Tuesday, 1 June 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 47.


इमरान खान एक भी सीट नहीं जीत सके। 1997 के उनके पहले चुनाव ने यह सिद्ध कर दिया कि पाकिस्तानी राजनीति में वह कोई हैसियत नहीं रखते। सीमा के दूसरी तरफ़ भारत की राजनीति ज़रूर करवटें ले रही थी। 

1996 में पहली बार एक हिन्दूवादी दक्षिणपंथी कही जाने वाली भाजपा केंद्र में आयी। हालांकि वह तेरह दिन ही टिक सकी, मगर अब वह मुख्यधारा में मज़बूती से खड़ी थी। कांग्रेस उनके समक्ष कुछ कमजोर दिख रही थी। यह लगने लगा था कि अगले चुनाव में भी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनेगी। भारत में ऐसी सरकार का आना पाकिस्तानी सियासत के लिए अच्छा भी था कि धर्म के नाम पर एकता बनी रहेगी, और बुरा था कि दोनों ही देशों पर शक्ति-प्रदर्शन का दबाव होगा। 

उनके पड़ोस अफ़ग़ानिस्तान में अलग ही गदर मचा था। पहले मुजाहिद्दीन सोवियत से लड़ रहे थे। उनके जाने के बाद आपस में लड़ रहे थे। 

मेरे एक पड़ोसी उसी दौरान अफ़ग़ानिस्तान से शरणार्थी बन कर नॉर्वे आए थे। उनके घर मैंने दीवाल पर एक बड़ी तस्वीर देखी। तस्वीर चित्र की तरह उकेरी थी तो पहचान में बस यही आ रहा था कि कोई दाढ़ी वाले कबीलाई नेता हैं। मैंने स्मरण से अंदाज़ा लगाने की कोशिश की। वह मशहूर मुजाहिद्दीन नेता गुलबुद्दीन हिकमतयार तो नहीं थे, जो उस दौरान अफ़ग़ानिस्तान के अधिकांश इलाकों पर राज करते थे। न ही वह वहाँ के सोवियत समर्थित पूर्व राष्ट्राध्यक्ष नजीबुल्लाह थे। न ही वह ईरान समर्थित पूर्व राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी थे। मैंने थक-हार कर पूछ लिया है कि यह महाशय कौन हैं? 

उन्होंने चौंक कर कहा कि इनको नहीं जानते? यह अहमद शाह मसूद हैं!

अहमद शाह मसूद पक्के अफ़ग़ानी व्यक्ति थे, और उत्तर अफ़ग़ानिस्तान में उनकी ठीक-ठाक चलती थी। वह सरकार का भी हिस्सा रहे। लेकिन अफ़ग़ानिस्तान एक गृह-युद्ध से गुजर रहा था, और मुजाहिद्दीन गुटों में कड़ा संघर्ष चल रहा था। अंदाज़न पचास हज़ार से अधिक अफ़ग़ानी इस गृहयुद्ध में ही मारे गए। इतने ज़ुल्म तो सोवियत ने नहीं किए।

 ( पूर्व राष्ट्रपति नज़ीबुल्लाह को लटका कर जश्न मनाते तालिबान )

इस मध्य पाकिस्तान के ISI और अरब अमीरों के मदद से एक और शक्ति मजबूत हो रही थी। मुल्ला उमर नामक एक सुन्नी जिहादी धर्मगुरु, जिन्होंने अपनी एक आँख युद्ध में खो दी थी, युवाओं के आदर्श बन कर उभर रहे थे। उनके और उनके जैसे अन्य लोगों के शिष्य ‘तालिबान’ कहला रहे थे। जैसे सिख शब्द शिष्य से जन्मा है, उसी तरह तालिबान शब्द भी शिष्य या छात्र के लिए पश्तो शब्द है। हालांकि तालिबान एक कट्टर इस्लामी संगठन बनता जा रहा था, जो पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर पल रहा था। मैं यहाँ अमरीका की भूमिका पर नहीं लिख रहा, लेकिन कालांतर में यह बात सिद्ध हुई कि उन्हें अमरीका का सहयोग हासिल था।

कुछ हद तक अफ़ग़ानी जनता भी तालिबान के साथ थी। वे मुजाहिद्दीनों से तंग आ गए थे। अब कोई भी उनसे बेहतर ही था। तालिबानों ने पहले दक्षिण अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा किया, और फिर काबुल तक पहुँच गए। बुरहानुद्दीन रब्बानी और गुलबुद्दीन हिकमतयार ईरान भाग गए। नज़ीबुल्लाह काबुल के संयुक्त राष्ट्र भवन में जाकर छुप गए। तालिबानों ने सितंबर, 1996 में उन्हें वहाँ से खींच कर निकाला। उनके गले में फंदा डाल कर एक ट्रक के पीछे लटका दिया, और पूरे काबुल की सड़कों पर घुमाया। यह इतना ख़ौफ़नाक मंजर था कि एकबारगी नवाज़ शरीफ़ और पाकिस्तानी सेना भी हिल गयी कि कहीं उन्हें भी ये तबाह न कर दें। 

पाकिस्तान उस इलाके के सबसे गरीब देशों में था, लेकिन पाकिस्तान के पास ऐसी संपत्ति थी जो किसी और देश के पास नहीं थी। यह अब तक वह छुपा कर बैठे थे, क्योंकि दुनिया के सामने लाने की हिम्मत नहीं थी। अमरीका ने नकेल कस रखी थी। 

मार्च 1998 में भारत में वाजपेयी सरकार बनी, और मई के महीने में पोखरन में धमाका हुआ। दो हफ़्ते बाद ही पाकिस्तान के बलूच प्रांत में भी एक धमाका हुआ। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 46. 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/46.html
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