Tuesday 22 June 2021

यूरोप का इतिहास (13)

यूरोप ईसाईयत का केंद्र है। सदियों तक इन्होंने धर्मयुद्ध भी लड़े, और औपनिवेशवाद का एक मुख्य उद्देश्य दुनिया भर में ईसाईयत का परचम लहराना भी था। वैटिकन तो कैथोलिक ईसाइयों की धुरी है ही। लेकिन, विश्व-युद्ध के बाद ईसाईयत कहाँ गयी? ऊपर गयी या नीचे गयी?

अगर हिटलर विश्व-युद्ध जीत जाता तो ईसाई धर्म के राज के लिए अच्छा ही होता। यहूदियों का योजनाबद्ध सफाया भी हो जाता। लेकिन, हिटलर तो हार गया। लाल सेना की जीत ने दो चीजें की- एक तो यहूदियों की काफी हद तक रक्षा की, दूसरी कम्युनिस्ट नास्तिकतावाद का प्रसार किया। कुल मिला कर यह ईसाई धर्म के लिए घाटे का सौदा रहा। 

यह कोई ताज्जुब नहीं कि आपको इन ईसाई देशों में अब ईसाईयों को ही बाइबल बाँटते लोग खड़े मिलेंगे, और लोग उनको बिना भाव दिए आगे बढ़ जाएँगे। इतवार को गिरजाघर तो खाली मिलेंगे ही, जब गिरजाघर की घंटी बज रही होगी, लोग शहर के केंद्र में बीयर की गिलास टकरा रहे होंगे।

पूर्वी यूरोप में पोलैंड को छोड़ कर अधिकांश देशों में चर्च की महत्ता घटती गयी। बल्कि, कम्युनिस्टों ने तो गिरजाघर बंद भी करवाए। यह भी विडंबना ही है कि इन कम्युनिस्टों में ताकतवर लोग यहूदी मूल के थे। अगर ग़ौर किया जाए तो यहूदियों की ताकत विश्व-युद्ध के बाद घटने के बजाय, बढ़ती ही चली गयी। उन्हें अपना देश भी मिला, और वह युद्ध के विजयी खेमे में भी रहे। पोलैंड, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, रोमानिया हर जगह मुख्य कम्युनिस्ट नेता यहूदी थे। यहाँ तक कि सोवियत में भी उनकी गहरी पैठ थी। उन्होंने इन देशों की ईसाईयत पर करारा प्रहार किया।

उदाहरणस्वरूप आज चेक गणराज्य में मात्र तेरह प्रतिशत ईसाई हैं, जबकि यह ईसाई गढ़ हुआ करता था। इसी तरह युगोस्लाविया, नीदरलैंड, लटविया जैसे देशों में भी आधी या उससे कम जनसंख्या ही स्वयं को ईसाई कहती है। अगर यूरोप में लौह पर्दा नहीं खिंचता, और अमरीकी डॉलर नहीं आते, तो मुमकिन था कि यूरोप से ईसाइयत नहीं बच पाती। मगर ऐसा हुआ नहीं। आज यूरोप में दुनिया के सबसे अधिक ईसाई मौजूद हैं।

यहूदियों ने यह धर्म-युद्ध के तौर पर भले न किया हो, लेकिन इस बात पर ग़ौर किया जाने लगा। हिटलर के बाद जब पूरी दुनिया को यहूदियों से सहानुभूति थी, यूरोप के लोगों को कम थी। यहूदी जब यातना शिविरों से मुक्त होकर घर लौटे, तो उनका पड़ोसियों ने फूल-माला लेकर स्वागत नहीं किया। बल्कि स्तालिन जो थोड़े वक्त के लिए यहूदी-प्रेमी हुए थे, और इजरायल निर्माण के समर्थक थे, वह भी यहूदियों पर शक करने लगे।

शक की वजह भी थी। यहूदी बुद्धिजीवियों के अमरीका से पक्के तार जुड़े थे। शीत-युद्ध के समय तो यह ‘डबल गेम’ माना जाता। इजरायल भी एक तरफ खुल कर अमरीका से संबंध रखता था, और दूसरी तरफ़ सोवियत से भी गठजोड़ बना कर रखता था। उस समय तक दुनिया दो भागों में बँटने लगी थी, और एक गुट चुनना ही था। इजरायल दोनों से खेलती रही। 

यूरोप ने एक बार फिर यहूदी-विरोधवाद देखा, जो पहले से अधिक गंभीर था। विश्व-युद्ध से पहले दुनिया के अस्सी प्रतिशत यहूदी यूरोप में रहते थे। विश्व-युद्ध के ठीक बाद यह घट कर पैंतीस प्रतिशत हो गए। अब सिर्फ नौ प्रतिशत यहूदी यूरोप में हैं। पचास प्रतिशत से अधिक यहूदी अमरीका में हैं, और बाकी इजरायल में।

यह बात कभी किसी यूरोपीय बंद कमरे के डिनर-टेबल पर ही खुलती है कि यूरोपीय ईसाइयों के सबसे बड़े धार्मिक शत्रु यहूदी ही रहे, और उनको उन्होंने ‘हुक और क्रुक’ से बाहर का रास्ता दिखाया। लेकिन, अगर वे इतने ही बुरे थे, तो अमरीका को उन्हें पालने की क्या जरूरत था? जो धर्म दुनिया का मात्र 0.2 % हो, और 20 प्रतिशत से अधिक नोबेल पुरस्कार जीत ले, ऐसे दिमाग को यूरोप ने क्यों खो दिया?

धर्मयुद्ध की आग नहीं बुझती, वह किसी न किसी रूप में चलती रहती है। अरब देशों के मध्य इजरायल को जगह दिलाना, मार्शल योजना, शीत-युद्ध, सोवियत का गिरना, बर्लिन की दीवार टूटना, यूरोपियन यूनियन का बनना। सब उसी आग की लपटें हैं। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

यूरोप का इतिहास (12)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/12.html
#vss

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