वह डरता है,
कुणाल कामरा के ट्वीट से,
पारुल की 'शव वाहिनी गंगा' कविता से,
मंजुल के कार्टून से।
डरा हुआ रहनुमा ही
डरा कर रखता है समाज को,
डर उसका स्थायी भाव बन जाता है,
प्रश्न के अंकुश
असहज करते हैं उसे।
तब,
डर कर छुप जाता है,
छद्म राष्ट्रवाद की खोल ओढ़ कर,
आस्था की कोटर में।
यह कैसा शुभचिंतक है
कैसा रहनुमा है यह
भयमुक्त करने के बजाय
डराता रहता है।
आशंका में हर पल, हर क्षण
समाज को भयग्रस्त रखता है।
क्या स्वार्थ है इसका
पूछना इससे
और पूछना निडर होकर
क्यो और किससे डराते हो ?
कहना इससे बिना डरे
'हिन्दू खतरे में है'
इस सदी का सबसे शर्मनाक बयान है !
( विजय शंकर सिंह )
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