Wednesday, 16 June 2021

मिथक - परशुराम (1)

आज का विषय अधिक संवेदनशील है। हम जिस पर विचार करने वाले हैं उसे अवतार बनाया जा चुका है।  मुझे आज गालियां अधिक मिल सकती हैं। गालियां सराहना का सबसे विश्वसनीय स्रोत हैं। वे अशोभनीय भाषा में दो बातें कहती हैं- 
१. कि असर गहरा हुआ है, चोट ऐसी  जो बाहर तो दीखे नहीं भीतर  चकनाचूर; 
२. तर्कों, प्रमाणों और निष्कर्षों में कोई खोट नहीं जिनका खंडन किया जा सके।
पर इसके साथ ही एक चेतावनी भी होती है- जिसकी ज़बान सही नहीं उसका दिमाग भी खराब होगा। ऐसा आदमी पागल कुत्ते से भी अधिक खतरनाक हो सकता है। ऐसों को सुधारने से अच्छा है रास्ते से अलग कर देना।

इतिहास ज्ञान पर आधारित है और मिथक विश्वास पर। ज्ञान और विज्ञान की आलोचना हो सकती है, नए प्रमाण मिलते पर पुराने को ग़लत सिद्ध किया जा सकता है, यही उसकी वैज्ञानिकता है। मिथक सही होता ही नहीं इसलिए उसे गलत सिद्ध किया ही नहीं जा सकता। उसका काम ज्ञान देना नहीं प्रेरणा देना है। यदि वह यह काम नहीं कर पाता तो वह व्यर्थ है। पुराण इतिहास होने का दावा करता है पर इतिहास नहीं होता, तथ्य पर आधारित नहीं होता। सारसत्य को व्यक्त करता है। इसकी प्रकृति मिथकीय होती है। इसकी जांच की जा सकती हैं, इसे गलत या व्यर्थ सिद्ध किया जा सकता है, सामाजिक चेतना को इसकी दबोच से बाहर लाया जा सकता है, पर जिनके निहित स्वार्थ इस से जुड़े हैं वे इसके बाद भी इसे जिलाें रख सकते हैं।

महाभारत के सबसे विलक्षण चरित्र परशुराम हैं अन्य बातों के अतिरिक्त वह अकेले ऐसे योद्धा हैं जिनका हथियार फरसा है। परशुराम जमदग्नि के पुत्र हैं और जमदग्नि बिहू की वंश परंपरा में आते हैं भृगु अग्नि से पैदा हुए थे।  भृगु और जमदग्नि का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। परशुराम का नहीं मिलता। एक स्थल पर राम का असुर के रूप में उल्लेख है और माना जाता है कि यहां संकेत परशुराम से ही है।  
प्र तत् दु:शीमे पृथवाने वेने  प्र रामे वोचं असुरे मघवत्सु। ये युक्त्वाय पंचशता अस्मयु पथा विश्राव्य एषाम्।। 
(ऋ.१०.९३.१४)

इसका अनुवाद ग्रिफिथ ने इन शब्दों में किया है:
This to Duhsima Prthavana have I sung, to Vena, Rama, to the nobles, and the King.
They yoked five hundred, and their love of us was famed upon their way.10.93.14
 
इसमें आए राम को यदि परशुराम का पूर्व रूप मान लिया जाय तो भी इसमें न उनका क्रोधी स्वभाव झलकता है, न युयुत्सा। यह एक समादृत व्यक्ति अवश्य प्रतीत होते हैं।  

जो श्यापर्ण शायकायन (शतपथ १०.४.१०) इस इरादे से यज्ञ कर रहे थे कि यज्ञ पूरा हो गया तो उनकी जाति को क्षत्रियत्व प्राप्त हो जाएगा। SBES xlviii, 344. इसी प्रसंग में पा टि में  ऐतरेय ब्राह्मण ७.२७ में उनके एक शिष्य मार्गवेय राम का हवाला आया है। कथा के अनुसार यज्ञ में बिन बुलाए पहुंचने पर शायकायनों को बाहर निकाल दिया गया था कि वे सोमपान के अधिकारी नहीं हैं। इसी  पर मार्गवेय राम ने यज्ञ में पहुंच कर कहा था कि क्षत्रियों को तो उसी समय से सोमपान के अधिकार से वंचित कर दिया गया था जब इंद्र ने त्वष्टा के घर में घुसकर चोरी से सोपान किया था।  संभव है इसका परशुराम के व्यक्तित्व निर्माण में कोई योगदान हो। वास्तव में ये कथाएं बहुत उलझी और कई भ्रांतियों को प्रकट करती है। त्वष्टा के घर में इन्द्र के चोरी से सोमपान की कथा बाद में गढ़ी गई है।  पुरानी कथा में वैदिक शिल्पियों को सम्मान देते हुए उन्हें सोमपान का अधिकारी माना गया था, अर्थात् सामाजिक प्रतिष्ठा, (यद्यपि स्वामि वर्ग से कुछ नीचे दी गई थी। प्रथम सवन अग्नि का, द्वितीय इंद्र और मरुत् का. तृतीय ऋभुओं का और विश्वदेवों का ।  कहानी के अनुसार शिल्पियों का मूर्त रूप, विश्वरूपा जिसकी प्रतिभा का यह कमाल कि वह शिल्प और उद्योग के समस्त कार्य संभाल सकता है। कुछ भी बना सकता है।  ब्रह्मा के चार सिर हैं तो उसके उससे एक कम। तीन सिर हैं तो छह आंखें तो होनी ही हैं।  विचक्षणता के लिए इससे उपयुक्त कोई रूपक नही हो सकता। उसके लिए ही विश्वकर्मा अर्थात् सभी काम करने वाला/ सृजन करने वाला।   

संभव है कि तीन मुख धातुविद्या, काष्ठ कला और मृद्विज्ञान जिसमें ईट पकाने. भांड पकाने  से लेकर मनके बनाने के प्रतीकांकन हों और विश्वरूपा के तीनों मुखों से मनुष्यों, देवों, असुरों के भाेग्य पदार्थौं का भोग किया जा रहा था।  उनकी भोगवादिता से अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही थी, उनके दमन की नौबत आई हो सकती है परंतु त्वष्टा जो अग्नि, ऊर्जा और उद्योगविद्या के प्रतीक हैं, उन्हें बदला लेने के लिए इंद्र को आमंत्रित करते हैं, विषाक्त (धातु के पात्र में रखा सोम पिला देते है जिससे इंद्र को विषूची हो जाता है।  अन्यथा अंगिरा, भृगु जो शिल्पयों के प्रतिनिधि हैं वैदिक काल मे ही सोमपायी हैं;
अङ्गिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वाणोभृगवः सोम्यासः ।

हमारा निवेदन है कि पौराणिक परशुराम एक ऐसी सर्जना हैं जिनका इतिहास नहीं मिलता। फिर भी वह भार्गव हैं और जमदग्नि के पुत्र हैं और उनका भी नया रूप पुराणों में वर्णित है इसलिए इनके पुराने रूप पर दृष्टि डालना जरूरी है।
भृगु (आदि पितर)   का उल्लेख ऋग्वेद में देखने में नहीं आता, भृगुओं/भार्गवों की चर्चा तीन रूपों में मिलती है:
१. वे रथ और अरायुक्त‌ पहिया बनाने में निपुण हैं और वैदिक कवि गर्व से कहते हैं कि भृगु लोग जितने कौशल से रथ बनाते हैं उसी तरह मैंने अपनी कविता रची है, 
एवेदिन्द्राय वृषभाय वृष्णे ब्रह्माकर्म भृगवो न रथम् ।
एतं वां स्तोमं अश्विनौ अकर्म अतक्षाम भृगवो न रथम् ।

और कुलिश या फरसा (परशु)  तक्षकों या बढ़ियों का हथियार था, लकड़ी तराशने के लिए :
अस्मा इदु स्तोमं सं हिनोमि रथं न तष्टेव तत्सिनाय । 
द्विता होतारं मनुषश्च वाघतो धिया रथं न कुलिशः समृण्वति ।। 3.2.1 

इस तक्षक राम को पुराणकारों ने क्या रूप दिया, इसकी विवेचना तो आज नहीं हो सकती।  परन्तु दो बातों का उल्लेख जरूरी है।  ऐसा लगता है कि भृगुओं का कमाल रथ बनाने तक सीमित न रह कर नौवहन तक हो गया था।  इनकी स्वतंत्र रुचि नौचालन और व्यापार में हो चली थी ।  दासराज्ञ युद्ध में सुदास के विरोधियों में ये भी थे और भृगुकच्छ - भड़ौच - इसका साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्य है।   विदेश यात्रा पर जाने वालों के इन्द्र की कृपा से  बचने का एक हवाला इनके संदर्भ में भी है:  
येना यतिभ्यो भृगवे धने हिते येन प्रस्कण्वमाविथ ।। 8.3.9

एक दूसरा तथ्य .यह है कि इन्होंने यज्ञ का विरोध किया था - 
अप श्वानमराधसं हता मखं न भृगवः ।। 9.101.13
मख अर्थात् यज्ञ = विष्णु  के परित्याग के साथ अध्यात्मवाद का अंकुरण हुआ और संशयवाद का आरंभ हुआ ।  आगे चलकर भृगु द्वारा  विष्णु की छाती पर लात मारने और उसकी छाप उस पर बने रह लाने का रूप लिया।  
 
दूसरा जमदग्नि से संबंधित जिनके वह पुत्र बताए गए हैं।  ऋग्वेद में जमदग्नि का एकही प्रसंग में उल्लेख आया है और वह है उनसे विश्वामित्र को हस्तलिपि  (ससर्परी) का ज्ञान प्राप्त होना।  हम  आगे देखेंगे कि इस सूचना का कैसा उपयोग पौराणकों के द्वारा किया गया।
(क्रमशः)

© भगवान सिंह
#vss

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