कौन सी नस्ल सर्वश्रेष्ठ है ? द्वितीय विश्व-युद्ध का मुख्य प्रश्न तो यही उभरा। मान्यता तो यही बनी थी कि सबसे ताकतवर जर्मन आर्य, और सबसे कमजोर यहूदी। विश्व-युद्ध के बाद क्या हुआ?
यहूदियों ने तो अपनी बल और बुद्धि, दोनों ही सिद्ध कर दी। जर्मन मुँह के बल गिरे। बर्लिन चार टुकड़ों में टूट गया।
लेकिन, जर्मनी की एक ताकत थी, जो यहूदियों में भी थी। उनकी एकता और उनका जुझारूपन। ये दोनों ही नस्ल गिर-गिर कर खड़े होते आए थे। इतिहास में कई बार। जर्मनी प्रथम विश्व-युद्ध के बाद जितनी तेजी से खड़ा हुआ, उसी तरह द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद भी जी-जान लगा दी। मैं नोबेल पुरस्कार की बात कर रहा था कि यूरोप के अधिकांश देश युद्ध के बाद दो दशक तक नहीं जीत सके। जर्मनी ने इन दो दशकों में अठारह विज्ञान नोबेल जीते!
यह बात अमरीकियों ने भी मानी, कि जितना धन उन्होंने पश्चिम जर्मनी पर लगाया, उससे कहीं अधिक वहाँ उत्पादन होने लगा। जर्मन लोग फैक्टरियों में खूब पसीना बहाते, और ईमानदारी से काम करते। यह आदत उन्हें हिटलर ने भी लगा दी थी। युद्ध के पहले तीन वर्ष में जर्मनी अपनी शानदार स्थिति में था। आज भी जर्मन चाहे कितने भी अक्खड़ हों, उनका काम पक्का होता है।
बाकी के यूरोप के साथ लाटसाहबी आने की एक वजह थी उनके उपनिवेश। उनको अफ्रीका, एशिया, और कैरीबियन की रोटी खाने की आदत पड़ गयी थी। उनके पास यह बैक-अप था, जो जर्मनी के पास नहीं था। लेकिन, कब तक?
इंग्लैंड की अकड़ तो तभी हवा हुई जब सिंगापुर में उन्हें जापानी सेना ने आत्मसमर्पण कराया। अब उनके पास राज करने का आत्मविश्वास नहीं रहा। उन्होंने जैसे-तैसे भारत को जापानी सेना से बचा लिया था, लेकिन यह बात सिद्ध हो चुकी थी कि ‘ग्रेट ब्रिटेन’ अब ग्रेट नहीं रहा।
अफ्रीका में बंदरबाँट अगले कुछ दशकों तक चलती रही। वहीं, फ्रांस का हिन्द-चीन (वियतनाम) मोह नहीं जा रहा था। हो ची मिन्ह के विद्रोह के बाद भी उन्होंने अपनी ताकत लगा रखी थी। फ्रेंच फौजियों में भी अब जोश नहीं बचा था, तो उन्होंने शीत-युद्ध का हौवा खड़ा कर अमरीका को इस ‘वाटरलू’ में घुसेड़ दिया। उसका हश्र क्या हुआ, वह भिन्न विषय है।
यूरोप को अब यह सब मोह छोड़ कर अपने बल पर खड़ा होना था। नयी दुनिया इस तरह उपनिवेशों का बोझ लिए नहीं चल सकती थी। उन्हें अपनी पूरी आर्थिक संरचना को कुछ यूँ बदलना था कि लंबा टिके और कोई वर्ग-संघर्ष न जन्म ले।
पहला आधुनिक जनकल्याणकारी राज्य जर्मनी के चांसलर बिस्मार्क ने बनाया था, जो अडोल्फ हिटलर के समय अधिक मुखर हो गया। हिटलर ने अपने देशवासियों को जो वेलफेयर सिस्टम दिया, कमो-बेश वही आज के विकसित यूरोप में भी नजर आता है। भले अब यह क्रेडिट कोई देने से भी कतराए, लेकिन अमीरी-गरीबी के भेद को मिटाने में हिटलर की योजनाओं का महत्व है। ‘सोशलिस्ट’ लहर पूरे यूरोप में उस समय से ही कायम है, जो ‘कम्युनिस्ट’ और अमरीकावादी लहर से अलग चली।
इसका कंसेप्ट साधारण था। पूरे मेहनत से उद्योग खड़े किए जाएँगे, उत्पादन होगा, और जो पूँजी निकल कर आएगी, उससे देश के बच्चों, बूढ़ों और रोगियों का खर्च निकाला जाएगा। शिक्षा और स्वास्थ्य सरकार की जिम्मेदारी होगी। पूंजीवाद पोषित समाजवादी लोकतंत्र या ‘मॉडर्न वेलफेयर स्टेट’।
अगर इटली का उदाहरण लें, तो उन्होंने देखा कि रोम के दक्षिण देश के अस्सी प्रतिशत गरीब रहते हैं, जहाँ अशिक्षा, बेरोजगारी और अपराध सबसे अधिक है। उन्होंने अगले दो दशक उन पर लगा दिया। उत्तरी इटली की पूंजी दक्षिण पर खर्च की गयी, वहाँ विकास की लहर चली, और परिणाम दिखने शुरू हो गए।
ऐसा नहीं कि यूरोप एक भ्रष्टाचार-मुक्त, अपराध-मुक्त, अति-शिक्षित समाज था, इसलिए एशिया से आगे बढ़ा। ऐसी स्थिति तो आज भी नहीं है। यूरोप ने स्वयं को वर्ग-संघर्ष से मुक्त और उससे जुड़ी राजनीति से मुक्त ज़रूर काफी हद तक कर लिया। (क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
यूरोप का इतिहास (17)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/17.html
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