"जजिया कर भेदभावपूर्ण प्रशासन और इस्लामी शासन के दौरान, हिन्दुओ पर होने वाले अत्याचार का प्रतीक है। हिन्दुओ को जिंदा रहने के लिए जजिया देना पड़ता था। जजिया लगाने वाले शासक बुरे थे, उदाहरण के लिए औरँगजेब..."
यही सब आपने अब तक जाना, और माना है। मगर इसी रटी-रटाई धारणा, और हिन्दू होने की आत्मदया के साथ मर जाएं, इस पोस्ट को पढ़ लेना जरूरी है।
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कोई भी शासन प्रणाली टैक्स आधारित होती है। टैक्स उस दौर में आय के साधनों पर लगता है। टैक्स छूट भी होती है, पेनाल्टी टैक्स भी होते हैं। सब उस दौर की रियलिटीज पर आधारित होते हैं।
तो जयचंद और पृथ्वीराज के झगड़े में गौरी का फायदा हुआ, वो लड़ाई जीत गया। अपने लोगो को गवर्नर बनाकर चला गया। उन लोगो ने आगे भारत का शासन अपने सिस्टम से चलाया। आगे का दौर दिल्ली सल्तनत का काल है। इस दौर में पांच किस्म के टैक्स थे- खिराज, खिज्र, खम्स, जकात और जजिया
पहले दो टैक्स किसान और व्यापारी देते थे। जीएसटी समझ लीजिए, सब पर लागू था। खम्स- लूट का माल था।
छोटे छोटे राज्य थे, सेना पर्मानेंट, सैलरीड नही थी। आप किसान भी थे, सुल्तान की कॉल आने पर अपना भाला उठाकर लड़ने भी जाते थे। तो लड़ने के दौरान भत्ते मिलते, और लूट के माल में हिस्सा भी। बाकायदा सिस्टम था। लूट में 80% आपका (सेना का), 20% राजा (राजकोष) का। यह 20% ही खम्स था।
यह मत सोचिये की लूटपाट के केवल मुस्लिम राजा करते थे, क्योकि बुरे थे। इंद्र द्वारा अनार्यों को गायें और धन लूटकर लाने के किस्से ऋग्वेद में हैं।मराठे तो बेसिकली लूट की आदत से ही अलोकप्रिय रहे, और तीसरे पानीपत में एलायंस नही मिला।
तो राजाओ के काल में यह स्टेंडर्ड प्रेक्टिस थी। अच्छा बुरा जज मत करें। बल्कि मुस्लिम शासकों में अच्छी बात यह थी, की लूट की बंदरबाट नही होती थी, कम से कम उंसके बंटवारे का एक सिस्टम था। खम्स निर्धारित था।
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बचा जकात और जजिया। ये धार्मिक कर थे। जकात मुसलमान और जजिया गैर मुसलमान देते, फंडा दोनों का अलग था।
जकात का पैसा, मस्जिद बनाने, इमामों की तनख्वाहें, मदरसे आदि चलाने में जाता। यह पैसा सरकार टैक्स के रूप में वसूलती, धार्मिक पर्पज में लगाती। यह शायद आय का 2.5% था।
जजिया का पैसा गैर मुस्लिम देते। एक दौर में यह 48-24-12 दिहरम था। याने धनवान गैर मुस्लिम 48 दिहरम, कम धनवान 24 दिहरम, साधारण लोग 12 दिहरम वार्षिक देते। आय विहीन, अपंग, औरत, बच्चे, पुरोहित इससे एग्जेम्प्टेड थे ( पॉइंट टू बी नोटेड)
क्यों देते थे?? इसलिए कि गैर मुस्लिम को युद्ध के समय लड़ने के लिए सुल्तान की कॉल नही आती थी। इसलिए कि सुल्तान बाबू, जब लड़ते, तो अमूमन लोकल राजाओं के विरुद्ध ही लड़ते, जो गैर मुस्लिम थे। तो अपनी फ़ौज में वे गैर मुस्लिम कैसे रखते। यह एक तरह से सुल्तान की सेवा में कमी थी, जजिया से वह कम्पसेट होता था।
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तो जजिया देकर, आपको सुल्तान की सेना में जाकर जान जोखिम में डालने से आपको भी मुक्ति मिल जाती थी। दोनों पक्षो के लिए एक कनवेनिएंट अरेंजमेंट था। जजिया, लेकिन अलग ही प्रोपगंडा का शिकार होता गया, आज ही नही, तब भी।
अकबर ने जजिया हटा लिया, यह उसकी लोकप्रियता का कारण था। मगर यह भी नोटिस किया जाए, की तब हिन्दू भी बढ़चढ़कर सल्तनत के लिए सेना में भर्ती होकर लड़ने भी लगे थे।
याद रहे, अगर सुल्तान का आप पर फेथ है, तो आप सेना जॉइन कर सकते थे, और जजिया एग्जेम्प्ट हो जाता है।
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धर्म आधारित टैक्स, आज मॉर्डन युग मे गलत माने जाते है। जजिया बन्द हो गया है, मगर जकात कई देशों में लागू है। लोग खुशी से देते हैं। भारत मे बहुत से मुसलमान, आज भी कमाई में जकात अलग कर देते हैं, गरीबो में, या धार्मिक पर्पज में दान कर देते है। इधर गुजरात रेजिमेंट नही है, मगर वहां से कोई जजिया नही देता। (सॉरी, रॉन्ग कमेंट 😋)
तो इतिहास में किसी भी चीज को टोटेलिटी में जानिए, समझिये। बिट्स एंड पीसेज में सुनी सुनाई बातों में धारणा मत बनाइये। इसलिए कि इस टुकड़े टुकड़े सोच से, इतिहास तो बनने बदलने वाला नही
हमारा भविष्य जरूर बिगड़ता दिखाई दे रहा है।
मनीष सिंह
© Manish Singh
#vss
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