Thursday, 24 June 2021

हेमन्त शर्मा का लेख - भये कबीर, कबीर

कबीर अपने ज़माने की बेमिसाल अभिव्यक्ति थे। कबीर को लेकर एक विस्तृत वैचारिक संसार है।ख़ूबी यह है कि कबीर विश्वविघालयो में अध्ययन केन्द्र में तो हैं ही।वे दर्शन में है , वेदान्त में है। अद्वैत में है।साथ ही भिखारियों की भिक्षा का माध्यम भी है।गुरू वाणी के पाठ में भी है।ओंकार नाथ ठाकुर से लेकर कुमार गन्धर्व तक गायन में है।कबीर के यहॉं एक है दो नहीं।उनके यहॉं सुनना है।कहना नही।वे एक तरह के वाद्य हैं।और वाद्य शब्दो की भाषा से परे होते है।कबीर जीवन की तरफ़ से नही।मृत्यु की ओर से संसार को देखते है। 

छ: सौ साल से कबीर भाषा के आर पार हर कही मिलते है। कबीर मठों मे बाबा की तरह ,पंथों में पंथ गायक की तरह, ग्रन्थों में ग्रन्थ विरोधी की तरह, मुसलमानों में ना मुसलमान की तरह,पंडितों में कर्मकाण्ड के ख़िलाफ़ खड्गहस्त,सूफ़ियों में सूफ़ी,साधुओं मे साधु ,भिखारियों में कभी मॉंगने और कभी देते हुए।कामगारों मे दस्तकार, ग्रन्थों मे ग्रन्थ विरोधी के रूप में  स्थापित हैं।कबीर सॉंरगी में , ख़ज़ंडी में,घुँघरू में, करताल में,खडताल में,रेबाब में,किंगरी में हर कही मिलेगें।वे दुख मे ,विषाद में ,धूल और मिट्टी में भी आपको मिल जायेंगें। 

कबीर पढे लिखे नही थे पर उनकी रचनाएँ हर पढे लिखे के लिए आदर्श है।वे वेदान्त और अद्वैत के प्रतिपादक थे। 
छ:  सौ सालों की मौखिक परम्परा में कबीर जीवित है। कबीर की रचनाओं में तीन भेद है।साखी ,सबद और रमैनी। रमैनी में मुख्यत: दोहा चौपाई का प्रयोग के।कबीर के नाम पर क्या और कितना है इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है की उनके नाम छ लाख से ज्यादा दोहे है।“छ: लाख छानबे सहस्त्र रमैनी एक जीभ पर होय “ चेलो ने भी उनके नाम पर खूब पेला है। 

जब हिन्दी बोलियों के सहारे थी तो कबीर पहले व्यक्ति थे। जिन्होंने हिन्दी को भाषा बनाने की पहल की।उन्होने सभी भाषाओं और बोलियों से कुछ कुछ लेकर एक सधुक्ड्डी भाषा का ईजाद किया।यानी साधुओं की घुमक्डी वृत्ति से हर जगह के शब्द ले उससे नई सधुक्कडी भाषा बनाना।उन्होने दुनिया को ठेंगे पर रख एक फक्काडाना मस्ती को अपनी शैली बनाई।अपने सामान का मुँह उत्तर की ओर रखा ताकि बाक़ी दुनिया  उसके दख्खिन दिखे।उस ज़माने में कुरीतियो के ख़िलाफ़ जंग के लिए लुकाठी हाथ मे लेकर अपना घर फूँकने की तत्परता कबीर ने दिखायी। वे सुधार चाहते थे। चाहे व्यवस्था टूट जाय।बीसवीं शताब्दी में लोहिया “ सुधरो या टूटो “ का एलान कर रहे थे।जब की कबीर ने यह एलान सोलहवीं शती में ही कर दिया था। 

कबीर ने मोटी मोटी पोथियों के अस्तित्व को नकारा था। इन पोथियों के बरक्स ढाई अक्षर की प्रतिस्थापना की। उस वक्त लोकतांत्रिक समाज बना नही था।नेता विरोधी दल के पद की कल्पना नही थी।फिर भी कबीर ने “निंदक नियरे राखिए का आँगन कुटी छवाय “का उदघोष किया। मार्क्स के चार शताब्दी पहले कबीर का साम्यवाद देखिए।“ सॉंई इतना दीजिए।जामै कुटुबं समाय।मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय। मॉंग और आपूर्ति का यह फ़तवा मार्क्सवाद के जन्म से पॉंच सौ साल पहले का था।कबीर ने हमें जो साम्यवाद दिया जो प्लेटो और मार्क्स के साम्यवाद से भिन्न है। प्लेटो का साम्यवाद वंश पर आधारित है और मार्क्स का साम्यवाद अर्थ पर। कबीर का साम्यवाद जीवन मूल्यों पर आधारित है और मानव को जीने का समान अधिकार दिलाता है।इस साम्यवाद में मनुष्य साध्य है, और अर्थ साधन। और यह साधन मानव कल्याण के लिए प्रयुक्त होता है। कबीर ने कहा कि “उदर समाता अन्न लै, तनहिं समाता चीर। अधिक संग्रह ना करै, ताको नाम फकीर”।

आज से छ: सौ साल पहले भी समय  के महत्व को समझते हुए कबीर दास ने कहा कि ‘‘काल करे जो आज कर, आज करे सो अब। पल में परलय होयगी, बहुरी करोगे कब।'' इस दोहे में कबीर ने समय के महत्व को थोड़े शब्दों में ही समझा दिया था। वे काल से परे सार्वकालिक है। 

जो सबमें हैं वह कबीर में है।और जो कबीर में हैं।वह सबमें है।फिर भी वे अकेले हैं।कबीर अपने दोस्त हैं। मुहल्ले के है। आज उनका जन्म दिन है।जन्मदिन मुबारक, कबीर साहब।

हेमन्त शर्मा 
© Hemant Sharma 
#vss

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