इज़रायल के बनने में अमेरिका की भूमिका तो थी ही। यहूदियों को एक देश तो यूरोप या अमेरिका में भी दिया जा सकता था। उनकी संस्कृति हज़ारों वर्षों से यूरोपीय और अमरिकी ही हो चुकी थी। पश्चिम एशिया के मरुस्थल में तो उनके बाप-दादा भी कभी नहीं रहे। जेरुसलम को ताकतवर ईसाईयों ने त्याग दिया, और यहूदियों को दे दिया? क्या कभी उन्हें यीशु मसीह की धरती का मोह नहीं हुआ? एक भूटान से भी छोटे देश में क्या दुनिया भर के यहूदी समा जाते?
इज़रायल के बनने से यहूदी समस्या हल नहीं हुई, बल्कि अधिकांश काबिल यहूदी अमेरिका ही प्रवासित हुए। कई यहूदी सोवियत और यूरोप में भी रहे। लेकिन, इस इजरायल योजना से दो बातें हुई। पहला कि यहूदियों की एक धार्मिक धुरी तय हो गयी, जो उन्हें एकीकृत कर सकती थी। दूसरा कि अशांति का केंद्र यूरोप से पश्चिम एशिया की ओर हमेशा के लिए चला गया। यूरोप और अमरिका विश्व-युद्ध के बाद सुखी और प्रगतिशील होते गये, जबकि अरब-इजरायल लड़ते रहे और आगे भी लड़ते रहेंगे।
अपनी पूर्व पुस्तक (केनेडी: बदलती दुनिया का चश्मदीद) में मैंने विश्व-युद्ध के बाद अमरिका-सोवियत बंदरबाँट पर विस्तृत चर्चा की है। कुछ बातें यहाँ दोहराता हूँ।
हिटलर युग में शक्ति और विचारों के दो मुख्य केंद्र थे- जर्मनी और सोवियत। अमेरिका में भी इन्हीं दो विचारों के लोग थे- नाज़ीवाद-फासीवाद समर्थक अथवा कम्युनिस्ट। कुछ हद तक भारत जैसे देशों में भी यही स्थिति थी। अमेरिकावाद या प्रतियोगी पूंजीवाद जैसी सोच अमरिकी जनमानस को भी नहीं अपील करती थी। यूरोप में हुए विश्व-युद्ध ने अमेरिका को दुनिया के बेताज बादशाह बनाने की राह तय कर दी।
विश्व-युद्ध के बाद फासीवाद शब्द ही त्यज्य हो गया। अब तो जो फासीवादी हैं, वे भी खुल कर यह मानना पसंद नहीं करते। यूरोप में तो राष्ट्रवाद शब्द भी त्यज्य हो गया। देशभक्ति और राष्ट्रवाद को एक दूसरे का विलोम मान लिया गया।
फासीवाद के सफाए के बाद जो वैचारिक खाली जगह बची, वहाँ अमेरिका ने अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी। कमाल की बात है कि यह जगह उसे कम्युनिस्टों ने ही दिलायी। इन चीजों पर से अब पर्दा उठ चुका है कि बर्लिन को अमेरिका या इंग्लैंड की सेना भी ध्वस्त कर सकती थी, लेकिन उन्होंने लाल सेना को ही यह कार्य करने दिया। अमेरिका की अर्थव्यवस्था जहाँ इस युद्ध के दौरान दोगुनी हो गयी, सोवियत की आधी। युद्ध के बाद सोवियत ने भरपाई के लिए जर्मनी को लूटा भी, लेकिन लूटने के लिए था ही क्या?
लेकिन, अमेरिकावाद की एक बहुत बड़ी खामी है। यह गरीब और बर्बाद देशों में नहीं फल-फूल सकती। जहाँ मुद्रा का मूल्य ही रसातल में हो, वहाँ आप क्या ख़ाक पूँजीवाद लाएँगे? ऐसी परिस्थिति तो कम्युनिस्टों के लिए आदर्श है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि विश्व-युद्ध के बाद अगर अमेरिका अपनी नाक नहीं घुसेड़ती तो पूरा यूरोप साम्यवाद के आगोश में आ चुका होता।
आखिर जिन लोगों ने जर्मनी को नेस्तनाबूद किया, उन्हें ही जर्मनी को फिर से खड़ा करना पड़ा। अपनी हर मृत्यु का योजनाबद्ध बदला लेने वाले इजरायल ने भी इतने वर्षों में जर्मनी के लोगों पर उंगली नहीं उठायी। यह नहीं किया कि होलोकॉस्ट के बदले पचास जर्मन लोगों को मार दें। यह नस्लीय लड़ाई और खून का बदला खून जैसी बातें सिर्फ एशियाई देशों के लिए ही अब रिजर्व है। विकसित महादेश धन और वैचारिक स्पेस ही चाहते हैं।
जनरल एलन ब्रूक ने अपनी डायरी में लिखा, “जर्मनी अब महाशक्ति नहीं रही। अब रूस महाशक्ति है, जो एक दशक बाद हमारे लिए खतरा बन सकती है। हमें जर्मनी को फिर से खड़ा करना होगा, क्योंकि वही रूस को रोक सकती है। दुर्भाग्यवश, जर्मनी को ताकतवर बनाने के काम हम इंग्लैंड, अमेरिका और रूस को मिल कर ही करना होगा।”
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen jha
यूरोप का इतिहास (4)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/4.html
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