अब उन्होंने एक शर्त लगाया । शर्त यह था कि मुझे उनपर विश्वास करना था । वे लोग मेरे दोनों आंखों पर पट्टी बांधकर मझे गहन जंगल की और ले जाना चाहते थे । काम थोड़ा जोख़िम का था । हालाँकि 2005 से लगातार मैं उत्तरपूर्व भारत और सिक्किम के बिभिन्न स्थानों और समुदायों के साथ लगातार काम कर रहा था । उनसे अर्थात स्थानीय लोग, नेता, विद्यार्थी, संस्कृति कर्मी, कलाकार, आदि से सम्बन्ध प्रगाढ़ होते जा रहे थे । वे मुझपर विश्वास करने लगे थे। मैं उनपर विश्वास करने लगा था । मैं वहां उनके साथ कार्य करते हुए अपने आपको सौभाग्यशाली समझ रहा था। मेरे अकादमिक ज्ञान का विस्तार ग्राउंड रियलिटी के आधार पर हो रहा था। किताबी ज्ञान को जीवन के यथार्थ और सांस्कृतिक संवाद एवं लोगों के साथ अनुभव से पुख्ता कर रहा था। संस्कृति के साथ साथ वहां की प्रकृति का स्वरूप, विस्तार, वैभव और संस्कार को समझने लगा था। वहां की संस्कृतियां और प्रकृति का स्वरूप वैसे तो अनंत महासागर की तरह है, फिर भी कतरा कतरा ही सही वास्तविक ज्ञान से अपने आपको अपडेट तो करने ही लगा था। चार्म, रोमांस और कार्य करने का जज्बा मुझपर हावी हो रहे थे। ऊपर से स्थानीय लोगों का समर्थन और भी रोमांच पैदा कर रहा था। प्रति माह कम से कम बीस दिन मैं उत्तरपूर्व भारत में बिताने लगा था। 

एक क्षण रूककर एक संस्मरण याद करने लगा । 2006 के अंतिम महीने में असम में नार्थ कछार हिल्स जो कि अब दिमा ह्साओ के नाम से जाना जाता है, वहाँ के दिमासा (नागालैंड में दीमासा को कछारी के नाम से जाना जाता है) नागा, वैफे, कुकी, एवं अन्य आदिवासी समूह के कुछ युवक एवं युवती मेरे पास गुहाटी के श्रीमंत शंकरदेव कलाक्षेत्र में मेरे पास आये और कहने लगे : 
“आप नार्थ कचार हिल्स के डिस्ट्रिक्ट मुख्यालय हाफलोंग शहर में क्यों नहीं कुछ सांस्कृतिक कार्यकर्म, डॉक्यूमेंटेशन, सेमिनार, नृत्य आदि का कार्यक्रम रखते हैं?’ 

संयोग से मेरे सभी मित्र, दिल्ली के बॉस, एवं असम के लोगों ने वहाँ यह कहकर जाने के लिए मना किया कि किसी भी समय मेरा अपहरण किया जा सकता है । जान मार दिया जा सकता है । या फिर कार्यस्थल पर ही बम बिस्फोट किया जा सकता है । मै पूरा डर गया था । मौत से भला कौन नहीं डरता? मैं भी डरा नहीँ, बुरी तरह भयभीत हो गया था । लेकिन युवक और युवती को अगले दिन आने के लिए कहकर विदा किया था । उसमे एक जेमी नागा समूह से पति पत्नी आये हुए थे । 

अगले दिन वे फिर आये। बहुत आत्मीय भाव से कहने लगे: 
“मिश्र सर, आप चलो हाफलोंग। हमलोग आपकी और आपके टीम की रक्षा करेंगे। जब तक आप रहेंगे पुरे नार्थ कछार हिल्स में कुछ नही होगा । आप दस दिन की योजना बनाकर चलिए। नार्थ कछार ऑटोनोमस हिल्स कौंसिल, उसका सांस्कृतिक केंद्र और सभी स्थानीय प्रशासन आपके साथ रहेंगे।” 

मुझे उनलोगों ने सच कहूँ तो बहुत निडर बना दिया था। मुझे लगा: 
"इस लघु और दुर्गम क्षेत्र में 15 आदिवासी समूह के लोग भी तो रहते हैं। यहां के लोग विकास क्या है, इससे वंचित हैं। कार्यक्रम तो इन्हीं स्थानों पर आयोजित करने की जरूरत है। ऊपर से बराक नदी घाटी  पर भी कार्य तो करना ही है। अगर ये लोग ईमानदारी से मेरा और मेरे टीम की सुरक्षा की जिम्मेवारी ले रहा हैं तो मुझे अवश्य जाना चाहिए।" 
यही सोचते हुए अन्ततः मैंने हाँ कह दिया। 

मुझे बराक घाटी के नॉर्थ कछार हिल्स में एक दस - दिवसीय सांस्कृतिक कार्यशाला सह पब्लिक परफॉर्मेंस करना इसकी जानकारी मैंने अपने बॉस अर्थात इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव डॉ. कल्याण कुमार चक्रवर्ती को दूरभाष पर दिया। वे मुझे परिवार के सदस्य के समान स्नेह करते थे। उत्तरपूर्व भारत में अनेक जगह हमारे साथ चलते थे। कैसे कहां और किस विषय पर कार्य करना चाहिए इस बारे में मंत्रणा देते थे। मेरे अनुभव और विचार को गंभीरता से सुनते थे। परियोजना बनाने और उसको कार्यान्वित करने का ऑटोनोमी देते थे। प्रशासन और अकाउंट्स के लोग बेवजह मुझे परेशान न करे इसके लिए उन्होंने पहले ही निर्देश दे रखा था।   मुझसे से बात करते ही चक्रवर्ती महोदय बिफर पड़े। कहने लगे: 
"अपने जान की चिंता नहीं है तो के कम से कम बाल बच्चो की तो सोच लो। नॉर्थ कछार हिल्स में काम करना सही नहीं है।"

लेकिन मैंने तो मन बना लिया था। मैं अपने निर्णय पर अडिग था। मैंने उनको विश्वास दिलाया की वहां मुझे कोई।दिक्कत है। स्थानीय लोग सभी तरह से मेरे साथ हैं। वहां जाने से एक नया संबंध स्थापित होने की संभावना है। आधे मन से ही सही, चक्रवर्ती महोदय ने मुझे हफलोंग शहर जाने की आजादी दे दिया। हमने तैयारी शुरू कर दी। हमलोग सड़क मार्ग से अपने काफ़िले।के।साथ चले जा रहे थे। प्रकृति का मनमोहक और कौमार्य स्वरूप देखकर मैं चकित था। जिस तरह से कालकाजी से शिमला जाने के लिए नैरो गेज पटरी का निर्माण कर अंग्रेजो ने रेल सेवा की पटरी का निर्माण किया है ठीक वैसा ही 1894 में अंग्रेनो ने हैफलॉन्ग के लिए रेल ट्रैक बनाकर रेल सेवा शुरू किया गया था। लोगों में गजब का उत्साह था। लोग हजारों की संख्या में आने लगे । सुबह से लेकर देर रात तक कार्यक्रम होते रहते । 15 जनजातियों पर काम किया गया । कोई दुर्घटना अथवा अप्रिय घटना नही घटी। हमलोग जिस दिन गुवाहाटी आये उसके अगले दिन ही वहाँ विस्फोट हुआ जिसमे 4 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। 

मुझे अब यह वाकिया और नार्थ कछार हिल्स की सफलता ने मणिपुर में भी अंडरग्राउंड नागा के सरदार से मिलने के लिए उत्साहित कर रहा था । काफी सोच विचार के बाद मै उनके साथ आँखों में पट्टी बांधकर जाने के लिए तैयार हो गया। 
(क्रमशः) 

© डॉ कैलाश कुमार मिश्र

नागा , नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (3) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/07/3.html 
#vss

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