Saturday, 30 July 2022

डॉ कैलाश कुमार मिश्र / नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (19)

पूर्वोत्तरी - स्पिरिट ऑफ नार्थईस्ट “ब” ~
 

"कलाकेंद्र में किसी महान कार्यक्रम के पहले दिन कलाकार की मौत" यह एक ऐसा न्यूज होता जो सभी के मेहनत पर पानी डाल सकता था। लेकिन भला हो दिवंगत कलाकार के परिवार के सदस्यों का और हमारी टीम भावना का कि हम बच गए।

इस दुर्घटना ने एक बार पुनः उत्तरपूर्व भारत के लोगों के बारे में मेरे मन में असीम श्रद्धा और प्रेम उत्पन्न कर दिया। लग रहा था कितनी सहजता से मृतक कलाकार की पत्नी और बेटा हमे बता रहे थे कि, उनको पहले से दिल की बीमारी थी। मृत्यु दुखद है लेकिन इस बीमारी में यह अनहोनी घटना नहीं है। न शिकवा न शिकायत। हमने जो किया वे संतुष्ट थे। यह जरुर कह रहे थे कि जब भी कोई कार्यक्रम करें उनके लिए सोच लें। अगर ईमानदारी से सोचें तो यह तो नितांत मानवीय गुण है। इसमें कहीं से भी बुराई नहीं है। कलाकारों का जीवन तो ऐसे ही चलता है। हमारे देश में कलाकार के बारे में सोचता कौन है? लोक कलाकार तो और भी हाशिये पर चले गए हैं। किसी भी योजना, सोच, चिंतन, विकास के फॉर्मेट का ये हिस्सा नही होते। कौन सोचता है इनके बारे में? न सत्ता पक्ष न विपक्ष। बड़े ओहदे के अधिकारी तो इन्हें दोयम दर्ज़े का मनुष्य समझते हैं। लोक कला से लोक कलाकार उदासीन होते जा रहे हैं। 100 में से 80 लोक कलाकार अपने बच्चों को अपनी लोक कला नही सिखाते। उन्हें डर है कि इनके बच्चे इन कलाओं के बल पर दो जून की रोटी भी ढंग से नहीं खा सकेंगे। 

पहले दिन की दुर्घटना से यह ज्ञान तो मिल ही चुका था कि अब मीडिया से बहुत दोस्ती नहीं रखनी है। अगर एक गलती के कारण ब्रेकिंग न्यूज़ में हमारी असावधानी को, 'असफ़लता और धन का दुरूपयोग' बता दिया तो फिर हम सिर ही पिटते रह जायेंगे। पत्रकारिता के 95 फ़ीसदी लोग तो Man biting a Dog (मनुष्य ने कुत्ते को काट लिया) को ही ब्रेकिंग न्यूज बनाते हैं। शायद हम पाठक और श्रोता भी इसके लिए दोषी हैं। एक पत्रकारिता से संबंधित घटना याद कर पा रहा हूं। उसका जिक्र यहां जरूरी है। मेरी एक दोस्त थी। वह एक अंग्रेजी अखबार पायोनियर के लिए काम करती थी। मुझे हरेक सप्ताह एक लेख कला संस्कृति एवं कला संस्थानों पर केंद्रित करते हुए लगभग 1200 शब्द में लिखने बोलती थी। मैने लिखना शुरू किया। अजंता पर लिखा, एलोरा के कैलाश गुफा पर लिखा, अनेक लोक कलाओं पर लिखा वह नियमित मेरे आलेख छापती रही। एक दिन बोली: "यार के के तुम कला संस्थानों पर भी सबकुछ अच्छा है, ऐसा लिखते हो। तुम्हारे लिए सही होगा लेकिन हमारे लिए यह सेंसेशन नही बनता। ज्ञान ब्रेकिंग न्यूज नही बन सकता। इसको स्कूल और कॉलेज के सिलेबस में डालकर पढ़ाया जा सकता है। मैं तो कहूंगी कि संस्थानों की कमजोर कड़ी, या कुछ और लिखो। रूटीन और कला सौंदर्य पर एक आध पैराग्राफ लिखकर आगे निकल जाओ।"
मैं बोला: "यह मेरे से नही होगा। में सौंदर्य पक्ष पर ही लिखूंगा। कला के प्रमाण, इतिहास, विन्यास, रंग परफॉर्मेटिव परम्परा, कला और कलाकार पर लिखूंगा, उनके उद्भव और विकास पर लिखूंगा। नैराश्य अथवा नकारात्मक पक्ष पर नहीं लिखूंगा। यह काम शोधकर्मी अथवा संस्कृति कर्मी का नही है। यह काम किसी पत्रकार से करवा लो आप। मुझे मुक्त कर दो इस जिम्मेदारी से।" इसके बाद एक आध अंक के लिए लिखकर मैने पायोनियर अखबार के लिए लिखना छोड़ दिया। 

प्रसंग अनेक हैं। किसको लिखूं किसको छोडूं यह निर्णय सहज नही है। एक प्रसंग कलाकारो से संबंधित है उसका  जिक्र करना अनिवार्य है। चलिए, इस घटना को याद कर लें।  एक बार एक एनीमेशन के वर्कशॉप के लिए मैंने आदिवासी और लोक कलाकारों को बुलाया था। एनीमेशन के प्रशिक्षण के लिए नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ डिजाईन (NID) के एसोसिएट प्रोफेसर के साथ उनको भी हवाई जहाज से आने के लिए कह दिया था। मेरे ऊपर तो, एकाउंट्स से लेकर सभी अधिकारियों ने, प्रश्नों की झड़ी लगा दी। उनके ऑब्जेक्शन का उत्तर देते-देते मैं पागल हो गया। एक राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लोक कलाकार को ये लोग एक एसोसिएट प्रोफेसर के समकक्ष नहीं मानते थे। अपनी अज्ञानता पर इतना घमंड तो कहीं देखा नहीं। खैर बहुत ही मुश्किल से वे माने और इस हिदायत के साथ उस फाइल को स्वीकार किया कि, मैं भविष्य में इस तरह की गलती न करूँ। क्या करता, गलती मान लिया – मरता क्या नहीं करता।

अपनी गति में फिर हम सभी गतिमान हो गये थे। दस दिन तक ना खाने का समय न अपने बारे में सोचने का समय। 24 X 7 हम व्यस्त रहते थे। लेकिन काम सही चल रहा था। विद्वान, कलाकार, तक्निशियन, सभी अपनी जिम्मेवारी समझ रहे थे। व्यस्तता में परमानन्द की अनुभूति कर रहा था। कार्य की सफलता मानो खाली पेट में भी अनेक भोज्य विधानों का रस दे रहा था। वाह, क्या दिन थे। एक दिन जब असम के माजुली द्वीप के सतरा लोग भाव नृत्य का कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे थे तो लग रहा था कि कितने अभागे हैं हमलोग जो पूर्वोत्तर भारत के इस वैष्णव कला से अनभिज्ञ हैं जिसका प्रारम्भ सतरहवीं शताब्दी में श्रीमंत शंकरदेव ने किया। बाद में इस परम्परा को श्रीमंत शंकरदेव के शिष्य श्रीमंत माधवदेव ने आगे बढाया। कहता चलूँ की सतरा नृत्य पहले केवल पुरुषों द्वारा किया जाता था। अब यद्यपि महिलाये भी इस नृत्य को सिखने लगीं हैं और इसका प्रदर्शन भी करने लगी हैं। सतराधिकारियों के पाण्डुलिपि और उनके ज्ञान एवं भक्ति पर हमलोगों ने दिन में ही एक दिन संगोष्ठी के साथ-साथ परफॉरमेंस का भी आयोजन किया था। पूरा माहौल मानो कृष्णमय हो गया था – “हरे कृष्ण गोबिंद मोहन मुरारे। यही नाम हरदम हो मुख में हमारे।”

इतना ही नहीं, पूर्वोत्तर भारत के लोग अनेक तरह के शाकाहारी और मांसाहारी व्यंजनों का स्टाल लगाये हुए थे। इसमें सुबह 9 बजे से लेकर रात के 12 बजे तक कोई भी आकर अपने मन पसंद का भोजन खरीदकर खा सकता था। हमने सभी पूर्वोत्तर राज्यों के मुख्यमंत्री एवं राज्यपाल को निमंत्रित किया था। इतना ही नहीं उत्तरपूर्व भारत के सांसद, मिनिस्टर, राज्यों के रेजिडेंट कमिश्नर, सभी आमंत्रित थे। ख़ुशी इस बात की थी कि सभी एक-एक कर अलग अलग दिन और कार्यक्रमों में आ भी रहे थे। दूसरे राज्यों के सांसद, अधिकारी को भी हम बुला रहे थे। हमने दिल्ली के अनेक विद्यालयों से एक समझौता कर लिया था कि वे अपने बच्चो को पूर्वोत्तरी का प्रदर्शनी, फिल्म शोज, कार्यक्रम आदि देखने के लिए भेजेंगे। कुछ कॉलेज के छात्र छात्राएं भी भाग ले रहे थे। अनेक देशों के राजनयिक एवं अन्य अधिकारीयों को आमंत्रित किया गया था। पूरा कैंपस दुल्हन की तरह सजा हुआ था। परिधान, खान-पान, नृत्य, गीत, फोटोग्राफी, गृह आर्किटेक्चर, जडीबुटी, प्राकृतिक फल, फुल, शब्जी, कंद, मूल, पेय पदार्थ, दैनिक व्यवहार के उपकरण, वाद्ययंत्र, गहने, पगड़ी, और न जाने क्या-क्या। जो भी खोजिये, मिलेगा। इन सभी चीज का व्यवस्थापन अगर कोई कर रहा था तो वह था गौतम शर्मा। इसका मतलब यह नही कि और राज्य के लोग कार्य नही कर रहे थे। गौतम शर्मा उन सभी के साथ एक लिंक का कार्य कर रहे थे। 

शाम के समय नागाओ का युद्ध नृत्य और गीत, उनके पारंपरिक खेल का प्रदर्शन, मणिपुर का मार्शल नृत्य और अन्य करतब, अनेक आदिवासियों के प्रेम गीत के साथ सौन्दर्य से लबालब गान एवं नृत्य, लड़के और लड़कियों का समवेत नृत्य और गान, सभी कुछ मनमोहक थे। अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र के मोनपा आदिवासी के मुखौटा नृत्य, सिक्किम के भूटिया, लेपचा, लिम्बू, एवं अन्य समुदाय के नृत्य, गीत, अनेक वस्त्र और गहनों से सुसज्जित महिला पुरुष का संस्कृति प्रेम और न जाने क्या-क्या सब कुछ विलक्षण था। अलग-अलग तरह के एवं कुछ अजूबे वाद्ययंत्र, उनसे निकलते अपूर्व ध्वनि, कलाकारों का करतव, दर्शक और श्रीताओं के मध्य मधुर समन्वय, सब कुछ मंत्रमुग्ध करनेवाला था। लोग अर्थात सामान्य दर्शक और श्रोता सब कुछ देखकर मंत्रमुग्ध थे। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि पूर्वोत्तर भारत के इस तरह के समपन्न सांस्कृतिक और प्राकृतिक सम्पदा से वे आज तक अनभिज्ञ थे। सुबह-सुबह कलाकार वाद्ययंत्रों को उच्च, मध्यम और लघु ताल में बजाकर लोगों के कान में मानो मधुर रस घोलकर उठाते हों। 

अनेक आदिवासी समुदाय के बुजुर्गों, पुरुष एवं महिलाओं को बुलाया गया था। वे लोग आपस में अपने झगड़े, जमीन का विवाद, लड़ाई झगडा आदि का निराकरण कैसे करते हैं अर्थात कस्टमरी लॉ की क्या भूमिका है आदि पर उनसे उन्हें अलग-अलग समूह में बिठाकर उनके क्रिया कलाप को डिजिटली डॉक्यूमेंट किया जा रहा था। लोगों के वाद्ययंत्रों को बनाने की कला, सिखाने का परंपरागत तरीका, अलग-अलग समुदाय के लोगों का भेषजीय ज्ञान, अलग-अलग देवताओं के बारे में विस्तृत जानकारी, प्रकृति के बारे में उनकी धारणा, महिला और पुरुष की भूमिका, लोक कथा, लोक गाथा, गीत, नृत्य, जादू, टोना, मेन्टल लेंडस्केपिंग, और न जाने क्या-क्या। 

उधर अलग-अलग बिंदु पर संगोष्ठी पर चर्चा किया जा रहा था। ताई अहोम, उनका ऐतिहासिक, प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक महत्व, दीमासा किंगडम की ऐतिहासिक विशेषताएं, इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स और पूर्वोत्तर भारत के निवासी, ट्राइबल आइडेंटिटी, प्रकृति के साथ संस्कृति और वहाँ के निवासियों का तारतम्य, बढ़ते समय के साथ परंपरागत कृषि, विशेषकर झूम कल्टीवेशन का आज के समय में महत्व एवं उसमे परिवर्तन, उत्तरपूर्व की समस्याए एवं उसके निदान में स्थानीय नेता, युवक, महिला, विद्यार्थी एवं विद्वानों के साथ-साथ निति निर्धारकों की भूमिका, उत्तरपूर्व भारत का इतिहास, पूरा इतिहास, भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में उत्तरपूर्व भारत की भूमिका क्या कुछ नही थे। यह कार्यक्रम एक फेस्टिवल नही अपितु मेगा-इवेंट था – न भूतो, न भविष्यति। 

और, अभागा मैं! मुझे किसी भी कार्यक्रम को एक जगह बैठकर देखने का, सुनने का, निहारने का और उसपर सोचने का वक्त कहाँ मिल पाता था। मैं तो केवल यह सोचकर निश्चिन्त था कि सभी कार्यक्रम का व्यवस्थित ऑडियो-विसुअल रिकॉर्डिंग हो रहा है, मौका मिलने पर उनको एक-एक कर देख सकता हूँ। 

कार्यक्रम का अंतिम दिन था। जॉइंट सेक्रेटरी मेरे पास आई। पीछे से मेरे पीठ पर हाथ रखी। लगा किसी आत्मीय व्यक्ति ने हाथ रख दिया है। पीछे मुड़कर देखा तो जॉइंट सेक्रेटरी थी। मैं एकाएक डर गया। लगा: “फिर डाटने आ गयी है। पता नही क्या-क्या कहेगी!” अभिवादन करते हुए बोला: “जी मैडम! बताएं क्या करना है। वह आत्मिक बनी रही। हंसती रही। फिर बोली: “बहुत अच्छा काम कर रहे हो। मुझे नहीं मालुम था कि तुम इतनी गम्भीरता और समर्पण से उत्तरपूर्व भारत के लिए कार्य कर रहे हो। मुझे डॉ टीना ने गलत जानकारी दी थी। कोई बात नही। इस इवेंट की समाप्ति के बाद तुम मुझसे मिलो। मैं तुम्हारे साथ कुछ और महत्वपूर्ण कार्य करना चाहती हूँ।”
मुझे लग रहा था कि ये क्या हो रहा है। सच है या सपना देख रहा हूँ ! लेकिन अधिक ख़ुशी व्यक्त करना उचित नही लगा। विनम्रता से बोल दिया: “जी मैडम, आप जो आज्ञा देंगी, करूँगा। इवेंट की समाप्ति के तुरत बाद आपसे अपॉइंटमेंट लेकर मिलता हूँ।” 
जॉइंट सेक्रेटरी बोली: “नहीं-नहीं कैलाश। तुमको अपॉइंटमेंट लेने की जरुरत नही है। ये लो मेरा मोबाइल नंबर। जब मन हो फोन कर लो और आ जाओ।”
मुझे लगा, हे भगवान, यह क्या हो रहा है! खैर मैं वहाँ से कहीं और चला गया। 

आज मेगा इवेंट का दसवां और अंतिम दिन था। सभी लोग मौजूद थे। दिन भर हमलोग व्यस्त रहे। शाम का कार्यक्रम शुरू हो चुका था। आज कपिला वात्स्यायन भी आई थीं। अनेक राज्यपाल और दो मुख्यमंत्री आये थे। मुझे डॉ चक्रवर्ती अपने पास बुलाकर यह निर्देश दे दिए थे कि कहीं की दर्शकों के साथ रहो। कार्यक्रम शुरू था। कार्यक्रम के बीच मुझे स्टेज पर बुलाया गया। मैं इसके लिए तैयार नहीं था। मैं बोला: “मुझे नहीं कुछ बोलना है। कार्यक्रम को आगे बढाइये।” डॉ चक्रवर्ती बोल पड़े : “जाओ बोलो। तुम्हे सोचने की क्या जरुरत है? तुम तो इस इवेंट के सूत्रधार हो। जाओ स्टेज पर जाते ही खुद ही समझ जाओगे तुम्हे क्या बोलना है।”
अब मैं स्टेज को ओर चल पड़ा। मेरे स्टेज पर पहुँचते ही जितने भी पूर्वोत्तर भारत के कलाकार और अन्य लोग थे , सभी एक साथ बोल पड़े “मिश्रा सर!” बता नहीं सकता कि इन दो शब्दों में कितना मिठास था। फिर वे बहुत देर तक ताली बजाते रहे। मैं बोलने लगा। चन्द शब्द बोल पाया। क्या बोला मुझे नहीं पाता लेकिन इतना जरुर लग रहा था – आज मैं ऊपर, आस्मां नीचे!
(क्रमशः) 

© डॉ कैलाश कुमार मिश्र

नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (18)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/07/18.html 
#vss

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