Friday, 11 June 2021

यूरोप का इतिहास (1)

यूरोप के इतिहास पर एक नयी सीरीज शुरू हो रही है। लेखक हैं प्रवीण झा।
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[चित्र: मार्च, 1946. भस्म ड्रेस्डेन शहर में ट्रेन यात्री]

यूरोप एक हारा हुआ महादेश है। पूरी दुनिया पर राज करने के बाद भी एक पराजित महादेश। यहाँ एक भी देश नहीं, जो सीना तान कर कह सके कि वह द्वितीय विश्व युद्ध जीत गए। न ब्रिटेन, न फ्रांस, न सोवियत रूस। युद्ध में सबसे बड़ी सैन्य हानि तो लिखित विजेता सोवियत को ही हुई। 

विश्व-युद्ध के बाद किसी भी देश की छवि तलाशी जाए तो विध्वंस ही विध्वंस दिखेगा। वीरान शहर, सूखे पड़े खेत, बिलखते अनाथ बच्चे, बलात्कृत महिलाएँ, उभरी हड्डियों वाले बूढ़े, टूटे-फूटे शहर। जैसे सभ्यता का विनाश हो गया हो। ऐसी स्थिति तो अफ्रीका के गरीब देशों में भी न नजर आए। महज दो दशक बाद की तस्वीर देखी जाए तो कोई यह विश्वास नहीं करेगा कि यहाँ ऐसा मंजर रहा होगा। आज की तस्वीरें तो खैर इस युद्ध को ही एक मिथक सिद्ध कर देगी।

लेकिन, युद्ध तो हुआ था। नेटफ्लिक्स पर युद्ध की रंगीन फ़िल्म मौजूद हैं। यहूदियों के लिए बने सामूहिक यातनागृह उसी तरह संजो कर रखे गए हैं। शायद उन्हें भी शक है कि इस खुशहाल, गुलशन यूरोप की नयी पीढ़ी इसे एक फ़िल्मी गल्प ही न मान बैठें? 

एक-दो नहीं, छह साल तक रक्तपात और आक्रमण चलते रहे। औद्योगिक शहर रॉटरडैम सपाट हो गया। ब्रिटेन ने युद्ध में इतना गंवाया कि उसे अपने सभी उपनिवेश एक-एक कर त्यागने पड़ गए। यूक्रेन के कीव और बेलारूस के मिंस्क जैसे शहर नेस्तनाबूद हो गए। पोलैंड की राजधानी वार्सा के हर गली में योजनाबद्ध रूप से डायनामाइट लगा दिए गए। जर्मनी के सभी बड़े शहर (हैम्बर्ग, डुसेलडॉर्फ, ड्रेस्डेन आदि) अमरिकी बमबारी में ध्वस्त हुए। सिर्फ बर्लिन पर ही चालीस हज़ार टन बम गिराए गए, और तीन चौथाई शहर रहने लायक रहा ही नहीं। इमारतें ही नहीं, सड़कें, पुल, रेल की पटरी, सब उड़ा दिया गया। औद्योगिक क्रांति से जो भी कमाया, युद्ध ने एक झटके में साफ कर दिया।

जब युद्ध खत्म हुआ तो कुपोषण और बीमारियों का आलम था। न मुद्रा का कोई मूल्य नहीं रह गया था, न जमीन का। इससे कहीं बेहतर स्थिति तो युद्ध के पहले तीन वर्षों में थी। 

जर्मन अक्सर एक चुटकुला कहते, “युद्ध के मजे ले लो, क्योंकि शांति युद्ध से भी बुरी होने वाली है”

जब सब-कुछ खत्म हो गया, तो बचा कौन? नाजी सेना ने युगोस्लाविया के गाँवों में पंद्रह वर्ष से ऊपर के हर पुरुष को गोली मार दी। यह एक सिद्ध तथ्य है कि यूरोप में वयस्क कामकाजी पुरुषों की भारी कमी हुई। मात्र सोवियत में ही महिलाएँ की अपेक्षा दो करोड़ कम पुरुष बचे। अब इन महिलाओं के कंधे पर ही यूरोप की ज़िम्मेदारी थी।
(क्रमश:)

प्रवीण झा 
© Praveen jha
#vss 

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