भारत की संविधान सभा में दिया गया जवाहरलाल नेहरू का वह मशहूर भाषण याद कीजिए जो उन्होंने भारत के झंडे को राष्ट्रीय झंडा घोषित किए जाते समय 22 जुलाई 1947 को दिया था।
उस दिन नेहरू ने कहा :
"हमारे दिमाग में अनेक चक्र आए पर विशेषकर एक प्रसिद्ध चक्र जोकि, अनेक स्थानों पर था और जिसको हम सब ने देखा है, उसने हमारा ध्यान खींचा है। वह है अशोक की प्रमुख लाट के सिरे पर स्थित चक्र और अन्य स्थानों का चक्र।
वह चक्र भारत की प्राचीन सभ्यता का चिह्न है- वह और भी अनेक बातों का प्रतीक है जिसको इस काल में भारत ने अपनाया। अतः हमने सोचा कि इस चक्र का चिह्न वहाँ होना चाहिए और वही चक्र दिखाई देता है। मैं स्वयं तो बहुत प्रसन्न हूँ कि किस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से हमने इस झंडे के साथ केवल उस प्रतीक को ही नहीं अपनाया बल्कि एक प्रकार से अशोक के नाम पर भारत के ही नहीं वरन संसार के इतिहास के एक बड़े महान नाम को भी अपनाया। अच्छी बात है कि झगड़े फिसाद और असहिष्णुता के समय हमारा विचार उस बात की ओर हुआ जिसका प्राचीन काल में भारत हामी था और मैं आशा तथा विश्वास करता हूँ कि भूल और त्रुटियाँ करने पर तथा समय-समय पर निराहत होने पर भी इस समस्त काल में प्रधान रूप से भारत इस विचार का समर्थन करता रहा। क्योंकि यदि भारत किसी महान लक्ष्य को न अपनाता तो मेरे विचार से भारत जीवित भी न रहता और न इस दीर्घकाल तक अपनी सभ्यतामूलक परंपराओं को जारी रख सकता था। वह अपनी सभ्यतामूलक परंपरा को जारी रखने में न केवल सफल रहा, बल्कि परिवर्तन भी करता रहा लेकिन उसके मुख्य सार को उसने सदैव धारण किया है, नई प्रगति तथा नए प्रभाव के अनुसार अपने को ढालता रहा।
भारत की यही परंपरागत प्रथा रही है : वह सदैव नई कलियाँ और पुष्प खिलाता रहा है- सदैव अच्छी बातों को ग्रहण करता रहा जो उसे प्राप्त हुई-कभी-कभी बुरी बातें भी ग्रहण की परंतु अपनी प्राचीन सभ्यता के प्रति वह सच्चा रहा।"
जवाहरलाल नेहरू का अशोक के प्रति यह लगाव किसी चक्रवर्ती सम्राट से किसी आधुनिक शासक का लगाव नहीं था बल्कि वह एक ऐसे पूर्वज से लगाव था जो भारत की श्रेष्ठ परम्पराओं को दो हजार वर्ष पहले पल्लवित-पुष्पित कर चुका था।
वास्तव में सम्राट अशोक के अभिलेख इस बात की गवाही देते हैं कि वह अपने समय को बदल देना चाहता था, हिंसा और तामझाम से भरे समाज को एक नैतिक भावबोध प्रदान करने की उसकी इच्छा थी। यह इतिहासकारों के बीच विवाद का विषय हो सकता है कि वह ऐसा करने में कितना कामयाब रहा लेकिन इस पर कोई दो राय नहीं है कि उसने अपने समय को बदलने की पूरी कोशिश की। और यह बदलाव कोई एकरैखिक नहीं रहा था जिसमें किसी ‘समरूप प्रजा’ का निर्माण किया गया हो। ‘धम्म’ की शिक्षा देने के बावजूद लोगों के पूर्ववर्ती विश्वास बने रहे और सम्राट ने खुद कहा कि लोगों के अपने विचार विश्वास बने रहें और वे एक दूसरे की निंदा न करें। उसने वाक्-संयम को बढ़ावा दिया और कहा कि दूसरे पाषण्डों(संप्रदायों) को निंदित और हल्का करने के प्रयास नहीं किए जाने चाहिए।
(साभार, Rama Shanker Singh की वॉल से)
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