लाल शहबाज़ क़लंदर ~
मोहनजोदाड़ो से बाहर आए तो हमें बताया गया कि कराची के रास्ते में सहवान शहर है जहां प्रसिद्ध सूफी संत लाल शहबाज़ कलंदर का मज़ार है। लाल शहबाज कलंदर के विषय में पहले भी सुन चुके थे। विशेष रूप से यह कव्वाली जो उनके सम्मान में तैयार की गई है, 'दमा दम मस्त कलंदर' अनेक बार सुन चुके थे । इस कव्वाली की कम्पोज़िंग में पाकिस्तान की प्रख्यात गायिका नूरजहां तथा नुसरत फतेह अली खान और आबिदा परवीन जैसे चोटी के गायकों ने अहम भूमिका निभाई है। अतः उनके बारे में विस्तृत रूप से जानने और उनके मज़ार पर जाने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई।
सहवान मोहनजोदाड़ो से 148 किलोमीटर की दूरी पर है जो पाकिस्तान के सिंध प्रांत में जनपद दादू का शहर है। लगभग ढाई घंटे में हम वहां पहुंच गए । एक सुंदर भव्य भवन के अंदर उनकी क़ब्र है। वहां पर काफी लोग थे जो उनकी क़ब्र पर चादर और फूल चढ़ा रहे थे। हमने भी वहां चादर चढ़ाई। वहां से निकलकर हम चारों ओर का भ्रमण करने लगे। एक स्थान पर एक पेड़ जमीन पर गिरा हुआ था। गिरे हुए पेड़ के तने और जमीन के बीच थोड़ी जगह थी। हमने देखा कि मर्द और औरतें जमीन पर लेट कर उस पेड़ के नीचे से निकल रहे हैं। जब उनसे ऐसा करने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि इस प्रकार हम अपने लिए मन्नत मानते हैं। एक जगह बहुत से धागे बंधे हुए थे और चूड़ियां लटक रही थी जो मन्नत मान कर बांधे गये थे। एक स्थान पर काफी संख्या में बच्चों के झूले रखे थे। उनके बारे में बताया गया कि जो लोग बच्चों की मन्नतें मानते हैं और उनकी मन्नत पूरी हो जाती है तो वह यहां झूला रखकर जाते हैं। एक स्थान पर पानी का कुंआ दिखाई दिया जिसके बारे में वहां बताया कि यह कुएं की शक्ल में बना दिया गया है वास्तव में यह पानी का स्रोत है। जब लाल शहबाज़ कलंदर इस स्थान पर आए तो यहां के लोगों ने उन्हें नमाज़ के लिए वज़ू करने को पानी नहीं दिया। उनके द्वारा यहां ज़मीन पर पैर मारने से पानी का चश्मा (स्रोत) उबल पड़ा था। इस पानी के नीचे पत्थर पर अभी भी उनके पैर का निशान मौजूद है। थोड़ी दूरी पर मिट्टी, पत्थर और ईंटों की टूटी हुई इमारतें जैसी दिखाई दी जिसके बारे में बताया कि यह 'उल्टा किला' है। देखने से प्रतीत होता था कि वह कभी आवास रहे होंगे।
उन्होंने यह भी बताया कि लाल शहबाज़ क़लंदर हवा में उड़ जाते थे लेकिन वह इन सब का विवरण नहीं बता सके। परंतु उनके द्वारा लाल शहबाज़ क़लंदर के चमत्कार सुनकर मन में और अधिक जानकारी प्राप्त करने का शौक उत्पन्न हुआ । अतः हमने वहां के सज्जादा नशीन (मज़ार से संबंधित महत्वपूर्ण व्यक्ति) पीर साहब से संपर्क किया और उनसे लाल शहबाज़ कलंदर के बारे में विस्तृत रूप से बताने का आग्रह किया।
उन्होंने बताया कि सूफी संत लाल शहबाज़ क़लंदर का नाम सैयद उस्मान मरन्दी था। इनका जन्म 1177 ईस्वी में मरन्द शहर, जो ईरान में आज़रबाईजान के निकट है और उस समय आज़रबाईजान की राजधानी था, में हुआ था। इनके पिता सैयद कबीरूद्दीन भी पहुंचे हुए पीर व मुर्शिद थे। लाल शहबाज़ कलंदर फारस के महान कवि रूमी के समकालीन थे। वह विभिन्न जगहों का भ्रमण करने के उपरांत 1251 ईस्वी में सहवान में आए और वहीं बस गए जहां उन्होंने खानकाह (मीटिंग भवन) बनाई। वह मज़हब के काफी जानकार थे और पश्तो, फारसी, तुर्की, अरबी, हिंदी और संस्कृत भाषा जानते थे। उन्होंने कई किताबों की रचना की जिसमें 'मीज़ान उस सुर्फ' 'क़सम ए दोयम' और 'अक्द और ज़ुबदा' प्रसिद्ध हैं। वह पाकिस्तान के शहर मुल्तान गए जहां उनकी दोस्ती अन्य सूफी संतों, हज़रत बहाउद्दीन ज़करिया, हज़रत जलालुद्दीन बुखारी और बाबा फरीदुद्दीन से हुई। यह सूफी मत के चार यार कहलाए। 19 फरवरी 1274 ईस्वी को उनका देहांत हो गया तथा सेहवान में उन्हें दफन कर दिया गया। 1356 ईस्वी में फिरोज़शाह तुग़लक़ ने उन का मक़बरा बनवाया जिसका विस्तार बाद में मिर्ज़ा जानी बैग और उनके पुत्र मिर्ज़ा ग़ाज़ी बेग ने कराया। अंत में पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिक़ार अली भुट्टो ने इसका सौंदर्यकरण कराया।
हमने पीर साहब से कहा कि बाहर बहुत से व्यक्ति लाल शहबाज़ कलंदर के चमत्कारों के विषय में बोल रहे थे। इस संबंध में आप कुछ बताएं। उन्होंने कहा कि वैसे तो उनके बहुत से चमत्कार हैं जिनमें से कुछ के बारे में आपको बताता हूं।
एक दिन वह जज़ब (स्थान का नाम) में छोटे छोटे पत्थरों से खेल रहे थे। इन पत्थरों को हवा में उछाल देते और कुर्ते का दामन फैलाकर उसमें समेट लेते थे। एक व्यक्ति वहां से गुज़र रहा था। उसने उन्हें ऐसा करते देखा तो कहा, हज़रत आप पत्थरों से खेल रहे हैं आप जैसे अल्लाह वालों को हीरे, जवाहरात और लाल ( रूबी पत्थर) से खेलना चाहिए। आप ने उससे कहा कि किसने कहा कि यह पत्थर हैं। उन्होंने अपने कुर्ते का दामन खोला तो उसमें से हीरे, जवाहरात और लाल गिरने लगे। जब लोगों को यह बात पता चली तो उन्होंने आपको हजरत उस्मान लाल कहना आरम्भ कर दिया। वह लाल रंग के कपड़े पहनते थे जिसके कारण कुछ लोग उन्हें पहले से ही लाल कहते थे।
हमने पीर साहब से कहा कि सुना है वह हवा में उड़ जाते थे इस बारे में भी कुछ प्रकाश डालें। उन्होंने कहा कि एक बार शहबाज़ क़लंदर अपने तीनों दोस्तों के साथ जा रहे थे अचानक वह ठहर गए। साथियों ने पूछा हज़रत क्या हुआ। आपने फरमाया मुझे इलहाम (देववाणी, आकाशवाणी) हुआ है कि मेरा एक शिष्य मुसीबत में है। उसे उस गुनाह की सजा दी जा रही है जो उसने नहीं किया है। मुझे वहां जाकर उसे बचाना है। उन्होंने पूछा कि आपका शिष्य कहां रहता है। तो उन्होंने कहा कि यहां से हजारों मील दूरी पर रहता है। उनके दोस्तों ने कहा फिर आप उसकी मदद कैसे करेंगे। उन्होंने कहा ऐसे और जमीन पर एक छलांग लगाई और हवा में उड़कर अदृश्य हो गये। कुछ समय के पश्चात वह अपने शिष्य के साथ वापस आगए। उनके साथियों ने कहा कि वाह आप तो शहबाज़ हैं अर्थात (उड़ने वाले पक्षी) बाज़ से भी तेज। इस प्रकार उनका नाम लाल शहबाज़ हो गया और क्योंकि वह इधर-उधर भ्रमण करते रहते थे अतः लाल शहबाज़ कलंदर कहलाने लगे।
वह झूलेलाल भी कहलाते थे। पीर साहब ने बताया कि वार्षिक उर्स (मेले) के समय लगभग 20 लाख श्रद्धालु मज़ार पर आते हैं जिसमें सिंध प्रांत में रहने वाले हिंदू भी होते हैं। कुछ हिंदुओं का मानना है कि लाल शहबाज़ क़लंदर सिंध प्रांत के हिंदुओं के लोकप्रिय नेता झूलेलाल का पुनर्जन्म हैं। हमने पीर साहब से पूछा कि बाहर कुछ व्यक्ति 'उल्टा किला' के बारे में चर्चा कर रहे थे। इस पर भी कुछ प्रकाश डालिए। उन्होंने बताया कि यहां का राजा बहुत ज़ालिम और क्रूर था। वह जनता पर बहुत ज़ुल्म करता था। जब लाल शहबाज़ कलंदर को पता चला तो उन्होंने एक बुजुर्ग बोदला को राजा के पास यह संदेश लेकर भेजा है कि वह जनता पर ज़ुल्म करना बंद कर दे। राजा ने उनकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया बल्कि उन्हें क़त्ल करा दिया और उनकी लाश को टुकड़े-टुकड़े करके फिकवा दिया। लाल शहबाज़ कलंदर जब उनको ढूंढते हुए वहां आए और उन्होंने बोदला को आवाज दी तो उनके बदन के टुकड़े एकत्रित होकर पुनः इंसानी शक्ल में आ गए। बोदला ने जब सारी कहानी उन्हें सुनाई तो उन्होंने क्रोधित होकर राजा का किला उल्ट दिया। वहां पर बोदला बुजुर्ग का मज़ार अभी मौजूद है। बहुत से लोग उस उल्टे क़िले को देखने आते हैं। उन्होंने बताया कि पुरातत्व विभाग के अधिकारी व कर्मचारी जब यहां किले की खुदाई करने आते हैं तो उनकी मशीनें खराब हो जाती हैं और वह क़िले की खुदाई करके कुछ खोजने में असफल हो जाते हैं।
शाम के चार बज गये थे अतः हम उनको धन्यवाद कहकर बाहर आ गए। हमारे जो संबंधी सक्खर से हमारे साथ मोहनजोदाड़ो और फिर सहवान तक आए थे वह वापस सक्खर चले गए तथा हमारी कार कराची की ओर चल पड़ी। कराची अभी 370 किलोमीटर की दूरी पर था अतः केवल पाकिस्तान के शहर हैदराबाद में थोड़ी देर खाने के लिए रुके वर्ना लगभग 100 किलोमीटर की रफ्तार से लगातार चलते रहे। रात को 10:30 बजे कराची में प्रवेश किया परंतु वहां ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे अभी शाम है। बाजार में अधिकतर दुकानें खुली हुई थी। सड़क पर मोटरसाइकिलें, कारें व अन्य वाहन दौड़ रहे थे। रात को 11:00 बजे हम घर पहुंच गए जहाँ हमारी बहन, बहनोई और उनके बच्चे हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे।
कराची में शादी और कराची व उसके निकट के ऐतिहासिक स्थलों के यादगार क्षण बाद में शेयर किए जाएंगे। अभी इस श्रंखला को यहीं समाप्त किया जाता है।
मंजर ज़ैदी
© Manjar Zaidi
भारत के वह ऐतिहासिक स्थल जो अब पाकिस्तान में हैं (19)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/07/18_30.html
#vss
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