Saturday 5 June 2021

इस्मत चुगताई - संस्मरण :06

बहस चलती रही. हम लोग उठकर बरामदे में डगर-मगर करती बेंचो पर जा बैठे. अहमद नदीम कासमी एक टोकरा माल्टे लाये थे. उन्होंने माल्टे खाने की अद्भुत तरकीब बताई. माल्टे को आम की तरह पुलपुला कर छोटा-सा सुराख कर लो और मजे से चूसो. टोकरा भर माल्टे हम बैठे-बैठे चूस गये. माल्टों से पेट भरने के बजाय और तेज़ भूख जाग उठी. लंच ब्रेक में किसी होटल पर धावा बोल दिया. सीमा की पैदाइश के सिलसिले में मैं बहुत बीमार रही थी. सारी चर्बी छंट गयी थी. इसलिए रोग़न वाले खाने से परहेज नहीं रहा. मुर्गी इतनी हृष्ट-पुष्ट थी कि बिल्कुल गिद्ध या चील के टुकड़े लग रहे थे. मोटी-मोटी काली मिर्च छिड़क कर गर्म-गर्म कुलचों के साथ और पानी की जगह कन्धारी अनार का रस. बे अख्तियारी से मुकददमा चलाने वालों के लिए दुआएँ निकल रही थीं. शाम को लुकमान ने कुछ साहित्यकारों और कवियों को दावत दी थी. वहाँ पहली बार मेरी मुलाकात मिसेज हिजाब इम्तेयाज अली से हुई. खूब मेकअप, आँखों में ढेरों काजल.

“फ्रॉड है.” मंटो ने बड़ी-बड़ी आँखें और फैलाकर मेरे कान में कहा. “नहीं वह इस फिज़ा में खोई हुई है जो उस की कलम से सपनीलें धुएँ की तरह निकली है और उसके चारों तरफ एक सतरंगा खोल बना रही है.” हिजाब इम्तेयाज अली शून्य में धूरती रही और मैं इम्तेयाज अली को ढूँढ़कर उनसे बातें करने लगी. कितना फर्क था मियाँ-बीवी के मिजाज में. इम्तेयाज साहब एकदम बातूनी, क़हक़हेबाज और खुले दिल के मालिक थे. महफिल गुलज़ार होती थी. ऐसा लगा, बरसों की मुलाकात है. उनकी बातें उनके लेखन से भी ज़्यादा खुशियों से झुमा देने वाली थी. हाल ही में जब पाकिस्तान गयी तो लाहौर में हिजाब इम्तेयाज अली से फिर मिलता हुआ. हल्का-सा मेकअप. पहले से बहुत कमसिन और खिली हुई. बहुत बेतकल्लुफ और बातूनी. जैसे दूसरा ही जन्म लिया हो.

मुझे आरग़नों देखने का बड़ा शौक था जिसका हिजाब की कहानियों में बेहद ज़िक्र होता है. मैंने कभी आरग़नों नहीं देखा था. हिजाब के यहाँ गयी तो उनसे पूछा “क्या आपके पास वाकई आरग़नों है?”
“हां देखेंगी?”
“ज़रूर, वह शब्द जिसे आपकी कहानियाँ में पढ़कर नशा छाने लगता था. आँखों में, बे-बात आँसू छलक उठते थे.” मैंने उन्हें यह भी बताया कि किसी जमाने में आपकी नकल में मैंने भी गद्य-कविता लिखी थी. जो बाद में जला दी. आरग़नों देखकर मेरे सारे जोश और रूमानियत पर ओस पड़ गयी. “अरे ये तो वही बचकाना-सा पियानों का चूज़ा है जो फिल्मी गानों की रिकार्डिंग में डिमैलो बजाया करता है. और रिकार्डिंग उसे अक्सर डांटा करता है. कभी इधर खिसकवाता है कभी उधर…और बैकग्राउंड म्युजिक में…जब हीरोइन बहुत बेचैन होती है तो इसी के सुर उसके दिमागी भूचाल को गीत की शक्ल में पेश करते हैं. आरगन कितना भोंडा नाम है और गै़न (उर्दू अक्षर) के मिला देने से कितना नाजुक, कितना गुनगुनाता हुआ. आसावरी का सुर बन जाता है.”

कोर्ट में बड़ी भीड़ थी. कई लोग हमें राय दे चुके थे कि हम माफी माँग लें. वह जुर्माना हमारी तरफ से अदा करने को तैयार थे. मुकदमा कुछ ठंडा पड़ता जा रहा था. ‘लिहाफ’ को अश्लील साबित करने वाले गवाह हमारे वकील की जिरह से कुछ बौखला से रहे थे. कहानी में कोई शब्द पकड़ के लायक नहीं मिल रहा था. बड़े सोच-विचार के बाद एक साहब ने बताया कि वाक्या “आशिक जमा कर रही थीं” अश्लील है.
“कौन-सा शब्द अश्लील है…जमा या आशिक?” वकील ने पूछा.
शब्द “आशिक” गवाह ने कुछ हिचकते हुए कहा.
“माई लार्ड, शब्द “आशिक” बड़े-बड़े शायरों ने प्रयोग किया है और नातों (मुहम्मद साहब की तारीफ में लिखी कविता) में भी यह शब्द प्रयुक्त हुआ है. इस शब्द को अल्लाह वालों ने बड़ा पवित्र स्थान दिया है.”

“मगर लड़कियों का आशिक जमा करना बड़ी घटिया बात है” गवाह बोला.
“क्यों?”
“इसलिए….क्योंकि…यह शरीफ लड़कियों के लिए शर्मनाक है.
“जो लड़कियाँ शरीफ नहीं, उनके लिए शर्मनाक नहीं.”
“…नहीं.”

“मेरी मुवक्किल ने उन लड़कियों का ज़िक्र किया है जो शरीफ नहीं होगी. क्यों साहिबा, आपके खयाल से गै़र शरीफ लड़कियाँ “आशिक” जमा करती हैं?”
“जी हाँ.”
“उनका ज़िक्र करना अश्लीलता नहीं, मगर एक शरीफ खानदान की पढ़ी-लिखी औरत का उनके बारे में लिखना शर्मनाक है.” गवाह साहब जोर से गरजे.
“तो शोक से शर्मसारी दिखाइये, मगर यह कानून की पकड़ के क़ाबिल नहीं” मामला बिल्कुल फुसफुसा हो गया.
“अगर आप लोग माफी माँग लें तो हम आपका सारा खर्चा भी देगें और…” एक साहब, न जाने कौन थे, चुपके से मेरे पास आकर बोले.
“क्यों मंटो साहब माफी माँग लें, जो रुपये मिलेंगे मजे से चीज़ें खरीदेंगे.” मैंने मंटो से पूछा.
“बकवास” मंटो ने अपनी मोरपंखी आँखें फैलाकर लिखा.
“मुझे अफसोस है, यह सिरफिरा मंटो राज़ी नहीं.”
“मगर आप, अगर आप ही…”
“नहीं, आप नहीं जानते, यह आदमी बड़ा बदमाश है. बम्बई में मेरा रहना दूभर कर देगा. इसके गुस्से से वह सज़ा हर हाल में बेहतर होगी जो मुझे मिलने वाली है.” 

वह साहब उदास हो गये क्योंकि हमें सज़ा नहीं मिली. जज साहब ने मुझे कोर्ट पीछे के एक कमरे में बुलाया और बड़े तपाक से बोले, “मैंने आपकी अक्सर कहानियाँ पढ़ी हैं, वह अश्लील नहीं और न ही ‘लिहाफ’ अश्लील है. मगर मंटो के लेखन में बड़ी गन्दगी भरी है.”
“दुनिया में भी गन्दगी है.” मैं कुनमुनी आवाज़ में बोली.
“तो क्या ज़रूरी है कि उसे उछाला जाय.”
“उछालने से वह नज़र आती है और सफाई की तरफ ध्यान जा सकता है.” जज साहब हँस दिये.

न मुकदमा चलने से परेशानी हुई थी, न जीतने की खुशी हुई. बल्कि ग़म ही हुआ कि अब फिर लाहौर की सैर खुदा जाने कब नसीब होगी.

लाहौर कितना सलोना शब्द है… लाहौरी नमक-जैसे नगीनें, गुलाबी और सफेद! जी चाहता है कि तराशकर चन्दनहार में जड़ लूँ और किसी मुटियार की हंस जैसी गर्दन में डाल दूँ. “नम्मी-नम्मी तारियाँ दी लब” सुरिन्दर कौर के गले में लाहौरी नमक के नगीने पिघलकर सुर बन गये हैं. साथ में उसके मियाँ सोढ़ी की आवाज़ में रेशमी कपड़ों की सरसराहट अजीब रस घोल देती है. लाहौर को देखकर सुरेन्द्र और सोढ़ी के सुर दिल में जाकर एक मूक-सी हलचल मचा देते हैं. आप ही आप जी भर आता है. अंजाने, अदृश्य प्रेमी की याद हूक बनकर उठती है. लाहौर की हवा में नूर घुला हुआ है, खामोश घुँघरू जैसे बजते हैं और श्रीमती हिजाब इम्तेयाज अली की कहानियों की नारंगी कलियाँ महकने लगती हैं, और उम्र का वो जमाना याद आ जाता है जब उनके रस में डूबे क्षितिज के स्वाप्निल दृश्यों में खो जाते थे.
(जारी)

© अनन्या सिंह 
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