Tuesday, 12 July 2022

डॉ कैलाश कुमार मिश्र / नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता : आंखन देखी (10 )

भेषजीय नमक और चिकित्सा - "ब" ~ 

 बात भेषजीय नमक की कर रहे थे। मेरे गुरु जी प्रोफ़ेसर डी के भट्टाचार्य ने मुझे सुझाव दिया: “इस तरह के ज्ञान का अधिक दिनों तक रहकर एक एक जानकारी संकलन करोगे तो तुम्हारा श्रम साकार होगा।” मैंने इसी बात को ध्यान में रखते हुए डॉ बिलासनी देबी के साथ नमक पर कार्य करने के लिए बारह दिन का कार्यक्रम निर्धारित किया। उसका अंजाम सुखद था । कुछ स्थानीय इतिहासकारों का मानना है कि बहुत से अलग अलग हिस्से से लोग अनेक ऐतिहासिक कालखण्ड में मणिपुर आते गये और यहां आकर बसते गए। उन्ही लोगों में पश्चिमी प्रवासी का नमक बनानेवाले एक दल म्यांग क्लिचास (Mayang Kalichas) पश्चिमी सीमा से यहाँ घुसे। मान्यता है कि 2000 वर्ष पहले ये लोग समुद्री मछुआरे थे। इनको मछली पकड़ने और नमक बनाने का ज्ञान था। जैसे जैसे समुद्र से दूर देश की ओर प्रवास करते गए विपरीत परिस्थिति में भी लवणयुक्त जल ढूंढकर नमक बनाना सीखते गए। पहली बार बराक और इरिल नदी को पार करते हुए यहां आकर लैमाताक (Leimatak) नदी के किनारे अपना घर बनाए। इस प्रदेश के मैतेई इस समुदाय के लोगों को पंगल मार कहते थे। यह समुदाय नमक बनाता था, उसको बेचता था, मैतेई और जनजातीय समुदाय के लोगों के साथ नमक के बदले में आवश्यक वस्तु जैसे फल, शब्जी, मांस, लकड़ी, अनाज, मसाला आदि का आदान प्रदान भी करता था। 

धीरे धीरे इन लोगों ने अगल बगल के 4 गांव में अपना वास बना लिया। कहते हैं कि 930 ईस्वी में राजा एडऑन थिंकोल्होम्बा ने इनपर आक्रमण किया और जीत गया। बहुत लोगों को युद्धबन्दी बनाकर मणिपुर ले आया। कालांतर में अनेक जगहों में भेषजीय नमक का निर्माण एक उद्योग के रूप में इस समाज के लोगों ने राजा पैखोम्बा (1666-97) के शासन काल में प्रारम्भ किया। कालांतर में इस तरह के स्थान की खोज की गयी, जहां पेड़, पौधे, घास, अन्य भेषजीय वनस्पति, खनिज, पत्थर आदि के साथ-साथ जल में पर्याप्त मात्रा में लवण का हिस्सा व्याप्त था। अब पूरे राज्य में कहीं भी नमक का आभाव नहीं था। 

पेम्बरटन (Pemberton) के रिपोर्ट (1835)  के अनुसार यहाँ अनेक प्रकार के खनिज के साथ-साथ नमक भी प्राकृतिक रूप में उपलब्ध था। जो सबसे उत्तम अथवा उपयुक्त स्थान नमक के लिए चिन्हित थे उनमें दुइखोंग, निंगेल, सेंगमिई और चुन्दरूखोंग प्रमुख है। इन सभी जगहों में व्यापारिक रूप से बड़े स्तर पर राजा के निर्देशन में भेषजीय नमक का उत्पादन किया जाता था। इन लोगों अर्थात नमक बनाने बालों को प्रति घर नमक के उत्पादन और गुणवत्ता की दृष्टिकोण से राज प्रशासन को कर के रूप में राशि अथवा नमक देना पड़ता था। नमक को बाजार में बेचा जाता था और विभिन्न जनजातीय समुदायों से तंबाकू, सब्जी, फल, मांस, मछली, अनाज, लकड़ी, शहद, अदरख, आदि के बदले आदान प्रदान की प्रथा भी देखने को मिलता था। 

जहां भी जल में लवण का आधार या यों कहें कि साल्ट बेस होता है उस जगह के पहाड़ी से लवण युक्त जल चारों दिशाओं से घाटी के गहरे क्षेत्र में एकत्रित होता रहता है। जल के साथ जड़ी बूटी, जीवन रक्षक खाद्य खनिज आदि भी आते रहते हैं और जल में घुल जाते हैं। जहां पानी एकत्रित होता है वहां पानी की उपलब्धता के अनुरूप एक से चार कूप बनाया जाता है। कूप का आकार अर्थात चौड़ाई बहुत कम रखा जाता है परंतु गहराई 45 से 70 फुट तक होती है। वह क्षेत्र जहाँ लवण युक्त पानी उपलब्ध होता है और कूप का निर्माण उस पानी को संजोने के लिए किया जाता है, उस स्थल को मेंतेई भाषा में थुमखोंग कहते है। थुमखोंग दो शब्दों – थुम और खोंग के मेल से बना है जिसका अर्थ क्रमशः नमक और कूप होता है। 

जहाँ प्रातः काल अत्यधिक भाप बने और भाप से चारो ओर अंधेरा छा जाए तो समझ लेना चाहिए कि वहां का पानी में साल्ट बेस अर्थात प्रचुर मात्र में झील के पानी में लवण के गुण व्याप्त है। नमक की मात्रा और उत्पादन का आकार जल की उपलब्धता पर निर्भर करता है।

गहरे कूप का निर्माण अति वैज्ञानिक ढंग से जल के रखाव और शुद्धिकरण के लिए किया जाता है। स्थान के हिसाब से 45-70 फुट गहरा कूप खोदने के पश्चात उसमें उसी आकार के लकड़ी को बीचो बीच सिलेंडर की तरह खोद कर उसमें डाल दिया जाता है। लकड़ी के बीच बीच में अगल बगल से भी हल्का छेद कर दिया जाता है जिससे चारो तरफ से जल छनकर कूप में आता रहे और एकत्रित होता रहे। लकड़ी में भी औषधीय गुण है जो एकत्रित पानी में घुलता मिलता रहता है। और पानी की गुणवत्ता को प्रेरित करता है। 
सामान्यतया कूप से जल निकालने औऱ उसे नमक निर्माण के कार्यस्थल तक पहुंचाने का काम पुरुष करते हैं। पानी मिटटी के घड़े (इशैफु) में भरकर लाते है और विशाल मटके में एकत्रित करते है। यहीं नमक बनाया जाता है। यह चारो तरफ़ से खुला होता है। छत में या तो खपरा या टिन का शेड होता है। एस्बेसटस भी हो सकता है। इस कार्यशाला की लम्बाई अधिक और चौड़ाई उस अनुपात में काफी कम होता है। कार्यशाला को थुम-शुंग-शांग कहते हैं। थुम-शुंग-शांग का शाब्दिक अर्थ थुम अर्थात नमक, शुंग अर्थात बनाने का, एवं शांग अर्थात छत। दरबाजे पर मिट्टी के विशालकाय आयताकार चूल्हे में किसी भी दिशा से लकड़ी डाला जा सकता है। चुलहे को थुम लेइरांग कहते हैं । चुलहे के मुख्य द्वार से इंधन दिया जाता है और जले हुए चारकोल (चमांग) को बाहर निकाला जाता है । कंटीले झाड़ी, वन्य लकड़ी आदि का प्रयोग जल को गर्म करने के लिए किया जाता है। नमक निर्माण की प्रक्रिया घर पर सामान्यतया महिलाओं के द्वारा किया जाता है।

दो चूल्हे या थुम लेइरांग के मध्य पर्याप्त स्थान छोड़ने का प्रावधान है जिससे नमक बनाने के कार्य में संलग्न महिला आसानी से उस स्थान में बैठ कर अपने कार्य का संपादन दक्षता के साथ कर सके। किसी भी प्रकार का व्यवधान नही हो। दो चूल्हे के बीच के स्थान जहाँ लोग बैठकर कार्य का संचालन करते हैं को फाम्बल कहते हैं। कूप से जो पानी लाया जाता है उसको विशाल मिटटी के घड़े खारुंग में डाल कर भण्डारण कर लिया जाता है। इससे नमक निर्माण के समय पर्याप्त मात्रा में पानी हमेशा कलाकार के पास सहजता से उपलब्ध रहता है। अब चूल्हे पर पानी को गर्म उच्च ताप पर किया जाता है। पानी को चूल्हा में गर्म होने के लिए चढाने के पूर्व उसे साफ कपड़े से अच्छी तरह से छान लिया जाता है जिससे नमक में किसी प्रकार की गन्दगी का प्रवेश न हो सके। सर्वप्रथम मिट्टी के बर्तन में ही या किसी अन्य बर्तन में पानी को रखकर उसको ताव पर चढ़ाया जाता है। जब पानी आधा भाप बनकर उड़ जाता है तब उसमें भिन्डी का बीज और कोई स्थानीय भेषज डाल दिया जाता है। इससे फेन बनकर सभी तरह की गन्दगी बाहर आ जाती है। इसके बाद नमक बहुत सफ़ेद हो जाता है ।

जब पानी सूखकर एक आठवें हिस्से के बराबर रह जाता है तब धीरे-धीरे इसमें नमक का स्वरुप दिखने लगता है। अग्नि के ताप को संचालित करने के लिए लकड़ी के बने डंडे अथवा मोटे लाठी की आकृति के एक उपकरण “मैफेई” का प्रयोग किया जाता है। इससे जले हुए राख और चारकोल को चूल्हे से बाहर निकलना, अन्य जलती हुई लकड़ी पर नियंत्रण करना, आंच को इच्छानुसार, कम अधिक करना आदि क्रिया का संचालन सहज हो जाता है। बैठने का स्थान, जिस मिटटी के वर्तन में पानी को गरम किया जाता, उसके अगल-बगल के स्थान, व्यवहृत कुलछे आदि को शीतल करने के लिए पीने का पानी अर्थात मीठा जल एक मिटटी के वर्तन (चिलेनखुम) में रखा जाता है। अब इसको कुछ देर और गर्म करने के बाद छोटे बर्तन में डाल कर लगातार कलछुल  से चलाते रहना पड़ता है। इसका तात्पर्य यह है की नमक वर्तन को कठोरता से पकड ना ले। कुछ देर के बाद मिट्टी या लोहे के उथले तबे अर्थात थुम कागोक पर गीले नमक को रोटी के आकार में बनाने की प्रक्रिया का प्रारम्भ होता है। पिघले हुए नमक को निकालने और तवे में डालने का कार्य जिस वर्तन से किया जाता है उसका निर्माण “कोरेट” अर्थात पके हुए लम्ववत लौकी से किया जाता है। लौकी के पक जाने पर उसके गूदे को एक छेद करके निकाल लिया जाता है। फिर उसे धूप और छाँव में सुखाते है। यह धीरे-धीरे मजबूत बन जाता है। यह ताप का कुचालक होता है अतः लगातार प्रयोग से भी कार्य करनेवाले का हाथ नही पकता है। साधारण से दिखनेवाला उपकरण असाधारण कार्य करता है। अवक्षेपित नमक को “काम्बी” अर्थात मिटटी के एक प्लेट में एकत्रित किया जाता है। 

केक को अंततः प्लेट की आकृति में परिवर्तित कर दिया जाता है। खाने वाले तेल से थोड़ा तबे के आधार को गीला कर दिया जाता है, जिससे नमक तबे से चिपके नहीं। कलात्मक आकार देने के लिए पीतल के छोलन (चिलेल) का प्रयोग किया जाता है। लगातार अग्नि के संसर्ग में रहने से चिलेल गर्म होकर प्रयोग करनेवाले को किसी प्रकार की हानि ना पहुचाये इसलिए चिलेल में काष्ठ का हैंडल या डंडी लगा दिया जाता है। इसके प्रयोग से नमक को इच्छित आकार में सहजता से परिणत किया जाता है। चेगाई अर्थात किसी खुरदुरे चीज़ जो सामन्यतया किसी वर्तन (मिटटी) का अवशेष होता है से नमक के रीम को खुरचते रहते हैं। नमक को बहुत ही कलात्मक आकार दिया जाता है। सामान्यतया तीन साइज में इसे बनाया जाता है - बहुत बड़ा, मध्यम कद का और चाय के प्लेट के समान छोटा। लगातार लकड़ी के बने कलछी से घुमा-घुमा कर आकार दिया जाता है। गोल आकृति सावधानी से बनाया जाता है। महिलाएं इतनी सिद्धस्त होती हैं कि बात करते हुए गीत गाती हुई भी गोलाकार में कहीं कमी नहीं आने देती हैं। समस्त कलात्मक स्वरुप। सर्वत्र समानुपातिक। अब लकड़ी से बने मुहर से केक से सतह के मध्य भाग में मुहर लगा दिया जाता है। यह एक प्रकार का स्थानीय ब्रांडिंग है। मुहर लग जाने से नमक किस ग्राम में और किस परिवार में बना है इस बात को सहजता से समझा जा सकता है। तैयार होने के बाद उसे केले के पत्ते में लपेट कर खुली हवा में छोड़ दिया जाता है। केले के पत्ते भी नमक रस चूसता है और अपने स्वाद में मधुरता लाता है। एक दिन के बाद उसे टोकड़ी में सजा कर रख दिया जाता है। सामान्यतया 100 केक का एक टोकरी होता है। परम्परा के अनुसार साल के प्रारम्भ में जब प्रथम बार नमक का निर्माण होता है तो एक उत्सव का आयोजन राजमहल में किया जाता है। सभी लोग नमक लेकर जाते हैं। पहला नमक देवता को चढ़ाया जाता है फिर राजा को। उस दिन राजा यह भी घोषणा कर देता है कि अब इस नमक को दैनिक जीवन में भोज्य पदार्थों में डालकर खाया जा सकता है।

यह नमक भेषजीय होने के साथ ही साथ पूर्ण शाकाहारी भी है। कितने दिन भी क्यों न रख लें यह खराब नहीं होता है। इसमें किसी तरह का कीड़ा या फंगस नहीं लगता है। यह सदैव शुद्ध रहता है।
(क्रमशः) 

© डॉ कैलाश कुमार मिश्र

नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता : आंखन देखी (9)
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