विश्व-युद्ध की तस्वीरों में जहाँ फौजी वर्दी में बंदूक लिए पुरुष दिखते हैं, युद्ध के बाद की तस्वीरों में डंगरी पहने कुदाल-फावड़े लिए महिलाएँ। डंगरी परिधान की खोज ही प्रथम विश्व-युद्ध के समय हुई, जब पुरुष युद्ध लड़ने गए और महिलाएँ काम पर लगी। यह भी एक इत्तिफाक है कि परिधान का कपड़ा भारत के डोंगरी (मुंबई) से बन कर आता था, इसलिए नाम डंगरी पड़ा। द्वितीय विश्व-युद्ध तक तो ब्रिटेन की वह महिलाएँ जिन्हें लंबे गाउन पहन कर घरेलू काम की आदत थी, वे भी डंगरी पहन कर बाहर काम करने लगी।
आप कहेंगे कि मैं परिधान की बात क्यों कर रहा हूँ? बदलते परिधान से बदलते कार्यक्षेत्र और बदलती ताकत का पता लगता है। आज अगर यूरोप में इमारत की आठवीं मंजिल को बाहर से पेंट करती, या ट्रक चलाती, या गाड़ी की मेकैनिकी करती महिलाएँ दिखती हैं तो वे गाउन में नहीं होती। वे डंगरी या जींस में ही होती हैं।
लेकिन, महिलाएँ क्या युद्ध से पीड़ित नहीं हुई? सिर्फ जर्मनी और ऑस्ट्रिया के चिकित्सकीय जाँच रिपोर्ट बताते हैं, कि 87 हज़ार महिलाओं का बलात्कार हुआ। एक अन्य रिपोर्ट कहती है कि 1945-46 में जर्मनी में पैदा हुए दो लाख बच्चे ‘रूसी’ मूल के थे। पुरुषों की हत्या और महिलाओं का बलात्कार सेना का ‘मोडस ओपरान्डी’ रहा ही। विश्व-युद्ध अन्य युद्धों से अलग इसलिए था कि यहाँ युद्ध सीमा पर दो सेनाओं के मध्य ही नहीं, बल्कि घर-घर घुस कर निहत्थे नागरिकों के साथ हो रहे थे।
इन सभी यातनाओं के बावजूद महिलाओं ने राष्ट्र-निर्माण का मोर्चा संभाल लिया। सिर्फ यूरोप ही नहीं, अमरिका में भी महिलाओं का घर से निकल कर पुरुषों वाले काम करना इसी समय शुरू हुआ। कई तो फौज में भी शामिल हुई। पूर्वी यूरोप के खेतों में फसल उगाने से लेकर बेचने तक, पश्चिमी यूरोप के बंद कारखानों को चालू करने, यातायात के साधन (बस-टैक्सी) चलाने, सभी काम महिलाओं ने करना शुरू कर दिया।
वहीं दूसरी ओर, यूरोप में एक और हलचल हो रही थी। युद्ध के बाद पलायन शुरू हुआ। हर व्यक्ति अपने मूल स्थान की ओर लौटने लगा। जो रोमाँ थे, वे रोमानिया गए। जो पोल थे, वे पोलैंड गए। जो सर्ब थे, वे सर्बिया गए। और जर्मन? वे तो जहाँ भी थे, वहाँ से निकाल भगाए गए। महज एक साल पहले वे आसमान में थे, अब वे जमीन पर औंधे गिरे थे। उनका तना सीना अब झुकी हुई पीठ में बदल गया था। उन पर ग्लानि-बोध थोपा जा रहा था, चुन-चुन कर बेइज्जत किया जा रहा था। यहाँ तक कि भाग कर जर्मनी पहुँच कर भी जिल्लत ही जिल्लत थी। जो अपने नस्ल पर गर्व करते थे, अब अपनी पहचान ही छुपाने लगे थे।
सभी जब अपने-अपने मूल स्थान को निकल गए, तो एक समुदाय मुँह ताकता रह गया। यह विडंबना है कि जर्मनी से भगाए गए यहूदियों को घूम-फिर कर जर्मनी के शरणार्थी कैम्प ही लौटना पड़ा। उनके पास अपने पूर्वजों की जमीन ही नहीं थी, जहाँ वह लौट सकें। यह तो उन्हें हासिल करना था।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
यूरोप का इतिहास (1)
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