धर्म निरपेक्षता में कितने पेंच ~
(1) संविधान सभा में इस बात पर बहुत सिर फुटौव्वल बहस हुई थी कि सभी तरह के अल्पसंख्यकों, मुसलमान , ईसाई , दलित , आदिवासी , एंग्लो इण्यिन और अन्य को भी दोहरे मतदान के संयुक्त निर्वाचक समूह की छूट दी जाए , जिससे वे राष्ट्रीय जीवन में अपने प्रतिनिधियों को आनुपातिक आधार पर अलग से चुनकर बहुसंख्यक वर्ग के उम्मीदवारों के लिए भी वोट कर सकें। अल्पसंख्यकता के आधार पर नौकरियों और रोजगारों में आरक्षण की मांग भी की गई क्योंकि इससे कमतर उनके लिए आजादी का कोई महत्व नहीं था। राष्ट्रीय आंदोलन की आधारभूत प्रवक्ता पार्टी कांग्रेस ने सुझाव का कड़ा विरोध करते उसे अमली जामा पहनाने नहीं दिया। बीसवीं सदी के इतिहास पर उचटती नजर डाली जाए तो दो बातें उभरेंगी। धार्मिक अल्पसंख्यकों को न तो विधायिकाओं में आनुपातिक प्रतिनिधित्व मिला और न ही सरकारी नौकरियों और रोजगार में। उलटबांसी यह कि उपरोक्त सुझावों को मान लिया गया होता तो मुनासिब आनुपातिक नुमाइन्दगी मिल जाने की संभावनाएं साकार हो सकती थीं। शायद इससे संविधान की धर्म निरपेक्ष मंशा पूरी हो जाने की संभावनाएं बढ़ जातीं।
संविधान चाहता रहा है कि, इन अल्पसंख्यक समूहों को सामाजिक समास में तब्दील किया जाए। अल्पसंख्यकों के छोटे छोटे समूह जैसे ईसाई, पारसी, एंग्लो इंडियन और यूरो-भारतीय वगैरह ने हालात से समझौता कर लिया। कुल मिलाकर अल्पसंख्यकों को दिए गए गारण्टीशुदा अधिकार और समान नागरिक संहिता के संकेत मुसलमानों के खाते में पड़े रहे। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि संविधान सभा ने अल्पसंख्यकों को राष्ट्रीय जीवन में आत्मसात करने की कोशिश करने वाले किसी एजेण्डा को संकुचित नहीं किया। पाकिस्तान का मुसलमान अपने देश में बहुसंख्यक है। इसलिए उसे अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली गारण्टियां नहीं चाहिए। मुस्लिम पाकिस्तान समान नागरिक संहिता की बात सोच भी नहीं सकता। भारत का संविधान अपनी विचित्र, प्रतिकूल और प्रतिगामी राजनीतिक परिस्थितियों के बावजूद सांस्कृतिक, प्रगतिशील, बुनियादी, संवैधानिक दस्तावेज है। वह मजहबों की पकड़ से अलग नवोन्मेष का आत्मसाक्षात्कार भी है।
(2) 28 अगस्त 1947 को अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर रिपोर्ट पेश करते सरदार पटेल ने संविधान सभा में यह कहा था ‘‘मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों द्वारा, पेश किये हुये संशोधन को लेकर, यदि मुझे यह मालूम होता तो मैं निश्चित रूप से किसी प्रकार के संरक्षण के लिये सहमत नहीं होता। मैं इसी ख्याल से राजी हुआ था कि मुस्लिम लीग के हमारे मित्र यह समझेंगे कि हमारा दृष्टिकोण कितना तर्कपूर्ण है और देश के विभाजन के उपरांत बदली हुई परिस्थिति के अनुरूप आचरण करेंगे। अब देखता हूं कि वे उन्हीं तरीकों को अपना रहे हैं जिन्हें उन्होंने उस समय अपनाया था जबकि इस देश में पहले पहल पृथक निर्वाचक मण्डल जारी किए गए थे। पृथक निर्वाचक मण्डलों के इस देश में प्रयोग में आने के उपरान्त मुसलमानों के दो दल रहे हैं, एक राष्ट्रीय मुसलमानों अर्थात् कांग्रेसी मुसलमानों का दल और दूसरा मुस्लिम लीग का। एक समय अधिकतर लोग संयुक्त निर्वाचन प्रणाली के विरुद्ध हो गए। एक समय ऐसा आया, कि इलाहाबाद में समझौता हो गया। हमने उस समझौते को नहीं माना। देश विभाजित हो गया है। फिर भी आप कहते हैं कि हम उसी ढंग को फिर अपनाएंगे और एक बार फिर विभाजन करेंगे। अच्छा होगा एक दूसरे की विचारधारा ठीक ठीक समझ लें। वही ढंग फिर अपनाया गया जो देश के विभाजन के लिये अपनाया गया था, तो मैं कहूंगा जो लोग इस तरह की बातें चाहते हैं उनके लिये पाकिस्तान में जगह है, यहां नहीं"।
(3) 30 अगस्त 1947 को विश्वम्भर दयाल त्रिपाठी ने अल्पसंख्यकों के सिलसिले में जिरह करते कहा था,
‘‘हमारे देश में भी एक भाषा होगी और जब तक हम यह निश्चय नहीं करते तब तक इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारी राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ नहीं हो सकती और सांस्कृतिक एकता भी ठीक नहीं हो सकती। हम यह भी मानते हैं कि हजार, दो हजार, दस हजार, हमारे मुसलमान भाई देश के बाहर से आये थे, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि यह कहना कठिन है कि उनमें से कुल कितने हैं और हैं या नहीं, लेकिन इस समय अधिकांश 90 फीसदी मुसलमान, 100 फीसदी हिंदू, 100 फीसदी ईसाई एक ही पूर्वजों की संतान हैं। हमारी एक संस्कृृति है, इसके यह अर्थ नहीं हैं कि एक-दूसरे की संस्कृति में हमने भाग नहीं लिया और जो संस्कृति है उसमें दोनों का भाग नहीं है। मैं मानता हूं कि दोनों का भाग है, लेकिन इसमें भी कोई संदेह नहीं कि हमारे संस्कार एक हैं।‘‘
यक्ष प्रश्न है किसी मज़हब का अनुयायी होना व्यक्तिगत अधिकार है अथवा उस मज़हब का अनुयायी व्यक्ति पर सामाजिक अधिकार ? संविधान में हर व्यक्ति को धर्म संबंधी स्वतंत्रता है। अन्य मजहब में शामिल होकर उसका प्रचार करने के अधिकार भी हैं। कुरान की आयतों में कहीं उल्लेख नहीं है कि, किसी मजहब के बहुसंख्यक अनुयायी अपने ही मजहब के एक व्यक्ति को, अपने ही मज़हब के अनुशासन में बने रहने का फतवा जारी कर सकते हैं। इसके बावजूद फतवे जारी किए जा रहे हैं। हुक्म नहीं मानने वालों के सिर तोड़े जा रहे हैं। संविधान या किसी कानून में प्रावधान नहीं है कि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के धार्मिक विश्वासों में हस्तक्षेप करे। ईसाई धर्म में शामिल होने से आदिवासियों को शिक्षा, स्वास्थ्य, आधुनिकता और सामाजिकता की स्थितियों में बेहतर संभावनाएं नज़र आती रही हैं। ईसाई मिशनरियों का केवल इतना सोचना नकारात्मक समाजशास्त्रीय समझ है। मनुष्य में पशुत्व की ज़रूरतें तो हैं, लेकिन मनुष्य पशु नहीं है। भौतिक सुविधाओं के नाम पर धर्म परिवर्तन कराना गहरी सामाजिक भूल और अभिशाप है। ईसाइयत में समानता और बंधुत्व की समाजशास्त्रसम्मत परिकल्पनाएं, व्यवस्थाएं और व्यवहारगत स्थितियों का समानांतर चलन हिन्दू व्यवस्थाओं में नहीं है। 26 मई 1949 को संविधान सभा में सरदार पटेल ने अल्पसंख्यकों संबंधी संवैधानिक मसविदा पेश किया। उन्होंने फिर दावा किया कि सभी संवैधानिक व्यवस्थाएं आपसी सहमति द्वारा तय की गई हैं। उनके अनुसार सलाहकार समिति में केवल एक सदस्य ने इन व्यवस्थाओं का विरोध किया था।
(जारी)
कनक तिवारी
© Kanak Tiwari
हिन्दू, हिन्दुत्व, सेक्युलरिज़्म और मुसलमान (5)
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