संस्कृति के चार अध्याय में राष्ट्रकवि दिनकर इस प्रस्थापना को लेकर सही चलते हैं कि कबीर भारत के अत्यंत महान् क्रांतिकारी पुरुष थे। कबीर की परंपरा में जो अनेक संत और महात्मा जनमे उनमें नानक, दादू,मलूकदास आदि के साथ रैदास का महत्वपूर्ण स्थान है। अपितु, कबीर के बाद नानक और रैदास दो के विचार कबीर से संपूर्ण साम्य रखते हैं। इसलिए नानक के गुरु ग्रंथ साहिब में कबीर और रैदास की साखी और बानी एक साथ दर्ज़ है। दिनकर ने तीन महत्वपूर्ण कारण बताये हैं कबीर एवं उनकी परंपरा के कवियों की क्रांतिकारिता के जो आगे चलकर हम उनकी रचनाओं के उद्धरणों के विश्लेषण में देखेंगे।
दरअसल, समाज और साहित्य की सौंदर्यदृष्टि में गहरी समानता होती है । कवि की आत्मा में जो कुछ होता है वह समाज द्वारा प्रदत्त होता है। अपने समय और समाज से कटकर साहित्य का सृजन कालजयी नहीं हो पाता है। शून्य में कुछ भी नहीं रचा जा सकता। रचनाकार का अस्तित्व ही उसकी चेतना का जन्मदाता होता है । उसका सामाजिक अस्तित्व उसकी चेतना के श्रेष्ठतर रूप साहित्य और दर्शन के सभी मूल्यों और प्रतिमानों को निर्धारित, नियंत्रित और और अनुशासित करता है।एवज़ी तौर पर जिससे वह ऋण चुकाने के रूप में उस चेतना से अपने सामाजिक अस्तित्व का परिमार्जन करता है। कहना न होगा कि सामाजिक पृष्ठभूमि की दृष्टि से संपन्न किसी साहित्य का अध्ययन ही मानवसत्ता का अध्ययन है ।
प्रथमतः,भक्ति काल का तेजतत्व तत्कालीन परिस्थितियों की जटिलताओं की चुनौती को पूरा करने के लिए कबीर, नानक रैदास आदि को न सिर्फ़ समाज के दो प्रमुख सम्प्रदायों हिंदु और मुसलमानों में व्याप्त फ़र्क़ के कारकों पर प्रहार करने में अपनी क्रांतिकारिता का परिचय दिया बल्कि दूसरे योगदान के रूप में संस्कृत और फ़ारसी के अभिजात्य वर्चस्वता के प्रति विद्रोह कर एक नई भाषा का परचम भी लहराया। और तीसरे लेकिन कम महत्वपूर्ण नहीं, संस्कृति का जो नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथ में था उसे निम्न वर्ग के हाथ में पहुँचा दिया। यही कारण और इसका परिणाम भी था कि कबीर परंपरा में कोई भी संत साहित्यकार ब्राह्मण वंश में नहीं जनमा था।
रैदास के साखी और बानी में हर उस मंत्र को हम देख सकते हैं जो सामाजिक विषमता और विभेद पर क़ायम ब्राह्मणवादी-मुल्लावादी वातायन को झकझोरने के लिए एक ओर सूफ़ी और दूसरी ओर भक्ति के नायकों ने अपने विचारों का थीम तैयार किया था।
उस समय की सामाजिक राजनीतिक स्थिति के अवलोकन से स्पष्ट है कि राजपूत राजाओं के पतन, तुर्कों के आगमन तथा बौद्ध, शैव, वैष्णवों के आंतरिक संघर्षों से ब्राह्मणों की हैसियत में ह्रास होने लगा। ज्यों ही यह शुरू हुआ कि ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और उनके द्वारा सदियों से स्थापित जातिक्रम को चुनौती मिलनी शुरू हुई। दक्षिण में यह काम पहले हुआ फिर दक्कन के उत्तरी खंड महाराष्ट्र के नामपंथ आंदोलन के साथ उत्तर भारत में प्रवेश किया। रैदास इसी आंदोलन की उपज थे जो ज़ाति के चमार थे। इनके साथ कबीर जुलाहा, सेना नाई, सघन कसाई , नानक बढ़ई थे। नामदेव भी दर्जी थे। ये लोग तत्कालीन समाज व्यवस्था के सबसे प्रबल आलोचकों में शामिल हुए। न सिर्फ जात-पात बल्कि हिंदु-मुस्लिम विभेद तथा इस विभेद के सबसे बडे सहायक धार्मिक ग्रन्थों, पूजापाठ के स्थलों, कर्मकांडों आदि पाखंडों एवं पाखंडियों पर भी जबरदस्त प्रहार किया। सामाजिक समानता की ललक को पूरा करने के लिए विभेद के मर्म पर प्रहार के उत्साह की सीमा कितनी दूर तक थी वह रैदास की इन पंक्तियों में आप सहज तलाश कर सकते हैं जिनमें उन्होंने ईश्वर के साथ अपनी समानता या समता को स्थापित कर मनुष्य मनुष्य के बीच के सदियों के विभेद के ध्वंस की व्यवस्था की है :"तुम चंदन हम पानी, तुम घन बन हम मोरा, चितबत चंद चकोरा, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोत बरै दिन राती.... ";इन पंक्तियों के ज़रिए जब एक चमार कुल में पैदा संत ईश्वर के साथ अपनी समानता को पराकाष्ठा पर पहुँचा सकता है तब समाज की मनुष्य योनि में उसी ईश्वर, ब्रह्म के प्रतिनिधि ब्राह्मणों के साथ समानता की विसात क्या रह जा सकती है।
उसी तरह ईश्वर के प्रति प्रेम का प्रकटीकरण का अंतिम उद्देश्य समानता और मानवीयता के प्रति प्रेम की स्थापना ही है । इसीलिए दास भाव की ज़गह रैदास तथा कबीर-परंपरा के तमाम संतों के द्वारा ईश्वर के प्रति साख्य भाव को ही माध्यम बनाया गया और प्रेम की दृढ़ता को काव्यों में व्यक्त किया गया है :
"कह रैदास स्वामी क्यों बिछोहे, एक पलक जुग जाई"
मानवीय श्रेष्ठता के प्रबल विरोधी होने तथा मानवीयता के गुणों के प्रसारक होने के नाते रैदास की रचनाओं में अहंकार नहीं है, उसकी ज़गह प्रेम व्याप्त है :
"पिउ संग प्रेम कबहुँ नहीं पावो, करनी कौन बिसारी
चक को थ्यान दधिसुत सों हेत है, यों तुम ते मैं न्यारी।"
ईश्वर के नाम पर प्रचलित पाखंड समाज के लिए सबसे प्रबल विभाजनकारी तत्व को पैदा करता है रैदास ने इसे कबीर की तरह ही पहचान लिया था इसलिए कबीर की ही तरह उस पर सीधा प्रहार करने से चूकते नहीं :
"थोथी पंडित थोथी बानी। थोथी हरि बिन सबै कहानी
थोथा मंदिर भोग विलास। थोथी आन देव की आसा
साचा सुमिरन नाम विसासा। मन बच कर्म कहै रविदासा
इस सिलसिले में उन्हें ईश्वर की स्थापित अवधारणाओं को भी चुनौती देनी पड़ी तो उससे वे बाज नहीं आए । बल्कि यह चुनौती कभी कभी आगे बढ़कर ईश्वर के अस्तित्व के गिरेवान तक पहुँच जाती थी। ईश्वर या ईश्वरत्व उनके लिए तभी वैध है जब वह सबके लिए सदा सहज विद्यमान है। रैदास मानव मानव के बीच समानता के इस आग्रह से ईश्वर की प्रासंगिकता निर्धारित करते हैं । मध्यकाल के सामंती समाज के लिए ईश्वर की प्रासंगिकता पर सवाल क्रांतिकारी अवधारणा ही कही जाएगी । यहाँ तक कि आज के संदर्भ में भी रैदास की तत्संबंधी उक्तियाँ 6 सौ साल पहले की ही तरह प्रासंगिक और क्रांतिकारी बनी हुई है । आज भी उनके वारिसों और देश के सामाजिक रूप से वंचित समुदाय के लिए ईश्वर का प्रसंग बेमानी बना हुआ है जैसा तब रैदास को महसूस हुआ था:
"अखिल खिलै नहिं का कहि ,पंडित कोइ न कहै समुझाई
अबरन बरन रूप नहिं जाके जाके कंह तौ लाइ समाई।
इतिहास का यह सुयोग था कि भारत की सड़ांध छोड़ती सामंती-ब्राह्मणवादी व्यवस्था के द्रोहस्वरूप सामाजिक अधिक्रम के निचले पायदान पर जीनेवालों के बीच से समाज सुधारक व धर्मसुधारक संतों की भक्तिआंदोलन के नाम से ठीक उसी तरह की क्रांतिकारी परंपरा विकसित हुई जिस तरह की परंपरा विश्व इतिहास में यूरोपीय सामंती व्यवस्था और चर्च के विरुद्ध पुनर्जागरण ( रिनासाँ) के नाम से विकसित हुई थी। अलवार नयनार नामदेव खुसरो कबीर रैदास नानक आदि जॉन विकलिफ़, दांते, विंची, शेक्सपियर आदि के भारतीय अवतार की तरह लगते हैं या यूँ कहें कि विकलिफ़, क्रिस्टोफर, शेक्सपीयर दांते वग़ैरह कबीर रैदास नानक के यूरोपीय प्रतिरूप हैं। रैदास और कबीर की तरह ही उनकी रचनाओं का केंद्र ईश्वर नहीं मनुष्य था, परलोक नहीं इहलोक था, दैवीय कल्पना नहीं मानवीय संवेदना और सामाजिक सरोकार था। याद करें शेक्सपियर हैमलेट में कबीर और रैदास की बानी (भावों को)दोहराते हुए मिलता है:
"कितनी अनुपम कृति है मनुष्य !
कितनी श्रेष्ठ है मनुष्य की बुद्धि !
कितनी असीम है मनुष्य की क्षमताएं!
रूप और गति में कितना श्लाघ्य है मानव ! अपनी बुद्धि में ईश्वर के तुल्य है मानव!
लेकिन दुर्योग है कि जहाँ रिनासाँ के चरमोत्कर्ष में शेक्सपीयर पैदा होता है वहीं भक्ति आंदोलन का संहार या उपसंहार तुलसीदास के रामायण और बाद में रीतिकाल, या रतिकाल ज़्यादे स्पष्ट होगा, के रूप में होता है। जहाँ रिनासाँ का साहित्य आगे की शताब्दियों में रिफ़ॉर्मेशन, एनलाइटमेंट, साइंटिफिक टेम्पर, इंडस्ट्रियल एंड पॉलिटिकल रिवोल्यूशन्स, और अंत में पूरी दुनिया में यूरोप के साम्राज्य तथा वैज्ञानिक समाजवाद की अपरिहार्यता तक निरंतर प्रवाहमान और प्रेरणावान दिखता है वहीं भक्तिआंदोलन के क्रांतिकारी प्रवाह को मुगलिया सल्तनत और हिंदु -मुसलमानों की पतनोन्मुखी सामंती-धार्मिक व्यवस्था से उपजी साहित्यिक सामाजिक सांस्कृतिक कुंठा की प्रतिक्रांतिकारी साहित्य, दर्शन, धर्म, नैतिकता, राजनीति की भेंट चढ़ जाती है। फलतः , देश आज 21वीं सदी में भी कथित तौर पर विश्वगुरु बनने के लिए पिछली सहस्राब्दी के उसी भक्तिकाल पूर्व के अंधकार में भटकते रहने को आतुर है। यही कारण है कि रैदास और कबीर के अनुयायी, उनके वंशज और उत्तराधिकारी उनकी क्रांतिकारी चेतना को, उनके बानियों, साखियों और शबद के विचारों को व्यवहार की कसौटी पर परखने और आत्मसात करने की ज़गह उसी मठवाद और मूर्तिवाद की ब्राह्मणवादी प्रस्थापनाओं को अंगीकार करते हुए आत्ममुग्ध दिखते हैं ! कहीं कबीर के मठ के मेले हैं तो कहीं रैदास की मूर्तियों के मेले! लेकिन अफ़सोस ये मेले कबीर और रैदास की बानी के अमल के लिए नहीं, उनकी क्रांतिकारी चेतना चरित एवं कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए नहीं,उन्हीं ब्राह्मणवादी प्रतिगामी प्रस्थापनाओं के राजनीतिक-सामाजिक हिस्से के रूप में आयोजित दिखते हैं रैदास और क़बीर जिनके विरुद्ध विद्रोह कर क्रांति करने के लिए इतिहास में जाने जाते हैं।
भगवान प्रसाद सिन्हा
© Bhagwan Prasad Sinha
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