धर्मनिरपेक्षता में कितने पेंच ~
(1) संविधान और सामाजिक जीवन में सेक्युलरिज़्म की हालत खस्ता ही की जाती रही है। उसकी पुरजोर मुखालफत संविधान सभा में हुई है। संस्कृति की इतनी ज़्यादा व्याख्याएं की जाती हैं कि सांस्कृतिक स्पेस में धर्म और धर्मनिरपेक्षता का चेहरा लहूलुहान हो जाता है। पंथनिरपेक्षता की सबसे बड़ी झंडाबरदार पार्टी कांग्रेस में भी कई ऊहापोह रहे हैं। पंथनिरपेक्षता को लेकर उसे एक प्रतिनिधि, स्थायी और टिकाऊ व्याख्या हासिल नहीं हुई।
(2) भारतीय पंथनिरपेक्षता की छटा फ्रांस की तरह नहीं है। वहां धर्म और राज्य के बीच गहरी विभाजक रेखा है। हम अन्य यूरोपीय देशों की तरह भी नहीं है। वहां कोई एक धर्म या तो राज्य का घोषित धर्म है, अथवा उसे खास मर्तबा हासिल है। भारतीय सेक्युलरिज़्म अमेरिकी संविधान के ज्यादा करीब है। वहां लगभग एक जैसी इबारत धर्म और राज्य को काले सफेद हर्फोें में अलग अलग लिखती तो है, लेकिन उनकी परिभाषा करना दुष्कर कार्य है। भारत और अमेरिका में जातीय विग्रह के लक्षण अलग अलग हैं। संविधान निर्माताओं ने अमेरिकी संविधान से निःसंकोच होकर अधिकारों की अवधारणाओं को लिया है। इसके बावजूद संविधान धर्म के मुद्दे पर अमेरिकी और यूरोपीय माॅडल से अलग ठहरता है। लेखिका गुरप्रीत महाजन के अनुसार भारत ने धर्म को लोकजीवन में रखते इस तरह का पंथनिरपेक्ष समावेश किया कि संविधान को एक उदारवादी वैचारिक ढांचा प्रचारित किया गया। धर्म फिर भी एक तरह से लोकजीवन का चेहरा बना रहा। उसके विन्यास के लिए राज्यशक्ति ने भरपूर संवैधानिक अधिकार भी दे दिए। एक अन्य विदेशी विचारक ने कह दिया भारतीय संविधान में धर्म को लेकर इतनी अधिक व्यवस्थाएं हैं कि लगता है वह खुद धार्मिक दस्तावेज है।
(3) मौजूदा समय में ‘पंथनिरपेक्षता‘ और ‘समाजवाद‘ शब्दों की न केवल खिल्ली उड़ाई जा रही, बल्कि हेठी भी की जा रही है। उससे संविधान के मकसदों को लेकर अनिश्चितताएं बढ़ी हैं। धर्मनिरपेक्षता के बदले संविधान में ‘पंथनिरपेक्षता‘ शब्द होने के बावजूद उसे नकली धर्मनिरपेक्षता बताकर जनता के गले उतारा जाता है। वह संविधान की समझ को अब भी एक बड़ी चुनौती है।ऐसी चुनौती कई इलाकों से आई है। पंथनिरपेक्षता के समर्थक भी इस संबंध में तात्विक बहसों से बचते कभी कभार शुतुरमुर्ग की तरह सांप्रदायिक आंधी को अपने ऊपर से गुजरते देखते होते हैं। संस्कृति और समाज की गुणात्मक समझ के चलते यह उचित है कि पंथनिरपेक्षता को उसके वास्तविक व्याख्यात्मक अर्थों में इस तरह बूझा जाए जिससे संविधान और धर्म की उपपत्तियों का मज़ाक नहीं बनाया जाए।
(4) पंथनिरपेक्षता के बावजूद कई लोग खुद को पहले हिन्दू, मुसलमान या सिख समझते हैं, उसके बाद भारतीय। कुछ भ्रम भी फैलाते हैं कि किसी की भी पहचान देश की मूल अस्मिता हिन्दुइज़्म से अलग हटकर नहीं हो सकती। पंथनिरपेक्षता की हिन्दुत्वभरी व्याख्या यह भी है कि ज़्यादातर मुसलमान और कुछ पुराने रूढ़ किस्म के ईसाई खुद को भारत का नागरिक समझने के बदले अपने अपने धर्मों के गर्भगृह में कोख की पहचान ढूंढ़ते हैं। कुछ तर्क हैं कि पंथनिरपेक्षता का कथित आदर्श आधुनिक मूर्खता है। स्वाधीनता के पहले सभी धर्मों और जातियों के लोगों में अपेक्षाकृत बेहतर मनोवैज्ञानिक माहौल में धार्मिक सुसंगति भी थी। राज्य से धर्म को अलग करने के पश्चिमी आधुनिक आग्रह के भारतीय परंपरा से असंगत होने से समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। आशीष नंदी का मानना है कि जैसे जैसे भारत आधुनिक हुआ है, धार्मिक हिंसा बढ़ी है, बनिस्बत पारंपरिक रीति रिवाजों वाली कई पुरानी शताब्दियों के, जब धार्मिक सहनशीलता को एक आंतरिक सिद्धांत की तरह जनमानस ने आत्मसात कर लिया था।
पंथनिरपेक्षता का एक और सांस्कृतिक राष्ट्रवादी मतवाद भी है। इसके अनुसार हिन्दू देश में हिन्दुत्व को संगठित धर्म मानना ही उसका अवमूल्यन करना है। हिन्दुत्व सामाजिक व्यवहार की परंपरा है। अन्य धर्मावलंबियों को हिन्दुओं के साथ खड़ा करने से पंथनिरपेक्षता हिन्दुत्व की जीवन पद्धति का उपहास नहीं कर सकती। आज भी इंग्लैंड में कई राजनीतिक कार्यक्रमों में कैन्टरबरी के आर्क बिशप की औपचारिक भूमिका होती है। आज भी इंग्लैंड और पाकिस्तान जैसे देशों में ईसाइयत और इस्लाम के बचाव के कानून बनाए गए हैं। भारत में हिन्दुत्व को लेकर इतनी चिल्लपों मचाने की क्या ज़रूरत है!(जारी)
कनक तिवारी
© Kanak Tiwari
हिन्दू, हिन्दुत्व, सेक्युलरिज़्म और मुसलमान (8)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/07/8.html
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