Saturday, 26 June 2021

कोरोना महामारी का कामकाजी महिलाओं पर क्या प्रभाव पड़ा है - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

कोविड 19 के संक्रमण का असर, विशेषकर दूसरी लहर के दौरान, बड़ी संख्या में मौतों के रूप में हुआ है, और इसका असर कोरोनोत्तर काल आर्थिक स्थिति पर भी पड़ रहा है। इसमे भी, इसका सबसे बुरा असर, बेरोजगारों और लोगों की नौकरियों पर पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2020 के जून माह तक दुनियाभर में 400 मिलियन लोग अपनी नौकरियां खो चुके थे। आईएलओ के आंकड़ो के अनुसार, सबसे अधिक प्रभाव कामकाजी महिलाओं की नौकरियों पर पड़ा है। इसका काऱण यह है कि, महिलाओं को जिन सेक्टर्स में नौकरियां मिलती हैं, वे इस महामारी जन्य आर्थिकि दुरवस्था से बहुत ही अधिक प्रभावित हुयी हैं। जून 2020 में आईएलओ ने उन सभी आर्थिक सेक्टरों का एक सर्वेक्षण अध्ययन प्रकाशित किया है, जिन पर इस महामारी का असर पड़ा है। आईएलओ ने ऐसे कुल 14 आर्थिक सेक्टर की पहचान की है, और उन पर पड़े असर को, सबसे अधिक प्रभावित, मध्यम प्रभावित और सबसे कम प्रभावित, की तीन श्रेणियों में बांट कर उनका अध्ययन किया है। सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में, रीयल स्टेट, प्रशासनिक गतिविधियां, आवास और खानपान सेवाएं, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर, होलसेल और फुटकर व्यापार, मोटर गाड़ियों की मरम्मत और उनके कारखाने, रखे गए हैं। इन क्षेत्रों में सबसे अधिक व्यवधान पड़ा भी है। इसी प्रकार, कला, मनोरंजन और आमोद प्रमोद से जुड़े क्षेत्रो को मध्यम प्रभावित क्षेत्र में रखा गया है। इसके अतिरिक्त मध्यम प्रभावित क्षेत्रों मे, निर्माण, वित्तीय और बीमा संस्थान, खनन आदि भी रखे गये हैं। खेती और कृषि से जुड़ी अन्य गतिविधियां सबसे कम प्रभावित क्षेत्रों में आती हैं। इसमे, जनस्वास्थ्य, सामाजिक कार्य, शिक्षा, जन उपयोगी गतिविधियां, लोक प्रशासन, रक्षा और अनिवार्य सेवाएं रही हैं। 

इंडियन पोलिटिकल ड्रामा वेबसाइट के लिये आर्थिक मामलों पर लगातार लिखने वाली धृतिश्री ने एक बेहद तथ्यपूर्ण लेख लिख कर इस त्रासदी का कामकाजी महिलाओं पर क्या असर पड़ा है, की गम्भीर विवेचना की है।  अक्सर हम बेरोजगार युवाओं की बात करते हैं पर, यह भूल जाते हैं कि देश मे कामकाजी महिलाओं की संख्या भी कम नहीं है और उनका अनुपात लगातार बढ़ता जा रहा है। विशेषकर, शिक्षा, हॉस्पिटैलिटी, मेडिकल, शोध, कम्प्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक, और अन्य उन क्षेत्रों में जहाँ प्रत्यक्ष श्रम की ज़रूरत कम पड़ती है, उनकी संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुयी है। घरेलू काम करने वाले सेक्टर को तो अलग ही रख दीजिए, जहां यह काफी संख्या में हैं। यह कामकाजी महिलाएं, न केवल अपने पुरुष सहकर्मी के साथ कंधा से कंधा मिला कर कार्य कर रही हैं, बल्कि वे अपने अपने क्षेत्र में, वे कहीं कहीं शिखर पर भी हैं। यह लेख, भारत में, उन्ही कामकाजी महिलाओं के ऊपर पड़ रहे कोरोनोत्तर दुष्प्रभावों का एक अध्ययन है। पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) 2018-19 और आईएलओ की रिपोर्ट जो कोविड 19 के विविध सम्भावित दुष्प्रभावों पर है, को मिला कर अध्ययन करते हैं तो, कामकाजी महिलाओं के समक्ष रोजगार जन्य जो चुनौतियां हैं, वे स्वतः स्पष्ट हो जाती हैं। पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे भारत सरकार के सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन विभाग द्वारा हर साल जारी किया जाता है। पीएलएफएस की 2017-18 की रिपोर्ट के अनुसार, जो देश मे कुल 1,01,579 जिंसमे, 55,812 ग्रामीण क्षेत्रो में और 45,767 शहरी क्षेत्रों के घरों के सर्वे पर आधारित है पर यह अध्ययन आधारित है। 

आईएलओ मॉनिटर कोविड 19 एंड वर्ल्ड ऑफ वर्क के तीसरे संस्करण में, जो 29 अप्रैल 2020 को और पीएलएफएस के सर्वे 2017-18 में जो अध्ययन के परिणाम दिए गए हैं, उनमें कामकाजी महिलाओं औऱ पुरुषों के बारे में, उन्हें पांच श्रेणियों में बांट कर उनका अध्ययन किया गया है। उसके अनुसार, पुरूष 24% और महिलायें 33% सबसे अधिक प्रभावित होने वाले आर्थिक क्षेत्रो में काम करते हैं। सबसे अधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों का विवरण ऊपर दिया गया है। कोरोना से प्रभावित इन क्षेत्रों के आंकड़े जहां शहरी इलाक़ो में बढ़ रहे हैं वहीं वे ग्रामीण इलाक़ो में कम हो रहे हैं। शहरी क्षेत्रों में, 39% महिलाएं और 31% पुरुष सबसे अधिक प्रभावित होने वाले आर्थिक सेक्टरों में हैं। 

ग्रामीण इलाक़ो में महिलाओं के लिये यह प्रतिशत गिर कर 14% और पुरुषों के लिये 20% हो गया है। यह आंकड़ा ग्रामीण इलाक़ो में इसलिए कम हो गया है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रो में अधिकतर रोजगार कृषि सेक्टर ही देता है, जिस पर इस महामारी का आर्थिक दुष्प्रभाव कम पड़ा है। महिलाओं को अधिकतर काम देना वाला सेक्टर कृषि है, जो 68% महिलाओं को, ग्रामीण क्षेत्रो में काम देता है। कृषि सेक्टर आपदा से प्रभावित होने वाले सेक्टरों में सबसे कम प्रभावित होने वाला सेक्टर है। यह प्रवित्ति केवल भारत मे ही नही, बल्कि पूरे विश्व की है। कृषि क्षेत्र में काम करने वाले पुरुषों की संख्या 49% है। इसी प्रकार शहरी क्षेत्रों में शिक्षा, लोक प्रशासन और स्वास्थ्य सेक्टर जिन पर महामारी - बाद का प्रभाव कम पड़ा है में काम करने वाली महिलाओं का प्रतिशत 32% और पुरुषों का 13% है। उपरोक्त आंकड़ो के अध्ययन से एक बात स्पष्ट होती है कि, महामारी - बाद दुष्प्रभावों से सबसे अधिक पीड़ित होने वाले आर्थिक सेक्टर में पुरुषों का अनुपात, महिलाओं की तुलना में बहुत अधिक है। जबकि, कम प्रभावित सेक्टरों में महिलाओं की संख्या, उनके पुरूष सहकर्मियों की तुलना में अधिक है। 

हाल ही में सीएमआईई द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार, पुरुषों की तुलना में कामकाजी महिलाओं को कोविड काल के बाद अपनी खोई हुई नौकरियों को, दुबारा पाने के लिये अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। वे पुरुषों की तुलना में अपनी नौकरिया दुबारा वापस कम ही पा सकीं हैं। लगभग 22% कामकाजी महिलाएं, अब भी अपना छूटा हुआ, काम वापस नहीं पा सकीं हैं, जबकि, पुरुषों में यह प्रतिशत 15 है। हालांकि, कोरोना पूर्व की स्थिति में भी, 95% कामकाजी महिलाएं असंगठित क्षेत्र में काम करती थीं, ओर उनका वेतन, पुरुषों की तुलना में 34% कम था। यह भी कहा जाता है कि, अधिकतर कामकाजी महिलाएं, पुरुषों की अपेक्षा, कम जोखिम और खतरनाक कामों में काम करती हैं। पर उन्हें काम भी तो, अधिकतर असंगठित क्षेत्रों में ही मिलता हैं, जहां उन्हें वेतन भी कम मिलता है। अब हम कोविड के बाद कामकाजी महिलाओं पर कोरोनाजन्य आर्थिक मंदी का क्या असर पड़ा है, इसकी समीक्षा करते हैं। 

धृतिश्री अपने अध्ययन लेख में उल्लेख करती हैं कि, 
" भारत के शहरी इलाक़ो में कामकाजी महिलाओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा, मैन्युफैक्चरिंग उद्योग के बाद, कला, शिक्षा, मनोरंजन उद्योग, और अन्य सेवाओ में कार्यरत है। सबसे अधिक महिलाओं को रोजगार देने वाले उपरोक्त तीन सेक्टरों में से दो सेक्टर अत्यधिक प्रभावित और मध्यम प्रभावित क्षेत्रों में आते हैं।"
अध्ययन से पता चलता है कि, उपरोक्त सभी सेक्टरों में से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में सबसे अधिक संख्या में, लगभग 20%, कामकाजी महिलाएं कार्यरत थीं। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का विकास कोरोना के आने के पहले से ही बुरी तरह से प्रभावित हो चुका था।

सीएमआईई की ही रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण इलाकों में, फिलहाल, कृषि सेक्टर में सबसे अधिक कामकाजी महिलाएं हैं, जिनका प्रतिशत 63% है। इसके बाद शिक्षा में 10.1%, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में 9.9%, है। उपरोक्त तीनो आर्थिक सेक्टरों में दो आर्थिक सेक्टरों पर कोरोनोत्तर आर्थिक प्रभाव, कम या मध्यम रूप से पड़ा है। शहरी और ग्रामीण इलाकों के इन आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि, यदि हम सबसे अधिक प्रभावित और मध्यम प्रभावित आर्थिक सेक्टरों की बात करें तो, शहरी इलाकों में, 56% और ग्रामीण इलाकों में, 19% कामकाजी महिलाएं, इस श्रेणी में कोरोनोत्तर आर्थिक दुष्प्रभाव से पीड़ित हैं। अतः यदि हम केवल शहरी इलाक़ो की अर्थव्यवस्था के ही आंकड़ों के अनुसार, इस अध्ययन को केंद्रित करें तो, शहरों में काम करने वाली महिलाओं पर, ग्रामीण इलाक़ो की तुलना में अधिक संकट आया है। यदि हम अधिक जोखिम वाले सेक्टरों में, कम वेतन पर काम करने वाली महिलाओं के, संकट के बारे में अध्ययन करें तो कम वेतन और कम बचत के कारण वे इस आर्थिक संकट में अपने पुरूष सहकर्मियों की अपेक्षा सबसे अधिक पीड़ितों की श्रेणी में हैं।  

पीएलएफएस के 2017-18 "की रिपोर्ट में आय के आंकड़े उपलब्ध नहीं है, अतः अध्ययन के लिये प्रति व्यक्ति व्यय के परसेंटाइल को, इस अध्ययन का आधार बनाया गया है। प्रति व्यक्ति व्यय को, अध्ययन के लिए, पांच परसेंटाइल सेगमेंट में विभक्त किया गया है। ये हैं, शून्य से 20, 20 से 40, 40 से 60 के सेगमेंट और सबसे शीर्ष पर, 20 परसेंटाइल वाला सेगमेंट रखा गया हैं। शून्य से 20 परसेंटाइल वाले सेगमेंट में लगभग 44% वे कामकाजी महिलाएं हैं जो, हाई रिस्क या अत्यधिक प्रभावित क्षेत्रों में काम करती हैं। कम जोखिम वाले क्षेत्रों में काम करने  वाली महिलाओं का प्रतिशत 16 है। उसी प्रकार, लगभग 52% कामकाजी महिलाएं, उच्चतम स्तर पर 20 परसेंटाइल की श्रेणी में हैं, जो कम जोखिम वाले कामो में लगी हैं, और इसी सेगमेंट में 27% वे कामकाजी महिलाएं हैं जो, अधिक जोखिम वाले कामों में कार्यरत हैं। इस प्रकार, 52% कामकाजी महिलाएं, जो सम्पन्न परिवारों से आती हैं  और कम जोखिम के कामो में कार्यरत हैं, और 44% कामकाजी महिलाएं, जो अधिक जोखिम वाले कामों में कार्यरत हैं , पर वे अपेक्षाकृत गरीब परिवारों से आती हैं, जो महामारी से अधिक प्रभावित हैं। 

20 परसेंटाइल के सेगमेंट में, कम जोखिम वाले कार्यो में कार्यरत महिलाओं की संख्या कम है। इसके विपरीत, शीर्ष 20 परसेंटाइल वाले सेगमेंट को छोड़ कर, अन्य सभी सेगमेंट में अधिक जोखिम वाले कार्यो में कार्यरत, कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत 40 से अधिक है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत सबसे अधिक, 28% है, जो सबसे कम परसेंटाइल और शीर्ष परसेंटाइल, दोनो सेगमेंट में आते हैं। यह सेक्टर आर्थिक संकट को लेकर, सबसे अधिक जोखिम वाले कामकाज से भी जुड़ा है। इसी प्रकार, कला, मनोरंजन, और अन्य कम आय वाले सेगमेंट में, 19% महिलाएं कार्यरत हैं जो मध्यम और अधिक प्रभावित क्षेत्रों में से हैं। 

इसके विपरीत, शीर्ष आय वर्ग की 32 प्रतिशत कामकाजी महिलाये, शिक्षा के क्षेत्र में हैं, जिसमें कोरोना महामारी के कारण अन्य सेक्टरों की तुलना में, कम जोखिम रहा है।  शीर्ष आय वर्ग में महिलाओं की अगली बड़ी भागीदारी (11 प्रतिशत) एक अन्य कम जोखिम वाली श्रेणी, यानी मानव स्वास्थ्य और सामाजिक कार्य गतिविधियों के क्षेत्र में है। इससे एक अलग और विशिष्ट बात प्रमाणित होती है कि, निम्न आय वर्ग की लगभग 63 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं उच्च जोखिम और मध्यम उच्च जोखिम वाली नौकरी में हैं जबकि शीर्ष आय समूह में 39 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं उच्च जोखिम और मध्यम उच्च जोखिम वाली नौकरी में हैं।

एक अन्य अध्ययन से यह तथ्य प्रकाश में आया है कि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर, उद्योग का एक विशाल क्षेत्र है, जिसमें अन्य औद्योगिक उत्पादों के अतिरिक्त, खाद्य, रबर, रासायनिक उत्पादों आदि का निर्माण भी सम्मिलित है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की वे कामकाजी महिलाएं, जो आमदनी के निचले स्तर पर हैं, भारत में परिधान, वस्त्र और तंबाकू के निर्माण में प्रमुख रूप से सलग्न हैं।  यह नौकरियां छोटी, कम वेतन वाली और अस्थिर प्रकृति यानी मौसमी स्वभाव की हैं।  इसलिए, ऐसे उद्योगों की महिलाओं को पर्याप्त मजदूरी भी प्राप्त नहीं होती है, जिसके कारण वे, आय स्तर के निचले पायदान पर बनी रहती है और, उनकी असंगठित क्षेत्र के समान नौकरी  की यह प्रकृति उन्हें आर्थिक संकट के अंतर्गत निरन्तर कमजोर बनाये रखती है।  निर्माण उद्योग की तरह, कला, मनोरंजन और इसी तरह की अन्य सेवाओं में निम्न आय  वर्ग की कामकाजी महिलाएं ज्यादातर निजी और घरेलू सेवाओं का हिस्सा होती हैं।  यहाँ व्यक्तिगत सेवाओं का अर्थ है, घरेलू सहायिका आदि। 

महामारी के व्यापक संक्रमण के भय ने, महिलाओं को घरेलू नौकरियों से भी दूर कर दिया है। लोगो ने ऐसी परिस्थितियों में घरेलू कामकाज पर लगी महिलाओं को बुलाना भी बंद कर दिया है। ऐसा दूसरी लहर के दौरान और अधिक हुआ है, क्योंकि संक्रमण की भयावहता दूसरी लहर में, पहली लहर की अपेक्षा अधिक थी।  इसलिए, शहरी क्षेत्रों में लगभग सभी कामकाजी महिलाओं की नौकरियां अभी भी संकट में ही हैं। निम्न आय के स्तर पर, थोक और खुदरा व्यापार एक और उच्च जोखिम वाला क्षेत्र है जहां कामकाजी महिलाओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा जो लगभग 11 प्रतिशत है, कार्यरत है।  थोक और खुदरा व्यापार के हालात पर एक विस्तृत विश्लेषण से पता चलता है कि इस क्षेत्र के अंतर्गत महिलाओं का एक महत्वपूर्ण वर्ग, छोटी दुकानें या सब्जियां, फल, आदि के व्यापार में संलग्न है। ये कामकाजी महिलाएं न केवल खुद को आय की सीढ़ी में सबसे नीचे पाती हैं, बल्कि महामारी के दौरान ये अक्सर, बिना किसी आय के भी रही हैं।  लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी, उनकी आर्थिक स्थिति में, कोई उल्लेखनीय सुधार नही हुआ है। 

कमजोर आय वर्ग की कामकाजी महिलाये जो आय वर्ग के निचले 20 प्रतिशत संवर्ग से संबंधित हैं, तथा शहरी क्षेत्रों में उच्च जोखिम या मध्यम उच्च जोखिम वाली नौकरियां करती  हैं, वे महामारी के दौरान अत्यधिक गरीबी में रही हैं। भारत में प्रमुख रूप से, चार सामाजिक समूह बनते हैं, जिनमें से तीन को विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के रूप में रखा गया गया है।  वे हैं, अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) हैं। इसके अतिरिक्त अन्य जातियों को सामान्य वर्ग में रखा गया है।  कमजोर समूहों की लगभग 25 प्रतिशत और 43 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं एससी और ओबीसी वर्ग से आती हैं। इसलिए, सबसे कमजोर समूह के पास न केवल कम वेतन वाली लेकिन, उच्च जोखिम से भरी नौकरी है, बल्कि उनमें से एक बड़ा प्रतिशत सामाजिक रूप से भी वंचित समूहों का है। 

अब कामकाजी महिलाओं के इस अध्ययन को धार्मिक दृष्टिकोण से देखते हैं। लगभग 73 प्रतिशत निम्न आय वाली, कामकाजी महिलाएं हिंदू धर्म की हैं । लगभग 6 प्रतिशत निम्न आय वर्ग की कामकाजी महिलाएं ईसाई समाज से हैं, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर 11 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं ईसाई धर्म से आती हैं। अतः हिंदू और ईसाई दोनों ही धर्मो के लिए, कमजोर समूह में महिलाओं की हिस्सेदारी उनके राष्ट्रीय मानक से कम है। मुस्लिम महिलाओं के लिए यह पैटर्न बदला हुआ है। लगभग 17 प्रतिशत कमजोर कामकाजी महिलाएं मुस्लिम हैं लेकिन, राष्ट्रीय स्तर पर कामकाजी महिलाओं का केवल, 9 प्रतिशत हिस्सा मुस्लिम हैं। 

हाल ही में सीएमआईई के आंकड़ों में कहा गया है कि 2016 के बाद से महिलाओं, विशेष रूप से युवा महिलाओं को नौकरी पाने में अत्यधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है।  कमजोर कामकाजी महिला समूह आयु वितरण पर उपरोक्त अध्ययन से एक समान तस्वीर उभर रही है कि, 15 से 19 वर्ष की आयु की लगभग 63 प्रतिशत युवा महिलाएं और 20 से 29 वर्ष की आयु की 47 प्रतिशत महिलाएं कमजोर वर्ग की हैं। 

इसलिए, 15 से 29 वर्ष के आयु वर्ग में कामकाजी महिलाओं की संख्या महत्वपूर्ण है और वह, अर्थव्यवस्था को बेहतरी की ओर ले जा रही है। यदि  इनमें से पचास प्रतिशत से अधिक उपयुक्त नौकरी पाने में कठिनाई का सामना कर रहे हैं या कम मजदूरी पर जोखिम भरा काम करने के लिये बाध्य हैं। लेकिन उच्च आयु वर्ग की कामकाजी महिलाओं के लिए यह सुविधा अधिक नहीं बदलती है। आईएलओ के अध्ययन के अनुसार, औसतन, 30 से 39 वर्ष, 40 से 49 वर्ष और 50 से 59 वर्ष के प्रत्येक आयु वर्ग की लगभग 40 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं कमजोर समूह यानी एससी, एसटी ओबीसी से आती है। 

अब आते हैं,  काम की स्थिति पर। काम करने की स्थिति स्व-रोजगार से लेकर नियमित वेतनभोगी और कैजुअल लेबर से लेकर कई अन्य कार्यों तक समय, स्थान और ज़रूरतों के आधार पर अलग अलग हो सकती है। सभी काम करने की स्थितियो में, नियमित वेतनभोगी या वेतनभोगी कर्मचारियों को सक्षम नौकरी की स्थिति में से एक माना जाता है क्योंकि यह नौकरी के अंत में वेतन की निश्चित गारंटी देता है। कमजोर वर्ग की लगभग 39 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं नियमित वेतनभोगी या वेतनभोगी कर्मचारी हैं। कमजोर वर्ग की लगभग 35 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं स्वरोजगार कर रही हैं। जिंसमे वेतन की नियमित गारंटी नहीं है। इस बात की अधिक संभावना है कि ये स्व-नियोजित महिलाएं लंबे समय तक कमजोर समूह में पड़ी रह सकती हैं क्योंकि उन्हें किसी भी संकट के दौरान धन प्राप्त करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।  इंटरनेशनल फाइनेंस कॉरपोरेशन स्टडी (2019) के अनुसार, ऋण के लिए आवेदन करने वाली महिला उद्यमियों को पुरुषों (8 प्रतिशत) की तुलना में दोगुने से अधिक अस्वीकृति (19 प्रतिशत) का सामना करना पड़ता है।  इसलिए, इस बात की बहुत कम संभावना है कि ऐसी पृष्ठभूमि वाली महिलाओं को ऋण देकर,  उन्हें और मज़बूत तथा आत्मनिर्भर बनाया जाय, जब तक कि सरकार और बैंकों की नीतियां उन्हें ऐसा करने में सक्षम नहीं बनातीं हैं ।

शासी निकाय के आधार पर कार्यस्थल की आठ श्रेणियां तय की गयी हैं।  ये महिला स्वामित्व, पुरुष स्वामित्व, नियोक्ता के घर, सार्वजनिक या निजी लिमिटेड कंपनी, एक ही घर के सदस्य के साथ साझेदारी, सरकार की सेवा में हैं, या स्थानीय निकाय, ट्रस्ट या गैर-लाभकारी संस्थान और अन्य हैं।  लगभग 39 प्रतिशत कमजोर समूह, महिलाओं के स्वामित्व में काम करता है। इंटरनेशनल फाइनेंस कॉरपोरेशन स्टडी (2019) की इसी रिपोर्ट के अनुसार, भारत में महिला उद्यमियों की कुल संख्या का धन की आवश्यकता का 70 प्रतिशत से अधिक कभी पूरा नहीं होता है। धन की कमी बनी रहती है। इस देश में महिला उद्यमियों को न केवल वित्तीय अनुपलब्धता के संकट का सामना करना पड़ता है, बल्कि सक्षम नेटवर्क की अनुपस्थिति, लैंगिग पूर्वाग्रह, सामाजिक मानदंडों, प्रतिबंधित गतिशीलता जैसी समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है।  

लगभग 25 प्रतिशत कमजोर समूह की महिलायें, पुरुषों के स्वामित्व में काम करती हैं।  अब, ये सभी स्वामित्व एमएसएमई क्षेत्रों का हिस्सा हैं।  यह स्पष्ट है कि ये क्षेत्र महामारी के दौरान बुरी तरह प्रभावित हुए हैं और अभी भी अपनी कोरोना पूर्व की स्थिति में वापसी के लिए संघर्ष कर रहे हैं।  एमएसएमई क्षेत्रों को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न राहत पैकेज सरकार ने दिए हैं।  यह सेक्टर निश्चित रूप से भविष्य में आर्थिकी के प्रमुख क्षेत्रों में से एक होगा और इससे कमजोर समूह की कामकाजी महिलाओं की स्थिति में सुधार होगा। लेकिन यह होगा कब, यह अभी नहीं कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त, कमजोर समूह की लगभग 20 प्रतिशत महिलाएं नियोक्ता के घर के लिए काम करती हैं, यानी इस कमजोर समूह की 20 प्रतिशत महिलाएं नौकरानी, रसोइया, गवर्नेस आदि घरेलू सहायकों के रूप में काम करती हैं। ऐसी श्रेणियों की नौकरियां लॉकडाउन के दौरान पूरी तरह से बाधित हो गई थीं और इन नौकरियों में काफी कमी आई है। कोविड के पूर्व की बेहतर स्थिति कब तक आती है, इसे अभी कहना मुश्किल है। 

भारत में 28 राज्य और 8 केंद्र शासित प्रदेश हैं। सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक कारकों के संदर्भ में सभी क्षेत्र विशिष्ट रूप से एक दूसरे से भिन्न भिन्न हैं।  इसलिए हर राज्य की कामकाजी महिलाओं की स्थिति दूसरे राज्य से अलग होती है। प्रत्येक राज्य में उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत अलग अलग है। जिन राज्यों में उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में कामकाजी महिलाओं की हिस्सेदारी (50 प्रतिशत से अधिक) अधिक है, वे ज्यादातर भारत के दक्षिणी भाग (तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र) से हैं, कुछ भारत के उत्तरी भाग (पंजाब,  हरियाणा, उत्तर प्रदेश और गुजरात) और शेष भारत के पूर्वी भाग (पश्चिम बंगाल, सिक्किम और मणिपुर) से हैं।  इसलिए, इन सभी राज्यों को अपनी कामकाजी महिलाओं की नौकरियो की संख्या को देखते हुए, वे महामारी से प्रभावित होने का उच्च जोखिम क्षेत्र में आती है।  केवल तीन राज्यों, उत्तरांचल, बिहार और अरुणाचल प्रदेश में 30 प्रतिशत से भी कम कामकाजी महिलाएं हैं जो उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में भाग लेती हैं।  इसलिए, महामारी के दौरान महिलाओं को देखते हुए इन तीन राज्यों में काम करने का जोखिम कम है। 

दो राज्यों, मणिपुर और मिजोरम में उच्च गरीबी दर है जो कामकाजी महिलाओं के बीच कमजोर समूह की अधिक उपस्थिति को यथोचित रूप से परिभाषित करती है।  दिलचस्प बात यह है कि तेलंगाना और सिक्किम दोनों में महिला कार्यबल की भागीदारी की दर बहुत अधिक है और गरीबी दर कम है।  इसलिए, कमजोर समूह की उच्च उपस्थिति का एकमात्र स्पष्टीकरण कार्यस्थल पर लिंग भेद द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।  हालांकि महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा काम कर रहा है लेकिन वे उच्च जोखिम वाली नौकरी और कम आय के साथ काम कर रही हैं। 

पारंपरिक अर्थव्यवस्था की तरह, नई उभरती हुई गिग अर्थव्यवस्था ने अतिरिक्त रूप से बहुत कम महिलाओं को कार्यबल में नियोजित किया। गिग अर्थव्यवस्था से आशय रोजगार की ऐसी व्यवस्था से है जहां स्थायी तौर पर कर्मचारियों को रखे जाने के बजाए अल्प अवधि के लिए अनुबंध पर रखा जाता है। कुछ साल पहले जब बिना रोजगार सृजन के वृद्धि की बात कही जा रही थी, सरकार ने अस्थायी तौर पर सृजित होने वाले रोजगार यानी गिग अर्थव्यवस्था को अपनाया था। ऐसी अर्थव्यवस्था में, नौकरी छूटने और विषम वेतन का खतरा अधिक रहता है। इन परिस्थितियों में, पुरुषों की तुलना में महिलाओं की नौकरी छूटने का खतरा अधिक होता है क्योंकि उनमें से अधिकांश समान रूप से कम वेतन पर घरेलू काम ही करती हैं। बहुत सी महिलाओं ने अपनी आजीविका खोने के बाद सब्जियों को बेचने का विकल्प चुना है, जबकि उन्हें यह पता है कि, उन्हें इस काम मे, थोड़ा ही लाभ प्राप्त होगा। हालांकि ऐसे वेंडर्स या विक्रेताओं को कर्ज के रूप में धन के लिए आवेदन करने का प्राविधान है।  प्रधान मंत्री स्ट्रीट वेंडर की आत्मानिभर निधि (पीएम स्वानिधि) की योजना के तहत ₹ 10,000 के पूंजी ऋण का प्राविधान है, लेकिन उन्हें यह साबित करने की आवश्यकता है कि वे 24 मार्च, 2020 से पहले वेंडर थे। और साथ ही अन्य पेपर वर्क भी थे।  जैसा कि पहले ही चर्चा की जा चुकी है, एक महिला होने के नाते उस लगभग अप्राप्य ऋण तक पहुंचने में और भी मुश्किलें आती हैं।  

© विजय शंकर सिंह 

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