“एक बेल्जियन, फ्रेंच या रूसी के लिए अच्छा जर्मन वही है, जो मर चुका है”
- साउल पैडोवर, अमरीकी सेना के ऑब्जर्वर
आज का भारत अधिक अमरीकी है या ब्रिटिश? हमारी जीवनशैली किस तरफ झुकी है? खान-पान, भाषा, संस्कृति, साहित्य, व्यापार, खेती-बाड़ी, भविष्य? मकाले यही चाहते थे कि भारतीय यथासंभव ब्रिटिश भाषा, शिक्षा और जीवन-शैली अपना लें। यह पूरे ब्रिटिश राज का सबसे बड़ा मास्टर-स्ट्रोक था, जिसके प्रभाव आज तक दिख रहे हैं। लेकिन आज की नयी पीढ़ी अमरिकी पूँजीवाद और मुक्त बाज़ार की वकालत अधिक करती है। इन दोनों के मध्य सोवियत के साम्यवादी विचार भी हिलकोरें मारते रहते हैं। क्या यह आश्चर्य नहीं कि भारत जैसे देश को इन देशों से विचार आयात करने पड़े, और उन्हें अपने रक्त में मिलाना भी पड़ गया?
मार्शल योजना का एक उद्देश्य यूरोप को अमरिका बनाना भी था। अमरिका के झंडे लगे स्टिकर, वैसा ही बाज़ार जहाँ मूल्य के लिए प्रतियोगी माहौल होगा। जो चीजें सौ डॉलर की थी, वह दूसरा पचास डॉलर में देगा, और पहले को भी मूल्य घटाना होगा। यूरोप का अपना उत्पाद महंगा हुआ, तो वहाँ के लोग अन्य देशों से सस्ता उत्पाद खरीद लेंगे, भले उनके देश के उत्पादक की एक न बिके।
अमरीका एक तिलिस्म था, जिससे यूरोप युद्ध से पहले प्रभावित हुआ था, और उनकी आर्थिक उछाल में यूरोप ने भी खूब छलांग लगायी थी। लेकिन, जब महामंदी (ग्रेट डिप्रेशन) आयी, तो अमरिका के साथ-साथ यूरोप भी धड़ाम से गिरा। उस गिरे हुए यूरोप को पुन: उठाने के लिए हिटलर, मुसोलिनी या स्तालिन जैसों का उदय हुआ। वे अपने-अपने देश की जनता को प्रेरित करने लगे, और राष्ट्र पूरी ताकत से खड़े हो गए। जो बैसाखी पर चल रहे थे, अब बंदूक उठा कर लड़ने लगे।
अमरिकी मॉडल भी फेल। हिटलर मॉडल भी फेल। अब आगे क्या? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि बाज़ार मुक्त भी हो, और नियंत्रित भी? जैसे दिल्ली के सभी ऑटो-ड्राइवर मिल कर एक भाड़ा तय कर लें, जो न बहुत अधिक हो, न कम। उससे कम में कोई भी यात्री बिठाने पर तैयार न हो। एक न्यूनतम निश्चित मूल्य, जिसकी मांग फ़िलहाल अमरीकावाद की आहट से डरे भारतीय किसान भी कर रहे हैं।
यूरोप का सहकारी मॉडल कुछ ऐसा ही मॉडल था। जर्मनी के पास कोयला था, फ्रांस के पास उद्योग, पूर्वी यूरोप के पास कुशल मजदूर। अगर ये तीनों एक-दूसरे के पूरक बन जाएँ तो?
मैंने कल ही एक बातचीत देखी कि पाकिस्तान की टीम भारत दौरे पर आ रही थी, और सौरभ गांगुली ने अपना बल्ला सियालकोट से ऑर्डर किया जो इंज़माम-उल-हक अपने साथ लिए आए। वहाँ बल्ले अच्छे बनते हैं, और मेरठ में भी वहीं से पलायित लोगों ने बनाने शुरू किए। उस बल्ले से सौरभ ने उन्हीं के खिलाफ रन बनाए।
यूरोप अमरीका के आगोश में पूरी तरह नहीं गया। एक भी यूरोपीय देश नहीं, जिसने अमरीका की भाषा भी अपनायी हो। अमरीका के अरबों डॉलर पचाने के बाद भी। भारत को तो अंग्रेज़ लूट कर गए, फिर भी उनकी संस्कृति अपना ली। क्यों?
शायद इसलिए कि एशिया महादेश में कोई ऐसा सहकारी मॉडल कभी संभव ही नहीं? अंग्रेज़ों के जाने के बाद भी अर्थव्यवस्था ब्रिटेन, यूरोप और अमरिका पर काफी हद तक आश्रित है? भारत को मुक्त बाज़ार और वैश्वीकरण में उज्ज्वल भविष्य दिखता है?
प्रश्न दूसरे ढंग से रखता हूँ।
जर्मनी जिससे पूरी यूरोप नफरत करती थी, उन्हें विखंडित कर देना चाहती थी, जिसके लिए रत्ती भर भी सहानुभूति नहीं बची थी, उसे आखिर यूरोप ने क्यों संभाला? चिर-शत्रु फ्रांस ने क्यों सभी रंज भुला दिए?
सहकारी मॉडल कई खंभों पर खड़ा होता है। आप चाहे किसी से कितनी भी नफ़रत करें, उसका खंभा गिरने नहीं देंगे क्योंकि उसके गिरते ही आप भी गिर जाएँगे। भारत, जापान, कोरिया, चीन, और खाड़ी देशों के असीम धन-शक्ति-संसाधन के बावजूद एशिया के खंभे एक साथ नहीं टिक पाते। यूरोप ने जैसे-तैसे ताल बिठा लिया।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
यूरोप का इतिहास (10)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/10.html
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